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Archive for मई, 2009

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छद्म पूँजी बनाम उत्पादक पूँजी

सन 2005-08 के दौरान अमेरिका में वित्तीय संस्थाओ की क्रियाशीलता बेहद बढ़ गई । संपत्ति बाजार में पैसा लगाया जाने लगा । संपत्ति की कीमतों में पागलपन की हद तक वृधि हुई । लोग और कंपनिया अंधाधुंध कर्जे लेने और देने लगे। कंपनियों ने अपनी मूल पूँजी के 25-30 गुना अधिक पूँजी कर्ज पर लेकर निवेश करना आरम्भ किया। अमेरिका के वित्तीय केन्द्र तथा सबसे बड़े स्टॉक बाजार ”वाल स्ट्रीट ” तथा अमेरिका की विशालतम चार सबसे बड़ी वित्तीय संस्थाओ ने अकूत पैमाने पर शेयर बाजार,प्रतिभूति बाजार ,गिरवी बाजार इत्यादि में भारी पैमाने पर पूँजी लगा दी ।

उधर उत्पादक उद्यम और उत्पादक पूँजी अपेक्षित कर दी गई।
ऐसे में वित्तीय अर्थव्यवस्था के ”बैलून” को कभी न कभी फूटना ही था।
इस बार ”अति उत्पादन ” का संकट उतना स्पष्ट नही दिखाई सेता है क्योंकि वितरण एवं सेवा दोनों का चक्र बड़ी तेजी से काम कर रहा है।

संकट और मंदी का चक्र अब उत्पादन के क्षेत्र में प्रवेश कर रहा है। ‘बेल आउट’ और राज्य द्वारा हस्तक्षेप

1929-33 की महामंदी के दौरान और उसके बाद जान मेनार्ड केन्स और शुम्पीटर जैसे पश्चिम के पूंजीवादी अर्थशास्त्रियो ने संकट से उभरने के लिए राज्य के हस्तक्षेप का सिधान्त प्रस्तुत किया था। खासतौर से केन्स इस सिधान्त के लिए जाने जाते है । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद , खासतौर पर पिछले दो दशको में पश्चिम में तथाकथित उदारवादी सिधान्तो की बाढ़ आई हुई है जिसके तहत राज्य से अर्थतंत्र से बहार जाने के लिय कहा गया। उससे पहले और अब आर्थिक मंदी के दौर राज्य से फिर अर्थतंत्र के हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया गया है। साम्राज्यवादी राजनैतिक अर्थशास्त्र भी चक्रीय दौर से गुजरता है।

सर्वविदित है की अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशो में सरकारें खरबों डॉलर का विशेष कोष लेकर बड़े इजारेदार उद्यमों और वित्त पूँजी को बचने मैदान में उतर रही है। इस राहत कार्य को ‘बेल-आउट’ कहा जा रहा है। चीन की सरकार भी 600 अरब डॉलर का कोष बना चुकी है।

छद्म पूँजी पर अंकुश की आवश्यकता

दूसरे शब्दों में पूंजीवादी और साम्राज्यवाद का संकटाप्रन्न आर्थिक चक्र आज इस मंजिल में पहुँच गया है जहाँ राज्य और सरकारों द्वारा वित्तीय पूँजी पर अंकुश लगाना बहुत जरूरी हो गया है। वित्त पूँजी अर्थात छद्म पूँजी तथा उस पर आधारित ‘कैसीनो’ पूँजीवाद का प्रभुत्व कम करने और उन पर अंकुश लगाने के लिए राज्य द्वारा उत्पादन को सहायता देना आवश्यक है साथ ही अर्थतंत्र के उत्पादक हिस्सों कल कारखानों ,उद्यमों ,खेती,इत्यादि का विकास और उत्पादन जरूरी है। तभी जाकर मुक्त मुद्रा को वस्तुओं द्वारा संतुलित किया जा सकता है।

जाहिर इस दिशा में सम्पूर्ण आर्थिक नीतियाँ बदलने की आवश्यकता है।
भारत जैसे देशो ने दर्शा दिया है कि सार्वजानिक क्षेत्र का निर्माण देश के अर्थतंत्र के लिए कितना महत्वपूर्ण है। आज सार्वजनिक क्षेत्र और आधुनिक मशीन तथा ओद्योगिक एवं कृषि उत्पादन का निर्माण और विकास विश्व आर्थिक संकट से बचने के सबसे अच्छी उपाय है।

छद्म पूँजी के बनिस्बत वास्तविक पूँजी का विकास आवश्यक है ।

-अनिल राजिमवाले
मो नो -09868525812

लोकसंघर्ष पत्रिका के जून अंक में प्रकाशित ।

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जब छोटा था तब माँ की शैया गीली करता था।
अब बड़ा हुआ तो माँ की आँखें गीली करता हूँ ॥
माँ पहले जब आंसू आते थे तब तुम याद आती थी।
आज तुम याद आती हो……. तो पलकों से आंसू छलकते है……. ॥

जिन बेटो के जन्म पर माँ -बाप ने हँसी खुशी मिठाई बांटी ।
वही बेटे जवान होकर आज माँ-बाप को बांटे …… ॥
लड़की घर छोडे और अब लड़का मुहँ मोडे ……….. ।
माँ-बाप की करुण आँखों में बिखरे हुए ख्वाबो की माला टूटे ॥

चार वर्ष का तेर लाडला ,रखे तेरे प्रेम की आस।
साथ साल के तेरे माँ-बाप क्यों न रखे प्रेम की प्यास ?
जिस मुन्ने को माँ-बाप बोलना सिखाएं ……… ।
वही मुन्ना माँ-बाप को बड़ा होकर चुप कराए ॥

पत्नी पसंद से मिल सकती है ………. माँ पुण्य से ही मिलती है ।
पसंद से मिलने वाली के लिए,पुण्य से मिलने वाली माँ को मत ठुकराना……. ॥
अपने पाँच बेटे जिसे लगे नही भारी ……… वह है माँ ।
बेटो की पाँच थालियों में क्यों अपने लिए ढूंढें दाना ॥

माँ-बाप की आँखों से आए आंसू गवाह है।
एक दिन तुझे भी ये सब सहना है॥
घर की देवी को छोड़ मूर्ख ।
पत्थर पर चुनरी ओढ़ने क्यों जन है…. ॥

जीवन की संध्या में आज तू उसके साथ रह ले ।
जाते हुए साए का तू आज आशीष ले ले ॥
उसके अंधेरे पथ में सूरज बनकर रौशनी कर।
चार दिन और जीने की चाह की चाह उसमें निर्माण कर ……. ॥

तू ने माँ का दूध पिया है ………….. ।
उसका फर्ज अदा कर ……………… ।
उसका कर्ज अदा कर ………………. ।

-अनूप गोयल

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हाल हमरो न पूछौ बड़ी पीर है।
का बताई के मनमा केतनी पीर है।
बिन खेवैया के नैया भंवर मा फंसी-
न यहै तीर है न वैह तीर है।

हमरे मन माँ वसे जैसे दीया की लौ
दूरी यतनी गए जइसे रतिया से पौ,
सुधि के सागर माँ मन हे यूं गहिरे पैठ
इक लहर जौ उठी नैन माँ नीर है –

का बताई की मन मा केतनी पीर है……

सूखि फागुन गवा हो लाली गई,
आखिया सावन के बदरा सी बरसा करे ,
राह देखा करी निंदिया वैरन भई –
रतिया बीते नही जस कठिन चीर है।

का बताई की मन मा केतनी पीर है……

कान सुनिवे का गुन अखिया दर्शन चहै,
साँसे है आखिरी मौन मिलिवे कहै,
तुम्हरे कारन विसरि सारी दुनिया गई-
ऐसे अब्नाओ जस की दया नीर है।

का बताई की मन मा केतनी पीर है……

डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल ‘राही ‘

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युद्धोत्तरकाल में आर्थिक चक्र की विशेषताएं

इस प्रकार पूंजीवादी अर्थव्यवस्था और स्वयं दो विरोधी अंतर्विरोधी ध्रुवो में ध्रुवीकृत हो जाती है । उत्पादन से ही जनित वित्त पूँजी अब उत्पादन से जितनी दूर हो जाने की कोशिश करती है । पश्चिमी देशो के बड़े पूँजीवाद और नव-साम्राज्यवाद में एक नई विशेषता पैदा हो जाती है। वह वित्तीय और शेयर बाजार से ही अधिकाधिक मुनाफा कमाने का प्रयत्न करता है । फलस्वरूप ओद्योगिक एवं उत्पादक क्षेत्र की अधिकाधिक उपेक्षा होती जाती है।

यहाँ आज की विश्व अर्थव्यवस्था की कुछ खासियतो पर ध्यान देना आवश्यक हो जाता है । तभी हम वर्तमान आर्थिक मंदी की भी ठीक से व्याख्या कर पायेंगे। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की जो सबसे महत्वपूर्ण घटना है वह है वैज्ञानिक और तकनीकी क्रांति ( संक्षेप में अंग्रेजी अक्षरो से बना एस.टी.आर ) इस क्रांति और इसके तहत हुई संचार क्रांति ने विश्व बजार को एक दूसरे से जोड़कर स्थान और काल का अन्तर समाप्त कर दिया। इलेक्ट्रोनिक्स और कम्प्यूटर पर आधारित इस क्रांति ने नई उत्पादक शक्तियों को जन्म दिया। नई इलेक्ट्रोनिक मशीनों और उपकरणों की उत्पादकता पहले से कई गुना अधिक थी। उद्योगों ,बैंकिग ,वित्तीय संस्थाओ ,कार्यालयों इत्यादि के कार्य-कलापों की गति में असाधारण तेजी आ गई । दूसरे शब्दों में धन ,मुद्रा और पूँजी का उत्पादन कई गुना बढ़ गया तथा अत्यन्त द्रुत गति से होने लगा।

वित्तीय हितों ने इन घटनाओ का प्रयोग अपने हितों में किया । हालाँकि अन्य प्रकार की गतिविधियाँ बढ़ी लेकिन वित्तीय पूँजी और एकाधिकार कारोबार में असाधारण तेजी आई । साथ ही यह भी नही भूला जाना चाहिए की छोटे और मंझोले कारोबार में भारी तेजी आई । इजारेदारी और वित्त के विकास पर एकतरफा जोर नही दिया जाना चाहिए।

एक अन्य घटना थी बाजार और मुद्रा वस्तु विनिमय प्रथा मुद्रा-मुद्रा विनिमय में असाधारण तेजी । पहले नोटो,मुद्राओ ,सोना,इत्यादि से लेन-देन हुआ करता था। आज भी होता है। लेकिन आज की तकनीकी क्रांति के युग में मुद्रा के नए इलेक्ट्रोनिक्स स्वरूप विकसित हो रहे है। इलेक्ट्रोनिक्स मुद्रा,स्मार्ट कार्ड ,ए .टी .ऍम कार्ड ,कम्पयूटरों एवं मोबाइल के जरिये लेन-देन ,इ-मेल तथा इन्टरनेट का बड़े पैमाने पर प्रयोग इन नए मौद्रिक उपकरणों ने धातु और कागज की मुद्रा की भूमिका लगभग समाप्त कर दी है। अब अधिकाधिक लेन इलेक्ट्रोनिक संकेतो से होता है।

इससे जहाँ छोटे उद्धम को फायदा हुआ है वहीं वित्त पूँजी ने अपना प्रभुत्व जमाने के लिए इसका भरपूर फायदा उठाया है। इलेक्ट्रोनिक्स संकेत प्रणाली से स्टॉक बाजारों और वित्त पूँजी का स्वरूप बदल गया है। एक तरह से इलेक्ट्रोनिक्स पूँजीवाद का जन्म हुआ है जिसमें व्यक्तिगत और छोटे उध्योद्ग से लेकर विशालकाय बहुद्देशीय कंपनिया और वित्तीय संस्थाएं कार्यशील है।

इसका फायदा वित्त पूँजी ने मुद्रा से मुद्रा और पूँजी से पूँजी कमाने के लिए किया है। इसमें आरम्भ में तो उसे असाधारण सफलता उसकी असफलता और धराशाई होने का कारण बना।

पिछले 25 -30 वर्षो में इतना बड़ा विश्व्यापी बाजार निर्मित हुआ है जितना की इतिहास में कभी नही हुआ था। पिछले बीस वर्षो में वास्तु -उत्पादन ,लेन-देन तथा मुद्रा की मात्र एवं आवाजाही में,यानी बाजार की गतिविधि में चार से पाँच गुना वृद्धि हुई है।

फलस्वरूप बाजार से मुनाफा कमाने ‘धन बनाने’ की रुझान में अभूतपूर्व वृधि हुई है ।

-अनिल राजिमवाले
मो.नं.-09868525812

लोकसंघर्ष पत्रिका के जून अंक में प्रकाशित होगा

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मुझ से यह सवाल हमारे एक भाई मे ई-मेल से पूछा था तो मै उस्का जवाब यहा दे रहा हू ।

सवाल :- कब्रों की ज़ियारत मज़ारों से वसीला लेना और (चढावे के तौर पर) वहां माल और दुंबे आदि ले जाने का क्या हुक्म है? जैसा कि लोग सय्यद अल-बदवी (सुडान में), हज़रत हुसैन बिन अली रज़ि ॒ (इराक में), और हज़रत जैनब रज़ि ॒ (मिस्र) कि कब्रों पर करते हैं । आप जवाब दें, अल्लाह आप के इल्म में बरकत दे । आमीन

जवाब :- कब्रों के ज़ियारत की दो किस्में हैं । पहली किस्म वह है जो कब्र वालों पर रहम व मेह्र्बानी करने, उनके लिये दुआ करने, मौत को याद रखने और आखिरत कि तय्यारी के लिये कि जाये । यह ज़ियारत जाइज़ है और ऐसी ज़ियारत की आवश्यक्ता भी हैं । क्यौंकि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहिंं वसल्लम का फ़र्मान है । आगे पढ़े

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वर्तमान विश्व संकट: कारण और स्वरूप
पिछले लगभग एक सदी में ओद्योगिक अर्थव्यवस्था में भारी परिवर्तन हो गए हैवित्त पूँजी उत्पादक पूँजी से अलग होकर स्वतन्त्र स्वरूप धारण कर चुकी हैविश्व दो महायुद्धो से गुजर चुका हैऔर उसका बहुत बड़ा आर्थिक कारण वित्त पूँजी है19 वी सदी के अंत तथा 20 वी के आरंभ में पश्चिम में विशाल इजारेदारियो एवं एकाधिकारियो का विकास हुआकार्टेल ,ट्रस्ट ,कारपोरेशन इत्यादि ने अर्थतंत्र को अपने हित में इस्तेमाल करना शुरू कियाअर्थात आर्थिक साम्राज्यवाद का जन्म हुआऐसी ही कंपनिया आगे चलकर बहुराष्ट्रीय कंपनियों ( ऍम .एन .सी ) में रूपांतरित हो हो गई

इजारेदारी और साम्राज्यवाद का एक महत्वपूर्ण आधार है ‘वित्त पूँजी’ इस शब्द का प्रयोग अक्सर ही लोग बिना सोचे समझे कहते है। लेकिन यह एक वैज्ञानिक सिद्धांत है। पश्चिम में हॉब्सन ,हिल्फर्डिंग ,लेनिन ,रोजा , लाक्सेम्बर्ग ,कार्ल कॉउस्की ने वित्त पूँजी और साम्राज्यवाद की अवधारणाएं विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की ।
जब ओद्योगिक पूँजी बैंकिंग की पूँजी के साथ मिल जाती है तो वह एक शक्तिशाली ताकत अर्थात वित्त पूँजी बन जाती है। वह समूचे अर्थतंत्र पर छा जाती है।

अर्थतंत्र की गति

ओद्योगिक विकास सीधी रेखा में गमन नही करता है। उसमें उतार-चढाव आते है। लेकिन ये उतार चढाव बेतरतीब नही होते उनकी एक निश्चित बारंबारता होती है जिसकी कालिक भविष्यवाणी की जा सकती है। अर्थतंत्र में उभार उच्चतर बिन्दु पर होता है । यह आर्थिक चक्र या चक्रीय विकास मार्क्स की खोजो में एक था।
एकाधिकार कारोबार और वित्त पूँजी इस चक्र को विकृत करते है । अब उसकी बारम्बारता में स्वाभाविकता नही रह जाती है। 1929 -33 की महामंदी ने सारे विश्व ,खास तौर पर यूरोप और अमेरिका को अपनी चपेट में ले लिया था । उत्पादन में भारी गिरावट ,मुद्रा का अवमूल्यन ,स्टॉक बाजारों का धराशाई होना ,और बेकारी इसकी विशेषताएं थी ।
यह वित्त पूँजी का दबदबा था जिसके ओद्योगिक और कृषि उत्पादों की कीमतें धराशाई हो गई ,खासकर छोटे एवं व्यक्तिगत उत्पादक बरबाद हो गए और ओद्योगिक व्यवस्था बिखर गई , इस प्रकार पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का एक हिस्सा ,वित्त पूँजी, अपने ही एक आत्म हिस्से ,ओद्योगिक अंश को नष्ट करने लगती है ।

-अनिल राजिमवाले

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19 वी सदी में यूरोप के देशो में ज्वाइंट स्टाक कंपनियाँ और फ़िर शेयर बाजार पैदा हुए। उद्योगों और प्रौधोगिकी तथा यातायात के विकास के साथ औधोगिक समाज एवं कल कारखाने फैलने लगे । 1870 में इस्पात बनाने के लिए ‘बेसीमर कन्वर्टर’ नमक नै किस्म की धमन भट्ठियों का आविष्कार किया गया। यहाँ से इस्पात युग शुरू होता है जिसने औद्योगिक और पूंजीवादी समाज को बदल डाला ।
इन घटनाओ के फलस्वरूप पूँजी और मुनाफे का उत्पादन बड़े पैमाने पर होने लगा। पूँजी एवं धन पूरे बाजार तथा अर्थतंत्र में चलायमान हो गई और उसने स्वतन्त्र रूप धारण कर लिया । शेयरों ,स्टाको ,बांङो,प्रतिभूतियों और बैंको की अलग प्रणाली अस्तित्व में आ गई। अब उद्यमी और कारोबारी कारखानों में ही नही बल्कि ,स्टॉक एवं शेयर बाजारों तथा वित्तीय संस्थाओ में अपने पैसे लगाने लगे । शेयर बाजार एक नई किस्म का बाजार था जहाँ पूँजी के टुकड़े (शेयर,स्टॉक) खरीदने ,बेचे जाने इसे ,ही मार्क्स vashtuvein ।
hi marks ने छद्म पूँजी कहा है। छद्म क्यों ? क्योंकि कारोबारी या उद्यमी लोग (पून्जिपति० कारखानों में पैसे नही लगते है जहाँ वाश्तुवें बनती है। वे स्टॉक बाजार ,वित्तीय संस्थाओ और बांको में धन लगाकर मुनाफा कमाने लगते है । धीरे-धीरे वे यह समझने लगते है कि उन्हें इन्ही बाजारों से मुनाफा मिलता है। या बांको से मुनाफा मिलता है । लेकिन आखिर बांको और वित्तीय संस्थाओ में ‘मुनाफा ‘यानी अतिरिक्त धन (पूँजी) कहाँ से आती है? वह कल कल्खानो से आती है।
स्टॉक और बांड या शेयर आखिरकार वस्तु ,उत्पादन का ही प्रतिनिधितिव करते है । लेकिन औद्योगिक पूँजीवाद क विकास से उत्पादन से इतनी दूर चले जाते है कि उनका उससे सम्बन्ध टूट जाता है और लोग यह समझ बैठते है कि उनका मुनाफा स्टॉक बाजार में पैदा होता है।

अनिल राजिमवाले

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दुनिया में अगर दर्द का मौसम नही होता –
चेहरों पे तबस्सुम का ये आलम नही होता ।

क्या चीज मुहब्बत है ये हम कैसे समझते –
अश्को से अगर दामने दिल नम नही होता ।

इक वो है की माथे पे हमावत है शिकने-
इक मैं हूँ कि किसी हाल में वह हम नही होता।

-डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल ‘राही ‘

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