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Archive for मई 13th, 2009

(हिन्दुस्तान अखबार से साभार )
पुलिस का मानवीय चेहरा
उत्तर प्रदेश में पुलिस का मानवीय चेहरा यह है कि पुलिस जुर्माने से दंडनीय अपराधो में थानों में लाकर जबरदस्त पिटाई करती है और पैसा वसूलती है कानून यह कहता है कि जुर्माने से दंडनीय अपराधो में मौके पर (जहाँ गिरफ्तारी दिखाई जाती है) जमानत दे दी जानी चाहिए लेकिन पुलिस रुपया वसूलने के लिए थानों में थर्ङ डिग्री का इस्तेमाल करती है । शासन प्रशासन और उच्च अधिकारियो का संरक्षण थानों कि पुलिस को प्राप्त होता है और हिस्सेदारी होती है । हमारी न्यायपालिका स्थानीय स्तर पर खामोश रहती है । कोई व्यक्ति विरोध नही कर सकता है न्याय पालिका के पास अवमानना से करने का मजबूत डंडा है । आम आदमी उत्पीडन से बचने का लिए जाए तो जाए कहाँ ? बेबस हम है ।

सुमन

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कभी कामना कामना को लजाये॥
चलो तृप्ति के द्वार डोली सजाएं॥

मुझे आइना जो दिखाने लगे वो-
कई सूरतो में दिखी लालसायें॥

तटों को बहाने चली धार मानी
मिटी रेत के गांव की भावनाएँ॥

उडे आंधियो के सहारे -सहारे –
मिटाती रही जिंदगी वासनाएं॥

उसी राह को खोज ले पस्त ”राही”
जहाँ जीव की माफ़ होती खताएं॥

डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल ”राही”

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प्रेम का इतना पवित्र वर्णन मख्दूम ही कर सकते थे यहाँ पर खुदा का मुस्कुरा देना कवि की मासूमियत की पुष्टि करता है
यह कहा जा सकता है की माख्दूम का कवि जितना अवामी लडाइयो में मुब्तला था,निजामशाही साम्राज्य को उखाड़ फेकने की जिसने तहरीक चलाई थी ,वहीं उसने अपने क्रन्तिकारी साथियों के साथ भारत की स्वतंत्रता के लिए जान बाजी पर लगा थी। मख्दूम के सर पर उस वक्त पाँच हजार का इनाम था । मख्दूम भूमिगत थे। वे सशस्त्र घुमते थे।

एक होकर दुश्मनों पर वार कर सकते है हम

एक अन्य शेर में वे कहते है

पानी में लगी आग परेशान है मछली
कुछ शोला बदन उतरे है पानी में नहाने…”

इसी तरह तेलंगना की नारी को संबोधित ”तेलंगना ” शीर्षक की कविता ग्रामीण युवती के भोलेपन को उसकी लज्जा को ख़ुद में स्वर देती है-

फिरने वाली खेत की मेङों पर बलखाती हुई
नर्मो शिरी कहकहों के फूल बरसाती हुई
कंगनों से खेलती औरो से शर्माती हुई
अजनबी को देखकर खुश मत हो गए जा
हां तेलंगना गाए जा,बांकी तेलंगन गए जा

झोपडी की लडाई के योधा मख्दूम की बागी नज्म उन कविताओं में है ,जिस समय वे निजाम हुकूमत के
ख़िलाफ़ अपने सर पर कफ़न बाँध कर निजाम स्टेट के स्वतन्त्र भारत में विलय कराने के लिए लड़ रहे थे। स्वतंत्रता न्याय और साम्य के प्रति अपना जीवन समर्पित करने वाले मख्दूम सौन्दर्य और प्रेम के प्रति भी आशक्त रहे है । तभी तो ख्वाजा अहमद अब्बास ने उनके बारे में कहा था-”मख्दूम एक धधकती ज्वाला थे और ओस की ठंडी बूंदे भी । वे क्रांतिकारी छापामार की बंदूख थे और संगीतकार का सितार भी। वे बारूद की गंध थे और चमेली की महक भी। ”
बच्चे की मौत पर ,माँ को पूरसा,हवेली आदि कवितायें शोषित मानव के पक्ष में परम्परा के अंधेरे में होने वाले अत्याचारों का विरोध करती है। ”जंगे आजादी” उत्कृष्ट राष्ट्रिय रचनाओ में अपनी विशिष्ट पहचान रखती है।
मखदूम ने तीन कविताओं के अनुवाद किए है जो अपनी विशिष्ट शैली और कोमल विचारो को लिए हुए साहित्य में अपना स्थान रखते है। यह कलात्मक अनुवाद की भारतीय कविता में पहली पहल थी । तातरी शायर जम्बूल जाबर की कविता का भी उन्होंने अनुवाद किया है-
क्या में इस रज्म का खामोश तमाशाई बनूं
क्या मैं जन्नत को जहन्नुम के हवाले कर दू
क्या मुजाहिद बनूं?
वजा मैं तलवार उठाऊ वतन की खातिर
मेरे प्यारे, मेरे फिरदौस बदन की खातिर। ”

दूसरा अनुवाद अंग्रेजी कवियत्री इंदिरा देवी धनराज़गीर की दो कविताओं का है । ”हम दोनों” और ”फासले” शीर्षक से मख्दूम ने इन कविताओं का अनुवाद किया है।
फासले एक प्रभावी कविता है, जिससे गुजरते हुए पाठक ठहर- ठहर कर आगे बढ़ता है । एक धीमी सुलगती लय और विरही शब्दों की भाषा से यह कविता जिंदगी की सच्चइयो को उजागर करती है।
जिंदगी नौके सीना
जिंदगी मिस्ले सना ,जिस्म में जा में उतर जाती है
जिंदगी सूद जियां
जिंदगी एक दोधारी तलवार
काट देती है जुम्बिशे लब
नफो जहर,सूदों जिया
प्यार कर जाते है कट जाती है जां
”हम दोनों में पाठक रचना की मूल कवियत्री और अनुवादक कवि के बीच कोई फर्क नही पता है। कारण दोनों में प्रेम साम्य है। समझदारी है। और संबंधो को दोस्ती और खूबसूरत भविष्य देने की रचनात्मक ताकत भी थी-

रात है बातें है सरगोशी है
तू है मैं हूँ
अपने गुथे हुए गम के बंधन
सब के सन्नाटे में
जाग उठते है तड़प जाते है चिल्लाते है
गर्म गर्म आंसू
दुलक जाते है रुखसारों पर
जिंदगी यादो का मीनार बना लेती है। ”

जब जहां बाग़ पैलेस हैदराबाद में इंदिरा धनराज़गीर के यहाँ बाल डांस पार्टी थी,उसमें मख्दूम भी शामिल थे। दूर बैठे रक्श देख रहे थे -वहीं ‘विसाते रक्श’ नज्म हुई थी ।
मख्दूम ने गगारिन पर और लुमुभ्बा के कत्ल पर भी नज्में लिखी । हरेक जुल्म के ख़िलाफ़ लिखा । हरेक प्रगति का स्वागत करती हुई कविताएँ रची। गजले भी कहीं ,नई जमीन पर लिखी उन की गजले फिल्मो में भी ली गई-”फिर छिडी रात बात फूलो की” बाजार फ़िल्म और ”एक चमेली के मुंङवे तले, दो बदन प्यार की आग में जल गए”-चा चा चा फ़िल्म में मशहूर हुई।
मख्दूम मोहिउद्दीन आज भी प्रासंगिक है। उनकी जन्मशती का समापन हो रहा है ,एक और मुक्तिबोध की जन्मशती के प्रारम्भ होने के अवसर आ रहा है।

-शाशिनारायण स्वाधीन

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