Feeds:
पोस्ट
टिप्पणियाँ

Archive for सितम्बर 15th, 2009

अपने समकालीन रचनाकारों में मुद्राराक्षस प्रारम्भ से ही चर्चित रहे हैं। कभी अपनी विशिष्ट आदतों के कारण, कभी अपनी हरकतों के कारण तो कभी अपने विवादास्पद लेखन के कारण।
अब से एक दशक पूर्व रचना प्रकाशन की दृष्टि से मुद्राराक्षस अपने समकालिक रचनाकारों से भले ही पीछे रहे हों, किन्तु आज की तारीख में वे अपने समकालिक ही नहीं बल्कि वर्तमान हिन्दी साहित्य के लेखकों के बीच रचना प्रकाशन की दृष्टि से और अपने बहुआयामी लेखन के जरिये राष्ट्रीय ही नहीं वरन अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर खासे महत्वपूर्ण हैं, जबकि इधर के दशकों में उनका कोई उपन्यास नहीं प्रकाशित हुआ है। वे अपनी कहानियों, आलोचना का समाजशास्त्र, कालातीत संस्मरण तथा धर्मग्रन्थों का पुनर्पाठ के जरिये लगातार चर्चा में हैं। सच पूछो तो वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य पर न तो उनके कद का कोई रचनाकार ठहरता है और न उनका कद्दावर ही। यदि हमें दो चार रचनाकारों के नाम लेने ही हों यथा नामवर सिंह तो वे केवल हिन्दी आलोचना क्षेत्र की प्रतिभा हैं, श्री लाल शुक्ल केवल कथा लेखन के क्षेत्र के हैं, इसी तरह रवीन्द्र कालिया और ज्ञान रंजन आदि एक सीमित विधा के महारथी हैं। जबकि मुद्राराक्षस ने कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना और अपने सामाजिक राजनीतिक चिन्तन परक लेखों के जरिये इन सभी क्षेत्रों में एक सार्थक हस्तक्षेप किया है। उनके लेखन ने साहित्य और समाज को खासा आन्दोलित, प्रभावित और परिवर्तित किया है। मुझे नहीं लगता वर्तमान हिन्दी साहित्य में उनके समकक्ष कोई अन्य लेखक पहुँचता हो।
इधर के वर्षों में मुद्राराक्षस अपने अखबारी कालम और विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अपने हिन्दू धर्म विरोधी लेखों के कारण सुर्खियों में रहे हैं। जिसकी एक परिणति ‘धर्म ग्रंथों का पुनर्पाठ’ में दिखायी देती है। उनकी वचन बद्धता ईसाई और मुस्लिम धर्म के पुनर्पाठ के प्रति भी है। ईसाई धर्म को लेकर ‘गास्पेलों का पुनर्पाठ’ पुस्तक बाजार में उपलब्ध है और इसका एक अंग्रेजी एडीशन इंग्लैण्ड से भी प्रकाशित हो रहा है।
धर्मग्रन्थों का पुनर्पाठ से लेकर गास्पेलों का पुनर्पाठ तक आते-आते मुद्राराक्षस की मुद्रा निरन्तर बदलती गयी है। लगता है इस्लाम धर्म के पुनर्पाठ तक पहुँचते-पहुँचते उनका यह तेवर कहीं मक्खन सा नम होकर उस पर महज पालिश भर न रह जाये।
जिन लोगों ने धर्म ग्रंथों का पुनर्पाठ पढ़ा था, सराहा था। विरोध दर्ज कराया था, वे लोग मुद्राराक्षस के तेज तर्रार विवेचन-विश्लेषण, तर्काश्रित मुहावरे, विभिन्न तथ्यों के प्रति उनका बेबाक निजी दृष्टिकोण के कायल हुए बिना न रह सके थे। जिसमें एक खास था-उनका हिन्दू धर्मग्रंथों के प्रति अनुदार, पूर्वाग्रह युक्त हठधर्मी दृष्टिकोण। जिसमें उन्होंने कई बार तथ्यों को तोड़ मरोड़कर अपनी बात सिद्ध करने का प्रयास किया। इन गुणों से आकर्षित होकर जब कोई पाठक ‘गास्पेलों का पुनर्पाठ’ की यात्रा के अन्तिम पड़ाव तक पहुँचता है तो उसे इनमें से बहुत कम गुण इस पुस्तक में मिलते हैं और अन्त तक मुद्राराक्षस ईसाई धर्म का पुनर्पाठ तो कम बल्कि उल्टे मसीहाई प्रचारक की भूमिका में रंगे अवश्य दिखाई देने लगते हैं। यह बौद्धिक चालाकी भूमिका से ही दिखाई देने लगती है। जहाँ उन्होंने लिखा है कि हमारे लिए महत्वपूर्ण यह जानना है कि बाइबिल या कुरआन की बनावट या उनके चरित्र में कोई युद्धोन्मादी या युद्ध के लिए उकसाने वाले तत्व हैं। कहने का मतलब धर्मग्रंथों का पुनर्पाठ में उन्होंने वेदों से लेकर शंकराचार्य तक के ग्रंथों का आलोचनात्मक अध्ययन किया था जबकि ईसाई और यहूदी धर्म के सन्दर्भ में मुद्राराक्षस ओल्ड टेस्टामेन्ट, न्यू टेस्टामेंट, मैथ्यू, लूक, आर्क और जान गास्पेल्स जैसे ग्रंथों का आलोचनात्मक पाठ न करके उसका सरल रेखीय पाठ कर उसे उद्धृत कर किया है। यहाँ पर वे ईसाई धर्म की उन पुस्तकों पर दृष्टि तक नहीं डालते जिन्होंने ईसा मसीह को विवाहित और सन्तान शुदा बताने के (दा विंची कोड और होली ब्लड होली ग्रेल) दावे प्रस्तुत किये हैं। आखिर उनके प्रति मौन क्यों? स्पष्ट है हम दूसरे धर्मों के ग्रंथों का चाहे जितना अध्ययन करें किन्तु वहाँ पर होते हम एक आउट साइडर ही हैं यही कारण है यह पुस्तक हिन्दी जगत को नहीं लुभा पा रही है।
हम एक छोटे से दृष्टान्त से उनकी कुन्द होती आलोचनात्मक दृष्टि को समझ सकते हैं कि वे ईसाइत के प्रति कितने नरम और धर्मभीरू तथा हिन्दू के प्रति किस कदर तीखे तेवर अपनाते हैं। मेरी अविवाहित माँ थी। जीसस का जन्म एक गैर विवाहिता की कोख से हुआ था। जोसेफ ने यह जानकर भी उससे विवाह कर लिया था। ऐसी स्त्रियों के प्रति यहूदी समाज कितना कठोर है, कैसी यातनाएं देता है इसका वे जिक्र तक नहीं करते बल्कि उन्हें तुलना के लिए भारत और राजस्थान याद आता है। जहाँ आज भी जन्म के समय ही लड़कियाँ मौत के घाट उतार दी जाती हैं, किन्तु मेरी का समाज कितना क्रूर था इसके विषय में वे चुप रहते हैं या संकेत भर करते हैं।
यहाँ जीसस और कुमारिल भट्ट का प्रसंग देखना दिलचस्प होगा, एक बार जीसस जेरूसलम मंदिर के शिखर पर ले जाये गये और कहा गया-यहाँ से कूदो अगर ईश्वर तुम्हें अपनी हथेली पर रोक लेगा तो हम तुम्हें मान लेंगे।
जीसस का जवाब देखें-ईश्वर का इम्तिहान नहीं लिया जाता। इसी तरह कुमारिल भट्ट और बौद्ध विद्वानों की बहस के बाद इसी से मिलता जुलता सवाल कुमारिल भट्ट से किया गया, अगर तुम मानते हो भगवान है तो तुम इस महल के कंगूरे से कूदो और कहो कि भगवान तुम्हें बचा ले।
कुमारिल ने चुनौती स्वीकार की और उनके पैर टूट गये। यहाँ मुद्राराक्षस का यह कहना कि कुमारिल अतार्किक और जीसस तार्किक थे। किन्तु विचारणीय बिन्दु यह था कि भगवान तुम्हें बचा ले, यानी की मृत्यु से रक्षा, चुनौती स्वीकार करके भी कुमारिल मरते नहीं जीवित रहते हैं।
ऐसे कितने ही प्रसंग मुद्राराक्षस की

बौद्धिक प्रतिभा पर सवाल खड़े करते हैं और अन्तिम अध्याय ‘एक निहत्थे का युद्ध’ अत्यन्त संवेदनात्मक होने के साथ उसे एक कहानी का स्वरूप दे दिया है जो अत्यन्त भावनात्मक है। वे जीसस के चमत्कारों पर खुश होते हैं और हिन्दू संतों के चमत्कारों पर आक्रोशित, आखिर क्यों? एक ही वस्तु के प्रति दो दृष्टिकोण अपनाने के चलते मुद्राराक्षस की मुद्रा एक ईसाई प्रचारक के रूप मंे ही अधिक बनती है।

-महंत विनयदास
मो0 09235574885

Read Full Post »

क्या मिलन विरह में अन्तर,
सम्भव जान पड़ते हैं।
निद्रा संगिनी होती तो,
सपने जगते रहते हैं॥

जीवन का सस्वर होना,
विधि का वरदान नही है।
आरोह पतन की सीमा,
इतना जग नाम नही है॥

मिट्टी से मिट्टी का तन,
मिट्टी में मिट्टी का तन।
हिमबिंदु निशा अवगुण्ठन,
ज्योतित क्षण भर का जीवन ॥

डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल ‘राही’

Read Full Post »

प्रमोद उपाध्याय इस तथाकथित लोकतंत्र के बारे में भी ख़ूब सोचते और बातें करते थे। उनके पास बैंठे तो वे लोकतंत्र की ऐसी-ऐसी पोल खोलते थे कि मन दुखी हो जाता और देश के राजनेताओं को जूते मारने की इच्छा होने लगती। प्रमोद जी बार-बार लोकतंत्र में जनता और सत्ता के बीच फैलती खाई की तरफ इशारा करते। उन्हीं के शब्दों में कहें तो-लोकतंत्र की बानगी देते हैं हुक्काम/टेबुल पर रख हड्डियाँ दीवारों पर चाम। ख़ुद मास्टर थे, लेकिन शिक्षा व्यवस्था पर टिप्पणी कुछ यो करते-
नई-नई तालीम में, सींचे गये बबूल
बस्तों में ठूसे गये, मंदिर या स्कूल
जब 1992 में बाबरी को ढहाया गया। प्रमोद जी ऐसे बिलख रहे थे जैसे किसी ने उनका झोपड़ा तोड़ दिया, जबकि प्रमोद जी न मंदिर जाते, न मस्जिद। प्रमोद जी ने साम्प्रदायिकता फैलाने वालों को मौखिक रूप से जितनी गालियाँ बकीं, वो तो बकीं ही, पर साम्प्रदायिक राजनीति पर अपनी रचनाओं में जी भर कटाक्ष भी किया। देखिए एक बानगी-
रामलला ओ बाबरी, अल्ला ओ भगवान
भूखे जन से पूछिये, इनमें से कौन महान
दीवारों पर टाँगना, ईसा सा इंसान
यही सोचकर रह गईं, दीवारें सुनसान और एक शेर है कि-
ख़ुदगर्जों का बढ़ा काफिला,
क़ौम धरम को उकसाकर
मोहरों से मोहरें लड़वाना इनका है ईमान मियाँ।
प्रमोद जी का जाना केवल देवास के लिखने पढ़ने वालों, उनके क़रीबी साथियों और परिवार के लोगों को ही नहीं सालेगा, बल्कि उनको भी सालेगा, जिन्हें प्रमोद जी गालियाँ बकते थे, जिनमें से एक मैं भी हूँ मैं उनसे पैतीस किलो मीटर दूर इन्दौर में रहता हूँ। लेकिन मुझे नियमित रूप से सप्ताह में दो तीन बार फोन लगाते और कभी दस मिनट, कभी आधे घण्टे तक बातें करते, बातों में चालीस फीसदी गालियाँ होतीं। जब मैं उनसे पूछता-सर, आप मुझे गाली क्यों बक रहे हो? हर बार उनके पास कोई न कोई कारण होता और मैं फिर अपनी किसी भूल-ग़लती पर विचार करता।
प्रमोद जी पिछले दो-तीन सालों से अपनी आँखों की पूर्ण रूप से रोशनी खो बैठे थे। मेरी कोई कहानी छपती तो वे बहादुर या किसी और मित्र से पाठ करने को कहते। वे कहानी का पाठ सुनते। सुनते-सुनते अगर कोई बात खटक जाती, तो पाठ रूकवा देते और बहादुर से कहते उसे फोन लगा।
फोन पर तमाम गालियाँ देते और कहते-अगली बार ऐसी ग़लती की तो बीच चैराहे पर ‘पनही’ मारूँगा, मुझे बेबस ‘बोंदा बा’ मत समझना। कहानी में कोई बात बेहद पंसद आ जाती तो भी पाठ रुकवा देते। फिर फ़ोन पर गालियाँ देते और कहते- सत्तू …. मुझे तुझसे जलन हो रही है, इतनी अच्छी बात कही इस कहानी में। मैं शरीर से लाचार न होता, तो मैं तुझसे होड़ाजीबी करता। मेरे बाप ने या मेरे किसी दुश्मन ने भी मुझे इतनी गालियाँ नहीं बकी, जितनी प्रमोदजी ने बकी। वे उन गालियों में मुझे कितने मुहावरे, कहावते और कितना कुछ दे गये। लेकिन वह खोड़ली कलमुँही रात सई साँझ से ही मौक़े की ताक में काट रही थी चक्कर। और फिर जैसे साँझ को द्वार पर ढुक्की लगाकर बैठ जाती है भूखी काली कुतरी। बैठ गयी थी वह, और मौक़ा पाते ही क़रीब पौने बारह बजे लेकर खिसक ली। उसने जाने किस बैर का बदला लिया। उनकी गालियाँ सुनने की लत पड़ गयी थी मुझे। लेकिन अब मुझे गाली ही कौन देगा…? प्रमोद जी को भीगी आँखें और धूजते हृदय से श्रद्धांजलि।
प्रमोद उपाध्यायजी की स्मृति में सत्यनारायण पटेल की रचनाः-
सच के एवज में
अपरिपक्व और भ्रष्ट लोकतंत्र में झूठ को सच का जामा पहनाने को
कच्ची-पक्की राजनीतिक चेतना से सम्पन्न होते हैं इस्तेमाल सदा सच के खिलाफ़
जैसे भूख और हक़ के पक्ष में लड़ने और जीवन दाँव पर लगाने वालों के विरूद्ध सलवा जुडूम
जैसे भूख से मरे आदिवासियों का सवाल पूछने पर आपरेशन लालगढ़
जैसे काँचली आये लम्बे साँप की भूख निगलने लगती अपनी ही पूँछ

कभी-कभी प्रगतिशील गीत गाने वाले संगठन का मुखिया भी बन जाता है हिटलर का नाती
जब चुभने लगते हैं उसकी आँख में उसी के कार्यकर्ता के बढ़ते क़दम
तब साम्राज्यवाद की नाक पर मुक्का मारने से भी ज्यादा जरूरी हो जाता है
कार्यकर्ता को ठिकाने लगाना
और जब सार्वजनिक रूप से, क़त्ल किया जाता है कार्यकर्ता
शक करने, सवाल पूछने, भ्रष्ट और साम्राज्यवादी दलालों के चेहरे से नक़ाब खींचने के एवज में
तब कुछ क़त्ल के पक्ष में चुप-चाप गर्दन हिलाते खड़े रहते हैं
कुछ डटकर खड़े हो जाते हैं क़ातिल के सामने
मुट्ठियों को भींचे, दाँत पर दाँत पीसते
कुछ ख़ुद को चतुरसुजान समझ मौन का घूँघट काढें़ खड़े होते हैं तटस्थ
क़त्ल के बाद
कुछ ‘हत्यारा कहो या विजेता’ के किस्से सुनाते हैं
कुछ क़त्ल होने वाले की हरबोलों की तरह साहस गाथा गाते हैं
तब भी चतुर सुजान तटस्थ हो देखते-सुनते हैं
वक्त सुनायेगा एक दिन उनकी कायरता के भी क़िस्से।

समाप्त

सत्यनारायण पटेल,
मो0-09826091605

Read Full Post »

वह खोड़ली कलमुँही (6 अगस्त 09) रात थी, जब प्रमोद उपाध्याय जी ज़िन्दगी की फटी जेब से चवन्नी की तरह खो गये। प्रमोद जी इतने निश्छल मन थे कि कोई दुश्मन भी कह दे उनसे कि चल प्रमोद…. एक-एक पैग लगा लें, तो चल पड़े उसके साथ। उनकी ज़बान की साफ़गोई के आगे आइना भी पानी भरे। अपने छोटे से देवास में मालवी, हिन्दी के जादुई जानकार। भोले इतने कि एक बच्चा भी गपला ले, फिर सुना है मौत तो लोमड़ी की भी नानी होती है न, गपला ले गयी। प्रमोद जी को जो जानने वाले जानते हैं कि वह अपनी बात कहने के प्रति कितने जिम़्मेदार थे, अगर उन्हें कहना है और किसी मंच पर सभी हिटलर के नातेदार विराजमान हैं, तब भी वह कहे बिना न रहते। कहने का अंदाज और शब्दों की नोक ऐसी होती कि सामने वाले के हृदय में बल्लम-सी घुप जाती। जैसा सोचते वैसा बोलते और लिखते। न बाहर झूठ-साँच, न भीतर कीच-काच।
उन्होंने नवगीत, ग़ज़ल, दोहे सभी विधा की रचनाओं में मालवी का ख़ूबसूरत प्रयोग किया है। रचनाओं के विषय चयन और उनका निर्वहन ग़ज़ब का है, उन्हें पढ़ते हुए लगता-जैसे मालवा के बारे में पढ़ नहीं रहे हैं बल्कि मालवा को सांस लेते। निंदाई-गुड़ाई करते, हल-बक्खर हाँकते, दाल-बाफला बनाते-खाते और फिर अलसाकर नीम की छाँव में दोपहरी गालते देख रहें हैं। मालवा के अनेक रंग उनकी रचनाओं में स्थाईभाव के साथ उभरे हैं। यह बिंदास और फक्कड़ गीतकार कइयों को फाँस की तरह सालता रहा है।
प्रमोद जी के एक गीत का हिस्सा देखिए-
तुमने हमारे चैके चूल्हे पर
रखा जबसे क़दम
नून से मोहताज बच्चे
पेट रह रहकर बजाते
आजू बाजू भीड़ उनके
और ऊँची मण्डियाँ हैं।
सूने खेतों में हम खड़े
सहला रहे खुरपी दराँते।
देवास जिले के बागली गाँव में एक बामण परिवार में (1950) जन्मे प्रमोद उपाध्याय कभी बामण नहीं बन सके। उनका जीने का सलीका, लोगों से मिलने-जुलने का ढंग, उन्हें रूढ़ीवादी और गाँव में किसानों, मजदूरों को ठगने वाले बामण से सदा भिन्न ही नहीं, बल्कि उनके खिलाफ़ रहा। प्रमोद जी सदा मज़दूरों और ग़रीब किसानों के दुख-दर्द को, हँसी-ख़ुशी को, तीज-त्यौहार को गीत, कविता, दोहे और ग़ज़ल में ढालते रहे। उनके कुछ दोहे पढ़ें-
सूखी रोटी ज्वार की काँदा मिरच नून
चाट गई पकवान सब थोड़ी सी लहसून
फ़सल पक्की है फाग में टेसू से मुख लाल
कुछ तो मण्डी में गई, कुछ ले उड़े दलाल

क्रमश :

-सत्य नारायण पटेल
मो0-09826091605

Read Full Post »