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Archive for सितम्बर 20th, 2009

ठाकुर का क्रिया-करम


“यह तो पाँच ही हैं मालिक ।”
“पाँच, नही, दस हैं। घर जाकर गिनना ।”
“नही सरकार, पाँच हैं ।”
“एक रुपया नजराने का हुआ कि नही ?”
“हाँ , सरकार !”
“एक तहरीर का ?”
“हाँ, सरकार !”
“एक कागद का ?”
“हाँ,सरकार !”
“एक दस्तूरी का !”
“हाँ, सरकार!”
“एक सूद का!”
“हाँ, सरकार!”
“पाँच नगद, दस हुए कि नही?”
“हाँ,सरकार ! अब यह पांचो भी मेरी ओर से रख लीजिये ।”
“कैसा पागल है ?”
“नही, सरकार , एक रुपया छोटी ठकुराइन का नजराना है, एक रुपया बड़ी ठकुराइन का । एक रुपया छोटी ठकुराइन के पान खाने का, एक बड़ी ठकुराइन के पान खाने को , बाकी बचा एक, वह आपके क्रिया-करम के लिए ।”

प्रेमचंद के गोदान से

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नव पिंगल पराग शतदल,
आशा विराग अभिनन्दन।
नीरवते कारा तोड़ो,
सुन मानस स्वर का क्रंदन॥

माया दिनकर आच्छादित,
अन्तस अवशेष तपोवन।
मानो निर्धन काया का ,
अनुसरण अधीर प्रलोभन॥

ये उल्लास मौन आसक्ति
भ्रम जीवन दीन अधीर।
सुख वैभव प्रकृति त्यागे,
मन चाहे कृतिमय नीर॥

डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल “राही”

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