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Archive for अक्टूबर, 2009

अपने देश में अंग्रेज व्यापारी बनकर आए थे और यहाँ के लोगों को लालच देकर उपहार देकर, घूष देकर देश के ऊपर कब्जा कर लिया था। उन्ही नीतियों से सबक लेकर अमेरिकन साम्राज्यवाद एशिया के मुल्को को गुलाम बनाने के लिए कार्य कर रहा है । अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई के भाई अहमद वली करजई को सी आई ऐ पिछले आठ सालों से वेतन दे रही है और अमेरिका की कठपुतली सरकार अफगानिस्तान में है । इसके पूर्व इराक़ में भी अमेरिकन साम्राज्यवादी लोग पत्रकारों, टेक्नोक्रेट्स , नौकरशाहो , न्यायविदों को रुपया देकर अपनी तरफ़ मिला कर इराक़ पर कब्जा किया था और ताजा समाचारों के अनुसार पाकिस्तान में अमेरिकन खुफिया एजेन्सी सी आई ऐ पैसा बाँट रही है और अपनी तरफ़ लोगों को कर रही है । पाकिस्तान में उसकी कठपुतली सरकार तो है लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था द्वारा चुनी गई सरकार है अमेरिकन साम्राज्यवाद जनता द्वारा चुनी गई सरकारों की मुख्य दुश्मन है । मुंबई आतंकी घटना के बाद अमेरिकी खुफिया एजेन्सी एफ बी आई और इजराइल की खुफिया एजेन्सी मोसाद अपने देश में कार्य कर रही है । निश्चित रूप से सी आई ऐ अपना कोई भी हथकंडा छोड़ने वाली नही है और अपने हितों के लिए इस देश के बुद्धजीवी तबको में से कुछ स्वार्थी तत्वों को रुपया व लालच देकर कार्य करने के लिए प्रेरित कर सकती है । इस लिए आवश्यक यह है की इनकी गतिविधियों पर सख्त निगाह रखी जाए व इनके हथकंडो से सावधान रहने की जरूरत है । क्योंकि यह लोग सी आई ऐ के लोग प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से लोगों को खरीद कर अपनी कठपुतली सरकारें बनाए का कार्य करती है ।

सुमन
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प्रिय साथियो!
चलिये समाज की कुरीतियों, विसंगतियों, झूठ व आडम्बर पर प्रहार करें। हमारे औजार हमारी संवेदनाएं, हमारी अनुभूतियां, हमारे अनुभव होंगे और इनको जो धार देगा निस्संदेह वह व्यंग्य होगा। आईये हमसे हाथ मिलाइये और करिए समाज की सफाई; क्योंकि अब ‘व्यंग्यवार्ता’ का शुभारम्भ हो चुका है। संभावित दूसरा अंक पुलिस विशेषांक होगा। कमर कसिए, कलम घिसिए और भेज दीजिए अपनी चुटीली रचनाएं। हम उन सभी का स्वागत करते हैं जिनकी मुट्ठी अभी भी भिचतीं है और जो समाज को सुन्दर, बेहतर और स्वस्थ देखना चाहते हैं……….।

शुभकामनओं सहित…!
आपका मित्र
अनूप मणि त्रिपाठी
सम्पादक
व्यंग्यवार्ता
24, जहाँगीराबाद मेंशन, हजरतगंज, लखनऊ, उत्तर प्रदेश
09956789394, 09451907315

anoopmtripathi@gmail.com

atulbhashasamwad@gmail.com

लोकसंघर्ष के सभी मित्रों से अनुरोध है की लखनऊ से प्रकाशित व्यंग वार्ता पत्रिका में अपने लिखे व्यंग भेजने का कष्ट करें ।

सुमन
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योरप केंद्रित बुद्धि फिर एक बार उजागर हुई जब स्वेडिस साइंस अकादमी ने अमेरिकी अर्थशास्त्री ऑलिवर विलियम्सन और एलिनर आस्त्राम को इस वर्ष के नोबेल पुरस्कार से नवाजा । सामूहिक संपत्ति और अर्थ प्रबंधन के क्षेत्र में तथाकथित नए सिद्धांत का आविष्कार के लिए इन दोनों अर्थ शास्त्रियो को नोबेल पुरस्कार दिया गया है। यह वैसा ही आविष्कार है, जैसा किसी समय किताब में छापकर स्कूली बच्चों को पढाया जाता था की कोलाम्बस और वास्को डी गामा ने भारत की खोज की, जबकि कोलंबस और वास्को डी गामा के पैदा होने के हजारो वर्ष पहले भी भारत अस्तित्व में था। योरप केंद्रित बुद्धि का यह एक नमूना है की जिस दिन योरापियों को भारत का रास्ता मालूम हुआ उसी दिन को वे भारत का आविष्कार मानते है।

सर्विदित है की नेपाल में तुलसी मेहर और भारत में गाँधी जी ने विकेन्द्रित स्वावलंबी ग्रामीण अर्थव्यवस्था का समेकित सिद्धांत विकसित किया । इसका उन्होंने कई क्षेत्रो में सफल प्रयोग भी किया। इस साल जब गाँधी जी की मशहूर पुस्तक हिंद स्वराज के प्रकाशन के सौ वर्ष पूरे होने की स्वर्ण जयंती मनाई जा रही है, तब स्वेडिस साइंस अकादमी को दो अमेरिकी अर्थशास्त्री के हवाले से पता चलता है की भारत और नेपाल में सामूहिक संपत्ति का सामूहिक नियमन किस प्रकार किया जा रहा है । तुलसी मेहर ने, जिन्हें ‘नेपाल का गाँधी’ कहा जाता था और स्वयं गाँधी जी ने सरकार और कारपोरेट से विलग ग्रामवासियों के अभिक्रम जगाकर स्थानीय श्रोत्रो पर आधारित समग्र विकास का वैकल्पिक विकेन्द्रित स्वावलंबी ग्राम व्यवस्था का तंत्र विकसित किया था। अखिल भारतीय चरखा संघ इसका उदाहरण था, जिसका नेटवर्क पूरे देश में फैला । बाद में विनोबाजी ने इस व्यवस्था का प्रयोग ‘ग्रामदान’ आन्दोलन के मध्यम से किया। डेढ़ सौ साल पहले काल मार्क्स ने मूल प्रस्थापना पेश की की उत्पादक शक्तियों का स्वामित्व समाज में निहित होना चाहिए । मार्क्स उत्पादन की शक्तियों पर समाज का सामाजिक स्वामित्व स्वाभाविक मानते थे, क्योंकि पूरा समाज इसका परिचालन करता है सम्पूर्ण समाज के लिए। राष्ट्रीयकरण सामाजिक स्वामित्व का स्थान नही ले सकता। राष्ट्रीयकरण को स्टेट काप्लेलिज्म कहा जाता है। क्म्मयुनिज़म में राज्य सत्ता सूख जाती है, फलत: सरकार का कोई स्थान नही होता है। साम्यवादी अवस्था में उत्पादन और वितरण व्यवस्था की भूमिका समाज का स्थानीय तंत्र निभाएगा।

भारत के प्रत्येक ग्राम में सामूहिक इस्तेमाल के लिए ‘गैर मजरुआ आम’ जमींन है, जिसका सामूहिक उपयोग गाँव की सामूहिक राय से होती है। राष्ट्रीय सैम्पल सर्वे के मुताबिक भारत की कुल भगौलिक क्षेत्र का 15 प्रतिशत ऐसी ही सामूहिक संपत्ति है, जिसका सामूहिक उपयोग चारागाह , तालाब, सिंचाई और जलावन की लकड़ी इकठ्ठा करने के लिए किया जाता है। यह बात अलग है कि सरकारी नीतियों के चलते ऐसी सामूहिक संपत्ति का नियंत्रण या तो सरकार ने स्वयं अधिग्रहण कर लिया है या सरकारी हलके में उसका प्रबंधन इधर किसी निजी कंपनी/संस्थान के हवाले करने की सरकारी प्रवित्ति बलवती हो गई है।
नेपाल के कतिपय गाँवों की सिंचाई व्यवस्था मछली पालन, चारागाह, तालाब प्रबंधन देखकर आस्त्राम ने सिद्धांत निकला की “सामूहिक संपत्ति का प्रबंधन इस संपत्ति के उपभोक्ताओं के संगठनों द्वारा किया जा सकता है।” उसी तरह ऑलिवर विलियम्सन निष्कर्ष निकला है कि विवादों के समाधान के लिए मुक्ति बाजार व्यवस्था से ज्यादा सक्षम संगठित कंपनियाँ होती हैं । विलियमन कहते है की मुक्त बाजार में झगडे और असहमतियां होती हैं। असहमति होने पर उपभोक्ता बाजार में उपलब्ध अन्य वैकल्पिक उत्पादों की तरफ़ मुद जातें हैं , किंतु मोनोपाली मार्केट की स्तिथि में खरीदार के समक्ष कोई विकल्प नही रहता । ऐसी स्तिथि में संगठित ट्रेडिंग फर्म्स स्वयं विवाद का संधान करने में सक्षम होती हैं। इस प्रकार विलियम्सन मुक्त बाजार को नियमित करने के लिए कंपनियों की भूमिका रेखांकित करते हैं । कंपनियाँ आपसी सहमति का तंत्र विकसित कर बाजार के विरोधाभाषों पर काबू पा सकते हैं । यहाँ यह ध्यान देने की बात है की आस्त्राम और विलियम्सन दोनों ही सरकारी हस्तचेप और सरकारी नियमन की भूमिका नकारते हैं और वे मुक्त बाजार व्यवस्था के विरोधाभासों के समाधान के लिए पूर्णतया निजी ट्रेडिंग कंपनियों के विवेक पर निर्भर हो जाते हैं।

लोकतंत्र में आम लोगों की निर्णायक भूमिका होती है वे अपनी मर्जी की सरकार चुनते हैं । ऐसी स्तिथि में बाजार को विनियमित कमाने के लिए सरकार की भूमिका के अहमियत है। लोकतंत्र में सरकारी नियमन लोक भावना की सहज अभिवयक्ति है। किंतु इसे स्वीकार करने में दोनों अर्थशास्त्रियों को परहेज है। जाहिर है, स्वेडिस साइंस अकादमी मूल रूप में शोषण पर आधारित निजी व्यापार की आजादी का पक्षधर है और मुक्त बाजार व्यवस्था में सरकारी हस्तक्षेप का विरोधी है। इसलिए नोबेल पुरस्कार प्राप्त दोनों ही अर्थशास्त्रियों की तथाकथित ‘नई खोज’ पूँजी बाजार समर्थक पुराने ख्यालात की री पैकेजिंग है।

सत्य नारायण ठाकुर

सुमन
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मालेगांव की आतंकी घटना में हिंदू आतंकी संगठनों के साथ सैन्य अधिकारियों का सम्बन्ध भी प्रत्यक्ष रूप से था । उसी प्रकार मडगांव (गोवा) विस्फोट में आरोपी कार्यकर्त्ता (हिंदू सनातन संस्था) ने बड़े-बड़े नेताओं, पुलिस अधिकारी सहित न्याय व्यवस्था में भी पकड़ मजबूत कर रखी है । मुख्य बात यह है कि गोवा विधि आयोग अध्यक्ष रमाकांत खलप व गोवा के गृह मंत्री रवि नायक ने इस बात को बड़ी साफगोई से माना है । प्रश्न यह उठता है चाहे हिंदू आतंकी संगठन हो या अन्य आतंकी संगठन हो। अगर उनका प्रभाव सेना से लेकर न्याय व्यवस्था तक है और उनके अधिकारी इन संगठनों के आदेश से कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार हैं तो देश के लोकतांत्रिक व धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को बनाये व बचाए रखना मुश्किल होगा । साम्राज्यवादी शक्तियां ऐसे संगठनों को मदद देकर देश को गृह युद्घ की स्थिति में झोंक देना चाहती है जिससे देश में हमेशा अशांति बनी रहे । दूसरी तरफ़ पुलिस विभाग के लोग फर्जी एनकाउंटर करके जनता में वाहवाही लूटने का काम करते हैं । अभी लखनऊ में एनकाउंटर विशेषज्ञयों की फायरिंग प्रक्टिस में निशाने टारगेट पर लगे ही नही । आतंकवाद का दमन करने के नाम पर बने सरकारी सशस्त्र बल भी फर्जी घटनाओ के आधार पर ही वाहवाही लूट रहे हैं । पुलिस के एक क्षेत्राधिकारी ने अपने सरकारी असलहे से हाथी के ऊपर गोलियाँ चलाई थी और एक भी गोली हाथी को नही लगी थी । इससे यह साबित होता है कि यह लोग लोगों को पकड़ कर एनकाउंटर के नाम पर उनकी हत्या कर रहे हैं। आज जरूरत इस बात की है कि इन आतंकी सगठनों के ख़िलाफ़ ईमानदारी से वैचारिक स्तर से जमीनी स्तर तक संघर्ष की आवश्यकता है अन्यथा विदेशी साम्राज्यवादी शक्तियां इस देश की एकता और अखंडता को नुकसान पहुँचा सकती है ।

सुमन
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इलाहाबाद में हिन्दी चिट्ठाकारों का जमावडा हुआ। जिसमें हिन्दी चिट्ठाकारी से सम्बंधित पुस्तक का विमोचन हुआ । इस कार्यक्रम का आयोजन महात्मा गाँधी अन्तराष्ट्रीय विश्विद्यालय वर्धा व हिन्दुस्तान अकादमी इलाहाबाद ने किया था । हिन्दी चिट्ठाकारों ने इस आयोजन के बहाने सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ. नामवर सिंह से लेकर हर तरह की व्यवस्था-अव्यस्था के सम्बन्ध में चिट्ठाकारी की है जिसमें व्यक्तिगत भड़ास से लेकर आरोप-प्रत्यारोप विगत इतिहास शामिल है । इस तरह से लगता यह है की किसी भी हिन्दी चिट्ठाकारों के आयोजन में शामिल होने वाला नही है । इस में शामिल होने का मतलब चिट्ठा जगत में अपने सम्बन्ध में तमाम आवश्यक और अनावश्यक विवाद को शामिल कर लेना है । इलाहाबाद की हिन्दुस्तान अकादमी व महात्मा गाँधी अन्तराष्ट्रीय विश्विद्यालय वर्धा ने यह आयोजन करके हिन्दी चिट्ठाजगत को सम्मान ही प्रदान किया है और इसमें प्रमुख चिट्ठाकार सर्वश्री रविरतलामी, मसिजिवी, अनूप, प्रियंकर, विनीत कुमार ने भी रचनात्मक समझ के साथ ही आयोजन में शिरकत की होगी। शायद उन्होंने भी इस आरोप प्रत्यारोप के बारे में सोचा न होगा. इस कार्य से हिन्दी चिट्ठाजगत को महत्व मिला है किंतु अंतरजाल पर अब आ रही अनावश्यक बहस हिन्दी चिट्ठाजगत की छुद्र मानसिकता को प्रर्दशित कर रही है । अच्छा यह होता कि अनावश्यक आरोप-प्रत्यारोप करने कि बजाये जैसा वह उचित समझते है । उसी तरीके का कार्यक्रम कर डालें । किसी रेखा को छोटा करने से अच्छा है कि उससे बड़ी रेखा खींच दी जाए इस सम्बन्ध में यह पंक्तियाँ महत्वपूर्ण है :-

कैसे उनके रिश्तें है कैसे ये पड़ोसी हैं ,
भीगती हैं जब आँखें होंठ मुस्कुरातें है
क्या अजीब फितरत है इस जहाँ में बौनों की,
बढ़ तो ख़ुद नही सकते, कद मेरा घटाते है

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इससे यह तात्पर्य नहीं लेना चाहिए कि ऊदा देवी का शौर्य और पराक्रम 1857 के महाविद्रोह की केन्द्रीय चेतना से सम्बद्ध नहीं था, यह कि उनकी शहादत मुक्ति के विराट स्वप्न को साकार करने की दिशा में दी गयी आहुति नहीं थी। उनकी शहादत को व्यक्तिगत प्रतिशोध की अभिव्यक्ति मानने वाले यकीनीतौर पर ऊदादेवी के क़द को छोटा करते हैं। साथ ही वे आज़ादी की इस विलक्षण लड़ाई में जनता के सभी हिस्सों की शिरकत के चमकीले यथार्थ को धुँधलाने की कोशिश भी करते हैं। मक्का पासी की शहादत हो या ऊदादेवी का बलिदान, इसके वृहत्तर सन्दर्भ का अनुमान इससे लग सकता है जितना कि इस महाविद्रोह के स्वरुप का मजाक उड़ाते हुए अंग्रेज इतिहासकारों का यह कहना कि ‘तब एक सिपाही भी अपने को राजा समझता था’ या घुड़सवार सिपाहियों की यह घोषणा कि ‘ख़ल्क़ खुदा का, मुल्क बादशाह का, अमल सिपाही का।’
बहुत बार बहुत अवसरों पर बादशाह के हुक्म की भी प्रतीक्षा नहीं की गयी। कई ऐसी साहसिक घटनाएँ भी प्रकाश में आईं जब विद्रोही सैनिकों तथा निःशस्त्र ग्रामीणों ने अपने हौसले और विवेक से अंग्रेज अधिकारियों और सेना पर घातक हमले किये। मगरवारा (उन्नाव) में जनरल आउट्म की मजबूत सेना पर ग्रामीणजनों द्वारा खेतों से गन्ने उखाड़कर टूट पड़ना, ऐसी ही एक अनूठी घटना है, ऐसी बहुत सी घटनाओं से इतिहास भरा पड़ा है। अवश्य ही सिकन्दरबाग की लड़ाई के एकमात्र निजी विवेक से उठ खड़े होने के ठोस प्रमाण नहीं मिलते क्योंकि यह मोर्चा 6 अगस्त को ब्रिजीस कदर की ताजपोशी के साथ बेगम हजरत महल द्वारा ईस्ट इंडिया कम्पनी के विरुद्ध निर्णायक युध्द की घोषणा तथा आलमबाग के जबरदस्त प्रतिरोधी संघर्ष के बाद शौर्यगाथाओं की मूर्तता का दस्तावेज बना। भूलना नहीं चाहिए कि इस लड़ाई में शामिल नवाबी सलतनत के महिला दस्ते की अधिकांश सैनिकों के पास उस समय के आधुनिक हथियार थे। ऊदा देवी के पास भी। इतना अवश्य है कि काल्विन कैम्पबेल सिकन्दरबाग, किसी योजना के तहत नहीं बल्कि रास्ता भटक जाने के कारण पहुँचा था, इसलिए यहाँ उसकी सेना पर किया गया आक्रमण भी पूर्व नियोजित नहीं माना जा सकता। शायद यही कारण था कि यहाँ उसकी सेना भारी पड़ी। निश्चय ही इस लड़ाई को जुझारू धार देने में ऊदादेवी का विवेक, संकल्प शक्ति, रणकौशल तथा अंग्रेजों को मज़ा चखाने की प्रतिबद्धता ठोस रूप में मौजूद प्रतीत होती है।
यहाँ यह उल्लेख शायद अप्रासंगिक न हो कि सिकन्दर महल का निधन वाजिद अली शाह की वली अहदी में ही हो गया था। नवाब साहब की अतिप्रिय बेगम तो वह थीं ही, दरबार से जुड़े दूसरे लोग तथा परियाँ भी उनसे बहुत प्यार करती थीं। इस उल्लेख का तात्पर्य मात्र इतना ही है कि अपने महल के बाहरी व भीतरी हिस्सों में हुए ऐतिहासिक युद्ध में सिकन्दर महल मौजूद नहीं थीं। अपनी प्रिय सेनानायक की स्मृति को शेष रखने वाले भवन के सम्मुख काल्विन की सेना से मोर्चा लेकर ऊदा देवी ने इस लड़ाई में एक और आयाम जोड़ा।
डा0 राम विलास शर्मा ने ‘‘स्वाधनीता संग्राम, बदलते परिप्रेक्ष्य’’ में लिखा है ‘‘हिन्दुस्तानी सिपाही जिन उद्देश्यों के लिए लड़ रहे थे, उनकी सफलताओं के लिए हिन्दू-मुस्लिम एकता अत्यंत आवश्यक थी। राष्ट्रीय एकता, स्वाधीनता और नई लोकसत्ता इन तीनों में एक भी उद्देश्य हिन्दू-मुस्लिम एकता के बिना चरितार्थ न होता था।’’
उन्होंने आगे जोर देकर कहा कि ‘‘सेना के भीतर हिन्दू-मुसलमान अफसरों और सिपाहियों की वह एकता, भूमंडलीकरण के मौजूदा दौर में जब सुनियोजित तरीके से कुटीर उद्योगों, संस्कृति के सभी उज्ज्वल मानवीय पक्षों की घेराबंदी हो रही है या फिर उसे उत्तेजक अश्लीलता की कामुक लम्पटता दी जा रही है, बाज़ारवादी शक्तियँा दृश्य माध्यमों का निर्मम इस्तेमाल करते हुए धार्मिक भावनाओं को बाजार पर प्रभुत्व पाने के उद्देश्य से बेधड़क इस्तेमाल कर रही हैं। श्रम का मूल्य घट रहा है। विदेशी वस्तुओं से बाजार की चमक बढ़ रही है। स्वदेशी की भावना तथा स्वदेशी आन्दोलन की बहुमूल्य थाती धुँधला रही है। साधनहीन लोगों के लिए विकास के अवसर सीमित हो रहे हैं। तब यानी कि ऐसे कठिन समय में 1857 के महाविद्रोह तथा इसमें ऊदा देवी और उनके पति द्वारा दी गयी शहादत को याद करने की निश्चित ही विशिष्ट प्रासंगिकता है। यकीनन 1857 के उस महान जन विद्रोह तथा उसमें शामिल लोगों के बारे में अभी बहुत कुछ सामने आना शेष है, ऐसे समय में जब स्वतंत्रता आंदोलन के विरोधियों, उससे विश्वासघात करने वालों को महिमामंडित किया जा रहा हो, तब उस महासंग्राम के बारे में व्यापाकता से विचार होना तथा उस दौर के समूचे इतिहास को सम्पूर्णता के साथ उद्घाटित होना आवश्यक है।

एक अंग्रेज सार्जेण्ट का संस्मरण
सिकन्दरबाग के अन्दरूनी हिस्से के बीचाबीच पीपल का एक बहुत बड़ा घना पेड़ था। उसके नीचे ठण्डे पानी के बहुत से मटके रखे हुए थे। जब सिकन्दरबाग के युद्ध में रक्तपात का अंत हुआ तो बहुत से सिपाही अपनी प्यास बुझाने तथा पीपल के नीचे ठण्डी छाँव का आनन्द लेने लगे। इस पीपल के नीचे ब्रिटिश सेना की 53वीं और 9वीं सैनिक टुकड़ी के बहुत से जवान मरे हुए पड़े थे। लेकिन एक स्थान पर कैप्टन डासन का ध्यान गया कि इन मृत सैनिकों के शरीर के घावों से प्रकट होता है इनकी मृत्यु ऊपर से गोली चलाये जाने के कारण हुई है। कैप्टेन डाॅसन शीघ्र ही पीपल की छाया से बाहर निकला ओर उसने केकर वालेस को इस उद्देश्य से बुलाया कि वह पीपल के ऊपर देख्ेा कि वहाँ कोई है तो नहीं। उसने कहा कि यूरोपीय सिपाहियों की मौत रणक्षेत्र में आमने-सामने से चली गोलियों से नहीं बल्कि पेड़ के ऊपर बैठे किसी व्यक्ति द्वारा गोलियाँ चलाये ंजाने के कारण हुई है। वालेस के पास उसकी भरी हुई बन्दूक थी, सावधानी पूर्वक पीछे हटते हुए, पेड़ पर बैठे व्यक्ति की तलाश उसने आरम्भ की। तत्काल ही उसने कैप्टेन डासन से कहा, मैने उसे देख लिया है, फिर अपनी बन्दूक ऊपर की ओर तानते हुए उसने कहा कि अब मैं भगवान के सामने अपना वचन पूरा करुँगा। यह कहते हुए उसने गोली चला दी। गोली चलने के तुरन्त बाद पीपल से किसी व्यक्ति का शरीर नीचे गिरा। यह व्यक्ति लाल रंग की कसी हुई जैकेट और गुलाबी रंग की कसी हुई पैंट पहने था। उस व्यक्ति के नीचे गिरने से जब एक झटके के साथ उसकी जैकेट खुल गयी तो पता लगा कि पेड़ से गिरने वाला व्यक्ति पुरुष न होकर एक महिला थी। यह महिला पुराने माडल की दो पिस्तौलांे से लैस थी। इनमें से एक पिस्तौल खाली थी, दूसरी में उस समय भी गोलियाँ भरी थीं। उसकी आधी जेब में भी गोलियाँ भरी हुई थीं। वालेस यह देखकर कि जिस व्यक्ति को उसने मार गिराया वह कोई पुरूष नहीं बल्कि महिला है, वह फूट-फूट कर रोने लगा। साथ ही उसने कहा, यदि मुझे मालूम होता कि यह औरत है तो मैं हज़ार बार मर जाता परन्तु उसे नुकसान नहीं पहुँचाता।’’

शकील सिद्दीकी
एम0आई0जी0-317 फेस-2
टिकैतराय एल0डी0ए0 लखनऊ-7
मोबाइल: 09839123525

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(समाप्त)

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गूगल, यूं हिंदुस्तानियों के साथ खिलवाड़ न करो

शान्ति साम्राज्यवाद की मौत है । युद्घ उसका जीवन है, विश्व में दो विश्व युद्घ लड़े गए है और दोनों ही साम्राज्यवादियों की धरती पर ही लड़े गए है दूसरे विश्व युद्घ के बाद साम्राज्यवादियों ने तय यह किया था कि अपनी धरती पर युद्घ नही लड़ना है । विश्व आर्थिक मंदी से निपटने के लिए साम्राज्यवादियों को युद्घ चाहिए इसके लिए एशिया में बड़े-बड़े प्रयोग किए जा रहे है और उनकी सारी ताकत एशिया की प्राकृतिक सम्पदा को लूट घसोट करने में लगी है । उनकी मुख्य विरोधी शक्तियां ईरान, उत्तर कोरिया, वियतनाम है और मुख्य प्रतिद्वंदी चीन है । ईरान के रेवोलुशनरी गार्ड्स मुख्यालय पर आत्मघाती हमला हो चुका है । चीन भारत का युद्घ वह चाहते है । इसके लिए तरह-तरह की गोटियाँ चली जा रही है । उनके तनखैया इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया के लोग तरह-तरह की अफवाहबाजी उडा, भ्रम फैला कर युद्घ का माहौल तैयार कर रहे है । उसी का यह एक हिस्सा है । ईराक में परमाणु हथियारों के सवाल को लेकर ईराक को तबाह किया गया । आज इराक़ में लाखो औरतें विधवा है . जिनके खाने और कमाने का कोई जरिया नही है , शिक्षा और स्वास्थ्य नाम की कोई चीज नही बची है । साम्राज्यवादी ताकतें ईराक की प्राकृतिक सम्पदा को लूट रही है वही स्तिथि चीन और भारत का युद्घ करा कर यह ताकतें यहाँ की प्राकृतिक सम्पदा का दोहन करना चाहती है । यह जो कुछ हो रहा है वह सोची समझी रणनीति का हिस्सा है । हमारे अरुणांचल , जम्मू और कश्मीर को चीन का हिस्सा दिखा कर लोगों में भ्रम पैदा किया जा रहा है ताकि युद्घ का उन्माद पैदा हो । जो ताकतें यह हरकत कर रही है वह उनकी रणनीति का हिस्सा है । पूंजीवादी व्यवस्था में कोई चीज दान की नही होती है । मुनाफा और लाभ ही उनका धर्म है । ये अपने अविष्कारों में हिस्सा देकर लाभ कमाते है । हमको अपनी मेहनत और श्रम का हिस्सा क्या उनके लाभ से हमको नही मिलता है ? हो सकता है उनकी योजना सफल न हो तो भारतीय नक्शे में बीजिंग और इस्लामाबाद को दर्शाना शुरू कर दें ।

सादर
सुमन
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साम्राज्यवादी लूट व शोषण करने में अमेरिका और इजराइल की जोड़ी प्रसिद्ध है और इन दोनों देशों की खुफिया एजेन्सी सी आई ए और मोसाद विकास शील देशों के ख़िलाफ़ एकजुट होकर काम करती रहती है लेकिन समय आने पर वे एक दूसरे के विरूद्व जाकर अपना अधिपत्य कायम करना चाहती है । अभी कुछ दिन पूर्व अमेरिकी वैज्ञानिक को गिरफ्तार किया गया है जिसके ऊपर आरोप है की उसने इजराइल को ताजा खुफिया जानकारियाँ दी है । अमेरिकी वैज्ञानिक स्टीवर्ट डेविड नोजेट को एक स्टिंग ऑपरेशन में एफ.बी.आई एजेंट ने पकड़ा है । इजराइल हमेशा से अपने हितों की पूर्ति के लिए अमेरिका के ऊपर तमाम तरह के प्रयोग करता रहता है । इससे पूर्व ग्यारह सितम्बर की घटना वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में एक भी इजराइली कर्मचारी नही मारा गया था क्योंकि उस दिन सभी हजारो इजराइली करमचारियों ने एक साथ छुट्टी ले रखी थी और अमेरिकन साम्राज्यवाद ने उस दिशा में घटना की जांच करने की हिम्मत भी नही की और एशियाई मुल्कों के ऊपर तोहमत मड़कर अपना आतंक का साम्राज्य फैलाना शुरू कर दिया । साम्राज्यवादी लूट में दोस्त-दोस्त न रहा, बल्कि मुख्य चीज यह है कि किस तरीके से एक दूसरे के ऊपर दबाव बनाकर ज्यादा से ज्यादा लाभ लिया जा सके ।

सुमन
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शहीद वीरांगना ऊदा देवी अवध के छठे बादशाह नवाब वाजिद अली शाह के महिला दस्ते की सदस्य थीं। वाजिद अली शाह ने, जो दौरे वली अहदी में परीख़ाना की स्थापना के कारण लगातार विवाद का कारण बने रहे तथा 1847 की फरवरी में बादशाह बनने के बाद अपनी जुनून की हद तक पहुँची संगीत प्रियता के कारण बार-बार ब्रिटिश रेजीडेंट द्वारा चेताये जाते रहे, बड़ी मात्रा में सैनिकों की भर्ती की जिसमें लखनऊ के सभी वर्गों के ग़रीबजनों को रोज़गार पाने का अच्छा अवसर मिला। ऊदादेवी के पति जो स्वयं भी काफी साहसी व पराक्रमी थे, वाजिद अली शाह की सेना में भर्ती हुए। वाजिद अली शाह ने इमारतों, बाग़ों, संगीत, नृत्य व अन्य कला माध्यमों की तरह अपनी सेना को भी बहुरंगी विविधता तथा आकर्षक वैभव दिया। उन्होंने अपनी पलटनों को तिरछा रिसाला, गुलाबी, दाऊदी, अब्बासी, जाफरी जैसे फूलों के नाम दिये और फूलों के रंग के अनुरूप ही उस पल्टन की वर्दी का रंग निर्धारित किया। परी से महल बनी चहेती बेगम सिकन्दर महल को ख़ातून दस्ते का रिसालदार बनाया गया। जिससे स्पष्ट होता है कि वाजिद अली शाह ने अपनी कुछ बेगमों को सैनिक तरबियत दिलायी थी। यों उन्होंने बली अहदी के दौर में अपने तथा परियों की हिफाज़त के उद्देश्य से तीस फुर्तीली स्त्रियों का एक सुरक्षा दस्ता भी बनाया था। जिसे अपेक्षानुरूप सैनिक प्रशिक्षण भी दिया गया। संभव है ऊदा देवी पहले इसी दस्ते की सदस्य रही हों क्योंकि बादशाह बनने के बाद नवाब ने इस दस्ते को भंग करके बाकायदा स्त्री पलटन खड़ी की थी। इस पलटन की वर्दी काली रखी गयी थी।
निःसन्देह इस पलटन में अफ्रीकी नस्ल की कुछ अश्वेत औरतें भी थीं लेकिन शायद काली वर्दी के कारण लेफ्टिनेंट कर्नल गोर्डेन एलक्जे़न्डर को, मारी गयी औरतें हब्शिनें नजर आईं, जिन्हें उसने ब्लैक कैट्स कहा और बताया कि वे जंगली बिल्लियों की तरह झपट-झपट कर लड़ीं। जबकि सार्जेण्ट फार्बस मिच्चल ने सिकन्दर बाग के उपवन में स्थित पीपल के एक बड़े पेड़ की ऊपरी शाख पर बैठी एक ऐसी स्त्री का विशेष उल्लेख किया है, जिसने अंग्रेजी सेना के कोई बत्तीस सिपाही और अफसर मारे। लंदन टाइम्स के संवाददाता विलियम हावर्ड रसेल ने लड़ाई के समाचारों का जो डिस्पैच लंदन भेजा उसमें पुरुष वेशभूषा में एक स्त्री द्वारा पीपल के पेड़ से फायरिंग करके तथा अंग्रेजी सेना को भारी क्षति पहुँचाने का उल्लेख प्रमुखता से किया। संभवतः लंदन टाइम्स में छपी खबरों के आधार पर ही कार्ल माक्र्स ने भी अपनी टिप्पणी में इस घटना को समुचित स्थान दिया। वीरांगना ऊदा देवी का ससुराली नाम जगरानी माना जाता है। इनके भक्त दृढ़ता से यह मत व्यक्त करते रहे हैं कि ऊदा देवी उर्फ जगरानी को 16 नवम्बर 1857 को सिकन्दरबाग में साहसिक कारनामा अंजाम देने की शक्ति उनके पति मक्का पासी के बलिदान से प्राप्त हुई। अर्थात 10 जून 1857 को लखनऊ के कस्बा चिनहट के निकट इस्माईलगंज में हेनरी लारेंस के नेतृत्व में ईस्टइंडिया कम्पनी की फौज के साथ मौलवी अहमद उल्लाह शाह की अगुवाई में संगठित, विद्रोही सेना की ऐतिहासिक लड़ाई में मक्का पासी की शहादत ने उनमें प्रतिशोध की ज्वाला धधकाई। इस प्रतिशोध कीे आग, उन्होंने कानपुर से आयी काल्विन कैम्बेल सेना के 32 सिपाहियों को मृत्युलोक पहुँचाकर बुझाई। इस लड़ाई में वे खुद भी वीरगति को प्राप्त र्हुइं। कहा जाता है इस स्तब्ध कर देने वाली वीरता से अभिभूत होकर काल्विन कैम्बेल ने हैट उतारकर शहीद ऊदा देवी को श्रद्धांजलि दी। निश्चय ही सिकन्दर बाग की लड़ाई चिनहट के महासंग्राम की अगली कड़ियों में से एक थी। यक़ीनी तौर पर चिनहट की लड़ाई में विद्रोही सेना की विजय तथा हेनरी लारेंस की फौज का मैदान छोड़कर भाग खड़ा होना पहले स्वाधीनता संग्राम की बहुत बड़ी उपलब्धि थी। जिसके निश्चित प्रभाव कालांतर में सितम्बर 1858 तक चले इस संग्राम पर पड़े। यह भी सही है कि दमन के सहारे साम्राज्य को फैलाये जाने के खिलाफ भारतीय अवाम में प्रतिशोध की जो लहर विस्तार पा रही थी उसका उल्लेख पहले भी आया है, मक्कापासी तथा ऊदादेवी इसकी विराटता से अलग नहीं थे, उनके भीतर भी वही आग थी, ज़ालिम फिरंगियों को खदेड़ो, मारो और बाहर निकालो। यह बहुत संभव है कि पति की मृत्यु के बाद ऊदा देवी में प्रतिशोध की यह ज्वाला अधिक उग्र हो आयी हो।

शकील सिद्दीकी
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ऊदा देवी:

साधारण महिला का असाधारण बलिदान

‘‘अत्याचार जितना भीषण होगा, उसकी प्रतिक्रिया उतनी ही भीषण होना अटल है।’’ लार्ड मैकाले के इन शब्दों को याद करते हुए, उग्र राष्ट्रवाद के व्याख्याकार और प्रचारक, स्वाधीनता संग्राम के प्रारम्भिक सेनानी विनायक दामोदर सावरकर ने प्रथम स्वाधीनता संग्राम पर अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में एक स्थान पर लिखा है, ‘स्वदेश की यंत्रणाओं को देख, एक आध व्यक्ति या किसी एक विशेष वर्ग को तीव्र विषाद महसूस हो रहा था, ऐसी बात नहीं है। हिन्दु-मुसलमान, ब्राह्मण, शूद्र, क्षत्रिय, वैश्य, राजा-रंक, स्त्री-पुरूष, पंडित-मौलवी, सैनिक- पुलिस इन भिन्न-भिन्न धर्म, भिन्न पंथ और कई भिन्न व्यवसायों के लोगों ने मिलकर, स्वदेश का बुरा हाल देखते रहना असंभव हो जाने से, अकल्पनीय थोड़े अवसर में भयानक प्रतिशोध का बवंडर खड़ा करदिया। कितना राष्ट्रव्यापी था वह आन्दोलन, इस एक ही बात से मालूम होगा कि जिस पराकाष्ठा को जुल्म पहुँच गया था, उसी पराकाष्ठा तक अपने प्रतिकार को पहुँचाने का जतन भी किया गया था।’
वीर सावरकर की यह स्थापना 1857 के महासंग्राम का बहुत हद तक वास्तविक बिम्ब है। इससे भी पहले सर्वहारा की सत्ता का दर्शन देने वाले, सभी तरह के उपनिवेशों से जनता के विशाल हिस्सों की मुक्ति के पक्षधर, महान दार्शनिक कार्लमाक्र्स और ऐगेलस ने, इस संग्राम को आजादी की पहली लड़ाई मानते हुए, उसे उपनिवेशवादी जुल्म और दमन के खिलाफ भारतीय जनता के विराट विद्रोह के रूप में रेखांकित किया। यह जानना सुखद हो सकता है कि मई 1857 से आरम्भ होकर 1858 के उत्तरार्द्ध अर्थात सोलह महीनों तक चले इस महाविद्रोह के बारे में माक्र्स और ऐगेल्स ने 28 लेख लिखे। कार्लमाक्र्स ने 1853 के एक लेख में महत्वपूर्ण संकेत किया था कि अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान में अपने राज की हिफ़ाजत के लिये हिन्दुस्तानी पलटन खड़ी करके, अनजाने ही हिन्दुस्तानियों के हाथ में स्वतंत्रता का हथियार सौंप दिया है। जब इस सेना ने हिन्दुस्तानी अवाम के मुख़्तलिफ तबकों के साथ मिलकर अंग्रेजी राज के खिलाफ विद्रोह किया तब कार्ल माक्र्स अभिभूत हो उठे। उन्होंने 15 जुलाई 1857 को न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून में लिखाः-
……‘‘यह पहली मर्तबा है कि देशी फौजों ने अपने यूरोपियन अफसरों को मार डाला है, मुसलमान और हिन्दू परस्पर घृणा को छोड़कर अपने मालिकों के खिलाफ एक हो गये हैं, हिन्दुओं से प्रारम्भ होने वाली अशांति की परिणति दिल्ली के राजसिंहासन पर एक मुसलमान सम्राट के आरोहण से हुआ है….कि बगा़वत कुछ स्थानों तक सीमित नहीं है और अंतिम यह कि आंग्ल -भारतीय सेना का विद्रोह उस समय हुआ है जबकि अंग्रेजों के प्रभुत्व के खिलाफ महान एशियाई राष्ट्र आम असंतोष प्रकट कर रहे हैं……।’’
इस महा विद्रोह की सबसे बड़ी विशिष्टता थी भारत की दलित दमित जनता के सभी हिस्सों में उमड़ आया अप्रतिम आत्मविश्वास और आजाद होने का असाधारण उत्साह, साधारण सिपाही से लेकर सामान्य ग्रामवासी तक का अपनेको मुक्ति संघर्ष का नायक समझने का भाव, जिसका कई अंग्रेज लेखकों ने मज़ाक़ भी उड़ाया। जिस पर भारतीय इतिहास के विलक्षण अध्येता डा0 राम विलास शर्मा ने बहुत अर्थपूर्ण टिप्पणी की हैः-
‘बात सही है, भारतीय इतिहास में यह पहला अवसर था जब यहाँ का किसान सैनिक वेश में-स्वयं को देश का राजा समझता था। बांदा के पास एक गाँव में शाही झण्डा फहराने के बाद घुड़सवार सिपाहियों ने ऐलान किया ख़ल्क खुदा का-मुल्क बादशाह का, अमल सिपाही का।’’
इस पृष्ठभूमि में वीरांगना ऊदादेवी के संघर्ष और बलिदान को देखें तो उनसे सम्बंधित समूचा घटना़क्रम अधिक अर्थपूर्ण लगता है तथा उसके नये आयाम उद्घाटित होते जान पड़ते हैं। बहुत से लोगों के लिए यह रोमांचक बलिदान इस कारण महत्वपूर्ण हो सकता है कि ऐसा साहसिक कारनामा एक स्त्री ने किया। बहुत से लोग केवल इस कारण गर्व से मस्तक ऊँचा कर सकते हैं कि उस बलिदानी, दृढ़ संकल्पी महिला का सम्बन्ध दलित वर्ग से था। दूसरे लोग मात्र इसी कारण इस महाघटना के अचर्चित रह जाने को बेहतर मान सकते हैं। वे इसके लिये ठोस प्रयास भी करते रह सकते हैं, बल्कि किया भी है। 16 नवम्बर 1857 को लखनऊ के सिकन्दरबाग चैराहे पर घटित इस अपने ढंग के अकेले बलिदान तथा इसकी पृष्ठभूमि में सक्रिय अभिन्न पराक्रम को इस कारण अधिक महत्वपूर्ण माना जा सकता है कि इस घटना मात्र से समूचे प्रथम स्वाधीनता संग्राम को न केवल नयी गरिमा मिलती है बल्कि उसके अपेक्षित विमर्श से वंचित रह गये कुछ पक्षों पर व्यापक विचार के अवसर भी उपलब्ध होते हैं। विशेष रूप से यह विमर्श कि सामंतवाद के वैभवग्रस्त प्रतीकों के अवसानकाल में दमन पर आधारित, बहुत हद तक अमानवीय जाति व्यवस्था की क्रूर उपस्थिति के गहरे विषाद को नजरअंदाज सी करती लखनवी दरबार की विशिष्ट संस्कृति ने, जो अपनी स्त्री उन्मुखता के कारण सबसे ज्यादा बदनाम हुई, स्त्री के लिए कहाँ कितने अवसर निर्मित किये।

-शकील सिद्दीक़ी

सुमन
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