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Archive for मई 16th, 2010

क़ातिल और जल्लाद में क्या अन्तर है ? क़ातिल हर शहर, हर देहात में बन्दूके ताने बड़ी शान से घूम रहे हैं, लोग झुक-झुक कर बड़े भय्या, बड़े दादा कह कह कर सलाम, राम जुहार कर रहे हैं। वे गर्व का अनुभव कर रहे हैं। हत्यायें करना भी ‘स्टेटस सिंबल‘ बन गया है। बम्बई नर संहार की अदालती सुनवाई के दौरान अजमल कसाब का हाव-भाव कथा बताता रहा। यही न, कि उसने एक बड़ा कारनामा कर दिखाया, बड़े पुण्य का काम किया, अपने को बड़ा जेहादी मानता रहा। लेकिन यह सारा ग़ुरूर उस समय चकनाचूर हो गया जब उसे फांसी की सज़ा सुनाई गई और वह रोने लगा, आंसू बहाने लगा। क्या यह प्रायश्चित या पश्चाताप था ? नहीं। यदि ऐसा होता तो सुनवाई के दौरान भी कभी ऐसा करता। इस समय का रोना यह साफ बताता है कि उसे ख़ुद अपनी मौत सामने दिखाई दी। अफ़सोस तो इस पर होता है कि 166 से अधिक मौतों पर भी वह ज़रा भी न पिघला।
समाज की मान्यतायें भी ख़ूब है, क़ातिल के प्रति वह इतने ‘सेनसिखि‘ नहीं हैं, जितना जल्लाद के प्रति है, जल्लाद तो अपनी क़ानूनी डियुटी अन्जाम देता है, वह किसी बेख़ता को नहीं मारता।

खुद जल्लाद भी र्शमाता है- एक ख़बर अहमद उल्ला जल्लाद को अपने पेशे से नफ़रत है। ग़रीबी के बावजूद वह अपने बेटे को इस पेशे में नही डालना चाहता। कैसरबाग लखनऊ की एक गली में इस रहने वाले के काम के बारे में उसके पड़ोसी भी नहीं जानते थे जब जान गये तो उसने अपना निवास बदल लिया। वह कहता है कि जिनको मैंने फांसी दी जब वह दृश्य मैं याद करता हूँ तो मैं परेशान हो जाता हूं देखिये। एक कातिल वह एहसास नही करता जो एक जल्लाद करता है-

खता करता है कातिल और हम शरमाये जाते हैं।

डॉक्टर एस.एम हैदर
loksangharsha.blogspot.com

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