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Archive for जून 8th, 2010

मानव समाज को और उसके अभिन्न अंग मानव मात्र को अपनी जिन्दगी को जीने की प्रक्रिया में अनेक प्रकार की वस्तुओं और सेवाओं की जरूरत होती है। आधुनिक विनिमय अर्थव्यस्थाओं में इन वस्तुओं को पाने के लिए नियमित रूप से और आमतौर पर बढ़ती हुई मात्रा में मौद्रिक आय की जरूरत होती है। किन्तु मौद्रिक आय अपने आप में समाज और व्यक्ति की जरूरतें पूरी नहीं कर सकती हैं। इस मौद्रिक राशि के साथ-साथ विभिन्न प्रकार की, और आम तौर पर बढ़ती हुई मात्रा में वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन और उचित दामों पर उनका वितरण होेना जरूरी है, अन्यथा अर्थव्यस्था का सबको जीवन-यापन के साधन उपलब्ध करानेे का मकसद पूरा नहीं हो पाएगा। सामाजिक श्रम-विभाजन के कारण किसी खास वस्तु या सेवा के उत्पादन में लगे व्यक्ति को भी अपनी अनेक प्रकार की अन्य वस्तुओं और सेवाओं की जरूरतें पूरी होने का आश्वासन रहता हैं। यहाँ तक कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के चलते सुदूर देशों में उत्पादित वस्तुएँ और सेवाएँ भी दूर-दूर के देशों में उपलब्ध हो जाती हैं। संक्षेप में परस्पर सम्बंधित आर्थिक-सामाजिक प्रक्रियाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मनुष्य जैसे सामाजिक प्राणी का अस्तित्व उसके व्यक्तित्व का समुचित पल्लवन और उसके जीवन की सार्थकता, अपनी विविध भौतिक और गैर-भौतिक आवश्यकताओं की संतुष्टि के साथ-साथ शेष समाज की इन जरूरतों की पूर्ति में समुचित योगदान करने में निहित माने जा सकते हैं। वास्तव में अपनी निजी जरूरतों की पूर्ति और शेष समाज के इन्हीं उद्देश्यों हेतु सक्रियता एक तरह से संयुक्त, अभिन्न रूप से जुड़ी हुई प्रक्रियाएँ हंै। विभिन्न प्रकार की सामाजिक संस्थाएँ, नियम-कायदे, ज्ञान, तकनीकें, भावनात्मक संास्कृतिक पक्ष और इनसे जुड़ी अनवरत जारी तथा निरन्तर विकास मार्गीय प्रक्रियाएँ आपस में गहराई से जुड़ कर एक जीवन समाज की रचना करतें हंै। इस तरह व्यक्ति के वजूद के साथ-साथ समाज के सौहार्द, समरसता और सम्यक् विकास की गहरी तथा अविच्छिन्न परिपूरकता, सामाजिक सम्बन्धों की न्याय संगत प्रकृति और उनके टिकाऊपन अथवा सातत्य की शर्ताें के अनुपालन की अपेक्षा करतें हैं। वास्तव में यह कहा जा सकता हैं कि सामाजिक विकास की दशा, दिशा और गति के
निर्धारण में इन सामाजिक संबन्धों की प्रकृति अथवा गुणवत्ता की महती भूमिका होती है। आर्थिक जीवन में अहिंसा का स्थान इसी संदर्भ मे प्रकट होता हैं।
आम तौर पर आधुनिक युग में बहुप्रचलित सिद्धान्तों (अर्थात विभेदित समाजों में वर्चस्ववान तबकों द्वारा स्वीकृत या मान्यता प्राप्त सिद्धान्तों) के अनुसार उत्पादन वृद्धि और इस वृद्धि का विद्यमान बाजार की ताकतों, प्रक्रियाओ,ं और उनके समीकरणों के द्वारा उनके ‘कुशलता‘ के प्रतिमानों के अनुरूप निर्धारण आर्थिक जीवन के औचित्य की खरी और पर्याप्त कसौटी है क्या अर्थजगत की यह वांछित मानी गई तथा स्वतः स्वभावतः प्राप्त ‘कुशलता‘ सामाजिक जीवन के सुचारु संचालन और उच्च मानव मूल्यों की सार तत्व अहिंसक जीवन प्रणाली से संगत है? इन सिद्धान्तों (जिन्हें आरोपित विश्वास कहना ज्यादा वस्तुपरक अथवा तथ्य संगत होगा) की खास बात यह है कि इन्हें लागू करने के लिए किन्हीं कानूनों या बाहरी सत्ता की जरूरत नहीं मानी गई है, प्रतिपादित किया गया है कि हर व्यक्ति अपने संसाधनों क्षमताओं के अनुसार अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बिना रोक-टोक या व्यवधान के काम करे तो सभी लोगों के काम मिलकर एक व्यवस्थित, आदर्श या आप्टिमम समष्टिगत व्यवस्था का बिना किसी पृथक प्रयास के निर्माण और संचालन कर पाएँगे।
इस स्व-प्रेरित, स्वनियामित और स्वतः संचालित निजाम को स्वतंत्रता या स्वैच्छिक चयन अथवा वरण करने की आजादी के उच्च, उदात्त आदर्श के अनुकूल बताकर प्रचारित या महिमामंडित किया जाता रहा है। हर व्यक्ति अपना अपना रास्ता चुनता और तय करता है। इसलिए दावा किया जाता है कि यह व्यवस्था किसी पर किसी की हिंसा, वर्चस्व और दबाव नहीं थोपती है। यहाँ तक कि इस व्यवस्था का नाम भी ‘‘स्वतंत्र अथवा उन्मुक्त या ‘एकला चालो रे’‘ बाजार व्यवस्था रख दिया गया है। इस स्वचालित, स्वतः नियामित बाजार या निजी पूँजी व्यवस्था में असंख्य लोगों के पृथक-पृथक, अपने निजी स्वार्थ या मकसद से प्रेरित निर्णय और कर्म निजी लाभ को प्राथमिकता देने वाले और सचेतन रूप से बिना किसी सामाजिक प्रतिबद्धता अथवा उत्तरदायित्व विहीन माने गए हैं। फिर भी इनका संयुक्त, अनिच्छित, वस्तुगत प्रभाव अर्थव्यवस्था की सभी इकाइयों को आदर्श संतुष्टि देने में सक्षम माना गया है। किसी जमाने में इसी स्थिति के लिए कहा गया था कि निजी शुद्ध स्वार्थों जैसे अवगुण पर आधारित व्यवस्था, बाजार की मध्यस्थता के कारण सभी की जरूरतें पूरा करने, सभी को अपने काम के अनुरूप पारिश्रमिक देने तथा सबके बीच न्यायोचित सम्बन्ध बनाने वाले सार्वजनिक गुण में तब्दील हो जाता है। इस तरह मूल्यों और मान्यताओं के स्तर पर इस बाजार व्यवस्था और इसके कुशल संचालन को स्वतंत्रता, स्वैच्छिक निर्णय तथा आपसी सम्बंधों के औचित्य की कसौटी पर खरा बताकर प्रचारित किया जाता रहा है।

-कमल नयन काबरा
(क्रमश:)

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बिजली न होने से जो समस्यायें होती हैं, उनकी सूची हम आप बैठकर किसी भी समय बना सकते हैं, परन्तु एक समस्या मेरे संज्ञान में अभी तक नहीं थी, वह यह कि कुछ ऐसे कुआंरे हैं जिनके घर में भी अंधेरा है और जीवन में भी बिजली न होने के कारण इन बेचारों की शादी भी नहीं हो पा रही है। मैं जो लिख रहा हूँ आप इसे गप्प न समझिये। खबर जो आई है उसे मैं अक्षरशः नकल किये देता हूॅ:-
-अधिवक्ता निर्मल सिंह ठीक ठाक परिवार के हैं। देखने सुनने में भी ठीक हैं और कमाते भी अच्छा है। इसके बावजूद इन्हें विवाह के लिये बढ़िया घर से रिश्ता नहीं मिल रहा।
-अमरेश यादव दुग्ध विभाग में काम करते हैं, बढ़िया नौकरी है। सामाजिक स्थिति ठीक ठाक है। घर परिवार अच्छा होने के बावजूद इनका अब तक विवाह नहीं हो सका हैं।
इन युवाओं का मंगल और शनि ठीक हैं राहु और केतु का योग भी अच्छा है…. दर असल इन युवाओं की कुण्डली में है बिजली संकट दोष। इस दोष के कारण लोग इस गांव में अपनी बिटिया ब्याहना नहीं चाहते।’’
यह केवल इन दो व्यक्तियों की बात नहीं है। यहां के अनेक युवा अविवाहित हैं। यह व्यथा-कथा है, राजधानी लखनऊ के करीब के ग्रामों की।
इन खबरों में मजा न लीजिये न चुटकुले बाजी कीजिए। हमको इनकी इस गंभीर समस्या से पूरी हमदर्दी है, परन्तु हम कर ही क्या सकते हैं।
पुराने संस्कृत वाक्यों में अब भी बड़ा दम है। मैं एक ही सलाह दे सकता हूॅ कि सभी दुखी युवक एक सामूहिक जप समारोह आयोजित करें और जब तक बिजली व्यवस्था ठीक न हो प्रतिदिन यही पढ़ते रहें-
तमसो मा ज्योर्तिगमय

-डॉक्टर एस.एम हैदर

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