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Archive for जून 10th, 2010

मानवीय प्रगति का लम्बा इतिहास काफी अंशों तक और कई अर्थों में स्वैच्छिक एवं स्वतंत्र वरण-चयन के प्रयासों का इतिहास हैं। फलतः ऐसे सहज स्वतंत्र सामाजिक जीवन को सर्व-संगत, सर्व-सुलभ, जन-जन का अमिट और अक्षुण्य अधिकार माना जा सकता है। अधिकार के रूप में प्राप्ति को ठोस सच्चाई में बदलने के अनेक उतारांे-चढ़ाओं का इतिहास अहिंसा के प्रसार का इतिहास माना जा सकता है। मनुष्य जैसे सामाजिक जीव के बहुआयामी अस्तित्व का कोई भी भाग जिसे विचारण विवेचन की सुगमता के लिए कुछ अशों तक अलग-अलग करके देखने की परिपाटी बहुप्रचलित हो चुकी है। यहाँ तक कि अनेक लोग इस पृथकीकरण को यथार्थ का प्रतिविम्ब तक मान बैठते हैं। एक ओर स्वैच्छिक-स्वतंत्र वरण की गई तथा दूसरी ओर इनको कुचल-मसल कर आरोपित बलात् या जबरन थोपी गई जीवन-यात्रा के संघर्ष से अछूता नहीं रह पाता हैं। यह हिंसा प्रतिहिंसा और अहिंसा का संघर्ष आदिकाल से मानवीय-सामाजिक जीवन और उसकी व्यवस्था में पग-पग पर परिलक्षित होता आया है। बेशक, इन्सान वर्तमान समय की असंख्य विसंगतियों विद्रूपताओं और त्रासदियों के उपरान्त भी अनेक अर्थों में एक गौरव पूर्ण और निहित संभावनाओं को सृजनात्मक साकार रूप रंग वाली क्षमताओं और ठोस उपलब्धियों में विश्वास रख सकता है। मानव समाज प्राप्त क्षमताओं और संसाधनों के स्तर पर एक समता, न्याय, अहिंसा और भाई चारे को ठोस यथार्थ में परिणत कर संभावना के एक अभूतपूर्व ऊँचे मुकाम पर पहुँच चुका है।
मानव जीवन का शायद ही कोई अंग इस प्रगति मंे भागीदार नहीं हो पाया हो। किन्तु यह कोई सर्वत्र पुष्पाच्छादित मधुर और सुवासित यात्रा पथ नहीं रहा है। इसमें काँटे, शूल, चुभन ही नहीं पसीने, आँसुओं, खून और घृणित-जघन्य प्रवृत्तियों और वारदातों का सिलसिला भी कहीं आशीर्वाद तो कहीं अभिशाप बनकर बदस्तूर चला है। विडम्बना यह है कि इन नकारात्मकताओं, विचलनों और गिरावटों को समझा गया है, इनसे लड़ा और जूझा भी गया है और ये संघर्ष अनवरत चल भी रहे हैं। इन गिरावटों और नकारात्मक प्रवृत्तियों को हिंसा की प्रबलता और उसके दुष्परिणामों के रूप में देखा जा सकता है। इनसे बचकर सकारात्मक सात्विकता की ओर बढ़ने के प्रयास अहिंसा अथवा स्वतंत्रता, स्वैच्छिकता के सामूहिक सामाजिक स्वरूप को सर्वव्यापी करने के प्रयासों की तरह समझे जा सकते हैं।
सच है कि ये स्वैच्छिकता, स्वतंत्रता, अहिंसामय समाज-निर्माण की ओर प्रयाण के प्रयास सामाजिक मानवीय अस्तित्व और उसे अक्षुण्य तथा अर्थवान बनाने के अभियान एक हद तक प्रयास में सक्रिय हैं। लेकिन हम यहाँ संक्षेप में उसे आर्थिक अर्थात जीवन यापन की मुख्यतः भौतिक जरूरतों और उनसे जुड़े मानवीय-सामाजिक सम्बन्धों तक ही सीमित रखेंगे।

-कमल नयन काबरा
-मोबाइल: 09868204457
(समाप्त)

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सुख, दुख, हर्ष, विषाद को व्यक्त करने का अधिकार सभी को है, परन्तु इनके लिये कुछ शर्तें हैं, कुछ शिष्टाचार हैं। आजकल शादी विवाह एँव अन्य अवसरों पर ‘हर्ष-फायरिंग‘ का बड़ा प्रचलन हैं। यह स्टेटस- सिंबल बन गया है। परन्तु ऐसा क्या हर्ष जो दूसरों के दुख का कारण बने- ‘ई डोलत हैं, मगन हवे, उनके फाटत अंग‘।
एक साथ कई जिलों से इस प्रकार की खबरें आई है अखबार लिखता है हर्ष फायरिंग में शनिवार को फैजाबाद में दो, रविवार को बलारामपुर व हरदोई में एक एक मौते हो चुकी हैं। बेनीगंज क्षेत्र में रात द्वारचार के समय हुई फायरिंग से दुल्हन के भाई की मौत हो गई। घर में कोहराम मच गया। बारात बिना दुल्हन के ही बैरंग वापस लौट गई। अम्बेडकर नगर जिले में द्वारपूजा के दौराल हो रही फायरिंग के बीच गोली से मांगलिक कार्य करा रहे पुरोहित गंभीर रूप से घायल हो गये। भगदड़ मच गई, कन्या पक्ष के लोगों नें बारातियों की जम कर पिटाई की। नशे में घुत राजेश उपाध्याय , फायरिंग के समय नाल ऊपर नहीं उठा सके थे।
यह तो फायरिंग की बात हुई। अन्य बाते- मैरिज हालों में कार्यक्रम हमेशा देर से शूरू होते हैं।, तेज आवाज की म्युजिक, नाच-गानों की उचक-फांद, आतिश-बाजियाँ तथा हंगामें फिर सड़कों पर जुलूस में बारातियों का चलना, लड़के लड़कियों क रोक एण्ड रोल। कुल मिला कर यह कि अपनी खुशी में आस पास की आराम कर रही जनता को देर तक जगाना है। न बच्चे पढ़ाई कर सकते हैं, न मरीजों को आराम मिल सकता है। गुम हो गये। न समाज के समझ के समझदार व्यक्ति कुछ बोलते हैं, न सरकार कोई नियम बनाती है। बड़े आदमी, आम जनता का सुखचैन छीन रहे हैं। कबीर ने जो कुछ भी कहा हो- हम इन बड़े आदमियों के लिये यही कहेंगे-

रात गंवाई जाग कर, दिवस गवायों सोय

-डॉक्टर एस.एम हैदर

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