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Archive for जून 14th, 2010

आईये शुरुआत करते हैं व्यंग्य से , क्योंकि व्यंग्य ही वह माध्यम है जिससे सामने वाला आहत नहीं होता और कहने वाला अपना काम कर जाता है । ऐसा ही एक ब्लॉग पोस्ट है जिसपर सबसे पहले मेरी नज़र जाकर ठहरती है ….१५ अप्रैल को सुदर्शन पर प्रकाशित इस ब्लॉग पोस्ट का शीर्षक है – आम चुनाव का पितृपक्ष ……व्यंग्यकार का कहना है कि -“साधो, इस साल दो पितृ पक्ष पड़ रहे हैं । दूसरा पितृ पक्ष पण्डितों के पत्रा में नहीं है लेकिन वह चुनाव आयोग के कलेण्डर में दर्ज है । इस आम चुनाव में तुम्हारे स्वर्गवासी माता पिता धरती पर आयेंगे, वे मतदान केन्द्रों पर अपना वोट देंग और स्वर्ग लौट जायेंगे ।”
इस व्यंग्य में नरेश मिश्र ने चुटकी लेते हुए कहा है कि -” अब मृत कलेक्ट्रेट कर्मी श्रीमती किशोरी त्रिपाठी को अगर मतदाता पहचान पत्र हासिल हो जाता है और उसमें महिला की जगह पुरूष की फोटो चस्पा है तो इस पर भी आला हाकिमों और चुनाव आयोग को अचरज नहीं होना चाहिए । अपनी धरती पर लिंग परिवर्तन हो रहा है तो स्वर्ग में भी क्यों नहीं हो सकता । स्वर्ग का वैज्ञानिक विकास धरती के मुकाबले बेहतर ही होना चाहिए । “
गद्य व्यंग्य के बाद आईये एक ऐसी व्यंग्य कविता पर दृष्टि डालते हैं जिसमें उस अस्त्र का उल्लेख किया गया है जिसे गाहे-बगाहे जनता द्बारा विबसता में इस्तेमाल किया जाता है । जी हाँ शायद आप समझ गए होंगे कि मैं किस अस्त्र कि बात कर रहा हूँ ?जूता ही वह अस्त्र है जिसे जॉर्ज बुश और पी चिदंबरम के ऊपर भी इस्तेमाल किया जा चुका है । मनोरमा के ०९ अप्रैल के पोस्ट जूता-पुराण में श्यामल सुमन का कहना है कि -“जूता की महिमा बढ़ी जूता का गुणगान।चूक निशाने की भले चर्चित हैं श्रीमान।।निकला जूता पाँव से बना वही हथियार।बहरी सत्ता जग सके ऐसा हो व्यवहार।।भला चीखते लोग क्यों क्यों करते हड़ताल।बना शस्त्र जूता जहाँ करता बहुत कमाल।।”
इस चुनावी बयार में कविता की बात हो और ग़ज़ल की बात न हो तो शायद बेमानी होगी वह भी उस ब्लॉग पर जिसके ब्लोगर ख़ुद गज़लकार हो । ०९ अप्रैल को अनायास हीं मेरी नज़र एक ऐसी ग़ज़ल पर पड़ी जिसे देखकर -पढ़कर मेरे होठों से फ़ुट पड़े ये शब्द – क्या बात है…! चुनावी बयार पर ग़ज़ल के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति को धर देने की यह विनम्र कोशिश कही जा सकती है । पाल ले इक रोग नादां… पर पढिये आप भी गौतम राजरिशी की इस ग़ज़ल को । ग़ज़ल के चंद अशआर देखिये-न मंदिर की ही घंटी से, न मस्जिद की अज़ानों सेकरे जो इश्क, वो समझे जगत का सार चुटकी में…….बहुत मग़रूर कर देता है शोहरत का नशा अक्सरफिसलते देखे हैं हमने कई किरदार चुटकी मेंखयालो-सोच की ज़द में तेरा इक नाम क्या आयामुकम्मिल हो गये मेरे कई अश`आर चुटकी में……!

मैत्री में २४ मई के अपने पोस्ट आम चुनाव से मिले संकेत के मध्यम से अतुल कहते हैं कि “लोकसभा चुनाव के परिणाम में कांग्रेस को 205 सीटें मिलने के बाद पार्टी की चापलूसी परंपरा का निर्वाह करते हुए राहुल गांधी और सोनिया गांधी की जो जयकार हो रही है, वह तो संभावित ही थी, लेकिन इस बार आश्चर्यचकित कर देनेवाली बात यह है कि देश का पूरा मीडिया भी इस झूठी जय-जयकार में शामिल हो गया है। इस मामले में मीडिया ने अपने वाम-दक्षिण होने के सारे भेद को खत्म कर लिया है।”

दरवार के १६ मार्च के पोस्ट जल्लाद नेता बनकर आ गए में धीरू सिंह ने नेताओं के फितरत पर चार पंक्तियाँ कुछ इसप्रकार कही है -” नफरत फैलाने आ गए, आग लगाने आ गए, चुनाव क्या होने को हुए-जल्लाद चहेरे बदल नेता बनकर आ गए । “
प्राइमरी का मास्टर के १३ मार्च के पोस्ट में श्री प्रवीण त्रिवेदी कहते हैं पालीथिन के उपयोग करने पर प्रत्याशी मुसीबत में फंस सकते हैं । जी हाँ अपने आलेख में यह रहस्योद्घाटन करते हुए उन्होंने कहा है की “पर्यावरण संरक्षण एवं संतुलन समाज के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। बिगड़ते पर्यावरण के इसी पहलू को ध्यान में रखते हुए निर्वाचन आयोग ने चुनावी समर में पालीथिन को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने पर प्रतिबंध लगा दिया है।इसके तहत पालीथिन, पेंट और प्लास्टिक के प्रयोग को भी वर्जित कर दिया गया है।मालूम हो कि चुनाव प्रचार के दौरान पालीथिन का इस्तेमाल बैनर, पंपलेट तथा स्लोगन लिखने के रूप में किया जाता है। बाद में एकत्र हजारों टन कचरे का निपटारा बहुत बड़ी चुनौती होती है। लेकिन इस बार यह सब नहीं चल पाएगा।”
कस्‍बा के ०९ अप्रैल के पोस्ट लालू इज़ लॉस्ट के माध्यम से श्री रविश कुमार ने बिहार के तीन प्रमुख राजनीतिक स्तंभ लालू-पासवान और नीतिश के बाहाने पूरे चुनावी माहौल का रेखांकन किया है । श्री रविश कुमार कहते है कि -“बिहार में जिससे भी बात करता हूं,यही जवाब मिलता है कि इस बार दिल और दिमाग की लड़ाई है। जो लोग बिहार के लोगों की जातीय पराकाष्ठा में यकीन रखते हैं उनका कहना है कि लालू पासवान कंबाइन टरबाइन की तरह काम करेगा। लेकिन बिहार के अक्तूबर २००५ के नतीजों को देखें तो जातीय समीकरणों से ऊपर उठ कर बड़ी संख्या में वोट इधर से उधर हुए थे। यादवों का भी एक हिस्सा लालू के खिलाफ गया था। मुसलमानों का भी एक हिस्सा लालू के खिलाफ गया था। पासवान को कई जगहों पर इसलिए वोट मिला था क्योंकि वहां के लोग लालू के उम्मीदवार को हराने के लिए पासवान के उम्मीदवार को वोट दे दिया। अब उस वोट को भी लालू और पासवान अपना अपना मान रहे हैं। “
अनसुनी आवाज के २८ मार्च के एक पोस्ट चुनावों में हुई भूखों की चिंता में अन्नू आनंद ने कहा है की- “कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में सबके लिए अनाज का कानून देने का वादा किया है। घोषणा पत्र में सभी लोगों को खासकर समाज के कमजोर तबके को पर्याप्त भोजन देने देने का वादा किया गया है। पार्टी ने गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले हर परिवार को कानूनन हर महीने 25 किलो गेंहू या चावल तीन रुपए में मुहैया कराने का वादा किया है। पार्टी की घोषणा लुभावनी लगने के साथ हैरत भी पैदा करती है कि अचानक कांग्रेस को देश के भूखों की चिंता कैसे हो गई।” वहीं अपने २९ मई के पोस्ट में बर्बरता के विरुद्ध बोलते हुए चिट्ठाकार का कहना है -चुनावों में कांग्रेस की जीत से फासीवाद का खतरा कम नहीं होगा।
चुनाव के बाद के परिदृश्य पर अपनी सार्थक सोच को प्रस्थापित करते हुए रमेश उपाध्याय का कहना है की -“भारतीय जनतंत्र में–एक आदर्श जनतंत्र की दृष्टि से–चाहे जितने दोष हों, चुनावों में जनता के विवेक और राजनीतिक समझदारी का परिचय हर बार मिलता है। पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में भी उसकी यह समझदारी प्रकट हुई।” यह ब्लॉग पोस्ट ०२ जून को लोकसभा चुनावों में जनता की राजनीतिक समझदारी शीर्षक से प्रकाशित है ।
१९ मई को भारत का लोकतंत्र पर प्रकाशित ब्लॉग पोस्ट पर अचानक नज़र ठहर जाती है जिसमें १५वि लोकसभा चुनावों की पहली और बाद की दलगतस्थिति पर व्यापक चर्चा हुयी है । वहीं ३० अप्रैल को अबयज़ ख़ान के द्वारा अर्ज हैउन चुनावों का मज़ा अब कहां ? जबकि २७ अप्रैल को कुलदीप अंजुम अपने ब्लॉग पोस्ट के मध्यम से अपपनी भावनाएं व्यक्त करते हुए कहते हैं-” सुबह को कहते हैं कुछ शाम को कुछ और होता ,क्या अजब बहरूपिये हैं, हाय ! भारत तेरे नेता !! २५ अप्रैल को हिन्दी युग्म पर सजीव सारथी का कहना है की – “आम चुनावों में आम आदमी विकल्पहीन है ….!”कविता की कुछ पंक्तियाँ देखिये- “चुनाव आयोग में सभी प्रतिभागी उम्मीदवार जमा हैं,आयु सीमा निर्धारित है तभी तो कुछ सठियाये धुरंधरदांत पीस रहे हैं बाहर खड़े, प्रत्यक्ष न सही परोक्ष ही सही,भेजे है अपने नाती रिश्तेदार अन्दर,जो आयुक्त को समझा रहे हैं या धमका रहे हैं,”जानता है मेरा….कौन है” की तर्ज पर…बाप, चाचा, ताया, मामा, जीजा आप खुद जोड़ लें…!”

राजनीति और नेता ऐसी चीज है जिसपर जितना लिखो कम है , इसलिए आज की इस चर्चा को विराम देने के लिए मैंने एक अति महत्वपूर्ण आलेख को चुना है । यह आलेख श्री रवि रतलामी जी के द्बारा दिनांक 14-4-2009 को Global Voices हिन्दी पर प्रस्तुत किया गया है जो मूल लेखिका रिजवान के आलेख का अनुवाद है । आलेख का शीर्षक है- आम चुनावों में लगी जनता की पैनी नज़र । इन पंक्तियों से इस आलेख की शुरुआत हुयी है -“हम जिस युग में रह रहे हैं वहाँ जानकारियों का अतिभार है। ज्यों ज्यों नवीन मीडिया औजार ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंच बना रहे हैं, साधारण लोग भी अपना रुख और अपने इलाके की मौलिक खबरें मीडिया तक पहुंचा रहे हैं। ट्विटर और अन्य सिटिज़न मीडिया औजारों की बदौलत ढेरों जानकारी आजकल तुरत फुरत साझा कर दी जाती है। मुम्बई आतंकी हमलों के दौरान ट्विटर के द्वारा जिस तरह की रियल टाईम यानी ताज़ातरीन जानकारियाँ तुरत-फुरत मिलीं उनका भले ही कोई लेखागार न हो पर यह जानकारियाँ घटनाक्रम के समय सबके काम आईं।”

-रवीन्द्र प्रभात
(क्रमश:)

लोकसंघर्ष पत्रिका के जून-2010 अंक में प्रकाशित

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आईये आज की चर्चा की शुरुआत करते हैं सामाजिक , सांस्कृतिक और एतिहासिक महत्व से संवंधित विविध विषयों पर केंद्रित कुछ महत्वपूर्ण पोस्ट से ।

” ब्लॉगिंग अभिव्यक्ति का माध्यम है। पर सार्वजनिक रूप से अपने को अभिव्यक्त करना आप पर जिम्मेदारी भी डालता है। लिहाजा, अगर आप वह लिखते हैं जो अप्रिय हो, तो धीरे धीरे अपने पाठक खो बैठते हैं।” यह कहना है श्री ज्ञान दत्त पांडे जी का मानसिक हलचल के २६ जनवरी के पोस्ट अपनी तीव्र भावनायें कैसे व्यक्त करें? पर व्यक्त की गई टिपण्णी में ।

वहीं उड़न तश्तरी …. के १३ फरवरी (प्रेम दिवस ) के पोस्ट मस्त रहें सब मस्ती में… में श्री समीर भाई ने बहुत ही मार्मिक बोध कथा का जिक्र किया है कि” एक साधु गंगा स्नान को गया तो उसने देखा कि एक बिच्छू जल में बहा जा रहा है। साधु ने उसे बचाना चाहा। साधु उसे पानी से निकालता तो बिच्छू उसे डंक मार देता और छूटकर पानी में गिर जाता। साधु ने कई बार प्रयास किया मगर बिच्छू बार-बार डंक मार कर छूटता जाता था। साधु ने सोचा कि जब यह बिच्छू अपने तारणहार के प्रति भी अपनी डंक मारने की पाशविक प्रवृत्ति को नहीं छोड़ पा रहा है तो मैं इस प्राणी के प्रति अपनी दया और करुणा की मानवीय प्रवृत्ति को कैसे छोड़ दूँ। बहुत से दंश खाकर भी अंततः साधु ने उस बिच्छू को मरने से बचा लिया……….!”

जबकि २९ मार्च के घुघूतीबासूती पर प्रकाशित पोस्ट गाय के नाम पर ही सही में पॉलीथीन की थैलियाँ हमारे पर्यावरण के लिए कितना घातक हैं यह महसूस कराने कि विनम्र कोशिश की गई है जो प्रशंसनीय है ।

सारथी के २२ अप्रैल के एक पोस्ट अस्मत लुटाने के सौ फार्मूले !”>अस्मत लुटाने के सौ फार्मूले ! में श्री शास्त्री जे सी फिलिप जी के सारगर्भित विचारों को पढ़ने के बाद मुझे यह महसूस हुआ कि सचमुच पश्चिमी सभ्यता के प्रति हमारा रुझान हमारी संस्कृति को कलंकित कर रहा है । शास्त्री जी कहते हैं कि -“पिछले कुछ सालों से भारत में विदेशी पत्रिकाओं एवं सीडी की बाढ आई हुई है. इसका असर सीधे सीधे हमारी युवा पीढी पर हो रहा है. इसके सबसे अच्छे दो नमूने हैं “प्रोग्रेस” के नाम पर भारतीय जवानों को शराबी बनाने की साजिश (पब संस्कृति) और बाबा-बाल्टियान दिवस (वेलेन्टाईन) जैसे मानसिक-व्यभिचार पर आधारित त्योहार ।”

क्वचिदन्यतोअपि……….! के २४मईके पोस्ट आकाश गंगा को निहारते हुए …. में श्री अरविन्द मिश्र विजलिविहिन गाँव का बहुत ही सुन्दर तस्वीर प्रस्तुत करते दिखाई देते हैं ।

वहीं प्रेम ही सत्य है के ३० मई के पोस्ट समझदार को इशारा काफी पर मीनाक्षी जी मानवीय संवेदनाओं को बड़े ही सहज ढंग से अभिव्यक्त करती दिखायी देती हैं ।

जबकि रंजना भाटिया जी के ब्लॉग कुछ मेरी कलम से के २५ जून के पोस्ट कविता सुनाने के लिए पैसे 🙂 पर सन १९६० का एक सच्चा वाकया सुनाती हुयी कवियित्री रंजू कहती है-“यह किस्सा ।सन १९६० के आस पास की बात है दिल्ली के जामा मस्जिद के पास उर्दू बाजार का .यहाँ एक दुकान थी मौलवी सामी उल्ला की ॥जहाँ हर इतवार को एक कवि गोष्ठी आयोजित की जाती ॥कुछ कवि लोग वहां पहुँच कर अपनी कविताएं सुनाया करते सुना करते और कुछ चर्चा भी कर लेते सभी अधिकतर शायर होते कविता लिखने ,सुनाने के शौकीन ,सुनने वाला भी कौन होता वही स्वयं कवि एक दूजे की सुनते , वाह वाह करते और एक दूजे को दाद देते रहते……….!”२५ अप्रैल २००९ को प्रकाशित आलेख पर अचानक जाकर निगाहें ठिठक जाती है , जिसका शीर्षक है देश का बीमा कैसे होगा ? इस आलेख में एक सच्चे भारतीय की अंत: पीडा से अवगत हुआ जा सकता है ।

दालान में प्रकाशित इस आलेख की शुरुआत इन शब्दों से हुयी है -“देश का बीमा कैसे होगा ? किसके हाथ देश सुरक्षित रहेगा ? इतिहास कहता है – किस किस ने लूटा ! जिस जिस ने नहीं लूटा – वोह इतिहास के पन्नों से गायब हो गया ! गाँधी जी , राजेन बाबु , तिलक इत्यादी को अब कौन पढ़ना और अपनाना चाहता है ?”

इसी क्रम में दूसरा आलेख जो पढ़ने के लिए मजबूर करता है वह है कभी गिनती से जामुन खरीदा है ….. जी हाँ , ममता टी वी पर ३० मार्च को प्राकशित इस आलेख में ममता जी कहती है कि “आपको गिनती से जामुन खरीदने का अनुभव हुआ है कि नही हम नही जानते है पर हमें जरुर अनुभव हुआ है । गिनती से जामुन खरीदने का अनुभव हमें हुआ है और वो भी गोवा में ।”ममता टी वी एक गृहस्वामिनी की कलम से निकले सुझाव, वर्णन, चित्र एवं अन्य आलेख से संवंधित ऐसा चिट्ठा है जिसके कुछ पोस्ट पढ़ते हुए आप अपने दर्द को महसूस कर सकते हैं ।

इसी क्रम में तीसरा आलेख जो पढ़ने के लिए मजबूर करता है वह है मार्केटिंग का हिंदी फंडा यह आलेख आशियाना का १५ मई २००९ का पोस्ट है , जिसमे बताया गया है कि “एक लड़के को सेल्समेन के इंटरव्यू में इसलिए बाहर कर दिया गया क्योंकि उसे अंग्रेजी नहीं आती थी।” हिन्दुस्तान में हिन्दी का ऐसा दुर्भाग्य? सचमुच निंदनीय है । यह ग़ाज़ियाबाद निवासी रवीन्द्र रंजन का निजी चिट्ठा है और अपने पञ्च लाईन से आकर्षित करता है, जिसमें कहा गया है कि कुछ कहने स‌े बेहतर है कुछ किया जाए, जिंदा रहने स‌े बेहतर है जिया जाए…. !

इसी क्रम में आगे जिस आलेख पर नज़र जाती है वह है – आज भी हर चौथा भारतीय भूखा सोता हैधनात्मक चिन्तन पर २१ अगस्त को प्रकाशित पोस्ट के माध्यम से ब्लोगर ने कहा है कि जब भारत विश्व शक्ति बनकर उभरने का दावा कर रहा है,ऐसे समय देश में हर चौथा व्यक्ति भूखा है। भारत में भूख और अनाज की उपलब्धता पर भारत के एक ग़ैर-सरकारी संगठन की ताज़ा रिपोर्ट को प्रस्तुत किया गया है इस ब्लॉग पोस्ट में ।

फुरसतिया” के २३ सितंबर के एक पोस्ट मंहगाई के दौर में ,मन कैसे हो नमकीन पढ़ते हुए जब हम अनायास ही श्री अनूप शुक्ल जी के दोहे से रू-ब-रू होते हैं तो होठों से ये शब्द फ़ुट पड़ते है – क्या बात है …! एक बानगी देखिये- “मंहगाई के दौर में ,मन कैसे हो नमकीन, आलू बीस के सेर हैं, नीबू पांच के तीन।
चावल अरहर में ठनी,लड़ती जैसे हों सौत, इनके तो बढ़ते दाम हैं, हुई गरीब की मौत।”

-रवीन्द्र प्रभात
(क्रमश:)

लोकसंघर्ष पत्रिका के जून-2010 अंक में प्रकाशित

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