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Archive for अक्टूबर, 2010


कभी बादल कभी बिजली कभी बरसात की तरह
मिली है ज़िंदगी मुझको किसी सौग़ात की तरह,

मैं जिसके साथ होती हूँ उसी के साथ होती हूँ
जुदाई में भी होती हूँ मिलन की रात की तरह’

समझ पाती नहीं हूँ मैं किसी की बात का मतलब
सभी की बात लगती है उसी की बात की तरह,

किसी की याद के जुगनू कभी जब जगमगाते हैं
तभी अल्फ़ाज़ सजते हैं किसी बारात की तरह”

जिसे देखा किया ‘मीत’ बिना देखे भी हर लम्हा
बिना उसके भी सुनाती हूँ उसे नग़्मात की तरह….!

-मीत

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मुंबई के कोलाबा में नौसेना की भूमि को सफेदपोश अपराधियों ने नेताओं और अपराधियों की साठ-गाँठ से आदर्श कोपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी के नाम करा ली और उस पर 31 मंजिला ईमारत नियमो और उपनियमो को धता बताकर बना दी। रक्षा विभाग सहित पूरे देश में सरकारी जमीनों पर बिल्डर्स, नौकरशाहों, और राजनेताओं की मिलीभगत से कब्जे हो गए हैं और उन पर निर्माण कार्य भी हो गए हैं। दूसरी तरफ समाज में कमजोर तबकों की अपनी व्यक्तिगत प्रोपर्टी इन्ही तत्वों के कारण बचनी मुश्किल हो गयी है। उनकी जमीनों के फर्जी बैनामे हो जाते हैं और फिर अधिकारीयों और गुंडा तत्वों की मदद से निर्माण कार्य भी हो जाते हैं। कमजोर व्यक्तियों की सुनवाई नहीं हो पाती है। जब रक्षा विभाग अपनी जमीनें नहीं बचा पा रहा है तो गरीब आदमियों की संपत्ति कैसे बचेगी।
कोलाबा स्तिथ रक्षा विभाग की भूमि में बहुमंजिला ईमारत बन जाने के कारण नौसेना का हेलिपैड व अन्य मिलिट्री संसथान नहीं बनाये जा सकते हैं। इस मामले में रक्षा विभाग की आपत्तियों के बावजूद भी महाराष्ट्र सरकार ने हाउसिंग सोसाइटी वालों की ही मदद की है। ऐसा लगता है कि देश में विधि का शासन नहीं है। संविधान के तहत कार्य करने वाली संस्थाओं पर सफ़ेदपोश अपराधियों का कब्ज़ा हो गया है। संविधान के तहत प्रत्येक नागरिक को संपत्ति रखने का अधिकार है और अब इस अधिकार का हनन तेजी से हो रहा है।

सुमन
लो क सं घ र्ष !

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मेरा क्या कर लोगे

दुनिया में शांति, सुरक्षा, लोकतंत्र, न्याय, स्वतंत्रता, समानता आदि का मानवीय चेहरा लगाये हुए अमेरिकन व ब्रिटिश सैनिकों ने ईराक के अन्दर ६६ हजार से अधिक ईराकियों को भयंकर प्रताड़ना देकर उनकी हत्या कर दी है। अमेरिका के गुप्त सैन्य दस्तावेजों के अनुसार इराक में मारे गए एक लाख नौ हजार बत्तीस लोगों का ब्यौरा है। इसमें ६६ हजार ८१ नागरिक, २३ हजार ९८४ विद्रोही, १५ हजार १९६ इराकी सर्कार के सैनिक और गटबंधन सेना के ३ हजार ७७१ सैनिक शामिल हें। १५ हजार आम लोगों की मौतों का कोई अता पता नहीं है। इराकी नागरिकों को पकड़ कर पिटाई करने जलाने और कोड़े बरसाने के साथ साथ महिलाओं के साथ बलात्कार करना भी शामिल है।
पत्रकारों को मारने के लिए हेलीकाप्टर गनशिप का भी इस्तेमाल किया गया है। पकडे गए नागरिकों के साथ अमानवीय व्यवहार किया जा रहा है। लोहे की पीपे और जंजीरों से पीटा जाता है। खाने के नाम अखाद्य चीजों को भी खाने के लिए मजबूर किया जाता है।
विक्लिक्स वेबसाइट ने ईराक के अन्दर अमेरिका द्वारा किये जा रहे युद्ध अपराधों का गोपनीय ब्यौरा अपनी वेबसाइट पर जारी किया है। वेबसाइट के मुख्य संपादक जूलियन असांजे ने कहा है कि यह दस्तावेज युद्ध के दौरान किये गए अपराधों के ठोस सबूत हें यह अपराध अमेरिका की अगुवाई करने वाली गठबंधन सेनाओं और इराकी सरकार द्वारा किये गए हें।
साम्राज्यवाद का असली चेहरा यही है चाहे अमेरिकन साम्राज्यवाद हो या ब्रिटिश साम्राज्यवाद हमारे देश में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ी है किन्तु हमारे देश के वर्तमान नेतागण अमेरिकन साम्राज्यवाद के जबरदस्त प्रशंसक हैं और उनके द्वारा किये जा रहे कृत्यों के ऊपर सिर्फ मानवीय चेहरा लगा हुआ है।

सुमन
लो क सं घ र्ष !

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२३ दिसम्बर 1949 की ऍफ़.ई.आर
नक़ल रिपोर्ट एस.ओ. बतारिख 23-12-49 जेरे दफा 147/295/448 ताजिराते हिंद रेक्स के जरिये, पंडित श्री राम देव दुबे एस.एस इंस्पेक्टर इन्चार्ज थाना अयोध्या फैजाबाद अभय राम के खिलाफ (२) राम सुकुल दस (३) सुदर्शन दस, साकिन अयोध्या, फैजाबाद 50-60 अफराद नाम व पता नामालूम, थाना अयोध्या (मिसिल – स्टेट बनाम जन्म भूमि/बाबरी मस्जिद जेरे दफा 145 सी.आर.पी.सी) केस नंबर 3/49, आखिरी हुक्म 3-9-1953,
जबानी

बा इत्तिला माता प्रसाद कान्सटेबल नंबर-7 तकरीबन 7 बजे सुबह के, जब मैं जन्मभूमि पहुंचा, तो मालूम हुआ कि तखमीनन 50-60 अफराद का मजमा कुफुल, जो बाबरी मस्जिद के कम्पाउन्ड में लगे हुए थे, तोड़ कर व नीज दीवार के जरिये सीढ़ी फांद कर अन्दर मस्जिद मदाखिलत कर के मूर्ती श्री भगवान की स्थापित ( कायम) कर दी और दीवारों पर अन्दर बहार सीता राम जी वगैरा गेरू से व पीले रंगे से लिख दिया, कान्सटेबल नंबर 7 बंस राज मामूर ड्यूटी मना किया, नहीं माने, पी.एस.सी की गारद, जो वहां मौजूद थी, इमदाद के लिए बुलाई, लेकिन उस वक्त तक लोग अन्दर तक मस्जिद में दाखिल हो चुके थे, अफसरान वाला, जिला, मौके पर तशरीफ़ लाये और मसरुफे-इंतजाम रहे। बादहू मजमा तख्मिनन 5-6 हजार इकठ्ठा होकर मजहबी नारे व कीर्तन लगा कर, अन्दर जाना चाहते थे, लेकिन माकूल इंतजाम होने की वजह से, राम सुकुल दस, सुदर्शन दस व पचास साठ अफराद न मालूम ने बलवा कर के मस्जिद में मदाखिलत कर के मूर्ति स्थापित करके, मस्जिद नापाक की है, मुलाजिमीन मामूरह ड्यूटी के बहुत से अफराद ने इसको देखा है लिहाजा चेक की गयी, सही है।
नोट- मैं हेड मुहर्रिर तसदीक करता हूँ कि हस्ब बयान एस.ई इत्तलाती रिपोर्ट में लफ्ज नाकाबिले तहरीर लिखा गया……….पढ़ा सही है।

दस्तखत
परमेश्वर सिंह, हेड मुहर्रिर
23-12-49
मुहर

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हम हैं हिन्दुस्तानी
अजमेर के ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर 2007 में हुए विस्फोट में संघ के सह प्रचारक इन्द्रेश कुमार, अभिनव भारत संगठन के मुखिया स्वामी असीमानंद, जय वन्देमातरम की मुखिया साध्वी प्रज्ञा सिंह, सुनील जोशी, संदीप डांगे, राम चन्द्र कलसंगारा उर्फ़ राम जी, शिवम् धाकड़, लोकेश शर्मा, समंदर और देवेन्द्र गुप्ता सहित कई हिन्दुवत्व वादी संगठनो के नेताओं के नाम आये हैं।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जो देश में अपने को बहुसंख्यक हिन्दुओं का संगठन मानता है, उसकी स्थापना 1925 में हुई थी। लेकिन आज तक यह संगठन इस देश की बहुसंख्यक हिन्दू आबादी का प्रतिनिधित्व नहीं कर पाया है इसलिए इसने अपने प्रचार तंत्र के माध्यम से दूसरे धर्मों के अनुयायियों के प्रति घ्रणा का उग्र प्रचार किया है और इससे अपने अनुवांशिक संगठनो के माध्यम से दंगे-फसाद करने का कार्य पूरे देश में नियोजित तरीके से किया है।
अपने स्थापना काल से ही 1947 तक ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ चले आन्दोलन में संघ परिवार का कोई भी व्यक्ति जेल नहीं गया था और ब्रिटिश साम्राज्यवाद की समय-समय संघ परिवार मदद करता रहा है।
संघ ने राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की हत्या से लेकर उड़ीसा, गुजरात, दिल्ली, यू.पी, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, आन्ध्र प्रदेश में नरमेध कार्यक्रम जारी रखा है। जब इतने प्रयासों के बाद भी इस संगठन को बहुसंख्यक हिन्दू जनता का प्रतिनिधित्व नहीं मिला तो इसने आतंकवाद का ही सहारा लिया, महाराष्ट्र के नांदेड कस्बे में इसके कार्यकर्ता खतरनाक आयुध बनाते समय विस्फोट हो जाने से मारे गए। दूसरी तरफ यू.पी के कानपूर में भी बजरंग दल के कार्यकर्ता बम बनाते समय मारे गए।
6 अप्रैल 2006 में नांदेड में हुए बम विस्फोट में 5 लोग पकडे भी गए जब पुलिस ने आर.एस.एस के लोगों के घरों पर छपे डाले तो छपे में मुसलमानों जैसी ड्रेस, नकली दाढ़ी, बरामद हुई जिसका उपयोग वे मस्जिद पर हमले करने की योजना बनाते समय करते थे। जिससे साम्प्रदायिक दंगे भड़के। नांदेड बम कांड के आरोपियों ने यह भी खुलासा किया था कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, विश्व हिन्दू परिसद, बजरंग दल, दक्षिण भारत में आतंकी नेटवर्क बनाकर आतंकवाद का सहारा ले रहा है।
हिन्दुवाहिन्दुवत्वत्व आतंकवाद ने देश को गृह युद्ध में झोकने के लिए आर.एस.एस के इन्द्रेश ने मोहन राव भागवत की हत्या का षड्यंत्र रचकर पूरे देश में अल्पसंख्यकों के खिलाफ जारी दुष्प्रचार के तहत ( यदि षड्यंत्र कामयाब हो जाता ) पूरे देश में अल्पसंख्यकों के विनाश की तैयारी कर ली गयी थी। मालेगांव बम विस्फोट के आरोपितों के बयानों में यह भी आया है कि आर.एस.एस के उच्च पदस्थ अधिकारी इन्द्रेश ने पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आई.एस.आई से तीन करोड़ रुपये लिए थे। पाकिस्तान की कुख्यात खुफिया एजेसी आई.एस.आई को एक समय में भारत विरोधी कार्यों के लिए सी.आई.ए ने उन्हें बाकायदा प्रशिक्षण देने के साथ आर्थिक मदद की थी। सन 1947 में भारत ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्त हुआ था और दुनिया में ब्रिटिश साम्राज्यवाद कमजोर होने की वजह से अमेरिकन साम्राज्यवाद का उदय हुआ था।

सुमन
लो क सं घ र्ष !

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इस फैसले के प्रभाव, लोकतंत्र के लिए इसके निहितार्थों, और आने वाले भविष्य के बारे में यह जो कुछ भी कहता है- इस सबने मुझे तोड़ कर रख दिया है.

मीडिया में एक के बाद एक आडम्बर प्रेमी महानुभावों द्वारा इस फैसले में किये गए समझौते की परिपक्वता के बारे दिए गए हर वक्तव्य के साथ मेरा आक्रोश बढ़ता जा रहा है.
उदाहरण के लिये- प्रतापभानु का आखिर इरादा क्या है जब वे अमन सेठी द्वारा उद्धृत लेख में कहते हैं कि इस उद्देश्य के लिये उस घटनास्थल को ही राम का जन्मस्थान मानने की स्वीकारोक्ति का एक ही अर्थ हो सकता है- धर्म के अराजनीतिकरण का प्रयास.
उसी स्थल को “इस उद्देश्य के लिये” राम का जन्मस्थान मान लेने से धर्म से राजनीति कैसे अलग हो जाती है? भूमि का स्वामित्व तय करने का उद्देश्य क्या है? संपत्ति के विवाद में आप खुद भगवान को शामिल करने जा रहे हैं और यही है “धर्म का अराजनीतिकरण”?
राम आस्था का विषय हैं या तर्क का,पौराणिक कथाओं का हिस्सा हैं या इतिहास का,समय से परे हैं या किसी विशेष कालखंड से बंधे हुए,यथार्थ हैं या कल्पना की उपज, ये सभी मुद्दे बहस का विषय हो सकते हैं.पर ऐसा लगता है कि अदालत ने यह मान लिया है कि से भारतीय समाज में व्याप्त अपनी पहचान के विभिन्न स्वरूपों से विचार-विमर्श के माध्यम छुटकारा नहीं ही मिल सकता.
प्रताप की और अदालत की भी समझ में ये “भारतीय अस्मिता” आखिर है क्या? क्या इसमें ब्रह्मह्म समाज को मानने वाले और मेरी माँ जैसे निष्ठावान सनातनी हिन्दू सम्मिलित हैं, जिन्हें यह विचार ही स्तब्ध कर देता है कि कोई हिन्दू ईश्वरीय अस्तित्व को भूमि के एक संकीर्ण, छोटे से टुकड़े तक सीमित मान सकता है? और गैर हिन्दुओं और दलितों के बारे में क्या विचार है? और नास्तिकों और धार्मिक संशयवादियों के बारे में ? और ये राम जन्मभूमि न्यास भी आखिर है क्या? मंदिर बनाने के एकमात्र उद्देश्य से अधिकतर उत्तर भारतीय साधुओं, संतों-महंतों, और विश्व हिन्दू परिषद् और भाजपा के सदस्यों द्वारा गठित एक न्यास. यही है “भारतीय” पहचान का प्रतीक?
ऐसा लगता है कि अदालत ने राज्य के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को खतरे में डाले बगैर धार्मिक दावों को स्वीकार कर लिया है. इससे शुद्धतावादी तो संतुष्ट नहीं होंगे. पर धर्मनिरपेक्षता को मज़बूत करने का यह कोई अविश्वसनीय तरीका नहीं है.
पर अदालत ने धार्मिक दावों को यथावत स्वीकार नहीं किया है; किया है क्या? सुन्नियों के, या आम भाषा में कहें तो मुसलमानों के दावे स्वीकार नहीं किये गए हैं; किये गये हैं क्या? मैं आईने की दुनिया में भटकती किंकर्तव्यविमूढ़ एलिस की तरह महसूस कर रही हूं.
मैं उकता चुकी हूं टालमटोल करती सतर्कता से: शायद फैसले के तकनीकी बिन्दुओं पर हमने ध्यान ही नहीं दिया. ये भूमि के स्वामित्व का विवाद है, हमें इसके कानूनी निहितार्थों पर ध्यान देना चाहिए, क्या हम सभी कानूनी बारीकियों को समझ पा रहे हैं………..वगैरह वगैरह.
कानूनी बारीकियां? वैधता? फैसला न केवल बहुत गैर जिम्मेदाराना है बल्कि इसमें मनमाने तरीके से यह भी तय कर लिया गया है कि कब वैधता और बारीकियों पर जोर देना है और कब उन्हें नज़रंदाज़ करना है. जब भी कोई तर्क कमज़ोर लगने लगता है तो कई अन्य, बिलकुल विरोधाभासी तर्क भी जोड़ दिए गए हैं; सिर्फ अपने बचाव के उद्देश्य से. ये तो ऐसे ही हुआ जैसे कोई झूठा कहने लगे कि माफ़ करें मैं अपना वादा पूरा नहीं कर पाया क्योंकि मैं डेंगू से ग्रस्त होकर बिस्तर पर पडा था, और मैं अपनी बीमार मां की देखभाल भी कर रहा था जिनके पैर की हड्डी टूट गई थी, और फिर काफी तेज़ बारिश होने लगी और सड़कों पर पानी भर गया.
“आस्था” किसी भी आधुनिक विधिक न्यायालय में निर्णय का पर्याप्त आधार हो सकती है, यही नहीं, ए एस आई की रिपोर्ट दिखाती है कि मस्जिद बनाने के लिये मंदिर तोड़ा गया था, और सुन्नी वक्फ बोर्ड भी निर्णायक रूप से अपना अधिकार सिद्ध करने में असमर्थ रहा है.
फिर ये है क्या?
एएसआई की रिपोर्ट की वैज्ञानिकता? कमियों से भरी, अत्यधिक संदिग्ध, और तकनीकी तौर पर अरक्षणीय.
विधिक अभिलेख? राम जन्मभूमि न्यास के पास एक भी ऐसा साक्ष्‍य नहीं है जो विधिक परीक्षण में खरा उतर सके. २० मार्च, १९९२ के पट्टे के दस्तावेज़ से, जो ४३ एकड़ भूमि पर राम जन्मभूमि न्यास और विश्व हिन्दू परिषद् के दावे का आधार है, स्पष्ट हो जाता है कि वह भूमि उत्तर प्रदेश सरकार की थी और न्यास को विशिष्ट उद्देश्य मात्र के लिये दी गयी थी. यह सरकारी ज़मीन है जिसका उपयोग सार्वजनिक उद्देश्य के लिये ही किया जा सकता है. मंदिर का निर्माण ऐसे उद्देश्यों के विपरीत है. अतः भूमि पर न्यास का कोई कानूनी स्वामित्व नहीं है.
इस लिये आस्था का सहारा लिया गया. पर आपको एक बात पता है? आस्था तो सुन्नी वक्फ बोर्ड के पास भी बहुतेरी है.
प्रताप ये भी कहते हैं संपत्ति के मामले में “किसी भी पक्ष द्वारा अधिकतम की मांग करना एक भूल होगी.””किसी भी पक्ष” का तात्पर्य सुन्नी वक्फ बोर्ड ही हो सकता है क्योंकि न तो न्यास, न ही अखाड़े द्वारा अदालत से मिली भूमि से अधिक की मांग करने की संभावना है. प्रताप चेतावनी देते हैं कि जितनी मिली है उससे अधिक भूमि की मांग करने का अर्थ होगा, वे लोग संपत्ति के लोभ में जिद्दी हो गये हैं. इसका अर्थ यही हुआ कि यदि न्यास भूमि पर दावा करता हो वह तो अनेक अमूर्त और ऊंचे सिद्धांतों और ईश्वर तक की प्रेरणा से ऐसा कर रहा है. पर यदि वक्फ बोर्ड अपनी कानूनी संपत्ति पर दावा करे तो वह लोभ और असभ्यता प्रदर्शित कर रहा है.
जब सारा तर्क ख़ामोश हो जाता है,तो हर ओर लोग बड़बड़ाने लगते हैं, पर कल्पना कीजिये कि फैसले में यह मान लिया गया होता कि “हिन्दुओं” के दावे का कोई भी कानूनी आधार नहीं है; तब क्या हुआ होता, तब होता रक्तपात और नरसंहार.
तो ये है असली मुद्दा. पर अगर ऐसा ही है, अगर सचमुच रक्तपात रोकने के लिये ये सब किया गया है, और अगर इसके लिये हत्यारों को संतुष्ट करना आवश्यक है तो अदालत जाने की आवश्यकता ही क्या थी? दोनों समुदायों के समझदार लोगों की एक उपयुक्त “पंचायत” में बातचीत द्वारा निपटारा क्यों न कर लिया जाय जिसमें कमज़ोर पक्ष पूरी तरह समझौता कर ले और उसके बाद हमेशा ख़ामोश रहे ?
महिला के साथ बलात्कार हुआ है, वह गर्भवती है, उसका कोई आसरा नहीं है, पंचायत बैठती है, बलात्कारी उससे विवाह करने को तैयार हो जाता है,सारा मामला सुलझ गया. अब बच्चा अवैध संतान नहीं होगा, स्त्री को एक पति मिल जायेगा. और जो भी हो, कल्पना करो कि वो उससे शादी करने को तैयार न होता, हम क्या करते, उस महिला को आत्महत्या करनी पड़ती. या फिर हमें ही उसे मारना पड़ता. उसके एक और पत्नी है. कोई बात नहीं. वो शराबी है और कई बलात्कार कर चुका है. कोई बात नहीं अगर उस लड़की की मांग भर जाये.
हमारा काम हो गया. हमने मामला सुलझा दिया, अब आगे बढ़ें. गड़े मुर्दे मत उखाड़ो. क्या फायदा?
बीती ताहि बिसार दे? ठीक है, पर मैं भ्रमित हूं. आपका मतलब है कि हम भूल जायें कि मस्जिद बनाने के लिये बाबर ने कोई मंदिर तोड़ा था या नहीं?
अरे नहीं, नहीं. बीती बात से हमारा मतलब था १८ वर्ष पहले १९९२ में मस्जिद तोड़ने से. उसे भूल जाओ. और वो अतीत जब बाबर ने मंदिर तोड़ा था? ५०० वर्ष पहले? वो अतीत तो हम हमेशा याद रखेंगे.
हम हैं वे बलात्कार की शिकार महिलाए जिनकी शादी उनके बलात्कारियों के साथ कर दी गई है ताकि गाँव पहले जैसा ही चलता रहे.
हम का अर्थ साफ़ है- मुस्लिम और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक.
और वे हिन्दू भी जिनके लिये राम अप्रासंगिक हैं.
और हम बेचारे भोले लोग – अपने नामों में अपनी धार्मिक सामुदायिक पहचान संजोये, और उन निजी कानूनों में जो नियंत्रित करते हैं हमें, मगर जीते हुए इस भ्रम में कि हम नागरिक हैं एक आधुनिक लोकतंत्र के, और जीते हुए इस भरोसे के साथ कि किसी भी संघर्ष में हर समुदाय और समूह के साथ न्याय होना ही चाहिए. हम में से बहुतेरे उस समय गला फाड़ कर चिल्लाते थे – ये एक राजनीतिक मुद्दा है. ये अदालत में तय नहीं किया जा सकता. इस पर राजनीतिक विचार विमर्श होना चाहिये,हर स्तर पर लगातार काम करते हुए,भारतीय समाज के सभी तबकों की बात सुनी जानी चाहिए इस बहस में,इसे एक तरह का बड़ा, सार्वजनिक, राष्ट्रीय जनमत संग्रह बन जाने दो.
पर ये कहना कितना आसान है – “अदालत को तय करने दो.” मानो अदालतें समकालीन राजनीति से ऊपर होती हों.
सो अब अदालत ने तय कर दिया है.
और हमारी शादी हमारे बलात्कारियों के साथ कर दी गई है.हमें खामोश कर दिया गया है हिंसा की धमकी देकर. कम से कम हम ये दिखावा तो न करें कि ये वीभत्स परिस्थित बिलकुल सही और न्याय संगत है.

निवेदिता मेनन
(kafila.org से साभार)

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उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव चल रहे हैं। तीन चरणों में मतदान पूरा हो चुका है। चौथे चरण का मतदान 25 अक्टूबर को होना है। इन चुनावों की मुख्य विशेषता यह है कि मंत्रियों के पूरे के पूरे परिवार चुनाव मैदान में हैं। चुनाव से जुड़े हुए अधिकारीयों कर्मचारियों के परिवार के लोग चुनाव मैदान में होने के कारण चुनाव आचार संहिता का कोई अर्थ नहीं रह गया है। चुनाव आचार संहिता का उपयोग विपक्षी प्रत्याशियों के उत्पीडन के लिए किया जा रहा है। प्रशासनिक गुंडागर्दी का यह आलम है कि लोगों की मोटरसाइकिलों तक पंचर कर दी जा रही हैं। मतदाताओं की जबरदस्त पिटाई की जा रही है। उसके बावजूद भी चुनावी हिंसा रुकने का नाम नहीं ले रही है। वहीँ प्रत्याशी मतदाताओं को दारु-मुर्गा, साड़ी, सहित तमाम तरह की घूस मतदाताओं को दे रहे हैं।
लोकतान्त्रिक व्यवस्था के पतन की तस्वीर इन चुनावों में दिखाई दे रही है। यदि सरकारी चुनाव मशीनरी निष्पक्ष तरीके से कार्य करे तो काफी हद तक लोकतान्त्रिक व व्यवस्थित तरीके से चुनाव संपन्न कराया जा सकता है। अन्यथा इस तरह से चुने गए उमीदवार सिर्फ घोटाला करने के अतिरिक्त कुछ करते नहीं हैं।

सुमन
लो क सं घ र्ष !

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२१ अक्टूबर 2010 को नयी दुनिया में प्रकाशित खबर

दिल्ली में छात्रों को डी.टी.सी बसों से यात्रा करने के लिए आन्दोलन का सहारा लेना पड़ रहा है जबकि दिल्ली सरकार को अविलम्ब छात्रों की सुविधा के लिए बसों की व्यवस्था करनी चाहिए। दिल्ली में पूरे देश के नौजवान अध्ययन हेतु जाते हें। सरकार की पहली प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि उन छात्रों को अध्ययन हेतु समस्त सुविधाएं उपलब्ध कराएं लेकिन दिल्ली परिवहन के अधिकारी श्री कसाना ने हिटलरी अंदाज में बसें चलाने के लिए मना कर दिया जबकि केंद्र सरकार व दिल्ली राज्य सरकार ने लगभग 70 हजार करोड़ रुपये से अधिक रुपया राष्ट्रमंडल खेलों के लिए खर्च किया। उसमें हजारों हजार करोड़ रुपये नेताओं और अधिकारियों की जेब में लूट खसोट कर के चला गया लेकिन छात्रों को सुविधा देने में भ्रष्टाचार या आर्थिक मुनाफा कम होना है इसलिए ऐसे जवाब अधिकारियों द्वारा दिए जा रहे हें। दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति की नैतिक जिम्मेदारी है कि वह अविलम्ब दिल्ली परिवहन के अधिकारियों से बातचीत कर परिवहन सुविधाएं उपलब्ध कराएं। दिल्ली में जाकर अध्ययन करने वाले छात्रों में काफी छात्र सामान्य माध्यम वर्गीय घरों के होते हें जो अपनी भूख और प्यास पर काबू कर अध्ययन कार्य करते हैं। इन्ही छात्रों की प्रतिभों से नए भारत का निर्माण होना है। भ्रष्टाचारियों व लूट-खसोट मचाने वाले लोगों से नहीं। लोकसंघर्ष परिवार को पूर्ण विश्वास है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति महोदय अविलम्ब इस समस्या का निदान कराएँगे।

सुमन
लो क सं घ र्ष !

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भारत के प्रधानमंत्री डॉ॰ मनमोहन सिंह को संसद भवन से सुरक्षा के नाम पर वापस लौटना पड़ा। वहीँ गृहमंत्री पी.चिदंबरम को राष्ट्रमंडल खेलों की सुरक्षा तैयारी के सम्बन्ध में खेल स्थल पर पहुँचने के लिए 500 मीटर पैदल जाना पड़ा और ड्राईवर व अन्य स्टाफ को बड़ी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। दोनों घटनाओ में सुरक्षा एजेंसियों में तालमेल न होना मुख्य कारण बताया गया। इस सम्बन्ध में मेरे एक मित्र मोस्को से लौटने के बाद बताया था कि साधारण सी मीटिंग में उनको 500 मीटर ले जाने के लिए काले शीशे की बंद गाडी में 10 किलोमीटर का चक्कर लगाकर ले जाया जाता था। बैठक समाप्त हो जाने के बाद मेरे मित्र महोदय पैदल टहलते हुए अपने होटल आ जाते थे। उन्होंने सुरक्षा व्यवस्था का विश्लेषण करते हुए बताया कि जनता और नेताओं के बीच में एक इस्पात की मजबूत दीवाल खड़ी की जा रही है। जिससे नेता और जनता के बीच में संपर्क में न रहे और पूरे देश में खुफिया एजेंसियों के अधिकारीयों का वास्तविक राज कायम हो जाता है। खुफिया अधिकारी तरह-तरह के किस्से और कहानियां गढ़ कर राजनेताओं को भयभीत करने का भी कार्य करते हैं। यह स्तिथि किसी भी देश के लिए खतरनाक होती है।
साधारणतय: चुनाव के दरमियान सुरक्षा व शांतिपूर्वक चुनाव के नाम पर जो गुंडागर्दी प्रशासनिक होती है वह अद्भुद है। दूर-दराज के इलाकों में मतदान करने जाने का मतलब है कि सरकारी मशीनरी द्वारा बेइज्जत होना और पिटना है। प्रशासनिक अधिकारी चुनाव के समय जब निकलता है तो उसके साथ चल रही फ़ौज हटो और बचो के बीच जनता को जबरदस्त तरीके से पीटने का ही कार्य करती है। उच्च न्यायलय द्वारा बाबरी मस्जिद प्रकरण पर फैसला सुनाये जाने से पहले दो बार पूरे प्रदेश में कर्फ्यू जैसी स्तिथि पैदा की गयी। अब यह स्तिथि आम हो गयी है कि सुरक्षा के नाम पर नग्न तांडव होने लगता है और अगर इन सभी प्रकरणों में वित्तीय चीजों की जांच की जाये तो पता चलेगा की करोड़ो रुपयों की हेरा-फेरी भी हो रही है। आज बड़ी जरूरत है कि सुरक्षा के नाम पर हो रहे उत्पीडन को रोका जाए।

सुमन
लो क सं घ र्ष !

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राष्ट्रमंडल खेलों में जहाँ आयोजन समिति से जुड़े हुए कांग्रेस के नेताओं ने जमकर लूट खसोट की है वहीँ भारतीय जनता पार्टी के नेतागण उसमें हिस्सेदारी करने से चुके नहीं हैं। भाजपा व उसे जुड़े संघ के नेता हर समय सामाजिक शुचिता व आदर्शों की बात करते हैं लेकिन जब-जब मौका मिला है। भ्रष्टाचार की गंगोत्री में जमकर स्नान किया है। भाजपा के नेता सुधांशु मित्तल की कंपनी राष्ट्रमंडल खेलों में सात सौ करोड़ रुपयों से अधिक का कार्य किया। उसमें भ्रष्टाचार की जांच के लिए आयकर विभाग ने लगभग 30 ठिकानो पर छापे डाले हैं।

राष्ट्रमंडल खेलों में बैडमिंटन स्टेडियम के होवा कोर्ट खरीद में डेढ़ करोड़ रुपये का गबन ही है। केन्द्रीय सतर्कता आयोग ने प्रारंभिक जांच में ही लगभग 8 हजार करोड़ रुपये की धांधली पकड़ी है। ज्ञातव्य है की आयोजन समाप्ति के बाद तुरंत पूरे देश में एक साथ छापेमारे जाने की तैयारी केन्द्रीय जांच ब्यूरो ने की थी किन्तु सत्तारूढ़ दल के बड़े नेताओं के हस्ताक्षेप के बाद उक्त कार्यवाई स्थगित कर दी गयी थी। संसद के अन्दर सत्तारूढ़ दल और मुख्य विपक्षी दल भाजपा नूराकुश्ती लड़ कर इन घोटालों के ऊपर पर्दा डालने का काम करेगी। देश के अन्दर जिस क्षेत्र में आप नजर डालेंगे वहां पर आर्थिक घोटालेबाजों की फ़ौज ही नजर आएगी। इस तरह से भाजपा कांग्रेस या अन्य पूंजीवादी दल हमेशा भ्रष्टाचार की प्राण वायु से ही जिन्दा हैं।

सुमन
लो क सं घ र्ष !

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