इस फैसले के प्रभाव, लोकतंत्र के लिए इसके निहितार्थों, और आने वाले भविष्य के बारे में यह जो कुछ भी कहता है- इस सबने मुझे तोड़ कर रख दिया है.
मीडिया में एक के बाद एक आडम्बर प्रेमी महानुभावों द्वारा इस फैसले में किये गए समझौते की परिपक्वता के बारे दिए गए हर वक्तव्य के साथ मेरा आक्रोश बढ़ता जा रहा है.
उदाहरण के लिये- प्रतापभानु का आखिर इरादा क्या है जब वे अमन सेठी द्वारा उद्धृत लेख में कहते हैं कि इस उद्देश्य के लिये उस घटनास्थल को ही राम का जन्मस्थान मानने की स्वीकारोक्ति का एक ही अर्थ हो सकता है- धर्म के अराजनीतिकरण का प्रयास.
उसी स्थल को “इस उद्देश्य के लिये” राम का जन्मस्थान मान लेने से धर्म से राजनीति कैसे अलग हो जाती है? भूमि का स्वामित्व तय करने का उद्देश्य क्या है? संपत्ति के विवाद में आप खुद भगवान को शामिल करने जा रहे हैं और यही है “धर्म का अराजनीतिकरण”?
राम आस्था का विषय हैं या तर्क का,पौराणिक कथाओं का हिस्सा हैं या इतिहास का,समय से परे हैं या किसी विशेष कालखंड से बंधे हुए,यथार्थ हैं या कल्पना की उपज, ये सभी मुद्दे बहस का विषय हो सकते हैं.पर ऐसा लगता है कि अदालत ने यह मान लिया है कि से भारतीय समाज में व्याप्त अपनी पहचान के विभिन्न स्वरूपों से विचार-विमर्श के माध्यम छुटकारा नहीं ही मिल सकता.
प्रताप की और अदालत की भी समझ में ये “भारतीय अस्मिता” आखिर है क्या? क्या इसमें ब्रह्मह्म समाज को मानने वाले और मेरी माँ जैसे निष्ठावान सनातनी हिन्दू सम्मिलित हैं, जिन्हें यह विचार ही स्तब्ध कर देता है कि कोई हिन्दू ईश्वरीय अस्तित्व को भूमि के एक संकीर्ण, छोटे से टुकड़े तक सीमित मान सकता है? और गैर हिन्दुओं और दलितों के बारे में क्या विचार है? और नास्तिकों और धार्मिक संशयवादियों के बारे में ? और ये राम जन्मभूमि न्यास भी आखिर है क्या? मंदिर बनाने के एकमात्र उद्देश्य से अधिकतर उत्तर भारतीय साधुओं, संतों-महंतों, और विश्व हिन्दू परिषद् और भाजपा के सदस्यों द्वारा गठित एक न्यास. यही है “भारतीय” पहचान का प्रतीक?
ऐसा लगता है कि अदालत ने राज्य के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को खतरे में डाले बगैर धार्मिक दावों को स्वीकार कर लिया है. इससे शुद्धतावादी तो संतुष्ट नहीं होंगे. पर धर्मनिरपेक्षता को मज़बूत करने का यह कोई अविश्वसनीय तरीका नहीं है.
पर अदालत ने धार्मिक दावों को यथावत स्वीकार नहीं किया है; किया है क्या? सुन्नियों के, या आम भाषा में कहें तो मुसलमानों के दावे स्वीकार नहीं किये गए हैं; किये गये हैं क्या? मैं आईने की दुनिया में भटकती किंकर्तव्यविमूढ़ एलिस की तरह महसूस कर रही हूं.
मैं उकता चुकी हूं टालमटोल करती सतर्कता से: शायद फैसले के तकनीकी बिन्दुओं पर हमने ध्यान ही नहीं दिया. ये भूमि के स्वामित्व का विवाद है, हमें इसके कानूनी निहितार्थों पर ध्यान देना चाहिए, क्या हम सभी कानूनी बारीकियों को समझ पा रहे हैं………..वगैरह वगैरह.
कानूनी बारीकियां? वैधता? फैसला न केवल बहुत गैर जिम्मेदाराना है बल्कि इसमें मनमाने तरीके से यह भी तय कर लिया गया है कि कब वैधता और बारीकियों पर जोर देना है और कब उन्हें नज़रंदाज़ करना है. जब भी कोई तर्क कमज़ोर लगने लगता है तो कई अन्य, बिलकुल विरोधाभासी तर्क भी जोड़ दिए गए हैं; सिर्फ अपने बचाव के उद्देश्य से. ये तो ऐसे ही हुआ जैसे कोई झूठा कहने लगे कि माफ़ करें मैं अपना वादा पूरा नहीं कर पाया क्योंकि मैं डेंगू से ग्रस्त होकर बिस्तर पर पडा था, और मैं अपनी बीमार मां की देखभाल भी कर रहा था जिनके पैर की हड्डी टूट गई थी, और फिर काफी तेज़ बारिश होने लगी और सड़कों पर पानी भर गया.
“आस्था” किसी भी आधुनिक विधिक न्यायालय में निर्णय का पर्याप्त आधार हो सकती है, यही नहीं, ए एस आई की रिपोर्ट दिखाती है कि मस्जिद बनाने के लिये मंदिर तोड़ा गया था, और सुन्नी वक्फ बोर्ड भी निर्णायक रूप से अपना अधिकार सिद्ध करने में असमर्थ रहा है.
फिर ये है क्या?
एएसआई की रिपोर्ट की वैज्ञानिकता? कमियों से भरी, अत्यधिक संदिग्ध, और तकनीकी तौर पर अरक्षणीय.
विधिक अभिलेख? राम जन्मभूमि न्यास के पास एक भी ऐसा साक्ष्य नहीं है जो विधिक परीक्षण में खरा उतर सके. २० मार्च, १९९२ के पट्टे के दस्तावेज़ से, जो ४३ एकड़ भूमि पर राम जन्मभूमि न्यास और विश्व हिन्दू परिषद् के दावे का आधार है, स्पष्ट हो जाता है कि वह भूमि उत्तर प्रदेश सरकार की थी और न्यास को विशिष्ट उद्देश्य मात्र के लिये दी गयी थी. यह सरकारी ज़मीन है जिसका उपयोग सार्वजनिक उद्देश्य के लिये ही किया जा सकता है. मंदिर का निर्माण ऐसे उद्देश्यों के विपरीत है. अतः भूमि पर न्यास का कोई कानूनी स्वामित्व नहीं है.
इस लिये आस्था का सहारा लिया गया. पर आपको एक बात पता है? आस्था तो सुन्नी वक्फ बोर्ड के पास भी बहुतेरी है.
प्रताप ये भी कहते हैं संपत्ति के मामले में “किसी भी पक्ष द्वारा अधिकतम की मांग करना एक भूल होगी.””किसी भी पक्ष” का तात्पर्य सुन्नी वक्फ बोर्ड ही हो सकता है क्योंकि न तो न्यास, न ही अखाड़े द्वारा अदालत से मिली भूमि से अधिक की मांग करने की संभावना है. प्रताप चेतावनी देते हैं कि जितनी मिली है उससे अधिक भूमि की मांग करने का अर्थ होगा, वे लोग संपत्ति के लोभ में जिद्दी हो गये हैं. इसका अर्थ यही हुआ कि यदि न्यास भूमि पर दावा करता हो वह तो अनेक अमूर्त और ऊंचे सिद्धांतों और ईश्वर तक की प्रेरणा से ऐसा कर रहा है. पर यदि वक्फ बोर्ड अपनी कानूनी संपत्ति पर दावा करे तो वह लोभ और असभ्यता प्रदर्शित कर रहा है.
जब सारा तर्क ख़ामोश हो जाता है,तो हर ओर लोग बड़बड़ाने लगते हैं, पर कल्पना कीजिये कि फैसले में यह मान लिया गया होता कि “हिन्दुओं” के दावे का कोई भी कानूनी आधार नहीं है; तब क्या हुआ होता, तब होता रक्तपात और नरसंहार.
तो ये है असली मुद्दा. पर अगर ऐसा ही है, अगर सचमुच रक्तपात रोकने के लिये ये सब किया गया है, और अगर इसके लिये हत्यारों को संतुष्ट करना आवश्यक है तो अदालत जाने की आवश्यकता ही क्या थी? दोनों समुदायों के समझदार लोगों की एक उपयुक्त “पंचायत” में बातचीत द्वारा निपटारा क्यों न कर लिया जाय जिसमें कमज़ोर पक्ष पूरी तरह समझौता कर ले और उसके बाद हमेशा ख़ामोश रहे ?
महिला के साथ बलात्कार हुआ है, वह गर्भवती है, उसका कोई आसरा नहीं है, पंचायत बैठती है, बलात्कारी उससे विवाह करने को तैयार हो जाता है,सारा मामला सुलझ गया. अब बच्चा अवैध संतान नहीं होगा, स्त्री को एक पति मिल जायेगा. और जो भी हो, कल्पना करो कि वो उससे शादी करने को तैयार न होता, हम क्या करते, उस महिला को आत्महत्या करनी पड़ती. या फिर हमें ही उसे मारना पड़ता. उसके एक और पत्नी है. कोई बात नहीं. वो शराबी है और कई बलात्कार कर चुका है. कोई बात नहीं अगर उस लड़की की मांग भर जाये.
हमारा काम हो गया. हमने मामला सुलझा दिया, अब आगे बढ़ें. गड़े मुर्दे मत उखाड़ो. क्या फायदा?
बीती ताहि बिसार दे? ठीक है, पर मैं भ्रमित हूं. आपका मतलब है कि हम भूल जायें कि मस्जिद बनाने के लिये बाबर ने कोई मंदिर तोड़ा था या नहीं?
अरे नहीं, नहीं. बीती बात से हमारा मतलब था १८ वर्ष पहले १९९२ में मस्जिद तोड़ने से. उसे भूल जाओ. और वो अतीत जब बाबर ने मंदिर तोड़ा था? ५०० वर्ष पहले? वो अतीत तो हम हमेशा याद रखेंगे.
हम हैं वे बलात्कार की शिकार महिलाए जिनकी शादी उनके बलात्कारियों के साथ कर दी गई है ताकि गाँव पहले जैसा ही चलता रहे.
हम का अर्थ साफ़ है- मुस्लिम और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक.
और वे हिन्दू भी जिनके लिये राम अप्रासंगिक हैं.
और हम बेचारे भोले लोग – अपने नामों में अपनी धार्मिक सामुदायिक पहचान संजोये, और उन निजी कानूनों में जो नियंत्रित करते हैं हमें, मगर जीते हुए इस भ्रम में कि हम नागरिक हैं एक आधुनिक लोकतंत्र के, और जीते हुए इस भरोसे के साथ कि किसी भी संघर्ष में हर समुदाय और समूह के साथ न्याय होना ही चाहिए. हम में से बहुतेरे उस समय गला फाड़ कर चिल्लाते थे – ये एक राजनीतिक मुद्दा है. ये अदालत में तय नहीं किया जा सकता. इस पर राजनीतिक विचार विमर्श होना चाहिये,हर स्तर पर लगातार काम करते हुए,भारतीय समाज के सभी तबकों की बात सुनी जानी चाहिए इस बहस में,इसे एक तरह का बड़ा, सार्वजनिक, राष्ट्रीय जनमत संग्रह बन जाने दो.
पर ये कहना कितना आसान है – “अदालत को तय करने दो.” मानो अदालतें समकालीन राजनीति से ऊपर होती हों.
सो अब अदालत ने तय कर दिया है.
और हमारी शादी हमारे बलात्कारियों के साथ कर दी गई है.हमें खामोश कर दिया गया है हिंसा की धमकी देकर. कम से कम हम ये दिखावा तो न करें कि ये वीभत्स परिस्थित बिलकुल सही और न्याय संगत है.
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