जब भारत की संविधान सभा ने भारत के संविधान को अंतिम रूप दिया (नवम्बर 26,1949) तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने मनुस्मृति को भारत का संविधान घोषित नहीं किये जाने पर जोरदार आपत्ति व्यक्त की। अपने मुखपत्र में एक सम्पादकीय में उसने शिकायत इस प्रकार की:
हमारे संविधान में प्राचीन भारत में विलक्षण संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है। मनु की विधि स्पार्टा के लाइकरगुस या पर्सिया के सोलोन के बहुत पहले लिखी गयी थी। आज तक इस विधि की जो ‘मनुस्मृति’ में उल्लिखित है, विश्वभर में सराहना की जाती रही है और यह स्वत: स्फूर्त धार्मिक नियम-पालन तथा समानुरुपता पैदा करती है। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितो के लिए उसका कोई अर्थ नहीं है।’
26 जनवरी 1950 में भारत को गणतंत्र घोषित किया गया और संविधान को पूर्ण रूप से लागू किया गया। इस अवसर पर उच्च न्यायलय के एक सेवानिवृत्त न्यायधीश शंकर
सुब्बा अय्यर ने आरएसएस मुखपत्र में ‘मनु हमारे ह्रदय को शासित करते हैं’ शीर्षक के अंतर्गत लिखा:
हालाँकि डॉक्टर अम्बेडकर ने हाल ही में बम्बई में कहा कि मनु के दिन लद गए हैं, पर फिर भी यह एक तथ्य है कि आज भी हिन्दुवों का दैनिक जीवन मनुस्मृति तथा अन्य स्मृतियों में उल्लिखित सिधान्तों एवं आदेशों से प्रभावित है। यहाँ तक कि जो रुढ़िवादी हिन्दू नहीं हें, वे भी कुछ मामलों में स्मृतियों में उल्लिखित कुछ नियमो से अपने को बंधा हुआ महसूस करते हें और वे उनमें अपनी निष्ठा का पूरी तरह परित्याग करने में लाचार महसूस करते हें।’
यहाँ यह जानना जरूरी है कि 1927 में डॉक्टर अम्बेडकर की मौजूदगी में मनुस्मृति को एक अमानवीय ग्रन्थ मानकर इसकी प्रति जलाई गयी थी।
क्रमश:
-आरएसएस को पहचानें किताब से साभार