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Archive for दिसम्बर 22nd, 2010


ग्यारहवीं योजना में रोजगार

नवउदारीकरण के बीस सालों में भारत के आर्थिक बढ़त की दर में निश्चित रूप से इजाफा हुआ है। इसके पहले चालीस सालों में भी राष्ट्रीय आय में वृद्धि हुई थी। कष्ट तब भी था और अब भी है कि देश में उल्लेखनीय बढ़त के बावजूद आजीविका के अवसर नहीं बढ़े हैं। बेरोजगारों की संख्या में भारी वृद्धि हुई है। आजीविका के अवसर उत्पादन पद्धति और प्राद्योगिकी से सीधे-सीधे संबंधित होते हैं। यह संबंध मात्रात्मक और गुणात्मक दोनों तरह का है। इसलिए किसी भी देश की विकास नीति का एक अहम पहलू बेरोजगारों को आजीविका के अवसर प्रदान करना होता है। नीतियों को इस तरह तय करना पड़ेगा ताकि लोगों को ऐसे अवसर पर्याप्त रूप से उपलब्ध हों और इस तरह प्राप्त आय से उत्पन्न मांग के अनुरूप उत्पादन भी बढ़े। उत्पादन की पर्याप्तता का अर्थ केवल कुल उत्पादन की मात्रा या प्रति व्यक्ति उत्पादन से जोड़ना अपूर्ण और भ्रामक होगा, उसे अर्थवान बनाने के लिए यह देखना जरूरी है कि उत्पादन लोगों की जरूरतों और क्रयशक्ति के अनुरूप है या नहीं। यदि उत्पादन की प्रक्रिया में सब लोगों की कार्यक्षमता का उपयोग नहीं हो पाता है अर्थात् लोगों को उत्पाद करने की प्रक्रिया में भागीदारी नहीं मिलती है, तो जाहिर है कि उन्हें उत्पादन या आमदनी में कोई हिस्सा नहीं मिल पाएगा। वैसे भी किसी बाजार और विनिमय अर्थव्यवस्था में काम के बदले आमदनी और संपत्ति मिलती है। हमारे देश में अधिकांश लोग संपत्ति-विहीन हैं। उनके पास खेती और वासगीत जमीन का छोटा-सा टुकड़ा भी नहीं है। ऐसे लोगों की आमदनी का एकमात्रा जरिया काम करके बदले में आमदनी प्राप्त करना होता है। हमारे यहां तो यह कानूनी और औपचारिक व्यवस्था भी नहीं है कि जब किसी के पास आमदनी का कोई जरिया नहीं हो, तो उसे राज्य अथवा किसी सामाजिक संस्था द्वारा सामाजिक सुरक्षा के बतौर कोई सहायता मिले। सर्वविदित बातों का एक बार फिर से उल्लेख करने मंे हमारा मकसद यह दिखाना है कि भारतवासियों के लिए सबसे गंभीर सवाल है आमदनी या रोजगार के पर्याप्त और टिकाऊ साधन का अभाव। जब लोगों को रोजगार मिलेगा, तो स्पष्ट है कि उत्पादन बढ़ेगा। रोजगार का अर्थ ही है उत्पादन करना। बाजार अर्थव्यवस्था में उत्पादन का एक मकसद उत्पादित माल को बेचकर आमदनी करना है, तो साथ में यह भी कि इस उत्पादित माल से उत्पादनकर्ताओं की जरूरतें पूरी हों, ताकि वे जिंदा रह सकें और अपने परिवार का लालन-पालन कर सकें। इसीलिए डच अर्थशास्त्राी यान टिनबरजेन ने लिखा था कि तीसरी दुनिया के देशों में रोजगार चाहे किसी भी किस्म का हो, वह रोजगारविहीनता से बेहतर है, चाहे वह उत्पादन अथवा आमदनी कितनी भी साधारण या कम क्यों न हो। टिनबरजेन ने रेखांकित किया कि रोजगार के अवसर प्रदान करना गरीबी मिटाने का सबसे कारगर तरीका है। इस बात से यह अर्थ भी निकलता है कि जब रोजगार बढ़ेगा तो उत्पादों को बेच कर मुनाफा कमाने के इच्छुक उद्यमी भी यह कोशिश करेंगे कि उत्पादन लोगों की जरूरतों और मांग के अनुरूप हो μ मात्रा में भी और गुण में भी। इसी तरह के विचार को रेखांकित करते हुए पी.सी. महालनोबीस ने 1955 में लिखा था कि इंसान को बेरोजगार रखने से तो अच्छा है कि मशीनें बिना इस्तेमाल के पड़ी रहें। विकासशील देशों के मामले में गरीबी घटाने और रोजगार बढ़ाने के पारस्परिक संबंध की महत्ता को बताते हुए डडले सीयर्स ने 1979 लिखा था कि सामाजिक विषमता के मसले को सुलझाने के लिए बेरोजगारी के सवाल से निपटना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। सीयर्स का कहना था कि बेरोजगारी घटाने का अर्थ है गरीबी और असमानता के मुख्य कारण को हटाना।
उपरोक्त विवेचन को सामाजिक-आर्थिक अध्ययनों का निर्विवाद निष्कर्ष माना जा सकता है। किंतु फिर भी व्यवहार में देखा गया है कि पश्चिम के अर्थशास्त्रिायों द्वारा प्रचारित अर्थिक विकास की मुख्यधारा में लगातार रोजगार बढ़ाकर पूर्ण रोजगार की स्थिति की ओर बढ़ने के मुकाबले बचत, निवेश तथा तकनीकी सुधारों के द्वारा उत्पादन कोे लगातार तेजी से बढ़ाने को ज्यादा महत्त्व या प्राथमिकता दी गई है। यहां तक कि उत्पादन बढ़त की उच्चतम प्राथमिकता के फलस्वरूप संभावित रोजगार बढ़त को उसके एक सुफल के रूप में देखा गया है। इस मत में यह विचार नहीं किया गया है कि श्रमिकों की कुल उपलब्ध संख्या के मुकाबले इस प्रकार बढ़ते रोजगार के अवसरों का अनुपात कितना है यानी कितने अरसे तक और कितनी तेजी से बढ़ने पर उत्पादन-वृद्धि की यह प्रक्रिया सबको अजीविका प्राप्ति के पर्याप्त और नियमित अवसर दे पाएगी। वैसे कई देशों का अनुभव यह बताता है कि राष्ट्रीय आय की बढ़त की प्रक्रिया में ऐसी तकनीकों का उपयोग किया जाता है कि रोजगार के अवसर घट जाते हैं और देश की श्रमशक्ति का एक हिस्सा बेरोजगार बना रह जाता है। दुनियाभर में सदियों और दशकों से लगातार समृद्ध होते देशों में भी सबको सतत, पुख्ता और न्यूनतम आमदनी देने में सक्षम रोजगार के अवसर नहीं मिल पाए हैं। कुल मिलाकर ऐसी ही प्रक्रियाओं का नतीजा है कि पश्चिम में ऊंची प्रति व्यक्ति आय प्राप्त करने में सफल अनेक देशों में श्रमशक्ति के 6 से 8 प्रतिशत तक की संख्या में लोगों के रोजगारविहीन रहने की स्थिति को स्वाभाविक मान लिया गया है। तर्क यह दिया जाता है कि यदि निजी उद्यम अथवा निजी उद्यमियों की आर्थिक स्वतंत्राता बनाए रखनी है तो इतनी और इस तरह की बेरोजगारी इस आजादी की अनिवार्य कीमत है। यहां यह बात गौर करने लायक है कि इन ज्यादातर धनी देशों में कम-से-कम यह व्यवस्था कर दी गई है कि बेरोजगार लोगों को सामाजिक सहायता और सुरक्षा के बतौर बेरोजगारी भत्ता मिलता रहेगा।
स्पष्ट है कि रोजगार को उत्पादन के मुकाबले कम तरजीह देना भारत-जैसे गरीबी, बेरोजगारी और विषमता की विशाल, विकराल और बढ़ती हुई समस्याओं से ग्रस्त देश में कभी भी, किसी भी सामाजिक, आर्थिक और नैतिक विवेचन के आधार पर सही नहीं ठहराया जा सकता। मुख्य रूप से उत्पादनोन्मुख अर्थिक नीति की वकालत करने वाले या तो सामाजिक सुरक्षा के बारे में सोचते ही नहीं है अथवा यह मानते हैं कि ऐसा कोई भी उपाय वर्तमान राष्ट्रीय क्षमता के बूते की बात नहीं है। इस प्रक्रिया में आम आदमी की जरूरत के साजो-सामान और सेवाओं के उत्पादन को गौण माना जाता है, क्योंकि जिन्हें इस तरह की चीजों की आवश्यकता होती है उनके पास उन चीजों को खरीदने लायक आमदनी नहीं होती है। दूसरी ओर बचत, निवेश और तकनीकी सुधार के द्वारा लगातार उत्पादन बढ़ाने अथवा एक सीमा तक विभिन्न प्रकार की अर्थिक-वित्तीय रणनीतियों द्वारा अपना मुनाफा बढ़ाने में सफल लोगों के हाथ में इतनी क्रयशक्ति होती है कि उनकी तुच्छ-से-तुच्छ या गौण-से-गौण इच्छा की पूर्ति करने के लिए न केवल बेशुमार उत्पादन किया जाता है बल्कि इस अत्यंत छोटे-से तबके को रिझाने-लुभाने के लिए विज्ञापन आदि पर बेतहाशा खर्च किया जाता है। संक्षेप में, इन अर्थव्यवस्थाओं का चरित्रा जनोन्मुख नहीं होकर उत्पादन और मुनाफे पर केंद्रित हो जाता है। हम यहां इन प्रमुख आर्थिक प्रवृत्तियों के चलते पर्यावरण प्रदूषण और प्रकृति के साथ हो रहे खतरनाक खिलवाड़-जैसे अनिवार्य नतीजों पर विचार नहीं कर रहे हैं, किंतु उनका शाश्वत महत्त्व निर्विवाद है।
उपरोक्त संक्षिप्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि आजादी के बाद से रोजगार की लगातार उपेक्षा हुई है और इसके बहुत गंभीर दुष्परिणाम आजाद भारत की कई पीढ़ियों के करोड़ों लोगों ने भुगते हैं। साथ ही, इस प्रकार की आर्थिक वृद्धि ने पूरे समाज और अर्थव्यवस्था को एक घोर अमानवीय और अलोकतांत्रिक रूप दे दिया है। यदि ऐसी अन्यायपूर्ण स्थिति के खिलाफ गहन सामाजिक असंतोष का कई रूपों में विस्फोट हो, तो एक लोकतांत्रिक समाज में यह सहज, स्वाभाविक प्रतिक्रिया ही होगी। फिर भी इन प्रतिक्रियाओं के अनेक रूप हैं जो न केवल बेअसर रहते हैं, बल्कि उन मूल्यों, नीतियों और व्यवस्थाओं की जड़ें भी कमजोर करेंगे, जिनसे सकारात्मक फलों की आशा की जा सकती है।
स्पष्ट है कि भारत में सन् 1990 से शुरू की गई नवउदारीकरण की नीतियों का मुख्य मकसद उत्पादनोन्मुख अर्थव्यवस्था और उद्योगों व सेवाओं पर केंद्रित उसके स्वरूप के रास्ते में आई उन रुकावटों को हटाना था, जो इन्हीं नीतियों के अनिवार्य नतीजे के रूप में स्वयं उसके रास्ते की बाधा बन कर उभरीं। ये बाधाएं उन तबकों के प्रशासकों के लिए सरदर्द थीं, जिन्होंने न केवल इन नीतियों लागू किया, बल्कि उनसे भरपूर लाभ भी उठाया। राज्य की सक्रिय भूमिका केंद्रित नीतियों का तख्तापलट करनेवालों ने पहले से विद्यमान और सन् 1950 से 1990 तक जटिल होती आम आदमी की समस्याओं को अभी भी दरकिनार ही रखा। फलतः बेरोजगारी का मुद्दा भी उपेक्षित रहा। पुरानी नीतियां भी संगठित देशी और विदेशी पूंजी के नेतृत्व में, मुख्यतः उनके ही लाभ के लिए चलाई गई थीं, पर वे कई रुकावटों और अंतरविरोधों में उलझ गई थीं। इन पुरानी नीतियों को ही झाड़-पोंछ कर उन्हें फिर से ज्यादा सक्रिय और प्रभावी बनाने के लिए नवउदारीकरण का दामन थामा गया। इन प्रक्रियाओं का उद्देश्य अभी भी रोजगार को दोयम दर्जे पर रखना था। इसी प्रकार उत्पादन का स्वरूप भी, या तो अधिकाधिक निर्यातोन्मुख बनाया गया अथवा हिंदुस्तान के संपन्न और मध्यवर्ग की उपभोक्तावादी और पश्चिम की घटिया प्रतिलिपि बनने को तत्पर मानसिकता और आवश्यकता के अनुरूप तय करने की आजादी बाजार की निरकंुश प्रक्रियाओं को दे दी गई। यदि रोजगार वृद्धि और आमदनी में बढ़त के जरिए विषमताओं को दूर करने को नीतियों का मुख्य मुद्दा बनाया जाता तो आम जनता की जरूरत की चीजों और सेवाओं के उत्पादन को प्राथमिकता दी जाती। रोजगार को मौलिक अधिकार बनाने वाली नीतियां अपनाने पर विदेशी आर्थिक संबंध देसी तथा बाहरी पूंजी की अधिकाधिक मुनाफा कमाने और उनकी अपने निजी साम्राज्यों का विस्तार करने की लालसा और लालच द्वारा निर्धारित नहीं किए जाते। उस बदले सोच के तहत जनोन्मुख और स्वावलंबी समग्र विकास के उद्देश्यों के तहत नीतिगत निर्णय लिए जाते। बाजार की देसी-परदेसी ताकतों को खुली छूट देने और निजीकरण का दायरा बढ़ाकर राज्य को इस पूंजी की चेरी बनाने वाली नीतियों से रोजगार में उल्लेखनीय वृद्धि, खास कर संगठित क्षेत्रा के संगठित रोजगार में वृद्धि की आशा करना वैसे ही होगा जैसे कि बबूल का पेड़ बो कर अंगूर की फसल काटने की आस की जाए।
हां, यह जरूर मानना पड़ेगा कि आजीविका का निश्चित जरिया न होने के बावजूद अपनी अदम्य जीजिविषा और पारंपरिक उद्यमिता के कारण भारत के करोड़ों लोगों ने देश के लाखों किसानों की तरह आत्महत्या का रास्ता नहीं अपनाया। उन्होंने कुछ-न-कुछ जुगाड़ करके जिंदा रहने का कोई-न-कोई रास्ता खोज निकाला, चाहे वह सम्मानजनक हो या असम्मानजनक, कष्टपूर्ण हो या आरामदेह, सरल हो या कठिन, पास हो या दूर। इस तरह आम लोगों द्वारा जुगाड़ करके आजीविका जुटाने के जो तरीके अपनाए गए उन्हें हम तकनीकी भाषा में असंगठित अथवा अनौपचारिक क्षेत्रा के रूप में जानते हैं। इस क्षेत्रा की विषमतामय स्थितियों और सरकारी नीतियों द्वारा उत्पन्न कठिनाइयों, चुनौतियों और असमावेशन के बीच भारत की 92 प्रतिशत से ज्यादा श्रमशक्ति अपने और अपने परिवार को जिंदा रखने के अथक प्रयास करती है। इन असंगठित-अनौपचारिक कामकाज के द्वारा वह अर्थव्यवस्था की बढ़त दर को और देश को एक भयावह आर्थिक और सामाजिक संकट और त्रासदी से बचाए रखती है।
हमने अब तक रोजगार के अहम मसले का एक सरल आर्थिक-समाजिक विवेचन संक्षेप में प्रस्तुत किया है। उसमें प्रादेशिक, शहरी, ग्रामीण और महिला श्रम, बाल श्रम, सुदूर तथा कटे-छंटे आदिवासी लोगों, शिक्षित-अशिक्षित, परंपरागत व आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी और मनोरंजन व विलासिता के अधिकांशतः भोंडे और अपसंस्कृतिमूलक कामकाज में लगे या फंसाए गए लोगों, युवकों तथा प्रौढ़ों आदि की विभिन्न श्रेणियों पर अलग से विचार किया जाना भी संभव है। ये सभी सवाल आय, संपत्ति, क्षमता, शक्ति आदि के समाज में विद्यमान वितरण आदि से कई स्तरों पर और रूपों में जुड़े हुए हैं। यहां हमने इस विविधता और विषमता पर अलग से गौर नहीं किया है। इसी तरह सरकारी और गैर-सरकारी, लघु और बड़े उद्योगों, कृषि और गैर-कृषि क्षेत्रों, और सेवाओं और वस्तु उत्पादन आदि विभेद पर भी ध्यान नहीं दिया है। किंतु उत्पादन के स्वरूप की जन-विमुख प्रवृत्तियों की तरफ हमने इशारा जरूर किया है। उनका एक फलितार्थ अर्थव्यवस्था के भीतर पनपते असंतुलनों, अंतरविरोधों और अर्थहीन विकृतियों के रूप में परिलक्षित होता है। अन्य अध्यायों में हमने पिछले 20 साल में हुए परिवर्तनों का उल्लेख किया है। इन परिवर्तनों के दुष्परिणाम विद्यमान बेरोजगारी में वृद्धि, श्रमशक्ति में हर साल शामिल होने वाले नौ करोड़ से ज्यादा युवक-युवतियों की लंबे समय तक बनी रहने वाली रोजगार-हीनता, हताशा और संसाधनों के व्यर्थ जाने के रूप में देखे जा सकते हैं। मुख्य बात यह है कि इस स्थिति के लिए केवल रोजगार के पक्ष की उपेक्षा ही जिम्मेदार नहीं है बल्कि नवउदारीकरण, भूमंडलीकरण और निजीकरण की नीतियों के अंतर्गत उठाए गए कदमों और उनके नतीजों की जिम्मेदारी भी कम नहीं है। इन बातों का खुलासा करने के लिए हम जन-विरोधी, रोजगार-नाशक और सामाजिक बहिष्करणकारी नीतियों के शिकार लोगों की संख्या और उनके असमावेशीकरण के विभिन्न रूपों का संक्षिप्त लेखा-जोखा प्रस्तुत करना जरूरी समझते हैं।
पिछले 20 सालों में रोजगार की हालत इतनी ज्यादा खराब हुई है कि नवउदारीकरण के सबसे बड़े समर्थक और प्रवर्तक विश्व बैंक तक बिगड़ती रोजगार स्थिति की बात को नकार नहीं पाया है। अभी हाल ही में प्रकाशित उसके एक अध्ययन में यह बताया गया है कि 1983 से 1993 के दस वर्षों में रोजगार 2.1 प्रतिशत की दर से बढ़ा था। इसके बाद के दस वर्षों में यह बढ़त दर घट कर 1.9 प्रतिशत रह गई। इन 20 वर्षों में राष्ट्रीय आय की बढ़त दर औसतन 6 प्रतिशत रही। पिछले तीन सालों में तो यह औसत 8 प्रतिशत हो गया। इस तरह यह साफ नजर आता है कि रोजगार वृद्धि राष्ट्रीय आय वृद्धि की एक-तिहाई और एक-चैथाई के करीब रही। रोजगार की यह मामूली बढ़त हमारी हर साल बढ़ती रोजगार की जरूरतों के बरक्स बहुत नाकाफी रही। इन ”तथ्यों“ के बावजूद विश्व बैंक और नवउदारवादी अपनी जिद से हट नहीं रहे हैं और वे अभी भी राष्ट्रीय आय बढ़त को तेज करके ही बेरोजगारी को मिटाने का हसीन किंतु अप्राप्य सपना देखते हैं। वैसे देखा जाए तो बेरोजगारी की अवधारणा और भारत में बेरोजगारों की तादाद दोनों की नवउदारीकरण के नजरिए से न केवल गलत व्याख्या की जाती है, बल्कि बेरोजगारों की असली संख्या को भी घटाकर बताया जाता है। हम यहां इस सवाल की गहराई में नहीं जाकर केवल एक उदाहरण देंगे। विश्व बैंक के मुताबिक भारत में बेरोजगारों और अर्ध-बेरोजगारों की संख्या को हमारी कुल 41.3 करोड़ की श्रमशक्ति का आठ प्रतिशत बताया जाता है और 10.5 करोड़ लोग ऐसे हैं, जिन्हें रोजगार-युक्त, किंतु गरीब माना गया है। इसके अनुसार यदि किसी कार्यरत व्यक्ति की आमदनी गरीबी की रेखा से कम है तो उसे कार्यरत गरीब माना जाएगा। इस विचार से जो लोग जिंदा रहने के लिए पर्याप्त ऊर्जा देने वाला खाना खा पाते हैं, वे गरीब नहीं हैं। प्राचीन काल से लेकर अब तक अर्थशास्त्रा के वस्तुपरक सिद्धांतों के अनुसार रोजगार का अर्थ और मकसद होता है एक व्यक्ति द्वारा इतनी आजीविका नियमित और सुनिश्चित रूप से प्राप्त करना कि वह स्वयं अपनी कार्य क्षमता को बरकरार रखते हुए अपने परिवार का भरण-पोषण कर सके। मजदूरी की इस न्यूनतम दर को लोहे की लकीर के समान अपरिवर्तनीय माना गया था। यही नहीं, एडम स्मिथ तक ने मजदूरी की इस दर के निर्धारण में तात्कालिक सांस्कृतिक और सामाजिक जरूरतों को भी शामिल किया था। किंतु अब नवउदारवादी नीतियों के जन-विरोधी और पूंजी और बड़ी कंपनियों के हिमायती चरित्रा को सामाजिक जरूरतों और उद्देश्यों के साथ संगत साबित करने के लिए गरीबी और रोजगार की अवधारणा और उसे नापने के ऐसे तौर-तरीके अपनाए गए हैं कि राष्ट्रीय आय की बढ़त के साथ गरीबी और बेरोजगारी घटती नजर आए। इसलिए गरीबी की रेखा ऐसे स्तर पर तय की गई मानो एक लोकतांत्रिक अधिकारसंपन्न नागरिक और मात्रा पर्याप्त चारे पर जिंदा रहनेवाले जानवर में कोई अंतर न हो। यही नहीं, राष्ट्रीय आय में दर्जनों गुना वृद्धि के बावजूद भारत के नवउदारवादियों ने गरीब आदमी के उपभोग स्तर को सन् 1973-74 से अब तक अपरिवर्तित बनाए रखा है और उसमें उचित वृद्धि से अब भी कतराते हैं।

कमल नयन काबरा
(क्रमश:)

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