अब फंसे हो अमेरिकी दरोगा के चक्कर में

सुमन
लो क सं घ र्ष !
Posted in loksangharsha on फ़रवरी 26, 2011| Leave a Comment »
अब फंसे हो अमेरिकी दरोगा के चक्कर में
सुमन
लो क सं घ र्ष !
Posted in loksangharsha on फ़रवरी 25, 2011| Leave a Comment »
ये शब्द थे मिस्त्र के ताजा जन-विद्रोह के एक युवा नेता वेल घोनिम के, जो उसने उपराष्ट्रपति द्वारा आंदोलन के खिलाफ फौज के इस्तेमाल की धमकी देने पर एक टीवी साक्षात्कार में कहे। गूगल इंटरनेट कंपनी का यह अधिकारी एक दिन पहले ही जेल से बाहर आया था। मिस्त्र में उत्तेजना, जोश, युवाशक्ति और देशभक्ति का यह अभूतपूर्व ज्वार आखिरकार रंग लाया और 30 सालों से मिस्त्र पर एकछत्र राज कर रहे तानाशाह होस्नी मुबारक को गद्दी छोड़कर एक टापू में शरण लेना पड़ा। इसके पहले ट्यूनीशिया के तानाशाह बेन अली को जनशक्ति के आगे देश छोड़कर भागना पड़ा।
हालांकि अभी भी दोनों देशों की सत्ता अमरीका-परस्त फौज के हाथ में है और भविष्य अनिश्चित है, फिर भी वहां की जनशक्ति की यह बड़ी जीत है। यह तय हो गया है कि वहां लोकतंत्र कायम होगा और सरकार कोई भी बने, वह जनभावनाओं की उपेक्षा नहीं कर सकती । सबसे बड़ी बात यह हुई है कि आम जनता निडर बन गई है और उसे अपनी शक्ति का अहसास हो गया है। जनता की इन दो जीतों का पूरे अरब विश्व में बिजली की माफिक जबरदस्त असर हुआ है। वहां भी तानाशाह सरकारों के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे है। अरब देशों की मुस्लिम जनता सिर्फ इस्लामी कट्टरपंथ के आह्वान पर ही कुछ करती है, यह भ्रान्ति भी दूर हुई है।
पूंजीवाद पर संकट की छाया
अखबारों, टीवी और इंटरनेट के इस जमाने में इन घटनाओं का पूरी दुनिया पर असर हुआ है। दुनिया की जनता ध्यान से इन्हें देख रही है। अमरीका की पूरी कोशिश है कि सत्ता परिवर्तन के बाद नई सरकारें उसी के प्रभाव से रहे। किंतु यह तय है कि अमरीका की इजरायल नीति को इन देशों में अब वह समर्थन नहीं मिल सकेगा, जिसकी सौदबाजी वह तानाशाहों से फौजी तथा वित्तीय मदद के बदले कर लेता था। यदि इन देशों में अमरीका विरोध की बयार बहने लगती है तो यह पूरे अमरीकी वर्चस्व और साम्राज्यवाद के लिए बुरा संकेत होगा, क्योंकि तेल और स्वेज नहर ये दोनों उसके लिए बहुत महत्वपूर्ण है। तेल के अंतरराष्ट्रीय भाव 100 डाॅलर प्रति बैरल से ऊपर जाने लगे है और दुनिया भर के शेयर बाजार लुड़कने लगे है। अंदाज है कि तेल के भाव में 10 डाॅलर की वृद्धि से संयुक्त राज्य अमरीका की राष्ट्रीय आय में 0.25 फीसदी की गिरावट आ जाती है और 2,70,000 रोजगार खतम होते है। तीन साल पहले ही जबरदस्त मंदी और वित्तीय संकट झेलने वाले तथा अभी तक उसके असर से पूरी तरह न उबर पाने वाले पूंजीवाद के लिए यह एक और झटका हो सकता है।
दूसरे शब्दों में, पूंजीवाद के एक और गहरे संकट की शुरूआत हो सकती है। किंतु बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि लोकतांत्रिक क्रांति वाले ये देश अमरीका-यूरोप पर आर्थिक, व्यापारिक, तकनीकी, फौजी व हथियारी निर्भरता से स्वयं को कितना मुक्त कर पाते हैं। नहीं तो उनकी कहानी भी फिलीप्पीन और दक्षिण अफ्रीका जैसी हो जाएगी जहां जबरदस्त जन-उभार या शानदार रंगभेद विरोधी लंबे संघर्ष से सत्ता परिवर्तन तो हुए, किन्तु एक वैकल्पिक अर्थनीति एवं विकास की वैकल्पिक सोच के अभाव में व्यवस्था नहीं बदली और अमरीका-यूरोप प्रणित पूंजीवाद का वर्चस्व भी कायम रहा। वहां की जनता के कष्टों का भी अंत नहीं हुआ। एक तरह से भारत में भी 1974-77 के जेपी के नेतृत्व वाले जनांदोलन व तानाशाही-विरोधी संघर्ष का यही हश्र हुआ। किसी भी लोकतांत्रिक क्रांति को पूर्णता और स्थायित्व तभी मिलता है जब उसकी अगली कड़ी आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति बनती है, नही तो महान फ्रांसीसी क्रांति की तरह उसकी परिणिति किसी नेपोलियन की तानाशाही में भी हो सकती है।
भारत: समानताएं व फर्क
ट्यूनीशिया और मिस्त्र की घटनाओं के बाद भारत में भी लोग पूछने लगे है कि इस देश में ऐसी क्रांति क्यों नहीं आ सकती ? भारत के भी हालात तो ऐसे ही है, जिनमें एक बड़ी उथल-पुथल की जरूरत है। बेरोजगारी, गरीबी, महंगाई, भ्रष्टाचार, दमन तथा राष्ट्रीय स्वाभिमान के समर्पण की जिन पीड़ाओं ने वहां की जनता को उद्वेलित किया, उनसे भारत के लोग भी कम त्रस्त नहीं है। पिछले दिनों भीषण महंगाई, भयंकर बेकारी, किसानों की निरंतर आत्महत्याओं और घोटालों के एक से एक बढ़चढ़कर उजागर होते कारनामों ने पूरे देश के जनमानस को बुरी तरह बेचैन किया। किंतु क्या करें – ऐसी एक बेबसी व दिशाहीनता लोगों के मन में छाई है।
अरब देशों और भारत की हालातों में काफी समानताएं होते हुए भी एक बड़ा फर्क है। वहां तानाशाही हैं, किंतु भारत में एक लोकतंत्र चल रहा है। चुनाव का पांच साला त्यौहार बीच-बीच में यहां आता रहता है। सरकारें बदलती भी हैं, किंतु हालातें नहीं बदलती है। बेन अली या होस्नी मुबारक के रूप में एक तानाशाह को हटाने का लक्ष्य यहां नहीं है जो आम जनता को एकजुट कर दें। लोकसभा से लेकर पंचायतों तक होने वाले चुनाव एक तरह से सेफ्टी वाॅल्व है जो लोगांे को बदलाव की झूठी दिलासा देते रहते हैं और उनके बीच के तेज-तर्रार नेतृत्व को लूट के टुकड़ों का भागीदार बनाकर समाहित करते रहते हैं। हालांकि आम लोग इसको भी समझने लगे है, किंतु इस चक्रव्यूह से बाहर निकलने का कोई रास्ता उन्हें समझ में नहीं आ रहा है।
भारतीय लोकतंत्र की कमियां
फिर लोकतंत्र का मतलब महज चुनाव नहीं होता। विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका व खबरपालिका – इसके ये चारों पाये आम जनता के सेवक और अनुचर होना चाहिए, किंतु मामला उल्टा है। प्रशासनिक ढांचे का कायापलट, पुलिस-कचहरी के ढांचे में बुनियादी बदलाव, सरकारी हिंसा व दमनकारी कानूनों का खात्मा, लोगांे का सशक्तिकरण और इसके लिए घोर गरीबी तथा अशिक्षा का खात्मा, सामाजिक-आर्थिक विषमताओं में कमी, लोक भाषाओं की स्थापना व प्रतिष्ठा, लोकोन्मुखी व निष्पक्ष मीडिया, सत्याग्रह व सिविल नाफरमानी की गंुजाईश व इज्जत – इन जरूरी बातों को सुनिश्चित करके ही लोकतंत्र को सार्थक बनाया जा सकता है। किंतु यह काम पिछले साठ सालों में नहीं हुआ, क्यांेकि उसमें ऊपर बैठे लोगों का नीहित स्वार्थ था। अंग्रेजी राज से विरासत में मिले एवं साम्राज्य की जरूरत के हिसाब से बने घोर केन्द्रीकृत ढ़ांचे को पूरी तरह पलटकर राजनैतिक, प्रशासनिक, आर्थिक विकेन्द्रीकरण का काम भी जरूरी था, किन्तु उल्टे इस अवधि में केन्द्रीकरण बढ़ा है।
यह कहा जा सकता है कि भारत की जनता को सरकारें बदलने का मौका तो मिलता है। फिर भी हालातें नहीं बदलती तो समस्या जनता में जागरूकता की कमी, भारतीय राजनीति की गिरावट या विकल्पहीनता में है। लोकतंत्र के ढ़ांचे का दोष नहीं है। यानी नाच न जानने के लिए आंगन को टेड़ा कहकर दोष नहीं दिया जा सकता। किंतु अभी तक के अनुभव से निकला सच यह है कि चुनाव एवं सत्ता का ढ़ांचा भी ऐसा है कि यह परिवर्तनकामी, ईमानदार व जनपक्षी नेताओं एवं दलों को पनपने और टिकने नहीं देता। जो चुने जाते हैं, उन पर पांच साल तक मतदाताओं का कोई नियंत्रण नहीं होता। सत्ता के केन्द्रों व जनता के बीच दूरी भी काफी है। हमारे लोकतंत्र में ‘लोक’ तो कहीं दबा रहता है, एक विकृत व भ्रष्ट ‘तंत्र’ ही हावी रहता है।
कहने का मतलब यह है कि सिर्फ नाचने वालों का ही दोष देखने से काम नहीं चलेगा। आंगन भी टेड़ा और उबड़-खाबड़ है जो न तो सही नाच होने देता है और न ही नए तरह के नाच की किसी संभावना को सामने आने देता है। छः दशक बाद भारतीय लोकतंत्र की समीक्षा करने और इसके अच्छे तत्वों को संजोते हुए भी इसके ढ़ांचे में बुनियादी बदलाव करने का वक्त आ गया है। यह काम यदाकदा चुनाव सुधारों के नाम पर चलने वाली कवायदों से नहीं होगा। इस ढ़ांचे के बुनियादी बदलाव की कोई पहल ऊपर से नहीं होगी, बल्कि नीहित स्वार्थो का प्रतिरोध भी होगा। इसके लिए भी जनक्रांति की जरूरत होगी।
विकास की वैकल्पिक राह
समीक्षा तो वैश्वीकरण-उदारीकरण-निजीकरण की उन नीतियों की भी करनी होगी, जिनको भारत में लागू किए हुए 20 वर्ष हो चले है। इनकी चकाचैंध अब फीकी पड़ चुकी है और घोर गैरबराबरी, बेकारी, बढ़ते शोषण, किसान-आत्महत्याओं, विस्थापन, पर्यावरण नाश व संप्रभुता नाश की तबाही का धुंआ चारों ओर छा चुका है। घोटालों व लूट के जो नए आयाम भारत, पाकिस्तान, ट्यूनीशिया या मिस्त्र जैसे देशों में सामने आए हैं, उनका भी गहरा रिश्ता विश्व बैंक-मुद्रा कोष प्रवर्तित इन नीतियों से है। लोकतंत्र हो या तानाशाही, इन नीतियों के जाल में दुनिया के कई देश फंसे है।
किंतु इसके साथ पूंजीवादी औद्योगिक सभ्यता की नकल वाले अधकचरे विकास की उस राह पर भी पुनर्विचार करना होगा, जिसे हमारे हुक्मरानों ने आजादी मिलने के बाद चुना था। दरअसल 1991 की बाट कोई नई नहीं थी। यह उसी राह का एक नया मोड़ था और शायद उसकी एक तार्किक परिणिति भी थी।
लातीनी अमरीका में जब बदलावों का दौर शुरू हुआ था तो भारतीय समाजवादी चिंतक किशन पटनायक ने टिप्पणी की थी कि इन बदलावों का भविष्य इस पर निर्भर करेगा कि वे विकास की कोई वैकल्पिक राह खोज पाते है या नहीं। शावेज, लूला, मोरालेस या किर्खनर को इसमें अभी तक आंशिक सफलता ही मिली है। यही चुनौती नेपाल की राजशाही को खत्म करने वाली जनक्रांति के सामने है और यदि भारत में कोई जनक्रांति होती है तो उसके सामने भी होगी।
यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि भारत जैसे तमाम देशों में आम जनता का मतलब करोड़ो की तादाद में किसान, मजदूर, पशुपालक, मछुआरे, कारीगर, घरेलू नौकर, फेरी-खोमचे-पटरी वाले, बेरोजगार नौजवान, विद्यार्थी, पैरा-शिक्षक, दलित व आदिवासी है जिनकी समस्याओं का कोई समाधान औद्योगिक-वित्तीय पूंजीवाद के मौजूदा ढ़ांचे में संभव ही नहीं है। पर्यावरण के बढ़ते संकट और जल-जंगल- जमीन पर बढ़ते हमलों से उपजे भारतीय जनता के संघर्षांे का समाधान भी इस विकास पद्धति के अंदर नहीं है। अरब दुनिया की इस हलचल की शुरूआत ट्यूनीशिया के छोटे से कस्बे में एक शिक्षित बेरोजगार के आत्मदाह से हुई, जिसकी सब्जी-फल की दुकान को पुलिस ने उजाड़ दिया था। भारत में आज करोड़ांे लोग इस तरह के हमलों को झेल रहे है। यहां भी जरूरत एक चिनगारी की है, बारूद का ढ़ेर तो तैयार है। किंतु इस चिनगारी को लोगो की गंभीर समस्याओं के हल का एक विश्वसनीय विकल्प भी दिखाना होगा।
विविधता व न्याय पर आधारित समाज
काहिरा के तहरीर चैक पर, सिकन्दरिया में या ट्यूनिस में तानाशाही को शिकस्त देने के लिए लोग धर्म, संप्रदाय, लिंग या वर्ग का भेद भूलकर जमा हुए थे। मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे संगठित इस्लामी दलों को भी अपने आग्रह छोड़कर बाकी लोगों के साथ आंदोलन में शामिल होना पड़ा। भारत जैसे विशाल देश में यह और बड़ी चुनौती है। यहां धर्म, संप्रदाय, जाति, कबीले, भाषा, प्रांतीयता के हजारों विभाजन हैं, जिनका बखूबी इस्तेमाल पहले गोरे अंग्रेजों ने और अब काले अंग्रेजों ने ‘फूट डालो और राज करो’ के लिए किया है। किंतु इसका इलाज सबको एक सांचे में ढ़ालने या बहुसंख्यकों की तानाशाही थोपने में नहीं है। इसके लिए तो विविधता की इज्जत व रक्षा करने वाले एक ऐसे बहुलतावादी भारत की कल्पना करनी होगी, जिसमें छोटे से छोटा समूह अपनी पहचान और अस्तित्व के प्रति आश्वस्त होकर बराबरी के साथ भाग ले सके तथा जिसमें जाति, भाषा, धर्म, लिंग, क्षेत्र या गांव-शहर के आधार पर भेद न हो। भारतीय आजादी आंदोलन के नेताओं की एक हद तक यही कल्पना थी। कई मायनों में आजादी के आंदोलन के अधूरे काम को पूरा करना नई जनक्रांति का काम होगा।
इसलिए मिस्त्र या ट्यूनीशिया (या नेपाल, वेनेजुएला, बोलीविया) को भारत में दुहराना है तो यह एक ज्यादा कठिन, ज्यादा बड़ा और ज्यादा चुनौतीपूर्ण काम है। किसी एक तानाशाह के बजाय यहां पूरी व्यवस्था को हटाने-बदलने का लक्ष्य लेकर चलना होगा और इसके लिए नया लोकतांत्रिक ढ़ांचा, वैकल्पिक विकास तथा विविधतापूर्ण-न्यायपूर्ण समाजरचना, इन तीन सूत्रों को सामने रखना होगा। इसमें टकराव सिर्फ राजा, तानाशाही या सेना से नहीं होगा, आधुनिक पूंजीवादी सभ्यता, साम्राज्यवाद व कट्टरपंथ से होगा। इसमें पश्चिमी उदारवादी किस्म के लोकतंत्र की स्थापना से आगे बढ़कर गांधी के स्वराज, लोहिया की सप्तक्रांति और जेपी की संपूर्ण क्रांति के लक्ष्य को सामने रखना होगा। उसमें अंबेडकर, फूले, कबीर, गिजुभाई आदि का भी मेल करना होगा।
मौका युग बदलने का
परिस्थितियां यहां भी परिपक्व है। जनता के सब्र का घड़ा यहां भी भर चुका है। मिस्त्र के उस युवा संग्रामी की तरह ‘बहुत हो गया, बहुत हो गया’ यहां भी सबके मन में है। उसकी तरह यहां भी हमें अपना खोया हुआ, छीना हुआ, देश वापस चाहिए, जिसे 30 नहीं, 60 सालों से बर्बाद किया गया है। भारत में आज 65 करोड़ आबादी 35 बरस से नीचे की उम्र की है, जिसकी आंखो में सपने हैं ंिकंतु मन में कुंठाएं है। यह जरूर है कि यहां महज इंटरनेट, फेसबुक या ट्विटर से काम नहीं चलेगा। उनका सहारा लेते हुए भी भारत के गांवों, कस्बों और महानगरी झोपड़पट्टियों में रहने वाले करोड़ों स्त्री-पुरूषों को जगाने के लिए तथा उनके मन में उम्मीद का संचार करने के लिए उनके बीच में जाना होगा। मध्यम वर्ग की भूमिका होगी, किंतु असली परिवर्तनकारी ताकत नीचे होगी। देश के कई हिस्सों में चल रहे छोटे-छोटे आंदोलन यदि अपने संकीर्ण दायरे से बाहर निकलकर देश बदलने के लक्ष्य से जुड़ते है तो एक ताकत मिलेगी, फिर भी नाकाफी होगी। वैचारिक स्पष्टता और संकल्प के साथ कोई समूह आज आगे आता है और अगले दो बरस में भारत के कोने-कोने में पदयात्राओं, साईकिल यात्राओं आदि के जरिये कोई हलचल पैदा करता है तो शायद भारत का इतिहास बदल सकता है।
भारत, चीन और मिस्त्र दुनिया की प्राचीनतम सभ्यताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। दुनिया की आबादी का करीब 40 फीसदी हिस्सा इन देशों में रहता है। पूंजीवाद के संकट के इस दौर में यदि इन की जनशक्ति ने अंगड़ाई ली, तो दुनिया में एक नए युग का पदार्पण हो सकता है। क्या आप इसकी आहट सुन पा रहे है ?
सुनील
Posted in loksangharsha on फ़रवरी 23, 2011| Leave a Comment »
Posted in loksangharsha on फ़रवरी 22, 2011| Leave a Comment »
राम नाम जपना………..
सुमन
लो क सं घ र्ष !
Posted in जनसंघर्ष को समर्पित, सुमन लोकसंघर्ष, loksangharsha, Uncategorized, tagged loksangharsha on फ़रवरी 21, 2011| Leave a Comment »
ट्युनेसिया, मिस्र में बदलाव हो रहा है, बहरीन में बदलाव की रस्साकशी जारी है। मिस्र में अमेरिका की कुख्यात खुफिया एजेंसी सी.आई.ए का यातना सेंटर है। मिस्र की फौजों का खर्चा भी लगभग अमेरिका ही उठता है। वहीँ, बहरीन में अमेरिकी फ्लीट के तीस हजार सैनिक तैनात हैं। पैट्रिक मिसाइल लगी हुई हैं जिनका रुख ईरान की तरफ है। बहरीन की राजधानी मनामा से अमेरिका खाड़ी के देशों तथा अफगानिस्तान तक को नियंत्रित करता है। इस तरह से अमेरिकी साम्राज्यवाद ने मध्य एशिया के देशों को प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से अपना गुलाम बना रखा है। जहाँ पर लोकतंत्र, न्याय, समता जिनका ढिंढोरा अमेरिका पीटता रहता है, नहीं हैं। अगर आप अमेरिकी पिट्ठू देशों की सूची उठाकर देखें तो उनमें किसी भी देश में इन शब्दों का कोई अर्थ नहीं है।
महंगाई, बेरोजगारी तथा देश के तानाशाह के कुकर्मों से ऊब कर जनता अपनी जान पर खेल कर आन्दोलनरत है। बहरीन में सेना सड़कों पर है, निहत्थी जनता पर गोलियां चलाई जा रही हैं लेकिन अमेरिकी राष्ट्राध्यक्ष चुप हैं।
अमेरिका विरोध के नायक कर्नल गद्दाफी जो स्वयं में एक तानाशाह हैं। उनके मुल्क लीबिया में भी जनता आन्दोलनरत है, सेना जनता का दामन कर रही है। अब तक लगभग 35 लोग मारे जा चुके हैं। सैकड़ों लोग घायल हैं। जहाँ भी तानाशाह हैं उनके कुकर्मों से जनता ऊब चुकी है। यह लोग जनता को व्यवस्था देने में नाकामयाब हैं इनकी सनक ही इनका कानून है।
सुमन
लो क सं घ र्ष !
Posted in loksangharsha on फ़रवरी 20, 2011| Leave a Comment »
इस साल कांग्रेस अपना 125वां स्थापना दिवस मना रही है. भारत के सभी धर्मों के नागरिकों ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के ज़रिए स्वतंत्रता आंदोलन में अपना योगदान दिया, परंतु हमारे नेताओं की बहुसंख्यकवादी मानसिकता और स्कूली पाठ्यक्रम तैयार करने वालों के संकीर्ण दृष्टिकोण के चलते भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में अल्पसंख्यकों की भूमिका को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर दिया गया है. भारत कभी उस अर्थ में राष्ट्र नहीं रहा, जिस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग पश्चिम में किया जाता है. पश्चिमी राष्ट्रों का आधार है एक भाषा और एक संस्कृति. इसके विपरीत भारत कभी एक भाषा, धर्म या संस्कृति वाला देश नहीं रहा. धार्मिक, भाषाई, नस्लीय और सांस्कृतिक विविधताएं हमेशा से भारत की विशेषता रही हैं. जब हमने ब्रिटिश राज की अपरिमित शक्ति को चुनौती देने का निर्णय किया, तभी हमारे नेताओं को यह अहसास हो गया था कि देश के लोगों-विशेषकर हिंदुओं और मुसलमानों में एकता कितनी महत्वपूर्ण है. स्वाधीनता संग्राम का एक नारा था, दीन-धरम हमारा मज़हब, ये ईसाई (अर्थात अंग्रेज) कहां से आए.
आम मुसलमानों ने कांग्रेस की स्थापना का उत्साहपूर्वक स्वागत किया और कांग्रेस के सभी आंदोलनों को अपना समर्थन दिया. कांग्रेस के निर्माण से लेकर भारत के स्वतंत्र होने तक मुसलमान कांग्रेस के साथ बने रहे. इस लेख में हम इसी विषय पर कुछ चर्चा करना चाहेंगे. सबसे पहले तो मैं यह स्पष्ट कर दूं कि किसी समुदाय के कुछ सदस्यों के कामों या गतिविधियों से पूरे समुदाय के संबंध में कोई राय नहीं क़ायम करनी चाहिए.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना का देश के मुसलमानों ने पूरे उत्साह से स्वागत किया था. इस तथ्य को हमारे इतिहासविदों ने कभी पर्याप्त महत्व नहीं दिया. हमारे इतिहासविद् हमेशा इस बात पर जोर देते रहे हैं कि सर सैय्यद ने मुसलमानों को यह सलाह दी थी कि वे कांग्रेस की सदस्यता न लें. तथ्य यह है कि यह मुस्लिम श्रेष्ठी वर्ग के एक छोटे से हिस्से की राय थी. यह वह तबका था, जिसने 1857 के स्वाधीनता संग्राम के बाद अंग्रेजों के हाथों बहुत अत्याचार सहे थे और जो अंग्रेजों की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाना चाहता था. हिंदुओं में भी ऐसे तत्व थे, विशेषकर जमींदारों, राजाओं एवं महाराजाओं में. इसके अलावा सर सैय्यद का कांग्रेस के प्रति दृष्टिकोण शत्रुता का नहीं था. वह तो केवल यह चाहते थे कि मुसलमान आधुनिक शिक्षा और सामाजिक परिवर्तन पर ज़्यादा ध्यान दें. सर सैय्यद की भूमिका के बारे में बहुसंख्यक सांप्रदायिक तत्वों ने कई तरह के भ्रम फैलाए हैं. इस सिलसिले में यह जानना महत्वपूर्ण होगा कि सर सैय्यद ने हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए अथक प्रयास किए. उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों को भारत रूपी दुल्हन की दो आंखें निरूपित किया था. यह भी ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि सर सैय्यद आम जनता के नेता नहीं थे. वह तो केवल उत्तर भारत के मुस्लिम श्रेष्ठी वर्ग को सामाजिक एवं शैक्षिक सुधारों के लिए प्रेरित करना चाहते थे. पूरा मुस्लिम श्रेष्ठी वर्ग भी सर सैय्यद के साथ नहीं था. इस वर्ग के एक सदस्य एवं बंबई हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बदरुद्दीन तैय्यबजी ने बंबई अधिवेशन के दौरान अपने 300 साथियों के साथ कांग्रेस की सदस्यता ली थी. वह बाद में कांग्रेस के अध्यक्ष भी चुने गए.
आम मुसलमानों ने कांग्रेस की स्थापना का उत्साहपूर्वक स्वागत किया और कांग्रेस के सभी आंदोलनों को अपना समर्थन दिया. कांग्रेस के निर्माण से लेकर भारत के स्वतंत्र होने तक मुसलमान कांग्रेस के साथ बने रहे. इस लेख में हम इसी विषय पर कुछ चर्चा करना चाहेंगे. सबसे पहले तो मैं यह स्पष्ट कर दूं कि किसी समुदाय के कुछ सदस्यों के कामों या गतिविधियों से पूरे समुदाय के संबंध में कोई राय नहीं क़ायम करनी चाहिए. हर व्यक्ति की अपनी प्राथमिकताएं और अपना एजेंडा होता है. कई लोगों को यह जानकर हैरत होगी कि मुसलमानों में कांग्रेस के सबसे उत्साही समर्थक हैं देवबंद के पुरातनपंथी उलेमा. यहां यह जानना भी महत्वपूर्ण होगा कि उलेमाओं ने 1857 के स्वाधीनता संग्राम में भी भाग लिया था और उसमें अपनी पूरी ताक़त झोंक दी थी. इन उलेमाओं ने 1857 की क्रांति में बड़ी-बड़ी कुर्बानियां दीं और उनमें से सैकड़ों को कालापानी की सजा देकर अंडमान भेज दिया गया. कई को इटली के दक्षिण में स्थित माल्टा नामक द्वीप में निर्वासित कर दिया गया. मैंने माल्टा के कब्रिस्तान में सैकड़ों उलेमाओं की कब्रें देखी हैं. उन्हें अपने महबूब वतन की मिट्टी में दफन होना भी नसीब नहीं हुआ. जिन उलेमाओं को निर्वासित किया गया था, उनमें से कई तो बहुत जाने-माने थे. ऐसे ही एक उलेमा थे मौलाना फज़ल काहिराबादी. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के बाद दारूल उलूम देवबंद के संस्थापक मौलाना कासिम अहमद नानोटवी, जो स्वयं एक जाने-माने आलिम थे, ने एक फतवा जारी कर मुसलमानों को कांग्रेस की सदस्यता लेने और अंग्रेजों को देश से निकाल बाहर करने के लिए कहा. न केवल यह, उन्होंने इस तरह के एक सौ फतवों को इकट्ठा कर उनका संकलन प्रकाशित किया, जिसका शीर्षक था नुसरत अल-अहरार (स्वतंत्रता सेनानियों की मदद के लिए). उक्त उलेमा आम मुसलमानों के नेता थे और देश से अंग्रेजों की सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए प्रतिबद्ध थे. एक अन्य जाने-माने आलिम मौलाना महमूद उल हसन ने हिंदुओं और मुसलमानों द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने का संदेश पूरे देश में फैलाने की एक योजना, जिसे रेशमी रूमाल षड्यंत्र कहा जाता है, में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. मौलाना महमूद उल हसन के अलावा अन्य कई उलेमाओं और आम मुसलमानों ने इस षड्यंत्र में भाग लिया था. मौलाना हसरत मोहानी एक प्रतिष्ठित उर्दू कवि एवं बुद्धिजीवी थे. इसके साथ-साथ वह एक महान क्रांतिकारी भी थे, जिन्होंने स्वाधीनता की लड़ाई में हिस्सा लिया और बहुत कष्ट भोगे. वह बाल गंगाधर तिलक और उनके प्रसिद्ध नारे स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है के घोर प्रशंसक थे. वह तिलक को तिलक महाराज के नाम से पुकारते थे. एक मौलाना होते हुए भी वह 1925 में स्थापित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक थे. मौलाना कई बार जेल गए और उन्हें कड़ी सजाएं दी गईं. इनमें शामिल थी रोज 40 किलो अनाज पीसने की सजा, परंतु मौलाना ने कभी हार नहीं मानीं. गांधी जी तक देश के दूरगामी हितों की ख़ातिर कुछ समय के लिए होमरूल के लिए राजी हो गए थे, परंतु मौलाना इस मामले में किसी प्रकार के समझौते के पक्षधर नहीं थे. जब कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में होमरुल प्रस्ताव पेश किया गया, उस समय मौलाना को एक मुशायरे की तैयारी के बहाने अधिवेशन स्थल से दूर रखा गया, क्योंकि यह तय था कि वह प्रस्ताव का कड़ा विरोध करेंगे. यह थी मौलाना की भारत की संपूर्ण स्वतंत्रता के प्रति प्रतिबद्धता.
ख़िला़फत आंदोलन के संबंध में भी अनेक भ्रांतियां हैं. ख़िला़फत आंदोलन, महात्मा गांधी की अत्यंत बुद्धिमत्तापूर्ण रणनीति का हिस्सा था. इसके ज़रिए गांधी जी ने सफलतापूर्वक लाखों आम मुसलमानों को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ा. दुर्भाग्यवश, हमारे देश का बुद्धिजीवी वर्ग इस आंदोलन को सही दृष्टिकोण से नहीं देखता, परंतु इस तथ्य को कोई नहीं नकार सकता कि इस आंदोलन के कारण ही बड़ी संख्या में मुसलमान स्वाधीनता आंदोलन का हिस्सा बने. यह अलग बात है कि कमाल अतातुर्क के नेतृत्व में हुई क्रांति के कारण यह आंदोलन समाप्त हो गया. अली बंधु-मौलाना मोहम्मद अली एवं शौकत अली इसी आंदोलन की उपज थे. अली बंधुओं ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. उनकी मां भी स्वतंत्रता संघर्ष के प्रति उतनी ही प्रतिबद्ध थीं. जब उनकी मां को इस अ़फवाह की जानकारी मिली कि अली बंधु माफी मांग कर जेल से बाहर आने की कोशिश कर रहे हैं (यह कोरी अ़फवाह ही थी) तो एक पर्दानशीन महिला होने के बावजूद उन्होंने एक सार्वजनिक मंच से घोषणा की कि अगर मेरे पुत्रों ने ऐसा कुछ किया तो मैं उनका दूध माफनहीं करूंगी. जीवन के अंतिम समय में मौलाना मोहम्मद अली के गांधी जी से गंभीर मतभेद हो गए थे, परंतु अपनी मृत्यु से पहले उन्होंने यह इच्छा व्यक्त की कि उन्हें येरूशेलम में दफनाया जाए, क्योंकि वह गुलाम भारत में नहीं दफन होना चाहते. ख़िला़फत आंदोलन के दौरान कुछ मुसलमानों ने ब्रिटिश भारत को दारूल हर्ब (युद्ध का घर) घोषित करके अ़फग़ानिस्तान पलायन करना शुरू कर दिया, ताकि वहां निर्वासित सरकार स्थापित कर अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष का संचालन किया जा सके. इस पलायन के मुख्य प्रेरणास्रोत थे मौलाना उबेदुल्ला सिंधीं. उन्होंने अ़फग़ानिस्तान में स्वतंत्र भारत की अंतरिम निर्वासित सरकार बनाई. राजा महेंद्र प्रताप इस सरकार के राष्ट्रपति थे और मौलाना उबेदुल्ला प्रधानमंत्री. दुर्भाग्यवश अफगानिस्तान के बादशाह ने ब्रिटिश सरकार के दबाव में आकर वहां पहुंचे मुसलमानों को अपने देश से निकाल दिया. इस कार्यवाही में हज़ारों मुसलमान मारे गए. ऐसी थी आज़ादी के प्रति मुसलमानों की दीवानगी.
स्वाधीनता आंदोलन के एक अन्य चमकीले सितारे थे मौलाना हुसैन अहमद मदानी. उन्होंने देश के विभाजन का जमकर विरोध किया. वह महान कवि एवं चिंतक इक़बाल से तक भिड़ गए और राष्ट्रीयता के मुद्दे पर इक़बाल के विचारों को चुनौती दी. उन्होंने एक किताब भी लिखी, जिसका शीर्षक था मुत्तहिदा कौमीयत और इस्लाम (सांझा राष्ट्रवाद और इस्लाम). उन्होंने जिन्ना के द्विराष्ट्र सिद्धांत को भी चुनौती दी और कुरान और हदीथ से लिए गए उदाहरणों से यह साबित किया कि द्विराष्ट्र सिद्धांत को इस्लाम की मंजूरी नहीं है. उनकी इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद भी उपलब्ध है. यह अनुवाद जमीयते उलेमा ए हिंद ने कराया है और अब इस पुस्तक का लाभ उर्दू न जानने वाले भी उठा सकते हैं. मौलाना हुसैन अहमद को कड़े विरोध का सामना करना पड़ा. मुस्लिम लीग के कार्यकर्ताओं ने कई स्थानों पर उनके साथ दुर्व्यवहार किया और उन्हें जूतों की मालाएं पहनाईं. स्वतंत्रता आंदोलन में मौलाना आज़ाद और सरहदी गांधी ख़ान अब्दुल गफ्फार खान के स्वर्णिम योगदान को कौन भुला सकता है. दोनों अपनी अंतिम सांस तक भारत की आज़ादी के दीवाने बने रहे. खान अब्दुल गफ्फार खान एकमात्र ऐसे नेता थे, जिन्होंने देश के विभाजन को कभी स्वीकार नहीं किया. उन्होंने कांग्रेस कार्यसमिति की बैठकों में विभाजन का तब भी विरोध किया, जब नेहरू और सरदार पटेल तक ने इसे अपरिहार्य मानकर स्वीकार कर लिया था. मौलाना आज़ाद ने विभाजन का विरोध करते हुए जो लेख लिखा था, इस विषय पर उससे बेहतर शायद ही कुछ लिखा गया होगा. इन मुस्लिम नेताओं को स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में वह स्थान नहीं मिला, जिसके वे लायक़थे. हमारे कई शिक्षाविदों, इतिहासकारों, पाठ्यपुस्तक लेखकों और सबसे बढ़कर राजनीतिज्ञों की सांप्रदायिक सोच के कारण इन मुस्लिम नेताओं की स्वाधीनता आंदोलन में महती भूमिका को भुला दिया गया या फिर उसे बहुत ही कम स्थान दिया गया. जब मैं मदुरई के गांधी संग्रहालय में गया, जो देश के सर्वश्रेष्ठ गांधी संग्रहालयों में से एक माना जाता है, तो मुझे यह देखकर बहुत दु:ख हुआ कि वहां सरहदी गांधी की स्वाधीनता संग्राम में भूमिका के नाम पर उनकी केवल एक तस्वीर थी. मैंने संग्रहालय के संचालक का ध्यान इस गंभीर कमी की ओर आकर्षित किया. उन्होंने वायदा किया कि वह इस कमी को दूर करेंगे.
आज एक आम हिंदू सोचता है कि मुसलमानों ने इस देश के दो टुकड़े करवाए और वह उन्हें संदेह की दृष्टि से देखता है. कांग्रेस ने इस भ्रांति को दूर करने के लिए कुछ नहीं किया. मैं कांग्रेस के नेतृत्व से अनुरोध करता हूं कि वह कांग्रेस की स्थापना के इस 125वें वर्ष में तो कम से कम स्वाधीनता संग्राम में मुसलमानों की भागीदारी को जनता के सामने लाए. इससे देश की एकता मज़बूत होगी.
(लेखक मुंबई स्थित सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म के संयोजक हैं)
Posted in संविधान, संसद, हिन्दू राष्ट्र, loksangharsha, Uncategorized, tagged loksangharsha on फ़रवरी 19, 2011| Leave a Comment »
दोषी हूँ लेकिन जेल जाने भर का दोषी नहीं हूँ
सुमन
लो क सं घ र्ष !
Posted in loksangharsha, tagged जुलियन असान्जे, विकीलीक्स के संस्थापक जुलियन असान्जे गिरफ्तार, loksangharsha on फ़रवरी 18, 2011| Leave a Comment »
Posted in loksangharsha, tagged loksangharsha on फ़रवरी 17, 2011| Leave a Comment »
पाकिस्तान के सुप्रसिद्ध सूफी गायक राहत फ़तेह अली खान के पास से 24000 डालर व दो सहयोगियों के पास से 50-50 हजार डालर बरामद हुए। पाकिस्तान में उनकी कला को चाहने वाले लोगो ने प्रदर्शन शुरू कर दिए। पकिस्तान सरकार ने भारत सरकार से बातचीत कर राहत फ़तेह अली को रिहा करवा लिया। भारतीय फिल्म जगत में मिडिल ईस्ट के लोगों का काला धन लगता है और अधिकांश कलाकार सफेदपोश आर्थिक अपराधी के रूप में विकसित होते हैं। इस सदी के महानायक अमिताभ बच्चन ने तो बाराबंकी जनपद में 419, 420, 467,468, 471 के अपराध किये। चूँकि वह महानायक हैं इसलिए उनको हर तरह के आर्थिक अपराध करने की छूट है। इसी तरह से उद्योग जगत के लोग आर्थिक अपराध करते रहते हैं और उनको हर तरह के अपराधों को संरक्षण मिलता रहता है क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था का संचालन वही सब करते हैं।
कलाकारों को कला के नाम पर, साहित्यकारों को साहित्य के नाम पर, मंत्रियों को देश चलाने के नाम पर व उद्योगपतियों को अर्थ व्यवस्था चलाने के नाम पर आर्थिक अपराध करने की खुली छूट है। सूफी गायक राहत फ़तेह अली ने इससे पहले कितना डालर और हवाला किया होगा उसका कोई अंदाजा नहीं है। जैसे उत्तर प्रदेश के कई मंत्रियों के बारे में यह प्रकाशित हो चुका है कि उनकी सरकारी गाड़ियों से मार्फीन, हेरोइन की स्मगलिंग होती हैं लेकिन प्रदेश चलाने के नाम पर उनके सभी अपराध क्षम्य हैं। पंजाबी के महान गायक दलेर मेहन्दी कबूतरबाजी का कार्य करते थे। क्रिकेट स्टार मैच में फिक्संग का काम करते हैं। देश में सारे नियम कानून मेहनतकश जनता के लिए बनाए जाते हैं। जिसका उन्हें ईमानदारी से पालन करना चाहिए। पेट की ज्वाला अगर न शांत हो पावे तो आत्महत्या कर लेने की खुली आजादी है।
जबकि होना यह चाहिए कि किसी भी क्षेत्र में नामचीन हस्तियों को अपराध नहीं करने चाहिए और यदि वह अपराध में लिप्त पाए जाते हैं तो जनता को उनका समर्थन नहीं करना चाहिए। सिद्धांत तो यह होना चाहिए उनकी कला को सलाम और अपराध के लिए दंड।
सुमन
लो क सं घ र्ष !
Posted in loksangharsha on फ़रवरी 15, 2011| Leave a Comment »
नौकरों को डांटती हुई मुख्यमंत्री
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती कानून व्यवस्था व विकास सम्बन्धी कार्यों के प्रगति के लिए पूरे प्रदेश में दौरा कर रही हें और तुनकमिजाजी के अंदाज में अधिकारीयों को हटाना निलंबित करना डांटना फटकारना जारी है। अधिकारीगण अच्छे कलाकार की भांति मुख्यमंत्री को खुश करने के लिए स्थल निरीक्षण वाले स्थानों को खूबसूरती से सजा संवार कर मुख्यमंत्री से कोप भाजन से बचने का प्रयास करते हैं। जबकि हालात जस के तहत हैं।
पिछले 24 घंटो में अंतर्गत धारा 376 के 6 मामले दर्ज किये गए। सुलतानपुर, गाजीपुर, फैजाबाद, हाथरस, मुजफ्फरनगर व इटावा समेत बलात्कार की घटनाएं हुई हैं। अन्य गंभीर अपराधों के विवरण की तरफ अगर निगाह डाली जाए तो कानून व्यवस्था के मोर्चे पर सरकार फ़ेल होती नजर आती है। बसपा के अधिकांश विधायक अपराधी प्रवित्ति के हैं और असली खतरा कानून व्यवस्था को उन्ही से है। भ्रष्टाचार व जन सुविधाओ के मामलो में सरकार की शोहरत बद से बदतर है। जनपद बाराबंकी में मुख्यमंत्री का निरिक्षण निर्धारित तिथि 12 फरवरी से एक दिन पूर्व 11 फरवरी को ही हो गया। उसका मुख्य कारण भारत सरकार के इस्पात राज्य मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा के जन्मदिन का कार्यक्रम था। उस कार्यक्रम को फ्लॉप शो साबित करने के लिए मुख्यमंत्री जी का कार्यक्रम उसी दिन कर दिया गया। इस्पात मंत्री को महंगाई जैसा मुद्दा विरोधियों की अफवाह लगी वहीँ मुख्यमंत्री के दौरे के समय सड़क पर चल रही मोटर साइकिल व स्कूटरों को सड़क के किनारे खड़ा करा दिया गया। पुलिस ने जनता को आदेश दिया की सड़क की तरफ न देखे और अपनी पीठ सड़क की दिशा में करके खड़े हो जाएँ। सडकों पर किसी को पैदल भी नहीं चलने दिया गया। बाराबंकी जनपद के थाना बद्दूपुर के ग्राम पहाडपुर में गरीब किसानो के खेत फसले नष्ट कर दी गयी। लोगों के खेत में जबर्दस्ती रातो-रात सडकें बना दी गयीं। हेलिपैड फसलों को नष्ट करके बना दिया गया। किसी को कोई मुवावजा नहीं दिया गया क्योंकि 11 फरवरी को बाराबंकी जनपद लोकतांत्रिक भारत का हिस्सा ही नहीं था उस दिन बाराबंकी जनपद सामंतवाद के तहत था और सारे कार्य सामंती स्टाइल में हो रहे थे।
सुमन
लो क सं घ र्ष !