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Archive for अप्रैल, 2011

आंदोलन के औचित्य, तरीकों और उसके पीछे के लोगों पर है सवाल?

अन्ना हजारे का अनशन खत्म हो चुका है। आजादी की तथाकथित दूसरी लड़ाई के दावों के बीच गांधीवादी हजारे और उनके साथी अब सरकार को लोकपाल विधेयक का ड्राफ्ट तैयार करने के लिए 15 अगस्त तक का अल्टिमेटम देकर जंतर मंतर से हट गए हैं और मीडिया, खासकर टीवी चैनलो के जरिए ही सही देश के उभरते मध्यमवर्ग का एक हिस्सा भ्रष्टाचार के खिलाफ इस ऐतिहासिक जीत की खुशी में होली और दीवाली एक साथ मनाने में तल्लीन है। पर भ्रष्टाचार के खिलाफ मोमबत्ती जलाने, सिर पर गांधी टोपी पहनकर चंद घंटों के लिए उपवास पर बैठ जाने के बाद क्या अब भ्रष्टाचार इस देश से खत्म हो जाएगा? या फिर लोकपाल गठित हो जाना ही भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे बड़ी जीत होगी?
एक बड़े लोकतांत्रिक देश के जिम्मेदार नागरिक की हैसियत से हमें यह अवश्य देखना चाहिए कि आखिर हजारे के पीछे कौन सी ताकतें हैं? जिस आंदोलन को मीडिया ने जन आंदोलन का नाम दे डाला, यहां तक कि कुछ चैनलो के कुछ नामचीन संपादकों को दिल्ली के इंडिया गेट और जंतर मंतर पर जुटे लोग मिस्र के तहरीर चौक की याद दिलाने लगे, वो क्या सच में इस देश की जनता अथवा पूरे नागरिक समाज का वास्तविक प्रतिनिधित्व करता है?
मीडिया के जरिए ही सही हजारे और उनके साथी ऐसी पवित्र गाय सरीखे हो गए हैं, जिनकी आलोचना करना ही मानों पाप हो गया है। आंदोलन के औचित्य, तरीके, उसके पीछे के लोग और जन लोकपाल बिल के मसौदे पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है। देश में एक मजबूत लोकपाल व्यवस्था की स्थापना हो, यह मांग पुरानी है। राजनेताओं और अफसरों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों की तुरंत जांच और प्रभावी कार्रवाई होना जरूरी है लेकिन क्या जन लोकपाल ही समस्याओं का जवाब है?
क्रिकेट वर्ल्ड कप के जुनून में डूबे देश और टीम इंडिया के करिश्माई प्रदर्शन के उल्लास से सराबोर आम भारतीयों के लिए चंद दिनों पहले तक न तो अन्ना हजारे कोई खबर थे और न लोकपाल व्यवस्था के होने या न होने का सवाल उन्हें झकझोर रहा था। क्रिकेट की दीवानगी के बीच बाजार देख रहे टीवी चैनलो, उनके मालिकों और संपादकों को भारत-पाकिस्तान के सेमीफाइनल मुकाबले को जंग के मैदान में बदलने से फुर्सत नहीं थी। हजारे के आंदोलन को एक नए युग की शुरुआत बता रही मीडिया की जमात के बीच भी अधिकतर को न तो अन्ना की सुध थी और न लोकपाल, जन लोकपाल की पेचीदगियों की समझ और न उसे समझने की फुर्सत।
लेकिन अचानक ही मानों नवक्रांति का बिगुल बज उठा। 23 साल बाद भारत के क्रिकेट विश्वकप जीतने पर स्पेशल बुलेटिनों में बहस कर रहे टीवी एंकर और उनके संपादक अचानक हजारेमय हो गए। ठंडे बस्ते में धूल खा रहा लोकपाल बिल का मसला जिंदा हो गया। अन्ना हजारे के पीछे-पीछे समाचार चैनलो की ओबी वैन और उनके नामचीन चेहरे जंतर मंतर दौड़ पड़े। और शुरू हो गया मीडिया के जरिए आजादी की दूसरी लड़ाई का माहौल बनना। टीवी की व्यापक पहुंच ने दो दिन बीतते बीतते अन्ना और उनके जनलोकपाल बिल की मांग को भारत के मध्यमवर्गीय घरों तक पहुंचा दिया। बड़े ही सुनियोजित तरीके से और समाचार पत्रों और चौनलों के जरिए आम जनता से आजादी की इस दूसरी लड़ाई में कूद पड़ने का आह्वान होने लगा। अपने अराजनैतिक सरोकारों और एक सिरे से राजनीतिज्ञों को चोर करार देने वाले मध्य और उच्च मध्यवर्ग के तमाम रहनुमा सुबह से लेकर रात तक टीवी के स्टूडियों में बैठकर अन्ना के अनशन को आजाद भारत का सबसे बड़ा जनांदोलन बताने लगे। फिल्म और कला जगत के कथित बुद्विजीवियों की एक जमात तो जंतर मंतर पहुंचकर सीधे नेताओं और राजनीतिक दलों को अलविदा बोलने के लिए कहने लगी जोकि लोकतंत्र के लिए एक निहायत अवांछित कार्यवाही के अलावा कुछ नहीं था।

और मीडिया चैनलो के जरिए निहायत ही एकतरफा और गैर जिम्मेदाराना तरीके से रचे गए अन्नामय उन्माद में किसी भी सवाल-जवाब और विमर्श के लिए कोई जगह नहीं बची थी। समाचार चौनलों ने तो यह रुख अख्तियार कर लिया कि या तो आप अन्ना के साथ हैं, नहीं तो भ्रष्टाचारियों के साथ। यह नजरिया निश्चित तौर पर गलत था, क्योंकि अन्ना हजारे और उनका आंदोलन देश के संपूर्ण नागरिक समाज का प्रतिनिधित्व कतई नहीं कर रहा था। एकतरफा खबरों के जुनून में शामिल समाचार माध्यमों ने यह कभी नहीं बताया कि दरअसल अन्ना के आंदोलन के पीछे का सच क्या है? लोकपाल बिल की जायज मांग के पीछे दरअसल कौन से चेहरे हैं और उनकी अपनी छवि कैसी है।
जनता के समक्ष एक ऐसी तस्वीर पेश की गई कि हजारे मानों अकेले ही चले थे और उनके साथ कारवां जुड़ता चला गया जो सच्चाई से कोसों दूर है। असलियत यह है कि अन्ना एक चेहरा – एक पाक-साफ महात्मानुमा चेहरा भर ही हैं। खुद कभी अन्ना ने भी अपने पांच दिनों के अनशन के दौरान यह नहीं बताया कि अनाप शनाप दौलत इकट्ठा करने वाले योग गुरू तथा तमाम बड़े भ्रष्ट कारपोरेट घरानों के मालिकों के आध्यात्मिक रहनुमा उनके आंदोलन की रीढ़ की हड्डी थे, जिनके खुद का दामन पाक-साफ नहीं है।
विश्वास न हो तो इंडिया अगेंस्ट करप्शन मूवमेंट का इतिहास उठाकर देख लीजिए। जनलोकपाल बिल के समर्थन में अन्ना का अनशन भी दरअसल इसी अभियान का हिस्सा था। बाबाओं और आध्यात्मिक गुरुओं के अलावा अभियान के गठन में कुछ और नाम भी हैं। क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई, राजनेताओं की जवाबदेही सुनिश्चित करने और पारदर्शी शासन व्यवस्था के सूत्रधार इस तरह के लोग हो सकते हैं? क्या वजह थी कि योगगुरू और उनके लोग चार दिन तक परदे के पीछे से आंदोलन को हवा देने के लिए तमाम सोशल नेटवर्किंग साइटों पर सक्रिय रहने से लेकर शहर-शहर आंदोलन करवाने में जुटे रहे और मीडिया मैनेजमेंट भी करते रहे, लेकिन खुद हजारे के मंच पर आने से बचते रहे। वह चौथे दिन कुछ इस अंदाज में जंतर मंतर पहुंचे मानों हजारे की मुहिम में एक हाथ लगाने आ गए हों। दूसरे अध्यात्मिक गुरू खुद इस दौरान विदेश में रहे, लेकिन उनके संगठन ने अपनी पूरी ताकत हजारे के पक्ष में झोंक दी। विदेशों में भी अन्ना के समर्थन में जिन जुलूसों को समाचार चौनलों ने खूब दिखाया वो भी दरअसल इसी संगठन के लोग थे।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में आंदोलन करना गलत नहीं है पर योग और अध्यात्मिक गुरूओं ने परदे के पीछे से भूमिका क्यों निभाई, यह प्रश्न उठता है। यह इनकी रणनीतिक तैयारी का हिस्सा था। इन जैसे लोगों के शुरु से ही खुलकर आ जाने पर एक आम भारतीय इसे गंभीरता से न लेता। यही नहीं अराजनैतिक करार दिए गए इस आंदोलन को शायद भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी गुपचुप समर्थन मिला और आज भी मिल रहा है। हजारे के अनशन के दौरान मैं खुद ऐसे समर्थन प्रदर्शनों और अनशनों का गवाह बना जिसमें तमाम लोग संघ या भाजपा के कार्यकर्ता थे। लखनऊ में ही भाजपा युवा मोर्चे के लोगों ने अपनी राजनीतिक पहचान छुपाते हुए अन्ना के समर्थन में तिरंगा यात्रा निकाली।
फिर एक सवाल अन्ना से भी है कि एक लोकपाल बिल को भ्रष्टाचार के खिलाफ ब्रहमास्त्र की तरह प्रोजेक्ट कर रहे अन्ना की भ्रष्टाचार के कारणों की समझ क्या है? कटु सत्य है कि मौजूदा दौर में राजनीतिक भ्रष्टाचार चरम पर है। मंत्री से लेकर संतरी तक देश की लूट में लगे हैं। सरकारों के स्तर पर नेताओं और कारपोरेट जगत का एक ऐसा कार्टेल बन गया है कि पूंजीवाद की पोषक आर्थिक नीतियां कारपोरेट घरानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के फायदे यानी पूंजी के मुनाफे के हिसाब से बनती बिगड़ती हैं। 1990 के दशक से शुरू हुए आर्थिक सुधारों और नई मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था के दौर में सरकारी तंत्र के भ्रष्टाचार के जितने मामले सामने आए हैं, उतने पहले नहीं सुनाई पड़ते थे। राजीव गांधी के शासन काल में 64 करोड़ का बोफोर्स घोटाला इतना बड़ा था कि केंद्र की सरकार तक चली गई।
पर आर्थिक सुधारों के युग में राजनेताओं और पूंजीपतियों, कारपोरेट घरानों का ऐसा गठजोड़ बना कि भ्रष्टाचार के आंकड़े चंद करोड़ से निकलकर सैकड़ों करोड़ से होते हुए अब लाखों करोड़ तक पहुंच गए हैं। पौने दो लाख करोड़ का 2-जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाला इस खतरनाक गठबंधन का एक बड़ा उदाहरण है। खाने और खिलाने के इस खेल में टाटा से लेकर अंबानी तक सब शामिल हैं। सवाल है कि ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ से जुड़े लोगों ने कभी भी आर्थिक नीतियों के सवाल पर आवाज उठाई? क्या कभी भी इन लोगों ने कारपोरेट जगत की लूट के खिलाफ आवाज उठाई? सिविल सोसाइटी के स्वयंभू रहनुमा बताएं कि भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाली आर्थिक नीतियों पर उनका नजरिया क्या है? सवाल सिर्फ व्यक्तिगत ईमानदारी का नहीं होता। बेदी को अगर दिल्ली का पुलिस कमिश्नर बना दिया गया होता तो वह शायद आज भी सरकारी सेवा में होती और रोजगार एवं शिक्षा के सवाल पर किसी प्रदर्शन को रोकने के लिए अपने मातहतों को जंग के निर्देश भी दे रही होतीं। सवाल आंदोलन के पीछे की समझ और इरादे पर है। क्या लोकपाल के आ जाने के बाद कारपोरेट जगत के द्वारा अपने फायदे के लिए नेताओं को भ्रष्टाचार के लिए उकसाने का खेल खत्म हो जाएगा? क्या वो परिस्थितियां खत्म हो जाएंगी जिनकी बुनियाद पर भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है? खैर इस सवाल पर इनसे जवाब की उम्मीद न रखें। योगगुरू के सहारा इंडिया जैसे उद्योग समूहों से संबंध जगजाहिर हैं और अध्यात्मिक गुरू के बड़े पूंजीपतियों और कारपोरेट हस्तियों से। इनमें कई तो मीडिया समूहों के मालिक हैं। यहां यह भी सवाल है कि क्या कुछ मीडिया समूहों के खुद ही अन्ना के अनशन का एक्टिविस्ट बन जाने के पीछे कहीं यही अध्यात्मिक प्रेरणा तो नहीं थी? भ्रष्ट पूंजीपतियों-राजनीतिज्ञों के साथ आन्दोलन के कर्णधारों की दुरभिसंधि की आशंका को भी प्रथमदृष्टि से नकारा नहीं जा सकता क्योंकि इसके जरिये रोज खुल रहे घपलों-घोटालों के कारण भ्रष्टाचार के खिलाफ आम जनता में पैदा हो रहे आक्रोश में कमी तो आयी ही है।
खैर इन बातों से अलग हजारे समर्थित जनलोकपाल बिल, लोकपाल के रूप में देश के सीईओ की नियुक्ति करने जैसा होगा। संसदीय व्यवस्था वाले देश में, जहां प्रधानमंत्री का पद एक संवैधानिक संस्था है और हमारी संसद देश की सबसे बड़ी नीति निर्धारक, वहां प्रधानमंत्री से लेकर मंत्री और संसद के सदस्य के साथ-साथ न्यायपालिका तक के खिलाफ जनता के किसी भी व्यक्ति द्वारा शिकायत किए जाने पर लोकपाल द्वारा उसे सीधे संज्ञान में लेकर जांच करने, मुकदमा चलाने और यहां तक की सजा भी सुना सकने का अधिकार क्या संवैधानिक संस्थाओं तथा संविधान द्वारा स्थापित व्यवस्था को छिन्न-भिन्न नहीं करेगा? राजनीतिक भ्रष्टाचार से निपटने का मतलब यह कतई नहीं होना चाहिए कि लोकतंत्र की नींव को ही कमजोर कर दें। सर्वाेच्च पदों और संसद की गरिमा भी बची रहे और संसद तथा सरकार में बैठे भ्रष्टाचारियों पर कार्रवाई भी हो, ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए।
यही नहीं जनलोकपाल बिल जहां एक तरफ लोकपाल को असीमित अधिकार देने की वकालत करता है, वह लोकपाल के ही खिलाफ शिकायत होने पर जांच के तरीकों पर स्पष्ट नहीं है। या यह कहें कि जिस देश में न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के बीच अधिकारों का बंटवारा चेक ऐंड बैलेंस की परंपरा के आधार पर है, वहां लोकपाल तीनों ही इकाइयों के वाचडाग के रूप में तो होगा पर उस संस्था के भीतर किसी संभावित भ्रष्टाचार से कैसे निपटा जाएगा?
यह साफ है कि लोकपाल बिल का ड्राफ्ट तैयार करने के लिए जिस कमेटी का गठन हुआ है, वह देश की जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करती। जिन पांच लोगों को सिविल सोसाइटी के नुंमाइंदे के तौर पर कमेटी में रखा गया है, उनमें अन्ना हजारे के अलावा अन्य सभी अन्ना समर्थित हैं या यूं कहें कि अन्ना के लोग हैं, वो लोग हैं जो जनलोकपाल के पैरोकार हैं। यह इसलिए भी खतरनाक है क्योंकि देश के इतिहास में पहली बार बनी सरकार और स्वयंभू नागरिक समाज के मिले जुले प्रतिनिधियों वाली ड्राफ्टिंग समिति दरअसल कहीं न कहीं एक ऐसा भाव पैदा करती है कि मानों सरकार और एक व्यक्ति के बीच समानता का भाव है। आज अन्ना हजारे हैं, कल किसी और मांग को लेकर किसी और चेहरे के पीछे वैसा ही उभार खड़ा करने की कोशिश नहीं होगी, इसकी क्या गारंटी है?
जाहिर है हमें यह समझना होगा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों में बहुत गुस्सा है और होना भी चाहिए लेकिन समस्या का स्थाई हल राजनीतिक सुधारों में है। देश की राजनीति की दशा और दिशा बदले जाने की जरूरत है, जनता से जुड़े आर्थिक सवालों, जमीन और रोजगार के सवालों पर राजनीतिक संघर्ष की जरूरत है। ऐसे में जनता के प्रति राजनीतिक दलों और नेताओं की जवाबदेही बढ़ेगी। जाति और मजहब के आधार पर चुनकर आने वाली सरकारों से आप यह उम्मीद नहीं कर सकते। इसलिए खाली एक लोकपाल विधेयक आ जाने से ही कोई बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन हो जाएगा, ऐसा नहीं लगता। भ्रष्टाचार के खिलाफ अराजनैतिक नहीं राजनैतिक संघर्ष छेड़ना पड़ेगा। प्रगतिशील सोच रखने वाले राजनीतिक दलों के लिए अन्ना का यह अनशन अपने तमाम विरोधाभासों के बीच इसलिए आंख खोलने वाला होना चाहिए कि उन्हें जनता के गुस्से को समझना होगा। अगर सही राजनीतिक नेतृत्व नहीं मिलेगा तो अन्ना जैसे अराजनैतिक दिखने वाले आंदोलन फिर होंगे, और अच्छे नेतृत्व के अभाव में जनता फिर से भ्रमित होगी।

– प्रबोध

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क्या सर्वोच्च न्यायालय इस महाघोटाले को अनदेखा कर देगा? संसद से हमें बहुत ज़्यादा आशा नहीं है, क्योंकि उसकी समझ में जब तक आएगा, तब तक उसके 5 साल पूरे हो जाएंगे. जनता बेबस है, उसे हमेशा एक महानायक की तलाश रहती है और अब महानायक पैदा होने बंद हो चुके हैं. अब एक ही महानायक है और वह है देश का सुप्रीम कोर्ट, उसी के चेतने का इंतज़ार है.

अगर 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला देश के सभी घोटालों की जननी है तो आज जिस घोटाले का चौथी दुनिया पर्दाफाश कर रहा है, वह देश में हुए अब तक के सभी घोटालों का पितामह है. चौथी दुनिया आपको अब तक के सबसे बड़े घोटाले से रूबरू करा रहा है. देश में कोयला आवंटन के नाम पर करीब 26 लाख करोड़ रुपये की लूट हुई है. सबसे बड़ी बात है कि यह घोटाला प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल में ही नहीं, उन्हीं के मंत्रालय में हुआ. यह है कोयला घोटाला. कोयले को काला सोना कहा जाता है, काला हीरा कहा जाता है, लेकिन सरकार ने इस हीरे का बंदरबांट कर डाला और अपने प्रिय-चहेते पूंजीपतियों एवं दलालों को मुफ्त ही दे दिया. आइए देखें, इतिहास की सबसे बड़ी लूट की पूरी कहानी क्या है.

सबसे पहले समझने की बात यह है कि देश में कोयला उत्खनन के संबंध में सरकारी रवैया क्या रहा है. 1973 में तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी ने दूरदर्शिता दिखाते हुए देश में कोयले का उत्खनन निजी क्षेत्र से निकाल लिया और इस एकाधिकार को सरकार के अधीन कर दिया.

प्रधानमंत्री ने टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की ज़िम्मेदारी मंत्री पर डाल दी. उन्हें कुछ मालूम ही नहीं था. आदर्श घोटाला और कॉमनवेल्थ घोटाला भी दूसरों ने किया, लेकिन अब उनके ही कोयला मंत्री रहते हुए जो महा घोटाला हुआ, उसकी ज़िम्मेदारी किस पर डाली जाएगी? इस सवाल का जवाब जनता प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से ज़रूर जानना चाहेगी.

मतलब इसका राष्ट्रीयकरण कर दिया गया. शायद इसी कारण देश में कोयले का उत्पादन दिनोंदिन बढ़ता गया. आज यह 70 मिलियन मीट्रिक टन से बढ़कर लगभग 493 (2009) मिलियन मीट्रिक टन हो गया है. सरकार द्वारा कोयले के उत्खनन और विपणन का एकाधिकार कोल इंडिया लिमिटेड को दे दिया गया है. इस कारण अब कोयला नोटिफाइड रेट पर उपलब्ध है, जिससे कोयले की कालाबाज़ारी पर बहुत हद तक नियंत्रण पा लिया गया. लेकिन कैप्टिव ब्लॉक (कोयले का संशोधित क्षेत्र) के नाम पर कोयले को निजी क्षेत्र के लिए खोलने की सरकारी नीति से इसे बहुत बड़ा धक्का पहुंचा और यह काम यूपीए सरकार की अगुवाई में हुआ है.

सबसे बड़ी बात है कि यह घोटाला सरकारी फाइलों में दर्ज है और सरकार के ही आंकड़े चीख-चीखकर कह रहे हैं कि देश के साथ एक बार फिर बहुत बड़ा धोखा हुआ है. यह बात है 2006-2007 की, जब शिबू सोरेन जेल में थे और प्रधानमंत्री ख़ुद ही कोयला मंत्री थे. इस काल में दासी नारायण और संतोष बागडोदिया राज्यमंत्री थे. प्रधानमंत्री के नेतृत्व में कोयले के संशोधित क्षेत्रों को निजी क्षेत्र में सबसे अधिक तेजी से बांटा गया. सबसे बड़ी बात यह है कि ये कोयले की खानें सिर्फ 100 रुपये प्रति टन की खनिज रॉयल्टी के एवज़ में बांट दी गईं. ऐसा तब किया गया, जब कोयले का बाज़ार मूल्य 1800 से 2000 रुपये प्रति टन के ऊपर था. जब संसद में इस बात को लेकर कुछ सांसदों ने हंगामा किया,

स्वर्गीय इंदिरा गांधी ने दूरदर्शिता दिखाते हुए देश में कोयले का उत्खनन निजी क्षेत्र से निकाल लिया और इस एकाधिकार को सरकार के अधीन कर दिया. मतलब इसका राष्ट्रीयकरण कर दिया गया. शायद इसी कारण देश में कोयले का उत्पादन दिनोंदिन बढ़ता गया. आज यह 70 मिलियन मीट्रिक टन से बढ़कर लगभग 493 (2009) मिलियन मीट्रिक टन हो गया है. सरकार द्वारा कोयले के उत्खनन और विपणन का एकाधिकार कोल इंडिया लिमिटेड को दे दिया गया है. इस कारण अब कोयला नोटिफाइड रेट पर उपलब्ध है, जिससे कोयले की कालाबाज़ारी पर बहुत हद तक नियंत्रण पा लिया गया. लेकिन कैप्टिव ब्लॉक (कोयले का संशोधित क्षेत्र) के नाम पर कोयले को निजी क्षेत्र के लिए खोलने की सरकारी नीति से इसे बहुत बड़ा धक्का पहुंचा और यह काम यूपीए सरकार की अगुवाई में हुआ है.

तब शर्मसार होकर सरकार ने कहा कि माइंस और मिनरल (डेवलपमेंट एंड रेगुलेशन) एक्ट 1957 में संशोधन किया जाएगा और तब तक कोई भी कोयला खदान आवंटित नहीं की जाएगी. 2006 में यह बिल राज्यसभा में पेश किया गया और यह माना गया कि जब तक दोनों सदन इसे मंजूरी नहीं दे देते और यह बिल पास नहीं हो जाता, तब तक कोई भी कोयला खदान आवंटित नहीं की जाएगी. लेकिन यह विधेयक चार साल तक लोकसभा में जानबूझ कर लंबित रखा गया और 2010 में ही यह क़ानून में तब्दील हो पाया. इस दरम्यान संसद में किए गए वादे से सरकार मुकर गई और कोयले के ब्लॉक बांटने का गोरखधंधा चलता रहा. असल में इस विधेयक को लंबित रखने की राजनीति बहुत गहरी थी. इस विधेयक में साफ़-साफ़ लिखा था कि कोयले या किसी भी खनिज की खदानों के लिए सार्वजनिक नीलामी की प्रक्रिया अपनाई जाएगी. अगर यह विधेयक लंबित न रहता तो सरकार अपने चहेतों को मुफ्त कोयला कैसे बांट पाती. इस समयावधि में लगभग 21.69 बिलियन टन कोयले के उत्पादन क्षमता वाली खदानें निजी क्षेत्र के दलालों और पूंजीपतियों को मुफ्त दे दी गईं. इस दरम्यान प्रधानमंत्री भी कोयला मंत्री रहे और सबसे आश्चर्य की बात यह है कि उन्हीं के नीचे सबसे अधिक कोयले के ब्लॉक बांटे गए. ऐसा क्यों हुआ? प्रधानमंत्री ने हद कर दी, जब उन्होंने कुल 63 ब्लॉक बांट दिए. इन चार सालों में लगभग 175 ब्लॉक आनन-फानन में पूंजीपतियों और दलालों को मुफ्त में दे दिए गए.

वैसे बाहर से देखने में इस घोटाले की असलियत सामने नहीं आती, इसलिए चौथी दुनिया ने पता लगाने की कोशिश की कि इस घोटाले से देश को कितना घाटा हुआ है. जो परिणाम सामने आया, वह स्तब्ध कर देने वाला है. दरअसल निजी क्षेत्र में कैप्टिव (संशोधित) ब्लॉक देने का काम 1993 से शुरू किया गया. कहने को ऐसा इसलिए किया गया कि कुछ कोयला खदानें खनन की दृष्टि से सरकार के लिए आर्थिक रूप से कठिन कार्य सिद्ध होंगी. इसलिए उन्हें निजी क्षेत्र में देने की ठान ली गई. ऐसा कहा गया कि मुना़फे की लालसा में निजी उपक्रम इन दूरदराज़ की और कठिन खदानों को विकसित कर लेंगे तथा देश के कोयला उत्पादन में वृद्धि हो जाएगी. 1993 से लेकर 2010 तक 208 कोयले के ब्लॉक बांटे गए, जो कि 49.07 बिलियन टन कोयला था. इनमें से 113 ब्लॉक निजी क्षेत्र में 184 निजी कंपनियों को दिए गए, जो कि 21.69 बिलियन टन कोयला था. अगर बाज़ार मूल्य पर इसका आकलन किया जाए तो 2500 रुपये प्रति टन के हिसाब से इस कोयले का मूल्य 5,382,830.50 करोड़ रुपये निकलता है. अगर इसमें से 1250 रुपये प्रति टन काट दिया जाए, यह मानकर कि 850 रुपये उत्पादन की क़ीमत है और 400 रुपये मुनाफ़ा, तो भी देश को लगभग 26 लाख करोड़ रुपये का राजस्व घाटा हुआ. तो यह हुआ घोटालों का बाप. आज तक के इतिहास का सबसे बड़ा घोटाला और शायद दुनिया का सबसे बड़ा घोटाला होने का गौरव भी इसे ही मिलेगा. तहक़ीक़ात के दौरान चौथी दुनिया को कुछ ऐसे दस्तावेज हाथ लगे, जो चौंकाने वाले खुलासे कर रहे थे. इन दस्तावेजों से पता चलता है कि इस घोटाले की जानकारी सीएजी (कैग) को भी है. तो सवाल यह उठता है कि अब तक इस घोटाले पर सीएजी चुप क्यों है?

देश की खनिज संपदा, जिस पर 120 करोड़ भारतीयों का समान अधिकार है, को इस सरकार ने मुफ्त में अनैतिक कारणों से प्रेरित होकर बांट दिया. अगर इसे सार्वजनिक नीलामी प्रक्रिया अपना कर बांटा जाता तो भारत को इस घोटाले से हुए 26 लाख करोड़ रुपये के राजस्व घाटे से बचाया जा सकता था और यह पैसा देशवासियों के हितों में ख़र्च किया जा सकता था.

यह सरकार जबसे सत्ता में आई है, इस बात पर ज़ोर दे रही है कि विकास के लिए देश को ऊर्जा माध्यमों के दृष्टिकोण से स्वावलंबी बनाना ज़रूरी है. लेकिन अभी तक जो बात सामने आई है, वह यह है कि प्रधानमंत्री और बाक़ी कोयला मंत्रियों ने कोयले के ब्लॉक निजी खिलाड़ियों को मुफ्त में बांट दिए. जबकि इस सार्वजनिक संपदा की सार्वजनिक और पारदर्शी नीलामी होनी चाहिए थी. नीलामी से अधिकाधिक राजस्व मिलता, जिसे देश में अन्य हितकारी कार्यों में लगाया जा सकता था, लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया. जब इस मामले को संसद में उठाया गया तो सरकार ने संसद और लोगों को गुमराह करने का काम किया. सरकारी विधेयक लाने की बात कही गई, जिसके तहत यह नीलामी की जा सकेगी, लेकिन यह विधेयक चार साल तक लोकसभा में लंबित रखा गया, ताकि सरकार के जिन निजी खिलाड़ियों के साथ काले संबंध हैं, उन्हें इस दरम्यान कोयले के ब्लॉक जल्दी-जल्दी बांटकर ख़त्म कर दिए जाएं. इसमें कितनी रकम का लेन-देन हुआ होगा, यह ज़ाहिर सी बात है.

लेकिन अनियमितताएं यहीं ख़त्म नहीं हो जातीं. एक ऐसी बात सामने आई है, जो चौंका देने वाली है. सरकारी नियमों के अनुसार, कोयले के ब्लॉक आवंटित करने के लिए भी कुछ नियम हैं, जिनकी साफ़ अनदेखी कर दी गई. ब्लॉक आवंटन के लिए कुछ सरकारी शर्तें होती हैं, जिन्हें किसी भी सूरत में अनदेखा नहीं किया जा सकता. ऐसी एक शर्त यह है कि जिन खदानों में कोयले का खनन सतह के नीचे होना है, उनमें आवंटन के 36 माह बाद (और यदि वन क्षेत्र में ऐसी खदान है तो यह अवधि छह महीने बढ़ा दी जाती है) खनन प्रक्रिया शुरू हो जानी चाहिए. यदि खदान ओपन कास्ट किस्म की है तो यह अवधि 48 माह की होती है. (जिसमें वन क्षेत्र हो तो पहले की तरह ही छह महीने की छूट मिलती है.) अगर इस अवधि में काम शुरू नहीं होता है तो खदान मालिक का लाइसेंस रद्द कर दिया जाता है. समझने वाली बात यह है कि इस प्रावधान को इसलिए रखा गया है, ताकि खदान और कोयले का उत्खनन बिचौलियों के हाथ न लगे, जो सीधे-सीधे तो कोयले का काम नहीं करते, बल्कि खदान ख़रीद कर ऐसे व्यापारियों या

उद्योगपतियों को बेच देते हैं, जिन्हें कोयले की ज़रूरत है. इस गोरखधंधे में बिचौलिए मुंहमांगे और अनाप-शनाप दामों पर खदानें बेच सकते हैं. लेकिन सरकार ने ऐसी कई खदानों का लाइसेंस रद्द नहीं किया, जो इस अवधि के भीतर उत्पादन शुरू नहीं कर पाईं. ऐसा इसलिए, क्योंकि आवंटन के समय बहुत बड़ी मात्रा में ऐसे ही बिचौलियों को खदानें आवंटित की गई थीं, ताकि वे उन्हें आगे चलकर उद्योगपतियों को आसमान छूती क़ीमतों पर बेच सकें. अब यदि सरकार और बिचौलियों के बीच साठगांठ नहीं थी तो ऐसा क्यों किया गया? यह काम श्रीप्रकाश जायसवाल का है, लेकिन आज तक उन्होंने इस पर कोई कार्रवाई नहीं की है. 2003 तक 40 ब्लॉक बांटे गए थे, जिनमें अब तक सिर्फ 24 ने उत्पादन शुरू किया है. तो बाक़ी 16 कंपनियों के लाइसेंस ख़ारिज क्यों नहीं किए गए? 2004 में 4 ब्लॉक बांटे गए थे, जिनमें आज तक उत्पादन शुरू नहीं हो पाया. 2005 में 22 ब्लॉक आवंटित किए गए, जिनमें आज तक केवल 2 ब्लॉकों में ही उत्पादन शुरू हो पाया है. इसी तरह 2006 में 52, 2007 में 51, 2008 में 22, 2009 में 16 और 2010 में एक ब्लॉक का आवंटन हुआ, लेकिन 18 जनवरी 2011 तक की रिपोर्ट के अनुसार, कोई भी ब्लॉक उत्पादन शुरू होने की अवस्था में नहीं है. पहले तो बिचौलियों को ब्लॉक मुफ्त दिए गए, जिसके लिए माइंस और मिनरल एक्ट में संशोधन को लोकसभा में चार साल तक रोके रखा गया. फिर जब इन बिचौलियों की खदानों में उत्पादन शुरू नहीं हुआ (क्योंकि ये उत्पादन के लिए आवंटित ही नहीं हुई थीं), तो भी इनके लाइसेंस रद्द नहीं किए गए. सरकार और बिचौलियों एवं फर्ज़ी कंपनियों के बीच क्या साठगांठ है, यह समझने के लिए रॉकेट साइंस पढ़ना ज़रूरी नहीं है. अगर ऐसा न होता तो आज 208 ब्लॉकों में से स़िर्फ 26 में उत्पादन हो रहा हो, ऐसा न होता.

इस सरकार की कथनी और करनी में ज़मीन-आसमान का फर्क़ है. सरकार कहती है कि देश को ऊर्जा क्षेत्र में स्वावलंबी बनाना आवश्यक है. देश में ऊर्जा की कमी है, इसलिए अधिक से अधिक कोयले का उत्पादन होना चाहिए. इसी उद्देश्य से कोयले का उत्पादन निजी क्षेत्र के लिए खोलना चाहिए, लेकिन इस सरकार ने विकास का नारा देकर देश की सबसे क़ीमती धरोहर बिचौलियों और अपने प्रिय उद्योगपतियों के नाम कर दी. ऐसा नहीं है कि सरकार के सामने सार्वजनिक नीलामी का मॉडल नहीं था और ऐसा भी नहीं कि सरकार के पास और कोई रास्ता नहीं था. महाराष्ट्र के माइनिंग डेवलपमेंट कॉरपोरेशन ने भी इस प्रक्रिया के चलते कोल इंडिया से कुछ ब्लॉक मुफ्त ले लिए. ये ब्लॉक थे अगरझरी, वरोरा, मार्की, जामनी, अद्कुली और गारे पेलम आदि. बाद में कॉरपोरेशन ने उक्त ब्लॉक निजी खिलाड़ियों को बेच दिए, जिससे उसे 750 करोड़ रुपये का फायदा हुआ. यह भी एक तरीक़ा था, जिससे सरकार इन ब्लॉकों को बेच सकती थी, लेकिन ब्लॉकों को तो मुफ्त ही बांट डाला गया. ऐसा भी नहीं है कि बिचौलियों के होने का सिर्फ कयास लगाया जा रहा है, बल्कि महाराष्ट्र की एक कंपनी जिसका कोयले से दूर-दूर तक लेना-देना नहीं था, ने कोयले के एक आवंटित ब्लॉक को 500 करोड़ रुपये में बेचकर अंधा मुनाफ़ा कमाया. मतलब यह कि सरकार ने कोयले और खदानों को दलाल पथ बना दिया, जहां पर खदानें शेयर बन गईं, जिनकी ख़रीद-फरोख्त चलती रही और जनता की धरोहर का चीरहरण होता रहा.

प्रणब मुखर्जी ने आम आदमी का बजट पेश करने की बात कही, लेकिन उनका ब्रीफकेस खुला और निकला जनता विरोधी बजट। अगर इस जनता विरोधी बजट को भी देखा जाए तो सामाजिक क्षेत्र को एक लाख साठ हज़ार करोड़ रुपये आवंटित हुए. मूल ढांचे (इन्फ्रास्ट्रकचर) को दो लाख चौदह हज़ार करोड़, रक्षा मंत्रालय को एक लाख चौसठ हज़ार करोड़ रुपये आवंटित किए गए. भारत का वित्तीय घाटा लगभग चार लाख बारह हज़ार करोड़ रुपये का है. टैक्स से होने वाली आमद नौ लाख बत्तीस हज़ार करोड़ रुपये है. 2011-12 के लिए कुल सरकारी ख़र्च बारह लाख सत्तावन हज़ार सात सौ उनतीस करोड़ रुपये है. अकेले यह कोयला घोटाला 26 लाख करोड़ का है. मतलब यह कि 2011-2012 में सरकार ने जितना ख़र्च देश के सभी क्षेत्रों के लिए नियत किया है, उसका लगभग दो गुना पैसा अकेले मुनाफाखोरों, दलालों और उद्योगपतियों को खैरात में दे दिया इस सरकार ने. मतलब यह कि आम जनता की तीन साल की कमाई पर लगा टैक्स अकेले इस घोटाले ने निगल लिया. मतलब यह कि इतने पैसों में हमारे देश की रक्षा व्यवस्था को आगामी 25 साल तक के लिए सुसज्जित किया जा सकता था. मतलब यह कि देश के मूल ढांचे को एक साल में ही चाक-चौबंद किया जा सकता था. सबसे बड़ी बात यह कि वैश्विक मंदी से उबरते समय हमारे देश का सारा क़र्ज़ (आंतरिक और बाह्य) चुकाया जा सकता था. विदेशी बैंकों में रखा काला धन आजकल देश का सिरदर्द बना हुआ है. बाहर देशों से अपना धन लाने से पहले इस कोयला घोटाले का धन वापस जनता के पास कैसे आएगा?

चौथी दुनिया

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देश में जब भी कोई विस्फोट या आतंकी वारदात होती है तो भय और आक्रोश का माहौल पैदा हो जाता है। खास तौर पर उस भाग में जहाँ उग्रवाद या आतंकवाद की कोई समस्या नहीं है। घटना जिस शहर में होती है विशेष रूप से उस इलाके की भावनाएँ भड़की हुई होती हैं घटना के बाद खुफिया तन्त्र और सुरक्षा एजेन्सियों की विफलता पर जनता मंे रोष होता है, सरकार की जवाबदेही और आतंकवाद से निबटने में उसकी इच्छा शक्ति पर सवाल उठने लगते हैं। देश की जनता घटना को अंजाम देने वाले आतंकियों और उनके संगठन के बारे में जानना चाहती है, जाहिर सी बात है कि अपनी इस जिज्ञासा की पूर्ति के लिए वह लोकतंत्र के चैथे स्तम्भ मीडिया की ओर आकृष्ट होती है। इलेक्ट्रानिक चैनलों पर सनसनीख़ेज़ जानकारियाँ तुरन्त मिलने लगती हैं परन्तु ग्रामीण अंचलों में जहाँ दो तिहाई भारत बसता है, के लोग शायद इतने खुश किस्मत नहीं हैं। आकाशवाणी समाचारों में ऐसी घटनाओं की विस्तृत या यूँ कहा जाए कि अपुष्ट सूत्रों के हवालों से जन उपयोग की खबरों का प्रायः अभाव ही रहता है। इसी वजह से इस क्षेत्र के लोगों की समाचार पत्रों पर निर्भरता बढ़ जाती है। निजी सूत्रों के अतिरिक्त विश्वस्त सूत्रों, विशेषज्ञों, जानकारों, खुफिया एवं सुरक्षा
अधिकारियों को उद्धृत करते हुए उत्तेजनात्मक खबरों के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में सुबह दैनिक समाचार पत्रों का बेसब्री से इन्तजार रहता है। परन्तु दुर्भाग्य की बात यह है कि लोकतंत्र के चैथे स्तम्भ के इस महत्वपूर्ण अंग में कई बार जनता तक सच्ची और रचनात्मक खबरें पहुँचाने के दायित्व के निर्वाह से ज्यादा बाजारवाद के तकाजों को पूरा करने की चेष्टा और पूरे घटनाक्रम को एक खास दिशा देने की कवायद नजर आती है। इसी के चलते तथ्यात्मक समाचारों में स्पष्ट भिन्नता और अनुमानित समाचारों में अद्भुत समानता देखने को मिलती है।
वाराणसी के दशाश्वमेध घाट पर शीतला माता मन्दिर के सामने 7 दिसम्बर सन् 2010 की शाम कपूर आरती आरम्भ होने से ठीक पहले होने वाले धमाके ने मासूम स्वस्तिका की जान ले ली और बाद में गम्भीर रूप से घायल इतालवी नागरिक की भी अस्पताल में मृत्यु हो गईं। इस घटना के बाद वाराणसी से प्रकाशित होने वाले प्रमुख समाचार पत्रों के अगले संस्करणों में इस घटना से सम्बन्धित समाचारों पर एक नजर डाली जाय तो उक्त कथन की पुष्टि होती है। विस्फोट में जान गँवाने वाली एक साल से भी छोटी बच्ची को आने वाली चोटों के समाचार कुछ इस प्रकार
थे:-………धमाकों मे एक वर्षीय बच्ची तारिका शर्मा की मृत्यु हो गई। (हिन्दुस्तान 8 दिसम्बर पृष्ठ नं0 1)……. इसमें एक साल की स्वस्तिका की मौत हो गई उसकी कमर से नीचे का पूरा हिस्सा उड़ गया था।
(अमर उजाला 8 दिसम्बर पृष्ठ नं0 1)………. एक पत्थर का टुकड़ा तेजी से स्वस्तिका के सिर पर लगा, खून का फौव्वारा फूट पड़ा, भगदड़ मच गई। माँ जब तक उसे लेकर पार्क पहुँचती उसकी मृत्यु हो गई। (दैनिक जागरण, 9 दिसम्बर पृष्ठ नं0 7)….. इसी प्रकार घटना स्थल पर सी0सी0 कैमरा था अथवा नहीं, दो अलग-अलग अधिकारियों के हवाले से परस्पर विरोधी समाचार प्रकाशित हुए तो घटनास्थल पर पाए जाने वाले अवशेषों को लेकर भी समाचारों मंे समानता देखने को नहीं मिलती। ए0डी0एम0 अटल कुमार राय ने बताया कि अधिकारी घटनास्थल के सी0सी0, पी0डी0 फुटेज की जाँच कर रहे हैं। (अमर उजाला 9 दिसम्बर पृष्ठ 10)……… शुक्रवार को उन्होंने (ए0डी0जी0 कानून व्यवस्था वृजलाल) पत्रकारों से बात करते हुए बताया कि शीतला घाट पर सी0सी0 कैमरे नहीं थे। इस लिए घटना से पहले और बाद के फुटेज जुटा कर छान बीन की जा रही है (दैनिक जागरण 11 दिसम्बर पृष्ठ नं0 9) घटनास्थल पर पाए जाने वाले अवशेषों के सम्बन्ध में श्री अटल कुमार राय के हवाले से अमर उजाला लिखता है…….. राय ने बताया कि आगरा से फोरेन्सिक विशेषज्ञों के एक दल ने घटना स्थल के नमूने लिए है। इस बार मौके से छोटे से वायर और प्लास्टिक के टुकड़े के अलावा कोई भी अवशेष नहीं मिला जिसके आधार पर किसी निष्कर्ष पर पहुँचा जा सके। (दैनिक जागरण 9 दिसम्बर पृष्ठ नं0 1)……. आतंकी विस्फोट की जाँच के दौरान तार के एक टुकड़े से सुराग की तलाश की जा रही है………। एजेन्सियाँ इस विस्फोट के बाद मौके पर अवशेष न मिलने पर हैरत में हैं (हिन्दुस्तान 9 दिसम्बर पृष्ठ नं0 7)।
वाराणसी विस्फोट के बाद संजरपुर लगातार सुर्खियों में रहा। 19 दिसम्बर 2008 की बटाला हाउस घटना के बाद से ही यहाँ के लोग हर आतंकी वारदात के बाद संजरपुर और आजमगढ़ को घसीटे जाने को लेकर आशंकित रहते हैं। यह आशंका स्वाभाविक भी है क्योंकि पूना जर्मन बैकरी धमाके के पश्चात जनपद के कुछ लापता युवकों का नाम उछाला गया था। गत सितम्बर में दिल्ली जामा मस्जिद गोलाबारी काण्ड को भी इण्डियन मुजाहिदीन से जोड़ते हुए आतिफ और साजिद की शहादत के बदले के तौर पर प्रस्तुत किया गया था। बनारस विस्फोट के बाद भी इण्डियन मुजाहिदीन के ईमेल के साथ ही मीडिया में संजरपुर के सम्बन्ध में खबरें छपने लगीं। यहाँ के वातावरण और ग्राम वासियों की प्रतिक्रिया को लेकर जो समाचार छपे वे कुछ इस प्रकार थे…………… ग्रामीणों के चेहरे के भाव ऊपर से पूरी तरह सामान्य पर अन्दर से असहज। ग्रामीणों ने कहा कि विस्फोट कहीं भी हो मगर उसके तार आजमगढ़ के संजरपुर से जोड़ दिए जाएँ तो हमारे लिए कोई चैकाने वाली बात नहीं। अब तो हम लोग यह सब सुनने के आदी हो गए हैं। (दैनिक जागरण 9 दिसम्बर आज़मगढ़)…………… सुबह-शाम गुलज़ार रहने वाले संजरपुर के चट्टी चैराहों पर सन्नाटा छा गया। दहशत का आलम यह है कि अभिभावक अपने बच्चों को घर से बाहर नहीं निकलने दे रहे हैं (अमर उजाला 9 दिसम्बर पृष्ठ 2 अपना शहर आज़मगढ़)। हिन्दुस्तान में इस विषय पर उस दिन कोई रिपोर्ट प्रकाशित नहीं हुई थी। शायद यही कारण था कि प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए अगले दिन हिन्दुस्तान टीम के हवाले से जो रिपोर्ट छपी उसका शीर्षक था पुलिसिया भय से संजरपुर वासी कर रहे पलायन। पत्र आगे लिखता है…….. बनारस विस्फोट में नाम जुड़ने से लोगों के माथे पर चिन्ता की लकीरें खिंच गईं यहाँ के निवासी पलायन कर रहे हैं। गुलजार रहने वाली चट्टी चैराहों पर सन्नाटा पसरा जा रहा है। लोग घरों मंे इस तरह दुबके हैं जैसे कोई बड़ा गुनाह कर दिया हो (हिन्दुस्तान 10 दिसम्बर पृष्ठ नं0 3 आजमगढ़)।

लगभग सभी समाचार पत्रों में यह खबर भी छपी थी कि गाँव में प्रवेश करने वाले वाहनों को देख कर ग्रामवासी सहम जाते हैं। शायद पत्रकार बन्धुओं ने इसका अर्थ यह निकाला कि ए0टी0एस0 या किसी सुरक्षा एजेंसी के लोगों के आने की आशंका को लेकर सन्देह और भय के कारण ऐसा होता है। परन्तु इस असहजता का एक बड़ा कारण आरोपी युवकों और गाँव के प्रति स्वयं मीडिया का रवैया भी रहा है। ग्रामवासियों में यह आम धारणा है कि पत्रकार बन्धु कितनी ही लुभावनी और सहानुभूतिपूर्ण बातें करें पर छपने वाले समाचार एक पक्षीय और समुदाय विशेष के लोगों की छवि को धूमिल करने वाले ही होते हैं।
बनारस धमाके के बाद जब कुछ पत्रकारांे ने ए0टी0एस0 वालों से गाँव में आने के बाबत सवाल किया तो कई लोगों ने उन्हें बताया कि मंगलवार 7 दिसम्बर को दिन में 10-11 बजे के बीच चार से पाँच अज्ञात लोग जो किसी एजेन्सी से सम्बन्धित लगते थे संजरपुर बाजार में घूमते हुए देखे गए थे। उनके पास कुछ फोटो भी थे। परन्तु किसी समाचार पत्र ने बनारस धमाके से पहले इन अज्ञात लोगों की गतिविधियों का समाचार नहीं प्रकाशित किया। बटाला हाउस काण्ड के बाद से कई अवसरों पर ऐसे समाचार प्रकाशित हुए जो मनगढ़ंत, घोर आपत्तिजनक और वास्तविकता से कोसों दूर थे। गाँव के लोग उस समाचार को अब भी नहीं भुला पा रहें हैं जिसमें कहा गया था कि आतिफ और सैफ के बैंक खातों से बहुत ही अल्प अवधि में तीन करोड़ रूपयों का लेन देन हुआ है। हालाँकि यह समाचार बिल्कुल ही निराधार और झूठा था और इस आशय का प्रमाण भी पत्रकारों को दिया गया परन्तु किसी ने अब तक इसका खण्डन नहीं किया। शायद इन्हीं कारणों से पत्रकार ग्रामवासियों का विश्वास नहीं जीत पा रहें हैं और ग्रामवासी जब उन्हें देखकर असहज होते हैं तो पत्रकार उसका अलग अर्थ निकालते हैं………………….।
ये वे समाचार थे जिन्हें देखा और परखा जा सकता है तथा इनकी सत्यता को प्रमाणित भी किया जा सकता है इसी वजह से हमने इन्हें तथ्यात्मक समाचारों की श्रेणी में रखा है। परन्तु आश्चर्य की बात है कि इनमें स्पष्ट भिन्नता मौजूद है जिसे बहुत आसानी के साथ महसूस किया जा सकता है। दूसरी ओर वे समाचार हैं जिनका सम्बन्ध घटना के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों और उनके संगठन से है। यह जाँच का विषय है और जब तक कोई स्पष्ट संकेत न मिल जाय कोई भी समाचार सम्भावना और अनुमान की परिधि से बाहर नहीं जाना चाहिए। परन्तु समाचार माध्यमों ने इस लक्ष्मण रेखा को बार-बार पार किया है। वाराणसी धमाके के बाद भी आई0एम0 संजरपुर और आजमगढ़ को लेकर जिस तरह भावनात्मक समाचारों का प्रकाशन देखने को मिला वह बटाला हाउस काण्ड के पश्चात शुरू हुए मीडिया ट्रायल के विस्तार जैसा लगता है। 7 दिसम्बर को लगभग साढ़े 6 बजे
दशाश्वमेध घाट पर विस्फोट होता है। कथित रूप से आधे घंटे के बाद 7 बजे शाम को घटना की जिम्मेदारी लेने वाले आई0एम0 का ईमेल आता है। इसी ईमेल के आधार पर मुम्बई पुलिस आयुक्त संजीव दयाल की पत्रकार वार्ता के अंश सभी समाचार पत्रों में घटना के तीसरे दिन 9 दिसम्बर को प्रकाशित हुए जिसमें उनका कहना था…………. बनारस धमाके की जिम्मेदारी लेने वाले आई0एम0 के आका इकबाल भटकल और रियाज भटकल पाक में हैं (हिन्दुस्तान 9 दिसम्बर पृष्ठ नं0 1)।……….. लेकिन निश्चित तौर पर इण्डियन मुजाहिदीन के मुख्य खिलाड़ी पाकिस्तान में बैठे हैं और वहीं से आतंक का खेल चला रहे हैं। यह पूछने पर कि मुख्य खिलाड़ी से उनके क्या मायने हैं? दयाल ने कहा निश्चित तौर पर भटकल बन्धुओं से (अमर उजाला 9 दिसम्बर पृष्ठ नं0 6)। मुम्बई पुलिस आयुक्त का इण्डियन मुजाहिदीन और भटकल बन्धुओं पर इस आरोप का आधार आई0एम0 द्वारा भेजा गया ई-मेल था। हालाँकि ई-मेल जाँच की दिशा को भटकाने के लिए भी भेजा जा सकता है। इस पर हम बाद में चर्चा करेंगे, पहले घटना से सम्बन्धित अन्य समाचारों पर, जिनका सिलसिला विस्फोट के अगले दिन से ही शुरू हो गया, इण्डियन मुजाहिदीन का ई-मेल उसका स्रोत नहीं हो सकता।
7 दिसम्बर को लगभग साढ़े 6 बजे शाम को विस्फोट के बाद समाचार पत्रों के प्रकाशन में मुश्किल से चार घण्टे का समय रह जाता है। चारांे ओर अफरा-तफरी और अफवाहांे का माहौल है। इण्डियन मुजाहिदीन के ई-मेल के अलावा कोई दूसरा सुराग नहीं है और उस ई-मेल की प्रमाणिकता की जाँच अभी होना बाकी है। घटना स्थल पर कोई अवशेष न पाए जाने के कारण जाँच का रुख भी तय नहीं हो पा रहा है ऐसी स्थिति में जब कि समाचारों के प्रकाशन में चार घण्टे से भी कम समय है, फिर भी अगले दिन के समाचार पत्रों में घटना को अंजाम देने वाले सम्भावित कई संगठनों का नाम आया, उस में इण्डियन मुजाहिदीन के साथ आजमगढ़ की ओर भी उँगली उठाई गई। खास बात यह है कि उन्हीं संगठनों को शक के दायरे में रखा गया जिनसे मुस्लिम समुदाय पर ही आरोप आता हो। ………………. वैसे तो हाल फिलहाल अधिकारी हूजी और सिमी पर शक कर रहे हैं परन्तु इसमें लश्कर के हाथ होने का भी सन्देह है (हिन्दुस्तान 8 दिसम्बर पृष्ठ नं0 15)। उसी दिन के दैनिक जागरण में आजमगढ़! पूर्वांचल (पृष्ठ 7) पर दो बड़ी खबरें छपीं। एक का शीर्षक है, ‘‘आतंकियों का ठिकाना रहा है आजमगढ़’’ और दूसरे का (शक की सुईं जनपद के फरार आतंकियों पर) पत्र आगे लिखता है………………… रात 9 बजे जिन संदिग्ध लोगों को पुलिस ने वाराणसी मंे हिरासत में लिया हैं और जो कागजात उनके पास से मिले हैं, उससे यह आशंका और मजबूत हो गई है कि विस्फोट के तार आजमगढ़ से जुड़े हैं। सूचनाओं के बाद ए0टी0एस0 की एक टीम आजमगढ़ के लिए रवाना हो चुकी है। अमर उजाला की उसी दिन पृष्ठ नं0 14 पर हेड लाइन है-छः आतंकी अब भी फरार, कचहरी ब्लास्ट के आरोपी हैं दो आतंकी, इसी के साथ पिछले कुछ धमाकों और आजमगढ़ के गिरफ्तार और लापता युवकों की खबरें भी हैं। परन्तु उन धमाकांे का उल्लेख कहीं नहीं किया गया है जिनमें पहले सिमी. या हूजी जैसे संगठनों पर आरोप लगा था और अन्धाधुन्ध तरीके से मुस्लिम युवकों को गिरफ्तार भी किया गया था लेकिन बाद में अभिनव भारत, सनातन संस्थान तथा संघ व उससे जुड़े अन्य संगठनों के सदस्यों के नाम प्रकाश में आए। उनमें से कई अब जेल में हैं और कई लापता। एक समाचार और, जो प्रमुखता से सभी समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ वह था भाजपा के बनारस बन्द का। भाजपा की यह प्रतिक्रिया जिस तीव्रता के साथ आई उससे ऐसा प्रतीत होता है जैसे वह इसके लिए पहले से तैयार थी। इतने कम समय में घटना की पूरी जानकारी जुटा पाना आसान नहीं वह भी आतंकी विस्फोट जैसे गम्भीर मुद्दे पर।

यदि हम इसके बाद के समाचारों को देखें तो यह आभास होता है कि इण्डियन मुजाहिदीन के बहाने से संजरपुर और आजमगढ़ को टारगेट करने का एक अभियान चल पड़ा है। हालाँकि पहले ही दिन जिस प्रकार से आजमगढ़ का नाम आया उससे यह लगने लगा था कि कोई अज्ञात शाक्ति जाँच की दिशा को आजमगढ़ की ओर मोड़ने का प्रयास कर रही है। वह सिलसिला कुछ इस प्रकार आगे बढ़ता है:- ‘‘आजमगढ़ से जुड़ रहे हैं वाराणसी विस्फोट के तार, दिल्ली पुलिस को शक विस्फोट में फरार आतंकी डाॅ0 शहनवाज और असदुल्ला पर’’ शीर्षक से अमर उजाला लिखता है…………. ए0टी0एस0 ने दिल्ली पुलिस की थ्योरी को जाँच में शामिल कर लिया है (अमर उजाला 9 दिसम्बर पृष्ठ नं0 6) उसी दिन के हिन्दुस्तान ने सीधे डाॅ0 शाहनवाज या अन्य किसी पर शक की सूईं नहीं घुमाई, परन्तु ‘‘नजरें फिर इण्डियन मुजाहिदीन पर’’ शीर्षक से प्रकाशित समाचार में डाॅ0 शाहनवाज के नाम को हाई लाइट करने का प्रयास अवश्य मालूम होता है। पत्र लिखता है- 9 आरोपित पहले की वारदातों के बाद एजेंसियों के हत्थे चढ़ चुके हैं लेकिन डाॅ0 शाहनवाज सहित 7 आरोपित सुरक्षा एजेंसियों के लिए सिरदर्द बने हुए हैं………….।

गिरफ्तार किया गया मो0 सैफ डाॅ0 शाहनवाज का छोटा भाई है। डाॅ0 शाहनवाज के बारे में जो जानकारी है उसके अनुसार 2006 में बिहार के सीवान जिले से बी0यू0एम0एस0 की डिग्री प्राप्त कर लखनऊ के मेयो अस्पताल में काम कर चुका है लेकिन 13 सितम्बर 2008 को दिल्ली ब्लास्ट के बाद से फरार है (हिन्दुस्तान 9 दिसम्बर पृष्ठ नं0 3 आजमगढ़)। 9 दिसम्बर को दैनिक जागरण ने अपने पहले पृष्ठ पर जो खबर छापी है उसमें तो लगभग डाॅ0 शाहनवाज को बनारस विस्फोट का आरोपी बना ही दिया है। समाचार पढ़ने पर किसी को भी यही आभास होगा कि मामला हल हो चुका है बस आधिकारिक घोषणा ही बाकी है। शीर्षक है- शाहनवाज का नाम आते ही सक्ते में संजरपुर, खुफिया एजेंसियों ने शक की सुईं यहाँ के डाॅ0 शाहनवाज की तरफ घुमाई है। हालाँकि यह अभी स्पष्ट नहीं हो पाया कि शाहनवाज कौन और कहाँ का रहने वाला है।………. वैसे खुफिया सूत्रों की मानें तो डाॅ0 शाहनवाज ही मंगलवार की शाम वाराणसी में गंगा आरती के समय हुए विस्फोट का सूत्रधार है और वह संजरपुर का ही रहने वाला है। डाॅ0 शाहनवाज के बारे में आई0बी0 के हवाले से वाराणसी विस्फोट के पहले और बाद में भी यह समाचार छप चुका है कि वह शारजह पहुँच गया है। कितनी विचित्र बात है कि यहाँ उसके सम्पर्क सूत्रों का पता लगाने से पहले ही उसे सूत्रधार घोषित कर दिया गया। इस प्रकार के समाचार जाँच एजेंसियों के लिए निमन्त्रण जैसे लगते हैं कि कहीं भटकने की जरूरत नहीं है। संजरपुर और आजमगढ़ चले आइए गुत्थी सुलझ जाएगी। इन समाचारों की विश्वसनीयता का अन्दाजा दैनिक जागरण में प्रदेश सरकार के हवाले से प्रकाशित उस समाचार से किया जा सकता है जिसका शीर्षक है ‘‘अहम सुराग के लिए जी तोड़ मशक्कत’’, पत्र आगे लिखता है……… प्रदेश सरकार ने माना कि वाराणसी में मंगलवार को हुए आतंकी विस्फोट को लेकर उसे कोई सुराग नहीं मिल पाया है………… घटना को अंजाम देने वाले संगठन की पहचान नहीं हो सकी है…….. घटनास्थल से बैटरी रिमोट कंट्रोल डिवाइस एवं छर्रे भी नहीं मिले हैं…………. बृजलाल ने पत्रकारों को बताया कि ऐसा कोई सुबूत नहीं मिला है जिससे पुख्ता तौर पर किसी आतंकी संगठन का नाम लेकर कहा जा सके कि उसने घटना को अंजाम दिया है……….. रासायनिक जाँच करके यह पता लगाया जाएगा कि विस्फोट को अंजाम देने वाला आतंकी संगठन कौन सा हो सकता है।………. वाराणसी विस्फोट के पीछे डाॅ0 शाहनवाज की भूमिका होने के बाबत पूछे गए सवाल पर उन्हांेने कहा कि विस्फोट में डाॅ0 शाहनवाज शामिल था या नहीं इस बारे मंे अभी तक कोई सुबूत नहीं मिले हैं और न ही ए0टी0एस0 ने पूछ-ताछ के लिए किसी को उठाया है (दैनिक जागरण 9 दिसम्बर पृष्ठ 11)।
ए0डी0जी0 उ0प्र0 के उपर्युक्त स्पष्ट बयान से यह बात बिल्कुल साफ हो जाती है कि किसी संगठन, व्यक्ति या स्थान विशेष का नाम लेकर उस समय तक प्रकाशित सभी समाचार आधारहीन थे। इसे मात्र कयास या अनुमान ही कहा जा सकता है। परन्तु इस आशय की खबरों को लेकर जिस प्रकार सभी अखबारों में समानता पाई जाती है उस पर सवाल उठना लाजिमी है कि वे अधिकारी, सुरक्षा एजेंसियाँ या खुफिया सूत्र कौन से हैं जिनको उद्धृत करके यह एक तरफा समाचार प्रकाशित हुए और लगभग सभी समाचार पत्रों में इन्हीं सूत्रों के हवाले से छपे। यह मात्र संयोग नहीं हो सकता। इसके पीछे अवश्य कुछ शक्तियाँ हैं जो लगातार समाचार माध्यमों को एक ही प्रकार के इनपुट्स देती रही हैं ताकि जाँच कोे एक खास दिशा दी जा सके। 9 दिसम्बर को इन सभी समाचार पत्रों ने वाराणसी विस्फोट पर सम्पादकीय भी लिखे हैं जो काफी संतुलित हैं।
इसकी सराहना इस लिए भी की जानी चाहिए कि इसमें ए0डी0जी0 कानून व्यवस्था के बयान की झलक भी है और निष्पक्ष जाँच के लिए प्रेरित करने की सामग्री भी। इसके बावजूद डाॅ0 शाहनवाज, संजरपुर और आजमगढ़ को लक्ष्य बनाकर छपने वाली खबरों का सिलसिला जारी रहा। अमर उजाला 10 दिसम्बर पृष्ठ 2 आजमगढ़ में ‘‘शाहनवाज संग तीन अन्य संदिग्धों की तलाश’’ शीर्षक से लिखता है………. मंगलवार को हुए आतंकी विस्फोट के मामले में आजमगढ़ के डाॅ0 शाहनवाज के खिलाफ रेड कार्नर नोटिस जारी होने के बाद से यहाँ उसके सम्पर्कों की तलाश शुरू हो गई है। गुरुवार की शाम तीन संदिग्धों को हिरासत में लिया गया है जिनसे किसी अज्ञात स्थान पर पूछ ताछ चल रही है।
(धमाके में आई0एम0 के स्लीपर एजेन्ट का इस्तेमाल सम्भव) शीर्षक से हिन्दुस्तान (10 दिसम्बर पृष्ठ 10) लिखता हैं…………. वाराणसी में हुए बम धमाके को लेकर खुफिया विभाग (आई0बी0) के हाथ पूरी तरह खाली हैं। आई0बी0 को अभी पुख्ता तौर पर यह पता नहीं है कि बम धमाके को अंजाम किस आतंकी संगठन ने दिया है और उसका उद्देश्य क्या है।…………. कामन वेल्थ खेलों से पहले मिले इनपुट्स के आधार पर दिल्ली पुलिस के अधिकारी मान रहे हैं कि इसके पीछे इण्डियन मुजाहिद (आई0एम0) का हाथ हैं, हालाँकि इस मामले में अभी तक दिल्ली पुलिस के हाथ में कुछ नहीं है।

अगर इन सभी समाचारों का विश्लेषण किया जाय तो कई प्रकार के सवाल खड़े होते हैं। पहला तो यह कि डॉक्टर शाहनवाज और असदुल्ला को धमाके से जोड़ने का आधार क्या है? यदि इण्डियन मुजाहिदीन के ईमेल को आधार माना जाय तो आरोप रियाज भटकल और इकबाल भटकल पर जाता है जैसा कि मुम्बई पुलिस आयुक्त के बयान से जाहिर होता है। दिल्ली पुलिस को कामन वेल्थ खेलों से पहले अगर कोई इनपुट्स मिले थे तो उँगली इण्डियन मुजाहिदीन पर जरूर उठती है परन्तु उक्त दोनांे युवकों को इस आधार पर जिम्मेदार मानने का कोई कारण नहीं दिखाई देता। इसके अतिरिक्त देश की सुरक्षा से जुड़ी इस महत्वपूर्ण जानकारी से दिल्ली पुलिस ने उ0प्र0 पुलिस को उस समय आगाह क्यों नहीं किया? दिल्ली पुलिस की बगैर किसी सुबूत के डाॅ0 शाहनवाज और असदुल्ला का नाम धमाके से जोड़ने में दिलचस्पी के अपने कारण हो सकते हैं। बटाला हाउस काण्ड को लेकर उठने वाले सवाल और बाद में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा उसे फर्जी मुठभेड़ों की सूची में शामिल किए जाने पर अपने केस को पुख्ता बनाने के लिए, वहाँ आरोपी बनाए गए युवकों के खिलाफ उनके आतंकवादी

गतिविधियों में लिप्त होने के नवीन पूरक साक्ष्यों की जरूरत है। वाराणसी विस्फोट में डाॅ0 शाहनवाज या असदुल्ला को आरोपी बनाए जाने की सूरत मंे उसकी राह आसान हो सकती है। इसके अलावा अमर उजाला में चण्डीगढ़ से आशीष शर्मा की एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है जिसका शीर्षक है (कराँची में रियाज और शारजाह में शहनवाज ने मिल कर रची साजिश) ब्लास्ट के पीछे गजनी माड्यूल, रिपोर्ट में कहा गया है……… बनारस ब्लास्ट के पीछे मुजाहिदीन (आई0एम0) के नए माड्यूल ‘‘गजनी’’ का हाथ है……….इस बात के संकेत बनारस की जाँच कर रहे एक अधिकारी ने दिए हैं। उनके मुताबिक बटाला हाउस इन्काउन्टर के दौरान पकड़े गए आतंकी सैफ ने बताया था कि आई0एम0 ने भारत मंे तबाही मचाने के लिए तीन माड्यूल बनाए थे। एक महाराष्ट्र और गुजरात के लिए, दूसरा साउथ के लिए और तीसरा उत्तर भारत के लिए। पहले दो को ध्वस्त करने मंे गुजरात और महाराष्ट्र पुलिस ने सफलता प्राप्त कर ली थी लेकिन तीसरे सबसे महत्वपूर्ण गजनी का सुराग नहीं लग पाया था।
इसे आपरेट करने की जिम्मेदारी आजमगढ़ के डाॅ0 शाहनवाज के पास थी…..अधिकारी का यह भी कहना है कि बनारस धमाके से पहले करीब 25 सदस्यों ने रेकी की थी इनमें वे भी शामिल हैं जो अहमदाबाद ब्लास्ट के बाद से फरार चल रहे हैं (अमर उजाला 13 दिसम्बर पृष्ठ 18)। इस रिपोर्ट में भी डाॅ0 शाहनवाज को कटघरे मेें खड़ा किया गया है परन्तु रियाज भटकल के साथ। ऐसा लगता है कि दिल्ली पुलिस की थ्योरी और मुम्बई पुलिस आयुक्त के बयान में सामंजस्य उत्पन्न करने का प्रयास करने वाली इस रिपोर्ट से मात्र बनारस धमाके का मामला ही हल नहीं हो जाता बल्कि उत्तर भारत में यदि भविष्य में ऐसी कोई वारदात होती है तो उसकी जिम्मेदारी आसानी से इण्डियन मुजाहिदीन के इसी गजनी माड्यूल के सिर थोपी जा सकती है। रिपोर्ट मंे जिस गजनी माड्यूल का सुराग उस समय न मिल पाने की बात कही गई है उसका नाम गुजरात पुलिस महा निदेशक द्वारा उसी समय लिया गया था जब उन्होंने आई0एम0 के अस्तित्व और उसे सिमी से जोड़ने का (सिमी के पहले एस. और बाद के आई को निकालकर) नाटकीय प्रस्तुतीकरण किया था।
बनारस धमाके के बाद इण्डियन मुजाहिदीन समेत जिन संगठनों पर शक जाहिर करते हुए अधिकारियों, सुरक्षा एजेंसियों तथा खुफिया सूत्रों के हवाले से समाचार प्रकाशित एवं प्रसारित हुए उसमें आतंकवादियों का सम्बन्ध मुस्लिम समुदाय से होना ही जाहिर होता है। साधारण नागरिक के लिए इसमें एक बड़ा सवाल है। सम्भवतः इसके तीन प्रमुख कारण हो सकते हैं। पहला यह कि घटना के तुरन्त बाद आई0एम0 ने ईमेल भेज कर विस्फोट की जिम्मेदारी कबूल की और इससे जुड़े आतंकियों का सम्बन्ध इसी समुदाय से माना जाता है। हालाँकि इस संगठन के अस्तित्व को लेकर लगातार संदेह व्यक्त किया जाता रहा है। दूसरा कारण विस्फोट का एक हिन्दू धर्म स्थल पर होना और तीसरा निहित कारणों से सुरक्षा एवं खुफिया एजेंसियों में बैठे साम्प्रदायिक मानसिकता के लोगों की कारस्तानी तथा धु्रवीकरण की राजनीति। जहाँ तक इण्डियन मुजाहिदीन द्वारा ईमेल भेजकर घटना की जिम्मेदारी लेने का सवाल है तो इसमें इस सम्भावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि जाँच की दिशा को एक खास रुख देने के लिए किसी और ने इण्डियन मुजाहिदीन के नाम से यह ईमेल भेजा हो। ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं जब विस्फोट करने वालों ने ऐसे प्रयास किए हैं जिससे आरोप मुस्लिम युवकों पर लगने का मार्ग प्रशस्त हो सके। नांदेड़ में बम बनाते हुए बजरंग दल के कार्यालय में हुए विस्फोट में उसके कार्यकर्ताओं की मौत के बाद वहाँ से नकली दाढ़ी, टोपी और ऐसे वस्त्रों का बरामद होना जो आम तौर से मुस्लिम समुदाय में प्रचलित है ऐसे ही षड्यन्त्र का एक हिस्सा था। मालेगाँव बम धमाके में जिस बाइक का प्रयोग किया गया और जाँच के बाद जिसका सम्बन्ध प्रज्ञा सिंह ठाकुर से स्थापित हुआ उस पर ऐसे स्टीकर चिपकाए गए थे जिससे विस्फोट में सिमी का हाथ होना साबित हो। आतंकी इस प्रयास में उस समय सफल भी रहे थे। कानपुर में बम बनाते समय हुए धमाके में विश्व हिन्दू परिषद के सदस्यों का मारा जाना और भारी मात्रा में गोला बारूद का बरामद होना एक महत्वपूर्ण संकेत था कि उ0प्र0 में भी हिन्दूवादी संगठनों से जुड़े अतिवादी सोच के लोग सक्रिय हैं और इस प्रकार की घटनाओं को अंजाम दे सकते हंै। यह घटना चूँकि उ0प्र0 में ही हुई थी इस लिहाज से पिछले धमाकों के अवलोक में इसको अवश्य शामिल किया जाना चाहिए था। परन्तु किसी भी समाचार पत्र में यह देखने को नहीं मिला। इसी प्रकार यह मान लेना कि बनारस विस्फोट एक हिन्दू धर्म स्थल पर धार्मिक अनुष्ठान के दौरान हुआ इसलिए इसमें सनातन संस्थान, अभिनव भारत या संघ से जुड़े अन्य संगठनों के चरम पंथियों का हाथ नहीं हो सकता। इसी वजह से शक सिर्फ इण्डियन मुजाहिदीन, हूजी या लश्कर जैसे संगठनों पर किया जाना चाहिए तो यह तर्क मान्य नहीं हो सकत

यदि मक्का मस्जिद में ठीक जुमा की नमाज के समय हुए धमाकों का आरोप मुस्लिम युवकों पर आ सकता है और उनकी गिरफ्तारी भी हो सकती है। अजमेर शरीफ दरगाह में रमजान के महीने में अफ़्तार के समय हुए धमाके के आरोप में मुस्लिम नौजवानों को हिरासत में लिया जा सकता है। मालेगाँव जैसे मुस्लिम बाहुल्य नगर मंे आतंकी विस्फोट के बाद उसी समुदाय के लोगों को मुल्जिम बनाया जा सकता है तो दशाश्वमेध घाट पर हुए आतंकी विस्फोट मंे पहले की आतंकी वारदातों में शामिल हिन्दू संगठनों को शक के दायरे से बाहर रखने का औचित्य क्या है? वाराणसी घटना के बाद एक बार भी किसी ऐसे संगठन के सम्बन्ध में कोई भी खबर प्रकाशित नहीं हुई जिसमें उन पर शक की बात कही गई हो। अब इस बात को स्वीकार किया ही जाना चाहिए कि आतंकवाद की कोई आस्था नहीं होती। आतंकवादी न ही हिन्दू होता है न मुसलमान। वह सिर्फ आतंकवादी होता है। नफरत फैलाना और मासूमों का खून करना ही उसका मकसद होता है वह यह काम मस्जिद-मन्दिर, मधुशाला या बाजार कहीं भी कर सकता है।

किसी आतंकवादी घटना के पश्चात् मीडिया के, एक ही समुदाय से जुड़े संगठनों के प्रति आक्रामक रवैये के पीछे सबसे महत्वपूर्ण भूमिका सुरक्षा एजेंसियों, खुफिया विभाग, स्वयं मीडिया से जुड़े साम्प्रदायिक मानसिकता के लोग और मीडिया के बाजारवादी सिद्धान्त के साथ-साथ धु्रवीकरण की राजनीति भी है। मक्का मस्जिद हैदराबाद, अजमेर शरीफ दरगाह और मालेगाँव धमाकों के तुरन्त बाद भी इस प्रकार का माहौल बनाया गया था। समझौता एक्स0 धमाकों के रहस्यों पर से पर्दा उठने के बाद तो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत को शर्मिन्दगी का सामना करना पड़ रहा है। इन सभी धमाकों में मुस्लिम युवकांे को आरोपी बनाकर षड्यंत्रों का खुलासा कर लेने का दावा किया गया था। गवाह और सुबूत होने की बात भी कही गई थी। निश्चित रूप से सुरक्षा एवं खुफिया एजेंसियों में बैठे साम्प्रदायिक मानसिकता के लोगों का उन्हें भरपूर सहयोग प्राप्त था। महाराष्ट्र ए0टी0एस0 प्रमुख के0पी0 रघुबंशी पर कर्नल पुरोहित और प्रज्ञा सिंह ठाकुर को बचाने का आरोप लगता रहा है। आतंकी विस्फोट के आरोप में गिरफ्तार कर्नल पुरोहित से उनकी घनिष्टता भी कोई ढकी छुपी बात नहीं रह गई है। गुजरात में पुलिस कमिश्नर बंजारा समेत कई अधिकारी फर्जी मुठभेड़ में आतंकवादी बताकर मुस्लिम युवकों और युवतियों की हत्या करने के आरोप में गिरफ्तार हो चुके हैं। यदि सघन जाँच की जाए तो यह सूची काफी लम्बी हो सकती है। निःसन्देह उच्चतम स्तर पर इस तिकड़ी को राजनैतिक समर्थन भी प्राप्त था। कर्नल पुरोहित और प्रज्ञा ठाकुर एण्ड कम्पनी की गिरफ्तारी के बाद संघ और भाजपा ने बहुत तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। स्वर्गीय हेमन्त कर्करे की खुलेआम आलोचना ही नहीं की गई बल्कि प्रत्यक्ष रूप से जाँच को प्रभावित करने की गरज से उन पर दबाव भी डाला गया। हिन्दूवादी संगठनों की तरफ से उन्हें मुसलसल धमकियाँ भी मिलती रहीं। सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं पर सभी आतंकवादी मुसलमान जरूर हैं जैसे बयान देने वाले भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी जी के गुस्से को शान्त करने के लिए प्रधानमंत्री के सलाहकार ने उनसे मुलाकात भी की थी। यह सारी कवायद इसलिए थी कि असली आतंकवादी को कानून के शिकंजे से बाहर निकालकर आरोप मुस्लिम युवकों पर ही बना रहे और पूरे मुस्लिम समुदाय को दानव के रूप में प्रस्तुत कर हिन्दुओं में असुरक्षा की भावना को जागृत किया जाए। इस प्रकार राजनैतिक धु्रवीकरण के लिए वातावरण तैयार किया जा सके। वाराणसी विस्फोट के बाद जिस तरह से इण्डियन मुजाहिदीन, डा0 शाहनवाज व असदुल्ला के साथ अन्य संगठनों का नाम बार-बार लिया गया, चाहे वे

अधिकारियों व खुफिया सूत्रों के हवाले से हांे या मीडिया में मौजूद साम्प्रदायिक मानसिकता के लोगों की अपने दिमाग की उपज। वाराणसी विस्फोट के बाद उसी प्रकार का वातावरण निर्मित करने की कोशिश की गई, इससे यह सन्देह अवश्य पैदा होता है कि कहीं फिर वही कहानी दुहराने का षड्यन्त्र तो नहीं रचा जा रहा है जो इससे पूर्व हैदराबाद, अजमेर, मालेगाँव और समझौता एक्स0 धमाकों के बाद किया गया था और इन्हीं धमाकों में संघ के प्रचारक इन्दे्रश कुमार जैसे लोगों के शामिल होने के समाचारों से जनता का ध्यान हटाने की साजिश हो रही है।

-मसीहुद्दीन संजरी

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जलिया वाला हत्याकांड को अमृतसर के सैन्य प्रशासक डायर द्वारा किया गया और पंजाब के गवर्नर माइकल ओ डायर द्वारा अनुमोदित घटना मानकर ही नही छोड़ा जा सकता |इसे ब्रिटिश साम्राज्यी ताकत द्वारा हिंदुस्तान जैसे पिछड़े राष्ट्र पर प्रभुत्व थोपने के बर्बर प्रयास के अभिन्न अंग के रूप में देखा व समझा जाना चाहिए |ब्रिटेन ,फ़्रांस ,जर्मनी ,जापान और अब सबसे बढकर अमेरिका के ऐसे प्रयास खत्म नही हो गये है | बल्कि वे आज भी जारी हैं |कंही ज्यादा तेजी के साथ जारी है |
अपने को सर्वाधिक सुसभ्य जनतांत्रिक कहने वाले ब्रिटिश साम्राज्यवाद के इस बर्बर हत्याकांड के साथ दुनिया की इन सुसभ्य ताकतों द्वारा ऐसी बर्बर कार्यवाही का सिलसिला चलता रहा है |
ऐसी बर्बर एवं आतंकी कार्यवाही इन ताकतों के विश्वव्यापी प्रभुत्व का अनिवार्य हिस्सा हैं |
इन कार्यवाहियों में इनके एशियाई ,अफ़्रीकी व दक्षिण अमेरिकी देशो के लोगो के प्रति बैठी नस्ल रंग की उपेक्षा व घृणा का वहशियाना प्रदर्शन भी होता रहा हैं |वर्तमान दौर में इसकी अगुवाई सर्वाधिक ताकतवर राष्ट्र अमेरिका कर रहा है |ब्रिटेन .फ़्रांस जैसी साम्राज्यी ताकते उसकी सहयोगी बनी हुई हैं |
बताने की जरूरत नही कि वर्तमान दौर की अमेरिकी साम्राज्य के आतंकी हमलो की कार्यवाही आज उसके पिछलग्गू बने छोटे साम्राज्यवादी जापान पर एटमी धमाको के साथ आगे बढ़ी थी |
उसके जरिए उसने निरपराध जापानी नागरिको को मारकर और अपंग अपाहिज तथा रोग ग्रस्त बनाकर अपने एटमी ताकत दिखाने और उससे दुनिया को आतंकित करने का काम किया था |फिर ३० सालो तक वियतनाम पर किये जाते रहे अपने बर्बर बमबारी से उसे तबाह बर्बाद करने का काम आगे बढ़ाया | दुनिया की सुसभ्य साम्राज्यी ताकते उसका आमतौर पर प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष समर्थन करती रही |
फिर इधर इराक ,अफगानिस्तान ,में भी जलियावाला बाग़ हत्याकांड को दोहराया बढ़ाया जाता रहा है |अब लीबिया को नया जलियावाला बनाने का सिलसिला शुरू किया जा रहा हैं |
यह तो प्रत्यक्ष साम्राज्यी फौजी हुकूमतों, कार्यवाहियों द्वारा आमलोगों के सामूहिक कत्त्लेआम के उदाहरण हैं |
इसके अलावा भारत में भोपाल गैस काण्ड में साम्राज्यी उपेक्षा पूर्ण बद- इन्तजामी से हजारो लोगो को मारने का काम कर दिया गया |
फिर अब लाखो किसानो बुनकरों ,दस्तकारो ,मजदूरों द्वारा की जा रही आत्महत्याए भी साम्राज्यी आर्थिक हमलो से बढती रही जनसमस्याओ के अप्रत्यक्ष उदाहरण है |
बदकिस्मती यह है कि अगर उस समय के रौलट कमेटी में दो हिन्दुस्तानी मौजूद थे तो आज साम्राज्यी नीतियों ,प्रस्तावों कानूनों को समर्थन देने में ,उनकी हमलावर कार्यवाहियों का प्रत्यक्ष एवं परोक्ष समर्थन करने व सहयोग देने में लगभग सभी पिछड़े देशो की हुकूमते साम्राज्यी ताकतों के प्रमुखत्व की विश्व कमेटी में शामिल की जा रही हैं |संयुक्त राष्ट्रसंघ ,सुरक्षा परिषद में बैठकर उनका अनुमोदन कर रही है |
जबकि पिछड़े देशो की शासित व शोषित जनता पर आर्थिक ,सामाजिक सांस्कृतिक व सैन्य हमले तेज़ होते जा रहे है | व्यापक पैमाने पर उनकी परोक्ष व प्रत्यक्ष हत्याए सरेआम की जा रही हैं |…………यह सब इस बात के सबूत हैं कि जलियावाला हत्याकांड जारी हैं |
खासकर पिछड़े देशो के जनसाधारण लोगो की हत्याए और जघन्य हत्याए जारी हैं |पिछड़े देशो के हुक्मरानों के सहयोग से जारी हैं |इसे देश दुनिया के जनसाधारण को ही समझना हैं |फिर उसे ही उन हत्याकांडो में देश के धनाढ्य अपराधियों और उनके हिमायतियो, सिपहसालारो की ताकत को तोड़ने का फैसला भी सुनाना हैं | उसे ही फैसलों को लागू करने और अंजाम तक पहुचाने का काम करना हैं | ……………जलियावाला हत्याकांड की पीड़ित आत्माये। वियतनाम ,इराक ,की पीड़ित आत्माए देश दुनिया के जनसाधारण से शोषित जनों से आज भी फैसले की मांग कर रही है |

हत्याकांड की पृष्ठभूमि ……….

जलियावाला बाग़ काण्ड को जानने समझने के लिए उस समय की ,पूरे देश की त्तथा खासकर पंजाब की राजनीतिक ,सामाजिक परिस्थितियों को समझने का प्रयास जरुर किया जाना चाहिए |१९१४ -१५ से लेकर १९१९ -२० तक का दौर ,पूरे विश्व में भारी उथल -पुथल का दौर था |अमृतसर के जलियावाला बाग़ के निर्मम व् जघन्य हत्याकांड से पहले समूचा विश्व दो प्रमुक घटनाओं का साक्षी बना |इसमें एक तो था प्रथम विश्व युद्ध ,जो १९१४ से लेकर १९१८ तक चलता रहा और दूसरा था १९१७ में रूस में सफलता पूर्वक सम्पन्न हुई मजदूर क्रांति ,जिसके फलस्वरूप १९१७ में वंहा मजदूरों किसानो के हितो वाली समाजवादी सत्ता -सरकार की स्थापना हुई | इन दोनों घटनाओ ने विश्व के सभी देशो को खासकर हिंदुस्तान जैसे पिछड़े देशो को गहराई से प्रभावित किया |जंहा विश्व युद्ध ने इस देश के लोगो के जीवन व् जीविका के संकटो को गहरा कर दिया था ,वंही अक्टूबर १९१७ कि क्रांति ने देश -दुनिया के जन साधारण को अपनी समस्या से स्वयं मुक्ति पाने का गम्भीर क्रन्तिकारी संदेश सुना दिया था |देश की आम जनता को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के शोषण लूट व् प्रभुत्व से स्वतंत्र होकर जनहित में क्रन्तिकारी जन -राज्य बनाने का भी संदेश दिया था |
पूरे देश में ब्रिटेन की गुलामी के विरुद्ध पहले से चलते रहे आंदोलनों ,संघर्षो को इन दोनों घटनाओ ने तीव्रता प्रदान कर दी |
इसी के साथ गदर पार्टी द्वारा तथा देश के आम मध्यवर्गीय क्रांतिकारियों द्वारा देश की स्वतंत्रता के लिए किये जाते रहे सशस्त्र प्रयासों ने भी इन संघर्षो को नया आवेग प्रदान कर दिया था |
आम जनता में ब्रिटिश शासन के प्रति भारी विरोध बढ़ता जा रहा था |
देश के धनाढ्य व्यापारियों द्वारा प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अग्रेज व्यापारियों के साथ मिलकर भारी लाभ उठाया गया था | उनका ब्रिटिश व्यापारियों शासको के साथ सहयोग करके उद्यौग व्यापार के लिए और अधिक छूटों की मांग भी बढने लगी थी | इसी तरह देश के उच्च पढ़े -लिखे हिस्सों में भी और ज्यादा पद -प्रतिष्ठा पाने के लिए मांगे भी ज्यादा तेज होने लगी थी |
पंजाब में इन आंदोलनों का प्रभाव और भी गहरा था |इसकी ख़ास वजह यह थी कि प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार द्वारा पंजाबी नौजवानों को सेना में भर्ती करने के लिए खासी जोर जबरदस्ती की ज़ाती रही थी |युद्ध के लिए भारी टैक्स भी किसानो से वसूले जा रहे थे |टैक्स न दे पाने के एवज में भी उन्हें स्वयं या अपने बच्चो को फौज में भेजना पड़ता था |इसके अलावा गदर पार्टी के ज्यादातर लोग पंजाब से जुड़े हुए थे |इनके पकड़े जाने के साथ -साथ उनके साथियों ,सम्बन्धियों एवं ग्रामवासियों को प्रताड़ित किया जा रहा था |इसके फलस्वरूप भी पंजाब में किसानो से लेकर पढ़े -लिखे नौजवानों में संघर्ष की गतिविधिया जोर पकड़ने लगी थी |समूचे देश व् पंजाब की इन्ही खास परिस्थितियों में ब्रिटिश सरकार ने ब्रिटेन के हाईकोर्ट के न्यायाधीश रौलेट की अध्यछता में रौलेट कमेटी का गठन किया |इसका प्रमुख उद्देश्य हिंदुस्तान में क्रन्तिकारी गतिविधियों का अध्धयन व विवेचना करने के साथ -साथ उसके समाधान के उपाय प्रस्तुत करना था | इस कमेटी में जस्टिस रौलेट के अलावा बाम्बे के मुख्य न्यायाधीश बासिल स्काट, बोर्ड आफ रेवेन्यु के मेम्बर बर्नी लोवेट ,मद्रास हाईकोर्ट के जज सी .वी. कुमार स्वामी शास्त्री तथा कलकत्ता हाईकोर्ट के वकील प्रभात चन्द्र मित्र शामिल थे |
इस कमेटी की रिपोर्टो ,सुझावों के आधार पर ब्रिटिश सरकार ने रौलेट कानून लागू किया |
इसका पूरा नाम ( एनाक्रियल एंड रिवोल्यूशनरी एक्ट १९१९ हैं ) इसके अंतर्गत सरकार ने आम हिन्दुस्तानी को नाम मात्र के मिले नागरिक अधिकारों को भी खत्म कर दिया |
इसके तहत किसी भी व्यक्ति को शक के आधार पर गिरफ्तार करने ,बिना मामला मुकदमा चलाए ही लम्बे दिनों तक नजरबंद रखने ,किसी को भी पुलिस स्टेशन पर बुलाकर उसे रोजाना हाजिरी देने ,उसकी कंही भी आवाजाही को प्रतिबंधित करने का अधिकार सरकार को मिल गया था |
ब्रिटिश सरकार ने इन क़ानूनी प्रावधानों को ब्रिटिश राज और उसके अंतर्गत शांति व्यवस्था के लिए तथा जीवन व् सम्पत्ति की रक्षा के लिए अनिवार्य बताया |यह कानून देश में मार्च १९१९ में लागू कर दिया गया | इसके साथ ही प्रांतीय गवर्नरो तथा पुलिस बल के अधिकार व् ताकत को भी बढ़ा दिया गया |
पूरे देश में (रौलेट कानून )का व्यापक विरोध शुरू हुआ |देश के नेताओं द्वारा इसे …..कानून को खतम करने वाला कानून ….का नाम दिया गया |
कांग्रेस पार्टी के अन्य नेताओं के साथ दक्षिण अफ्रीका से चार साल पहले लौटे गांधी जी ने भी इसका सख्त विरोध किया | इस कानून को वापस लेने का अनुरोध करने और न वापस
लेने पर एक दिन का सावर्जनिक शांतिपूर्ण हड़ताल करने का एक पत्र भी गाँधी जी ने वायसराय को भेजा था |उस पत्र का कोई जबाब या आश्वासन न मिलने पर कांग्रेस कमेटी ने एक दिन के व्यापक सत्याग्रही हड़ताल का निर्णय लिया |
पहले इसके लिए ३० मार्च की तारीख रखी गयी बाद में उसे बदल कर ६ अप्रैल कर दिया गया |६ अप्रैल को पुरे देश में हड़ताल हुई और वह लगभग शांति पूर्ण ही रही |लेकिन दिल्ली में पुलिस व् पब्लिक के बीच जगह -जगह झडपे भी हुई पंजाब में हड़ताल का असर जोरदार रहा ,खासकर अमृतसर में वंहा यह हड़ताल पूर्व सूचना के अनुसार ३० मार्च को और फिर बाद में ६ अप्रैल को भी हुई |
पंजाब के कांग्रेसियों ने गाँधी जी को पंजाब आने का निमंत्रण भी दिया ,लेकिन अग्रेजो ने उन्हें दिल्ली से बाम्बे रवाना कर दिया |खबर उडी कि गाँधी जी को अग्रेजो ने गिरफ्तार कर लिया हैं |फलस्वरूप गाँधी जी के बाम्बे पहुचने से पहले ही अहमदाबाद , नाडिया और पंजाब में गाँधी जी की गिरफ्तारी को लेकर भी आन्दोलन तेज़ हो गया | परिणाम स्वरुप आंदोलित जनता ने कई जगहों पर सरकारी सम्पत्ति की तोड़फोड़ भी की |उसी के साथ उस पर सरकारी दमन भी तेज़ हो गया |
गाँधी जी ने बम्बई पहुचने के बाद सारा समाचार सुना उन्होंने तोड़फोड़ को जनता का हिंसात्मक कदम बताकर उसकी निन्दा की और यह भी कहा कि उन्होंने सत्याग्रही हड़ताल के लिए जनता का आह्वान करके भारी गलती की है | इसके वावजूद आम जनता ने विरोध जारी रखा और सरकारी दमन के बावजूद विरोध आमतौर पर शांत रहा | पंजाब में यह विरोध ज्यादा तीव्र रहा |इसका प्रमुख कारण वंहा पर पहले से चल रहे सरकारी दमन और उसमे आई तीव्रता रही |
लाहौर ,गुजरावाला , और अमृतसर इसके प्रमुख केंद्र रहे |

अमृतसर और जलियावाला काण्ड

अमृतसर में ३० मार्च और ६ अप्रैल के दिन व्यापक आम हड़ताल में कोई उल्लेखनीय घटना नही घटी , लेकिन ९ अप्रैल को वंहा के प्रशासक माइकल -ओ -डायर ने वंहा के दो प्रमुख स्थानीय नेताओं डॉ .किचलू एवं डॉ सतपाल मलिक को गिरफ्तार करके देश से निकाले जाने की सज़ा सुना दिया |इसके विरोध में आंदोलनकारियो द्वारा वंहा तुरंत हड़ताल व् प्रदर्शन की घोषणा कर दी गयी |लोग समूहबद्ध होकर गलियों व् सडको पर आ गये |हाल गेट ब्रिज पर इकट्ठी जनता को भगाने के लिए पुलिस ने गोलीबारी शुरू कर दी | १५ – २० लोग मारे गये और उससे भी बड़ी तादाद में घायल हए | प्रतिक्रिया स्वरूप गुस्साए लोगो ने पांच यूरोपीय बैंक अधिकारियो को एक बैंक में घुस कर मारा तथा एक मिशनरी लेडी डाक्टर को घायल कर दिया दो बैंको और अन्य कई सरकारी संस्थाओ को भी क्षतिग्रस्त कर दिया ११ अप्रैल तक सब कुछ शांत हो चुका था |तभी ब्रिटिश सरकार ने ब्रिगेडियर जनरल डायर को शहर का प्रशासक बनाकर भेजा |उसने १२ तारीख को लोगो को शहर में इकट्ठा होने और पब्लिक मीटिंग करने आदि पर रोक लगा दी और मार्शल ला जैसी स्थिति खड़ी कर दी |हालाकि मार्शल ला जैसी कोई विधिवत घोषणा १५ अप्रैल को हुई |जलियावाला बाग़ काण्ड की जाच कर रही हंटर कमेटी का भी मानना था कि १२ तारीख की शाम को हुई घोषणा की जानकारी बहुत कम लोगो तक ही जा पाई थी |फिर १३ अप्रैल को पूरे पंजाब में वैसाखी का त्यौहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है |
बताते हैं कि इसकी परम्परा तीसरे सिख गुरु अमरदास के जमाने से या उससे पहले से चली आ रही हैं | किसानो के रबी की फसल पकने के साथ जुडी बैसाखी का त्यौहार का एक बड़ा धार्मिक महत्त्व भी हें| बैसाखी के ही दिन अन्तिम गुरु गोविन्दसिंह ने पंचप्यारो को आगे कर के खालसा पंथ की नीव डाली थी |
पंजाब के इस त्यौहार और उसमे लोगो को इकट्ठा होने -मनाने की इस परम्परा के बाद जनरल डायर ने लोगो को इकट्ठा न होने का आदेश दे दिया साथ ही उसकी सूचना भी लोगो तक नही पहुचने दी |
डॉ किचलू और डॉ सत्यपाल की सज़ा के विरोध में १३ अप्रैल को जलियावाला बाग़ में शाम ४. ३० बजे आम सभा बुलाई गयी थी | इस मीटिंग को रोकने का भी जनरल डायर द्वारा कोई प्रयास नही किया गया | बल्कि लोगो को वंहा इकट्ठा होने दिया गया |उनकी कुल संख्या १० हजार से उपर थी |मीटिंग शुरू होने के बाद डायर ने अपने ५० रायफल धारियों को बाग़ के प्रवेश द्वार पर तैनात कर दिया और बिना रुके गोलिया चलाने का आदेश दे दिया |सभा में भगदड़ मच गयी | लोग भागते जा रहे थे और घायल होकर गिरते -मरते जा रहे थे |बाग़ के तंग दरवाजो (चार या पांच दरवाजो )पर भी लगातार गोलिया दागी जा रही थी |बाग़ की दीवारों और निकासी के दरवाजो पर मरे हुए लोगो का ढेर लग गया था |गोलिया दस मिनट तक चली |इतने समय में १६५० राउण्ड गोलिया चल गयी थी | इस घटना क्रम में १००० हजार से उपर लोग मारे गये और इससे भी बड़ी संख्या में घायल हुए |इतनी बड़ी तादात में मृतको को हटाने -हटवाने का भी काम प्रशासन ने नही किया |उलटे कर्फ्यू जैसी प्रशासनिक कार्यवाही द्वारा आम लोगो को भी यह काम करने से रोक दिया गया | गर्मी के मौसम में कई दिनों तक लाशे सूखती सडती रही | पूरे देश में इस हत्याकांड का व्यापक विरोध हुआ इंग्लैंड में विरोधी पार्टियों को भी सत्तासीन पार्टी के विरोध का हथकंडा मिला |इस विरोध के फलस्वरूप तथा इस देश में बिगड़ रहे जनमत को ब्रिटिश राज के समर्थन में मोड़ने के लिए भी ब्रिटेन की सरकार ने जलियावाला बाग़ काण्ड की न्यायिक जांच के लिए हंटर कमेटी की नियुक्ति कर दी |कमेटी के ९ सदस्यों में ६ यूरोपीय तथा ३ हिन्दुस्तानी थे |
कमेटी के सामने बयान देते हुए डायर ने कहा कि -गोली चलाने का उसका मकसद शहर में कानून व् व्यवस्था के प्रति लोगो में भय खड़ा करना था |प्रशासन की उपेक्षा करने वालो को सबक सिखाना था ……… हमारा काम यह देखना नही था कि कितने लोग मारे जा रहे और कितने घायल हो रहे हैं ………..हमारा काम कानून और व्यवस्था को सरक्षित करने का था और इस काम को हमने गौरवपूर्ण ढंग से सम्पन्न किया |
डायर के इस जघन्य काण्ड के लिए ब्रिटिश शासन द्वारा अक्तूबर १९१९ में उसे एक ब्रिगेड की स्थायी कमान सौपकर डायर को पुरस्कृत भी किया गया |
हालाकि बाद में हिन्दुस्तानियों और ब्रिटेन की विरोधी पार्टियों आदि के भारी दबाव के चलते डायर की सैन्य सेवा समाप्त कर दी गयी |लेकिन उसके प्रति अग्रेजो के खासे बड़े हिस्से में तथा हिंदुस्तान के एंग्लो-इन्डियन हिस्से में प्रशंसा व गर्व का भाव बना रहा |
पंजाब के गवर्नर माइकल -ओ -डायर ने हंटर कमेटी के सामने डायर की कार्यवाही का पूरा समर्थन किया |इसे पंजाब में विद्रोह के दमन का निर्णायक कदम बताया |हंटर कमेटी के हिन्दुस्तानी सदस्यों ने अपने निर्णय में डायर को बर्बर मनोवृति का व्यक्ति बताया और उसे सर्वथा निन्दनीय समझा |परन्तु कमेटी के यूरोपीय सदस्यों ने उसकी आलोचना करते हुए अपेक्षा कृत अत्यधिक नरमी दिखाई |उसके द्वारा किये गये हत्याकांड को महज अनुचित एवं विवेकहीन बताकर छुट्टी कर दी | बाद के दौर में ब्रिटेन की पार्लियामेंट में हुई बहस के बाद डायर को सेवानिवृत्त कर दिया गया |पर जलियावाला हत्याकांड और पंजाब में इस दौरान अत्याचारों पर ब्रिटिश संसद में कोई चर्चा -बहस नही हुई |न ही हिंदुस्तान की ब्रिटिश हुकूमत ने उनकेलिए सम्वेदना का कोई गम्भीर कदम ही उठाया |हां ,अमृतसर में मारे गये ५ यूरोपीय लोगो ,घायल हुई लेडी डाक्टर तथा सरकारी प्रतिष्ठानों में हुए तौड़ -फोड़ के लिए २१८ लोगो को सजा जरुर दे दी गयी | इसमें ५१ लोगो को फांसी तथा १६ लोगो को कालेपानी की सज़ा दी गयी |इसके अलावा ९ अप्रैल की घटना के बाद से लोगो को सरेआम कोड़े मारने सडक पर घुटनों के बल चलने आदि की पुलिसिया सज़ा तो हफ्तों तक चलती रही |.
जबकि डायर को सेवानिवृत्त किये जाने के बाद उसे उस कुकृत्य के लिए पुरस्कृत किया गया |उसके नाम पर एक कोष स्थापित किया गया उसमे २६००० पौण्ड की रकम तो आनन् -फानन में इकट्ठी हो गयी ,जिसका एक तिहाई हिस्सा हिंदुस्तान के एंग्लो -इन्डियन हिस्से से गया था |
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प्रस्तुति:
सुनील दत्ता
पत्रकार

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उत्तर प्रदेश में कचेहरी बम ब्लास्ट केस में उत्तर प्रदेश पुलिस व एस.टी.ऍफ़ ने पांच नवजवानों को फर्जी तरीके से पकड़ कर्र बंद कर दिया था। जिसमें तारिक काशमी आजमगढ़, खालिद मुजाहिद जौनपुर २२ दिसम्बर 2007, सज्जादुर रहमान व मोहम्मद अख्तर को 27 दिसम्बर 2007 से जम्मू एंड कश्मीर से आफताब आलम अंसारी को 28 दिसम्बर 2007 को कलकत्ता से पकड़ कर कचेहरी बम विस्फोट कांड को हल करने का दावा किया था। 16 जनवरी 2007 को आफ़ताब आलम अंसारी के खिलाफ पर्याप्त साक्ष्य न होने के कारण अंतर्गत धारा 169 सी.आर.पी.सी के तहत दोषमुक्त कर दिया गया था। इस वाद का विचारण माननीय विशेष न्यायधीश श्री शशांक शेखर (एस.सी/एस.टी ) के नयायालय में हो रहा था। बचाव पक्ष के अधिवक्ता श्री मोहम्मद शुऐब ने आरोप पर कई बार बहस की जिस पर न्यायालय श्रीमान ने श्री चिरंजीव नाथ सिन्हा एस.टी.एफ तथा राजेश श्रीवास्तव ए.टी.एस को तलब कर कई सवाल पूछे जिसका संतोष जनक उत्तर उक्त पुलिस अधिकारी नहीं दे पाए। जिस पर माननीय न्यायालय ने कश्मीरी नवजवान सज्जादुर रहमान को आरोप मुक्त कर दिया और अन्य तीन अभियुक्तों के खिलाफ आरोप तय करने के लिये 28 अप्रैल की तिथि निर्धारित कर दी।
बचाव पक्ष के अधिवक्ता मोहम्मद शुऐब ने बताया कि केस डायरी में कुछ काल डिटेल्स अभियोजन अधिकारियों ने दिए हैं उस मोबाइल फ़ोन को तारिक के घर से बरामद बताया गया था किन्तु 22 दिसम्बर 2007 को तारिक की गिरफ्तारी सुबह सात बजे रेलवे स्टेशन से बताई गयी व मोबाइल सील करना बताया। किन्तु उसी मोबाइल से 11:49 बजे दिन में अभियुक्तों से बात करना भी बताया गया। जिससे यह साबित होता है कि उत्तर प्रदेश पुलिस, एस.टी.एफ व ए.टी.एस ने प्रदेश में बम विस्फोट कांड को खोलने के लिये फर्जी मुस्लिम नवजवानों को पकड़ कर बंद कर दिया गया था।

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राहुल जी का समग्र जीवन ही रचनाधर्मिता की यात्रा थी। जहाँ भी वे गए वहाँ की भाषा व बोलियों को सीखा और इस तरह वहाँ के लोगों में घुलमिल कर वहाँ की संस्कृति, समाज व साहित्य का गूढ़ अध्ययन किया। राहुल सांकृत्यायन उस दौर की उपज थे जब ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत भारतीय समाज, संस्कृति, अर्थव्यवस्था और राजनीति सभी संक्रमणकालीन दौर से गुजर रहे थे। वह दौर समाज सुधारकों का था एवं काग्रेस अभी शैशवावस्था में थी। इन सब से राहुल अप्रभावित न रह सके एवं अपनी जिज्ञासु व घुमक्कड़ प्रवृत्ति के चलते घर-बार त्याग कर साधु वेषधारी सन्यासी से लेकर वेदान्ती, आर्यसमाजी व किसान नेता एवं बौद्ध भिक्षु से लेकर साम्यवादी चिन्तक तक का लम्बा सफर तय किया। सन् १९३० में श्रीलंका जाकर वे बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गये एवं तभी से वे ‘रामोदर साधु’ से ‘राहुल’ हो गये और सांकृत्य गोत्र के कारण सांकृत्यायन कहलाये। उनकी अद्भुत तर्कशक्ति और अनुपम ज्ञान भण्डार को देखकर काशी के पंडितों ने उन्हें महापंडित की उपाधि दी एवं इस प्रकार वे केदारनाथ पाण्डे से महापंडित राहुल सांकृत्यायन हो गये। सन् १९३७ में रूस के लेनिनग्राद में एक स्कूल में उन्होंने संस्कृत अध्यापक की नौकरी कर ली और उसी दौरान ऐलेना नामक महिला से दूसरी शादी कर ली, जिससे उन्हें इगोर राहुलोविच नामक पुत्र-रत्न प्राप्त हुआ। छत्तीस भाषाओं के ज्ञाता राहुल ने उपन्यास, निबंध, कहानी, आत्मकथा, संस्मरण व जीवनी आदि विधाओं में साहित्य सृजन किया परन्तु अधिकांश साहित्य हिन्दी में ही रचा। राहुल तथ्यान्वेषी व जिज्ञासु प्रवृत्ति के थे सो उन्होंने हर धर्म के ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया। अपनी दक्षिण भारत
यात्रा के दौरान संस्कृत-ग्रन्थों, तिब्बत प्रवास के दौरान पालि-ग्रन्थों तो लाहौर यात्रा के दौरान अरबी भाषा सीखकर इस्लामी धर्म-ग्रन्थों का अध्ययन किया। निश्चितत: राहुल सांकृत्यायन की मेधा को साहित्य, अध्यात्म, ज्योतिष, विज्ञान, इतिहास, समाज शास्त्र, राजनीति, भाषा, संस्कृति, धर्म एवं दर्शन के टुकड़ों में बाँटकर नहीं देखा जा सकता वरन् समग्रतः ही देखना उचित है।

बौद्ध -धर्म की ओर झुकाव

महापंडित राहुल सांकृत्यायन

१९१६ तक आते-आते इनका झुकाव बौद्ध -धर्म की ओर होता गया। बौद्ध धर्म में दीक्षा लेकर , वे राहुल सांकृत्यायन बने । बौद्ध धर्म में लगाव के कारण ही ये पाली,प्राकृत ,अपभ्रंश ,आदि भाषाओ के सीखने की ओर झुके ।१९१७ की रुसी क्रांति ने राहुल जी के मन को गहरे में प्रभावित किया। वे अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव भी रहे। उन्होंने तिब्बत की चार बार यात्रा की और वहा से विपुल साहित्य ले कर आए। १९३२ को राहुल जी यूरोप की यात्रा पर गए। १९३५ में जापान, कोरिया, मंचूरिया की यात्रा की। १९३७ में मास्को में यात्रा के समय भारतीय-तिब्बत विभाग की सचिव लोला येलेना से इनका प्रेम हो गया। और वे वही विवाह कर के रूस में ही रहने लगे। लेकिन किसी कारण से वे १९४८ में भारत लौट आए।

राहुल जी को हिन्दीऔर हिमालय से बड़ा प्रेम था। वे १९५० में नैनीताल में अपना आवास बना कर रहने लगे। यहाँ पर उनका विवाह कमला सांकृत्यायन से हुआ। इसके कुछ बर्षो बाद वे दार्जिलिंग(पश्चिम बंगाल) में जाकर रहने लगे ,लेकिन बाद में उन्हें मधुमेह से पीड़ित होने के कारण रूस में इलाज कराने के लिए भेजा गया। १९६३ में सोवियत रूस में लगभग सात महीनो के इलाज के बाद भी उनका स्वास्थ्य ठीक नही हुआ। १४ अप्रैल १९६३ को उनका दार्जिलिंग (पश्चिम बंगाल) में देहांत हो गया

साहित्यिक रुझान

राहुल जी वास्तव के ज्ञान के लिए गहरे असंतोष में थे, इसी असंतोष को पूरा करने के लिए वे हमेशा तत्पर रहे। उन्होंने हिन्दी साहित्य को विपुल भण्डार दिया। उन्होंने मात्र हिन्दी साहित्य के लिए ही नही बल्कि वे भारत के कई अन्य क्षेत्रों के लिए भी उन्होंने शोध कार्य किया । वे वास्तव में महापंडित थे। राहुल जी की प्रतिभा बहुमुखी थी और वे संपन्न विचारक थे। धर्म ,दर्शन ,लोकसाहित्य ,यात्रासहित्य ,इतिहास ,राजनीति, जीवनी, कोष, प्राचीन ग्रंथो का संपादन कर उन्होंने विविध क्षेत्रों में महत्वपूर्ण कार्य किया। उनकी रचनाओ में प्राचीन के प्रति आस्था,इतिहास के प्रति गौरव और वर्तमान के प्रति सधी हुई दृष्टि का समन्वय देखने को मिलता है। यह केवल राहुल जी थे,जिन्होंने प्राचीन और वर्तमान भारतीय साहित्य चिंतन को पूर्ण रूप से आत्मसात् कर मौलिक दृष्टि देने का प्रयास किया। उनके उपन्यास और कहानियाँ बिल्कुल नए दृष्टिकोण को हमारे सामने रखते हैं। तिब्बत और चीन के यात्रा काल में उन्होंने हजारों ग्रंथों का उद्धार किया और उनके सम्पादन और प्रकाशन का मार्ग प्रशस्त किया, ये ग्रन्थ पटना संग्रहालय में है। यात्रा साहित्य में महत्वपूर्ण लेखक राहुल जी रहे है । उनके यात्रा वृतांत में यात्रा में आने वाली कठिनाइयों के साथ उस जगह की प्राकृतिक सम्पदा ,उसका आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन और इतिहास अन्वेषण का तत्व समाहित होता है। “किन्नर देश की ओर” ,”कुमाऊ” ,”दार्जिलिंग परिचय” तथा “यात्रा के पन्ने” उनके ऐसे ही ग्रन्थ है।


फोटो में बाएँ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, दायें महापंडित राहुल सांकृत्यायन।

राहुल सांकृत्यायन का मानना था कि घुमक्कड़ी मानव-मन की मुक्ति का साधन होने के साथ-साथ अपने क्षितिज विस्तार का भी साधन है। उन्होंने कहा भी था कि- “कमर बाँध लो भावी घुमक्कड़ों, संसार तुम्हारे स्वागत के लिए बेकरार है।” राहुल ने अपनी यात्रा के अनुभवों को आत्मसात् करते हुए ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ भी रचा। वे एक ऐसे घुमक्कड़ थे जो सच्चे ज्ञान की तलाश में था और जब भी सच को दबाने की कोशिश की गई तो वह बागी हो गया। उनका सम्पूर्ण जीवन अन्तर्विरोधों से भरा पड़ा है। वेदान्त के अध्ययन के पश्चात जब उन्होंने मंदिरों में बलि चढ़ाने की परम्परा के विरूद्ध व्याख्यान दिया तो अयोध्या के सनातनी पुरोहित उन पर लाठी लेकर टूट पड़े। बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बावजूद वह इसके ‘पुनर्जन्मवाद’ को नहीं स्वीकार पाए। बाद में जब वे मार्क्सवाद की ओर उन्मुख हुए तो उन्होंने तत्कालीन सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी में घुसे सत्तालोलुप सुविधापरस्तों की तीखी आलोचना की और उन्हें आन्दोलन के नष्ट होने का कारण बताया। सन् १९४७ में अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष रूप में उन्होंने पहले से छपे भाषण को बोलने से मना कर दिया एवं जो भाषण दिया, वह अल्पसंख्यक संस्कृति एवं भाषाई सवाल पर कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों के विपरीत था। नतीजन पार्टी की सदस्यता से उन्हें वंचित होना पड़ा, पर उनके तेवर फिर भी नहीं बदले। इस कालावधि में वे किसी बंदिश से परे प्रगतिशील लेखन के सरोकारों और तत्कालीन प्रश्नों से लगातार जुड़े रहे। इस बीच मार्क्सवादी विचारधारा को उन्होंने भारतीय समाज की ठोस परिस्थितियों का आकलन करके ही लागू करने पर जोर दिया। अपनी पुस्तक ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ एवं ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ में इस सम्बन्ध में उन्होंने सम्यक् प्रकाश डाला। अन्तत: सन् १९५३-५४ के दौरान पुन: एक बार वे कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बनाये गये।

एक कर्मयोगी योद्धा की तरह राहुल सांकृत्यायन ने बिहार के किसान-आन्दोलन में भी प्रमुख भूमिका निभाई। सन् १९४० के दौरान किसान-आन्दोलन के सिलसिले में उन्हें एक वर्ष की जेल हुई तो देवली कैम्प के इस जेल-प्रवास के दौरान उन्होंने ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ ग्रन्थ की रचना कर डाली। १९४२ के भारत छोड़ो आन्दोलन के पश्चात् जेल से निकलने पर किसान आन्दोलन के उस समय के शीर्ष नेता स्वामी सहजानन्द सरस्वती द्वारा प्रकाशित साप्ताहिक पत्र ‘हुंकार’ का उन्हें सम्पादक बनाया गया। ब्रिटिश सरकार ने फूट डालो और राज करो की नीति अपनाते हुए गैर कांग्रेसी पत्र-पत्रिकाओं में चार अंकों हेतु ‘गुण्डों से लड़िए’ शीर्षक से एक विज्ञापन जारी किया। इसमें एक व्यक्ति गाँधी टोपी व जवाहर बण्डी पहने आग लगाता हुआ दिखाया गया था। राहुल सांकृत्यायन ने इस विज्ञापन को छापने से इन्कार कर दिया पर विज्ञापन की मोटी धनराशि देखकर स्वामी सहजानन्द ने इसे छापने पर जोर दिया। अन्तत: राहुल ने अपने को पत्रिका के सम्पादन से ही अलग कर लिया। इसी प्रकार सन् १९४० में ‘बिहार प्रान्तीय किसान सभा’ के अध्यक्ष रूप में जमींदारों के आतंक की परवाह किए बिना वे किसान सत्याग्रहियों के साथ खेतों में उतर हँसिया लेकर गन्ना काटने लगे। प्रतिरोध स्वरूप जमींदार के लठैतों ने उनके सिर पर वार कर लहुलुहान कर दिया पर वे हिम्मत नहीं हारे। इसी तरह न जाने कितनी बार उन्होंने जनसंघर्षों का सक्रिय नेतृत्व किया और अपनी आवाज को मुखर अभिव्यक्ति दी।

अध्ययन-अनुसंधान की विभा के साथ वे वहाँ से प्रभूत सामग्री लेकर लौटे, जिसके कारण हिन्दी भाषा एवं साहित्य की इतिहास संबंधी कई पूर्व निर्धारित मान्यताओं एवं निष्कर्षों में परिवर्तन होना अनिवार्य हो गया। साथ ही शोध एवं अध्ययन के नए क्षितिज खुले।

भारत के संदर्भ में उनका यह काम किसी ह्वेनसांग से कम नहीं आँका जा सकता। बाह्य यात्राओं की तरह इन निबंधों में उनकी एक वैचारिक यात्रा की ओर भी संकेत किया गया है, जो पारिवारिक स्तर पर स्वीकृत वैष्णव मत से शुरू हो, आर्य समाज एवं बौद्ध मतवाद से गुजरती हुई मार्क्सवाद पर जाकर खत्म होती है। अनात्मवाद, बुद्ध का जनतंत्र में विश्वास तथा व्यक्तिगत संपत्ति का विरोध जैसी कुछेक ऐसी समान बातें हैं, जिनके कारण वे बौद्ध दर्शन एवं मार्क्सवाद दोनों को साथ लेकर चले थे।

राष्ट्र के लिए एक राष्ट्र भाषा के वे प्रबल हिमायती थे। बिना भाषा के राष्ट्र गूँगा है, ऐसा उनका मानना था। वे राष्ट्रभाषा तथा जनपदीय भाषाओं के विकास व उन्नति में किसी प्रकार का विरोध नहीं देखते थे।

समय का प्रताप कहें या ‘मार्क्सवादी के रूप में उनके मरने की इच्छा’ कहें, उन्होंने इस आयातित विचार को सर्वव्यापक एवं सर्वशक्तिमान ‘परमब्रह्म’ मान लिया और इस झोंक में वे भारतीय दर्शन, धर्म, संस्कृति, इतिहास आदि के बारे में कुछ ऐसी बातें कह बैठे या निष्कर्ष निकाल बैठे, जो उनकी आलोचना का कारण बने।

उनकी भारत की जातीय-संस्कृति संबंधी मान्यता, उर्दू को हिन्दी (खड़ी बोली हिन्दी) से अलग मानने का विचार तथा आर्यों से ‘वोल्गा से गंगा’ की ओर कराई गई यात्रा के पीछे रहने वाली उनकी धारणा का डॉक्टर रामविलास शर्मा ने तर्कसम्मत खंडन किया है। मत-मतांतर तो चलते रहते हैं, इससे राहुलजी का प्रदेय और महत्व कम नहीं हो जाता।

बौद्ध धर्म और मार्क्सवाद दोनों का मिलाजुला चिंतन उनके पास था, जिसके आधार पर उन्होंने नए भारत के निर्माण का ‘मधुर स्वप्न’ सँजोया था, जिसकी झलक हमें उनकी पुस्तक ‘बाईसवीं सदी’ में भी मिल जाती है। श्री राहुल ने अपने कर्तृत्व से हमें अपनी विरासत का दर्शन कराया तथा उसके प्रति हम सबमें गौरव का भाव जगाया।

उनके शब्दों में- ‘‘समदर्शिता घुमक्कड़ का एकमात्र दृष्टिकोण है और आत्मीयता उसके हरेक बर्ताव का सार।’’ यही कारण था कि सारे संसार को अपना घर समझने वाले राहुल सन् १९१० में घर छोड़ने के पश्चात पुन: सन् १९४३ में ही अपने ननिहाल पन्दहा पहुँचे। वस्तुत: बचपन में अपने घुमक्कड़ी स्वभाव के कारण पिताजी से मिली डाँट के पश्चात् उन्होंने प्रण लिया था कि वे अपनी उम्र के पचासवें वर्ष में ही घर में कदम रखेंगे। चूँकि उनका पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा ननिहाल में ही हुआ था सो ननिहाल के प्रति ज्यादा स्नेह स्वाभाविक था। बहरहाल जब वे पन्दहा पहुँचे तो कोई उन्हें पहचान न सका पर अन्तत: लोहार नामक एक वृद्ध व्यक्ति ने उन्हें पहचाना और स्नेहासक्ति रूधे कण्ठ से ‘कुलवन्ती के पूत केदार’ कहकर राहुल को अपनी बाँहों में भर लिया। अपनी जन्मभूमि पर एक बुजुर्ग की परिचित आवाज ने राहुल को भावविभोर कर दिया। उन्होंने अपनी डायरी में इसका उल्लेख भी किया है- ‘‘लाहौर नाना ने जब यह कहा कि ‘अरे ई जब भागत जाय त भगइया गिरत जाय’ तब मेरे सामने अपना बचपन नाचने लगा। उन दिनों गाँव के बच्चे छोटी पतली धोती भगई पहना करते थे। गाँववासी बड़े बुजुर्गों का यह भाव देखकर मुझे महसूस होने लगा कि तुलसी बाबा ने यह झूठ कहा है कि- “तुलसी तहाँ न जाइये, जहाँ जन्म को ठाँव, भाव भगति को मरम न जाने धरे पाछिलो नाँव।।’’

घुमक्कड़ी स्वभाव वाले राहुल सांकृत्यायन सार्वदेशिक दृष्टि की ऐसी प्रतिभा थे, जिनकी साहित्य, इतिहास, दर्शन संस्कृति सभी पर समान पकड़ थी। विलक्षण व्यक्तित्व के अद्भुत मनीषी, चिन्तक, दार्शनिक, साहित्यकार, लेखक, कर्मयोगी और सामाजिक क्रान्ति के अग्रदूत रूप में राहुल ने जिन्दगी के सभी पक्षों को जिया। यही कारण है कि उनकी रचनाधर्मिता शुद्ध कलावादी साहित्य नहीं है, वरन् वह समाज, सभ्यता, संस्कृति, इतिहास, विज्ञान, धर्म, दर्शन इत्यादि से अनुप्राणित है जो रूढ़ धारणाओं पर कुठाराघात करती है तथा जीवन-सापेक्ष बनकर समाज की प्रगतिशील शक्तियों को संगठित कर संघर्ष एवं गतिशीलता की राह दिखाती है। ऐसे मनीषी को अपने जीवन के अंतिम दिनों में ‘स्मृति लोप’ जैसी अवस्था से गुजरना पड़ा एवं इलाज हेतु उन्हें मास्को भी ले जाया गया। पर घुमक्कड़ी को कौन बाँध पाया है, सो अप्रैल १९६३ में वे पुन: मास्को से दिल्ली आ गए और १४ अप्रैल, १९६३ को सत्तर वर्ष की आयु में दार्जिलिंग में सन्यास से साम्यवाद तक का उनका सफर पूरा हो गया पर उनका जीवन दर्शन और घुमक्कड़ी स्वभाव आज भी हमारे बीच जीवित है।

राहुल बाबा

राहुल जी घुमक्कड़ी के बारे मे कहते हैं:

मेरी समझ में दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वस्तु है घुमक्कड़ी। घुमक्कड़ से बढ़कर व्यक्ति और समाज का कोई हितकारी नहीं हो सकता। दुनिया दुख में हो चाहे सुख में, सभी समय यदि सहारा पाती है तो घुमक्कड़ों की ही ओर से। प्राकृतिक आदिम मनुष्य परम घुमक्कड़ था। आधुनिक काल में घुमक्कड़ों के काम की बात कहने की आवश्यकता है, क्योंकि लोगों ने घुमक्कड़ों की कृतियों को चुरा के उन्हें गला फाड़–फाड़कर अपने नाम से प्रकाशित किया। जिससे दुनिया जानने लगी कि वस्तुत: तेली के कोल्हू के बैल ही दुनिया में सब कुछ करते हैं। आधुनिक विज्ञान में चार्ल्स डारविन का स्थान बहुत ऊँचा है। उसने प्राणियों की उत्पत्ति और मानव–वंश के विकास पर ही अद्वितीय खोज नहीं की, बल्कि कहना चाहिए कि सभी विज्ञानों को डारविन के प्रकाश में दिशा बदलनी पड़ी। लेकिन, क्या डारविन अपने महान आविष्कारों को कर सकता था, यदि उसने घुमक्कड़ी का व्रत न लिया होता। आदमी की घुमक्कड़ी ने बहुत बार खून की नदियाँ बहायी है, इसमें संदेह नहीं, और घुमक्कड़ों से हम हरगिज नहीं चाहेंगे कि वे खून के रास्ते को पकड़ें। किन्तु घुमक्कड़ों के काफले न आते जाते, तो सुस्त मानव जातियाँ सो जाती और पशु से ऊपर नहीं उठ पाती। अमेरिका अधिकतर निर्जन सा पड़ा था। एशिया के कूपमंडूक को घुमक्कड़ धर्म की महिमा भूल गयी, इसलिए उन्होंने अमेरिका पर अपनी झंडी नहीं गाड़ी। दो शताब्दियों पहले तक आस्ट्रेलिया खाली पड़ा था। चीन, भारत को सभ्यता का बड़ा गर्व है, लेकिन इनको इतनी अक्ल नहीं आयी कि जाकर वहाँ अपना झंडा गाड़ आते।
प्रस्तुति:
सुनील दत्ता
पत्रकार
09415370672

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हाल में (मार्च-अप्रैल 2011) असम में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा और खासतौर पर नरेन्द्र मोदी जैसे पार्टी नेताओं ने जिस मुद्दे को जमकर उछाला, वह था बांग्लाभाषियों, विशेषकर मुसलमानों, की असम में कथित घुसपैठ। सांप्रदायिक पार्टियाँ और संगठन यह झूठा प्रचार कर रहे हैं कि अधिकांष बांग्लाभाषी मुसलमान, बांग्लादेषी घुसपैठिए हैं। इस मिथक का सहारा लेकर ये पार्टियाँ और संगठन, अल्पसंख्यकों के खिलाफ घृणा फैलाने और हिन्दुओं की भावनाएं भड़काने का अपना पुराना खेल खेल रहे हैं।
बंगाली मुसलमानों का मुद्दा समय-समय पर राष्ट्रीय स्तर पर भी उठाया जाता रहा है। बंगाली मुसलमानों को-चाहे वे बांग्लादेश के निवासी हों या पश्चिम बंगाल के- देश की सुरक्षा के लिए खतरा बताया जाता है।साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, स्वामी असीमानंद, अभिनव भारत आदि द्वारा किए गए आतंकी हमलों के लिए इन्हें दोषी ठहराया जाता रहा है। इन हमलों का दोष बांग्लादेषी आतंकी संगठनों के सिर मढ़ा जाता रहा है और यह आरोप भी लगता रहा है कि इन संगठनों की भारत में रह रहे बांग्लादेषी मुसलमान मदद करते हंै। असम में बांग्लाभाषी मुसलमानों का मुद्दा उछाल कर उसके जरिए समाज का साम्प्रदायिक धु्रवीकरण करने का अभियान लंबे समय से चल रहा है।

असम में बड़ी संख्या में मुसलमानों-विषेषकर बांग्लाभाषी मुसलमानों-को “डी“ (डाउटफुल अर्थात संदेहास्पद) मतदाता करार देकर उन्हें मताधिकार से वंचित कर दिया गया है। इन गरीब, असहाय लोगों पर यह जिम्मेदारी लाद दी गई है कि वे यह साबित करें कि वे भारत के वैध नागरिक हैं। भाजपा का यह आरोप है कि कांग्रेस, बांग्लादेशी मुसलमानों को उन क्षेत्रों में बसा रही है जहाँ से उसे कम वोट मिलते हैं।
असम के नेल्ली में सन् 1983 में मुसलमानों का कत्लेआम हुआ था। इस कत्लेआम में 5000 से ज्यादा निर्दोष मुसलमान मारे गए थे। असम की एक जनजाति को भड़का कर यह कत्लेआम करवाया गया था। यह आरोप लगाया गया था कि बांग्लादेशी मुसलमानों ने वोट डालकर चुनाव परिणामों को प्रभावित किया। इस मुद्दे को आॅल असम स्टूडेंट्स यूनियन-जो आर.एस.एस. से नियंत्रित है-ने चुनावों में भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
बांग्लाभाषी मुसलमानों का मसला काफी जटिल है और इसका इतिहास बहुत पुराना है। सन् 1826 में असम पर कब्जा करने के बाद तत्कालीन ब्रिटिष सरकार ने यह निर्णय किया कि आसपास के अधिक जनसंख्या वाले क्षेत्रों के निवासियों को तत्समय बहुत कम आबादी वाले असम में बसाया जाए। तदानुसार, “जनरोपण कार्यक्रम“ शुरू किया गया जिसके अंतर्गत अविभाजित बंगाल के निवासियों को असम में बसने के लिए प्रोत्साहित किया जाने लगा ताकि बंगाल में कृषि भूमि पर बढ़ते दबाव को कम किया जा सके। इस कार्यक्रम के तहत जो बांग्लाभाषी असम में बसाए गए उनमें मुसलमानों की बड़ी संख्या थी। इन प्रवासियों ने असम में कृषि का विकास किया। वे बहुत मेहनती थे और असम के विकास में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया।
भारत के विभाजन के बाद, असम-जो तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान का पड़ोसी बन गया था- से काफी संख्या में हिन्दू पलायन कर सीमा से दूर स्थित राज्यों में बस गए। पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना द्वारा चलाए गए दमन चक्र से पीडि़त कई लोगों ने वहां से भाग कर असम में शरण ली। इनमें से अधिकाँश हिन्दू थे। दूसरी ओर, असम में सांप्रदायिक राजनीति के उदय से आतंकित हो लगभग 6 लाख असमिया मुसलमानों ने बांग्लादेश को अपना नया घर बना लिया।
बांग्लादेश के कुछ निवासी-मुख्यतः रोजी की तलाश में- भारत के अन्य शहरों में बस गए। मुंबई और दिल्ली में बांग्लादेशी मुसलमान प्रवासियों का हौव्वा खड़ा किया जाता रहा है। जाने-माने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की सदस्यता वाली अनेक जन जाँच समितियों ने मुंबई में बांग्लादेशी मुसलमानों के “खतरे“ की तह में जाने की कोशिश की है। इनमें से एक जन जाँच समिति – जिसमें शमा दलवई और इरफान इंजीनियर शामिल थे- इस निष्कर्ष पर पहॅुची कि मुंबई में बांग्लादेशी मुसलमानों की आबादी 20 हजार से ज्यादा नहीं है। दावा यह किया जाता है कि मंुबई में तीन लाख बांग्लादेशी “घुसपैठिए“ निवास कर रहे हैं। मुंबई में रह रहे बांग्लादेशियों में से अधिकाँश जरी का अत्यंत श्रमसाध्य काम करते हैं। उनकी महिलाएं बहुत कम वेतन पर घरों में काम करती हैं। वे बहुत बदहाली में अपनी जिंदगी बसर कर रहे हैं। उनका लगभग पूरा समय और ऊर्जा दो जून की रोटी जुटाने में खर्च हो जाती है। उनके घर, मुंबई के उपनगरों के बाहरी क्षेत्रों में, गटरों और नालियों के नजदीक बनाई गई कच्ची झोपडि़याँ हैं।
यही स्थिति अन्य महानगरों – विशेषकर दिल्ली में है। वहाँ भी सांप्रदायिक तत्वों ने इस मुद्दे से राजनैतिक लाभ उठाने की भरपूर कोशिश की है।
बेहतर जीवन की तलाश में अपना देश छोड़कर दूसरे देश में जाना-चाहे कानूनी हो या गैरकानूनी तरीके से-पूरी दुनिया में बहुत आम है। गरीब वर्ग तो यह करता ही है अपेक्षाकृत समृद्ध व षिक्षित वर्ग भी यही करता है। भारत में असंख्य नेपाली और तिब्बती प्रवासी रहते हैं। बड़ी संख्या में भारतीय युवक-युवतियाँ अमरीका, ब्रिटेन, कनाडा, मलेशिया, सिंगापुर, श्रीलंका आदि में बस गए हैं या काम कर रहे हैं। इन प्रवासियों के दो में से एक उद्देश्य है – गरीबी व बदहाली से मुक्ति या फिर अपने आर्थिक-सामाजिक स्तर का उन्नयन। यह त्रासद है कि इस षुद्ध सामाजिक-आर्थिक परिघटना को सांप्रदायिक तत्व अपने हित साधन के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं।
भारत के अन्य इलाकों की तरह, असम में भी अंग्रेजों ने अपनी फूट डालो और राज करो की नीति पर अमल किया। उन्हांेने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच बैरभाव उत्पन्न किया। उन्नीसवीं सदी में चलाए गए “जनरोपण कार्यक्रम“ से असम के स्थानीय निवासियों का नाखुष होना स्वभाविक था। अंग्रेजों के हिन्दुओं व मुसलमानों को एक-दूसरे के खिलाफ भड़काने से समस्या और बढ़ी। अंग्रजों ने असम में “लाईन सिस्टम“ भी लागू किया, जिसके अंतर्गत विभिन्न धर्मावलम्बियों को अलग-अलग इलाकों में बसने के लिए प्रोत्साहित किया गया। इससे यह समस्या और गंभीर हो गई। एक प्राकृतिक घटनाक्रम भी असम में तनाव को बढ़ा रहा है। विषाल ब्रम्हपुत्र नदी की धारा की दिषा बदलती रहती है और इस कारण उसके तट पर रहने वालों को अपना घरबार छोड़कर अन्यत्र शरण लेनी पड़ती है। इन विस्थापितों में से अधिकांष गरीब होते हैं और उन पर बांग्लादेषी घुसपैठिए का लेबिल चस्पा कर दिया जाता है।
असम की सांप्रदायिक स्थिति पर तुंरत ध्यान दिए जाने की जरूरत है। “डी“ मतदाता के मुद्दे के कारण भी वहाँ व्यापक जनाक्रोष है। असम एक अत्यंत गरीब राज्य है और उसे विकास के पथ पर तेजी से आगे बढ़ाए जाने की जरूरत है। ऐतिहासिक परिस्थितियों और प्राकृतिक परिघटनाओं से जनित जनाक्रोश का कुछ तत्व राजनैतिक लाभ उठा रहे हैं। असम के सभी निवासियों के बीच प्रेम व बंधुत्व को बढ़ावा देने के सकारात्मक प्रयास होने चाहिए। सांप्रदायिक तत्वों के दुष्प्रचार का डटकर मुकाबला कर ही हम राज्य में व्याप्त सामाजिक अलगाव व विभाजन के भाव को दूर कर सकते हैं। यही असम की प्रगति की राह को प्रषस्त करेगा और वहाँ हो रहे मानवाधिकारों के उल्लंघन पर अंकुश लगाएगा।

-राम पुनियानी
(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

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किसी ने छब्बीस साला उम्र के सुधाकरराव मराठा उर्फ सुधाकरराव प्रभुणे के बारे में सुना है? एक कट्टर दक्षिणपंथी अपराधी जिसे पिछले दिनों मध्यप्रदेश पुलिस ने झाँसी में गिरफ्तार किया और उसके कब्जे से एक कार, एक रिवाॅल्वर और पाँच जिन्दा कारतूस बरामद किए। सुधाकर की गिरफ्तारी के पहले ही मध्यप्रदेश पुलिस उसके साथी शिवम् धाकड को उज्जैन में गिरफ्तार कर चुकी थी। वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के मुताबिक सुधाकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक-आतंकवादी सुनील जोशी के सम्पर्क में रह चुका था, जिसकी 2007 में रहस्यमय परिस्थितियों में हत्या कर दी गई थी। सुधाकर के बारे में जानकारी यह भी है कि उसने अपराध की दुनिया में तब प्रवेश किया जब वह उन्नीस साल का था।
गौरतलब है कि न पुलिस, न ही मीडिया में इस कुख्यात अपराधी की गिरफ्तारी पर उत्तेजना दिखाई दी। आम तौर पर छोटे मोटे अपराधियों को पकड़ने पर प्रेस कान्फ्रेन्स करने वाली पुलिस भी लगभग खामोश ही रही और मीडिया ने भी मौन बरतना जरुरी समझा। गिने-चुने अख़बारों को छोड़ दें तो मध्यप्रदेश के प्रिन्ट मीडिया ने भी यह ख़बर देना जरूरी नहीं समझा और इसके बावजूद कि उसकी गिरफ्तारी में उत्तर प्रदेश की पुलिस ने अहम भूमिका अदा की थी, परन्तु इस अपराधी को मध्य प्रदेश पुलिस को ‘सौंप’ दिया था। हिन्दी साप्ताहिक ‘लोक लहर’ द्वारा किए गए इस खुलासे पर भी हंगामा नहीं मचा कि अपनी गिरफ्तारी के वक्त सुधाकर के साथ संघ का कोई नेता था और जब सुधाकर को औपचारिक तौर पर गिरफ्तार किया गया तब संघ के इस नेता ने भोपाल में किसी वरिष्ठ पुलिस अधिकारी से बात की थी, जिसके चलते उसे वहीं छोड़ दिया गया।
यह अकारण नहीं था कि अपनी गिरफ्तारी के तत्काल बाद दिए अपने पहले औपचारिक वक्तव्य में सुधाकरराव मराठा ने साफ कहा कि फरारी के इस कालखण्ड में वह लगातार संघ/भाजपा नेताओं के सम्पर्क में रहा, जो उसकी लगातार मदद करते रहे। सुधाकर ने किसी तपन भौमिक के नाम का भी उल्लेख किया जो संघ एवम् भाजपा के बीच सेतु का काम करता है। एक बात जिसका उल्लेख जरूरी है वह यह कि सुधाकर मध्यप्रदेश के मालवा इलाके का रहने वाला था जिसे हिन्दुत्ववादी शक्तियों का गढ़ समझा जाता है और देश के अलग अलग हिस्सों में हिन्दुत्व आतंकवाद की जो घटनाएँ सामने आई हैं, उसमें यहाँ के कई लोग शामिल रहे हैं।
निश्चित ही इस मामले से जुड़े तमाम रोचक तथ्यों को देखते हुए पूरे मामले की उच्चस्तरीय जाँच की जरूरत दिखती है ताकि यह जाना जा सके कि आखिर अल्पसंख्यक समुदाय के कई अग्रणियों की हत्या करने वाले, या अन्तरधर्मीय शादी करने वाले जोड़ों को प्रताडि़त करने वाले इस अपराधी के साथ स्पेशल व्यवहार क्यों हुआ?
सुधाकर द्वारा अंजाम दिए गए पाँच हत्याओं के बारे में विवरण इस प्रकार हैं:-
-चित्तौड़गढ़ के जफर खान की हत्या जिसने सुधाकर की बहन ज्योति से शादी की थी।
-हनीफ शाह नामक गायक की हत्या जिसने हेमा भटनागर नामक युवती से विवाह किया था।
-मन्दसौर के गबरु पठान की हत्या जिसके भतीजे ने मन्दसौर के एक हिन्दू व्यापारी को मार डाला था।
-हिन्दुत्व एजेण्डा के तहत रतलाम के रमजानी शेरानी की हत्या।
-आर0आर0 खान नामक कांग्रेसी नेता की हत्या।
सुधाकरराव मराठा की गिरफ्तारी दरअसल संघ परिवार के अन्दर मौजूद श्रम विभाजन की नीति को उजागर करती है, जहाँ कुछ लोग शाखाओं में कवायद करते हैं और बाकियों को क्षमता एवं रुचि के अनुसार ‘हिन्दू राष्ट्र’ की स्थापना हेतु अध्यापन से लेकर अतिवाद के कामों में तैनात किया जाता है। फिर अतिवाद की शक्ल
आपराधिक गतिविधियों में प्रगट हो या आतंकी घटनाओं में परिणत हो।
हर राज्य, हर शहर, हर कस्बे में ऐसे लोग मिल सकते हैं जो खुद अपराध की दुनिया में संलग्न हों मगर साथ ही साथ किसी दक्षिणपंथी संगठन के लिए भी काम करते हों। अपने तईं वे हमेशा ही इस बात से इन्कार करेंगे कि वे किसी संगठन से औपचारिक तौर पर जुड़े हुए हैं, और वे संगठन भी इस बात से हमेशा ही इन्कार करेंगे कि इन अपराधियों की वे सेवाएँ लेते हैं। यह अलग बात है कि बिना किसी औपचारिक जुड़ाव के इन दक्षिणपंथी संगठनों की तरफ से कई सारे ‘गन्दे’ काम उन्हें ‘सौंपे (आउटसोर्स किए) जाते रहते हैं। फिर चाहे वह कर्नाटक में सक्रिय प्रसाद अट्टवार हो या हुबली बम धमाके में मुब्तिला अपराधी नागराज जाम्बागी हो, कंधमाल जिले के दंगों में सक्रिय अपराधी मनोज प्रधान हो या ग्राहम स्टीन्स की हत्या में आजीवन कैद की सज़ा काट रहा दारा सिंह हो।
संवैधानिक एवं असंवैधानिक के बीच की धूमिल रेखा को मद्देनज़र रखते हुए तथा हिन्दुत्ववादी संगठनों द्वारा कायम किए गए आनुषंगिक संगठनों के विशाल ताने-बाने को देखते हुए -जहाँ एक सिरा बिल्कुल संसदीय काम में संलिप्त दिखता है तो दूसरा सिरा विशुद्ध अतिवादी हरकतों में मुब्तिला दिखता है। इसका ताजा प्रमाण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता असीमानन्द की वह अपराधस्वीकृति है जो उसने मजिस्टेट के सामने दी।

अपनी युवावस्था से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता रहे असीमानन्द का यह कबूलनामा, जिसके अन्तर्गत उसने अपने तमाम अपराधों को कबूला है और संघ के शीर्षस्थ नेताओं की सहभागिता के बारे में भी बताया है। पिछले दिनों पंचकुला की अदालत में असीमानन्द ने यह भी बताया कि गुजरात के मोडासा बम धमाके को भी संघ के कार्यकर्ताओं ने अंजाम दिया था।
ध्यान रहे कि मालेगाँव के 2008 के बम धमाके के दिन और लगभग उसी वक्त मोडासा के मुस्लिमबहुल इलाके में बम फटा था जिसमें दो निरपराध मारे गए थे। नांदेड़ बम धमाका, मालेगाँव बम ब्लास्ट, अजमेर, मक्का मस्जिद बम धमाका, समझौता एक्सप्रेस में बम रखना आदि तमाम आतंकी काण्डों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं की संलिप्तता के पुख्ता प्रमाण अब जाँच एजेंसियों के पास हैं और अगर मुल्क की कानूनी मशीनरी ने ठीक से काम किया तो अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि संघ के तमाम शीर्षस्थ नेता सलाखों के पीछे पहुँच सकते हैं।
अपने कबूलनामे में भारत के राष्ट्रपति एवं पाकिस्तान के राष्ट्रपति को भेजे गए एक ही किस्म के पत्रों में असीमानन्द ने बताया है कि किस तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं ने योजना बना कर मालेगाँव के 2006 एवं 2008 के बम धमाकों को, अजमेर शरीफ एवम् मक्का मस्जिद के बम विस्फोटों को तथा समझौता एक्सप्रेस के बम विस्फोट को अंजाम दिया। दरअसल असीमानन्द के इस बयान को नेट पर भी पढ़ा जा सकता है (www.tehelka.com)जो उसने दिल्ली की अदालत में हिन्दी में लिख कर दिया है। इन तथ्यों को जानना इसलिए जरूरी है कि संघ परिवार के लोग इस मसले को लेकर घर-घर जाकर प्रचार कर रहे है। उनका कहना यह होता है कि यह सब किसी साजिश का हिस्सा है।
अगर संघ के कार्यकर्ताओं से साबिका पड़े तो उनसे पहला सवाल यह पूछा जाना चाहिए कि आखिर अहिल्याबाई होलकर के कार्यों एवं बलिदानों से इन्दौर-मालवा का जो इलाका रौशन रहा है, जिनके सामाजिक कार्यों की आज भी लोग तारीफ करते हैं, वह इलाका अचानक हिन्दुत्व आतंक की नर्सरी क्यों बन गया? इसी से जुड़ा मसला है कि ऐसा क्यों हो रहा है कि भारत में आतंकी घटनाओं में जहाँ हिन्दुत्ववादी संगठनों के शामिल होने की बात सामने आती है, उसके अधिकतर सूत्र इसी इलाके से जुड़े दिखते हैं। सोचने की बात है कि इन दिनों फरार चल रहा बम विशेषज्ञ रामजी कलासांगरा या संदीप डांगे हों, जिनके लिए 10 लाख का इनाम सरकार ने घोषित किया है या 2002 से अलग-अलग आतंकी घटनाओं में रहा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रचारक सुनील जोशी हो, या सुनील जोशी की हत्या में शामिल रहे संघ के कार्यकर्ता हों, या देश में अलग-अलग स्थानों पर आतंकी घटनाओं को अंजाम देने के लिए इस इलाके के विभिन्न स्थानों पर आयोजित की गई मीटिंग्स हों, आखिर इस इलाके का यह रूपान्तरण क्यों हुआ? यह अकारण नहीं कि असीमानन्द के कबूलनामे में इस इलाके का और यहाँ के संघ के कई कार्यकर्ताओं का जिक्र बार-बार आता है।
इस बात पर भी कम लोगों ने गौर किया है कि संघ के सुप्रीमो मोहन भागवत ने खुद कुछ दिन पहले यह स्वीकृति दी थी कि कुछ अतिवादी हमारे यहाँ पल रहे थे, जिन्हें हमने निकाल दिया है? लोगों से यह जाना जा सकता है कि क्या इसकी कोई फेहरिस्त संघ ने जारी की। तीसरा अहम सवाल उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि जिस तरह असीमानन्द ने अपने
अपराधों की स्वीकृति दी, उस किस्म की स्वीकृति देने का नैतिक साहस कितने संघ कार्यकर्ताओं के पास आज है या वे भी इन्द्रेश कुमार की तरह बच-बच कर फिरने में ही यकीन रखते हैं?
जाहिर सी बात है कि दिल्ली की अदालत में पिछले दिनों असीमानन्द नामक इस शख्स ने जो लिखित इकबालिया बयान दिया, उससे संघ परिवार का जो आतंकी चेहरा सामने आया है, उससे वे सभी लोग भी स्तब्ध हैं, जो हिन्दुत्व के विचारों के हिमायती बताए जाते हैं।
साफ है कि अजमेर बम धमाके में राजस्थान आतंकवाद निरोधी दस्ते द्वारा दाखिल चार्जशीट में संघ के वरिष्ठ नेता इन्द्रेश कुमार का नाम आने के बाद उभरी परिस्थिति से निपटने में मुब्तिला संघ परिवारजनों ने शायद यह सपने में भी नहीं सोचा था कि संघ का अन्य पूर्णकालिक कार्यकर्ता नव कुमार सरकार जिसे ‘स्वामी असीमानन्द’ के नाम से गुजरात के आदिवासी बहुल डाँग जिले में काम करने के लिए भेजा गया था, वह देश के कई अहम बम
धमाकों में संघ परिवार से जुड़े राष्ट्रव्यापी आतंकी माॅड्यूल की जानकारी सार्वजनिक करेगा और उन अपराधों में अपनी संलिप्तता को भी कबूल करेगा। मालूम हो कि नवम्बर माह के मध्य में असीमानन्द को हरिद्वार से गिरफ्तार किया गया था, जहाँ वह एक आश्रम में नाम बदल कर रह रहा था।
दिल्ली के मेट्रोपाॅलिटन मैजिस्टेªट की अदालत में भारत के दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के तहत दिए गए इस ‘कन्फेशन’ (अपराधस्वीकृति) को देने के पहले पदासीन मजिस्टेªट दीपक डबास ने यह सुनिश्चित किया कि अभियुक्त किसी दबाव के तहत तो बयान नहीं दे रहा है। इसलिए 16 दिसम्बर को जब कन्फेशन देने का उसका इरादा जाँच अधिकारी के मार्फत पता चला, तब मैजिस्टेªट ने असीमानन्द को दो दिन का समय विचार करने के लिए देकर भेजा ताकि वह ठीक से सोच कर आए। कन्फेशन देने के पहले असीमानन्द को यह स्पष्ट बताया गया कि अदालत में जब मुकदमा चलेगा तो इस बयान का उसके खिलाफ इस्तेमाल हो सकता है।
असीमानन्द की अपराधस्वीकृति और इसमें संघ परिवार के वरिष्ठ नेताओं की सहभागिता के बारे में दिए गए बयान के बाद संघ परिवार में जबरदस्त हड़बड़ी मची है। चन्द रोज पहले ही संघ सुप्रीमो मोहन भागवत ने सफाई के अन्दाज में यह बयान भी दे दिया कि संघ के कुछ कार्यकर्ता अतिवादी हरकतों में शामिल थे, जिन्हें निकाल दिया गया है। दूसरी तरफ संघ परिवार ने 26 जनवरी से पूरे देश में एक अभियान चलाने का निर्णय लिया है, जो बजट सत्र तक चलेगा। इस अभियान में संघ कार्यकर्ता घर-घर जाकर यह बताने की कोशिश करेंगे कि यह सब ‘कांग्रेस का षड्यंत्र है तथा हिन्दू समाज को बदनाम करने की कोशिश है।’ वैसे बयान में स्वीकृति और कार्रवाई के स्तर पर विरोध, यह विरोधाभास संघ के उसी अन्तद्र्वंद्व को उजागर करता है, जिसमें वह आतंकवाद के मसले पर खुद को फँसा पा रहा है।

निश्चित ही असीमानन्द की अदालत के सामने की गई अपराधस्वीकृति ने न केवल मालेगाँव 2006, समझौता एक्स्प्रेस बम धमाके तथा अजमेर एवम् मक्का मस्जिद बम धमाके में अब तक चली जाँच को नए सिरे से खोलने का रास्ता सुगम किया है बल्कि ऐसे अन्य आतंकी हमलों की जाँच पर भी नई रौशनी डाली है, जिनके कोई सुराग अभी नहीं ढूँढे जा सके थे। प्रश्न उठता है कि क्या अब असली कातिलों तक, आतंकी घटनाओं के असली मास्टरमाइंड हिन्दुत्ववादी संगठनों के बड़े लीडरों तक जाँच की आँच पहुँच सकेगी। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हेमन्त करकरे की अगुआई में जब मालेगाँव 2008 के बम धमाके में जाँच ने गति पकड़ी थी तब यह तथ्य भी उजागर हुआ था कि विश्व हिन्दू परिषद के लीडर भाई तोगडि़या ने भी कर्नल पुरोहित के साथ कई बैठकें की थीं।
सबसे पहले यह जरूरी होगा कि इन घटनाओं को अंजाम देने के नाम पर जिन मुस्लिम युवकों को पुलिस ने फर्जी थ्योरी बना कर जेल में डाल रखा है, उन्हंे तत्काल रिहा किया जाए और ऐसे सभी मुस्लिम युवक जिन्हें आतंकवाद के नाम पर फर्जी मुकदमों में फँसाया गया था, उनसे यह सरकार माफी माँगे। पिछले दिनों आस्टेªलिया सरकार ने भारतीय मूल के डाॅक्टर हनीफ को बिनाकारण बन्द किए जाने पर न केवल माफी माँगी थी बल्कि उन्हें मुआवजा भी दिया गया था।
दूसरे असीमानन्द के कबूलनामे ने पुलिस एवम् जाँच एजेंसियों के साम्प्रदायिक स्वरूप को भी बुरी तरह उजागर किया है। जरूरत है कि ऐसे सभी अधिकारियों जिन्होंने तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर फर्जी मुकदमे कायम करने में बढ़-चढ़ कर भूमिका अदा कीं, उन पर कार्रवाई हो।
तीसरे, इस कबूलनामे से यह भी स्पष्ट होता है कि जनतंत्र का प्रहरी बताए जाने-वाले मीडिया ने भी बेहद पक्षपाती रवैय्या अख्तियार किया था। मीडिया का कोई भी बड़ा सम्पादक या पत्रकार इन आरोपों से बच नहीं सकता कि उसने आतंकी घटनाओं के मामले में पुलिस एवम् प्रशासन का प्रवक्ता बनने तक अपनी भूमिका को सीमित किया था और ‘इस्लामिक आतंकवाद’ के नाम पर समूचे समुदाय का आतंकवादीकरण करने में जनद्रोही भूमिका निभाई थी।
चौथे, यह कोई पहला मौका नहीं है कि संघ परिवार का हिंसक, साम्प्रदायिक एवम् विनाशक राजनीति का चेहरा उजागर हुआ है। समझौता एक्स्प्रेस में उसके कार्यकर्ताओं की सहभागिता से बौखलाए संघ के सुप्रीमो से यह पूछा जाना चाहिए कि ऐसी आपराधिक कार्रवाइयों को अंजाम देकर न केवल उसने आतंकवाद विरोधी कार्रवाई को कमजोर किया है बल्कि पाकिस्तान के अतिवादी तबकों को-जो खुद आतंकी कार्रवाइयों में शामिल रहते हैं -नई वैधता प्रदान की है।
पाँचवे, असीमानन्द का कबूलनामा जहाँ संघ की जनद्रोही राजनीति के खिलाफ प्रशासनिक नकेल का रास्ता सुगम करता है, वहीं यह सेक्युलर ताकतों के सामने खड़ी विराट चुनौती को भी रेखांकित करता है। संघ एवम् उसके विश्वदृष्टिकोण के खिलाफ संघर्ष को राजनैतिक तौर पर जीतने की जरूरत है और उसके लिए व्यापक जनान्दोलन ही एकमात्र रास्ता है।
जानकारों के मुताबिक 1948 में महात्मा गांधी की हत्या में ‘परिवारजनों’ की संलिप्तता के आरोपों के बाद संघ को जिस संकट से गुजरना पड़ा था, उससे गम्भीर यह संकट है। अपनी सदस्यता सूची न रखने वाले संघ ने उस वक्त तो यह सफाई देकर बचने की कोशिश की थी कि नाथूराम गोड्से हमारा कार्यकर्ता नहीं था (यह अलग बात है कि फ्रण्टलाइन को दिए अपने साक्षात्कार में नाथूराम के छोटे भाई गोपाल गोड्से ने यह स्पष्ट किया था कि अन्त तक वह तथा नाथूराम दोनों संघ से जुड़े रहे थे) मगर अबकी बार जबकि परभणी, जालना, नांदेड़, मालेगाँव, तेनकासी, कानपुर, अजमेर, मक्का मस्जिद ’ हैदराबाद, समझौता एक्सप्रेस आदि तमाम आतंकी हमलों में संघ के कार्यकर्ताओं की सहभागिता के जो तथ्य सामने आ रहे हैं, उससे संघ के लिए बहुत मुश्किल साबित हो रहा है।
आतंकी/अपराधी घटनाओं में अपने कार्यकर्ताओं की संलिप्तता को लेकर संघ द्वारा दी जा रही सफाई निश्चित ही किसी के गले नहीं उतर रही है। वह उसके लिए बड़ा संकट है।
वैसे फौरी तौर पर उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती उसके अपने कार्यकर्ता सुनील जोशी की संघ के लोगों द्वारा की गई हत्या है। मालूम हो कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं का आतंकी माॅड्यूल बनाने वाले और भोपाल से लेकर अजमेर, मक्का मस्जिद, समझौता एक्स्प्रेस आदि स्थानों पर बम विस्फोट कराने वाले सुनील जोशी की हत्या दिसम्बर 2007 में हुई थी, जिस पर से परदा अभी उठ रहा है। पिछले दिनों सुनील जोशी की हत्या के सबूत मिटाने में भूमिका निभाने वाले देवास के पार्षद रामचरण पटेल को भी गिरफ्तार किया गया है, और भी कइयों के सलाखों के पीछे जाने की सम्भावना है। संघ के कार्यकर्ता दबी जुबान से ही यह पूछने की हिम्मत कर रहे हैं कि इन्द्रेश कुमार को बचाने के लिए संघ की पूरी मशीनरी जुट जाती है, मगर सुनील जोशी की हत्या की जाँच भी नहीं की जाती।
ध्यान रहे कि सुनील जोशी की हत्या में संघ के उसके कार्यकर्ता ही नहीं बल्कि मध्यप्रदेश पुलिस महकमे के कई
अधिकारी भी फँस सकते हैं, जिन्होंने कहीं से संकेत पाकर फाइल बन्द करा दी थी।

– सुभाष गाताडे

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  • नकली नोट पर अब तक का सबसे बडा ख़ुलासा
  • रिजर्व बैंक के ख़जाने में नकली नोट कैसे पहुँचे
  • सीबीआई ने रिजर्व बैंक में क्यों छापा मारा
  • नकली नोट के खुलासे से यूरोप में भुचाल क्यों आया

देश के रिज़र्व बैंक के वाल्ट पर सीबीआई ने छापा डाला. उसे वहां पांच सौ और हज़ार रुपये के नक़ली नोट मिले. वरिष्ठ अधिकारियों से सीबीआई ने पूछताछ भी की. दरअसल सीबीआई ने नेपाल-भारत सीमा के साठ से सत्तर विभिन्न बैंकों की शाखाओं पर छापा डाला था, जहां से नक़ली नोटों का कारोबार चल रहा था. इन बैंकों के अधिकारियों ने सीबीआई से कहा कि उन्हें ये नक़ली नोट भारत के रिजर्व बैंक से मिल रहे हैं. इस पूरी घटना को भारत सरकार ने देश से और देश की संसद से छुपा लिया. या शायद सीबीआई ने भारत सरकार को इस घटना के बारे में कुछ बताया ही नहीं. देश अंधेरे में और देश को तबाह करने वाले रोशनी में हैं. आइए, आपको
आज़ाद भारत के सबसे बड़े आपराधिक षड्‌यंत्र के बारे में बताते हैं, जिसे हमने पांच महीने की तलाश के बाद आपके सामने रखने का फ़ैसला किया है. कहानी है रिज़र्व बैंक के माध्यम से देश के अपराधियों द्वारा नक़ली नोटों का कारोबार करने की.
नक़ली नोटों के कारोबार ने देश की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह अपने जाल में जकड़ लिया है. आम जनता के हाथों में नक़ली नोट हैं, पर उसे ख़बर तक नहीं है. बैंक में नक़ली नोट मिल रहे हैं, एटीएम नक़ली नोट उगल रहे हैं. असली-नक़ली नोट पहचानने वाली मशीन नक़ली नोट को असली बता रही है. इस देश में क्या हो रहा है, यह समझ के बाहर है. चौथी दुनिया की तहक़ीक़ात से यह पता चला है कि जो कंपनी भारत के लिए करेंसी छापती रही, वही 500 और 1000 के नक़ली नोट भी छाप रही है. हमारी तहक़ीक़ात से यह अंदेशा होता है कि देश की सरकार और रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया जाने-अनजाने में नोट छापने वाली विदेशी कंपनी के पार्टनर बन चुके हैं. अब सवाल यही है कि इस ख़तरनाक साज़िश पर देश की सरकार और एजेंसियां क्यों चुप हैं?

एक जानकारी जो पूरे देश से छुपा ली गई, अगस्त 2010 में सीबीआई की टीम ने रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के वाल्ट में छापा मारा. सीबीआई के अधिकारियों का दिमाग़ उस समय सन्न रह गया, जब उन्हें पता चला कि रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के ख़ज़ाने में नक़ली नोट हैं. रिज़र्व बैंक से मिले नक़ली नोट वही नोट थे, जिसे पाकिस्तान की खु़फिया एजेंसी नेपाल के रास्ते भारत भेज रही है. सवाल यह है कि भारत के रिजर्व बैंक में नक़ली नोट कहां से आए? क्या आईएसआई की पहुंच रिज़र्व बैंक की तिजोरी तक है या फिर कोई बहुत ही भयंकर साज़िश है, जो हिंदुस्तान की अर्थव्यवस्था को खोखला कर चुकी है. सीबीआई इस सनसनीखेज मामले की तहक़ीक़ात कर रही है. छह बैंक कर्मचारियों से सीबीआई ने पूछताछ भी की है. इतने महीने बीत जाने के बावजूद किसी को यह पता नहीं है कि जांच में क्या निकला? सीबीआई और वित्त मंत्रालय को देश को बताना चाहिए कि बैंक अधिकारियों ने जांच के दौरान क्या कहा? नक़ली नोटों के इस ख़तरनाक खेल पर सरकार, संसद और जांच एजेंसियां क्यों चुप है तथा संसद अंधेरे में क्यों है?

अब सवाल यह है कि सीबीआई को मुंबई के रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया में छापा मारने की ज़रूरत क्यों पड़ी? रिजर्व बैंक से पहले नेपाल बॉर्डर से सटे बिहार और उत्तर प्रदेश के क़रीब 70-80 बैंकों में छापा पड़ा. इन बैंकों में इसलिए छापा पड़ा, क्योंकि जांच एजेंसियों को ख़बर मिली है कि पाकिस्तान की खु़फ़िया एजेंसी आईएसआई नेपाल के रास्ते भारत में नक़ली नोट भेज रही है. बॉर्डर के इलाक़े के बैंकों में नक़ली नोटों का लेन-देन हो रहा है. आईएसआई के रैकेट के ज़रिए 500 रुपये के नोट 250 रुपये में बेचे जा रहे हैं. छापे के दौरान इन बैंकों में असली नोट भी मिले और नक़ली नोट भी. जांच एजेंसियों को लगा कि नक़ली नोट नेपाल के ज़रिए बैंक तक पहुंचे हैं, लेकिन जब पूछताछ हुई तो सीबीआई के होश उड़ गए. कुछ बैंक अधिकारियों की पकड़-धकड़ हुई. ये बैंक अधिकारी रोने लगे, अपने बच्चों की कसमें खाने लगे. उन लोगों ने बताया कि उन्हें नक़ली नोटों के बारे में कोई जानकारी नहीं, क्योंकि ये नोट रिजर्व बैंक से आए हैं. यह किसी एक बैंक की कहानी होती तो इसे नकारा भी जा सकता था, लेकिन हर जगह यही पैटर्न मिला. यहां से मिली जानकारी के बाद ही सीबीआई ने फ़ैसला लिया कि अगर नक़ली नोट रिजर्व बैंक से आ रहे हैं तो वहीं जाकर देखा जाए कि मामला क्या है. सीबीआई ऱिजर्व बैंक ऑफ इंडिया पहुंची, यहां उसे नक़ली नोट मिले. हैरानी की बात यह है कि रिज़र्व बैंक में मिले नक़ली नोट वही नोट थे, जिन्हें आईएसआई नेपाल के ज़रिए भारत भेजती है.

रिज़र्व बैंक आफ इंडिया में नक़ली नोट कहां से आए, इस गुत्थी को समझने के लिए बिहार और उत्तर प्रदेश में नक़ली नोटों के मामले को समझना ज़रूरी है. दरअसल हुआ यह कि आईएसआई की गतिविधियों की वजह से यहां आएदिन नक़ली नोट पकड़े जाते हैं. मामला अदालत पहुंचता है. बहुत सारे केसों में वकीलों ने अनजाने में जज के सामने यह दलील दी कि पहले यह तो तय हो जाए कि ये नोट नक़ली हैं. इन वकीलों को शायद जाली नोट के कारोबार के बारे में कोई अंदाज़ा नहीं था, स़िर्फ कोर्ट से व़क्त लेने के लिए उन्होंने यह दलील दी थी. कोर्ट ने जब्त हुए नोटों को जांच के लिए सरकारी लैब भेज दिया, ताकि यह तय हो सके कि ज़ब्त किए गए नोट नक़ली हैं. रिपोर्ट आती है कि नोट असली हैं. मतलब यह कि असली और नक़ली नोटों के कागज, इंक, छपाई और सुरक्षा चिन्ह सब एक जैसे हैं. जांच एजेंसियों के होश उड़ गए कि अगर ये नोट असली हैं तो फिर 500 का नोट 250 में क्यों बिक रहा है. उन्हें तसल्ली नहीं हुई. फिर इन्हीं नोटों को टोक्यो और हांगकांग की लैब में भेजा गया. वहां से भी रिपोर्ट आई कि ये नोट असली हैं. फिर इन्हें अमेरिका भेजा गया. नक़ली नोट कितने असली हैं, इसका पता तब चला, जब अमेरिका की एक लैब ने यह कहा कि ये नोट नक़ली हैं. लैब ने यह भी कहा कि दोनों में इतनी समानताएं हैं कि जिन्हें पकड़ना मुश्किल है और जो विषमताएं हैं, वे भी जानबूझ कर डाली गई हैं और नोट बनाने वाली कोई बेहतरीन कंपनी ही ऐसे नोट बना सकती है. अमेरिका की लैब ने जांच एजेंसियों को पूरा प्रूव दे दिया और तरीक़ा बताया कि कैसे नक़ली नोटों को पहचाना जा सकता है. इस लैब ने बताया कि इन नक़ली नोटों में एक छोटी सी जगह है, जहां छेड़छाड़ हुई है. इसके बाद ही नेपाल बॉर्डर से सटे बैंकों में छापेमारी का सिलसिला शुरू हुआ. नक़ली नोटों की पहचान हो गई, लेकिन एक बड़ा सवाल खड़ा हो गया कि नेपाल से आने वाले 500 एवं 1000 के नोट और रिज़र्व बैंक में मिलने वाले नक़ली नोट एक ही तरह के कैसे हैं. जिस नक़ली नोट को आईएसआई भेज रही है, वही नोट रिजर्व बैंक में कैसे आया. दोनों जगह पकड़े गए नक़ली नोटों के काग़ज़, इंक और छपाई एक जैसी क्यों है. एक्सपर्ट्स बताते हैं कि भारत के 500 और 1000 के जो नोट हैं, उनकी क्वालिटी ऐसी है, जिसे आसानी से नहीं बनाया जा सकता है और पाकिस्तान के पास वह टेक्नोलॉजी है ही नहीं. इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि जहां से ये नक़ली नोट आईएसआई को मिल रहे हैं, वहीं से रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया को भी सप्लाई हो रहे हैं. अब दो ही बातें हो सकती हैं. यह जांच एजेंसियों को तय करना है कि रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के अधिकारियों की मिलीभगत से नक़ली नोट आया या फिर हमारी अर्थव्यवस्था ही अंतरराष्ट्रीय मा़फ़िया गैंग की साज़िश का शिकार हो गई है. अब सवाल उठता है कि ये नक़ली नोट छापता कौन है.

हमारी तहक़ीक़ात डे ला रू नाम की कंपनी तक पहुंच गई. जो जानकारी हासिल हुई, उससे यह साबित होता है कि नक़ली नोटों के कारोबार की जड़ में यही कंपनी है. डे ला रू कंपनी का सबसे बड़ा करार रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के साथ था, जिसे यह स्पेशल वॉटरमार्क वाला बैंक नोट पेपर सप्लाई करती रही है. पिछले कुछ समय से इस कंपनी में भूचाल आया हुआ है. जब रिजर्व बैंक में छापा पड़ा तो डे ला रू के शेयर लुढ़क गए. यूरोप में ख़राब करेंसी नोटों की सप्लाई का मामला छा गया. इस कंपनी ने रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया को कुछ ऐसे नोट दे दिए, जो असली नहीं थे. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की टीम इंग्लैंड गई, उसने डे ला रू कंपनी के अधिकारियों से बातचीत की. नतीजा यह हुआ कि कंपनी ने हम्प्शायर की अपनी यूनिट में उत्पादन और आगे की शिपमेंट बंद कर दी. डे ला रू कंपनी के अधिकारियों ने भरोसा दिलाने की बहुत कोशिश की, लेकिन रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया ने यह कहा कि कंपनी से जुड़ी कई गंभीर चिंताएं हैं. अंग्रेजी में कहें तो सीरियस कंसर्नस. टीम वापस भारत आ गई.

डे ला रू कंपनी की 25 फीसदी कमाई भारत से होती है. इस ख़बर के आते ही डे ला रू कंपनी के शेयर धराशायी हो गए. यूरोप में हंगामा मच गया, लेकिन हिंदुस्तान में न वित्त मंत्री ने कुछ कहा, न ही रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने कोई बयान दिया. रिज़र्व बैंक के प्रतिनिधियों ने जो चिंताएं बताईं, वे चिंताएं कैसी हैं. इन चिंताओं की गंभीरता कितनी है. रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के साथ डील बचाने के लिए कंपनी ने माना कि भारत के रिज़र्व बैंक को दिए जा रहे करेंसी पेपर के उत्पादन में जो ग़लतियां हुईं, वे गंभीर हैं. बाद में कंपनी के चीफ एक्जीक्यूटिव जेम्स हसी को 13 अगस्त, 2010 को इस्ती़फा देना पड़ा. ये ग़लतियां क्या हैं, सरकार चुप क्यों है, रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया क्यों ख़ामोश है. मज़ेदार बात यह है कि कंपनी के अंदर इस बात को लेकर जांच चल रही थी और एक हमारी संसद है, जिसे कुछ पता नहीं है.

5 जनवरी, 2011 को यह ख़बर आई कि भारत सरकार ने डे ला रू के साथ अपने संबंध ख़त्म कर लिए. पता यह चला कि 16,000 टन करेंसी पेपर के लिए रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया ने डे ला रू की चार प्रतियोगी कंपनियों को ठेका दे दिया. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने डे ला रू को इस टेंडर में हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित भी नहीं किया. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया और भारत सरकार ने इतना बड़ा फै़सला क्यों लिया. इस फै़सले के पीछे तर्क क्या है. सरकार ने संसद को भरोसे में क्यों नहीं लिया. 28 जनवरी को डे ला रू कंपनी के टिम कोबोल्ड ने यह भी कहा कि रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के साथ उनकी बातचीत चल रही है, लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि डे ला रू का अब आगे रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के साथ कोई समझौता होगा या नहीं. इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी डे ला रू से कौन बात कर रहा है और क्यों बात कर रहा है. मज़ेदार बात यह है कि इस पूरे घटनाक्रम के दौरान रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ख़ामोश रहा.

इस तहक़ीक़ात के दौरान एक सनसनीखेज सच सामने आया. डे ला रू कैश सिस्टम इंडिया प्राइवेट लिमिटेड को 2005 में सरकार ने दफ्तर खोलने की अनुमति दी. यह कंपनी करेंसी पेपर के अलावा पासपोर्ट, हाई सिक्योरिटी पेपर, सिक्योरिटी प्रिंट, होलोग्राम और कैश प्रोसेसिंग सोल्यूशन में डील करती है. यह भारत में असली और नक़ली नोटों की पहचान करने वाली मशीन भी बेचती है. मतलब यह है कि यही कंपनी नक़ली नोट भारत भेजती है और यही कंपनी नक़ली नोटों की जांच करने वाली मशीन भी लगाती है. शायद यही वजह है कि देश में नक़ली नोट भी मशीन में असली नज़र आते हैं. इस मशीन के सॉफ्टवेयर की अभी तक जांच नहीं की गई है, किसके इशारे पर और क्यों? जांच एजेंसियों को अविलंब ऐसी मशीनों को जब्त करना चाहिए, जो नक़ली नोटों को असली बताती हैं. सरकार को इस बात की जांच करनी चाहिए कि डे ला रू कंपनी के रिश्ते किन-किन आर्थिक संस्थानों से हैं. नोटों की जांच करने वाली मशीन की सप्लाई कहां-कहां हुई है.

हमारी जांच टीम को एक सूत्र ने बताया कि डे ला रू कंपनी का मालिक इटालियन मा़िफया के साथ मिलकर भारत के नक़ली नोटों का रैकेट चला रहा है. पाकिस्तान में आईएसआई या आतंकवादियों के पास जो नक़ली नोट आते हैं, वे सीधे यूरोप से आते हैं. भारत सरकार, रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया और देश की जांच एजेंसियां अब तक नक़ली नोटों पर नकेल इसलिए नहीं कस पाई हैं, क्योंकि जांच एजेंसियां अब तक इस मामले में पाकिस्तान, हांगकांग, नेपाल और मलेशिया से आगे नहीं देख पा रही हैं. जो कुछ यूरोप में हो रहा है, उस पर हिंदुस्तान की सरकार और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया चुप है.

अब सवाल उठता है कि जब देश की सबसे अहम एजेंसी ने इसे राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा बताया, तब सरकार ने क्या किया. जब डे ला रू ने नक़ली नोट सप्लाई किए तो संसद को क्यों नहीं बताया गया. डे ला रू के साथ जब क़रार ़खत्म कर चार नई कंपनियों के साथ क़रार हुए तो विपक्ष को क्यों पता नहीं चला. क्या संसद में उन्हीं मामलों पर चर्चा होगी, जिनकी रिपोर्ट मीडिया में आती है. अगर जांच एजेंसियां ही कह रही हैं कि नक़ली नोट का काग़ज़ असली नोट के जैसा है तो फिर सप्लाई करने वाली कंपनी डे ला रू पर कार्रवाई क्यों नहीं हुई. सरकार को किसके आदेश का इंतजार है. समझने वाली बात यह है कि एक हज़ार नोटों में से दस नोट अगर जाली हैं तो यह स्थिति देश की वित्तीय व्यवस्था को तबाह कर सकती है. हमारे देश में एक हज़ार नोटों में से कितने नोट जाली हैं, यह पता कर पाना भी मुश्किल है, क्योंकि जाली नोट अब हमारे बैंकों और एटीएम मशीनों से निकल रहे हैं.

डे ला रू का नेपाल और आई एस आई कनेक्शन

कंधार हाईजैक की कहानी बहुत पुरानी हो गई है, लेकिन इस अध्याय का एक ऐसा पहलू है, जो अब तक दुनिया की नज़र से छुपा हुआ है. इस खउ-814 में एक ऐसा शख्स बैठा था, जिसके बारे में सुनकर आप दंग रह जाएंगे. इस आदमी को दुनिया भर में करेंसी किंग के नाम से जाना जाता है. इसका असली नाम है रोबेर्टो ग्योरी. यह इस जहाज में दो महिलाओं के साथ स़फर कर रहा था. दोनों महिलाएं स्विट्जरलैंड की नागरिक थीं. रोबेर्टो़ खुद दो देशों की नागरिकता रखता है, जिसमें पहला है इटली और दूसरा स्विट्जरलैंड. रोबेर्टो को करेंसी किंग इसलिए कहा जाता है, क्योंकि यह डे ला रू नाम की कंपनी का मालिक है. रोबेर्टो ग्योरी को अपने पिता से यह कंपनी मिली. दुनिया की करेंसी छापने का 90 फी़सदी बिजनेस इस कंपनी के पास है. यह कंपनी दुनिया के कई देशों कें नोट छापती है. यही कंपनी पाकिस्तान की आईएसआई के लिए भी काम करती है. जैसे ही यह जहाज हाईजैक हुआ, स्विट्जरलैंड ने एक विशिष्ट दल को हाईजैकर्स से बातचीत करने कंधार भेजा. साथ ही उसने भारत सरकार पर यह दबाव बनाया कि वह किसी भी क़ीमत पर करेंसी किंग रोबेर्टो ग्योरी और उनके मित्रों की सुरक्षा सुनिश्चित करे. ग्योरी बिजनेस क्लास में स़फर कर रहा था. आतंकियों ने उसे प्लेन के सबसे पीछे वाली सीट पर बैठा दिया. लोग परेशान हो रहे थे, लेकिन ग्योरी आराम से अपने लैपटॉप पर काम कर रहा था. उसके पास सैटेलाइट पेन ड्राइव और फोन थे.यह आदमी कंधार के हाईजैक जहाज में क्या कर रहा था, यह बात किसी की समझ में नहीं आई है. नेपाल में ऐसी क्या बात है, जिससे स्विट्जरलैंड के सबसे अमीर व्यक्ति और दुनिया भर के नोटों को छापने वाली कंपनी के मालिक को वहां आना पड़ा. क्या वह नेपाल जाने से पहले भारत आया था. ये स़िर्फ सवाल हैं, जिनका जवाब सरकार के पास होना चाहिए. संसद के सदस्यों को पता होना चाहिए, इसकी जांच होनी चाहिए थी. संसद में इस पर चर्चा होनी चाहिए थी. शायद हिंदुस्तान में फैले जाली नोटों का भेद खुल जाता.

नकली नोंटों का मायाजाल

सरकार के ही आंकड़े बताते हैं कि 2006 से 2009 के बीच 7।34 लाख सौ रुपये के नोट, 5.76 लाख पांच सौ रुपये के नोट और 1.09 लाख एक हज़ार रुपये के नोट बरामद किए गए. नायक कमेटी के मुताबिक़, देश में लगभग 1,69,000 करोड़ जाली नोट बाज़ार में हैं. नक़ली नोटों का कारोबार कितना ख़तरनाक रूप ले चुका है, यह जानने के लिए पिछले कुछ सालों में हुईं कुछ महत्वपूर्ण बैठकों के बारे में जानते हैं. इन बैठकों से यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि देश की एजेंसियां सब कुछ जानते हुए भी बेबस और लाचार हैं. इस धंधे की जड़ में क्या है, यह हमारे ख़ुफिया विभाग को पता है. नक़ली नोटों के लिए बनी ज्वाइंट इंटेलिजेंस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि भारत नक़ली नोट प्रिंट करने वालों के स्रोत तक नहीं पहुंच सका है. नोट छापने वाले प्रेस विदेशों में लगे हैं. इसलिए इस मुहिम में विदेश मंत्रालय की मदद लेनी होगी, ताकि उन देशों पर दबाव डाला जा सके. 13 अगस्त, 2009 को सीबीआई ने एक बयान दिया कि नक़ली नोट छापने वालों के पास भारतीय नोट बनाने वाला गुप्त सांचा है, नोट बनाने वाली स्पेशल इंक और पेपर की पूरी जानकारी है. इसी वजह से देश में असली दिखने वाले नक़ली नोट भेजे जा रहे हैं. सीबीआई के प्रवक्ता ने कहा कि नक़ली नोटों के मामलों की तहक़ीक़ात के लिए देश की कई एजेंसियों के सहयोग से एक स्पेशल टीम बनाई गई है. 13 सितंबर, 2009 को नॉर्थ ब्लॉक में स्थित इंटेलिजेंस ब्यूरो के हेड क्वार्टर में एक मीटिंग हुई थी, जिसमें इकोनोमिक इंटेलिजेंस की सारी अहम एजेंसियों ने हिस्सा लिया. इसमें डायरेक्टरेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलिजेंस, इंटेलिजेंस ब्यूरो, आईबी, वित्त मंत्रालय, सीबीआई और सेंट्रल इकोनोमिक इंटेलिजेंस ब्यूरो के प्रतिनिधि मौजूद थे. इस मीटिंग का निष्कर्ष यह निकला कि जाली नोटों का कारोबार अब अपराध से बढ़कर राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा बन गया है. इससे पहले कैबिनेट सेक्रेटरी ने एक उच्चस्तरीय बैठक बुलाई थी, जिसमें रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया, आईबी, डीआरआई, ईडी, सीबीआई, सीईआईबी, कस्टम और अर्धसैनिक बलों के प्रतिनिधि मौजूद थे. इस बैठक में यह तय हुआ कि ब्रिटेन के साथ यूरोप के दूसरे देशों से इस मामले में बातचीत होगी, जहां से नोट बनाने वाले पेपर और इंक की सप्लाई होती है. तो अब सवाल उठता है कि इतने दिनों बाद भी सरकार ने कोई कार्रवाई क्यों नहीं की, जांच एजेंसियों को किसके आदेश का इंतजार है?

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अमरीका, फ्रांस व इंग्लैंड ने लीबिया में “नो फ्लाई जोन“ (हवाई उड़ान प्रतिबंधित क्षेत्र) घोषित करने संबंधी संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव को लागू करने में जो तत्परता दिखाई, वह इन देशों के साम्राज्यवादी लक्ष्यों के अनुरूप है। ये तीनों देश पुरानी साम्राज्यवादी ताकतें हैं जिन्होंने 19वीं व 20वीं सदी में लगभग आधी दुनिया को अपना गुलाम बनाया था। इंग्लैंड व फ्रांस ने यह काम प्रत्यक्ष ढंग से किया था और अमेरिका ने अप्रत्यक्ष ढंग से।

हर बार, इन देशों ने “नागरिकों की जान बचाने“ को अन्य देशों में सैन्य हस्तक्षेप करने का बहाना बनाया परंतु सारी दुनिया यह जानती है कि इन देशों ने लाखों नागरिकों को मौत के घाट उतारा है। इन देशों ने भारत सहित अल्जीरिया, वियतनाम व कई अन्य देशों में खून की होली खेली है। इन साम्राज्यवादी देशों ने एशिया, अफ्रीका व लातिन अमेरिका में तानाशाहों को समर्थन व सहयोग दिया। इन क्रूर तानाशाहों ने हजारों-लाखों नागरिकों की जान ली। इजराईल ने लेबनान को बरबाद कर दिया और हजारों निर्दोष नागरिकों को मौत की नींद सुला दिया परंतु अमरीका ने इजराईल को रोकना तो दूर, उसकी बेज़ा आक्रामक कार्यवाहियों का विरोध तक नहीं किया। वह सिर्फ इसलिए क्योंकि यह अमरीका के हित में था। महिलाओं व बच्चों सहित बड़ी संख्या में नागरिकों को “आतंकवादी“ करार देकर मार डाला गया और इस कुत्सित खेल में अमरीका ने इजराईल का पूरा साथ दिया।
जिस समय इज़राईल, गाजा पट्टी में घरों व अस्पतालों पर बमबारी कर बीमारों, महिलाओं व बच्चों को मार रहा था तब अमरीका, ब्रिटेन व फ्रांस ने चुप्पी साध रखी थी। आखिर, इन असहाय, निर्दोष लोगों की जान लेना, इजराईल की “सुरक्षा“ के लिए जरूरी था। उस समय कुछ लोगों की सोच थी कि अमरीका की यह चुप्पी, तत्कालीन सतारूढ़ रिपब्लिकन पार्टी व राष्ट्रपति बुश की विचारधारा व नीतियों के अनुरूप है। परंतु राष्ट्रपति चाहे बुश हों, क्लिंटन या फिर ओबामा, अमरीका का रूख वही था और है।
बुश सरकार ने ईराक पर यह झूठा आरोप लगाकर आक्रमण किया था कि उसके पास “महासंहारक अस्त्र“ हैं। उस समय भी यह सोचा गया कि शायद यह बुश की व्यक्तिगत मानसिकता का नतीजा है। लिहाजा, जब ओबामा ने रिपब्लिकन उम्मीदवार के विरूद्ध चुनाव लड़ा तब हम सभी ने ओबामा को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा जो अमरीका की नीतियों में आमूल-चूल परिवर्तन करेगा। हम सबने ओबामा की विजय के लिए दुआ की। जब वे राष्ट्रपति चुन लिए गए, तब हमारी खुशी का पारावार न रहा। ओबामा को अफगानिस्तान व ईराक पर आक्रमण का “विरोध“ करने के लिए नोबेल शान्ति पुरस्कार से भी नवाजा गया। क्या उन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया जाना था? सच तो यह है कि किसी भी शासक को नोबेल पुरस्कार नहीं दिया जाना चाहिए क्योंकि शासक अक्सर आदर्शों की बजाय अपने या अपनी पार्टी या अपने देश के हितों से प्रेरित होते हैं। यहां यह कहना समीचीन होगा कि नोबेल पुरस्कार हमेशा से यथास्थितिवादी व स्थापित तंत्र का पोषक रहा है।
ब्रिटेन, फ्रांस व अमरीका का तर्क है कि लीबिया पर उनका संयुक्त हमला इसलिए उचित है क्योंकि अरब लीग ने भी संयुक्त राष्ट्र संघ के उस प्रस्ताव का अनुमोदन किया था, जिसमें गद्दाफी द्वारा नागरिकों पर की जा रही बमबारी बंद करने की बात कही गई थी। यह तर्क केवल तकनीकी रूप से सही है क्योंकि लीबिया पर पश्चिमी देशों के त्वरित व विनाशकारी सैनिक आक्रमण के बाद, अरब लीग ने अपने रूख में परिवर्तन कर लिया था।
वैसे भी, अरब लीग के समर्थन को बहुत महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। अरब लीग के अधिकाँश सदस्य देश, अमरीका के पिट्ठू तानाशाहों व बादशाहों द्वारा शासित हैं। इन देशों के शासकों को हमेशा अपनी जनता के विद्रोह का डर सताता रहता है और किसी भी संभावित विद्रोह को कुचलने के लिए उन्हें अमरीका के समर्थन की दरकार रहती है। अतः अरब देशों की आम जनता की निगाहों में उनके देशों द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव का समर्थन किए जाने की न तो कोई वैधता है व न ही महत्व।
यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि इन पंक्तियों के लेखक को गद्दाफी से कोई सहानुभूति या प्रेम नहीं है। इस क्रूर तानाशाह ने पिछले 41 वर्षों से लीबिया को अपने खूनी पंजों में जकड़ रखा है। गद्दाफी के शासन का जितनी जल्दी अंत हो, उतना ही बेहतर होगा। लीबिया की जनता ने उसके खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजा दिया है और अब चाहे वह उन पर गोलियाँ बरसाए या बम गिराए, जनता का गुस्सा खत्म होने वाला नहीं है। परंतु समस्या यह है कि पश्चिमी देशों के हस्तक्षेप से गद्दाफी को अपनी सत्ता बचाने का एक बहाना मिल गया है।
अरब के निवासियों के मन में यह संदेह उपजना स्वभाविक है कि कहीं यह हमला लीबिया के कच्चे तेल के भंडार पर कब्जा करने का पश्चिमी षड़यंत्र तो नहीं है? पश्चिमी देशों के हस्तक्षेप ने गद्दाफी को सहानुभूति का पात्र बना दिया है। अब गद्दाफी के समर्थक अधिक जोशो-खरोश से लडे़ंगे। वास्तविकता तो यह है कि पश्चिमी देश, लीबिया के मामले में अपनी टांग फँसाने के लिए काफी उत्सुक और बहुत जल्दी में थे। उनके लिए यह अंदाजा लगाना मुश्किल हो रहा था कि ऊँट किस करवट बैठेगा। लीबिया के ताजे विद्रोह का नेतृत्व प्रजातांत्रिक ताकतों के हाथों में है और पश्चिमी देशों को डर था कि लीबिया में प्रजातंत्र के आगाज से वहाँ के तेल भंडारों तक उनकी पहुँच खत्म हो जाएगी।
क्यूबन नेता फिडेल कास्त्रो ने अपने एक आंखे खोल देने वाले लेख में बताया है कि लीबिया पर अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए साम्राज्यवादी ताकतें इतनी लालयित क्यों हैं। कास्त्रो के अनुसार, साम्राज्यवादी देशों की नजरें, दरअसल, लीबिया के अकूत तेल भंडारों पर गड़ी हैं। वे लिखते हैं, “लीबिया के 95 प्रतिषत क्षेत्रफल में रेगिस्तान है। तक्नालाजी के उपयोग से इस विषाल रेगिस्तान के नीचे दबे उच्च दर्जे के कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस के विशाल भंडारों तक मानव की पहुँच बन गई है। लीबिया का वर्तमान तेल उत्पादन 800 करोड़ बैरल प्रतिदिन है। इस तेल की बिक्री से लीबिया को करोड़ों डालर की आमदनी होती है और इस धन ने उस देष की तस्वीर ही बदल दी है। वहाँ के रहवासियों की औसत आयु 75 वर्ष है। लीबिया की प्रति व्यक्ति आय, अफ्रीका के सभी देशों में सबसे ज्यादा है। उसके सूखे रेगिस्तान के नीचे पीने योग्य भूजल का खजाना है। यह पानी इतना है कि क्यूबा के कुल क्षेत्रफल से तिगुने क्षेत्र को ढंक सकता है। इस पानी को पाईप लाईनों का जाल बिछाकर देश के कोने-कोने तक पहुंचा दिया गया है“।
इस तरह, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस पर निर्भर, अमरीका व अन्य पश्चिमी देशों के लिए लीबिया के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा बनाए रखना अत्यंत महत्वपूर्ण है। वे इन संसाधनों पर अपना वर्चस्व किसी हालत में खत्म नहीं होने देना चाहते। आष्चर्य नहीं कि साम्राज्यवादी देशों ने नागरिकों की जान बचाने के नाम पर लीबिया पर हमला करने में जरा भी देरी नहीं की। इस हमले में अब तक सैकड़ों नागरिक मारे जा चुके हैं और यह हमला कब तक जारी रहेगा, यह कोई नहीं जानता।
गद्दाफी आसानी से हार नहीं मानेगा। उसने स्पष्ट कर दिया है कि वह लंबी लड़ाई के लिए तैयार है। परंतु ईराक व अफगानिस्तान के कटु अनुभव के बाद, इंग्लैंड, फ्रांस व अमरीका की जनता अपने-अपने देशों के किसी लंबी लड़ाई में फँसने का षायद ही समर्थन करेंगी। इसके अलावा, जनता के सामने यह असलियत आने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा कि इस हमले का मकसद नागरिकों की जान बचाना नहीं वरन् लीबिया के प्राकृतिक संसाधनों पर काबिज होना है। स्पष्टतः, पश्चिमी देशों के लिए लड़ाई को लंबे समय तक खींचना बहुत मुष्किल होगा।
ईराक और अफगानिस्तान की यादें अभी लोगों के मन में ताजा हैं और पश्चिमी देशों की सरकारों को उनके नागरिकों का समर्थन मिलते रहना संदिग्ध है। रूस, चीन, भारत और ब्राजील ने लीबिया के आंतरिक मामलों में सैनिक हस्तक्षेप को अपना समर्थन देने से इंकार कर दिया है। जर्मनी ने भी इस हमले में हिस्सेदारी नहीं की। सारी दुनिया को अब यह समझ में आ गया है कि किसी न किसी आदर्शवादी लक्ष्य की प्राप्ति के नाम पर, अमरीका केवल उन देशों पर हमला करता है जहाँ या तो तेल हो या जहाँ इजराईल के हित प्रभावित हो रहे हों। इन दोनों में से कोई भी एक, अमरीका के लिए सैन्य आक्रमण करने का पर्याप्त कारण रहा है।
अब इन कारणों में एक कारण और जुड़ गया है। और वह है किसी भी देश में चल रहा ऐसा शांतिपूर्ण आंदोलन, जिसका लक्ष्य तानाशाह या बादशाह को अपदस्थ कर, प्रजातंत्र की स्थापना करना हो। इन आंदोलनों ने प्रो. सैम्युल हटिंगटन के “सभ्यताओं के टकराव“ के सिद्धांत की हवा निकाल दी है और इस मान्यता को गलत सिद्ध कर दिया है कि इस्लाम व प्रजातंत्र में कभी सामंजस्य नहीं हो सकता। सभ्यताओं के टकराव के सिद्धांत का प्रतिपादन इसलिए किया गया था ताकि साम्यवाद का स्थान लेने के लिए एक नए शत्रु-इस्लाम-को खड़ा किया जा सके और अरब देशों के तानाशाहों और बादशाहों को समर्थन देने की अमरीकी नीति को औचित्यपूर्ण ठहराया जा सके। ये दोनों अमरीका के हित में हैं और उसकी विदेष नीति के महत्वपूर्ण अंग हैं।
ओसामा के आतंकवाद-जिसे जाहिर कारणों से इस्लामिक आतंक की संज्ञा दी गई-का इस्लाम व मुसलमानों की छवि बिगाड़ने में जमकर इस्तेमाल किया गया। अगर अरब देशों में तानाशाहों का शांतिपूर्ण विरोध जारी रहता है तो इससे यह मान्यता गलत सिद्ध हो जावेगी कि इस्लाम, आतंकी धर्म है व यह कि इस्लाम का प्रजातंत्र से कोई लेना-देना नहीं है। अगर ऐसा हो जाता है तो अमरीका के लिए झूठे बहाने बनाकर तेल उत्पादक क्षेत्रों में सैन्य हस्तक्षेप करना मुश्किल हो जावेगा और इस क्षेत्र में अपना वर्चस्व बनाए रखना असंभव।
लीबिया में अमरीकी हस्तक्षेप के कुछ अन्य कारण भी हैं। अरब तानाशाह अपनी रक्षा के लिए अमरीका की ओर ताकते रहे हैं। उन्हें अपना राज चलाते रहने के लिए ओसामा के नेतृत्व वाले आतंकवाद की आवश्यकता है। अरब देषों में उभरे शांतिपूर्ण आंदोलनों ने न केवल वहां के तानाशाहों की नींद हराम कर दी है वरन् ओसामा-छाप आतंकवाद की रीढ़ तोड़ दी है। यह बात गलत सिद्ध हो गई है कि केवल हिंसा व आतंक के रास्ते ही परिवर्तन लाया जा सकता है।
अरब देशों के करोड़ों नागरिकों को उम्मीद है कि उनके देषों में बरसों से छाया तानाशाही का अंधेरा दूर होगा और प्रजातंत्र का सूरज उगेगा। परंतु पश्चिमी देश, अरब नागरिकों को गलत और ओसामा को सही सिद्ध करना चाहते हैं।
सच तो यह है कि अमरीका को ओसामा की जरूरत है और ओसामा को अमरीका की। दोनों एक-दूसरे के खिलाफ घृणा फैलाकर व हिंसा कर अपना-अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं।

-डाॅ। असगर अली इंजीनियर

(लेखक मुंबई स्थित सेंटर फार स्टडी आफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म के संयोजक हैं, जाने-माने इस्लामिक विद्वान हैं और कई दशकों से साम्प्रदायिकता व संकीर्णता के खिलाफ संघर्ष करते रहे हैं।)

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