अन्ना हजारे का अनशन खत्म हो चुका है। आजादी की तथाकथित दूसरी लड़ाई के दावों के बीच गांधीवादी हजारे और उनके साथी अब सरकार को लोकपाल विधेयक का ड्राफ्ट तैयार करने के लिए 15 अगस्त तक का अल्टिमेटम देकर जंतर मंतर से हट गए हैं और मीडिया, खासकर टीवी चैनलो के जरिए ही सही देश के उभरते मध्यमवर्ग का एक हिस्सा भ्रष्टाचार के खिलाफ इस ऐतिहासिक जीत की खुशी में होली और दीवाली एक साथ मनाने में तल्लीन है। पर भ्रष्टाचार के खिलाफ मोमबत्ती जलाने, सिर पर गांधी टोपी पहनकर चंद घंटों के लिए उपवास पर बैठ जाने के बाद क्या अब भ्रष्टाचार इस देश से खत्म हो जाएगा? या फिर लोकपाल गठित हो जाना ही भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे बड़ी जीत होगी?
एक बड़े लोकतांत्रिक देश के जिम्मेदार नागरिक की हैसियत से हमें यह अवश्य देखना चाहिए कि आखिर हजारे के पीछे कौन सी ताकतें हैं? जिस आंदोलन को मीडिया ने जन आंदोलन का नाम दे डाला, यहां तक कि कुछ चैनलो के कुछ नामचीन संपादकों को दिल्ली के इंडिया गेट और जंतर मंतर पर जुटे लोग मिस्र के तहरीर चौक की याद दिलाने लगे, वो क्या सच में इस देश की जनता अथवा पूरे नागरिक समाज का वास्तविक प्रतिनिधित्व करता है?
मीडिया के जरिए ही सही हजारे और उनके साथी ऐसी पवित्र गाय सरीखे हो गए हैं, जिनकी आलोचना करना ही मानों पाप हो गया है। आंदोलन के औचित्य, तरीके, उसके पीछे के लोग और जन लोकपाल बिल के मसौदे पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है। देश में एक मजबूत लोकपाल व्यवस्था की स्थापना हो, यह मांग पुरानी है। राजनेताओं और अफसरों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों की तुरंत जांच और प्रभावी कार्रवाई होना जरूरी है लेकिन क्या जन लोकपाल ही समस्याओं का जवाब है?
क्रिकेट वर्ल्ड कप के जुनून में डूबे देश और टीम इंडिया के करिश्माई प्रदर्शन के उल्लास से सराबोर आम भारतीयों के लिए चंद दिनों पहले तक न तो अन्ना हजारे कोई खबर थे और न लोकपाल व्यवस्था के होने या न होने का सवाल उन्हें झकझोर रहा था। क्रिकेट की दीवानगी के बीच बाजार देख रहे टीवी चैनलो, उनके मालिकों और संपादकों को भारत-पाकिस्तान के सेमीफाइनल मुकाबले को जंग के मैदान में बदलने से फुर्सत नहीं थी। हजारे के आंदोलन को एक नए युग की शुरुआत बता रही मीडिया की जमात के बीच भी अधिकतर को न तो अन्ना की सुध थी और न लोकपाल, जन लोकपाल की पेचीदगियों की समझ और न उसे समझने की फुर्सत।
लेकिन अचानक ही मानों नवक्रांति का बिगुल बज उठा। 23 साल बाद भारत के क्रिकेट विश्वकप जीतने पर स्पेशल बुलेटिनों में बहस कर रहे टीवी एंकर और उनके संपादक अचानक हजारेमय हो गए। ठंडे बस्ते में धूल खा रहा लोकपाल बिल का मसला जिंदा हो गया। अन्ना हजारे के पीछे-पीछे समाचार चैनलो की ओबी वैन और उनके नामचीन चेहरे जंतर मंतर दौड़ पड़े। और शुरू हो गया मीडिया के जरिए आजादी की दूसरी लड़ाई का माहौल बनना। टीवी की व्यापक पहुंच ने दो दिन बीतते बीतते अन्ना और उनके जनलोकपाल बिल की मांग को भारत के मध्यमवर्गीय घरों तक पहुंचा दिया। बड़े ही सुनियोजित तरीके से और समाचार पत्रों और चौनलों के जरिए आम जनता से आजादी की इस दूसरी लड़ाई में कूद पड़ने का आह्वान होने लगा। अपने अराजनैतिक सरोकारों और एक सिरे से राजनीतिज्ञों को चोर करार देने वाले मध्य और उच्च मध्यवर्ग के तमाम रहनुमा सुबह से लेकर रात तक टीवी के स्टूडियों में बैठकर अन्ना के अनशन को आजाद भारत का सबसे बड़ा जनांदोलन बताने लगे। फिल्म और कला जगत के कथित बुद्विजीवियों की एक जमात तो जंतर मंतर पहुंचकर सीधे नेताओं और राजनीतिक दलों को अलविदा बोलने के लिए कहने लगी जोकि लोकतंत्र के लिए एक निहायत अवांछित कार्यवाही के अलावा कुछ नहीं था।
खैर इन बातों से अलग हजारे समर्थित जनलोकपाल बिल, लोकपाल के रूप में देश के सीईओ की नियुक्ति करने जैसा होगा। संसदीय व्यवस्था वाले देश में, जहां प्रधानमंत्री का पद एक संवैधानिक संस्था है और हमारी संसद देश की सबसे बड़ी नीति निर्धारक, वहां प्रधानमंत्री से लेकर मंत्री और संसद के सदस्य के साथ-साथ न्यायपालिका तक के खिलाफ जनता के किसी भी व्यक्ति द्वारा शिकायत किए जाने पर लोकपाल द्वारा उसे सीधे संज्ञान में लेकर जांच करने, मुकदमा चलाने और यहां तक की सजा भी सुना सकने का अधिकार क्या संवैधानिक संस्थाओं तथा संविधान द्वारा स्थापित व्यवस्था को छिन्न-भिन्न नहीं करेगा? राजनीतिक भ्रष्टाचार से निपटने का मतलब यह कतई नहीं होना चाहिए कि लोकतंत्र की नींव को ही कमजोर कर दें। सर्वाेच्च पदों और संसद की गरिमा भी बची रहे और संसद तथा सरकार में बैठे भ्रष्टाचारियों पर कार्रवाई भी हो, ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए।
यही नहीं जनलोकपाल बिल जहां एक तरफ लोकपाल को असीमित अधिकार देने की वकालत करता है, वह लोकपाल के ही खिलाफ शिकायत होने पर जांच के तरीकों पर स्पष्ट नहीं है। या यह कहें कि जिस देश में न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के बीच अधिकारों का बंटवारा चेक ऐंड बैलेंस की परंपरा के आधार पर है, वहां लोकपाल तीनों ही इकाइयों के वाचडाग के रूप में तो होगा पर उस संस्था के भीतर किसी संभावित भ्रष्टाचार से कैसे निपटा जाएगा?
यह साफ है कि लोकपाल बिल का ड्राफ्ट तैयार करने के लिए जिस कमेटी का गठन हुआ है, वह देश की जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करती। जिन पांच लोगों को सिविल सोसाइटी के नुंमाइंदे के तौर पर कमेटी में रखा गया है, उनमें अन्ना हजारे के अलावा अन्य सभी अन्ना समर्थित हैं या यूं कहें कि अन्ना के लोग हैं, वो लोग हैं जो जनलोकपाल के पैरोकार हैं। यह इसलिए भी खतरनाक है क्योंकि देश के इतिहास में पहली बार बनी सरकार और स्वयंभू नागरिक समाज के मिले जुले प्रतिनिधियों वाली ड्राफ्टिंग समिति दरअसल कहीं न कहीं एक ऐसा भाव पैदा करती है कि मानों सरकार और एक व्यक्ति के बीच समानता का भाव है। आज अन्ना हजारे हैं, कल किसी और मांग को लेकर किसी और चेहरे के पीछे वैसा ही उभार खड़ा करने की कोशिश नहीं होगी, इसकी क्या गारंटी है?
जाहिर है हमें यह समझना होगा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों में बहुत गुस्सा है और होना भी चाहिए लेकिन समस्या का स्थाई हल राजनीतिक सुधारों में है। देश की राजनीति की दशा और दिशा बदले जाने की जरूरत है, जनता से जुड़े आर्थिक सवालों, जमीन और रोजगार के सवालों पर राजनीतिक संघर्ष की जरूरत है। ऐसे में जनता के प्रति राजनीतिक दलों और नेताओं की जवाबदेही बढ़ेगी। जाति और मजहब के आधार पर चुनकर आने वाली सरकारों से आप यह उम्मीद नहीं कर सकते। इसलिए खाली एक लोकपाल विधेयक आ जाने से ही कोई बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन हो जाएगा, ऐसा नहीं लगता। भ्रष्टाचार के खिलाफ अराजनैतिक नहीं राजनैतिक संघर्ष छेड़ना पड़ेगा। प्रगतिशील सोच रखने वाले राजनीतिक दलों के लिए अन्ना का यह अनशन अपने तमाम विरोधाभासों के बीच इसलिए आंख खोलने वाला होना चाहिए कि उन्हें जनता के गुस्से को समझना होगा। अगर सही राजनीतिक नेतृत्व नहीं मिलेगा तो अन्ना जैसे अराजनैतिक दिखने वाले आंदोलन फिर होंगे, और अच्छे नेतृत्व के अभाव में जनता फिर से भ्रमित होगी।
– प्रबोध
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