Feeds:
पोस्ट
टिप्पणियाँ

Archive for दिसम्बर 22nd, 2013

तथ्य सर्वेक्षण
पृष्ठभूमि

पश्चिमी उ0प्र0 के जाट लैण्ड का दिल कहे जाने वाले मुज़फ़्फ़रनगर-शामली गंगा जमुना के दोआब में बसे उपजाऊ भूमि वाले इस क्षेत्र में 70 प्रतिशत किसान एक हेक्टेयर से कम जोत के हैं। मुज़फ़्फ़रनगर से किसी तरफ़ निकलिए हरियाली ही हरियाली दिखाई देगी। गन्ना यहाँ की लाइफ़ लाइन है। इस क्षेत्र में जहाँ पगड़ी और मूँछ को प्रतिष्ठा से जोड़ा जाता है वहीं अच्छी फ़सल और तंदुरुस्त पशु भी स्टेटस सिम्बल माने जाते हैं।
यह वही इलाका है जहाँ हिन्दू और मुस्लिम हर छोटे और बड़े फ़ैसले में साथ बैठ कर दुःख-दर्द साथ बाँटते थे। चैधरी चरण सिहं ने जाट-मुस्लिम के इस समीकरण को राजनैतिक प्रयोगशाला में मज़बूत बनाया। जाट और मुस्लिम एकता का यह एकमात्र उदाहरण है। वर्ष 2001 की आबादी के मुताबिक मुज़फ़्फ़रनगर-शामली में मुस्लिमों की आबादी 38.1 प्रतिषत, 60.1 प्रतिशत हिन्दू और बाक़ी सभी अन्य धर्म के लोगों की थीं। मुज़फ़्फ़रनगर में 540 और शामली में 218 ग्राम पंचायतें हैं। मुख्य रूप से जाट और मुसलमानों का दबदबा है और अब तक इसकी एकता की मिसाल दी जाती थी। यहाँ का इतिहास इस बात का साक्षी है कि पिछले साठ सालों में मुसलमानों और जाटों के बीच ऐसी कोई घटना नहीं हुई जिससे उनके बीच नफ़रत की दीवार खड़ी हो जाए। यहाँ तक कि अयोध्या विवाद के दौरान या पश्चिमी उ0प्र0 में हुए अन्य दंगों के दौरान भी। शायद इसी कारण चौधरी चरण सिंह ‘किसान मुसलमान’ का नारा देते थे। किसान यूनियन के झण्डे तले यहाँ के लोगों ने देशव्यापी लड़ाइयाँ लड़ी हैं। भारतीय किसान यूनियन के जनक चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत की अगुआई में होने वाले हर आन्दोलन जिसमें ’नईमा आन्दोलन’ ’मेरठ आन्दोलन’ आदि में ’एकता’ का सन्देश देने के लिए ’हर-हर महादेव’ और ’नारा-ए-तकबीर अल्लाहु अकबर’ की सदा गूँजती रही। वे कभी यह नहीं देखते थे कि ज़ुल्म सहने वाला हिन्दू है या मुालमान। वे सिर्फ़ हक़ के लिए लड़ते थे। इन सभी आन्दोलनों की अध्यक्षता ग़ुलाम मोहम्मद जौला ने की थी। उनके चले जाने के बाद यह सिलसिला कमज़ोर पड़ गया। साम्प्रदायिक ताक़तों को जाटों और मुसलमानों का यह मेल-जोल खटक रहा था। इसलिए उन्होंने धीरे-धीरे इस मेल-जोल को सांप्रदायिकता की आग में झोंक दिया।
नंगला मंदौड़ की महापंचायत के बाद भड़की हिंसा
वास्तव में मुज़फ़्फ़रनगर में हुए सांप्रदायिक दंगे निश्चित रूप से हमारे कुछ राजनैतिक दलों की लाशों पर राजनीति करने की परम्परा और कुछ नेताओं की चुनावी लोलुपता के सिवाय कुछ नहीं। समाजवादी पार्टी और भा.ज.पा. के गठजोड़ में प्रायोजित इन दंगों ने न केवल राष्ट्रीय लोकदल और भारतीय किसान यूनियन के भविष्य पर ही सवालिया निशान लगा दिया है बल्कि जाट और मुस्लिम समुदाय के बीच सन्देह की ऐसी दीवार खड़ी कर दी है जिसका गिराया जाना दोनों समुदायों के लिए समय की नितान्त आवश्यकता है। दंगों के कारण जानमाल की हानि और गाँव के क्षेत्रों से होने वाला एक समुदाय विशोष का पलायन केवल एक क्षणिक आवेश में आकर भयाक्रान्त समुदाय का ही पलायन नहीं है बल्कि यह बड़े चौधरी के आदशोर्ं और एक किसान के तौर पर दोनों समुदायों की सामाजिक, राजनैतिक आवश्यकताओं और समस्याओं को लेकर बनी और आजतक चली आ रही भारतीय किसान यूनियन की बुनियाद से होने वाले पलायन के तौर पर भी इतिहास में दर्ज होगा।
घटना का ब्यौरा
मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले के (जानसठ) कवाल गाँव में 27 अगस्त 2013 को मोटर साइकिलों पर सवार दो समुदायों के युवकों के आपस में टकरा जाने की एक छोटी सी घटना से भड़की हिंसा में शाहनवाज़, गौरव और सचिन की हत्या के बाद से मुज़फ़्फ़रनगर, शामली समेत उसके आसपास के गाँवों में हुए साम्प्रदायिक दंगों से जहाँ आम आदमी ख़ौफ़ और दहशत के साए में जी रहा है वहीं इन दंगों से मुज़फ़्फ़रनगर, शामली, बाग़पत, मेरठ और सहारनपुर समेत आसपास के शहरों का व्यापार भी बहुत प्रभावित हुआ है। इस साम्प्रदायिक दंगे में सरकारी आँकड़ों के अनुसार 50 से 60 और ग़ैर सरकारी आँकड़ों के अनुसार सैंकड़ों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया और गम्भीर रूप से घायलों की संख्या तो अनगिनत है।
साम्प्रदायिकता की आग में सुलगता मुज़फ़्फ़रनगर
मुज़फ़्फ़रनगर कवाल घटना पर 7 सितम्बर 2013 को नंगला मंदौड़ में हुई महापंचायत में शामिल होने जा रही बस में सवार लोगों ने अल्पसंख्यक समुदाय के एक आदमी को पीटपीट कर मार दिए जाने के बाद हालात क़ाबू से बाहर हो गए और दोनों समुदायों के लोग आमनेसामने आ गए और जमकर पथराव, लूटपाट, आगज़नी और फ़ायरिंग हुई जिसमें कई लोगों की मृत्यु हुई। मरने वालों में, एक टी.वी. चैनल का रिपोर्टर भी शामिल है। दंगे में मुज़फ़्फ़रनगर शहर के शेर नगर, मीनाक्षी चौक, अबुपुरा, अल्मासपुरा, खादरवाला, लद्घावाला, रूड़की चुंगी, जौली गंगनहर, व मीरापुर के मुंझेड़ा आदि में जमकर हिंसा हुई। हिंसा में मुस्लिम महिलाओं के साथ अभद्रता का व्यवहार कर उनको जान से मार दिया गया और मासूम बच्चों को भी नहीं बख़्शा गया। दंगे में बहुत सी मस्जिदों और मदरसों को भी निशाना बनाया गया। जौली गंगनहर पर साम्प्रदायिकता का नंगा नाच पुलिस और पी.ए.सी. की मौजूदगी में हुआ। स्थिति को नियन्ति्रत करने के
लिए ज़िले के तीन थाना क्षेत्रों में कफ्र्यू लगा दिया गया था।
दंगे में तबाह हुए घर
उसके बाद गाँवों और कस्बों में असामाजिक तत्वों ने कोहराम मचा दिया था खेतों में घुसकर अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों का नरसंहार किया जहाँ रोज़ाना लाश्ों बरामद हुईं। लेकिन प्रशासन ने इस ख़बर को बिल्कुल ही छुपा दिया। पुलिस और प्रशासन स्थिति पर नियन्त्रण नहीं कर सके। इसलिए वहाँ पर सेना को तैनात कर दिया गया था जहाँ पर बहुत अधिक संख्या में लाश्ों पड़ी हुई थीं। दंगों के नतीजे में मुज़फफ़रनगर के आसपास के ज़िलों शामली, बाग़पत, मेरठ और सहारनपुर में सार्वजनिक स्तर पर 50 से 60 लोगों की मृत्यु हुई और 60 से ज़्यादा लोग गम्भीर रूप से घायल हुए। हालाँकि मरने वालों की संख्या सैंकड़ों में है और घायलों की तो गिनती ही नहीं की जा सकती। ज़िले के शहरी और गाँव क्षेत्रों में सलामती दस्तों की लगभग 50 कम्पनियाँ तैनात की गई थीं और सेना, अर्द्धसैनिक बल और सिविल पुलिस का फ़्लैग मार्च जारी रहा और आसपास के ज़िलों में भी कड़ी निगरानी रखी गई क्योंकि मुज़फ़्फ़रनगर के दंगों के बाद इन क्षेत्रों में भी कशीदगी पैदा की गई थी। इससे निपटने के लिए मेरठ रेंज के चार ज़िलों में अधिकारियों की फ़ौज पड़ी रही और पैरा मिलिट्री के अलावा सेना भी स्थिति पर नियन्त्रण करने में नाकाम रही।
दंगे जलते हुए घर और वाहन
इस भयानक दंगें में हजा़रों लोग अपने आप को असुरक्षित समझते हुए अपने घरों को छोड़ने पर मजबूर हुए और उन्होंने आसपास के गाँवों में शरण ली। चिन्ताजनक बात यह है कि दंगें को नियन्ति्रत करने में पुलिस और प्रशासन ने ज़बरदस्त लापरवाही का सुबूत दिया। अगर शासन और प्रशासन पहले से ही कोशिश करता कि दंगा न हो तो फिर ये दंगा न फूटता। स्थिति तो 12 दिन पूर्व ही तनाव पूर्ण थी और दफा 144 भी लागू थी। फिर भी शरारती तत्वों को महापंचायत करने से नहीं रोका गया जिसमें बड़ॣ संख्या में भा.ज.पा. के स्थानीय नेताओं समेत बहुसंख्यक समुदाय के लगभग 50 हज़ार लोगों ने ब़चढ़ कर हिस्सा लिया और दंगे के लिए वातावरण तैयार किया। महापंचायत में मुसलमानों को मारने की क़समें खाई गईं। उनके खिलाफ़ नारे लगाए गए, ’’मुसलमानों का एक ही थान, पाकिस्तान या कब्रिस्तान ’’। महापंचायत में बहुसंख्यक समुदाय के लोग नंगी तलवारें और अन्य हथियार लेकर शामिल हुए और फ़िर दंगा भड़काना शुरू कर दिया। इसके बाद भी प्रशासन ने दंगे को नियन्ति्रत करने में इस क़दर सुस्ती बरती कि दंगाई हमेशा की तरह पुलिस की मौजूदगी में आगज़नी, लूटपाट और क़त्लओ-गा़रत करते रहे और अल्पसंख्यक समुदाय के लोग मरते रहे। पुलिस ने, जिसका काम ज़ालिम को ज़ुल्म से रोकना है, उसने जु़ल्म को ब़ावा देने के लिए दंगाइयों के लिए जैसे इंधन ही उपलब्ध करा दिया हो।
सितम्बर में नंगला मंदौेड़ की महापंचायत
इन गाँवों, कस्बों में हैं शरणार्थी:
जौला, शफ़ीपुर पट्टी, लोई, जोगी खेड़ा, मंडवाला, बसींकला, शिकारपुर, शाहपुर, हबीबपुर, रसूलपुर दभेड़ी, हुसैनपुर कलां, बु़ाना, जसोई, साँझक, खतौली, तावली, बघरा, सौंटा रसूलपुर, शामली, ग़ी पुख़्ता, कैराना, मलकपुर, नूरखेड़ा, ग़ी दौलत, काँधला, काँधला देहात गँगेरु, आल्दी, थानाभवन, जलालाबाद, लोनी, खतौली आदि।
काँधला समेत ग़ी दौलत और कैराना में 18 हज़ार, गँगेरु आल्दी में करीब 7 हज़ार, शामली में 14 हज़ार से ज़्यादा, थाना भवन में 116 परिवार, जलालाबाद में 200 और लोनी के मदरसे में 2833 लोग पनाह लिए हुए हैं। इनमें गाँव लिसा़, लाँक, बहावड़ी, हसनपुर, खरड़, फ़ुगाना, सिंभालका, कुटबा कुटबी, मोहम्मदपुर रायसिंह, और बाग़पत के गाँव लूंब, तुगाना, हेवा, किरहल, बू़पुर, रमाला आदि गाँव के क़रीब ाई हज़ार लोग पनाह लिए हुए हैं। शरणार्थी शिविरों में यह लोग सरकारी राहत सामग्री का इन्तज़ार कर रहे हैं। यहाँ ग्रामीण आसपास के शहरों और कस्बों से राशन, कपड़े, कम्बल और ज़रूरत का लगभग सभी सामान जुटाकर इन सभी लोगों के लिए भोजनपानी और सुरक्षित रहने का इन्तज़ाम कर रहे हैं। रात में महिलाएँ सोती हैं तो पुरुष पहरा देते हैं। लोग अपने गाँव वापस आने से डरते हैं। लेकिन न तो उ0प्र0 सरकार और न ही केन्द्र सरकार से अब तक कोई मदद उन तक पहुँच पाई है।
पलायन करते हुए लोग व दंगे में घायल और भूख से बिलखते मासूम
प्रत्यक्षदिशर्यों के अनुसार :
मुज़फ़्फ़रनगर दंगों ने हज़ारो लोगों को शरणार्थी बना दिया है। राहत कैम्पों में पड़े लोगों की दुनिया चंद घंटों मे बदल गई। लगभग 7080 हज़ार लोग साम्प्रदायिक हिंसा में बेघर हो गए और अब शरणार्थी शिविरों में अपना जीवन गुजार रहे हैं। हमारी पाँच सदस्यीय टीम ने शरणार्थी कैम्पों का दौरा कर कैम्पों में रह रहे पुरुषों और महिलाओं से बात की।
थान, पाकिस्तान या कब्रिस्तान ’’। महापंचायत में बहुसंख्यक समुदाय के लोग नंगी तलवारें और अन्य हथियार लेकर शामिल हुए और फ़िर दंगा भड़काना शुरू कर दिया। इसके बाद भी प्रशासन ने दंगे को नियन्ति्रत करने में इस क़दर सुस्ती बरती कि दंगाई हमेशा की तरह पुलिस की मौजूदगी में आगज़नी, लूटपाट और क़त्लओ-गा़रत करते रहे और अल्पसंख्यक समुदाय के लोग मरते रहे। पुलिस ने, जिसका काम ज़ालिम को ज़ुल्म से रोकना है, उसने जु़ल्म को ब़ावा देने के लिए दंगाइयों के लिए जैसे इंधन ही उपलब्ध करा दिया हो।
सितम्बर में नंगला मंदौड़ की महापंचायत
इन गाँवों, कस्बों में हैं शरणार्थी:
जौला, शफ़ीपुर पट्टी, लोई, जोगी खेड़ा, मंडवाला, बसींकला, शिकारपुर, शाहपुर, हबीबपुर, रसूलपुर दभेड़ी, हुसैनपुर कलां, बु़ाना, जसोई, साँझक, खतौली, तावली, बघरा, सौंटा रसूलपुर, शामली, ग़ी पुख़्ता, कैराना, मलकपुर, नूरखेड़ा, ग़ी दौलत, काँधला, काँधला देहात गँगेरु, आल्दी, थानाभवन, जलालाबाद, लोनी, खतौली आदि।
काँधला समेत ग़ी दौलत और कैराना में 18 हज़ार, गँगेरु आल्दी में करीब 7 हज़ार, शामली में 14 हज़ार से ज़्यादा, थाना भवन में 116 परिवार, जलालाबाद में 200 और लोनी के मदरसे में 2833 लोग पनाह लिए हुए हैं। इनमें गाँव लिसा़, लाँक, बहावड़ी, हसनपुर, खरड़, फ़ुगाना, सिंभालका, कुटबा कुटबी, मोहम्मदपुर रायसिंह, और बाग़पत के गाँव लूंब, तुगाना, हेवा, किरहल, बू़पुर, रमाला आदि गाँव के क़रीब ाई हज़ार लोग पनाह लिए हुए हैं। शरणार्थी शिविरों में यह लोग सरकारी राहत सामग्री का इन्तज़ार कर रहे हैं। यहाँ ग्रामीण आसपास के शहरों और कस्बों से राशन, कपड़े, कम्बल और ज़रूरत का लगभग सभी सामान जुटाकर इन सभी लोगों के लिए भोजनपानी और सुरक्षित रहने का इन्तज़ाम कर रहे हैं। रात में महिलाएँ सोती हैं तो पुरुष पहरा देते हैं। लोग अपने गाँव वापस आने से डरते हैं। लेकिन न तो उ0प्र0 सरकार और न ही केन्द्र सरकार से अब तक कोई मदद उन तक पहुँच पाई है।
पलायन करते हुए लोग व दंगे में घायल और भूख से बिलखते मासूम
प्रत्यक्षदिशर्यों के अनुसार :
मुज़फ़्फ़रनगर दंगों ने हज़ारो लोगों को शरणार्थी बना दिया है। राहत कैम्पों में पड़े लोगों की दुनिया चंद घंटों मे बदल गई। लगभग 7080 हज़ार लोग साम्प्रदायिक हिंसा में बेघर हो गए और अब शरणार्थी शिविरों में अपना जीवन गुजार रहे हैं।
हमारी पाँच सदस्यीय टीम ने शरणार्थी कैम्पों का दौरा कर कैम्पों में रह रहे पुरुषों और महिलाओं से बात की
होग़ी
दौलत मदरसा कैम्प
काँधला से 4 कि0मी0 आगे ग़ी दौलत गाँव कैम्प में 800 शरणार्थी रह रहे हैं। जहाँ पर मदरसे के प्रबन्धक, स्थानीय लोग और आसपास के क्षेत्रों के लोग उनके खानेपीने और सभी ज़रूरत के सामान का प्रबन्ध कर रहे हैं। कैम्प के प्रबन्धक ने हमें बताया कि कुछ दिन पहले सरकार की ओर से जो राशन आया था वह ऐसा था कि शायद उस राशन को जानवर भी न खाएँ। शरणार्थियों ने अपने घर में वापस लौटने की बात पर कहा कि वह वापस अपने घर कैसे जाएँ जब उनके घर जला दिए गए हैं।
प्रबन्धन कमेटी : मौलाना कामिल,
सबसे पहले हमारी बात गाँव लिसा़ निवासी इकराम से हुई उसके ताऊ और ताई दोनों की काटकर हत्या की गई और बाद में उनकी लाशों को और घर को उनकी नज़रों के सामने जला दिया गया। ख़ौफ की वजह से जंगल के रास्ते इकराम अपने परिवार की महिलाओं और बच्चो समेत ग़ी दौलत मदरसे में पहुँचे।
गाँव लिसा़ के ही दूसरे व्यक्ति मो0 शमशाद ने हमें बताया कि 5 सितम्बर की पंचायत लिसा़ में आयोजित की गई थी यहीं से इस पंचायत की भीड़ को देखते हुए 7 सितम्बर नंगला मंदौड़ पंचायत का ऐलान भी किया गया। 7 तारीख़ को शाम लने के बाद व्यक्तियों से लदी एक ट्राली नगला मंदौड़ से हसनपुर पहुँची, बहुसंख्यक समुदाय के अन्य व्यक्तियों को अपने साथ लेकर उन लोगों ने हथियारों और तमन्चों के साथ अराजकता का नंगा नाच करते हुए मुस्लिम समुदाय के लोगों को चुनचुन कर निशाना बनाना शुरू किया। सबसे पहले उन्होंने नजरू जुलाहा और उसकी पत्नी का गला काटकर उनके घर में आग लगा दी। इसके बाद बहुसंख्यक समुदाय का एक लड़का बबलू अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के पास गया और उसने लोगों को जानकारी दी कि बहुसंख्यक समुदाय के लोगों की मीटिंग चल रही है और गाँव के प्रधान ने घोषणा की है कि एकएक मुसलमान को हम काट देंगे और जला देंगे। बबलू (जाट समुदाय का लड़का) ने अपनी कार से कुछ लोगों को सुरक्षित निकाला, थोड़ी ही देर में नसरुल जुलाहे के घर में दंगाई दाखिल हुए उसका तलवारोंगड़ासों से गला काटकर उसके घर में आग लगा दी। इसके बाद सुक्खन धोबी, अक्लू धोबी, नब्बू लुहार, ज़रीफ़न, सिराजुल और निकट ही यामीन की पत्नी को भी काटकर जला दिया गया और करमू और नब्बू की दो नवासियों को दंगाई उठा कर ले गए।
शमशाद ने बताया कि, 3050 की अल्पसंख्यक आबादी वाले लिसा़ गाँव में शमशाद और इकराम की जानकारी के मुताबिक उनकी नज़रों के सामने लगभग 12 पुरुषों और महिलाओं को काटा और जलाया गया। घरों से सभी सामान और पशु उनसे छीनकर उनके घरों को आग लगा दी। सिर्फ अपनी जान बचाकर लगभग 350 लोग काँधला की ओर भाग गए।इसके बाद ज़िला बाग़पत के वज़ीरपुर गाँव के नूर हसन ने हमें बताया क 8 सितम्बर 2013 को इशा की नमाज़ के समय दंगाइयों ने नमाज़ियों से भरी हुई एक मस्जिद पर अंधाधुंध फ़ायरिंग करके बड़ी संख्या में नमाज़ियों को घायल कर दिया, एक 7 साल के बच्चे समेत 4 लोगों की हत्या की गई और इसके अलावा मस्जिद में तोड़फोड़ और आगज़नी भी की गई। जब नमाज़ी अपनों की लाशों को उठा कर अपने घर ले गए तो पुलिस का भारी अम्ला उनके घरों पर गया और उनसे कहा कि इन चारों लोगों को अभी दफनाओ। लोगों ने उनका विरोध करते हुए कहा कि अभी इनके कफ़न और ग़ुस्ल का इन्तेज़ाम नहीं है और अभी किसी और को मारना है तो अभी मार दो। इस पर पुलिस ने उन लोगों को डराया, धमकाया और उनको जान से मारने तक की धमकी दी, और अर्द्धरात्री को उन चारों लाशों को एक ही कब्र में दफ़नाया गया।
ईदगाह कैम्प, कांधला

इस कैम्प में 80009000 दंगा पीड़ित शरणार्थी हैं। इसके अलावा मुस्तफ़ाबाद कैम्प में 500, इस्माईल कैम्प में 800 और बिजलीघर कैम्प में 2500 शरणार्थी इस समय रह रहे हैं। सभी कैम्प मुस्लिम समुदाय के द्वारा लगाए गए हैं। इन कैम्पों में न पानी की सप्लाई और न ही टायलेट का कोई प्रबन्ध सरकार की ओर से किया गया है। 810 दिन के बाद राशन सरकार की ओर से आता है, लेकिन जितनी ज़रूरत होती है उसका सिफ़र 10 प्रतिशत राशन आता है, जो कि पूरा नहीं हो पाता है। प्रबन्धन कमेटी : मौलाना अरशद, हाजी सलीम, इस्तिखार और मौलाना राशिद आदि।
ईदगाह कैम्प में हमारी बात गाँव लिसा़ निवासी यासीन से हुई। वे कहते हैं, ’’मेरी बीवी के पेट में बच्चा था, लात मारकर खत्म कर दिया गया। मुझे पता नहीं वह बच्ची थी या बच्चा। किसी के तबल मार दिया। एक नब्बे साल के वृद्ध को ज़िंदा जला दिया। उसे क्यों मारा? वह तो चार दिन रोटी न मिलती तो खुद ही मर जाता। ये क्या था कि हमारे बच्चों और बुजु़र्गो को हमारी ही नज़रों के सामने क़त्ल कर दिया गया। उनकी आवाज़ में दर्द था सब कुछ खो देने का। अपनी बात को जारी रखते हुए उन्होंने हमें बताया कि हमें सोतेसोते रात को अपने घरों को छोड़कर भागना पड़ा। बस ये ही आवाज़ आ रही थी कि ’’मार डालो’’ ’’लगा दो आग इनमें’’ ’’पकड़ो इन्हें भागने न पाएँ’’ आदि। हमारे घरों में आग लगा दी। भले ही मेरा घर बच गया हो, लेकिन वह मेरा कहाँ रह गया। मुझमें इतनी हिम्मत नहीं कि अपने घर को अपना कह दूँ। ये कह दूँ कि ये मेरा घर है, मेरा गाँव है, क्यों छीन लिया मेरा अधिकार, मेरी नागरिकता? बस इतना बता दो?’’
सिम्भालका निवासी रुख़साना ने बताया 8 सितम्बर की सुबह जाट समुदाय के लोगों ने हमारे घर पर हमला बोला। उनके हाथों में हथियार थे। उन्होंने गड़ासे से गला काटकर मेरे ससुर हमीद की हत्या कर दी। घर का सब सामान लूट लिया गया और घर को आग लगा दी। हम किसी तरह अपनी जान बचाकर वहाँ से निकले।
लिसा़ निवासी भूरो ने बताया कि 8 सितम्बर की ही सुबह 8:30 बजे दंगाइयों ने हमारे घर पर हमला किया उनके हाथों में गड़ासे, तलवारें और डीज़ल था। उन्होंने सबसे पहले मेरी सास और ससुर हकीमु को गड़ासे से काट दिया और फिर उन पर तेल डालकर आग लगा दी। सब सामान और नकदी लूट कर घर को जला दिया।
इसी क्षेत्र के एक दलित कार्यकर्ता ने हमें बताया, ’’बाबरी मस्जिद के गिराए जाने के बाद 1992 में चरम साम्प्रदायिक तनाव के समय भी राज्य स्तर पर सेना नहीबुलानी पड़ी थी। साम्प्रदायिक तनाव के समय पहली बार यहाँ सेना को बुलाना पड़ा।’’ इसका अर्थ है कि राज्य सरकार को लगता है कि स्थानीय पुलिस और पी.ए.सी. की जगह किसी और की ज़रुरत है। राज्य सरकार को स्थाीनय पुलिस और पी.ए.सी. पर भरोसा नहीं है। ताज़ा हिंसा में मारे गए और लापता लोगों के आँकड़ों की तुलना करें तो दोनो में बहुत अंतर है। आधिकारिक तौर पर 5060 मरे हैं, सैंकड़ों लापता हैं। हमें पता है कि लापता कौन लोग हैं और कहाँ हैं।
राजकुमार के अनुसार, ’’ हालिया तनाव जाटों और मुसलमानों के बीच है, दूसरे समुदाय चुपचाप बैठे हैं और तमाशा देख रहे हैं। मुसलमानों को उनकी औक़ात दिखाने की सोच हावी है। पहले यह शहरी इलाके में होता था, अब गाँव के इलाकों में हिंसा फैलने से पता चलता है कि ये भावना हमारी सोच से ज़्यादा गहरी होती जा रही है।’’
वहीं पर हमारी बात नसरुद्दीन पुत्र कमालुद्दीन से हुई उन्होंने हमें बताया कि हमारे बच्चों को मार दिया गया। घरों से सारा माल और दौलत लूट लिया गया और हमारी बेटियों के साथ शर्मनाक खेल खेला गया। जिसको बयान करना मुश्किल है। अभी तक एफ़.आई.आर. दर्ज नहीं हुई।
इसके बाद गाँव बहावड़ी निवासी शमशाद, फ़ैज़ान, अयूब, सद्दाम, कादिर और शाहबाज़ ने हमें बताया कि रविवार की रात दंगाइयों ने उनके मकानों में आग लगा दी। किसी तरह जान बचाकर जंगल के रास्ते बाहर निकले ओर वहाँ से शामली अस्पताल पहुँचे। उनके परिवार से दिलशाद नाम का एक लड़का लापता है।
जामिया अरबिया ज़ैनतुलइस्लाम, कैम्प, लोनी
8 सितम्बर 2013 से ही इस कैम्प में ज़िला बाग़पत, शामली, मुज़फ्फरनगर और अन्य 15 गाँवों से लोग आने शुरू हो गए थे। इस कैम्प में 3,500 शरणार्थी थे, लेकिन अब 800 शरणार्थी रह रहे हैं। कैम्प चन्दे से ही चल रहा है। सरकार की ओर से किसी प्रकार की कोई मदद नहीं मिल रही। सभी प्रबन्ध स्थानीय या आसपास के क्षेत्रों के लोग ही कर रहे हैं। प्रबन्धन कमैटी : बाबू कुरैशी, हाजी मुनव्वर, ज़ाकिर अली और राशिद आदि।
मुज़फ़्फ़रनगर के लाँक गाँव निवासी 18 वर्षीय रेशमा और उसके भाई राशिद ने हमें बताया कि दंगे का अंदाज़ा तो हो गया था मगर इतनी बड़ी तबाही का अंदाज़ा नहीं था। हमारे गाँव में 8 सितम्बर को दंगा हो गया था जिसमें हमारे चचा, अम्मी, अब्बा, भाई और दादा को मार दिया गया। हमारे घर पर रेशमा की शादी थी जिसका सारा सामान लूट लिया गया। किसी तरह हम अपनी छोटी बहनों को बचाकर भागने में कामयाब हुए। हमारा पूरा गाँव खंडहर बन गया है। कोई डर से गाँव वापस जाने को तैयार नहीं।
हटरोली गाँव के निवासी सलीम ने बताया कि हमारे गाँव के लोगों को बल्लम मारमार कर खत्म करके उनके घरों को जला दिया गया। गाँव की मस्जिद भी शहीद कर दी गई। मैं अपनी 80 साल की माँ को लेकर गन्ने के खेत में चला गया। सुबह होने के बाद पास के ही गाँव साठू चला गया।
मुज़फ़्फ़रनगर के थाना बु़ाना के गाँव इटावा के कयामुद्दीन ने बताया कि हमारे गाँव में मुसलमानों का कुल 150 मकान हैं। हमारे यहाँ दंगे से एक रात पहले हमारे ऊपर ईंटें बरसाई गइंर्। गाँव के जाटों की दो गाड़ियाँ भर कर महाकवाल में आयोजित महापंचायत में शामिल होने के लिए गइंर्। फ़िर जब हम फ़ज्र की नमाज़ के लिए निकलने लगे तो उन्होंने हमारी तलाशी लेनी शुरू कर दी और हमें गाँव छोड़ कर जाने से भी मना कर दिया। इसके बाद हम अपनी औरतों को लेकर चुपके से बाहर निकल गए। उन्होंने हमारे कुछ जानवर मार दिए और कुछ छीन कर ले गए। फिलहाल गाँव की क्या सूरत है इस बारे में हमें कुछ भी मालूम नहीं।
मुज़फ़्फ़रनगर के गाँव कुटबा में सबसे ज़्यादा हिंसा हुई। इसी गाँव की रहने वाली 21 वर्षीय शाकिरा ने बताया है कि कुटबा के प्रधान ने पहले तो हमें यक़ीन दिलाया कि हम यहाँ पर दंगा हरगिज नहीं होने देंगे। मगर वह खुद आ कर दंगाइयों के साथ शामिल हो गया और अचानक हमला कर दिया। हम किसी तरह अपनी जान बचाकर कर भाग निकले। मेरे दो बच्चे, जेठ, जेठानी और उनके बच्चों की अब तक कोई ख़बर नहीं है। हमारे पूरे गाँव को जला दिया गया। हमारी सारी भैसें लोग अपने कब्ज़े में ले चुके और हमारे घर की गाड़ी भी लुट चुकी। मदरसा गुलज़ारए-मोहम्मदी कैम्प, शाहपुर
इस कैम्प में लगभग 4050 शरणार्थी रह रहे हैं। सरकार की ओर से कोई सुविधा नहीं मिल रही। सब इन्तिज़ाम स्थानीय लोग ही कर रहे हैं। डॉ0 भी कभीकभी आते हैं। सरकार की ओर से सुरक्षा का भी कोई
प्रबन्ध नहीं है। प्रबन्धन कमेटी :मौलाना मोहम्मद इकबाल, मोहम्मद रफ़त, और मोहम्मद तौहीद आदि।
गाँव काकड़ा निवासी नाथों ने बताया कि 7 सितम्बर की शाम माचू जाट के साथ 8 और लोग हथियार लिए हुए हमारे घर में आए, और हमारे घर में तोड़फोड़ करने लगे और कहने लगे इनकी लड़कियों उठा कर ले जाओ। हम प्रधान के पास मदद के लिए गए, लेकिन प्रधान ने हमारी सहायता करने से इन्कार कर दिया। दंगाइयों ने सब सामान लूटकर घर को आग लगा दी। हमारा पूरा गाँव मुसलमानों से खाली हो गया है।
काकड़ा निवासी एक और महिला गुलशाना पे्रगनेन्ट थी और जब उनके घर पर हमला हुआ तो वह अपनी जान बचाने के लिए वहाँ से भागी। भागते हुए वह गिर गई और उसको बहुत चोट आई। इसके बाद उसने शाहपुर कैम्प में एक बेटी को जन्म दिया। लेकिन बच्ची पैदा होते ही मर गई।
गाँव धौलरा निवासी लाली की 16 वर्षीय बेटी 7 सितम्बर की महापंचायत के बाद भगदड़ में न जाने कहाँ गा़यब हो गई इसका अब तक कुछ पता नहीं चल सका। दंगाइयों ने घर का सब सामान लूटकर घर को आग लगा दी। लाली के चार बेटियाँ और एक बेटा है। एफ.आई.आर. दर्ज हो चुकी है। लाली अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठी है।
गाँव काकड़ा निवासी अफ़साना ने बताया कि 7 सितम्बर की शाम उनके घरों पर अचानक हमला हुआ। सामान लूटकर उनके घरों को जला दिया गया। सेना के लोगों ने हमें वहाँ से निकाला। अब हम यहाँ कैम्प में रह रहे हैं, लेकिन ऐसे हम कब तक रहेगें? बच्चे बीमार हैं, हम परेशान हैं। बच्चों की पॄाई छूट गई। न छत है, न घर है, कहाँ जाएँ ? सरकार को चाहिए हमें घर दे।
इस्लामाबाद कैम्प, (शाहपुर)
इस कैम्प में लगभग 1300 शरणार्थी रह रहे हैं। सरकार की ओर से कोई सुविधा नहीं मिल रही। सब इन्तिज़ाम स्थानीय लोग ही कर रहे हैं। डॉक्टर भी कभीकभी आते हैं। सरकार की ओर से सुरक्षा का भी कोई प्रबन्ध नहीं है। प्रबन्धन कमेटी : हाजी बाबू साहेब, डॉ0 नौशाद, हाजी इक़बाल और मौलाना अब्दुस्समद आदि।
गाँव कुटबा कुटबी निवासी वरीशा ने बताया कि 8 सितम्बर की सुबह गाँव के पूर्व प्रधान लोकेन्द्र और प्रमोद ब्राह्मण ने उनके घरों पर जा कर कहा कि यहाँ से चले जाओ वर्ना जाट समुदाय के लोग तुम्हे मार डालेंगे। उनके जाने के बाद गाँव के प्रधान नीरज और ऋषिपाल भीड़ के साथ आए और हमारे घरों पर हमला बोल दिया। सबके हाथों में हथियार थे। हम जान बचाकर गाँव से भाग निकले। बाद में कैम्प में शरण ली। यहाँ आने के बाद प्रमोद ने उन्हें फोन पर सूचना दी कि उनके घरों को जला दिया गया।
गाँव कुटबा कुटबी की ही 18 वर्षीय वसीमा जिसकी शादी दंगे से 15 दिन पूर्व ही हुई थी, ने हमें बताया कि 8 सितम्बर की सुबह लगभग 8:00 बजे गाँव के प्रधान देवेन्द्र, उसका भाई बबलू और चाचा बाबू ने अन्य जाट समुदाय के लोगों के साथ उनके घर पर हमला बोल दिया। उनके हाथों में नंगी तलवारें, गड़ासे, लाठियाँ और डीज़ल था। सबसे पहले दंगाइयों ने उसके ससुर शमशाद का तबल (घास काटने का हथियार) से गला काट दिया। फिर ससुर के भाई क़यूम, फ़ैयाज़, अब्दुल वहीद, ताऊ का लड़का तुराबुद्दीन, चाची ख़ातून, वसीमा के पति इरशाद समेत जेठ के दो बच्चों को भी काटकर मार दिया। हमारे घर को आग लगा दी। अपनी जान बचाने के लिए हम ऊपर की ओर भागे तो उन्होंने एक मोटा डंडा उसकी जेठानी के सिर पर दे मारा और गडासे से उस पर वार किया। उसे गम्भीर चोटें आई जिससे उसकी स्थिति गम्भीर बनी हुई है। इसके बाद हमने उन पर पथराव किया। हम पथराव करते रहे और वे फ़ायरिंग करते रहे। लगातार 3 घंटे तक हमने उनका मुकाबला किया। इसके बाद सेना ने हमें वहाँ से निकाला।
इसी गाँव की एक और अन्य महिला साबिरा ने बताया कि 8 सितम्बर की सुबह गाँव पर हमला हुआ। गाँव की मस्जिद तोड़ दी गई। गाँव में चुनचुन कर मुसलमानों के घरों को निशाना बनाया गया। गाँव कुटबा में मुसलमानों के लगभग 150 घर हैं और कुटबी में 30 घर हैं। लेकिन दंगे में मुसलमानों के सभी घरों को जला दिया गया और सामान लूट लिया गया। जो लोग दंगाइयों के हाथ आ गए उनको काट दिया गया और जो लोग हाथ नहीं आए उनके घरों को जला दिया गया। जब गाँव में पुलिस आने लगी तो
प्रधान ने उनको यह कह कर रोक दिया कि ’गाँव में शादी हो रही है’ और एस0 ओ0 को अपने घर ले गया। मुसलमानों पर हमला जारी रहा। एस0ओ0 ने प्रधान के घर पर बैठ कर दंगाइयों को कहा कि ’तुम्हें जो करना है करते रहो’। प्रधान देवेन्द्र ने दंगाइयों को हथियार दिए और बबलू डीलर ने मुसलमानों के घर जलाने के लिए दंगाइयों को तेल दिया।
लोई कैम्प
यहाँ पर लगभग 10,000 शरणार्थी कैम्प में शरण लिए हए है। यह कैम्प खुले आसमान के नीचे खेतों में लान पर लगा हुआ है। जिससे बरसात में पानी टेन्ट में अन्दर चला जाता है जिससे शरणार्थियों को बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। कैम्प में टेन्ट और चटाई आदि ज़रुरत के सभी सामान का प्रबन्ध स्थानीय लोगो ने ही किया है। कैम्प मे डॉक्टर की सुविधा न होने की वजह से एक गर्भवती महिला बच्चे को जन्म देते हुए मर गई। इसके अलावा तीन अन्य बच्चों की दवाई न मिलने के कारण मृत्यु हो गई। क्षेत्रीय अधिकारी की ओर से भी कैम्पों में सुरक्षा का कोई प्रबन्ध नहीं है। सरकार की ओर से कैम्प में ज़रूरत के मुताबिक राशन का 20 प्रतिशत से भी कम मात्रा में पहुँचता है जबकि दूध की सप्लाई 5 प्रतिशत से भी कम है। प्रबन्धन कमैटी : प्रधान अब्दुल जब्बार, अफ़ज़ाल और मेहरबान कुरैशी आदि।
लोई कैम्प में हमारी बात गाँव फुगाना निवासी ज़रीफ़ से हुई। उन्होंने ने हमें बताया कि 8 सितम्बर को जब गाँव पर हमला हो चुका था तो सुबह लगभग 9:00 बजे प्रधान हरपाल, थाम सिंह, प्रधान सुनील और विनोद उनके घरों पर गए और उनसे गाँव न छोड़ने के लिए कहा और कहा कि वे उनका हर हाल में साथ देगें। लेकिन जैसे ही वे लोग उनके घरों से गए तो जाट और दलित समुदाय के लोगों ने मुसलमानों को चारों ओर से घेर लिया। गली में वे लोग मुसलमानों के खिलाफ़ नारे लगाते आ रहे थे। यह शोर सुनकर उनके घर के सभी मर्द बाहर की ओर भागे तो रास्ते में ही दंगाइयों ने उसके पिता इस्लाम का पहले गडासे से गला काट दिया, और फिर तीन हिस्सों में उनको काट कर उनकी हत्या कर दी। घर पर बेटी की शादी होनी थी उसके दहेज़ के सामान समेत घर का सारा सामान लूट लिया और घर को जला दिया। अब यहाँ कैम्प के ज़िम्मेदार लोगों ने उसकी बेटी का निकाह 30 सितम्बर 2013 को करवाया।
गाँव फुगाना के ही एक और निवासी हारुन ने हमें बताया 8 सितम्बर की सुबह 10:00 बजे हाथों में हथियार लिए हुए जाट और दलित समुदाय के लोगों ने उनके घरों में ज़बरदस्ती घुसकर लूटपाट की और उनके घरों को आग लगा दी। वे अपनी जान बचाकर वहाँ से भागे। अब वे लोई कैम्प में रह रहे हैं। उनके पास 6 बच्चे हैं। कैम्प में गन्दगी होने और दवाई न मिलने की वजह से 6 अक्टूबर को उनकी 12 वर्षीय बेटी की टाइफाइड होने से मृत्यु हो गई। इसके अलावा इसी कैम्प में 6 बच्चों की दवाई न मिलने के कारण मृत्यु हो गई। राज्य सरकार की ओर से कैम्पों में न कोई डॉ0 है और न ही कोई अन्य सुविधा।
मलकपुरा कैम्प, खुमरान रोड कैम्प
इस कैम्प में 138 गाँव के लगभग 12,500 शरणार्थी रह रहे है। कैम्प एक जंगल में है और कस्बे से बहुत दूर हैं। वहाँ पर सरकार की ओर से कोई राहत सामग्री नहीं पहुँच पा रही है। यह कैम्प 50 बीघा तक में फैला है और लान पर है। जिससे बरसात का पानी टेन्ट में चला जाता है, और इससे शरणार्थियों को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। सरकार की ओर से न किसी डॉक्टर की सुविधा है और न ही कोई अन्य सुविधा। स्थानीय लोग ही उनके लिए सब ज़रूरत का सामान मिलजुल कर जुटा रहे हैं। कैम्प जंगल में होने की वजह से वहाँ साँप और बिच्छू निकल आते हैं। कुछ दिन पहले एक बच्ची की बिच्छू के काटने से मृत्यु हो गई थी। प्रबन्धन कमेटी : अब्दुल क़यूम, हाजी दिलशाद, हाजी यासीन और चौधरी गुलशाद आदि।
गाँव फुगाना निवासी 12 वर्षीय गुलशाना ने बताया कि 8 सितम्बर की सुबह जाटों ने उनके घरों पर हमला किया, उनके हाथों में हथियार थे। दंगाइयों ने गड़ासे से उसके पैर पर हमला किया। जिससे उसे गम्भीर चोट आई और उसके पिता उसको उठाकर वहाँ से भाग गए। एक महीने से इस कैम्प में रह रहे हैं, अभी तक ज़ख़्म नहीं भरा। पैसे नहीं तो इलाज कहाँ से हो।
फुगाना निवासी अब्दुल ग़फ्फार ने बताया कुछ दंगाइयों ने 8 सितम्बर की सुबह उनके घर पर हमला किया, सब सामान लूटा और घर को जला दिया। जब वे अपनी जान बचाकर भाग रहे थे तो देखा कि दंगाइयों ने पड़ोस के ही एक आदमी इस्लाम को तीन हिस्सों में काट दिया। दंगाइयों ने गाँव की मस्जिद को भी तोड़ दिया। दंगाइयों में विनोद पुत्र माँगेराम और सुनील पुत्र बिरहम सिंह भी शामिल थे। सभी दंगाई जाट समुदाय के थे।
अब कैम्प में रह रहे शरणार्थियों के सामने चिंताओं का बड़ा बोझ है। घर वापस लौटने के जवाब में सब लोग यही कहते हैं कि वे लौटकर अपने गाँव नहीं जाएँगें। कहाँ ले जाएँ अपने बच्चों को? किसका सहारा? कोई सहारा नहीं। अब मज़दूरी भी नहीं कर सकते और अन्त में वे एक सवाल करते हैं कि हमे तो बस यह जवाब दे दो कि दुनिया हमसे पूछेगी कि तुम क्यों सताए गए तो हम क्या जवाब देगें?

-डा0 मोहम्मद आरिफ

क्रमश:
लोकसंघर्ष पत्रिका में प्रकाशित

Read Full Post »