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Archive for फ़रवरी, 2015

गत 20 फरवरी को,जब कामरेड गोविंद पंसारे की मृत्यु की दुखद खबर आई, तो मुझे ऐसा लगा मानो एक बड़ा स्तंभ ढह गया हो.एक ऐसा स्तंभ जो महाराष्ट्र के सामाजिक आंदोलनों का शक्ति स्त्रोत था। मेरे दिमाग में जो पहला प्रश्न आया वह यह था कि उन्हें किसने मारा होगा और इस तरह के साधु प्रवृत्ति के व्यक्ति की जान लेने के पीछे क्या कारण हो सकता है। ज्ञातव्य है कि कुछ दिन पहलेए सुबह की सैर के वक्त उन्हें गोली मार दी गई थी। पंसारे ने जीवनभर हिंदुत्ववादियों और रूढि़वादी सोच के खिलाफ संघर्ष किया। पिछले माह, कोल्हापुर के शिवाजी विश्वविद्यालय में भाषण देते हुए उन्होंने भाजपा द्वारा गोडसे को राष्ट्रवादी बताकर उसका महिमामंडन किया जाने का मुद्दा उठाया था। पंसारे ने श्रोताओं को याद दिलाया कि गोडसे, आरएसएस का सदस्य था। इस पर श्रोताओं का एक हिस्सा उत्तेजित हो गया।
उन्हें’सनातन संस्था’ नाम के एक संगठन के कोप का शिकार भी होना पड़ा था। पंसारे का कहना था कि यह संस्था हिंदू युवकों को अतिवादी बना रही है। यह वही संगठन है, ठाणे और गोवा में हुए बम धमाकों में जिसकी भूमिका की जांच चल रही है। पंसारे ने खुलकर इस संस्था को चुनौती दी, जिसके बाद संस्था द्वारा उनके खिलाफ मानहानि का दावा भी किया गया।
डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या के कुछ माह बाद, पंसारे को एक पत्र के जरिये धमकी दी गई थी। पत्र में लिखा था’तुमचा दाभोलकर करेन’ ;तुम्हारे साथ वही होगा, जो दाभोलकर के साथ हुआ। उन्हें ऐसी कई धमकियां मिलीं परंतु वे उनसे डरे नहीं और उन्होंने मानवाधिकारों और तर्कवाद के समर्थन में अपना अभियान जारी रखा। वे समाज के सांप्रदायिकीकरण के विरूद्ध अनवरत लड़ते रहे। शिवाजी के चरित्र के उनके विश्लेषण के कारण भी पंसारे,अतिवादियों की आंखों की किरकिरी बन गए थे। जब 15 फरवरी को उन पर हमले की खबर मिली तो मुझे अनायास पिछले साल पुणे में उनके द्वारा शिवाजी पर दिये गये भाषण की याद हो आई। खचाखच भरे हाल में पंसारे ने शिवाजी के जीवन और कार्यों पर अत्यंत विस्तार से और बड़े ही मनोरंजक तरीके से प्रकाश डाला था। श्रोताओं ने उनके भाषण को बहुत रूचि से सुना और उनकी बहुत तारीफ हुई।
शिवाजी की जो छवि वे प्रस्तुत करते थेए वह ‘जानता राजा’ ;सर्वज्ञानी राजा जैसे शिवाजी पर आधारित नाटकों और सांप्रदायिक तत्वों द्वारा शिवाजी के कार्यकलापों की व्याख्या से एकदम अलग थी। सांप्रदायिक तत्व, शिवाजी को एक मुस्लिम.विरोधी राजा के रूप में प्रस्तुत करते हैं। यह कहा जाता है कि अगर शिवाजी न होते तो हिंदुओं का जबरदस्ती खतना कर उन्हें मुसलमान बना दिया जाता। पंसारे ने गहन अनुसंधान कर शिवाजी का असली चरित्र अपनी पुस्तक ‘शिवाजी कौन होता’ में प्रस्तुत की। यह पुस्तक बहुत लोकप्रिय हुई। इसके कई संस्करण निकल चुके हैं और यह कई भाषाओं में अनुदित की जा चुकी है। अब तक इसकी लगभग डेढ़ लाख प्रतियां बिक चुकी हैं। अपने भाषण में पंसारे ने अत्यंत तार्किक तरीके से यह बताया कि किस तरह शिवाजी सभी धर्मों का आदर करते थे, उनके कई अंगरक्षक मुसलमान थे, जिनमें से एक का नाम रूस्तम.ए.जमां था, उनके राजनीतिक सचिव मौलाना हैदर अली थे और शिवाजी की सेना के एक.तिहाई सिपाही मुसलमान थे। शिवाजी के तोपखाने के मुखिया का नाम था इब्राहिम खान। उनके सेना के कई बड़े अधिकारी मुसलमान थे जिन्हें आज भी महाराष्ट्र में बडे़ प्रेम और सम्मान के साथ याद किया जाता है।
एक साम्यवादी द्वारा एक सामंती शासक की प्रशंसा! यह विरोधाभास क्यों, इस प्रश्न का उत्तर अपने भाषण में उन्होंने जो बातें कहीं, उससे स्पष्ट हो जाता है। उन्होंने तथ्यों के आधार पर यह प्रमाणित किया कि शिवाजी अपनी रैयत की बेहतरी के प्रति बहुत चिंतित रहते थे। उन्होंने किसानों और कामगारों पर करों का बोझ कम किया था। पंसारे जोर देकर कहते थे कि शिवाजी, महिलाओं का बहुत सम्मान करते थे। वे बताते थे कि किस प्रकार शिवाजी ने कल्याण के मुस्लिम राजा की बहू को सम्मानपूर्वक वापस भिजवा दिया था। कल्याण के राजा को हराने के बादए शिवाजी के सैनिक लूट के माल के साथ राजा की बहू को भी अगवा कर ले आये थे। यह किस्सा महाराष्ट्र में बहुत लोकप्रिय है। परंतु हिंदुत्व चिंतक सावरकर, कल्याण के राजा की बहू को सम्मानपूर्वक उसके घर वापस भेजने के लिए शिवाजी की आलोचना करते हैं। सावरकर का कहना था कि उस मुस्लिम महिला को मुक्त कर शिवाजी ने मुस्लिम राजाओं द्वारा हिंदू महिलाओं के अपमान का बदला लेने का मौका खो दिया था!
पंसारे स्वयं यह स्वीकार करते थे कि शिवाजी की उनकी जीवनी ने उनके विचारों को आम लोगों तक पहुंचाने में बहुत मदद की। वे बहुत साधारण परिवार में जन्मे थे और उन्होंने अपना जीवन अखबार बेचने से शुरू किया था। शिवाजी पर उनकी अत्यंत लोकप्रिय पुस्तक के अलावाए उन्होंने ‘अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण’,छत्रपति शाहू महाराज, संविधान का अनुच्छेद 370 और मंडल आयोग जैसे विषयों पर भी लेखन किया था। इससे यह साफ है कि उनका अल्पसंख्यकों के अधिकारो,जातिवाद आदि जैसे मुद्दों से भी गहरा जुड़ाव था। वे जनांदोलनों से भी जुड़े थे और कोल्हापुर में टोल टैक्स के मुद्दे पर चल रहे आंदोलन में उनकी अग्रणी भूमिका थी।
कामरेड पंसारे ने स्वयं को मार्क्स और लेनिन की विचारधारा की व्याख्या तक सीमित नहीं रखा। यद्यपि वे प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट थे परंतु शिवाजी, शाहू महाराज और जोतिराव फुले भी उनके विचारधारात्मक पथप्रदर्शक थे। वे यह मानते थे कि शाहू महाराज और फुले ने समाज में समानता लाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। वे स्वयं भी जातिवाद और धार्मिक अल्पसंख्यकों से जुड़े मुद्दों का गंभीरतापूर्वक अध्ययन करते थे और इन विषयों पर अपने प्रबुद्ध विचार लोगों के सामने रखते थे। एक तरह से उन्होंने भारतीय वामपंथियों की एक बहुत बड़ी कमी की पूर्ति करने की कोशिश की। प्रश्न यह है कि साम्यवादी आंदोलन ने जातिगत मुद्दों पर क्या रूख अपनाया ? पंसारे जैसे कम्युनिस्टों ने जाति के मुद्दे पर फोकस किया और दलित.ओबीसी वर्गों के प्रतीकों.जिनमें शाहू महाराज, जोतिराव फुले व आंबेडकर शामिल हैं.से स्वयं को जोड़ा। परंतु दुर्भाग्यवश,वामपंथी आंदोलन ने इन मुद्दों को कभी गंभीरता से नहीं लिया। भारत जैसे जातिवाद से ग्रस्त समाज में कोई भी सामाजिक आंदोलन तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक कि उसमें जाति के कारक को समुचित महत्व न दिया जाए। उनके जीवन से हम यह सीख सकते हैं कि भारत में सामाजिक परिवर्तनकामियों को अपनी रणनीति में क्या बदलाव लाने चाहिए।
पंसारे पर हुए हमले ने डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की हत्या की याद फिर से ताजा कर दी है। दक्षिणपंथी ताकतें अपने एजेंडे को लागू करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। उनकी हिम्मत बहुत बढ़ चुकी है। दाभोलकर और पंसारे असाधारण सामाजिक कार्यकर्ता थे। दोनों तर्कवादी थे, अंधविश्वासों के विरोधी थे और जमीन पर काम करते थे। दोनों पर हमला मोटरसाईकिल पर सवार बंदूकधारियों ने तब किया जब वे सुबह की सैर कर रहे थे। दोनों को उनकी हत्या के पहले सनातन संस्था और अन्य दक्षिणपंथी संगठनों की ओर से धमकियां मिलीं थीं।
कामरेड पंसारे की हत्या के बाद पूरे महाराष्ट्र में गुस्से की एक लहर दौड़ गई। राज्य में अनेक स्थानों पर विरोध प्रदर्शन हुए। ये विरोध प्रदर्शन इस बात का प्रतीक थे कि आमजन उन्हें अपना साथी और हितरक्षक मानते थे। क्या हमारे देश के सामाजिक आंदोलनों के कर्ताधर्ताए कामरेड पंसारे के अभियान को आगे ले जायेंगे? यही उनके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
-राम पुनियानी

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असगर अली इंजीनियर स्मृति व्याख्यान
मैं अपने इस व्याख्यान की शुरूआत, अपने अभिन्न मित्र डाॅ. अस़गर अली इंजीनियर को श्रद्धांजलि देकर करना चाहूंगा, जिनके साथ लगभग दो दशक तक काम करने का सौभाग्य मुझे मिला। डाॅ. इंजीनियर एक बेमिसाल अध्येता-कार्यकर्ता थे। वे एक ऐसे मानवीय समाज के निर्माण के स्वप्न के प्रति पूर्णतः प्रतिबद्ध थे, जो विविधता के मूल्यों का आदर और अपने सभी नागरिकों के मानवाधिकारों की रक्षा करे।
इस संदर्भ में वे उन चंद लोगों में से थे जिन्हें सबसे पहले यह एहसास हुआ कि सांप्रदायिकता की विघटनकारी राजनीति, देश और समाज के लिए कितनी घातक है। उन्होंने सांप्रदायिक हिंसा के कारकों के अध्ययन और विष्लेषण की परंपरा शुरू की। वे हर सांप्रदायिक दंगे का अत्यंत गंभीरता और सूक्ष्मता से अध्ययन किया करते थे। बोहरा समाज, जिससे वे थे, में सुधार लाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। इस्लाम की शिक्षाओं की उनकी व्याख्या के लिए उन्हें दुनियाभर में जाना जाता है। अगर हम एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते हैं जो शान्ति, सद्भाव, सहिष्णुता और करूणा पर आधारित हो, तो हम उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं।
राष्ट्र के रूप में हम आज कहां खड़े हैं? भारतीय प्रजातंत्र के समक्ष कौन-से खतरे हैं और क्या मोदी सरकार के आने के बाद से ये खतरे बढ़े हैं?
आमचुनाव में मोदी की जीत कई कारणों से हुई। उन्हें भारतीय उद्योग जगत का पूर्ण समर्थन मिला, लाखों की संख्या में आरएसएस के जुनूनी कार्यकर्ताओं ने उनके चुनाव अभियान को मजबूती दी, कार्पोरेट द्वारा नियंत्रित मीडिया ने उनका महिमामंडन किया और ‘‘गुजरात के विकास के माॅडल’’ को एक आदर्श के रूप मे प्रचारित किया। समाज को धार्मिक आधार पर धु्रवीकृत किया गया और अन्ना हजारे, बाबा रामदेव व अरविंद केजरीवाल के आंदोलनों के जरिये, कांग्रेस की साख मिट्टी में मिला दी गई। इस आंदोलन का अंत, आप के गठन के साथ हुआ।
मोदी का ‘अच्छे दिन‘ लाने का वायदा हवा हो गया है। कच्चे तेल की कीमतों में भारी कमी आने के बावजूद, भारत में महंगाई बढ़ती जा रही है। लोगों के लिए अपनी जरूरतें पूरी करना मुष्किल होता जा रहा है। मोदी ने वायदा किया था कि विदेशों में जमा कालाधन, छः माह के भीतर वापस लाया जायेगा और हम सब अपने बैंक खातों में 15-15 लाख रूपये जमा देखकर चकित हो जायेंगे। यह वायदा भुला दिया गया है। जहां तक सुशासन का सवाल है, मोदी की दृष्टि में शायद उसका अर्थ अपने हाथों में सत्ता केंद्रित करना है। केबिनेट प्रणाली की जगह, देश  पर एक व्यक्ति का एकाधिकारी शासन कायम हो गया है। भारत सरकार के सचिवों कोे निर्देश दिया गया है कि वे सीधे प्रधानमंत्री के संपर्क में रहें। मंत्रियों की तो मानो कोई अहमियत ही नहीं रह गई है।
स्वयंसेवी संस्थाओं के लिए आर्थिक संसाधन जुटाना कठिन होता जा रहा है। ‘ग्रीन पीस’ सरकार की इस नीति का प्रमुख शिकार बनी है। पिछली सरकार द्वारा शुरू की गई कल्याण योजनाओं को एक-एक कर बंद किया जा रहा है। वे कुबेरपति, जिन्होंने मोदी के चुनाव अभियान को प्रायोजित किया था, अपने खजाने भरने में जुटे हुए हैं। पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक मुद्दों को परे रखकर, उन्हें देश का अंधाधुंध औद्योगिकरण करने की खुली छूट दे दी गई है। नये प्रधानमंत्री को न भूतो न भविष्यति नेता के रूप में प्रचारित किया जा रहा है और उनके चारों ओर एक आभामंडल का निर्माण करने की कोशिश हो रही है।
इन सब नीतियों और कार्यक्रमों से सबसे अधिक नुकसान समाज के कमजोर वर्गों को उठाना पड़ रहा है। ‘श्रम कानूनों मंे सुधार’ के नाम पर श्रमिकों को जो भी थोड़ी-बहुत सुरक्षा प्राप्त थी, उससे भी उन्हें वंचित करने की तैयारी हो रही है। उद्योगपतियों के लिए भूमि अधिग्रहण करना आसान बना दिया गया है। किसानों से येन-केन-प्रकारेण उनकी जमीनें छीनी जा रही हैं। गरीबों के लिए चल रही समाज कल्याण योजनाओं व भोजन और स्वास्थ्य के अधिकार को खत्म करने की तैयारी है।
धार्मिक अल्पसंख्यकों को आतंकित करने का सिलसिला जारी है। एक केंदीय  मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति की हिम्मत इतनी बढ़ गई कि उन्होंने सभी गैर-हिंदुओं को हरामजादे बता दिया। एक अन्य भगवाधारी भाजपा नेता, नाथूराम गोडसे को ‘देशभक्त’ बता रहे हैं और हिंदू महिलाओं से ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करने की अपील कर रहे हैं। हिंदुत्ववादी, महात्मा गांधी के हत्यारे गोडसे का महिमामंडन कर रहे हैं। वे हमेशा से गोडसे के प्रशसक थे परंतु नई सरकार आने के बाद से उनकी हिम्मत बढ़ गई है। क्रिसमस पर ‘सुशासन दिवस’ मनाने की घोषणा कर इस त्योहार के महत्व को कम करने की कोशिश की गई। ऐसी मांग की जा रही है कि हिंदू धर्मगं्रथ गीता को देश की राष्ट्रीय पुस्तक घोषित किया जाये। चर्चों और मस्जिदों पर हमले हो रहे हैं। अनेक नेता बिना किसी संकोच या डर के चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे हैं कि हम सब हिंदू हैं और भारत, एक हिंदू राष्ट्र है।
इस सबके बीच नरेन्द्र मोदी चुप्पी ओढ़े हुए हैं। शायद इसलिए क्योंकि जो कुछ हो रहा है, वह भाजपा और उसके पितृ संगठन आरएसएस के एजेन्डे का हिस्सा है। संघ का मूल लक्ष्य देश को संकीर्ण हिन्दू राष्ट्रवाद की ओर ले जाना है। हिन्दू राष्ट्रवाद, मुस्लिम अतिवाद और ईसाई कट्टरवाद से मिलती-जुलती अवधारणा है। इस संदर्भ में यह याद रखना समीचीन होगा कि भारत में ‘धार्मिक राष्ट्रवाद’ की धाराओं का जन्म, भारतीय राष्ट्रवाद के उदय की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ। सन् 1888 में सामंतों और राजाओं-नवाबों ने मिलकर युनाईटेड इंडिया पेट्रियाटिक एसोसिएशन का गठन किया। बाद में मध्यम वर्ग और उच्च जातियों का श्रेष्ठि तबका भी इस संगठन से जुड़ गया। इसी संगठन के गर्भ से उत्पन्न हुए मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा, जो अपने-अपने धर्म का झंडा उठाए हुए थे।
हिन्दू महासभा के सावरकर ने सबसे पहले हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना प्रस्तुत की और सन् 1925 में गठित आरएसएस ने इसे अपना लक्ष्य बना लिया। उसने लोगों के दिमागों में यह जहर भरना शुरू किया कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है और यहां रहने वाले ईसाई और मुसलमान विदेशी हैं। यह विचार महात्मा गांधी, भगतसिंह व डाॅ. अम्बेडकर की समावेशी राष्ट्रवाद की अवधारणा के धुर विपरीत था।
हमें यह याद रखना चाहिए कि साम्प्रदायिक संगठनों ने स्वाधीनता संग्राम से सुरक्षित दूरी बनाए रखी और जब देश अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होने के लिए संघर्षरत था तब ये संगठन देश में घृणा फैलाकर दंगे करवाने में जुटे हुए थे। साम्प्रदायिक हिंसा की आग शनैः-शनैः तेज होती गई और इसके कारण राष्ट्र के रूप में हमें भारी नुकसान झेलना पड़ा।  साम्प्रदायिकता के दानव ने ही देश का विभाजन करवाया और नई सीमा के दोनों ओर के करोड़ों लोगों को घोर पीड़ा और संत्रास के दौर से गुजरना पड़ा।
हमें यह भी याद रखना चाहिए कि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों की उनकी फूट डालो और राज करो की नीति को लागू करने में साम्प्रदायिक संगठनों ने काफी मदद की। इनमें हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों के साम्प्रदायिक संगठन शामिल थे। आरएसएस की विचारधारा में रचे-बसे उसके प्रचारक नाथूराम गोड़से ने महात्मा गांधी की हत्या की। यह व्यापक भारतीय राष्ट्रवाद पर हिन्दू राष्ट्रवाद का पहला बड़ा आक्रमण था।
जहां एक ओर आरएसएस ने स्वाधीनता संग्राम को नजरअंदाज किया वहीं दूसरी ओर उसने अपने स्वयंसेवकों को हिन्दू राष्ट्रवाद की संकीर्ण विचारधारा की घुट्टी पिलाई। इन स्वयंसेवकों ने समय के साथ पुलिस, नौकरशाही और राज्यतंत्र के अन्य हिस्सों में घुसपैठ कर ली। आरएसएस ने अपने अनुषांगिक संगठनों का एक बहुत बड़ा ढांचा खड़ा किया। इनमें शामिल हैं अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, वनवासी कल्याण आश्रम, विष्व हिन्दू परिषद व बजरंग दल। संघ के स्वयंसेवकों के परिवारों की महिलाओं ने राष्ट्र सेविका समिति नामक संगठन बनाया।
आरएसएस लगातार ‘पहचान’ से जुड़े मुद्दे उठाता रहा है। ‘गौरक्षा‘ और ‘मुसलमानों के भारतीयकरण‘ के अभियानों के जरिए अल्पसंख्यकों को आतंकित किया जाता रहा है और व्यापक समाज में यह संदेश पहुंचाया जाता रहा है कि मुसलमान, भारतीय नहीं हैं और देश के प्रति उनकी वफादारी संदिग्ध है।
सन् 1980 का दशक आते-आते हिन्दुत्व ब्रिगेड के मुंहजुबानी प्रचार, मीडिया के एक हिस्से के उससे जुड़ाव और इतिहास की स्कूली पाठ्यपुस्तकों के पुनर्लेखन के नतीजे में समाज के बहुत बड़े तबके में मुसलमानों के प्रति संदेह और घृणा का भाव उत्पन्न हो गया। हिन्दुत्ववादी ताकतों ने ही बहुत बेशर्मी से बाबरी मस्जिद को ढहाया। उसके पहले, आडवानी ने रथ यात्रा निकाली, जो अपने पीछे खून की लकीर छोड़ती गई।
इसके बाद साम्प्रदायिक हिंसा में और बढ़ोत्तरी हुई। हिन्दू ‘पहचान‘ को देश की एकमात्र वैध पहचान घोषित कर दिया गया। धार्मिक आधार पर धु्रवीकरण इतना बढ़ गया कि 1992-93 में मुंबई, सूरत और भोपाल में भयावह खूनखराबा हुआ। गुजरात में सन् 2002 में हुई साम्प्रदायिक विभीषिका के बारे में तो हम सब जानते ही हैं।
सन् 1980 के दशक का अंत आते-आते साम्प्रदायिक ताकतों ने मुसलमानों के अलावा ईसाईयों को भी अपने निशाने पर ले लिया। यह कहा जाने लगा कि वे हिन्दुओं का धर्मपरिवर्तन करवा रहे हैं। आदिवासी इलाकों में हिंसा भड़क उठी और इसके नतीजे में सन् 1999 में पाॅस्टर ग्राहम स्टेन्स और उनके दो मासूम बच्चों को जिंदा जला दिया गया। सन् 2008 में कंधमाल में अनेक निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया।
यह सब उस सोच का नतीजा था, जिसे संघ चिंतक एम. एस. गोलवलकर ने आकार दिया था। उनका दावा था कि भारत हमेश से हिन्दू राष्ट्र है व धार्मिक अल्पसंख्यकों को यहां या तो बहुसंख्यकों की दया पर जीना होगा और या फिर उन्हें नागरिक के तौर पर उनके सभी अधिकारों से वंचित कर दिया जाएगा।
सन् 2014 में भाजपा दूसरी बार सत्ता में आई। इसके पहले, सन् 1998 में वह सत्ताधारी एनडीए गठबंधन का हिस्सा थी। उस समय भाजपा को लोकसभा में बहुमत प्राप्त नहीं था इसलिए वह अपना एजेन्डा खुलकर लागू नहीं कर सकी। परंतु फिर भी उसने सफलतापूर्वक स्कूली पाठ्यपुस्तकों का भगवाकरण किया और पुरोहिताई व ज्योतिष जैसे अवैज्ञानिक विषयों को कालेजों और विष्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में शामिल करवाया। उसने हवा का रूख भांपने के लिए संविधान का पुनरावलोकन करने के लिए एक समिति का गठन भी किया।
अब, जबकि भाजपा पूर्ण बहुमत से सत्ता में है, वह बिना किसी लागलपेट के अपना एजेन्डा लागू कर रही है। लगभग सारे राष्ट्रीय संस्थानों में साम्प्रदायिक सोच वाले लोगोें का कब्जा हो गया है। प्रोफेसर के. सुदर्शन राव, जो भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के अध्यक्ष नियुक्त किए गए हैं, का कहना है कि जाति व्यवस्था से देश बहुत लाभान्वित हुआ है। वे महाभारत और रामायण की ऐतिहासिकता में भी विष्वास करते हैं। यह अलग बात है कि इतिहासविदों की जमात में राव को बहुत सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता। नई सरकार संस्कृत भाषा को प्रोत्साहन दे रही है। ऐसा इस तथ्य के बावजूद किया जा रहा है कि संस्कृत कभी आमजनों की भाषा नहीं रही है।
हमारा संविधान सरकार को यह जिम्मेदारी देता है कि वह वैज्ञानिक सोच को प्रोत्साहन दे। इसके ठीक उलट, सरकार विज्ञान में रूढि़वादी और अतार्किक परिकल्पनाओं को ठूंस रही है। हमें अब बताया जा रहा है कि प्राचीन भारत में 200 फीट लंबे विमान थे और प्लास्टिक सर्जरी होती थी। इस महिमामंडन का उद्धेष्यशायद यह साबित करना है कि भारत, हजारों साल पहले विज्ञान के क्षेत्र में इतना उन्नत था जितना कि आज भी विष्व के विकसित देश नहीं हैं। निःसंदेह, भारत के चरक, सुश्रुत और आर्यभट्ट जैसे प्राचीन वैज्ञानिकों ने विज्ञान के क्षेत्र में कई उपलब्धियां हासिल कीं थीं परंतु यह मानना मूर्खता होगी कि प्राचीन भारतीय विज्ञान, आज के विज्ञान से भी अधिक विकसित था। यह, दरअसल, भारतीयों में श्रेष्ठता का दंभ भरने का बचकाना प्रयास है।
किसी भी प्रजातंत्र के लिए स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के मूल्य सबसे महत्वपूर्ण होते हैं। अपने हिन्दुत्ववादी एजेन्डे के तहत, भाजपा सरकार संविधान से ‘धर्मनिरपेक्ष‘ व ‘समाजवादी‘ शब्दों को हटाने की कवायद कर रही है। उसे अल्पसंख्यकों की आशंकाओं और चिंताओं की तनिक भी परवाह नहीं है। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के मूल्य गंभीर खतरे में हैं। हम आज इतिहास के ऐसे मोड़ पर खड़े हैं जब भारतीय संविधान के अस्तित्व को ही खतरा पैदा हो गया है।
हम अगर अब भी नहीं जागे तो बहुत देर हो जायेगी। हमें इस खतरे का मुकाबला करने के लिए कई कदम उठाने होंगे। हमें दलितों, महिलाओं, श्रमिकों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के हकों के लिए लड़ना होगा। हमें अपने प्रजातांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए समान विचारों वाले संगठनों के साथ गठबंधन कर, एक मंच पर आना होगा। प्रजातंत्र और धर्मनिरपेक्षता के पैरोकारों में एकता, समय की मांग है। हमें हाथों में हाथ डाल, एक साथ आगे बढ़ना होगा। गैर-सांप्रदायिक राजनैतिक दलों का गठबंधन बनाकर, सांप्रदायिक शक्तियों को अलग-थलग करना होगा।
हिंदू राष्ट्रवाद की संकीर्ण राजनीति, फासीवादी और धार्मिक कट्टरपंथी शासन व्यवस्था का मिलजुला स्वरूप है। इस तरह के सन में प्रजातांत्रिक स्वतंत्रताएं सिकुड़ती जाती हैं। इसकी शुरूआत भी हो गई है। कुछ पुस्तकों पर प्रतिबंध लगा दिया गया है और कुछ नई पुस्तकें, जिनमें दीनानाथ बत्रा की किताबें शामिल हैं, को प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
अब समय आ गया है कि हम सोशल, प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक मीडिया में अपने लिए जगह बनायें। हमें विविधता, बहुवाद और उदारवादी मूल्यों को प्रोत्साहन देना है। ये ही हमें मानवीय, प्रजातांत्रिक समाज का निर्माण करने में मदद करेंगे।
-राम पुनियानी

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