विद्या कानूगा या मुंशी का जन्म एक गुजराती परिवार में 5 दिसंबर 1919 को बंबई में हुआ था। उनके पिता वकील थे और माता सामाजिक कार्यकर्ता। स्कूल परीक्षा में लड़कियों में उनका स्थान प्रथम आया था। इसके बाद उन्होंने बंबई के एलफिन्स्टन कॉलेज में आई.एस.सी.में दाखिला लिया। 1938 में उन्होंने मेडिसिन पढ़ने इंगलैंड जाने का फैसला किया। उनके इस फैसले का परिवार के अंदर और बाहर काफी विरोध हुआ। लेकिन उनकी नानी ने उनके समर्थन में दृढ़ स्थिति अपनाई और कहाः ‘‘उसे क्यों नहीं जाना चाहिए? उसके पिता के पास पैसा है और लड़की के पास बहादुरी है।’’ उन दिनों ऐसे कामों में काफी साहस की जरूरत हुआ करती थी इंगलैंड मेंः कम्युनिज्म की ओर विद्या को उसके चाचा ने राजनीति से परिचित कराया। उसके पिता ने उसे पुस्तकों से परिचित कराया। विद्या 1938 में इंगलैंड पहुंची। जब तक वह प्र्री-मेडिकल परीक्षाओं के लिए तैयार होती, द्वितीय विश्वयु( छिड़ चुका था। इसलिए भारत लौटने के बजाय उसने न्यूकासल, डरहम में किंग्स कॉलेज में दाखिला ले लिया। यहीं उसका परिचय कम्युनिस्ट विचारधारा से हुआ। तीन वर्षोंं बाद उसने पढ़ाई छोड़ दी और वहीं पूरा वक्ती कार्यकर्ता बन गई। वह ‘फेडिंड’ ;फेडरेशन ऑफ इंडियन स्टूडेंट्स इन ग्रेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड की सचिव बन गई। वह ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य भी बन गई। वह भारतीय कमयुनिस्टों और राष्ट्रवादियों के संपर्क में आई। वह वहां की कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यक्रमों में सक्रिय हिस्सा लेने लगी।खासकर फासिज्म-विरोधी कार्यक्रमों में वह सक्रिय रहती। पोस्टरों के जरिए संघर्ष 1943 में विद्या कानूगा ‘पोस्टरों’ की दुनिया से वाकिफ हुई। उनके और उसके मित्रों ने शेफील्ड ;इंगलैंड में प्रथम पोस्टर प्रदर्शनी आयोजित की। इसमें बंगाल के महा-अकाल में पीड़ित जनता का दुख-दर्द प्रदशि्र्ात किया गया था। इससे प्राप्त पैसे अकाल-पीड़ित लोगों के लिए भारत भेजे गए। विद्या कहती हैः ‘‘तब से मैंने विभिन्न विषयों पर कई पोस्टर बनाए हैंः महिला और युवा प्रश्नों पर, मजदूरों की छंटनी पर, सांप्रदायिक शांति के बारे में। पोस्टर की दृश्य शक्ति को कम के नहीं आंका जा सकता।’’अधिकतर पोस्टर इतिहास के गर्त में लुप्त हो चुके हैं।1 मार्च 2014 को कलकत्ता में एक पोस्टर प्रदर्शनी लगी जिसमें विद्या मुंशी प्रमुख अतिथि के रूप में आमंत्रित की गईं। यह उचित ही था और वे एक ‘व्हील चेयर’ पर बैठकर आईं। उन्हें चारों ओर से युवा महिलाओं ने घेर लिया जो उनसे बातें करना चाहती थीं और उन्हें सुनना चाहती थीं। इस प्रकार की प्रदर्शनी शायद विश्व भर में पहली बार लगी। ‘स्वयं‘, ‘जुबान’, ‘सी-गल’फाउंडेशन जैसे संगठनों ने इसे आयोजित किया था। इसमें 157 असाधारण पोस्टर प्रदर्शित किए गए थे। उनकी व्यापक दृष्टि ने सभी को आकर्षित कर लिया। विश्व युवा फेडरेशन की स्थापना, 1945 वर्ल्ड फेडरेशन ऑफ डेमोक्रेटिक यूथ ;डब्ल्यू.एफ.डी.वाई.या विश्व युवा फेडरेशन की स्थापना लंदन में अक्टूबर-नवंबर 1945 में उद्घाटन सम्मेलन में की गई। विद्या ने उसमें ए.आईएस.एफऔर ‘फेडिन्ड’ के प्रतिनिधि की हैसियत से हिस्सा लिया। सम्मेलन में 67 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया।भारत से विद्या कानूगा के अलावा केवायूं बूमला और ए.एच.सादर भी शामिल हुए। एम.राशीद पर्यवेक्षक थे। वे सभी‘फेडिन्ड’ की ओर से शामिल हुए।विद्या कानूगा विश्व युवा सम्मेलन के कमिशन नं.3 की सचिव भी चुनी गई। इस कमिशन के अध्यक्ष चेकोस्लोवाकिया के डॉ. हाएक थे। कमिशन का विषय थाः ‘‘स्थाई और टिकाऊ शांति कीस्थापना में युवाओं की भूमिका’’। डब्ल्यू.एफ.डी.वाई. की परिषद की प्रथम बैठक पैरिस में 19 जुलाई से5 अगस्त 1946 को आयोजित की गई। विद्या कानूगो इसमें भी शामिल हुईं। उन्हें वहां गठित ‘औपचारिक ब्यूरो’का सचिव बनाया गया । यह तय पाया गया कि खाद्यों के बंटवारे में भारत को प्राथमिकता दी जाय।विद्या कानूगा ने विश्व महिला जनवादी फेडरेशन ;वीमेन्स इंटरनेशनल डेमोक्रेटिक फेडरेशन-डब्ल्यू.आई.डी.एफ. के संस्थापना सम्मेलन में पैरिस,1945 में भी भाग लिया। उनके साथ भारत से महिला आत्मरक्षा समिति की ओर से इला रीड ने भी भाग लिया।यह सम्मेलन 26 नवंबर से 1 दिसंबर 1945 को वेलोड्रोम ‘डी’ हाइवर;विन्टर स्टेडियम में संपन्न हुआ। यहविशाल उद्घाटन समारोह था।विद्या कानूगा 1948 में भारतलौट आईं। वे उस वक्त डब्ल्यू.एफ.डी.वाई. का प्रतिनिधित्व कर रही थीं।उन्होंने फरवरी 1948 में कलकत्ता में आयोजित दक्षिण-पूर्वी एशियाई युवा सम्मेलन की तैयारी समिति में हिस्सालिया।महिला आंदोलन औरपत्रकारिता के क्षेत्रों मेंविद्या मुंशी ने एन.एफ.आई.डब्ल्यू.;भारतीय महिला फेडरेशन के स्थापना सम्मेलन, कलकत्ता, 1954 में सक्रिय हिस्सा लिया। वे इसके प्रेस संपर्क समिति में थीं। इस प्रकार वे भारतीय महिला फेडरेशन की संस्थापकों में थीं। वे काफी समय तक इसकी कार्यकारिणी की सदस्य भी चुनी गई, जैसे 1973 और 1999 में।इंगलैंड से लौटने के बाद उनका विवाह सुप्रसि( पत्रकार और भूगर्भशास्त्री सुनील मुंशी से हुआ।सुनील पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता थे और बंबई से प्रकाशित ए.आई.एस.एफ की पत्रिका ‘द स्टूडेंट’ के संपादक भी रहे। विद्या भी उसमें लिखती रहीं।विद्या की बंगला भाषा की जानकारी बहुत अच्छी नहीं थी। फिर भी उन्हें ‘चलार पथे’’ नामक बंगला पत्रिका के संपादन की जिम्मेदारी दी गई। उन्होंने कड़ी मेहनत करके जल्द ही भाषा सीख ली।इस बीच वे सुप्रसि( अंग्रेजी साप्ताहिक ‘ब्लिट्ज’ की कलकत्ता संवाददाता बन गईं। यह काम उन्होंने 1952 से 1962 तक किया। विद्या मुंशी को सामान्यतः भारत की प्रथम महिला पत्रकार के तौर पर जाना जाताहै।ब्लिट्ज में काम के दौरान उन्होंने कई असाधारण ‘स्टोरीज’ खोज निकालीं। एक थी दो कनाडियन पायलटों के बारे में जो हांगकांग से सोने की तस्करी करके सुंदर बन के जंगलों में गिराने वाले थे। फिर नावोंसे उसे कलकत्ता लाने की योजना थी। दूसरा ‘स्कूप’ था आसनसोल में चिनाकुरी खदानों में दुर्घटना के बारे में। इसमें सैंकड़ों खदान मजदूरों की जानें गईं। सुप्रसि( रंगकर्मी उत्पल दत्त ने इस विषय पर ‘अंगार’ नामक नटक का मंचन किया। उन दिनों पत्रकारिता काफी कठिन हुआ करती थी। एक बार 1953 में पुलिस ने पत्रकारों की जमकर पिटाई कर दी। विद्या मुंशी की भी खूब पिटाई हुई। वे ट्राम के किरायों में वृ( का आंदोलन रिपोर्ट कर रही थीं। पुलिस ने उनसे खूब पूछताछ की लेकिन विद्या ने ‘ब्लिट्ज’ को फंसने नहीं दिया। पुलिस के अत्याचारों की जांच के लिए जस्टिस पी.बी. मुखर्जी कमिशन बिठाया गया। महिला समस्याओं का अध्ययन विद्या मुंशी 1954-55 से ही महिला आंदोलन में सक्रिय भाग लेने लगीं। वे बंगला भाषा में इतनी तेज हो गईं कि महिला आंदोलन के संबंध में वे अक्सर बंगला में ही लिखतीं। उन्होंने प. बंगाल में महिलाओं की स्थिति; 1970-2000 नामक रिपोर्ट के लिए महिलाओं की हिस्सेदारी के संबंध में एक अध्याय लिखा। ‘राजनैतिकि हिस्सेदारी’’ संबंधी यह अध्याय तथ्यों से भरा हुआ है। उन्होंने विस्तृत संस्मरण लिखा है जिसका शीर्षक है ‘‘इन रिट्रोस्पेक्टःवार-टाइम मेमोरीज एंड थॉट्स ऑनवीमेन्स मूवमेंट’ ;यु(काल संबंधी कुछ संस्मरण और महिला आंदोलन के बारेमें कुछ विचारद्ध। वे पश्चिम बंग महिला समिति की अध्यक्ष, भारतीय महिला फेडरेशन की 1986 से 1989 तक राष्ट्रीय सचिव एवं कई वर्षोंं तक फेडरेशन की कार्यकारिणी सदस्य रहीं।महिला आंदोलन संबंधी उनके विचार बड़े ही व्यापक थे। शमिता सेन को दिए गए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा : ‘‘अब गांधीवादी, मार्क्सवादी और नारीवादी महिला प्रश्नों पर एक दूसरे से सहयोग करते हुए काम कररहे हैं। हम साथ मिलकर काम कर सकते हैं और करना चाहिए।’’ 1994 में उन्होंने एक पुस्तिका लिखी। जिसका शीर्षक थाः ‘परिवार को जनवादी बनाओःइसके अधिकारां का फैलाव एवं इसकी रक्षा करो’। इसके अलावा उन्होंने भारतीय महिला फेडरेशन का एक संक्षिप्त इतिहास भी लिखा है।विद्या मुंशी का एक पत्रकार के रूप में चित्रण 10 एपिसोड वाले एक वेब-सीरिज में भी किया गया है। यह 1959 के सुप्रसि( नानावटी मर्डरकेस से संबंधित है। इसका शीर्षक है‘‘द वर्डिक्टः स्टेट वर्सेज नानावटी’;नानावटी केस के फैसले के बारे मेंद्ध। विद्या मुंशी ने विभिन्न विषयों पर बहसों, चर्चाओं और विवादों में भाग लिया जिनमें महिला आंदोलन, नारीवाद से लेकर अंतर्राष्ट्रीय विषय शामिल थे। वे प. बंगाल पार्टी के दैनिक अखबार‘कालान्तर’ के बोर्ड की सदस्य थी। वे राज्य समाज कल्याण सलाहकार बोर्ड की प्रमुख भी थीं, साथ ही वे महिलाकमिशन में भी थीं। उन्होंने पार्टी के अंदर और बाहर महिला संगठन और आंदोलन के जनवादी करण के लिए निरंतर संघर्ष किया। उन्होंने ‘इप्टा’ के लिए भी लिखा। अपने अंतिम वर्षोंं में वे लकवे से आंशिक रूप से ग्रसित रहीं। सन 2002 में उन्हें मस्तिष्क का पक्षाघात हुआ। फिर भी उन्होंने काम करना नहीं छोड़ा। वे घंटों कुर्सी पर बैठे पढ़ा करतीं और दस्तावेजों का अध्ययन किया करतीं। इसके लिए मोटा चश्मा और ‘मैग्निफांइग ग्लास’ का प्रयोग करतीं। वे बांए हाथ से नोट्स लिया करतीं। उन्होंने महिला आंदोलन के विषय में काफी तथ्य और आंकड़े इकट्ठा किए। उन्होंने महिला तथा पार्टी आंदेलन से संबंधित इतिहास और दस्तावेजी तथ्य सुनील मुंशी को ‘डिक्टेट’ कराए। सुनील ने विस्तार सेडिक्टेशन लिया।विद्या मुंशी की मृत्यु 8 जुलाई2014 को लंबी बीमारी के बाद कलकत्ते में 94 वर्ष की आयु में होगई।

एक उत्तर दें