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Archive for the ‘आतंकवाद का सच’ Category


असली देशभक्त ?

देश की सुरक्षा और अखंडता के बारे में आरएसएस बहुत चिंता प्रकट करता है। इसके लिए वह शिविर, महा शिविर आयोजित करता है और जन संपर्क अभियान चलता है। आरएसएस के अनुसार हमारे देश में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आई.एस.आई का एक पूरा जाल फैला हुआ है। जाहिर है आई.एस.आई हमारे देश में आपसी झगड़ों को हवा देकर गृह युद्ध जैसी स्तिथि पैदा करना चाहता है ताकि पूरा देश टुकडे-टुकडे हो जाए। पर आरएसएस स्वयं इस चुनौती का सामना करने के लिए क्या कर रहा है ये जानकर किसी का भी दिल दहल सकता है।
अगर देश को विखंडित करने का सपना संजोये आई.एस.आई यह चाहता है कि इस देश के लोग धर्म के नाम पर लड़ें ताकि उसको अपनी रोटियाँ सेकनें का मौका मिल सके तो आरएसएस बिलकुल इसी काम में जुटा है। आरएसएस से यह पूछा जाना चाहिए की क्या उसने 1992 में बाबरी मस्जिद को गिराकर सारे देश की साम्प्रदायिकता की आग में नहीं झोका ? क्या ऐसा करके इसने आई.एस.आई जैसे देश विरोधी संगठनो के प्यान्दो की भूमिका नहीं निभाई ? देश के अल्प-संख्यकों के बारे में आरएसएस जो जहर फैलाता रहा है और फैला रहा है उसके चलते सबसे ज्यादा प्रसन्न केवल आई एस आई जैसे भारत दुश्मन संगठन ही हो सकते हें। आरएसएस किस तरह इस देश के विभिन सम्प्रदायों को लड़वाने में लगा है इसका अनुमान गोलवलकर के निम्नलिखित वक्तव्यों से अच्छी तरह लगाया जा सकता है।
गोलवलकर द्वारा 1939 में छपवाई गयी किताब वी आर अवर नेशनहुड डीफाइन्ड में हिटलर द्वारा प्रतिपादित नाजी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को महिमामंडित किया गया है। साथ ही इस देश के अल्पसंख्यकों के बारे में जो योजना बताई गयी है, वह इस देश का विखंडन चाह रहे किसी भी संगठन को प्रिय लगेगी।

आरएसएस को पहचानें किताब से साभार

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इस संघर्ष के युग में हर किसी को गिरोहबंदी की सूझती है। जो गिरोह बना सकता है,वह जीवन के हर एक विभाग में सफल है,जो नही बना सकता ,उसकी कहीं पूँछ नही -कहीं मान नही। हम अपने स्वार्थ के लिए अपने जात और अपने प्रान्त की दुहाई देते है । अगर हम बंगाली है,और हमने दवाओ की दुकान खोली है ,तो हम हरेक बंगाली से आशा रखते है की वह हमारा ग्राहक हो जाए ,हम बंगालियों को देख कर उनसे अपनापन का नाता जोड़ते है और अपने स्वार्थ के लिए प्रांतीय भावना की शरण लेते है । अगर हम हिंदू है और हमने स्वदेशी कपड़ो की दुकान खोली है ,तो हम अपने हिंदुत्व का शोर मचाते है और हिन्दुवो की साम्प्रदायिकता को जगाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते है । अगर इसमें सफलता न मिली ,तो अपनी जाती विशेष की हांक लगते है । इस तरह प्रांतीयता और साम्प्रदायिकता की जड़ भी कितनी ही बुरइयो की भांति हमारी आर्थिक परिस्तिथि से पोषक रस खींच कर फलती फूलती रहती है। हम अपने ग्राहकों को विशेष सुविधा देकर अपना ग्राहक नही बनते , सम्भव है उसमें हमारी हानि हो , इसलिए जातीय भेद की पूँछ पकड़कर बैतरणी के पास पहुँच जाते है ।

-प्रेमचंद, 19 फरवरी 1934

(आतंकवाद का सच से साभार )

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