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Archive for the ‘गीत चंदेल’ Category

आशा का सम्बल सुंदर,
या सुंदर केवल आशा
विभ्रमित विश्व में पलपल ,
लघु जीवन की प्रत्याशा

रंग मंच का मर्म कर्म है,
कहीं यवनिका पतन नही
अभिनय है सीमा रेखा,
कहीं विमोहित नयन नही

सत् भी विश्व असत भी है,
पाप पुण्य ही हेतु बना
कर्म मुक्ति पाथेय यहाँ,
स्वर्ग नर्क का सेतु बना

डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेलराही

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निर्मम नर्तन है गति का ,
है व्यर्थ आस ऋतुपति की
छलना भी मोहमयी है,
यह रीतीनीति जगपति की

आंसू का क्रम ही क्रम है,
यह सत्य शेष सब भ्रम है
वेदना बनी चिर संगिनी,
सुख का तो चलता क्रम है

उद्वेलित जीवन मग में,
बढ़ चलना धीरेधीरे
प्रणय, मधुर, मुस्कान, मिलन,
भर लेना मोतीहीरे

डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेलराही

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व्याकुल उद्वेलित लहरें,
पूर्णिमाउदधि आलिंगन
आवृति नैराश्य विवशता ,
छायानट का सम्मोहन

जगती तेरा सम्मोहन,
युगयुग की व्यथा पुरानी।
यामिनी सिसकतीकाया,
सविता की आस पुरानी।

योवन की मधुशाला में,
बाला है पीने वाले।
चिंतन है यही बताता ,
साथी है खाली प्याले

डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेलराही

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इसके विशाल पैरो में
मानव का आत्म समर्पण।
भावना विनाशी का क्रंदन
लघुतम जीवन का अर्पण ॥

घर काल जयी आडम्बर,
इस नील निलय के नीचे ।
भव विभव पराभव संचित,
लालसा कसक को भींचे ॥

निज का यह भ्रम विस्तृत है ,
है जन्म मरण के ऊपर।
यह महा शक्ति बांधे है,
युग कल्प और मनवंतर ॥

डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल ‘राही’

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लालच की रक्तिम आँखें ,
भृकुटी छल बल से गहरी
असत रंगे दोनों कपोल ,

असीकाम पार्श्व में प्रहरी

मन में मालिन्य भरा है ,
स्वतक संसार है सीमित
संसृति विकास अवरोधी ,
कलि कलुष असार असीमित

सव रस छलना आँचल में ,
कल्पना तीत सम्मोहन
सम्बन्ध तिरोहित होते ,
क्रूरता करे आरोहन

डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेलराही

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यह स्वार्थ सिन्धु का गौरव
अति पारावार प्रबल है
सर्वश्व समाहित इसमें,
आतप मार्तंड सबल है

मृदुभाषा का मुख मंडल,
है अंहकार की दारा
सिंदूरमोहमदचूनर,
भुजपाश क्रोध की करा

आश्वाशन आभा मंडित,
इर्ष्या से अधर सजाये
पर द्रोही कंचन काया,
सुख शान्ति जलाती जाए

डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेलराही

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परिवर्तन नियम समर्पित ,
झुककर मिलना फिर जाना।
आंखों की बोली मिलती ,
तो संधि उलझते जाना॥

संध्या तो अपने रंग में,
अम्बर को ही रंग देती।
ब्रीङा की तेरी लाली,
निज में संचित कर लेती॥

अनगिनत प्रश्न करता हूँ,
अंतस की परछाई से।
निर्लिप्त नयन हंस-हंस कर,
मुंद जाते पहुनाई से ॥

-डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल ‘राही’

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खुले अधर थे शांत नयन,
तर्जनी टिकी थी चिवु पर।
ज्यों प्रेम जलधि में चिन्मय,
छाया पड़ती हो विधु पर॥

है रीती निराली इनकी ,
जाने किस पर आ जाए।
है उचित , कहाँ अनुचित है?
आँखें न भेद कर पाये॥

अधखुले नयन थे ऐसे,
प्रात: नीरज हो जैसे।
चितवन के पर उड़ते हो,
पर भ्रमर बंधा हो जैसे॥

-डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल “राही”

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वक्र – पंक्ति में कुंद कलि
किसलय के अवगुण्ठन में।
तृष्णा में शुक है आकुल,
ज्यों राधा नन्दन वन में॥

उज्जवल जलकुम्भी की शुचि,
पंखुडियां श्वेत निराली।
हो अधर विचुम्बित आभा,
जल अरुण समाहित लाली॥

विम्बित नीरज गरिमा से
मंडित कपोल तुम्हारे।
नीख ज्वाला में उनकी ,
जलते है स्वप्न हमारे॥

-डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल ‘राही’

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शशि मुख लहराती लट भी,
कुछ ऐसा दृश्य दिखाए।
माद्क सुगन्धि भर रजनी,
अब चेतन सी लहराए॥

मन को उव्देलित करता,
तेरे माथे का चन्दन।
तिल-तिल जलना बतलाता
तेरे अधरों का कम्पन ॥

पूनम चंदा मुख मंडल,
अम्बर गंगा सी चुनर।
विद्रुम अधरों पर अलकें,
रजनी में चपला चादर॥

-डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल ‘राही’

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