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Archive for the ‘महंत विनयदास’ Category


साहित्य जगत के नामचीन कवि, कथाकार विनोद दास मुम्बई से, प्रखर समीक्षक व कथाशिल्पी विनयदास की अयोध्या मुद्दा बनाम राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद प्रकरण पर एक बेबाक बातचीत-
युवा ज्ञानपीठ पुरस्कार, श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार, केदारनाथ अग्रवाल सम्मान जैसे अनेकशः पुरस्कारों से सम्मानित कवि विनोद दास ‘खिलाफ हवा से गुजरते हुए,’ ‘वर्णमाला से बाहर,’ ‘कविता का वैभव’ (समीक्षा) ‘भारतीय सिनेमा का अन्तःकरण,’ ‘बतरस’ (इन्टरव्यू) जैसी पुस्तकों के रचयिता हैं। उनकी काव्य चेतना पर हैदराबाद यूनिवर्सिटी से लघुशोध तथा उनकी फिल्म पुस्तक पर नागपुर यूनिवर्सिटी से लघु शोध प्रबन्ध भी हो चुके हैं।
विनयदास-साठ वर्षों के लम्बे अन्तराल से अयोध्या मन्दिर-मस्जिद मुद्दे पर उच्च न्यायालय के 30 सितम्बर 2010 के फैसले को किस हद तक कानूनी माना जा सकता है क्योंकि फैसले का मुख्य आधार आस्था है? इस पर आप क्या कहना चाहेंगे?
विनोददास-जहाँ तक मुझे लगता है यह एक राजनैतिक फैसला है। इस फैसले में न्याय की जो बुनियादी संरचना है उसका पालन नहीं हुआ है, क्योंकि यह फैसला आस्था के आधार पर दिया गया है न कि दस्तावेजी प्रमाणों के आधार पर यहाँ यह भी याद रखना चाहिए कि यहाँ पर रामलला मंदिर के कोई पोख्ता प्रमाण भी नहीं मिले हैं।
विनयदास-अभी तक मुसलमानों का कहना था, हमें न्यायालय का फैसला मान्य होगा। किन्तु फैसला आने के बाद वे इसे मानने से अब मुकर रहे हैं। इस सन्दर्भ में आपकी क्या राय है?
विनोददास-मुसलमान कहाँ मुकरे हैं। इस फैसले के बाद उन्होंने अद्भुत धैर्य का परिचय दिया है। फिर इसे अभी एक कोर्ट ने कहा है। यह फैसला उन्हें न्याय के आधार पर नहीं लगता है। इसके लिए उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खुला है। विश्वास है शायद उन्हें वहाँ न्याय मिल सके। उन्हें इस फैसले के विरोध में आगे जाना ही चाहिए।
विनयदास- न्यायिक प्रक्रिया और आस्था में आप कैसा और कितना सम्बन्ध देखते हैं?
विनोददास- जाहिर है आस्था मनुष्य की एक निजी सोच है, निजी व्यवस्था है, जबकि कानून एक सामाजिक व्यवस्था है। हर नागरिक की अलग-अलग आस्थाएँ हैं। मेरी समझ से आस्था का प्रश्न वैयक्तिक है जबकि कानून सामाजिक समानता, सामाजिक समरसता के सिद्धान्त पर बना है। अतः मैं न्याय के पक्ष में हूँ न कि आस्था के।
विनयदास- अयोध्या मन्दिर मस्जिद के फैसले पर कम्युनिस्ट ज्यादातर चुप रहे। क्या वे इस फैसले से असन्तुष्ट और इस मुद्दे को न हल होने देने के पक्ष में है।
विनोददास- कम्युनिस्ट चुप कहाँ हंै? फिर कम्युनिस्ट से आपका आशय क्या है? इसका विरोध कमोबेश सभी कम्युनिस्टों ने किया है। वे इस फैसले के स्थाई समाधान में विश्वास रखते हैं न कि इसके अस्थाई और तात्कालिक समाधान में। वे इसे नासूर नहीं बनने देना चाहते हैं। हो सकता है एक पक्ष जो अभी आपको शान्त दिखाई देता है आगे चलकर वह बम-सा विस्फोट कर जाए। जिससे पूरे समाज में अशान्ति फैल जाए।
विनयदास- सुन्नी वक्फ बोर्ड इस निर्णय के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट जाना चाहता है। यदि वह उच्च न्यायालय के निर्णय को स्वीकार नहीं कर सका, तो क्या वह उच्चतम न्यायालय के निर्णय को, जो इसी से मिलता-जुलता हुआ तो क्या वह उसे स्वीकार कर लेगा।
विनोददास- अगर वे ऐसा कर रहें हैं तो बुरा क्या कर रहे है? अगर वे ऐसा कह रहे है तो हमें उन पर विश्वास करना चाहिए।
विनयदास- मन्दिर स्थल की खुदाई में जो ध्वंसावशेष मिले हैं उसे पुरातत्व विदों ने जाँच के बाद मन्दिर के पक्ष के अवशेष बताए हैं फिर मस्जिद का सवाल ही कहाँ?
विनोददास- मेरी समझ में जो पुरातात्विक अवशेष मिले हैं वे मन्दिर के पक्ष में नहीं हैं। यदि वहाँ मन्दिर होता तो हड्डियाँ न मिलतीं और वहाँ पर कब्रें न मिलतीं। इससे लगता है वहाँ मन्दिर नहीं था।
विनयदास- विश्व हिन्दू परिषद, बजरंगदल, आदि विभिन्न हिन्दू संगठन भी इस फैसले पर मुसलमानों के असन्तोषजनक प्रतिक्रिया स्वरूप अब असन्तोष व्यक्त कर रहे हैं। वे कह रहे हैं राम मन्दिर-अयोध्या प्रकरण को हम शाहबानो फैसले की तर्ज पर पार्लियामेन्ट में ले जाएँगे। जब पार्लियामेन्ट उनके लिए कानून बदल सकती है, संशोधित कर सकती है तो हमारे लिए क्यों नहीं?
विनोददास- पार्लियामेन्ट कानून बना सकती है। जिसके आधार पर फैसला लिया जा सकता है। मगर वह फैसला दे नहीं सकती फैसला अन्ततः न्यायालय को ही करना होगा। जो लोग ऐसा कह रहे हैं उन्हें कानून के प्रक्रिया की जानकारी नहीं है। अशोक सिंघल आई0पी0एस0 रह चुके हैं जब वे ऐसी बात कह रहे हैं तो इसे हमारे देश का दुर्भाग्य ही समझें।
विनयदास- क्या आपको नहीं लगता कि न्यायालय का फैसला न्याय की प्रक्रिया से कम और सामाजिक समरसता के सिद्धान्त से अधिक प्रेरित है। इस कारण से देश में एक बड़ा तूफान आने से बच गया।
विनोददास- आपकी बात बिल्कुल ठीक है। इस दृष्टि से देखें तो यह फैसला एक हद तक संतोषजनक कहा जा सकता है। इसमें सभी को सन्तुष्ट करने की कोशिश की गई है। इसमें सामाजिक समरसता का ध्यान रखा गया है मगर कानूनी प्रक्रिया का नहीं।

-विनयदास
मोबाइल: 09235574885

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अपने समकालीन रचनाकारों में मुद्राराक्षस प्रारम्भ से ही चर्चित रहे हैं। कभी अपनी विशिष्ट आदतों के कारण, कभी अपनी हरकतों के कारण तो कभी अपने विवादास्पद लेखन के कारण।
अब से एक दशक पूर्व रचना प्रकाशन की दृष्टि से मुद्राराक्षस अपने समकालिक रचनाकारों से भले ही पीछे रहे हों, किन्तु आज की तारीख में वे अपने समकालिक ही नहीं बल्कि वर्तमान हिन्दी साहित्य के लेखकों के बीच रचना प्रकाशन की दृष्टि से और अपने बहुआयामी लेखन के जरिये राष्ट्रीय ही नहीं वरन अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर खासे महत्वपूर्ण हैं, जबकि इधर के दशकों में उनका कोई उपन्यास नहीं प्रकाशित हुआ है। वे अपनी कहानियों, आलोचना का समाजशास्त्र, कालातीत संस्मरण तथा धर्मग्रन्थों का पुनर्पाठ के जरिये लगातार चर्चा में हैं। सच पूछो तो वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य पर न तो उनके कद का कोई रचनाकार ठहरता है और न उनका कद्दावर ही। यदि हमें दो चार रचनाकारों के नाम लेने ही हों यथा नामवर सिंह तो वे केवल हिन्दी आलोचना क्षेत्र की प्रतिभा हैं, श्री लाल शुक्ल केवल कथा लेखन के क्षेत्र के हैं, इसी तरह रवीन्द्र कालिया और ज्ञान रंजन आदि एक सीमित विधा के महारथी हैं। जबकि मुद्राराक्षस ने कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना और अपने सामाजिक राजनीतिक चिन्तन परक लेखों के जरिये इन सभी क्षेत्रों में एक सार्थक हस्तक्षेप किया है। उनके लेखन ने साहित्य और समाज को खासा आन्दोलित, प्रभावित और परिवर्तित किया है। मुझे नहीं लगता वर्तमान हिन्दी साहित्य में उनके समकक्ष कोई अन्य लेखक पहुँचता हो।
इधर के वर्षों में मुद्राराक्षस अपने अखबारी कालम और विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अपने हिन्दू धर्म विरोधी लेखों के कारण सुर्खियों में रहे हैं। जिसकी एक परिणति ‘धर्म ग्रंथों का पुनर्पाठ’ में दिखायी देती है। उनकी वचन बद्धता ईसाई और मुस्लिम धर्म के पुनर्पाठ के प्रति भी है। ईसाई धर्म को लेकर ‘गास्पेलों का पुनर्पाठ’ पुस्तक बाजार में उपलब्ध है और इसका एक अंग्रेजी एडीशन इंग्लैण्ड से भी प्रकाशित हो रहा है।
धर्मग्रन्थों का पुनर्पाठ से लेकर गास्पेलों का पुनर्पाठ तक आते-आते मुद्राराक्षस की मुद्रा निरन्तर बदलती गयी है। लगता है इस्लाम धर्म के पुनर्पाठ तक पहुँचते-पहुँचते उनका यह तेवर कहीं मक्खन सा नम होकर उस पर महज पालिश भर न रह जाये।
जिन लोगों ने धर्म ग्रंथों का पुनर्पाठ पढ़ा था, सराहा था। विरोध दर्ज कराया था, वे लोग मुद्राराक्षस के तेज तर्रार विवेचन-विश्लेषण, तर्काश्रित मुहावरे, विभिन्न तथ्यों के प्रति उनका बेबाक निजी दृष्टिकोण के कायल हुए बिना न रह सके थे। जिसमें एक खास था-उनका हिन्दू धर्मग्रंथों के प्रति अनुदार, पूर्वाग्रह युक्त हठधर्मी दृष्टिकोण। जिसमें उन्होंने कई बार तथ्यों को तोड़ मरोड़कर अपनी बात सिद्ध करने का प्रयास किया। इन गुणों से आकर्षित होकर जब कोई पाठक ‘गास्पेलों का पुनर्पाठ’ की यात्रा के अन्तिम पड़ाव तक पहुँचता है तो उसे इनमें से बहुत कम गुण इस पुस्तक में मिलते हैं और अन्त तक मुद्राराक्षस ईसाई धर्म का पुनर्पाठ तो कम बल्कि उल्टे मसीहाई प्रचारक की भूमिका में रंगे अवश्य दिखाई देने लगते हैं। यह बौद्धिक चालाकी भूमिका से ही दिखाई देने लगती है। जहाँ उन्होंने लिखा है कि हमारे लिए महत्वपूर्ण यह जानना है कि बाइबिल या कुरआन की बनावट या उनके चरित्र में कोई युद्धोन्मादी या युद्ध के लिए उकसाने वाले तत्व हैं। कहने का मतलब धर्मग्रंथों का पुनर्पाठ में उन्होंने वेदों से लेकर शंकराचार्य तक के ग्रंथों का आलोचनात्मक अध्ययन किया था जबकि ईसाई और यहूदी धर्म के सन्दर्भ में मुद्राराक्षस ओल्ड टेस्टामेन्ट, न्यू टेस्टामेंट, मैथ्यू, लूक, आर्क और जान गास्पेल्स जैसे ग्रंथों का आलोचनात्मक पाठ न करके उसका सरल रेखीय पाठ कर उसे उद्धृत कर किया है। यहाँ पर वे ईसाई धर्म की उन पुस्तकों पर दृष्टि तक नहीं डालते जिन्होंने ईसा मसीह को विवाहित और सन्तान शुदा बताने के (दा विंची कोड और होली ब्लड होली ग्रेल) दावे प्रस्तुत किये हैं। आखिर उनके प्रति मौन क्यों? स्पष्ट है हम दूसरे धर्मों के ग्रंथों का चाहे जितना अध्ययन करें किन्तु वहाँ पर होते हम एक आउट साइडर ही हैं यही कारण है यह पुस्तक हिन्दी जगत को नहीं लुभा पा रही है।
हम एक छोटे से दृष्टान्त से उनकी कुन्द होती आलोचनात्मक दृष्टि को समझ सकते हैं कि वे ईसाइत के प्रति कितने नरम और धर्मभीरू तथा हिन्दू के प्रति किस कदर तीखे तेवर अपनाते हैं। मेरी अविवाहित माँ थी। जीसस का जन्म एक गैर विवाहिता की कोख से हुआ था। जोसेफ ने यह जानकर भी उससे विवाह कर लिया था। ऐसी स्त्रियों के प्रति यहूदी समाज कितना कठोर है, कैसी यातनाएं देता है इसका वे जिक्र तक नहीं करते बल्कि उन्हें तुलना के लिए भारत और राजस्थान याद आता है। जहाँ आज भी जन्म के समय ही लड़कियाँ मौत के घाट उतार दी जाती हैं, किन्तु मेरी का समाज कितना क्रूर था इसके विषय में वे चुप रहते हैं या संकेत भर करते हैं।
यहाँ जीसस और कुमारिल भट्ट का प्रसंग देखना दिलचस्प होगा, एक बार जीसस जेरूसलम मंदिर के शिखर पर ले जाये गये और कहा गया-यहाँ से कूदो अगर ईश्वर तुम्हें अपनी हथेली पर रोक लेगा तो हम तुम्हें मान लेंगे।
जीसस का जवाब देखें-ईश्वर का इम्तिहान नहीं लिया जाता। इसी तरह कुमारिल भट्ट और बौद्ध विद्वानों की बहस के बाद इसी से मिलता जुलता सवाल कुमारिल भट्ट से किया गया, अगर तुम मानते हो भगवान है तो तुम इस महल के कंगूरे से कूदो और कहो कि भगवान तुम्हें बचा ले।
कुमारिल ने चुनौती स्वीकार की और उनके पैर टूट गये। यहाँ मुद्राराक्षस का यह कहना कि कुमारिल अतार्किक और जीसस तार्किक थे। किन्तु विचारणीय बिन्दु यह था कि भगवान तुम्हें बचा ले, यानी की मृत्यु से रक्षा, चुनौती स्वीकार करके भी कुमारिल मरते नहीं जीवित रहते हैं।
ऐसे कितने ही प्रसंग मुद्राराक्षस की

बौद्धिक प्रतिभा पर सवाल खड़े करते हैं और अन्तिम अध्याय ‘एक निहत्थे का युद्ध’ अत्यन्त संवेदनात्मक होने के साथ उसे एक कहानी का स्वरूप दे दिया है जो अत्यन्त भावनात्मक है। वे जीसस के चमत्कारों पर खुश होते हैं और हिन्दू संतों के चमत्कारों पर आक्रोशित, आखिर क्यों? एक ही वस्तु के प्रति दो दृष्टिकोण अपनाने के चलते मुद्राराक्षस की मुद्रा एक ईसाई प्रचारक के रूप मंे ही अधिक बनती है।

-महंत विनयदास
मो0 09235574885

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