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Posts Tagged ‘अनिल राजिमवाले’

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दोस्त हो तो दौलतराज जैसा
मैं कृषि मंडी से बाहर हो गया, घर लौटने का मन नहीं था, संघ के लोगों द्वारा खाना फेंकने के बाद से मैं घर जाने से कतराता था, भीलवाड़ा में ही इधर-उधर भटकना, कहीं खाना, कहीं सोना, कुछ भी ठिकाना न था, अनिश्चय, अनिर्णय और अन्यमनस्क स्थिति के चलते मेरा अध्ययन प्रभावित हो गया, मैंने माणिक्यलाल वर्मा राजकीय महाविद्यालय में प्रथम वर्ष कला संकाय में प्रवेश तो लिया और साल भर छात्र लीडरशिप भी की, लेकिन एग्जाम नहीं दे पाया ,घर पर पिताजी को जब इसकी खबर मिली तो उनकी डाँट पड़ी ,कुछ गालियाँ भी, बस गनीमत यह थी कि पिटाई नहीं हुई, लेकिन इससे पढ़ाई बाधित हो गई, बाद का सारा अध्ययन स्वयंपाठी के रूप में ही संपन्न हुआ। उन विकट दिनों में मुझे अपने छोटे से कमरे में शरण दी, करेड़ा क्षेत्र की नारेली ग्राम पंचायत के रामपुरिया गाँव के निवासी दौलत राज नागोड़ा ने, वे भी आरएसएस के स्वयंसेवक थे, ऑफिसर्स ट्रेनिंग प्राप्त, संघ कार्यालय पर भी रह चुके थे, बदनोर में रहते हुए उन्होंने संघ के आदर्श विद्या मंदिर में आचार्य के नाते भी अपनी सेवाएँ दी थीं, वे बहुत ही सक्रिय स्वयंसेवक माने जाते थे, उनका बौद्धिक भी बेहद सधा हुआ होता था, एक शिक्षक की तरह वे बोलते जो समझने में आसान होता, संघ के गीत भी उन्हें खूब कंठस्थ थे, जिन्हें वे विभिन्न मौकों पर गाते थे ,उनमे लोगो को मोबलाइज करने की अदभुत क्षमता है। उन्हें भी संघ कार्य के दौरान कई प्रकार के कटु अनुभव हुए, भेदभाव और अस्पृश्यता की कड़वी अनुभूतियाँ। एक बार उन्होंने महाराजा अजमीड आदर्श विद्या मंदिर में आयोजित आरएसएस के ऑफिसर्स ट्रेनिंग कैंप (ओटीसी) के बौद्धिक सत्र में जाति उन्मूलन में संघ की भूमिका से सम्बंधित सवाल उठा दिया, जिसका कोई जवाब संघ के पदाधिकारियों से देते नहीं बना ,तत्कालीन प्रचारक महोदय ने दौलत जी को कुछ उल्टा सीधा जवाब दे दिया, मामला इतना तूल पकड़ गया कि मारपीट की नौबत आ गई, जिला प्रचारक और दौलत राज नागोड़ा गुत्थमगुत्था हो गए, दौलत जी भी ठहरे ठेठ देहाती संघर्षशील व्यक्ति। हार मानने का तो सवाल ही नहीं उठता था, उन्होंने संघ के सैंकड़ों कार्यकर्ताओं की मौजूदगी में प्रचारक जी के बाल नोच लिए और उस दिन से आरएसएस से किनारा भी कर लिया, बाद में उन्होंने एक अम्बेडकर बचत समूह बनाकर दलितों को संगठित करना शुरू किया, यह काम उन्होंने निरंतर जारी रखा, दलित आदिवासी युवाओं को कानूनी प्रशिक्षण देने और उन्हें फूले, कबीर, अम्बेडकर के मिशन से जोड़ने में लगे रहे और आज भी लगे हुए हंै। संघ से लड़ाई होने के बाद दौलत राज जी गाडरीखेड़ा में एक कमरा किराये पर ले कर इलेक्ट्रीशियन ट्रेड में आईटीआई करने लगे इस सरकारी संस्थान में भी संघियों की भरमार थी, उनको वहाँ भी उनसे संघर्ष करना पड़ा, बहुत ही कठिन परिस्थितियों में उन्होंने उच्च शिक्षा हासिल की, पान की केबिन लगाकर उन्होंने अपनी वकालत की पढ़ाई पूरी की। फिर प्रैक्टिस शुरू की, वहाँ भी गरीबों के मुद्दे उठाये, उनकी पैरवी की, आज भी पीडि़तों के लिए उनकी प्रतिबद्धता जग जाहिर है तो ऐसे समर्पित साथी के साथ उस छोटे से कमरे में मैं कई दिनों तक टिका, वहीं से एक अखबार निकालने की धुन मुझ पर सवार हुई, मैं अभिव्यक्ति का एक जरिया चाहता था, जिससे संघ और उसकी विचार धारा के दोगलेपन को उजागर कर सकूँ, अंततः वह जरिया पा लिया ‘दहकते अंगारे’ नामक पाक्षिक समाचार पत्र प्रारंभ करके, दौलत राज नागोड़ा तब से आज तक साथ बने हुए हैं, कई बार उन्मादी हुड़दंगी लोगों ने हमारे खिलाफ फतवे जारी किए, हमारी निंदा की गयी ,हमें अलग थलग करने के प्रयास किये गए, मगर संघी हमें दलित, पीडि़त, वंचित जनता से अलग कर पाने में सफल नहीं हुए। दलितों पीडि़तो और हाशिये के तबकों के लिए हमारी आवाज बंद होने के बजाए बुलंद ही हुई। आज दौलत राज नागोड़ा एक स्थापित वकील है, तीन बार वे आसींद बार एसोसिएशन के निर्विरोध अध्यक्ष रह चुके हैं और राजस्थान के दलित मूवमेंट का जाना पहचाना नाम है। इन दिनों वे दलित आदिवासी एवं घुमंतू अधिकार अभियान राजस्थान (डगर) के प्रदेश संयोजक भी हंै और वंचितों के लिए पूरी तरह से समर्पित रहते हैं।
जिन्दगी में दोस्त तो बहुत मिले और मिलते रहते हैं, आगे भी मिलेंगे, पर विगत 25 वर्षों से दौलत जी के साथ जो वैचारिक और मिशनरी दोस्ती बनी रही, उसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ और अक्सर कहता हूँ कि जीवन में दोस्त हो तो दौलत राज जैसा।
बदलाव नहीं बदला लेने की इच्छा
मैं किसी भी तरीके से प्रतिशोध लेना चाहता था, इसके लिए किसी से भी हाथ मिलाने को तैयार था, जैसा कि नीति कहती है कि दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है, इसलिए मैं उन तमाम लोगांे से मिलने लगा जिनको आरएसएस के लोग बुरे लोग बताते थे, अब मेरे परिचय क्षेत्र में सेकुलर विधर्मी सब आने लगे, मैं आगे होकर उनसे परिचय बढ़ा रहा था, संघ में रहते हुए मेरे गिनती के मुसलमान ही परिचित थे, चूँकि मैं उन दिनों हास्य व्यंग्य के नाम पर घटिया किस्म की फूहड़ राजस्थानी कविताएँ लिखता था और उन्हें सुनाने के लिए कवि सम्मेलनों में जाता था, इसलिए जमालुद्दीन जौहर, अजीज जख्मी और एक मौलाना नौशाद आलम नामक मुसलमान मेरे जान पहचान के थे, एक और भी व्यक्ति थे वे ट्रेड यूनियन लीडर थे अलाउद्दीन बेदिल, वो भी कभी कभार शेरो शायरी करते थे, इसलिए मुलाकातें हो जाया करती थीं, इनमें से नौशाद आलम मेरी उम्र के ही थे और कविता कहानी के अलावा भी उनसे बातें होती थीं, इसलिए मैंने उनसे दोस्ती बनाने का निश्चय किया और उनसे मिलने निकल पड़ा। नौशाद आलम मूलतः बिहारी थे और मेरे निकटवर्ती गाँव भगवानपुरा में एक मस्जिद में इमामत भी करते थे और मदरसे में पढ़ाते भी थें, ग़ज़लें लिखना तो उनका शौक मात्र था, बाद के दिनों में वे गुलनगरी भीलवाड़ा की मस्जिद के इमाम बन गए, यह उन दिनों की बात है जब कि दूसरी कारसेवा भी हो चुकी थी और बाबरी मस्जिद तोड़ी जा चुकी थी, मुस्लिम मानस गुस्सा था, विशेषकर संघ परिवार के प्रति मुस्लिम युवाओं में भयंकर गुस्सा दिखलाई पड़ता था, तो उस तरह के गरमागरम माहौल में मैं एक दिन मौलाना नौशाद आलम से मिलने पहुँचा, थोड़ी झिझक तो थी, आज मैं एक मस्जिद से लगे मदरसे में बैठा था, इन मस्जिदों के तहखानों में असलहे छिपाकर रखे जाने की बातें संघ में रहते बहुत सुनी थी, इसलिए थोड़ा सा भय भी था पर जब आ ही गया तो बात करके ही वापसी होनी थी, इसलिए रुका रहा, मदरसे से फ्री होकर मौलाना साहब नमाज पढ़ने चले गए, लौटे तो बातचीत का सिलसिला चला, घंटों तक हुई गुफ्तगू का कुल जमा सार सिर्फ यह था कि हमारा दुश्मन एक ही है इसलिए मिलकर उसकी खिलाफत की जाए, सहमति बनी एक संगठन दलित युवाओं का और एक मुस्लिम यूथ का बनाने की। मैंने दलित एक्शन फोर्स बनाई जिससे दलित नौजवान जुड़ने थे और मौलाना नौशाद आलम ने मुसलमान युवाओं के लिए हैदर -ए-कर्रार इस्लामिक सेवक संघ बनाया, मकसद था आरएसएस की कारगुजारियों का पर्दाफाश करना और जरूरत पड़ने पर सीधी कार्यवाही करके जवाब देना, इन संगठनों के बारे में जगह जगह चर्चा शुरू की गई, लोग जुड़ने भी लगे लेकिन हम कुछ भी कर पाते इससे पहले ही खुफिया एजेंसियांे को इन दोनों संगठनों की भनक लग गई और सीआईडी तथा आईबी के अधिकारी और स्थानीय पुलिस हमारे पीछे पड़ गई, हमारे द्वारा नव स्थापित दोनों ही संगठन अपने जन्म के साथ ही मर गए, हम कुछ भी नहीं कर पाए लेकिन इस असफलता ने मुझे निराश और हताश नहीं किया, मेरा गुस्सा जरूर और बढ़ गया, मैंने हार मानने की जगह आरएसएस को चिढ़ाने के लिए धर्म परिवर्तन कर लेने की तरकीब सोची।
-भँवर मेघवंशी
लोकसंघर्ष पत्रिका -सितम्बर अंक में प्रकाशित

लोकसंघर्ष पत्रिका  का कवर

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edc58-01
आखिरकार कई वर्षों और दशकों की मशक्कत के बाद भाजपा को अकेले बहुमत मिल ही गया। एक मायने में यदि यह अचरज भरा है तो अन्य दृष्टि से ऐसा नहीं है। ऐसे सत्ता परिवर्तन की तैयारियाँ काफी अरसे से की जा रही थीं और इसके लिए जनता के बीच सांप्रदायिक धु्रवीकरण और अन्य ‘प्रयोग’ किए जा रहे थे, जैसा की नई शासक पार्टी ने खुद कई बार दावा किया है। इस परिवर्तन की कई खासियतें हैं और उन पर आने वाले समय में विचार-विश्लेषण होता रहेगा। सुनियोजित योजना के तहत पिछले दो एक दशकों से भाजपा केन्द्र में अपनी सत्ता लाने की कोशिश में रही है।
वैसे जनतंत्र में सभी को चुनाव लड़ने और सत्ता में आने, उचित संख्या में सीटें प्राप्त करके अपनी सरकार बनाने का आधिकार है और इसमें कोई गलत भी नहीं है लेकिन इस सन्दर्भ में कुछ विशेषताओं की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। पहली बार सत्ताधारी पार्टी इतने कम मतों से जीत कर आई है। भाजपा को मात्र 31 प्रतिशत वोट मिले हैं और बाकी सभी को 69 प्रतिशत का विशाल बहुमत, जो सीटों के रूप में रूपांतरित नहीं हो पाया। इधर कुछ समय से समानुपातिक चुनाव प्रणाली के पक्ष में विचार दिए जा रहे हैं। इन चुनाव नतीजों से चुनाव प्रणाली बदलने का तरीका मजबूत होता है। आखिर जिनको 20 या 50 या 69 प्रतिशत मत मिले हैं उनका उचित प्रतिनिधित्व तो होना ही चाहिए। इस माने में नतीजे एकतरफा हैं।
दक्षिणपंथ की जीत
इस देश में पहली बार वह ताकत जीत कर आई है जिसका आजादी के आंदोलन से कोई संबंध नहीं था। साथ ही हर मायने में एक दक्षिणपंथी पार्टी की सरकार बनी है। संघ ने हमेशा ही स्वतंत्रता संग्राम से स्वयं को अलग रखा और अपना निशाना ब्रिटिश साम्राज्यवाद को नहीं बल्कि कुछ समुदायों को बनाया। संघ ने साफ कहा कि वह राजनैतिक संस्था नहीं है, इसलिए आजादी की लड़ाई में भाग नहीं लेगी। अब अचानक इतने अरसे बाद वह चुनाव के राजनैतिक मैदान में क्यों कूद पड़ी, यह अचरज की तथा विश्लेषण की बात है। इसका जवाब तो उन्हे ही देना है। इस मानसिकता से वे देश को कैसे चलाएँगे, यह देखना है। वैसे देश का जनतांत्रिक ढाँचा किसी को इतनी आसानी से उसे तोड़ने की शक्ति नहीं देता, फिर भी खतरा तो है ही।
हम यह भी याद करें की सांप्रदायिक शक्तियों से लड़ते हुए गणेश शंकर विद्यार्थी और महात्मा गाँधी ने क्रमशः आजादी से पहले और बाद में अपनी जानें गवाँईं। वे सांप्रदायिक षड्यंत्रों के शिकार हुए और दोनों की ही हत्याएँ साम्प्रदायवादी शक्तियों ने कीं। हिंदू और मुस्लिम तथा अन्य संप्रदायवाद देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बने हुए हैं। इस सन्दर्भ में संघ पर प्रश्न-चिह्न है क्योंकि उसने इन दो हत्याओं तथा अन्य घटनाओं की अभी तक निंदा नहीं की है।
भारत के इतिहास में पहली बार पूर्णतः दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी शक्तियों की केन्द्र में जीत हुई है। यदि इस लेबल से केंद्रीय पार्टी अपने को मुक्त करले तो बड़ी उपलब्धि होगी। लगातार हमारी संसद और लोकसभा में प्रथम आम चुनावों से ही मनमर्जी, जनतांत्रिक शक्तियों का वर्चस्व रहा है। 1952 से लेकर आज तक दक्षिण पंथी पार्टियाँ हाशिए पर रही हैं। वर्तमान परिवर्तन कैसे हुआ, इस पर कुछ विचार हम आज प्रस्तुत करेंगे:-
आज देश में जो कुछ विकास देख रहे हैं, वह पब्लिक सेक्टर आधारित उन मूल आर्थिक नीतियों का नतीजा है जो वाम तथा कम्युनिस्ट विचारधारा और प्रगतिशील कांग्रेसियों की देखरेख में लागू की र्गइं। आज भारत 1947 का पिछड़ा, गरीब और विदेशी सहायता पर निर्भर भारत नहीं रह गया है। आज भारत चीन के बाद विश्व का दूसरा सबसे तेज विकसित होता हुआ देश है जो कच्चे माल के निर्यात पर नहीं बल्कि तैयार विकसित औद्योगिक सामानों, जिनमे ऑटोमोबाइल और भारी मशीनें शामिल हैं, के निर्यात में अपनी महत्वपूर्ण जगह बना चुका है। यह विकास है जिसे दक्षिणपंथी शक्तियाँ नजर अंदाज करना चाहती हैं। यह विकास बड़े सामंतों, इजारेदारों और साम्राज्यवादियों से संघर्ष करके हुआ है। यह नीति अब खतरे में पड़ गई है।
आज ‘विकास’ की बात करना एक फैशन हो गया है। भाजपा ने भी बड़े दावे चुनावों में किए हैं और यह दर्शाने की कोशिश की है कि सिर्फ वही ‘विकास’ का प्रतिनिधि है। अब तक विरोध करते हुए अचानक संघ विकास का प्रचारक बन गया है, लेकिन अब तक उसने जनता को और देश को यह नहीं बताया है कि वह कैसा विकास करेगा क्या कदम उठाएगा और देश की समस्याएँ कैसे हल करेगा। यह तो समय ही बताएगा, लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि भारत विकास के ही उस रास्ते पर चल रहा था जिस रास्ते का पुरजोर विरोध स्वयं भाजपा ने लगातार किया है। सवाल यहाँ आर्थिक रणनीति और कार्यनीति का है जिस पर संघ और मोदी ने अब तक कुछ भी पेश नहीं किया है। विकास शब्द का उच्चारण करने से विकास नहीं होगा। हमारे देश की स्वीकृत रणनीति पब्लिक सेक्टर के गिर्द मिश्रित अर्थव्यवस्था की रही है जो ‘नेहरू आर्थिक रूपरेखा’ या नेहरू मार्ग के नाम से जानी जाती है।
आज की आर्थिक और राजनैतिक घटनाएँ इसी आर्थिक आधार और उसके अंतर्विरोधों की देन हैं। इसलिए, देश की वर्तमान घटनाएँ विकास की कमी नहीं बल्कि विकास के अर्थविरोधों का नतीजा हैं। विकास का यह मार्ग परस्पर टकराओं से भरा और कई मायनों में अपूर्ण रहा है। वर्तमान सरकार इस विकास के चरम दक्षिणपंथी तबकों की नीतियों का परिणाम हैं, सिर्फ जनता के असंतोष का नहीं।
इजारेदार पूँजीवाद का समर्थन
कॉर्पोरेट घरानों और देश के इजारेदार पूँजीपतियों के सबसे दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी तबकों, जिन्हें राजनीति की भाषा में चरम दक्षिणपंथी कहते हैं, ने अपनी सारी ताकत मोदी के पक्ष में झोंक दी। साथ ही कंाग्रेस की जन विरोधी नीतियों ने इन्हें पूरा अवसर दिया। संघ विरोधी पार्टियों में एकता की भारी कमी रही, और संघ आदि ने जनता के उन तारों को छेड़ा जो दुखती रग थे। जनता ने अपने गुस्से का इजहार इन नीतियों के रूप में किया।
वर्गीय दृष्टिकोण से इजारेदार पूँजीवाद और कॉर्पोरेट घरानों के सबसे दक्षिणपंथी हिस्सों ने मोदी के रूप में चरम दक्षिणपंथी प्रक्रियावाद को तैयार किया। यह शब्दों का जाल नहीं, एक लच्छी है। इसीलिए अकूत मात्रा में धन बहाया गया। अखबारों के अनुसार 10 हजार करोड़ रुपये खर्च किए गए। कहाँ से आए ये पैसे? और इस धन को तो बटोरने की पहले से कोशिश होगी। इसे अभी तक जनता समझ नहीं पाई है। जिस दिन थोड़ा भी समझ जाएगी, भाजपा का पतन शुरू हो जाएगा।
कॉरपोरेट घराने क्यों भाजपा के पीछे हैं? क्योंकि उन्हें पिछली सरकार में जो भी रुकावटें थी, उनकी पूर्ण समाप्ति वे चाहते हैं। वे निरंकुश इजारेदार-साम्यवादी पूँजी का शासन चाहते हैं। मोदी इसके लिए सबसे उपयुक्त हैं और उनकी पार्टी भाजपा, सबसे उपयुक्त पार्टी और संघ सबसे उपयुक्त ‘हथियार बंद फौज’ है। उनके लिए, ये सारी घटनाएँ हमें जाने अंजाने में 30 के दशक में जर्मनी में हिटलर के उत्थान की याद दिलाती हैं। उस पर फिर कभी विचार किया जाएगा, जब अन्य घटनाएँ सामने आएँगी।
इसलिए विकास की दिशा को पूरी तरह दक्षिण पाठ और चरम दक्षिण पाठ की ओर मोड़ने की पूरी तैयारियाँ चल रही हैं। हमारा पब्लिक सेक्टर, देश के अर्थतंत्र का आधार और केन्द्र, हमारी राष्ट्रीयता का आर्थिक आधार, खतरे में है।
भाजपा की जीत और अन्य की पराजय के कुछ कारण, धन और मीडिया की भूमिका गौर करने लायक है, पैसों तथा मीडिया की भूमिका इससे पहले इतनी अधिक कभी नहीं थी। सबसे बड़े पूँजीपतियों ने ‘दिल खोलकर’ (अर्थात तिजोरी खोलकर!) संघ ने भाजपा के लिए धन पानी की तरह बहाया। इसका कारण है कि वे अपने हित में अब पूरी तरह संघ जैसी शक्तियों को खड़ा करना चाहते हैं। इसके लिए हमें कड़ी रिसर्च की जरूरत नहीं। अखबारों में कई तथ्य आ चुके हैं।
यह अचरज की बात है और कांग्रेस की नाकामी और उदासीनता कि मीडिया पूरी तरह सरकार और सरकारी पार्टी कांग्रेस के हाथ से निकल चुका था। आज के जमाने में मीडिया समाज और सत्ता का चैथा खंभा कहलाता है, लेकिन उससे शासक पार्टी लगभग पूरी तरह गायब थी। आधा चुनाव तो वह यहीं हार गई, सैकड़ों चैनलों में भाजपा व संघ और मोदी की रिंग कॅमेंट्री की जाती रही। मीडिया में आम लोगों और मेहनतकशों की खबरें नदारद थीं अर्थात वह देश का प्रतिबिम्ब नहीं रह गया था और अभी भी नहीं है। भाजपा के चुनाव जीतने के बाद ऐसा लगता है कि ज्यादातर अखबार, चैनल और पत्रकार सिर्फ सरकार की चमचागीरी में लगे हुए हैं। यह देश के लिए बड़ी चिंताजनक बात है। मीडिया से जनता गायब हो चुकी है। यह हमें पश्चिम के ‘एंबेडेड’ अर्थात सरकारी पम्परा से जुड़े हुए मीडिया की याद दिलाते हंै।
कांग्रेस की नाकामयाबी
ना कांग्रेस, ना ही अन्य कोई पार्टी देश में हो रहे परिवर्तनों को समझ पाई। कांग्रेस आत्म-संतुष्टि से पीडि़त रही। सिर्फ विकास की दर बढ़ने से ही देश का भला नहीं होता है। विकास का फल जनता तक पहुँचना चाहिए, यह समझ उसे बड़ी देर से आई. कांग्रेस पहले ही हारी हुई फौज के समान लड़ रही थी। उसने मीडिया को पूरी तरह कार्पोरेटों और संघ-भाजपा के हवाले कर दिया था। यह नीति समझ में आने लायक नहीं है। कांग्रेस को अपना दंभ त्यागकर अन्य दलों के साथ बराबरी का व्यवहार सीखना होगा। कांग्रेस ने नव-उदारवाद के नतीजों की, जिनका शिकार जनता हुई, पूरी तरह अनदेखी की। ऐसा लगता था की ‘महँगाई बढ़ी तो क्या?’ का रुख उसने अपना लिया था। इस समस्या का समधान नई सरकार को भी करना पड़ेगा। बोलना आसान है लेकिन महँगाई पर नियंत्रण करना आसान नहीं। वाम तथा अन्य दलों की दिशाहीनता, बिहार तथा कुछ एक अन्य जगहों में वाम तथा कुछ अन्य दल और कांग्रेस नजदीक आए हैं। उन्हें एहसास हुआ है कि ‘धर्मनिरपेक्ष ताकतों’ को एक जगह आना चाहिए। इसमे विचारधारा से अधिक कुछ अन्य कारकों की भूमिका भी है।
यह समझदारी पहले क्यों नहीं आई? पहले वे क्या कर रहे थे? और वाम दलों ने अन्य दलों तथा कांग्रेस के साथ सीमित ही सही, तालमेल बिठाने का काम क्यों नहीं किया? चुनाव के बाद तालमेल का क्या मतलब रह जाता है जब आपके पास नंबर ही नहीं हैं, सीटें ही नही मिलीं।
इन प्रश्नों का उत्तर तो वे ही दे सकते हैं। अंकगणित स्पष्ट है- 31 प्रतिशत बनाम 69 प्रतिशत, सीमित तालमेल में भी भाजपा को कोई अवसर नहीं बनता, जीतने का कारण स्पष्ट है-दिशाहीनता। ऐसी पार्टियाँ जो वामपंथी हैं, जो वैज्ञानिक होने का दावा करती हैं, वे भी इस बात को क्यों नहीं समझ पाईं? ऐसा लगता है कि उन्होने रणनीति ताक पर रख दी और उनकी दृष्टि अंध कांग्रेस विरोध से पीडि़त हो गई। वे चुनाव के बाद तीसरे मोर्चे की तलाश में थे, यह भूलते हुए कि यदि सीटें नहीं आईं तो कोई तीसरा या चैथा मोर्चा ना बन सकता है, ना ही उसकी सरकार, हुआ भी यही।
वाम तथा अन्य दल अपनी रणनीति तैयार नहीं कर पाए, वैचारिक संघर्ष नहीं चला पाए, आधे मन से चुनाव लड़े और पूरी तरह तालमेल से अलग रहे। यह अति स्वाभिमान का मामला हुआ। नतीजतन, आज वाम 2008 के बाद 62 सीट से 12 पर आ गया है।
वाम को पूरी तरह समय के साथ बदलने की जरूरत है। उसे देश में हो रहे परिवर्तनों, बदलती सामाजिक रचनाओं, मीडिया, सूचना और तकनीकी क्रांति के नतीजों, मोबाइल और टीवी के महत्व, इत्यादि कई चीजों को समझना होगा। एक के बाद एक बड़े शहरों में वामपंथ कहीं नहीं है। ये शहर और भी बड़े और संख्या में भी अधिक होते जा रहे हैं। फलस्वरूप, वास्तव में वाम और प्रगतिशील छोटे होते जा रहे हैं। चुनाव नतीजे इन मायनों में आश्चर्य की बात नहीं हैं, बल्कि वास्तविकता के ही प्रतिबिम्ब हैं।
वाम को अपनी पूरी रणनीति और कार्यनीति बदलनी होगी। उसे सारी प्रगतिशील शक्तियों को एकजुट करना होगा जिसमें कांग्रेस के प्रगतिशील तबके भी होंगे। सिर्फ एकता या नजदीकियाँ काफी नहीं, वाम सहयोग या मोर्चे को करना क्या है, किससे मित्रता, किससे दूरी बनाना है, नीतियाँ क्या होंगी, यह समझना होगा। वाम के पास कोई वैकल्पिक अर्थनीति नहीं है। वह सिर्फ दक्षिणपंथ की नीतियों पर प्रतिक्रिया दे रहा है, दूसरों के गेंद का जवाब दे रहा है, वह भी ठीक से नहीं। वाम और जनवादी अलग-अलग रहें तो दक्षिणपंथ की जीत सुनिश्चित है। अपने एजेेंडा और उस पर देश को चलाना, यह आवश्यक है।
उसे ऐसा एजेण्डा तैयार करना होगा। जिस पर देश आकृष्ट हो, जिसके गिर्द कांग्रेस समेत अन्य जनवादी पार्टियाँ सीमित अर्थों में ही सही, नजदीक आएँ, कुछ अधूरे मन से कोशिश अवश्य हुई है लेकिन प्रभावी तरीके से नहीं। वाम और जनवादी शक्तियों को स्पष्टता और
धारदार नीतियाँ अपनानी होंगी और देश को साफ दिशा देनी होगी। कोई अगर मगर नहीं चलेगा, ना ही लंबे चैड़ माँग पत्र। वाम सभी प्रगतिशील ताकतों को एक जगह लाए और जनता और देश को दिशा दे वैचारिक तेजी लाए।
देश का भविष्य
हम कह आए हैं कि आज पूरी तरह दक्षिणपंथ की ताकतें सत्ता में आ गई हैं। जाहिर है, नीतियों में इसी के अनुरूप परिवर्तन होगा या कोशिश होगी। इसका यह भी मतलब है कि आजादी के बाद देश ने जो भी उपलब्धियाँ हासिल की थीं उन पर पूरा हक है। आर्थिक क्षेत्र, स्कूल-कॉलेज के पाठ्यक्रम तथा इस प्रकार की अन्य बातें खतरनाक मोड़ पर हैं।
यह जानी हुई बात है कि छोटे बच्चों में ही सांप्रदायिक मानसिकता भरी जा रही है, जिसकी गति तेज होगी। जब पाठ्यक्रमों में हिटलर पढ़ा जाए और गांधी गायब हों तो देश के मानस पर क्या प्रभाव पड़ेगा और भावी विचार कैसे होंगे यह समझा जा सकता है। 35 वर्षों के एक छत्र शासन ने वैज्ञानिक और प्रगतिशील विचारधारा से अज्ञता को शिक्षित करने के लिए कुछ नहीं किया। दूसरी और विभाजनकारी साम्प्रदायिक विचारधारा, चाहे जिसकी हो, फैलाई जाती रही।
दूसरे शब्दों में विचारधारा के पहलुओं को, उसके विकास और अंतर्विरोधों को नजरअंदाज कर दिया गया। यह भुला दिया गया कि विचारधारा का संघर्ष अत्यंत ही महत्वपूर्ण है।
क्या प्रगतिशील, जनवादी, वाम तथा धर्मनिरपेक्ष विचारधारा फिर से एक बार देश को स्वस्थ दिशा में ले जा पाएगी? यह विवेकपूर्ण विचारधारात्मक कार्यों से ही भविष्य में साबित हो पाएगा।
-अनिल राजिमवाले
मो0 09868525812

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कुछ ही दिनों पहले हमने आप के बारे में कुछ बातें कहीं थी और उसके पलायनवाद तथा अराजकतावाद के बारे लिखा था. इस बीच केजरीवाल ने इस्तीफ़ा देकर वे सारी बातें सही साबित कर दी हैं.
आम आदमी पार्टी की सरकार ठीक 49 दिनों तक चली. फिर केजरीवाल ने अचानक इस्तीफ़ा दे दिया, यह भूलते हुए की उन्होने जनता से क्या वादे किए थे! वोटरों ने बड़े विश्वास से उन्हे चुना था. आप सरकार और उसके मंत्रियों एवं नेताओं ने बड़े -बड़े वादे किए और भ्रष्टाचार ख़ात्मा करने, बिजली और पानी की समस्या हल करने, उनकी कीमतें कम करने, मंत्रियों और नेताओं को ताम झाम और अनावश्यक सुविधाओं से मुक्त करने, ‘लाल बत्ती’ संस्कृति समाप्त करने इत्यादि ना जाने कितने वादे किए थे.
लेकिन अचनाक ही आप पार्टी सत्ता त्याग कर भाग खड़ी हुई. आख़िर क्यों ? इसका रहस्य क्या है? वास्तव में आप पार्टी अपनी ज़िम्मेदारी से भाग रही है. इसने शासन को एक खेल समझ रखा था. दूसरों की आलोचना करना आसान है. लेकिन आप ने उन समस्याओं को हल करने का एक भी कदम नहीं उठाया. जब उसने देखा की शासन और प्रशासन तथा सरकार चलना एक कठिन काम है तो लोकपाल के बहाने इस्तीफ़ा दे दिया. उनकी सरकार को कोई ख़तरा नहीं था, कांग्रेस समर्थन वापस नहीं ले रहा था. किसी ओर से कोई दबाव नहीं था. फिर भी वे ज़िम्मेदारी से भाग खड़े हुए. वे पलायनवाद का शिकार हो गये.
इन 49 दिनों के बाद दिल्ली को पहले से भी गड़बड़ी और अराजकता की स्तिथि में डाल दिया. कम से कम पहले दिल्ली में कुछ काम हो रहा था, विकास के कार्यक्रम चलाए जा रहे थे, प्रशासन था, और गड़बड़ियाँ भी थी.
लेकिन अब दिल्ली के लोगों के पास ना प्रशासन है और ना ही कोई कार्यक्रम और ना दिशा. जनमत संग्रह का तमाशा, बिजली और पानी संबन्धी उल्टे-सीधे कदम जो अधूरे और बिना हल के रह गये, बिजली कम्पनियों को करोड़ों अरबों की सब्सिडी, महिलाओं और विदेशियों के बारे में ग़लत, अश्लील और रंगभेद वादी टिप्पणियाँ, यह रही आप की विरासत जो वह दे गयी. आप के राज में अब आधे से कम ही लोगों को पानी मिल रहा है. बिजली का तो कहना ही क्या! जो उनके आंदोलन में थे उनको मुफ़्त बिजली, और जो नहीं थे उनको ज़्यादा दामों में. पानी/बिजली की सप्लाई में भारी गड़बड़ी.
भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने का दंभ भरने वाले खुद ही उसमे फँस गये. आप के मंत्रियों ने करोड़ों रुपये लेकर शराब के ठेके खुलवाना शुरू किया था. सरकारी कह्र्चा पर घरेलू इस्तेमाल का समान लेने लगे थे जैसे फ्रिज, सोफा, कार, फर्निचर, और कई दूसरी सुविधायें. केजरीवाल ने जानबूझकर सी. एम. बंगलो वाला तमाशा खड़ा किया और उसमे करोड़ों सरकारी रुपये बर्बाद करवाए.
बाद में आप के समझ में आ गया की अब उनसे ना जनता की समस्याएं हल होंगी और ना वे कुछ कर पाएँगे. इसलिए निकलने का रास्ता खोजने लगे. वे सरकार को सड़क पर लाकर तमाशे करने लगे, टीवी से सबको दिखाने लगे. दूसरे शब्दों में वे अपने दफ़्तरों में बैठकर ज़िम्मेदारी का काम करने के बजाए उससे भागने लगे.
केजरीवाल ने कहा था कि वे अराजकतावादी हैं. यह सही कहा, एकमात्र सही बात! अराजकतावाद ही पलायनवाद होता है. वो ठोस कामों से भागता है; वो संगठन, व्यवस्था, अनुशासन, जनता के काम करने से कोसों दूर रहकर केवल लम्पटई और आलोचनाएँ करता है.
अराजकतावाद जनता की ज़िम्मेदारियों से अपलायनवाद है. इतिहास इसे बार बार साबित कर उसे त्याग चुका है. आप के अराजकतावाद में तो कोई दूरगामी विचारधारा औरसिद्धान्त भी नहीं है. विचारधारा का ना होना भी एक ‘विचारधारा’ है.
यह सब करके आप और केजरीवाल किसकी सेवा में लगे हुए हैं? जवाब देंगे? उनसे बार बार पूछा गया की आप के धन पैसों का देश के अंदर और बाहर स्रोत क्या है तो चुप्पी रखी. अख़बारों की रिपोर्टो के अनुसार देश के अंदर के बड़े पूंजीपतियों और बाहर से अमरीका तथा अन्य देशों से आप को पैसे आ रहे हैं. क्या यह सच है? आप चुप क्यों है?
अराजकतावाद का यही हश्र होता है. झूठे और खोखले नारे देकर, सतही आलोचना करके वे जनता को बरगलाते हैं और थोड़ी देर के लिए भोली भाली जनता झाँसे में आ जाती है
आप को समझ लेना चाहिए की ऐसा ज़्यादा देर नहीं चलता है. आप ने दिल्ली की जनता और साथ ही देश की जनता के साथ ग़लत व्यवहार किया है.
यदि उसे सचमुच जनता के लिया काम करना है तो झूठे वादे करना बंद करके सच्चे विचारों के साथ जनता का काम करना होगा और समय आने पर काम कर के दिखना भी होगा.
पलायनवाद और अराजकतावाद जनता की समस्याओं का हल नहीं है

–अनिल राजिमवाले

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कामरेड पी0सी0 जोशी और उत्तर प्रदेश

कामरेड पी0सी0 जोशी की 100वीं वर्षगाँठ हम 2007 में सारे देश भर में मना चुके हैं। यह असाधारण व्यक्ति और असाधारण प्रतिभा वाला कम्युनिस्ट भी यू0पी0 ही की देन था। पी0सी0 जोशी के बारे में बहुत कुछ लिखा जा सकता है और लिखा जाना चाहिए। दुर्भाग्य से उनके बारे में बहुत कम लिखा गया है, और उनकी रचनाओं की जानकारी तो लोगों को नहीं के बराबर है। यहाँ हम उनके बारे में यू0पी0 के सन्दर्भ में ही कुछ कहेंगे। पूरन चन्द जोशी का जन्म 14 अप्रैल 1907 को (राहुल 14 फरवरी लिखते हैं) अलमोड़ा जिले में हुआ था। आज कल अलमोड़ा, उत्तराखण्ड में है, जोशी की पढ़ाई लिखाई अलमोड़ा और इलाहाबाद मंे हुई, और उन्होंने 1926 में एम0ए0 पास किया। बाद में उन्होंने कानून की पढ़ाई भी की और नैनी तथा मेरठ जेलों से परीक्षाएँ दीं। उनका परिवार उन्हें आई0सी0एस0 के लिए तैयार कर रहा था। लेकिन 1928 में कलकत्ता से एक टेªड यूनियन नेता आफताब अली अलमोड़ा आए, उनके पास रजनी पामदत्त
(आर0पी0डी0) की इण्डिया टुडे या आज का भारत नामक सुप्रसिद्ध किताब थी। उसे पढ़ने के बाद तो जोशी आई0सी0एस0 वगैरह भूल गए। उनकी जिन्दगी की दिशा बदल गई। इस बीच यू0पी0 और शेष भारत में यूथ लीग के नाम से नौजवानों और छात्रों के संगठन व्यापक रूप से उभर रहे थे, जैसा कि हम देख चुके हैं, इनके नेताओं में सर्वप्रथम पंडित नेहरू थे। यूथ लीग के संगठन इलाहाबाद में बड़े ही मजबूत थे। पी0सी0 जोशी भी इसके प्रभाव में आए। जल्द ही वे यू0पी0 यंग कामरेड्स लीग के सचिव बन गए, जो यूथ लीग का ही एक हिस्सा था। जोशी के सहयोगियों में सी0पी0आई0 के वरिष्ठ नेता एस0जी0 सरदेसाई थे, जो उस समय सर तेज बहादुर सप्रू के सचिव का काम कर रहे थे।
1928 में मेरठ में एक मजदूर किसान सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें पी0सी0 जोशी ने भी भाग लिया। यह इस संगठन के अखिल भारतीय सम्मेलन की तैयारियों के सिलसिले में था। एम0ए0 पास करने के बाद जोशी ने इलाहाबाद में ही टूरों का काम ले लिया, लेकन वे ज्यादा समय मजदूरों, किसानों और छात्रों के बीच काम में देते थे। उन्होंने कानपुर के मजदूरों के बीच भी काम करना शुरू किया। वे जल्द ही मजदूर किसान पार्टी की यू0पी0 इकाई के सचिव बनाए गए और फिर इसकी अखिल भारतीय कार्यकारिणी में भी ले लिए गए। साथ ही वे कम्युनिस्ट पार्टी का काम भी गुप्त रूप से कर रहे थे। खासकर यू0पी0 में, यह बात जल्द ही उजागर होकर सामने आ गई। पी0सी0 जोशी इलाहाबाद के हालैंड हाल में रहा करते थे। मार्च 1929 में एक दिन पुलिस ने समूचे हाल को घेर लिया, यह खबर आग की तरह चारों ओर फैल गई। अन्य हाॅस्टलों और कमरों की तलाशी भी ली गई, पी0सी0 जोशी को गिरफ्तार कर लिया गया। इससे सम्बंधित घटनाओं का उल्लेख हम पहले कर आए हैं।
पी0सी0 जोशी को मेरठ षड्यंत्र केस में गिरफ्तार किया गया था, इससे पता चलता है कि उस समय तक वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उच्च नेताओं की श्रेणी में आ चुके थे, वे उन 32 में थे जिन्हें मेरठ केस में पकड़ा गया था।
पी0सी0 जोशी को पहले तो नैनी सेन्ट्रल जेल में रखा गया, वहाँ से उन्होंने कानून की परीक्षाओं की तैयारियाँ कीं। जेल में ही उनके लिए पढ़ने की सामग्री लाई गई थी, फिर उन्हें मेरठ जेल ले जाया गया, जहाँ वे पाँच वर्षों तक रहे। वहाँ हर कैदी अपना अपना बयान देता था, जोशी ने भी अपना बयान दिया। जोशी उस वक्त मात्र 22 साल के नौजवान थे। लेकिन अधिकतर कागजी कार्यवाही तथा लिखने का काफी काम उनके जिम्मे था। वे बड़े अच्छे तर्क दे सकते थे। उन्होंने डिगबी, हण्टर, कुक जैसे स्रोतों के प्रमाण पेश करते हुए बताया कि कैसे भारत गरीबी और भुखमरी में डूबा हुआ था। जोशी ने जेल से ही साम्राज्यवाद विरोधी संयुक्त मोर्चा और क्रांति के सिद्धांत पेश किए। मेरठ केस ने अभियुक्तों को अपने विचारों का प्रचार प्रसार करने में काफी मदद की। प्रेस, अखबारों, बातचीत इत्यादि के जरिए कम्युनिस्ट विचार लोगों तक पहुँचे।
अंग्रेजों की चाल काफी हद तक नाकाम रही। कम्युनिस्टों को अपने विचार विकसित करने और अध्ययन का भी काफी मौका मिला। पी0सी0 जोशी ने अपना समय माक्र्सवाद के गहन अध्ययन और पठन में लगाया, साथ ही उन्होंने मेरठ अभियुक्तों का कानूनी काम काफी हद तक स्वयं ही पूरा किया। पी0सी0 जोशी को 1933 में मेरठ से रिहा कर दिया गया, अन्य अभियुक्त भी रिहा कर दिए गए। अब जोशी ने कानपुर के मजदूरों में काम करना शुरू किया, लेकिन उन्हें फिर से फरवरी 1935 में गिरफ्तार करके कानपुर और गोरखपुर जेलों में रखा गया, लेकिन जेल में उनका रिकार्ड इतना अच्छा था और उन्होंने इतनी अच्छी बागवानी की, कि जल्द ही उन्हें रिहा कर दिया गया। जैसा कि हम ने पहले देखा उन्हें बहुत कम उम्र से पार्टी में महामंत्री पद की जिम्मेदारी दी गई।
पी0सी0 जोशी के नेतृत्व में यू0पी0 और सारे भारत में पार्टी को पुनर्गठित किया जाने लगा। पार्टी के कुछ संकीर्ण विचारों के नेताओं ने, जो बाहर थे पार्टी और आन्दोलन में तोड़ फोड़ कर रखी थी, और न सिर्फ गुट बल्कि अलग पार्टियाँ भी बना रखी थीं। उन सबको एक करने का काम जोशी ने किया। धीरे-धीरे यू0पी0 और सारे देश में पार्टी फिर से अपने पैरों पर खड़ी होकर आगे बढ़ने लगी।
पी0सी0 जोशी की एक विशेषता यह थी कि उन्होंने पार्टी को केवल मजदूरों और किसानों तक सीमित नहीं रखा बल्कि व्यापक, मध्यम तबकों, पढ़े लिखे लोगों, कला और साहित्य के क्षेत्रों में भी पार्टी को फैलाया। जोशी के काल में पार्टी सांस्कृतिक पुनर्जीवन का साधन भी बनी। इसमें यू0पी0 का विशेष योगदान रहा। निराला, पंत, प्रेमचन्द और अनेक दूसरे साहित्यकार, यू0पी0 और समूचे देश से पार्टी और उसके जन संगठनों की ओर आकर्षित हुए। राहुल जैसे लेखकों और इतिहासकारों ने महान भूमिका अदा की। आम लोग माक्र्सवादी, क्रांतिकारी और समाजवादी साहित्य पढ़कर पार्टी की ओर आए, कई पीढि़याँ इससे प्रभावित र्हुइं, और आज भी हो रही हैं। आज भी राहुल की पुस्तकें पढ़कर नौजवान समाजवाद और कम्युनिज्म की ओर आकर्षित होते हैं। जोशी ने कला, साहित्य और फिल्म के क्षेत्रों में कम्युनिस्ट पार्टी और आई0पी0टी0ए0 को सामाजिक तथा सांस्कृतिक नवीनीकरण का माध्यम। (हथियार) बनाया, यह इस देश को उनका असाधारण योगदान रहा। इसमें यू0पी0 का खास योगदान था, लेकिन हम इसके विस्तार में यहाँ नहीं जा पाएँगे। यह एक अलग विषय है। कैफी आजमी और अनेकानेक अन्य जन कलाकारों ने आम जनता के बीच और फिल्मों में प्रगतिशील, क्रांतिकारी और समाजवादी विषयों को केन्द्र बनाया। यह काम बाद में आगे नहीं बढ़ पाया, जिसकी मुख्य जिम्मेदारी 1948-50 की संकीर्णतावादी दुस्साहसिक समझदारी पर जाती है। उसके बाद कम्युनिस्ट आंदोलन जोशी के जाने के बाद भी उन ऊँचाइयों को छू नहीं पाया। पी0सी0 जोशी ने प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) और आई0पी0टी0ए0 को देश के प्रमुख संगठनों का रूप दे दिया। अन्य पहलुओं के अलावा जोशी ने यू0पी0 में पार्टी के विकास पर विशेष ध्यान दिया।

अजय घोष का उत्तर प्रदेश पार्टी में योगदान
अजय घोष के एक जनरल सेक्रेटरी के रूप में यू0पी0 पार्टी का सी0पी0आई0 में योगदान रहा। अजय घोष ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और यू0पी0 पार्टी के इतिहास में अत्यंत ही महत्वपूर्ण और केन्द्रीय भूमिका अदा की। पी0सी0 जोशी ने सी0पी0आई0 और उसके जन संगठनों का निर्माण करते हुए एक कम्युनिस्ट आन्दोलन की मजबूत नींव रखी जो आज भी अपनी सारी कमियों के बावजूद कम्युनिस्ट आंदोलन के काम आ रही है।
जोशी, भारत और यू0पी0 में, पार्टी और कम्युनिस्ट एवं व्यापक जन आंदोलनों एवं जन संगठनों तथा पार्टी अखबारों और साहित्य, प्रेस इत्यादि के निर्माणकर्ता थे। बी0आर0टी0 आत्मघाती लाइन (1948-50) के जमाने में यह सब बरबाद कर दिया गया। पार्टी बिखर गई, सदस्यता में भारी गिरावट आई, जन संगठन चकनाचूर हो गए, और कुल मिलाकर एक प्रकार से कम्युनिस्ट आंदोलन मृत्युप्राय हो गया। उसके बाद यह अजय घोष थे, जिन्होंने कदम ब कदम और धीरे-धीरे पार्टी को सही पटरी पर लाकर पार्टी एवं जन संगठनों का पुनर्निर्माण किया। यह कोई आसान काम नहीं था। इसी टूटी-फूटी अवस्था में सी0पी0आई0 ने 1952 का पहला आम चुनाव लड़ा और विपक्ष की दूसरी तथा देश की पहली पार्टी के रूप में उभर कर आई। यदि 1948 का आत्मघात नहीं होता, तो पार्टी बड़ी शक्ति बन जाती। बी0आर0टी0 लाइन में तो हमने चुनाव नहीं लड़ने का फैसला कर रखा था, क्योंकि क्रांति तुरन्त करनी थी और उसके परिणाम भी जब ही सबके सामने आ गए थे।
अजय घोष ने इन बिखरे टुकड़ों को इकट्ठा कर पार्टी को फिर से खड़ा किया, यह उनकी सबसे बड़ी देन रही। अजय घोष के पिता डाॅ0 सचिन्द्र घोष 1899 में कलकत्ता से कानपुर आए, और वहीं बस गए, वे पेशे से डाॅक्टर थे। अजय का जन्म बंगाल के मिहिजम (अब चितरंजन में) नामक गाँव में 20 फरवरी 1909 को हुआ था, फिर उन्हें कानपुर लाया गया, और उसके बाद वे वहीं पले बढ़े। राहुल द्वारा प्रस्तुत एक अन्य विवरण के अनुसार अजय का जन्म कानपुर में ही 22 फरवरी 1908 को हुआ था, लेकिन इसकी पुष्टि नहीं हो पाई है। उनकी बड़ी बहन भी कानपुर में ही रहती थीं और अजय की मृत्यु के बाद भी कुछ वर्षों तक जीवित रहीं।
अजय का पालन पोषण बड़े ही अनुकूल पढ़ाई लिखाई के वातावरण में हुआ। उनको कानपुर के आदर्श बंग विद्यालय में भर्ती कर दिया गया। वे मिडिल की परीक्षा में प्रथम आए। वे आगे चलकर विज्ञान के विद्यार्थी बने, साथ ही उन्हें बंगला समेत साहित्य में बड़ी रुचि रही। अजय बड़ी संख्या में पुस्तकें और साहित्य पढ़ते थे। स्कूल में तरुण भट्टाचार्या द्वारा स्थापित तरुण संघ या यूथ लीग में वे शामिल हो गए। वे रामकृष्ण मिशन के कामों में भी भाग लिया करते थे, दिलचस्प बात यह है कि भविष्य के सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी विजय कुमार सिन्हा और बटुकेश्वर दत्त भी इसी संघ में शामिल थे। सुरेश बाबू वास्तव में यू0पी0 के क्रांतिकारियों के संगठन कर्ता थे, वे अजय के लिए एक उदाहरण थे।
1921 में अजय के स्कूल में देशबन्धु सी0आर0 दास की गिरफ्तारी के विरुद्ध छात्रों की हड़ताल हो गई, जिसमें उन्होंने सक्रियता से भाग लिया। अजय ने 1920-22 के असहयोग आंदोलन में वालंटियर बनने की कोशिश भी की, लेकिन कम उम्र के कारण उन्हें इजाजत नहीं मिली। बटुकेश्वर दत्त और विजय कुमार सिन्हा अजय के घर नियमित रूप से आया करते थे। अजय के पिता ने देखा कि यह लड़का किसी और दिशा में जा रहा है अर्थात क्रांतिकारी रास्ते पर। लेकिन उन्होंने इसमें कोई दखल नहीं दिया और अजय को पूरी आजादी दी।
1922 में अजय को राजकीय कालेज में भर्ती कर दिया गया। वे भारी संख्या में साहित्य पढ़ रहे थे। उन्होंने 1924 में लेनिन की मृत्यु पर शोक भी मनाया। अजय ने विजय के साथ मिलकर तीन वर्षों तक निर्मला नाम की एक पत्रिका भी निकाली। 1924 में अजय कानपुर के क्राइस्ट चर्च कालेज में भर्ती हुए। उन्होंने केमिस्ट्री और विज्ञान विशेष तौर पर पढ़ा ताकि बम बनाने का तरीका जान सकें। उन्होंने रेड बंगाल नामक एक पत्रिका का वितरण करना भी शुरू किया, साथ ही पिस्टल चलाने की पै्रक्टिस भी की।
1926 में अजय घोष इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में भर्ती हो गए और 1929 में उन्हें बी0एस0सी0 की डिग्री मिली। वे हिन्दू हाॅस्टल में रहा करते थे। उनका कमरा क्रांतिकारी गतिविधियों का केन्द्र बनता गया। उनके कमरे में अब भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, शिव वर्मा और अन्य क्रांतिकारी आने लगे और बैठके करने लगे तथा रहने भी लगे।

भगत सिंह से अजय की मुलाकात
अजय घोष की भगत सिंह से सब से पहले मुलाकात 1923 में कानपुर में हुई। दोनों को बटुकेश्वर दत्त ने मिलाया। उस समय दोनों ही लगभग एक ही उम्र यानी 15 वर्ष के थे। कुछ दिनों बाद फिर मुलाकात मंे दोनों के बीच लम्बी बातचीत हुई। उन दोनों के बीच फिर 1928 में मुलाकात हुई। उन्होंने एच0एस0आर0ए0 में परिवर्तनों के बारे में विचार विमर्श किया। वे अब समाजवाद की ओर झुक रहे थे। अजय एच0एस0आर0ए0 की बम बनाने वाली यूनिट के सदस्य थे। केन्द्रीय असेम्बली में भगत सिंह और बटुकेश्वर द्वारा बम गिराने के बाद अजय तथा अन्य साथी भी गिरफ्तार कर लिए गए। अजय लाहौर जेल में रखे गए। जेल में अजय, भगत सिंह, शिव वर्मा तथा अन्य कुछ साथियों ने तय किया कि बाहर निकलने के बाद वे सभी कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो जाएँगे। दुर्भाग्य से भगत सिंह को फाँसी हो गई, लेकिन बाकी साथी सचमुच कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए।
अजय कम्युनिज्म की ओर –
अजय को कांग्रेस के कराँची अधिवेशन में भाग लेने का मौका मिला, वहाँ से वापस आने पर यू0पी0 में उन्हें कई कम्युनिस्टों से मिलने का मौका मिला, इनमें एच0जी0 सरदेसाई प्रमुख थे। वापस कानपुर आकर अजय ने मजदूरों के बीच काम किया। उन्होंने मजदूर किसान पार्टी का गठन किया और कई स्टडीसर्किल चलाए। अजय को 1932 के आरम्भ में फिर गिरफ्तार किया गया और कानपुर जेल में एक साल रखा गया, बाद में फैजाबाद जेल में लगभग 6 महीने रखा गया। कानपुर जेल में उनकी मुलाकात एस0जी0 सर देसाई से हुई, दोनांे एक ही बैरक में रखे गए थे, सर देसाई के साथ बातचीत के फलस्वरूप कई बातें साफ र्हुइं। इस प्रकार जब अजय जेल से निकले तो वे कम्युनिस्ट बन चुके थे, जेल में दोनों ने माक्र्स की पूँजी साथ पढ़ी, फैजाबाद जेल में अजय की मुलाकात रुस्तम सैटिन से हुई, जेल से निकलने के बाद अजय कानपुर में मजदूरों के बीच काम करने लगे। इस बीच मेरठ षड्यंत्र मुकदमा चला, जिसका काफी गहरा असर अजय पर पड़ा। अजय लाहौर षड्यंत्र केस में गिरफ्तार थे, दोनों मुकदमे साथ साथ ही चल रहे थे। कम्युनिज्म की ओर झुकाव से अजय की दिलचस्पी मेरठ केस में होना स्वाभाविक था। अजय को कम्युनिस्टों के विचार अधिक गहराई से जानने का अवसर मिला। अजय घोष उसी वर्ष पार्टी में भरती हुए जिस वर्ष जोशी मेरठ जेल से रिहा किए गए। अजय ने तिलक राष्ट्रीय विद्यालय में नौकरी कर ली, जहाँ उनकी मुलाकात रमेश सिन्हा से हुई। 1934 में अजय ने बम्बई में अखिल भारतीय कपड़ा मजदूरों के सम्मेलन में कानपुर के प्रतिनिधि की हैसियत से हिस्सा लिया और अजय पार्टी ग्रुप में शामिल कर लिए गए। 1935 की सी0सी0 बैठक में अजय को देश के पश्चिमी हिस्से,भारद्वाज को उत्तरी और एस0वी0 घाटे को दक्षिणी भाग का इन्चार्ज बनाया गया। इस प्रकार इन तीनांे नेताओं को भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन के पुनर्गठन और विस्तार का काम सौंपा गया और जैसा कि हमनें देखा ये तीनों ही यू0पी0 से थे, इनमें जोशी पार्टी के महामंत्री बनाए गए।
जोशी को सी0सी0 की ओर से यू0पी0 का आर्गनाइजर भी बनाया गया था, वे अजय से कानपुर में मिले, साथ ही अन्य साथियों से भी। जोशी ने अजय का नाम कानपुर की जिला कम्युनिस्ट की संगठन समिति के आर्गनाइजर के रूप में प्रस्तावित किया और वे इस पद पर नियुक्त भी किए गए। कुछसमय में अजय को यू0पी0 पार्टी की प्रथम संगठन समिति का सचिव भी बनाया गया। यह प्रस्ताव भी जोशी का ही था। 1934 में अजय सी0पी0आई0 की सी0सी0 में और 1936 में पोलित ब्यूरों में लिए गए। दोनांे ही अवसरों पर उनका नाम जोशी ने प्रस्तावित किया। आगे अजय यू0पी0, फिर केन्द्र, फिर अहमदाबाद, बम्बई इत्यादि स्थानों पर पार्टी और टी0यू0 कामों के लिए, लगाए गए। लगातार अण्डर ग्राउंड काम करने और कठिन तथा विपरीत परिस्थितियों में काम करने से अजय का स्वास्थ्य बिगड़ता चला गया, वे एक हट्टे-कट्टे नौजवान थे, लेकिन जल्द ही उन्हें टी0बी0 ने घेर लिया। इसका कारण जेलों में निरंतर भूख हड़तालें भी थीं।
1938 में अजय घोष को बम्बई में पार्टी के केन्द्रीय मुख्य पत्र नेशनल फ्रण्ट की देख भाल का जिम्मा दिया गया। वैसे जोशी उसके सम्पादक थे लेकिन अमल में लगभग सारा ही काम अजय देखा करते। साथ ही वे 1940 के दशक के आरम्भ में अंग्रेजी मासिक कम्युनिस्ट निकालने के जिम्मेदार भी थे। अजय घोष और आर0डी0 भारद्वाज ने दिल्ली में सी0पी0 की यूनिट बनाने में अहम भूमिका अदा की। उन दिनों एम0 फारूकी तथा अन्य नेताओं को गाइड किया और पार्टी तथा जनसंगठनों को खड़ा करने में अत्यन्त ही प्रभावशाली रोल अदा किया। सी0एस0पी0 या कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का दूसरा अखिल भारतीय सम्मेलन मेरठ में 1936 में हुआ, डेलीगेशन की लिस्ट में अजय का भी नाम था लेकिन उनके नाम को लेकर कुछ समाजवादियों को आपत्ति थी इसका कारण था कि वे छिपे कम्युनिस्ट थे। इस विवाद के कारण अजय घोष ने सम्मेलन में भाग नहीं लेने का निर्णय लिया। वे एक गैर प्रतिनिधि के रूप में मेरठ की एक धर्मशाला में ठहरे रहे। साथ ही वे उन मीटिंगों में शामिल होते रहे जो गैर डेलीगेट्स के लिए खुले थे। इस समय ई0एम0एस0 नाम्बूदरीपाद एक सोशलिस्ट थे। अजय ने उन्हें कम्युनिस्ट बनने में मदद की। इसी आन्दोलन में सुप्रसिद्ध मेरठ थीसिस पास किया गया जिससे सभी समाजवादी शक्तियों को एक होने में मदद मिली।
सुप्रसिद्ध कानपुर मजदूर हड़ताल 1938 1938 में कानपुर के मिल मजदूरांे की एतिहासिक प्रसिद्ध हड़ताल हुई जो 50 दिनों तक चली। इसमें 50 हजार मजदूरों ने भाग लिया। यह भारत के मजदूर आन्दोलन में एक शानदार अध्याय है, कानपुर के मिल मालिकों ने राजेन्द्र प्रसाद कमेटी के सुझावों को लागू करने से इंकार कर दिया था। मजदूरों की माँग थी कि न्यूनतम वेतन दिया जाए, किसी भी मजदूर को मनमाने तरीके से काम से बाहर नहीं किया जाए। कानपुर की मजदूर सभा को मान्यता दी जाए इत्यादि। हड़ताल का नेतृत्व आर0डी0 भारद्वाज बालकृष्ण शर्मा, राजाराम शास्त्री, हरिहरन तथा कई अन्य नेताओं ने किया। इनमें बाल कृष्ण शर्मा कांग्रेस के लीडर थे लेकिन उन्होंने मजदूरों का सक्रिय साथ दिया। पहले तो मिल मालिकों ने राजेन्द्र प्रसाद समिति के सुझावों को मानने से इंकार कर दिया था। समिति ने 15 रूपयों की वृद्धि की सिफारिश की थी। इसे आंशिक रूप से स्वीकार किया गया और इसके लिए एक बोर्ड बना दिया गया।
उत्तर प्रदेश की कांग्रेस सरकार को इस आन्दोलन के सामने झुकना पड़ा। पहले उसने आनाकानी की लेकिन मजदूरों के बढ़ते संघर्ष और स्वमं कांग्रेसियों द्वारा विरोध के कारण उसे पीछे हटना पड़ा।
आरम्भ में हड़ताल में 15 हजार ही मजदूर शामिल हुए थे। लेकिन दो दिनों के अंदर हड़तालियों की संख्या 35 हजार हो गई। कपड़ा मजदूरों के अलावा अन्य उद्योगों के मजदूर भी शामिल होते गए। प्रत्येक मिल से 10 प्रतिनिधियों को लेकर एक हड़ताल समिति का गठन किया गया। वालेन्टियरों को संगठित किया जाने लगा। यह वह समय था जब उद्योगों की आर्थिक स्थिति अच्छी थी और वे मजदूरों को ज्यादा वेतन इत्यादि देने की स्थिति में थे।

प्रांत सरकार ने एक बयान के जरिए सभी पक्षों से समिति की रिपोर्ट लागू करने का अनुरोध किया। जहाँ ट्रेड यूनियन संगठनों ने इसे लागू किया, मालिकों ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। मजदूर यूनियन ने इसके सुझावों के अनुसार अपने संविधान में आवश्यक सुधार किया।

देवली सेन्ट्रल जेल में
यह जेल भारत के क्रांतिकारियों और कम्युनिस्टों को नजर बन्द रखने का बहुत बड़ा केन्द्र था। यह कान्शनटेªशन कैम्प या यातना शिविर भी कहलाता था। यहाँ अत्यन्त कठिन परिस्थितियों में कैदियों को रखा जाता था। यह एक विशेष जेल थी। देवली जेल राजस्थान में थी। कैदियों को पहले कोटा तक रेलवे द्वारा और फिर 50-60 किमी. बस से कैम्प ले जाया जाता था। इसका निर्माण वास्तव में सन् 1857 के विद्रोह के दौरान हुआ था। जिसमें बागियों को रखा जाता था। 1857 की विफलता के बाद इसे बन्द कर दिया गया। यह 1880 तक बन्द रही। 1880 के बाद इसे फिर चालू किया गया। इसे पुनः 1940 में ज्यादा सक्रिय किया गया। 1940 में नजरबन्दों की टोलियाँ एक-एक करके देवली भेजी जाने लगीं। इनमें बड़ी संख्या में कम्युनिस्ट थे। आबादी तो आप पास नहीं के बराबर थी। इक्के दुक्के गाँव ही थे। दूर-दूर तक गर्म रेगिस्तान था। कोई अगर भागना भी चाहता तो संभव भी नहीं था, क्योंकि वह रेतीले इलाके में ही दम तोड़ देता, पूरी जेल कँटीले तारों से घिरी हुई थी। कहीं-कहीं बिजली के तार भी लगे हुए थे। हर दो तीन सौ कदम पर निगरानी रखने के लिए टावर बने हुए थे। हथियार बन्द सैनिक चारों ओर निगरानी रखा करते थे। दूसरे विश्व युद्ध के आरम्भ होते ही देवली कैम्प में ज्यादातर कम्युनिस्ट कैदी ही रखे जाने लगे। इनमें उत्तर प्रदेश से शफीक नकवी, आर0डी0 भारद्वाज, अजय घोष, के0एम0 अशरफ, झारखण्डे राय, रमेश सिन्हा, हर्षदेव मालवीय, रुस्तम सैटिन, एम0एन0 टण्डन, अर्जुन अरोड़ा, सुशील दास गुप्ता तथा अन्य थे। अन्य सुप्रसिद्ध नेताओं में एस0ए0 डांगे, मेराजकर, रणदिवे, सोहन सिंह जोश और कई अन्य थे। इन सब के अलावा कई दूसरे क्रांतिकारी जिनमें राष्ट्रवादी भी थे। जब जेड0ए0 अहमद देवली पहुँचे तब वहाँ 66 कम्युनिस्ट पार्टी के, तीन सोशलिस्ट पार्टी के, आर0एस0पी0 के 11, एस0एच0आर0के0 5 कैदी ए0 क्लास के थे। बी0 क्लास के 90 में से 70 सी0पी0आई0 के थे। कुछ ही महीनों में अन्य पार्टियों के कई लोगों ने सी0पी0आई0 की सदस्यता ले ली। देवली कैम्प की खास बात यह थी के उसे बाहर की दुनिया से लगभग पूरी तरह अलग रखा गया था, और बहुत ही कम लोगों को वहाँ आकर मिलने की इजाज़त थी। बिल्कुल नजदीकी खून के रिश्तों के लोग ही मिल पाते थे। देवली में कम्युनिस्टों ने कई बार अपनी माँगों के समर्थन में भूख हड़ताल भी की। वे भूख हड़तालंे बहुत लम्बी चला करती थीं, और अधिकारी निरुपाय होकर मात्र देखा करते थे। बाद में उन्होंने जबरन दूध या फलों का रस पिलाने और खाना खिलाने के तरीके अपनाने शुरू किए। एक भूख हड़ताल काफी लम्बी चली। इसमें अहमद और दूसरे कैदी काफी कमजोर हो गए। यहाँ तक कि उनमें उठकर खड़े होने या बैठने की भी ताकत नहीं रही। कांग्रेसियों समेत सभी ने इसमें हिस्सा लिया। भूख हड़ताल की जानकारी कैदी सिद्दीक हुसैन के भाई और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में लेक्चरर महमूद हुसैन द्वारा लेबर पार्टी के सांसद एन0एम0 जोशी को पहुँचाई गई। उन्होंने संसद या असेम्बली में इस सवाल को उठाया। फिर चारो ओर काफी हो हल्ला हुआ और अखबारों में भी खबरें आईं। पहले से भी लोगों को धीरे धीरे पता चल रहा था। भूख हड़ताल के सातवें दिन महिलाओं का एक डेलीगेशन मैक्सवेल से मिला। वह गृह सचिव थे। इस डेलीगेशन का नेतृत्व कर रही थीं
हाजरा बेगम और इनके साथ कामरेड पी0पी0 बेदी की पत्नी फरीदा बेदी और मुहम्मद मुजफ्फर की पत्नी रसीद जहाँ थी। अखबारों में यह बात छप गई कि महिलाएँ भूख हड़ताल पर बैठेंगी और राष्ट्र व्यापी आंदोलन करेंगी। यहाँ तक कि हैदराबाद, बंगलौर और दूसरी जगहों में भी आन्दोलन छिड़ गया। ब्रिटिश सरकार को आखिरकार कैदियों की माँगे माननी पड़ीं। जनवरी 1942 के आरम्भ में देवली जेल बन्द करने का काम शुरू हो गया। कैदियों को मुख्यतः फतेहगढ़ और बरेली सेन्ट्रल जेल भेजा गया। ज्यादातर कम्युनिस्ट बरेली में थे।

1940 के दशक में कम्युनिस्ट पार्टी

उत्तर प्रदेश और समूचे भारत में पार्टी का यह दौर काफी सक्रिय घटनाओं से भरा पड़ा है, लेकिन हम उसके पूरे विस्तार में नहीं जा पाएँगे। उत्तर प्रदेश में किसानों तथा अन्य तबकों में अब तक पार्टी काफी मजबूत हो चुकी थी। पूर्वी उत्तर प्रदेश में तो ग्रामीण इलाकों में मजबूत आधार बन चुका था। सरजू पाण्डेय और झारखण्डे राय जैसे जनप्रिय नेता घर-घर में प्रसिद्ध होते चले गए, उन्होंने आजादी के बाद पार्टी बनाने में विशेष भूमिका अदा की।
इस दौर में किसान सभा का विशेष प्रसार-प्रचार हुआ। राहुल और स्वामी सहजानन्द सरस्वती जैसे नेता लोकप्रिय हो गए। अखिल भारतीय किसान सभा का दसवाँ अधिवेशन अलीगढ़ के सिकन्दरा राव में मई 1947 में हुआ था। यह उत्तर प्रदेश में संगठन की मजबूती का परिचायक था कि यह अखिल भारतीय सम्मेलन इतनी भयानक गरमी में यहाँ सम्पन्न हो गया। बड़ी संख्या में प्रतिनिधियों के ठहरने का इंतजाम किया गया। उत्तर प्रदेश में प्रभावशाली मजदूर, किसान, बुद्धिजीवी तथा अन्य प्रकार के आंदोलन और संगठन विकसित हुए। जनवरी 1941 में आर0डी0 भारद्वाज गिरफ्तार कर लिए गए। वे कानपुर में पकड़े गए। कानपुर एक अत्यन्त ही सक्रिय मजदूर और कम्युनिस्ट केन्द्र था। इसके बाद लगभग एक के बाद एक जेल में बन्द रहे। 1943 तक सुल्तानपुर, बरेली, देवली, आगरा वगैरह जेलों में उन्हें रखा गया। इससे उनके स्वास्थ्य पर बड़ा ही प्रतिकूल और नुकसान देह प्रभाव पड़ा। देवली और बरेली जेलों से बाकी सबको तो मई 1942 तक रिहा कर दिया गया, लेकिन भारद्वाज को नहीं। उनकी रिहाई का अनुरोध ब्रिटिश सरकार ने अस्वीकार कर दिया। भारद्वाज और रमेश सिन्हा ने मिलकर काफी काम किया था। गोविन्द विद्यार्थी के साथ मिलकर गुप्त प्रादेशिक दफ्तर बनाना, कानपुर तथा अन्य जगहों पर हड़तालंे, कानपुर से उन्नाव तक मजदूरों का पैदल मार्च इत्यादि कई काम होते थे। उन्नाव में पंडित विशम्भर दयाल त्रिपाठी के नेतृत्व में अच्छा काम हो रहा था।
भारद्वाज पार्टी के एक अच्छे राजनैतिक शिक्षक भी थे। उन्होंने रमेश सिन्हा को आगरा जेल में माक्र्स की पूँजी समझाई। बरेली में भी उन्होंने पढ़ाने का काम किया। उन्हें सुल्तानपुर जेल भेज दिया गया क्योंकि डाक्टरों ने कहा कि उनका इस प्रकार बच पाना मुश्किल है। सन 1943 में उन्हें रिहा कर देना पड़ा। फिर उन्हें भुवाली के टी0वी0 सैनीटोरियम में भर्ती कर दिया गया। जहाँ वे ठीक भी होने लगे थे। शिव कुमार मिश्रा के अनुसार पार्टी में भर्ती होने का उनका साथ और समझदारी काफी काम आई। भारद्वाज देर रात तक पार्टी क्लास लेकर कुछ आराम के बाद फिर काम में लग जाते थे। ऐसा कई मौकों पर हुआ। भारद्वाज अत्यन्त ही सरल और सीधे सादे जीवन के उदाहरण थे। शिव कुमार को आगे कई मौकों पर भारद्वाज के जीवन और कार्य को देखने का मौका मिला। कानपुर की हड़ताल के दौरान भी उन्होंने देखा कि उनका आम लोगों में कितना सम्मान था। शिव कुमार मिश्रा के मन से हिन्दू मुस्लिम की दीवार भी इन संघर्षों के दौरान हट गई, जब सभी एक साथ काम करते और रहते खाते थे।
यही शिव कुमार मिश्रा बाद में 1948 में उत्तर प्रदेश पार्टी के सचिव बने। भुवाली सैनीटोरियम से निकलने के बाद भारद्वाज के लिए फिर वही कठिन जिन्दगी शुरू हो गई। यह वह समय था जब पार्टी में जोशी युग का अन्त हो रहा था और बी0टी0 रणदिवे भी संकीर्ण और साथियों के प्रति केवल उदासीन ही नहीं थे बल्कि कामरेडों वाली भावनाआंे के विपरीत अमानवीय भावनाएँ फैला रहे थे। बहुमूल्य मानवीय और कम्युनिस्ट मान्यताएँ खत्म हो रही थीं। पार्टी लगभग गैर कानूनी करार दे दी गई थी। बेतहाशा गिरफ्तारियाँ और पार्टी से निकाला जाना चल रहा था। पार्टी के अन्दर दमन और आतंक का वातावरण व्याप्त हो रहा था। ऐसे में भारद्वाज देहरादून में मजबूरन विश्राम के लिए पड़े हुए थे। उनकी देखभाल की सुध बहुत कम साथियों को थी तभी उन्हें 4 अप्रैल 1948 को गिरफ्तार कर लिया गया जब उनको बुखार था। 8 अप्रैल 1948 को उनका देहान्त हो गया।
इस प्रकार एक अत्यन्त ही बहुमूल्य और मेधावी साथी नेता और संगठनकर्ता का नाहक ही बलिदान दे दिया गया। इससे कई सीखंे मिलती हंै बहुत ही कम उम्र में वे मृत्यु को प्राप्त हुए यदि कई दुस्साहसिक कार्य न किए जाते तो उन्हें और उनके सरीखे कई सारे, साथियों को बचाया जा सकता था। ऐसे नेता नेहरू, गांधी, बोस और अन्य से किसी मायने में कम नहीं थे फिर भी पार्टी उनका पूरा इस्तेमाल नहीं कर सकी। बड़े ही दुख की बात है कि आज पार्टी में आर0डी0 भारद्वाज और उनके सरीखे अन्य महान कम्युनिस्टों के बारे में बहुत ही कम जानकारी है इस स्थिति को सुधारने की जरूरत है।

आजादी के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी
इन थोड़े पृष्ठों में 1947 से आज तक यू0पी0 में पार्टी के इतिहास और सी0पी0आई0 में उसकी भूमिका पर विचार संभव नहीं है हम केवल कुछ बिन्दुओं का उल्लेख भर कर देंगे। आजादी प्राप्त करने के बाद उत्तर प्रदेश और देश भर में सी0पी0आई0 ठीक ढर्रे पर चल रही थी कि अति वामपंथी संकीर्णतावाद और दुस्साहसिकता ने पार्टी को जकड़कर बरबाद कर दिया। पी0सी0 जोशी के नेतृत्व में सी0पी0आई0 ने आजादी का पुरजोर स्वागत किया था और अपनी उचित तथा सकारात्मक भूमिका अदा करना शुरू किया था। एक स्वतंत्र लेकिन पिछड़े तथा विकास मान रूप में पार्टी राष्ट्रीय और वर्गीय दोनों का ही सुन्दर संतुलित और द्वन्द्वात्मक रुख अपना रही थी। इसके अत्यन्त ही सकारात्मक नतीजे सामने आने लगे थे और पार्टी देश की राजनैतिक मुख्य में एक मजबूत शक्ति बनने लगी थी। लेकिन ठीक इसी वक्त चरम क्रांतिकारिता की बीमारी ने पार्टी को जकड़ लिया और उसे ध्वस्त कर दिया। जोशी को हटा दिया गया और इसके साथ ही पार्टी का स्वर्णिम युग भी समाप्त हो गया। इस दयनीय स्थिति को ठीक करने में फिर वर्षों और कई दशक लग गए। आज तक सी0पी0आई0 वह स्थिति पुनः वापस प्राप्त नहीं कर पाई है। उत्तर प्रदेश में भी बी0टी0आर0 लाइन के घातक परिणाम निकले। 1950 आते-आते पार्टी बिखर गई। 1951 में अजय घोष को एक गुप्त अखिल भारतीय सम्मेलन में पार्टी का महासचिव बनाया गया। डंागे, घाटे और सी0 राजेश्वर राव के साथ मिलकर वे धीरे-धीरे पार्टी को पटरी पर वापस लाए।
उत्तर प्रदेश में रमेश सिन्हा, सी0पी0 जोशी, सरजू पाण्डे, जेड0ए0 अहमद तथा अनेक अन्य ने पार्टी को रास्ते पर लाने और उसका पुनः निर्माण करने में बड़ी भूमिका अदा की। 1952 आते-आते पार्टी फिर से अपने पैरों पर खड़ी होने लगी। पार्टी ने चुनाव में हिस्सा लेने का फैसला लिया। इस चुनाव में सी0पी0आई0 को बड़ी सफलता मिली
और वह दूसरे नम्बर की पार्टी बन गई। उत्तर प्रदेश में भी पार्टी को सफलता मिली, उसकी एक सीट पर जीत हुई।
उत्तर प्रदेश में आगे चलकर झारखण्डे राय, सरजू पाण्डे, जय बहादुर सिंह जैसे दिग्गज पार्टी की ओर से जीत कर संसद तथा विधान सभा में पहुँचे। 1967 के चुनाव में रुस्तम सैटिन संविद सरकार में मंत्री भी बने। उत्तर प्रदेश में जहाँ 1952 में एक ही सीट मिली थी, वहीं 1957 के चुनाव में पार्टी को विधान सभा में 9 सीटें मिलीं। उत्तर प्रदेश में लोक सभा और विधान सभा पार्टी के मजबूत क्षेत्र रहे, खासकर पूर्वी उत्तर प्रदेश, साथ ही अन्य इलाकों में भी। डाॅ0 जेड0ए0 अहमद ने विधान सभा और परिषद में लम्बी पारी खेली। इसके अलावा पार्टी का जनाधार भी काफी मजबूत रहा। पूर्वी उत्तर प्रदेश, बाँदा, झाँसी, हमीरपुर, बस्ती, मुजफ्फरनगर और अन्य कई ऐसे इलाके विकसित हुए जहाँ पार्टी और उसके जनसंगठन बड़े ही शक्तिशाली बने। उत्तर प्रदेश ने पार्टी में जमीनदारी प्रथा के खिलाफ 1950 और 1960 के दशकों में अविस्मरणीय संघर्ष चलाए। 1960 और 70-80 के दशकों में हदबंदी कानून बनवाने और उन्हें लागू करवाने, फालतू जमीन भूमिहीनों के बीच बाँटने, खेतिहर मजदूरों तथागरीब किसानों का वेतन बढ़ाने और उनकी स्थिति सुधारने इत्यादि सवालों को लेकर पार्टी ने विशाल ऐतिहासिक आंदोलन खडे़ किए। 1960 के दशक में पार्टी और उसके जन संगठनों की ओर से छात्र और नौजवान आंदोलन संगठित किए गए। इनमें बंद आंदोलन प्रमुख थे जिन्होंने 1967 में कांगे्रस की सरकार गिराने में अपनी भूमिका अदा की। उत्तर प्रदेश में आर0एस0एस0-जनसंघ और आर0एस0एस0-बी0जे0पी0 जैसी साम्प्रदायिक शक्तियाँ काफी मजबूत रहीं। उत्तर प्रदेश बाबरी मस्जिद गिराने के लिए सारे देश में बदनाम हो गया। यह संघ परिवार की करतूतों के कारण मुख्य रूप से हुआ। पार्टी को ऐसी ताकतों से कड़ा मुकाबला करना पड़ा। साथ ही जातीय शक्तियाँ भी गंभीर खतरा थीं और हैं। 1960 के दशक में जब विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन और भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन पर माओवाद का हमला हुआ तो कम्युनिस्ट आंदोलन में फूट डाली जाने लगी। कम्युनिस्ट आंदोलन में माओवाद का जन्म हुआ। 1962 के चीनी आक्रमण ने माओवादियों को काफी बढ़ाया। पाला-पोसा और अन्त में कम्युनिस्ट पार्टी पर ही उन्होंने हमला कर दिया। इन फूट वादियों के कारण 1964 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन कर दिया गया और आगे चलकर सी0पी0एम0 बनी।
इस प्रकार 1950 के बाद बड़ी कठिनाई से सी0पी0आई0 को रास्ते पर लाकर फैलाने का काम चल रहा था, पार्टी अब धीरे धीरे उठ खड़ी होकर जनता के लिए संघर्ष कर रही थी, ठीक ऐसे ही समय में यह एक बहुत बड़ा धक्का पहुँचा। फिर से एक बार पार्टी पीछे ढकेल दी गई। लेकिन पिछले 40 से अधिक वर्षों से सी0पी0आई0 फिर एक बार देश में और उत्तर प्रदेश में उभर कर आ रही है। चंडीगढ़ पार्टी कांग्रेस ने स्पष्ट कहा है कि पिछले चार दशकों की घटनाएँ आम तौर पर सी0पी0आई0 की राजनैतिक समझ को सही साबित करती हैं। कम्युनिस्ट और वाम एकता की लगातार कोशिशों के बाद कुछ थोड़ी सफलताओं के बावजूद अन्य वाम और कम्युनिस्ट पार्टियाँ इसके लिए तैयार नहीं हो रही हैं और उचित प्रतिक्रिया इस दिशा में नहीं रही है। इसलिए हम उसका इंतिजार करके पार्टी निर्माण और फैलाव का काम बन्द नहीं कर सकते।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी अपनी स्वतंत्र भूमिका निभाते हुए, जनता के प्रश्नों पर वाम जनवादी एकता की कोशिशें करते हुए एक मजबूत कम्युनिस्ट पार्टी बनाने का काम तेज करेगी। इससे जनता की ताकत बढ़ेगी, पार्टी व्यापक नवजवान पार्टी अर्थात जनता में फैली हुई पार्टी बनेगी और आम लोगों के हाथों में सी0पी0आई0 के रूप में एक संघर्ष का हथियार होगा। अपनी सारी कमजोरियों के बावजूद आज सी0पी0आई0 ही है जो उत्तर प्रदेश और समूचे भारत में सबसे आगे बढ़कर सबसे ज्यादा जन संघर्ष कर रही है। अतीत और वर्तमान के इस इतिहास में उत्तर प्रदेश की पार्टी का विशेष योगदान हैं।

अनिल राजिमवाले
समाप्त

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जेड0 ए0 अहमद, नेहरू और ए0आई0सी0सी0 जैसा कि हमने देखा 1936 का वर्ष काफी महत्व का साबित हुआ। उसी वर्ष कांग्रेस का अधिवेशन लखनऊ में बड़े पैमाने पर हुआ। सज्जाद जहीर ने जेड0 ए0 अहमद को लखनऊ जल्द से जल्द पहुँचने का आदेश देते हुए पत्र लिखा। अहमद तुरन्त चल पड़े। लखनऊ पहुँचकर वे कांग्रेस अधिवेशन में नेहरू की तकरीर कुछ सुन पाए। नेहरू वैज्ञानिक समाजवाद की बात कर रहे थे।
सज्जाद जहीर के आदेश पर वे लखनऊ में एक पूर्व नियोजित जगह पर पहुँचे। वहाँ लंदन कम्युनिस्ट ग्रुप के 10-12 साथी बैठे हुए थे। सज्जाद जहीर की देख रेख में चल रही इस बैठक में लोगों ने अपने भविष्य और काम तय किए। उनमें से ज्यादातर कोई न कोई काम कर रहे थे लेकिन पार्टी को आंशिक या पूरा वक्त देने को
तैयार थे। अहमद ने मीटिंग के बाद सिंध जाकर अपनी कालेज की नौकरी से इस्तीफा दे दिया और वापस इलाहाबाद लौट आए। सज्जाद जहीर ने उन्हें पं0 नेहरू से मिलने की सलाह दी। फिर वे लखनऊ जाकर जोशी से मिले। जोशी ने उन्हें पार्टी का सदस्य बनने के लिए कहा।
डाॅ0 अशरफ पहले ही कांग्रेस में शामिल हो चुके थे। उन्होंने अहमद को नेहरू से मिलवा दिया। नेहरू ने काफी बातचीत की और उनका काम कांग्रेस दफ्तर में तय कर दिया और साथ ही उनका माहवार भी। माक्र्सवाद, पार्टियों और विचार धाराओं के बारे में खुलकर बातें र्हुइं। अहमद को इलाहाबाद का ए0आई0सी0सी0 का दफ्तर सँभालना
था।
कुछ ही दिनों बाद पंडित नेहरू ने ए0आई0सी0सी0 दफ़्तर में एक मीटिंग बुलाई, उस मीटिंग में डाॅ0 लोहिया, डाॅ0 अशरफ, आचार्य कृपलानी और नेहरू के अलावा कुछ अन्य मौजूद थे। यह बैठक केन्द्र को मजबूत करने सम्बंधी सुझाव माँगने के लिए बुलाई गई थी। साथ ही कामों का बँटवारा भी किया गया। इसमें आखिरकार तय किया गया कि दैनिक राजनैतिक मार्ग दर्शन का काम डाॅ0 अशरफ के जिम्मे, डाॅ0 लोहिया को अन्तर्राष्ट्रीय विभाग मिला। उन्होंने ही विश्व साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष और उसके महत्व का उल्लेख किया था। डाॅ0 जेड0ए0 अहमद को आर्थिक विभाग दिया गया। जेड0ए0 अहमद ने कहा था कि वे एक अर्थशास्त्री हैं, और इसलिए जनता के बीच साम्राज्यवाद द्वारा आर्थिक शोषण का पर्दाफाश करने का महत्व वे समझते हैं। यह सब कुछ निश्चित हो जाने के बाद ए0आई0सी0सी0 दफ्तर का काम सुचारु और नियमित रूप से चालू हो गया। नेहरू ठीक नौ बजे सुबह हाजिर हो जाते थे और विभिन्न विभागों का काम देखते, आगे के कार्यक्रम तय होते। इस प्रकार ए0आई0सी0सी0 के केन्द्रीय काम में कम्युनिस्टों की बड़ी ही महत्वपूर्ण भूमिका रही और जाहिर है इसमें यू0पी0 के कम्युनिस्ट आगे रहे।
डाॅ0 अशरफ ने मुस्लिम जनता को अपने साथ लाना शुरू किया। डाॅ0 जेड0ए0 अहमद ने कुछ ही समय में अर्थात 3-4 महीनों में ही आर्थिक परिस्थितियों पर कई पुस्तकें लिख डालीं। भारत की कृषि समस्याओं पर इनमें इस तरह लिखा गया था कि आसानी से समझ में आ सके। ये पुस्तकें हज़ारों की संख्या में बिकीं। इनमें एक किताब थी जो विशेष तौर पर प्रसिद्ध हुई, वह पुस्तक थी ‘‘अग्रेरियन प्राॅब्लम इन इन्डिया’’ अर्थात भारत में कृषि समस्या, यह पुस्तक भी खूब बिकी। नेहरू ने इतना पसन्द किया कि वे कांग्रेस की एक सभा में अहमद का हाथ पकड़ कर गांधी के पास ले गए, उनका परिचय कराते हुए कहा कि यह वही नौजवान है जिसने अंग्रेरियन प्राॅब्लम लिखी है। गांधी तुरन्त उठे और अहमद को गले लगा लिया। फिर कहा कि मुझे खुशी है कि तुम्हारे नौजवान को पंडित ने कांग्रेस आफिस में काम की जिम्मेदारी दी है। आचार्य कृपलानी को यह सब पसन्द नहीं आ रहा था, वे दक्षिणपंथ की ओर झुकाव रखते थे, उन्होंने नेहरू, गांधी जी, पटेल इत्यादि से शिकायतें कीं। फलस्वरूप, एआईआईसी केन्द्र में काम में कुछ उलटफेर करना पड़ा। इसके अलावा, कांग्रेस, सोशलिस्ट पार्टी और दूसरों गुटों के बीच तनाव भी चल रहा था। इन सभी ने अपने-अपने त्याग पत्र दे दिए और फिर नेहरू से भविष्य के बारे में सलाह की। जेड.ए. अहमद को नेहरू ने लखनऊ जाकर कांग्रेस राज्य कमेटी के पुनर्गठन का काम दिया। लेकिन अहमद इलाहाबाद में ही रहे, क्योंकि वे तुरन्त नहीं जा सकते थे। वहाँ उन्होंने विभिन्न प्रकार के प्रेस मजदूर यूनियनों के निर्माण में मददकी। इन सारी गतिविधियों से इलाहाबाद में आगे चलकर पार्टी बनाने में सहायता मिली। इस प्रकार यदि देखा जाय तो जहाँ 1936 में यू0पी0 (उस वक्त संयुक्त प्रांत या यूनाइटेड प्राविन्सेज) में कुछ थोड़े से लोग पार्टी के साथ थे। वहाँ 1940 आते-आते पार्टी जनाधार काफी बढ़ा और विस्तृत हो गया था। उस समय तक आर0डी0 भारद्वाज, जेड0ए0 अहमद, रमेश सिन्हा, पी0सी0 जोशी, एस0एस0 यूसुफ, अजय घोष और अन्य कई कम्युनिस्ट नेता, यू0पी0 में उभर चुके थे। जिनका न सिर्फ पार्टी के दायरे मंे बल्कि उस के बाहर काफी व्यापक क्षेत्र में प्रभाव था। साथ ही साथ वे राष्ट्रीय आजादी के आन्दोलन के भी महत्वपूर्ण नेताओं में गिने जाने लगे थे, उनमें से कई कांग्रेस मंे भी काम कर रहे थे जिससे कांग्रेस के अंदर वामपंथी शक्तियाँ मजबूत हो रही थीं।
रमेश सिन्हा एक शिक्षित परिवार मंे जन्मे थे। रमेश सिन्हा और हर्षदेव मालवीय एक ही क्लास में पढ़ते थे। उन दोनों ने आगे चलकर कम्युनिस्ट वामपंथी और राष्ट्रीय आन्दोलन के निर्माण में बड़ा योगदान दिया। इन साथियों ने इलाहाबाद में छात्रों के बीच कम्युनिस्ट गु्रप बनाने का काम किया।
फिरोजाबाद में चूड़ी मजदूरों, आगरा मंे जूते बनाने वाले मजदूरों, अशफाक तथा अन्य कामरेडों की देखरेख में हरिजन और मुस्लिम लोगों में, हाफिज अहमद के नेतृत्व में रेलवे वर्कर के बीच, कानपुर मंे व्यापक तौर पर मजदूरों के बीच, खासकर पूर्वी यू0पी0 में और अन्य हिस्सों में किसानों में पार्टी और विभिन्न जन संगठनों का काम सक्रियता से छा पड़ा। आगे चलकर पार्टी के झारखंडे राय, सरजू पाण्डेय, जय बहादुर सिंह और अन्य कई नेता उभरे, जिनकी लिस्ट काफी लम्बी है। यू0पी0 भूमि कम्युनिस्टों के लिए काफी उर्वरा साबित हुई।
1936 महत्वपूर्ण जन-संगठनों का निर्माण

जैसा कि सभी को ज्ञात है, 1936 में तीन अखिल भारतीय पैमाने के जन-संगठनों का जन्म यू0पी0 के ही लखनऊ में हुआ था। यह कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। यू0पी0 में विभिन्न जन-संगठन पहले से ही काम कर रहे थे। छात्रों और नौजवानों के बीच छात्र संगठन, स्टूडेंट फेडरेशन, यूथ लीग आदि नामों से संगठन पहले से ही सक्रिय थे, जिनमें पी0सी0 जोशी, रुस्तम सटिन, रमेश सिन्हा, पंडित नेहरू और अन्य सक्रिय थे। 1929 मंे ही इलाहाबाद में एक यूथ लीग सक्रिय था, जिसमें पण्डित नेहरू, पीसी जोशी तथा अन्य सक्रिय थे। यूथ लीग ने यू0पी0 यंग कामरेड लीग बनाने मंे मदद की।
पीसी जोशी 1929 में मेरठ मुकदमे में गिरफ्तार हो गए। जोशी 1928 में यू0पी0 यंग कामरेड्स लीग के सचिव थे और साथ ही यू0पी0 में उभरते कम्युनिस्ट संगठन के भी सचिव थे। हालाँकि अभी यू0पी0 में औपचारिक तरीके से पार्टी नहीं बन पाई थी। पी0सी0 जोशी उस समय इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के छात्र थे, उनकी गिरफ्तारी के विरोध में यूनिवर्सिटी के छात्रों ने हड़ताल कर दी। छात्रों के कमरों की तलाशी ली गई, ताकि कम्युनिस्ट साहित्य मिल सके। इस दौरान गिरफ्तारी के खिलाफ छात्रों ने जुलूस भी निकाला। बाद में 500 से भी अधिक छात्रों ने यूथ लीग की सदस्यता ग्रहण कर ली।
नेहरू ने, पूछे जाने पर कम्युनिज्म के सिद्धांतों का समर्थन करते हुए कहा कि इसे समझने की जरूरत है और इसकी अच्छाइयों को व्यवहार में उतारने की आवश्यकता है।
जोशी की गिरफ्तारी के बाद नेहरू वाई0एल0 का दिशा निर्देशन करते रहे। 13 अप्रैल 1929 को इलाहाबाद में वाई0एल0 की एक मीटिंग हुई। 24 फरवरी को नेहरू ने लखनऊ में तिरंगा झण्डा इसी मीटिंग में फहराया। 13 अप्रैल 1929 को नेहरू ने वाई0एल0 की एक दिलचस्प मीटिंग इलाहाबाद में आयोजित की, इसमें छुट्टियों के दिनों में छात्रों के कार्यक्रम तय किए गए, इनमें सबसे महत्वपूर्ण था पी0सी0 जोशी का मेरठ षड्यंत्र मुकदमा लड़ने के लिए पैसे इकट्ठा करना।
इससे पता चलता है कि मेरठ मुकदमे के खिलाफ गोरखपुर तथा कुछ अन्य जगहों में भी वाई0एल0 काम कर रहे थे। 18-19 अगस्त 1929 को एक प्रांत-व्यापी छात्र नौजवान सम्मेलन वाई0एल0 के नेतृत्व में करने का निश्चय किया गया।
1936 में लखनऊ में ए0आई0एस0एफ0, अखिल भारतीय किसान सभा और और प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई। स्थापना संबंधी इनमें से प्रत्येक का इतिहास अत्यंत ही रोचक और शिक्षा-प्रद है, लेकिन स्थान की कमी के कारण हम विस्तार में न जाकर केवल कुछ ही घटनाओं का जिक्र करेंगे।
ए0आई0एस0एफ0 बनाने से पहले अंग्रेज शासक भाँप गये थे कि एक मजबूत छात्र संगठन बनने वाला है, इसलिए उन्होंने स्वयं ही एक अखिल भारतीय छात्र संगठन बनाने की पहल की। उस समय यू0पी0 (यूनाइटेड प्राविन्सेज आॅफ आगरा एण्ड अवध) के गवर्नर सर मैल्कम हैली थे। उन्होंने यू0पी0 के वाइस चांसलरों और दूसरे अधिकारियों को सम्मेलन बुलाने का आदेश दिया, उनकी योजना थी कि आगे चलकर इस संगठन
की ओर से एक अखिल भारतीय सम्मेलन बुलाया जा सके। इस संगठन का नाम था यू0पी0 यूनिवर्सिटी स्टुडेंट फेडरेशन। यह अंग्रेज समर्थित आधिकारिक छात्र संगठन था। इसकी एक बैठक 1936 के आरम्भ में बुलाई गई। राष्ट्रवादी, कम्युनिस्ट,
सोसलिस्ट और अन्य छात्रों ने इसमें भाग लेने का फैसला किया। अधिकारियों की ओर से राजा जार्ज पंचम की मृत्यु पर एक शोक प्रस्ताव लाया गया। राष्ट्रवादी छात्रों ने ब्रिटिश कम्युनिस्ट नेता शापुरजी सकलतवाला की मृत्यु पर भी एक शोक प्रस्ताव पेश किया। बस फिर क्या था, हंगामा मच गया, अंग्रेजों के पिट्ठू यह प्रस्ताव पास नहीं होने देना चाहते थे।
राष्ट्रवादी छात्रों ने मंच पर कब्जा कर लिया। शापुरजी की मृत्यु पर प्रस्ताव लाने वालों में शफीक नकवी जो बाद में यू0पी0 पार्टी के नेता बने और ए0आई0एस0एफ0 के संगठनकर्ता थे, अंसार हरवानी, अहमद जमाल किदवई, जगदीश रस्तोगी इत्यादि थे। कई छात्रों को रेस्टीकेट कर दिया गया। वाइस चांसलर तथा अन्य अधिकारियों
ने धमकियाँ दीं, लेकिन वे सफल नहीं हुए।
कम्युनिस्ट और राष्ट्रवादी छात्रों ने जवाब में एक अखिल भारतीय छात्र सम्मेलन बुलाने की तैयारियाँ शुरू कर दीं। इस प्रकार ए0आई0एस0एफ0 के प्रसिद्ध लखनऊ सम्मेलन की नींव डाली गई। आगे चलकर सी0पी0आई0, सी0एस0पी0, कांग्रेस और अन्य संगठनों तथा व्यक्तियों की पहल कर ए0आई0एस0एफ0 के निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई।
यू0पी0 यू0एस0एफ0 ने लखनऊ में 23 जनवरी 1936 को एक मीटिंग में तय किया कि एक अखिल भारतीय छात्र सम्मेलन लखनऊ में ही आयोजित किया जाए। सम्मेलन की तैयारियों के लिए यू0पी0 प्रांत के विभिन्न शहरों में समितियों का गठन किया गया। लखनऊ, बनारस, इलाहाबाद, आगरा, अलीगढ़ और दूसरी जगहों में समितियाँ बनाई गईं। लखनऊ स्थित स्वदेशी लीग ने भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा की (कम्युनिस्टों का इस प्रक्रिया में काफी योगदान रहा), रमेश सिन्हा ने इलाहाबाद से ए0आई0एस0एफ0 के लखनऊ सम्मेलन में डेलीगेट की हैसियत से भाग लिया।
सम्मेलन को सुचारु रूप से चलाने के लिए स्वागत समिति बनाई गई, जिसमें यू0पी0 की महत्वपूर्ण हस्तियाँ शामिल की गईं। मई 1936 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन के दौरान हरीश तिवारी और अन्य छात्र नेताओं ने पण्डित नेहरू से मुलाकात करके विस्तार से बातें कीं। साथ ही स्वयं नेहरू से सम्मेलन का उद्घाटन करने का अनुरोध किया गया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया।
लखनऊ में ए0आई0एस0एफ0 के स्थापना सम्मेलन की तैयारियों और कार्यवाहियों का अपने आप में एक रोचक इतिहास है। यू0पी0 के डेलीगेट्स को बलरामपुर हाउस (कैसरबाग) में ही ठहराया गया था। इसके अलावा छेदीलाल धर्मशाला मंे भी उनके रहने का इन्तजाम किया गया। बलरामपुर हाउस में विषय समिति की बैठक हुई। कुछ स्थानीय ‘‘राजाओं’’ ने रहने के इन्तजाम में सहायता की: जैसे बलरामपुर, महमूदाबाद, सलेमपुर, मनकापुर इत्यादि के राजा। यू0पी0 की विभिन्न स्वयं सेवक संस्थाओं ने ए0आई0एस0एफ0 सम्मेलन में सक्रिय भूमिका अदा की। मसलन – यू0पी0 एहरार लाल कुर्ता स्वयं सेवकों तथा अन्य ने अलग-अलग इन्तजाम के काम सँभाले।
ए0आई0एस0एफ0 के स्थापना सम्मेलन में यू0पी0 का अत्यंत ही सक्रिय और कई मौकों पर निर्णायक योगदान रहा। ए0आई0एस0एफ0 का केन्द्रीय कार्यालय लखनऊ से ही काम करने लगा और ए0आई0एस0एफ0 का सूचना केन्द्र भी यू0पी0 के अलीगढ़ में स्थापित किया गया। सम्मेलन मंे ए0आई0एस0एफ0 के कनविनर कैलाश नाथ वर्मा बनाए गए और एल0सी0 खन्ना तथा रमेश सिन्हा इसके सदस्य बनाए गए।
अखिल भारतीय किसान सभा और प्रलेस की स्थापना
अखिल भारतीय किसान सभा का स्थापना सम्मेलन 11 से 13 अप्रेल 1936 को लखनऊ में सम्पन्न हुआ। ध्यान रहे कि अखिल भारतीय किसान सभा की संगठन समिति का निर्माण भी मेरठ में ही 1935 में एक अखिल भारतीय बैठक में किया गया। यह भी उत्तर प्रदेश (तत्कालीन संयुक्त प्रांत) का कम्युनिस्ट और मूलगामी जन आन्दोलन में बहुत बड़ा योगदान था। इससे पहले यू0पी0 के कई जिलों और क्षेत्रों में किसान सभा की इकाइयाँ बन चुकी थीं। यू0पी0 मंे किसान आन्दोलन तेजी से उभर रहा था। ए0आई0के0एस0 का सम्मेलन कांग्रेस अधिवेशन के साथ ही हुआ। किसान सभा
का कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टी और सी0एस0पी0 के साथ बड़ा गहरा संबंध रहा। इस सम्मेलन की अध्यक्षता स्वामी सहजानंद सरस्वती ने की। सम्मेलन मंे एक हजार से भी अधिक प्रतिनिधि शामिल हुए। तब तक यू0पी0 किसान संघ बन चुका था। सम्मेलन की तैयारियों और कामों में यू0पी0 से कई नेता सक्रिय रहे जैसे के0एम0 अशरफ, मोहनलाल गौतम तथा अन्य। ए0आई0के0एस0 सम्मेलन में कई निर्णय लिए गए जिनमें एक था जमींदारी प्रथा के खिलाफ संघर्ष। यू0पी0 के इलाकों में सामन्ती जमींदारी व्यवस्था की जड़ें काफी मजबूत थीं। इसके विरोध में यू0पी0 में कई जुझारू संघर्ष संगठित किए गए जिनमें कम्युनिस्टों की सक्रिय भूमिका रही। तालुक़ेदारी यू0पी0 के कई इलाकों मंे जमींदारी प्रथा का विशेष रूप था। 1937 में प्रदेश में एक किसान संगठन समिति बनाई गई जिसके डाॅ0 के0एम0 अशरफ संयोजक थे। प्रादेशिक किसान सम्मेलन पीलीभीत में 6-7 दिसम्बर 1937 को आयोजित किया गया।
जेड0ए0 अहमद ने ए0आई0के0एस0 के लखनऊ सम्मेलन में एक दर्शक प्रतिनिधि के रूप में हिस्सा लिया। उन्होंने प्रो0 रंगा और इंदुलाल याज्ञनिक के कहने पर और उनके प्रभाव में अपना मुख्य समय किसान आन्दोलन को देने का फैसला किया। वे यू0पी0 और बिहार में किसान सभा का सक्रिय कार्य करने लगे। किसानों की जमींदारी विरोधी लहर का नेतृत्व अभी तक तो कांग्रेस करती आ रही थी। वह अभी भी सक्रिय थी। जब मैदान में अधिक स्पष्ट और वैज्ञानिक विचारों वाले कम्युनिस्ट तथा अन्य लोगों के आने से किसान आन्दोलन को अधिक साफ दिशा मिली तो यू0पी0 में किसान आन्दोलन बढ़ने लगा। अवध में किसान सभा ने लगान बंदी का आन्दोलन छेड़ दिया।
1938 में जेड0ए0 अहमद ए0आई0के0एस0 की सर्वोच्च निकाय के सदस्य बनाए गए। इस हैसियत से वे बिहार और दूसरे प्रांतों का दौरा भी करते रहे।
1938 मंे कांग्रेस के प्रदेश सचिव की हैसियत से अहमद, संयुक्त सचिव जगन प्रसाद रावत के साथ चैरी चैरा गए। वहाँ कांग्रेस दो हिस्सों में बटी थी। किसानों के समर्थन और जमींदारों के समर्थन वाले गुट थे। शिब्बन लाल सक्सेना वहाँ 1932 से ही किसानों का जुझारू संघर्ष चला रहे थे। चैरी चैरा का अनुभव अहमद के लिए काफी महत्व का था। उन्होंने फिर मुंशी कालिका प्रसाद के साथ कई दिनों का दौरा किया और गाँव-गाँव रहे तथा किसान जीवन एवं संघर्ष को नजदीक से देखा। किसान संघर्षांे के दौरान उनका परिचय किसान और कांग्रेस नेता पुरुषोत्तम दास टण्डन से भी हुआ।
1939 में सुप्रसिद्ध किसान नेता, कम्युनिस्ट और लेखक राहुल सांकृत्यायन, अहमद से मिलने इलाहाबाद आए और 20-25 दिनांे तक उनके साथ रहे। वे उनके घर के सामने एक बड़े मैदान में हरिजन आश्रम के निकट एक झोपड़ी मंे रुके, जिसे अहमद ने बनवा दी थी। शायद यहीं रहते हुए राहुल ने अपनी पुस्तक, वोल्गा से गंगा, के कुछ पृष्ठ भी लिखे थे। 1940 में जेड0ए0 अहमद को गिरफ्तार कर देवली सेंट्रल जेल भेज दिया गया। लेकिन इस से पहले ही उनका कई नेताओं के साथ गहरा सम्पर्क कायम हो चुका था। तब तक आजमगढ़ के जय बहादुर सिंह और गाजीपुर के सरयू पाण्डेय कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता के अलावा पूर्वी उत्तर (तब संयुक्त प्रांत) प्रदेश के किसान आन्दोलन के नेताओं के रूप में जाने जाने लगे थे। इन तीनों नेताओं को ‘त्रिगुट’ के नाम से जाना जाता था, उन्होंने पूर्वी यू0पी0 में काफी मजबूत किसान आन्दोलन खड़ा कर दिया।
जय बहादुर सिंह ने तो आमजगढ़ में काफी किसान आन्दोलन चला रखे थे, उनकी विशेष प्रसिद्धि पिरीडीह ट्रेन डकैती काण्ड में सजा काटकर बाहर आने के बाद हुई। जय बहादुर सिंह ने बेदखली और अन्य समस्याओं पर तथा जमींदारों के बार-बार जुल्मों के विरोध में शक्तिशाली संघर्ष चलाए। यहाँ तक कि उनके ही परिवार के जमींदारों ने किसानों की जमीनें छीन ली थीं और दियारे की सैकड़ों बीघा जमीन से उन्हें बेदखल कर दिया था। जय बहादुर ने किसानों के संघर्षों का नेतृत्व कर उनकी जमीनें उन्हें वापस दिलवा दीं। किसानों से उन्होंने कहा कि रोने धोने से काम नहीं चलेगा, एक होकर लड़ो। जमींदारों ने अपना माथा पीट लिया कि देखो हमारे ही घर मं कलंक पैदा हो गया है। गाजीपुर के सरयू पाण्डे 1942 के आन्दोलन में जेल की सजा पा चुके थे, जेल में उनका सम्पर्क कम्युनिस्टों से हुआ और वे जेल से बाहर आने पर पार्टी में शामिल हो गए। आगे चलकर वे सी0पी0आई0 के न सिर्फ प्रांत और राज्य स्तरीय बल्कि अखिल भारतीय नेता भी बने। जेल के बाद उन्होंने पूरे जिले में किसान संघर्ष तेज कर दिया और उनके नेतृत्व में बड़े-बड़े किसान आन्दोलन चले। उन्हें घर-घर के लोग पहचानते थे। एक बार बलिया के एक गाँव में एक हरिजन महिला के घर मंे पुलिस आ धमकी, पुलिस सरयू पाण्डेय की खोज मंे थी। उस महिला को मालूम था कि वे कहाँ छिपे हैं, लेकिन पुलिस द्वारा पूछने पर भी उसने नहीं बताया। तब पुलिस ने उसकी तीन दिनों की बच्ची को जूतों की ठोकरों से मार डाला, फिर भी उसने सरयू पाण्डेय का पता नहीं बताया।

अनिल राजिमवाले
क्रमश:

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मेरठ षड्यंत्र मुकदमा 1929-33
कानपुर में 1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के कुछ ही वर्षों बाद ब्रिटिश सरकार ने पार्टी को कुचलने के ख़याल से कम्युनिस्टों पर एक मुकदमा चलाया और बड़ी संख्या में उन्हें गिरफ्तार किया। 1929 में सारे देश में 32 सबसे बड़े कम्युनिस्ट मजदूर नेताओं को पकड़कर मेरठ लाया गया। मेरठ में उनके लिए एक विशेष जेल बनाई गई। जिसमें उन्हें नजरबन्द किया गया। यह मुकदमा ‘मेरठ षड्यंत्र केस’ मुकदमे के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है। यह मुकदमा उस समय तक भारत का सबसे लम्बा मुकदमा था और दुनिया के सबसे बड़े और लम्बे मुकदमों में आज भी गिना जाता है। इस पर अंग्रेज सरकार ने करोड़ों-करोड़ रुपये खर्च किए। लेकिन उसे कम्युनिस्टों को कुचलने मेंसफलता नहीं मिली। उल्टे अखबारों और दूसरे जरिये से कम्युनिस्टों के बयानों और वक्तव्यों का प्रचार ही हुआ।
इस प्रकार यह उत्तर प्रदेश को फिर से एक बार सौभाग्य और श्रेय प्राप्त हुआकि वह कम्युनिस्ट आन्दोलन के एक महत्वपूर्ण अध्याय का केन्द्र बने। इससे पहले फरवरी 1924 में 8 क्रांतिकारियों और कम्युनिस्टों के खिलाफ कानपुर षड्यंत्र केस चलाया गया था। इसमें प्रमुख नेताओं में एस0ए0 डांगे, शौकत उस्मानी तथा अन्य थे। मेरठ कैदियों का मुकदमा इलाहाबाद हाईकोर्ट में चलाया जा रहा था। यह मुकदमा मेरठ में ही क्यों चलाया गया, कलकत्ता बम्बई किसी अन्य स्थान पर क्यो नहीं? इसके दिलचस्प कारण थे। बम्बई या कलकत्ता जैसी जगहों पर ज्यूरी की व्यवस्था करनी पड़ती जो अंग्रेज सरकार के लिए सरदर्द साबित हो सकती थी। इसके अलावा अंग्रेज सरकार के लिए प्रशासनिक और व्यावहारिक रूप से मेरठ ज्यादा अनुकूल था। फिर एक और कारण यह था कि मेरठ में मजदूर किसान पार्टी की एक शाखा भी थी। वहाँ मुकदमे में आरोपित फिलिप स्प्राट, सोहन सिंह, जोश, मुजफ्फर अहमद, अब्दुल माजिद और सहगल जैसे साथी जा चुके थे और उन पर इस आधार पर आसानी से आरोप लगाए जा सकते थे।
मेरठ जेल में आरम्भ में कैदियों को अलग अलग कोठरियों या सेल्स में रखा गया और उन पर कड़ा पहरा लगाया गया। उनके जरूरी सामान तक उनसे ले लिए गए और पुस्तकंे नहीं दी गईं। आगे चलकर काफी संघर्ष हुआ और दबाव पड़ा। तब जाकर उन्हें काफी बाद में एक बड़े बैरक में रहने की इजाजत मिली। साथ ही कुछ अन्य सुविधाएँ भी मिलीं।
इन 32 कैदियों में उत्तर प्रदेश के मुख्य नेता पी0सी0 जोशी, शौकत उस्मानी, अयोध्या प्रसाद, गौरी शंकर, विश्वनाथ मुखर्जी, धरमवीर सिंह और एच0एल0 कदम। मुकदमे की गूँज सारे देश और दुनिया में मची। मेरठ कैदियों के बचाव के लिए कांग्रेस ने एक विशेष कानूनी समिति बनाई जिसके अन्तर्गत पं0 नेहरू,सम्पूर्णानन्द तथा अन्य लोग और वकील सहायता कर रहे थे। कम्युनिस्टों ने मेरठ के एक जूनियर वकील शिव प्रसाद को भी लगा रखा था जो बहुत कम फीस पर काम कर रहे थे और उन्हें इन कैदियों से लगाव हो गया था। ब्रिटेन और अन्य देशों में भी मेरठ मुकदमे के कैदियों के समर्थन में आन्दोलन और अभियान चल पड़ा। ब्रिटिश पार्लियामेन्ट में एम0पी0 तथा अन्य लोगों ने कई ऐसे सवाल खड़े कर दिए जिनका जवाब अंग्रेज सरकार को देते नहीं बना। मेरठ मुकदमा न सिर्फ भारत बल्कि उत्तर प्रदेश के लिए एक महत्वपूर्ण घटना थी।

उत्तर प्रदेश में पार्टी की स्थापना

1936 का साल सी0पी0आई0 के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण था। उसी वर्ष लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। यह सर्वविदित है कि उसी वर्ष तीन अखिल भारतीय जन संगठनों की स्थापना लखनऊ में की गई। ए0आई0एस0एफ0, अखिल भारतीय किसान सभा और प्रगतिशील लेखक संघ, इस प्रकार यह गौरव भी उत्तर प्रदेश को मिला। इसी समय लखनऊ में ही सी0पी0आई0 की केन्द्रीय समिति की बैठक हुई। यह बड़ी ही महत्वपूर्ण बैठक थी और इसने मेरठ षड्यंत्र केस के बाद सी0पी0आई0 को पुनः संगठित होने में बड़ी मदद की। नोट करने लायक तथ्य यह है कि इस केन्द्रीय समिति की बैठक में एक तीन सदस्यीय पोलित ब्यूरो चुनी गई और वे तीनों ही सदस्य उत्तर प्रदेश ही के थे। वे थे पी0सी0 जोशी, आर0डी0 भारद्वाज और अजय घोष। पी0सी0 जोशी पार्टी के महामंत्री चुने गए। वास्तव में एक तरह से वे पहले से ही महामंत्री का कार्य सँभाल रहे थे। इसके कुछ समय बाद उत्तर प्रदेश में पार्टी निर्माण का कार्य आरम्भ हो गया। पोलित ब्यूरो के निर्देश पर अजय घोष कानपुर चले गए। कानपुर उत्तर प्रदेश का सबसे महत्वपूर्ण केन्द्र था। रुद्रदत्त, भारद्वाज को उत्तर प्रदेश का दौरा करके परिस्थिति का जायजा लेने की जिम्मेदारी दी गई। उन पर वारण्ट था, इसलिए उन्हें यह काम छिपकर करना पड़ता था।
भारद्वाज मार्च 1937 में गुप्त रूप से इलाहाबाद गए और वहाँ जेड0ए0 अहमद समेत कई साथियों से मिले। उन्होंने उत्तर प्रदेश में जगह-जगह कम्युनिस्टों से सम्पर्क करके पार्टी बनाने, की तैयारियाँ शुरू कर दीं। उनके विचार में कानपुर, बलिया,
इलाहाबाद, बनारस और दूसरी कई जगहों पर कम्युनिस्ट ग्रुप बनाए जा सकते थे। उन्होंने रमेश सिन्हा, जेड0 ए0 अहमद, हाजरा बेगम, हर्षदेव मालवीय, सज्जाद ज़हीर तथा कई अन्य साथियों से सम्पर्क किया। उनके साथ एक बड़े ही होनहार कार्यकर्ता थे जो उनके साथ बम्बई से आए थे, उनका नाम था शरीफ अतहर अली। शरीफ को सम्पर्क करने का काम सौंपकर भारद्वाज वापस बम्बई लौट गए। इलाहाबाद के अलावा आगरा में शिवदान सिंह चैहान और एम0एन0 टण्डन, लखनऊ में नारायन तिवारी और रफीक नकवी, झाँसी में अयोध्या प्रसाद, फिरोजाबाद में अशफाक, रेलवे और दूसरे कई विभागों के मजदूरों में सन्त सिंह युसूफ और कई अन्य नेता एवं कार्यकर्ता उभरने लगे। दिलचस्प तथ्य यह भी है कि इस समय जेड0ए0 अहमद उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे और कम्युनिस्ट में भी काम कर रहे थे। यह जानकारी बहुत कम लोगों को है। इस हैसियत से उन्होंने उत्तर प्रदेश का दौरा करके पार्टी बनाने में बड़ी मदद की। 1940 आते-आते उत्तर प्रदेश में मजदूरों, किसानों, बुद्धिजीवियों, छात्रों,नौजवानों इत्यादि के बीच कम्युनिस्ट पार्टी उभरने लगी। जनाधार बढ़ने लगा। बाँदा, बुलन्दशहर, हमीरपुर, गोरखपुर, चैरी-चैरा, अलीगढ़, आजमगढ़, फैजाबाद, गाजीपुर
वगैरह जगहों में पार्टी के दल कायम हो गए। इस प्रक्रिया की परिणति प्रान्तीय कम्युनिस्ट सम्मेलन के रूप में हुई। इलाहाबाद में पहले ही 1936 में प्रांतीय पार्टी कार्यालय गुप्त रूप से स्थापित किया जा चुका था। वह काफी कठिनाई से काम कर रहा था।
उत्तर प्रदेश में पार्टी की स्थापना करने के लिए एक प्रान्त स्तरीय गुप्त सम्मेलन लखनऊ में 1938 में आयोजित किए जाने की जानकारी मिली। पार्टी पर प्रतिबंध होने और सम्मेलन गुप्त रूप से होने के कारण सटीक और विस्तृत जानकारी पाना कठिन था। यह एक ऐतिहासिक घटना थी। अर्जुन अरोड़ा प्रादेशिक सी0पी0आई0 के प्रथम
सचिव बनाए गए।

 

मेरठ षड्यंत्र मुकदमा 1929-33
कानपुर में 1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के कुछ ही वर्षों बाद ब्रिटिश सरकार ने पार्टी को कुचलने के ख़याल से कम्युनिस्टों पर एक मुकदमा चलाया और बड़ी संख्या में उन्हें गिरफ्तार किया। 1929 में सारे देश में 32 सबसे बड़े कम्युनिस्ट मजदूर नेताओं को पकड़कर मेरठ लाया गया। मेरठ में उनके लिए एक विशेष जेल बनाई गई। जिसमें उन्हें नजरबन्द किया गया। यह मुकदमा ‘मेरठ षड्यंत्र केस’ मुकदमे के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है। यह मुकदमा उस समय तक भारत का सबसे लम्बा मुकदमा था और दुनिया के सबसे बड़े और लम्बे मुकदमों में आज भी गिना जाता है। इस पर अंग्रेज सरकार ने करोड़ों-करोड़ रुपये खर्च किए। लेकिन उसे कम्युनिस्टों को कुचलने मेंसफलता नहीं मिली। उल्टे अखबारों और दूसरे जरिये से कम्युनिस्टों के बयानों और वक्तव्यों का प्रचार ही हुआ।
इस प्रकार यह उत्तर प्रदेश को फिर से एक बार सौभाग्य और श्रेय प्राप्त हुआकि वह कम्युनिस्ट आन्दोलन के एक महत्वपूर्ण अध्याय का केन्द्र बने। इससे पहले फरवरी 1924 में 8 क्रांतिकारियों और कम्युनिस्टों के खिलाफ कानपुर षड्यंत्र केस चलाया गया था। इसमें प्रमुख नेताओं में एस0ए0 डांगे, शौकत उस्मानी तथा अन्य थे। मेरठ कैदियों का मुकदमा इलाहाबाद हाईकोर्ट में चलाया जा रहा था। यह मुकदमा मेरठ में ही क्यों चलाया गया, कलकत्ता बम्बई किसी अन्य स्थान पर क्यो नहीं? इसके दिलचस्प कारण थे। बम्बई या कलकत्ता जैसी जगहों पर ज्यूरी की व्यवस्था करनी पड़ती जो अंग्रेज सरकार के लिए सरदर्द साबित हो सकती थी। इसके अलावा अंग्रेज सरकार के लिए प्रशासनिक और व्यावहारिक रूप से मेरठ ज्यादा अनुकूल था। फिर एक और कारण यह था कि मेरठ में मजदूर किसान पार्टी की एक शाखा भी थी। वहाँ मुकदमे में आरोपित फिलिप स्प्राट, सोहन सिंह, जोश, मुजफ्फर अहमद, अब्दुल माजिद और सहगल जैसे साथी जा चुके थे और उन पर इस आधार पर आसानी से आरोप लगाए जा सकते थे।
मेरठ जेल में आरम्भ में कैदियों को अलग अलग कोठरियों या सेल्स में रखा गया और उन पर कड़ा पहरा लगाया गया। उनके जरूरी सामान तक उनसे ले लिए गए और पुस्तकंे नहीं दी गईं। आगे चलकर काफी संघर्ष हुआ और दबाव पड़ा। तब जाकर उन्हें काफी बाद में एक बड़े बैरक में रहने की इजाजत मिली। साथ ही कुछ अन्य सुविधाएँ भी मिलीं।
इन 32 कैदियों में उत्तर प्रदेश के मुख्य नेता पी0सी0 जोशी, शौकत उस्मानी, अयोध्या प्रसाद, गौरी शंकर, विश्वनाथ मुखर्जी, धरमवीर सिंह और एच0एल0 कदम। मुकदमे की गूँज सारे देश और दुनिया में मची। मेरठ कैदियों के बचाव के लिए कांग्रेस ने एक विशेष कानूनी समिति बनाई जिसके अन्तर्गत पं0 नेहरू,सम्पूर्णानन्द तथा अन्य लोग और वकील सहायता कर रहे थे। कम्युनिस्टों ने मेरठ के एक जूनियर वकील शिव प्रसाद को भी लगा रखा था जो बहुत कम फीस पर काम कर रहे थे और उन्हें इन कैदियों से लगाव हो गया था। ब्रिटेन और अन्य देशों में भी मेरठ मुकदमे के कैदियों के समर्थन में आन्दोलन और अभियान चल पड़ा। ब्रिटिश पार्लियामेन्ट में एम0पी0 तथा अन्य लोगों ने कई ऐसे सवाल खड़े कर दिए जिनका जवाब अंग्रेज सरकार को देते नहीं बना। मेरठ मुकदमा न सिर्फ भारत बल्कि उत्तर प्रदेश के लिए एक महत्वपूर्ण घटना थी।

उत्तर प्रदेश में पार्टी की स्थापना

1936 का साल सी0पी0आई0 के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण था। उसी वर्ष लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। यह सर्वविदित है कि उसी वर्ष तीन अखिल भारतीय जन संगठनों की स्थापना लखनऊ में की गई। ए0आई0एस0एफ0, अखिल भारतीय किसान सभा और प्रगतिशील लेखक संघ, इस प्रकार यह गौरव भी उत्तर प्रदेश को मिला। इसी समय लखनऊ में ही सी0पी0आई0 की केन्द्रीय समिति की बैठक हुई। यह बड़ी ही महत्वपूर्ण बैठक थी और इसने मेरठ षड्यंत्र केस के बाद सी0पी0आई0 को पुनः संगठित होने में बड़ी मदद की। नोट करने लायक तथ्य यह है कि इस केन्द्रीय समिति की बैठक में एक तीन सदस्यीय पोलित ब्यूरो चुनी गई और वे तीनों ही सदस्य उत्तर प्रदेश ही के थे। वे थे पी0सी0 जोशी, आर0डी0 भारद्वाज और अजय घोष। पी0सी0 जोशी पार्टी के महामंत्री चुने गए। वास्तव में एक तरह से वे पहले से ही महामंत्री का कार्य सँभाल रहे थे। इसके कुछ समय बाद उत्तर प्रदेश में पार्टी निर्माण का कार्य आरम्भ हो गया। पोलित ब्यूरो के निर्देश पर अजय घोष कानपुर चले गए। कानपुर उत्तर प्रदेश का सबसे महत्वपूर्ण केन्द्र था। रुद्रदत्त, भारद्वाज को उत्तर प्रदेश का दौरा करके परिस्थिति का जायजा लेने की जिम्मेदारी दी गई। उन पर वारण्ट था, इसलिए उन्हें यह काम छिपकर करना पड़ता था।
भारद्वाज मार्च 1937 में गुप्त रूप से इलाहाबाद गए और वहाँ जेड0ए0 अहमद समेत कई साथियों से मिले। उन्होंने उत्तर प्रदेश में जगह-जगह कम्युनिस्टों से सम्पर्क करके पार्टी बनाने, की तैयारियाँ शुरू कर दीं। उनके विचार में कानपुर, बलिया,
इलाहाबाद, बनारस और दूसरी कई जगहों पर कम्युनिस्ट ग्रुप बनाए जा सकते थे। उन्होंने रमेश सिन्हा, जेड0 ए0 अहमद, हाजरा बेगम, हर्षदेव मालवीय, सज्जाद ज़हीर तथा कई अन्य साथियों से सम्पर्क किया। उनके साथ एक बड़े ही होनहार कार्यकर्ता थे जो उनके साथ बम्बई से आए थे, उनका नाम था शरीफ अतहर अली। शरीफ को सम्पर्क करने का काम सौंपकर भारद्वाज वापस बम्बई लौट गए। इलाहाबाद के अलावा आगरा में शिवदान सिंह चैहान और एम0एन0 टण्डन, लखनऊ में नारायन तिवारी और रफीक नकवी, झाँसी में अयोध्या प्रसाद, फिरोजाबाद में अशफाक, रेलवे और दूसरे कई विभागों के मजदूरों में सन्त सिंह युसूफ और कई अन्य नेता एवं कार्यकर्ता उभरने लगे। दिलचस्प तथ्य यह भी है कि इस समय जेड0ए0 अहमद उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे और कम्युनिस्ट में भी काम कर रहे थे। यह जानकारी बहुत कम लोगों को है। इस हैसियत से उन्होंने उत्तर प्रदेश का दौरा करके पार्टी बनाने में बड़ी मदद की। 1940 आते-आते उत्तर प्रदेश में मजदूरों, किसानों, बुद्धिजीवियों, छात्रों,नौजवानों इत्यादि के बीच कम्युनिस्ट पार्टी उभरने लगी। जनाधार बढ़ने लगा। बाँदा, बुलन्दशहर, हमीरपुर, गोरखपुर, चैरी-चैरा, अलीगढ़, आजमगढ़, फैजाबाद, गाजीपुर
वगैरह जगहों में पार्टी के दल कायम हो गए। इस प्रक्रिया की परिणति प्रान्तीय कम्युनिस्ट सम्मेलन के रूप में हुई। इलाहाबाद में पहले ही 1936 में प्रांतीय पार्टी कार्यालय गुप्त रूप से स्थापित किया जा चुका था। वह काफी कठिनाई से काम कर रहा था।
उत्तर प्रदेश में पार्टी की स्थापना करने के लिए एक प्रान्त स्तरीय गुप्त सम्मेलन लखनऊ में 1938 में आयोजित किए जाने की जानकारी मिली। पार्टी पर प्रतिबंध होने और सम्मेलन गुप्त रूप से होने के कारण सटीक और विस्तृत जानकारी पाना कठिन था। यह एक ऐतिहासिक घटना थी। अर्जुन अरोड़ा प्रादेशिक सी0पी0आई0 के प्रथम
सचिव बनाए गए।

 

 

उत्तर प्रदेश में भारद्वाज का योगदान

हम भारद्वाज का कुछ उल्लेख कर आए हैं। वे एक असाधारण कम्युनिस्ट थे, दुर्भाग्य से वे मात्र 40 वर्ष की उम्र में मृत्यु को प्राप्त हुए। उनका जन्म दिसम्बर 1908 में और मृत्यु 8 अप्रैल 1948 को हुई। लेकिन उन्होंने उत्तर प्रदेश और भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन पर अपनी अमिट छाप अंकित कर दी। उनके राजनैतिक जीवन का प्रारम्भ पं0 जवाहर लाल नेहरू और पी0सी0 जोशी की देखरेख में हुआ। 1919 में जब महात्मा गांधी पालवाल (आजकल हरियाणा में) में गिरफ्तार कर लिए गए तो रुद्र दत्त भारद्वाज ने बड़ौत (मेरठ) में अपने स्कूल में हड़ताल करवा दी। इसके अगले ही साल तिलक की मृत्यु पर स्कूल में उन्होंने फिर हड़ताल करवाई। गांधी जी के आह्वान पर उन्होंने फिर हड़ताल करवाई। गांधी जी के आह्वान पर उन्होंने स्कूल का बहिष्कार कर दिया। पैदल चलकर दिल्ली गए और गांधी जी के आम आह्वान पर उन्होंने दो महीनों तक चरखा चलाया। फिर उनके बड़े भाई देव दत्त भारद्वाज उन्हें वापस ले गए। 1925 के कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन में वे सक्रिय कार्यकर्ता बने। बाद में इलाहाबाद और बनारस में पॄे। पी0सी0 जोशी से उनका परिचय 1928 में हुआ। वे जोशी के भाषण से प्रभावितहो गए और उनसे बातें करने गए। फिर उनकी दोस्ती आगे ब़ती गई और वैचारिक विचार विमर्श होता गया। तब भारद्वाज को समझ में आया कि रूसी और फ्रांसीसी क्रांतियों में क्या अन्तर है।
1929 में मेरठ षडयंत्र केस में पी0सी0 जो0शी की गिरफ्तारी के बाद कम्युनिस्ट पर चार और पार्टी बनाने की जिम्मेदारी भारद्वाज पर आ गई। इसी समय उन्हें पं0 नेहरू के साथ यूथ लीग में काम करने का मौका मिला।
आर0डी0 भारद्वाज ने 1931 में एम0ए0 पास किया। साथ ही उन्होंने मेरठ मुकदमे के कैदियों के लिए सक्रिय काम भी किया। पॄाई पूरी करके रुद्रदत्त भारद्वाज बम्बई चले गए जहाँ वे गिरनी कामगार यूनियन तथा नौजवान मजदूर सभा के काम में लग गए। ऐसा उन्होंने मेरठ में गिरफ्तार बम्बई के साथियों के आग्रह पर किया क्योंकि वहाँ काम करने वाले साथियों की जरूरत थी। वे वहाँ बी0बी0 एण्ड सी0आई0 रेलवे की यूनियन के महामंत्री चुने गए। उन्हें कामरेड सर देसाई के साथ काम करने का मौका मिला। भारद्वाज ने बम्बई तथा अन्य जगहों के कपड़ा मिल मजदूरों में बड़ा ही सक्रिय काम किया। फलस्वरूप उन्हें 3 महीनों की जेल की सजा दी गई। फिर रेलवे के मजदूरों में काम के लिए भी ड़े महीने की सजा भुगतनी पड़ी। यह तीस के दशक के आरम्भ की बात है। वे 1934 के बम्बई में आयोजित अखिल भारतीय कपड़ा मिल मजदूर सम्मेलन में सक्रिय थे। उन्हें फिर अहमदाबाद से दो साल का वारण्ट जारी करके गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें सिन्धु प्रदेश के हैदराबाद में गिरफ्तार रखा गया। 1936 में जेल से छूटने पर पुलिस उन्हें इलाहाबाद ले आई और उनके बड़े भाई देवदत्त भारद्वाज के हवाले कर दिया। देवदत्त लीडर नामक अखबार के सम्पादक थे।
अब आर0डी0 भारद्वाज के राजनैतिक जीवन की अगली मंजिल आरम्भ हुई और वे मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश में काम करने लगे। उन्हें नागपुर में उसी समय हुई केन्द्रीय समिति की बैठक में समिति का सदस्य बना दिया गया। गुप्त पार्टी कार्यालय बनाकर लखनऊ में वे रहने लगे। फिर पार्टी के दो हिन्दी अखबार उन्होंने प्रकाशित करने शुरू किए। इनके नाम थे साप्ताहिक नया हिन्दुस्तान और मासिक प्रभा। बहुत जल्द ही कानपुर में पार्टी का एक मजबूत केन्द्र स्थापित हो गया। इसमें संत सिंह, यूसुफ, अशोक बोस, सोने लाल, संतोष कपूर, अर्जुन अरोड़ा इत्यादि के साथ भारद्वाज हमेशा तत्परता के साथ शामिल रहते थे।

कांग्रेस कमेटियों में कम्युनिस्ट सदस्य तथा संयुक्त मोर्चा
उन दिनों पी0सी0 जोशी के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी ने स्वतंत्र रूप से काम करने के अलावा कांग्रेस में रहकर काम की नीति अपना रखी थी। इससे पार्टी एवं जन आन्दोलन को बहुत फायदा पहुँचा। कई कम्युनिस्ट विभिन्न प्रादेशिक कांग्रेस कमेटियों तथा अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य बने। डॉ0 जेड0 ए0 अहमद तो उत्तर प्रदेश की कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी थे। ए0आई0सी0सी0 में आगे चलकर आर0डी0 भारद्वाज भी चुने गए। उन्होंने ए0आई0सी0सी0 में जोरदार भाषण भी दिए। भारद्वाज ने कांग्रेस के फैजपुर अधिवेशन में हिस्सा लिया और कम्युनिस्टों के विचार प्रस्तुत किए। वे 1940 के कांग्रेस के रामग़ अधिवेशन में भी गए। कानपुर मजदूर सभा की स्थापना में कम्युनिस्ट और गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे प्रगतिशील कांग्रेसियों का परस्पर सहयोग रहा। यहाँ भारद्वाज की बड़ी सक्रिय भूमिका रही। इन लोगों और बाद में पं0 बाल कृष्ण शर्मा ॔नवीन’ के कारण कानपुर में कांग्रेस कम्युनिस्ट एकता आगे ब़ी।
आगे चलकर रुद्रदत्त भारद्वाज को कठिन जेल जीवन और कष्टमय परिस्थितियों के कारण टी0बी0 हो गया। उनका देहान्त इसी बीमारी के कारण 1948 में हो गया। वे उत्तर प्रदेश के ही नहीं बल्कि समूचे भारत के एक असाधारण कम्युनिस्ट तथा स्वतंत्रता सेनानी थे। वे सच्चे मानवीय भावनाओं से परिपूर्ण थे, भले उनका अपना जीवन सुखों से वंचित और विभिन्न प्रकार के दुखों से भरा हुआ था। यह बड़े ही खेद का विषय है कि उनकी जीवनी और योगदान की उपेक्षा कर दी गई है। अब समय आ गया है कि उनके यादों के बारे में विस्तार से जनता को ही नहीं बल्कि स्वयं कम्युनिस्टों को भी अवगत कराया जाए
अनिल राजिमवाले
क्रमश:।

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इस सच्चाई पर बहुत कम ध्यान जाता है कि भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन के निर्माण और विकास में उत्तर प्रदेश की कम्युनिस्ट पार्टी का योगदान अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है। इससे बड़ा योगदान क्या हो सकता है कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना कानपुर में सन 1925 में की गई? यह कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। इसके पीछे पार्टी के निर्माण की तैयारी का इतिहास है। कानपुर में सम्मेलन करने का अर्थ यह भी था कि यू0पी0 (उस समय संयुक्त प्रान्त) में पार्टी, ट्रेड यूनियन और समाजवाद तथा कम्युनिज्म से सम्बंधित काफी कार्य चल रहे थे। इन्हीं कार्यों के परिणाम स्वरूप कानपुर में अखिल भारतीय कम्युनिस्ट सम्मेलन आयोजित किया जा सका।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना का सवाल

सवाल यह पैदा होता है कि इस सम्मेलन के लिए कानपुर को ही क्यों चुना गया? 1920 के दशक के आरम्भ में भारत में कम्युनिस्ट पार्टी बनाने के विषय में कई बार सोचा जा रहा था। बीस का दशक आते आते कानुपर समेत भारत के कई शहरों, औद्योगिक केन्द्रों तथा अन्य जगहों पर कम्युनिस्टों और उनके हमदर्दों तथा माक्र्सवाद एवं समाजवाद से प्रभावित लोगों के ग्रुप तैयार हो रहे थे। मद्रास, बम्बई, कलकत्ता, लाहौर, कराँची इत्यादि जगहों में कम्युनिस्ट और मजदूर ग्रुप और समितियाँ उभर रही थीं तथा कुछ अखबार भी प्रकाशित हो रहे थे। घटनाएँ कम्युनिस्ट सम्मेलन की ओर बढ़ रही थीं।
उन्हीं दिनों कानपुर में भी समाजवाद और कम्युनिज़्म से सम्बंधित गतिविधियाँ हो रही थीं। कानपुर एक महत्वपूर्ण औद्योगिक एवं मजदूर केन्द्र के रूप में उभर रहा था। वहाँ टेड यूनियनें सक्रिय हो रही थीं।1924 में कम्युनिस्टों के खिलाफ अंग्रेजों ने कानपुर षड्यंत्र केस चला रखा था
जिसमें एस0ए0 डांगे, नलिनी गुप्ता, मुजफ्फर अहमद और शौकत उस्मानी पर मुकदमा ठोक दिया गया था और उन्हें जेल में बन्द कर दिया गया था। दिलचस्प बात यह है कि इस मुकदमे के सरकारी वकील रास अलस्टोन ने एक बयान दिया जिसके अनुसार अंग्रेज सरकार द्वारा कम्युनिस्टों पर उनके विचारों के लिए नहीं बल्कि अंग्रेज सरकार गिराने का षड्यंत्र रचने के लिए कम्युनिस्टों पर मुकदमा चलाया जा रहा है।
इस बयान से कम्युनिस्टों को एक मौका मिला। उन्होंने सोचा कि क्यों नहीं हम एक खुला सम्मेलन करके कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना कर लें और साथ ही अंग्रेजों के इस बयान की परीक्षा भी कर लें। यह विचार कौंधने के बाद कम्युनिस्ट सक्रिय हो गए। जेल में डांगे ने यह सवाल उठाया तथा बाहर एस.वी. घाटे और उनके सहयोगियों ने तथा कानपुर में सत्यभक्त इस लाइन पर सोचने लगे। बम्बई से एक साथी वी0एच0 जोशी मुकदमे से सम्बंधित कार्यों में मदद के लिए कानपुर आया करते थे। उनके जरिए डांगे ने इस विचार की सूचना बम्बई भेजी। अन्यसाथी भी सक्रिय हो गए। वी0एच0 जोशी, गणेश शंकर विद्यार्थी और दूसरों के भी मुकदमों की कानपुर से देखभाल कर रहे थे। जोशी को बताया गया कि वे कानपुर के साथियों को इस बात के बारे में बताएँ। शौकत उस्मानी ने भी कानपुर के अपने सम्पर्क वालों को ऐसे सम्मेलन का विचार दिया और सहायता का अनुरोध किया। इस प्रकार खुले रूप से कानपुर सम्मेलन की तैयारी शुरू हो गई। दूसरी ओर सत्यभक्त ने भी अपनी तरफ से तैयारियाँ आरम्भ कर दीं। सत्यभक्त कानपुर के पुराने क्रांतिकारी थे। वास्तव में वे भरतपुर के थे जो आजकल राजस्थान में हैं। 1913 में वे बम बनाने की प्रक्रिया में घायल हो गए थे। उन्होंने असहयोग आन्दोलन में भी हिस्सा लिया था। उन पर लगातार पुलिस की नजर थी। अब वे रूस की क्रांति और कम्युनिज्म के अध्ययन की ओर झुक गए। उनका ब्रिटिश कम्युनिस्ट सिल्विया पैंकहर्स्ट के साथ पत्र व्यवहार था। उनसे ब्रिटिश साहित्य मिला करता था। वे राधा मोहन गोकुल जी के साथ भी सहयोग करने लगे। सत्यभक्त एस0ए0 डांगे के साथ भी सम्पर्क में थे।
कानपुर षड्यंत्र मुकदमे के दौरान कलकत्ता से एक अब्दुल हलीम आया करते थे जो मुजफ्फर अहमद को केस के सिलसिले में मदद किया करते थे। ये नौजवान सत्यभक्त के साथ रहा करते थे। एक दिन कोर्ट में सत्यभक्त ने जज को कहते सुना कि कम्युनिज़्म खुद कोई गैरकानूनी चीज नहीं है। बस सत्यभक्त के दिमाग में विचार कौंधा कि क्यों न कानपुर में एक पार्टी बनाई जाए? उन्होंने कानपुर में 1924 में एक कम्युनिस्ट पार्टी बना डाली (इण्डियन कम्युनिस्ट पार्टी या भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी)। यह अखिल भारतीय कम्युनिस्ट सम्मेलन से पहले की बात है। इसमें उनके हिसाब से करीब150 लोग शामिल हुए थे।
इसके बाद सत्यभक्त पर कड़ी सरकारी नजर रखी जाने लगी। उनकी एक किताब की दुकान भी थी, समाजवादी पुस्तक केन्द्र के नाम से, जहाँ से क्रांतिकारी और माक्र्सवादी साहित्य बेचा जाता था। दुकान पर पुलिस का कई बार छापा पड़ा। उनकी अपनी लिखी कुछ पुस्तकें भी जब्त कर ली गइंर्। इस बात के लिए सत्यभक्त की तारीफ करनी होगी कि 1924 या 25 में वे सुदूर विदेश से भी महत्वपूर्ण पुस्तकें मँगवाकर उन्हें बेचा करते थे और इस प्रकार वे पाठकों को पुस्तकें उपलब्ध कराते थे। सत्यभक्त ने 1925 में भारत के सभी कम्युनिस्ट ग्रुपों को कानपुर में सम्मेलन आयोजित करने का सुझाव देते हुए आमंत्रित किया। देश के विभिन्न हिस्सों में जो अलगअलग कम्युनिस्ट ग्रुप्स काम कर रहे थे, उन्होंने कानपुर सम्मेलन में भाग लेने का निर्णय लिया। इनमें शामिल थे बम्बई, मद्रास, कलकत्ता, कानपुर, लाहौर, कराँची इत्यादि जगहों के कम्युनिस्ट सिंगार वेलू, घाटे, मुजफ्फर अहमद, अयोध्या प्रसाद, अब्दुल माजिद, जोगलेकर, निम्बकर, जे0पी0 बगरहट्टा इत्यादि। उनके अलावा मौलाना हसरत मोहानी, एस0 हसन, कृष्णा स्वामी जैसे लोग भी आए। सारे भारत के कम्युनिस्टों का यह प्रथम अखिल भारतीय सम्मेलन 25 दिसम्बर 1925 को कांग्रेस अधिवेशन के पण्डाल के बगल में एक अलग पण्डाल में आरम्भ हुआ। इसी सम्मेलन में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के गठन की घोषणा 26 दिसम्बर को हुई तथा यह सम्मेलन 29 दिसम्बर को सम्पन्न हुआ। यह ध्यान रहे कि उन दिनों आजादी की लड़ाई में कम्युनिस्टों का कांग्रेस के साथ गहरा सहयोग था। इसके अलावा स्वयं कांग्रेस पार्टी के कई प्रगतिशील और वामपंथी नेता चाहते थे कि कम्युनिस्टों का संगठन बने। उनकी शुभकामनाएँ इनके साथ थीं। कांग्रेस अधिवेशन के साथ सम्मेलन करने का एक और फायदा यह भी था कि कांग्रेस के कई कम्युनिस्ट सदस्य इसमें आसानी से हिस्सा ले सकते थे। कम्युनिस्टों को खुला सम्मेलन करने का इससे अच्छा मौका और कोई नहीं था।
सत्यभक्त सम्मेलन में चुनी गई कार्यकारिणी में शामिल किए गए। आगे चलकर उनके इस पार्टी के साथ मतभेद ब़ते चले गए, जो कुछ पहले से ही मौजूद थे। बाद में उन्होंने अपने को अलग कर लिया लेकिन वे सी0पी0आई0 के साथ जुड़े रहे। काफी बाद में वे दिल्ली में अजय भवन भी डॉ0 अधिकारी तथा अन्य से मिलने आया करते थे।

अनिल राजिमवाले
क्रमश:

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