Feeds:
पोस्ट
टिप्पणियाँ

Posts Tagged ‘अरुण माहेश्वरी’

पांच महीने अभी पूरे हुए हैं और मोदी के प्रचारकों का सुर बदल गया। देखिये कल, 24 अक्तूबर के ‘टेलिग्राफ’ में स्वपन दासगुप्त का लेख – Picky with his symbol (अपने प्रतीक का खनन)।
स्वपन दासगुप्त, मोदी बैंड के एक प्रमुख वादक, चुनाव प्रचार के दिनों में बता रहे थे – गुजरात का यह शेर सब बदल डालेगा। आजादी के बाद से अब तक जीवन के सभी क्षेत्रों में ‘छद्म धर्मनिरपेक्षता’ का जो नाटक चलता रहा है, उसका नामो-निशान तक मिट जायेगा। इतिहास की एक नयी इबारत लिखी जायेगी।
आज वही दासगुप्ता मोदी विरोधियों को इस बात के लिये लताड़ रहे हैं कि क्या हुआ, मोदी को लेकर इतना डरा रहे थे, कुछ भी तो नहीं बदला। मोदी की राक्षस वाली जो तस्वीर पेश की जा रही थी, अल्पसंख्यकों को डराया जा रहा था, पड़ौसी राष्ट्रों से भारी वैमनस्य की आशंकाएं जाहिर की जा रही थी – वैसा कुछ भी तो नहीं हुआ। बनिस्बत्, अपने राजतिलक के मौके पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री तक को आमंत्रित करके, जापान, अमेरिका सहित सारी दुनिया को आर्थिक उदारवाद की मनमोहन सिंह की नीतियों पर ही और भी दृढ़ता के साथ चलने का आश्वासन देकर और ‘स्वच्छ भारत’ आदि की तरह के अपने प्रचार अभियानों में आमिर खान, सलमान खान को शामिल करके, और तो और, स्वपन दासगुप्त के अनुसार, योगी आदित्यनाथ की जहरीली बातों का खुला समर्थन न करके मोदी ने अपने ऐसे सभी विरोधियों को निरस्त कर दिया है। उनके लेख की अंतिम पंक्ति है – ‘‘ मोदी के आलोचकों को अब उनकी पिटाई के लिए नयी छड़ी खोजनी होगी, पुरानी तो बेकार होगयी है।’’
(Modi’s critics must find a new stick to beat him with. The old one has blunted)
दासगुप्त का यह कथन ही क्या यह बताने के लिये काफी नहीं है कांग्रेस-शासन के दुखांत के बाद, यह ‘कांग्रेस-विहीनता’ का शासन प्रहसन के रूप में इतिहास की पुनरावृत्ति के अलावा और कुछ नहीं साबित नहीं होने वाला !
मार्क्स की विश्लेषण शैली का प्रयोग करें तो कहना होगा – मानव अपना इतिहास स्वयं बनाते हैं पर मनचाहे ढंग से नहीं। वे अतीत से मिली परिस्थितियों में काम करते हैं और मृत पीढि़यों की परंपरा जीवित मनुष्यों के मस्तिष्क पर एक दुरूस्वप्न सी हावी रहती है। ‘‘ऐसे में कुछ नया करने की उत्तेजना में ही अक्सर वे अतीत के प्रेतों को अपनी सेवा में आमंत्रित कर लेते हैं। उनसे अतीत के नाम, अतीत के रणनाद और अतीत के परिधान मांगते हैं ताकि इतिहास की नवीन रंगभूमि को चिर-प्रतिष्ठित वेश-भूषा में, इस मंगनी की भाषा में पेश कर सके।’’
आरएसएस के प्रचारक और गुजरात (2002) के सिंह के जिन प्रतीकों के आधार पर स्वपन दासगुप्त मोदी को एक नये बदलाव का सारथी बता रहे थे, वे ही अब यह कह करे हैं कि ‘‘प्रधानमंत्री मोदी और चुनाव प्रचार के समय का अदमनीय मोदी बिल्कुल भिन्न है। यह नयी मोदी शैली अभी विकासमान है और इसकी कोई चौखटाबद्ध परिभाषा करना जल्दबाजी होगी।’’
(Modi the prime minister has chosen to be markedly different from Modi the indefatigable election campaigner. The style is still evolving and it would be premature to attempt a rigid definition of the new style)
नयी मोदी शैली ! पहले सरदार पटेल, अब गांधी, नेहरू भी – भारत की राष्ट्रीय राजनीति की चिरप्रतिष्ठित वेश-भूषा और मंगनी की पुरानी भाषा की सजावट से तैयार हो रही नयी शैली !
इसमें शक नहीं कि दुनिया के सभी बड़े-बड़े परिवर्तनों की लड़ाइयों को बल पहुंचाने के लिये अतीत के प्रतिष्ठित प्रतीकों का, आदर्शों और कला रूपों का भी प्रयोग होता रहा हैं। वर्तमान की लड़ाई के सेनानियों में एक नया जज़्बा पैदा करने के लिये अनेक मृतात्माओं को पुनरुज्जीवित किया जाता रहा है। भारत की आजादी की लड़ाई का इतिहास तो ऐसे तमाम उदाहरणों से भरा हुआ है। आधुनिक जनतांत्रिक विचारों के साथ ही इसकी एक धारा स्पष्ट तौर पर पुनरुत्थानवादी धारा रही है। लेकिन उस लड़ाई में अतीत के आदर्शों और प्रतीकों का, अनेक मृतात्माओं का उपयोग गुलामी से मुक्ति की लड़ाई को गौरवमंडित करने के उद्देश्य से किया गया था, न कि किसी प्रकार की भौंडी नकल भर करने के लिएय उनका उपयोग अपने उद्देश्यों और कार्यभारों की गुरुता को स्थापित करने के लिये किया गया था, न कि अपने घोषित कार्यभारों को पूरा करने से कतराने के लिये, अपने चरित्र पर पर्दादारी के लियेय उनका इस्तेमाल कुंद की जा चुकी प्राचीन गौरव की आत्मा को जागृत करने के लिए किया गया था न कि उसके भूत को मंडराने देने के लिए, अपने समय को भूतों का डेरा बना देने के लिये।
गौरवशाली, वीरतापूर्ण राष्ट्रीय आंदोलन की कोख से इस देश में एक पूंजीवादी जनतांत्रिक राज्य की स्थापना हुई। राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व से अबतक इसके विभिन्न चरणों में कई प्रवक्ता पैदा हुए – पंडित नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, नरसिम्हा राव, मनमोहन सिंह। इनके अलावा गैर-कांग्रेस दलों से भी छोटे-बड़े अंतरालों के लिये मोरारजी देसाई, चरण सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चन्द्रशेखर, देवगौड़ा, गुजराल और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे प्रवक्ता सामने आएं। यह कहानी, स्वतंत्र भारत में भारतीय पूंजीवाद के विकास की कहानी, पूरे सड़सठ सालों की कहानी है। इतने लंबे काल तक नाना प्रकार के टेढ़े-मेढ़े रास्तों से लगातार धन के उत्पादन, लूट-खसोट और गलाकाटू प्रतिद्वंद्विताओं में तल्लीन हमारा आज का उपभोक्तावादी समाज इस बात को लगभग भूल चुका है कि उसका जन्म आजादी की लड़ाई के दिनों के वीर सेनानियों की मृतात्माओं के संरक्षण में हुआ हैं। राजनीति एक आदर्श-शून्य, शुद्ध पेशेवरों का कमोबेस खानदानी धंधा बन चुकी है।
ऐसे सामान्य परिवेश में, अतीत के सारे कूड़ा-कर्कट को साफ कर देने की दहाड़ के साथ सत्तासीन होने वाले शूरवीर द्वारा अपनी सेवा के लिये मृतात्माओं का आह्वान किस बात का संकेत है ? क्या तूफान की गति से इतिहास का पथ बदल देने का दंभ भरने वालों में सिर्फ पांच महीनों में ही सहसा किसी मृतयुग में पहुंच जाने का अहसास पैदा होने लगा है? वैसे भी, हाल के उपचुनावों और राज्यों के चुनावों के बाद एक सिरे से सब यह कहने लगे हैं कि भाजपा की बढ़त के बावजूद मोदी लहर जैसी किसी चीज का अस्तित्व नहीं रहा है। राजनीति के नाम पर वही सब प्रकार की जोड़-तोड़, सरकारें बनाने-बिगाड़ने की अनैतिक कवायदें, अपराधियों को हर प्रकार का संरक्षण देने की शर्मनाक कोशिशें, एक-दूसरे की टांग खिंचाई की साजिशाना हरकतें, सार्वजनिक धन को निजी हाथों में सौंप देने की राजाज्ञाएं, सीमाओं को लेकर थोथा गर्जन-तर्जन और विश्व पूंजीवाद के सरगना अमेरिका की चरण वंदना। यही तो है, एक शब्द में – राजनीति का मोदी-अमितशाहीकरण !
इसीलिये, स्वपन दासगुप्त जो भी कहे, अब इतना तो साफ है कि मोदी का सत्ता में आना किसी आकस्मिक हमले के जरिये बेखबरी की स्थिति में किसी को अपने कब्जे में ले लेना जैसा ही था। वैसा धुआंधार, एकतरफा प्रचार पहले किसी ने नहीं देखा था। अन्यथा, न भ्रष्टाचार-कदाचार में कोई फर्क आने वाला है, न तथाकथित नीतिगत पंगुता में। जब आंख मूंद कर पुराने ढर्रे पर ही चलना है तो क्या सजीवता, और क्या पंगुता ! इस पूरे उपक्रम में यदि कुछ बदलेगा तो, जैसा कि नाना प्रकार की खबरों से पता चल रहा है, पिछली सरकार द्वारा मजबूरन अपनाये गये गरीबी कम करने के कार्यक्रमों में कटौती होगीय भूमि अधिग्रहण कानून में किसानों के हित में किये जारहे सुधारों को रोका जायेगाय और भारत में विदेशी पूंजी के अबाध विचरण का रास्ता साफ किया जायेगा। भारत सरकार गरीबों को दी जाने वाली तमाम प्रकार की रियायतों में कटौती करें, इसके लिये सारी दुनिया के  बाजारवादी अर्थशास्त्री लगातार दबाव डालते रहे हैं। इसीप्रकार भूमि अधिग्रहण के मामले में बढ़ रही दिक्कतों को खत्म करने और बैंकिंग तथा बीमा के क्षेत्र को विदेशी पूंजी के लिये पूरी तरह से खोल देने के लिये भी दबाव कम नहीं हैं। मनमोहन सिंह इन सबके पक्ष में थे, फिर भी विभिन्न राजनीतिक दबावों के कारण अपनी मर्जी का काम नहीं कर पा रहे थे। इसीलिये उनकी सरकार पर लगने वाले ‘नीतिगत पंगुता’ के सभी सच्चे-झूठे अभियोगों में ये सारे प्रसंग भी शामिल किये जाते थे। मोदी सरकार ने इसी ‘नीतिगत पंगुता’ से उबरने के लिये सबसे पहले गरीबी को कम करने वाली योजनाओं की समीक्षा करनी शुरू कर दी है। बीमा क्षेत्र को तो विदेशी पूंजी के लिये खोल ही दिया है, भूमि अधिग्रहण विधेयक के मामले में भी पहले सर्वसम्मति से जो निर्णय लिये गये थे, उन सबको बदलने के बारे में विचार का सिलसिला शुरू हो गया है।
चन्द रोज पहले ही प्रकाशित हुई विश्व बैंक की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि सन् 2011 से 2013 के बीच दुनिया में गरीबी को दूर करने में भारत का योगदान सबसे अधिक (30 प्रतिशत) रहा है। खास तौर पर मनरेगा और बीपीएल कार्ड पर सस्ते में अनाज मुहैय्या कराने  की तरह के कार्यक्रमों ने सारी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा है। इन कार्यक्रमों के चलते भारत में मजदूरी के सामान्य स्तर में वृद्धि हुई है। लेकिन भारतीय उद्योग और मोदी सरकार भी सस्ते माल के उत्पादन की प्रतिद्वंद्विता में भारत को दुनिया के दूसरे देशों से आगे रखने के नाम पर मजूरी के स्तर को नियंत्रित रखना चाहती है। ‘श्रमेव जयते’ योजना, पूंजी और श्रम के बीच की टकराहट में सरकार की अंपायर की भूमिका के अंत की योजना, जिसकी घोषणा के दिन को खुद भाजपा के श्रमिक संगठन, भारतीय मजदूर संघ ने भारत के मजदूरों के लिये एक काला दिवस कहा, मोदी उसीकी शेखी बघारने में फूले नहीं समा रहे। हांक रहे हैं – ‘श्रमयोगी बनेगा राष्ट्रयोगी’।
इन सारी स्थितियों में, ‘कांग्रेस-विहीन’ भारत सिर्फ चमत्कारों पर विश्वास करने वाले कमजोर लोगों में ही किसी नये विश्वास का उद्रेक कर सकता है। भविष्य के उन कार्यक्रमों के गुणगान में, जिनकी उन्होंने अपने मन में योजनाएं बना रखी है, लेकिन उन पर असल में अमल की कोई मंशा या अवधारणा ही नहीं हैं, ये वर्तमान के यथार्थ के अवबोध को ही खो दे रहे हैं।
‘स्वच्छता अभियान’ का ही प्रसंग लिया जाए। साफ और स्वच्छ भारत के पूरे मसले को जनता के शुद्ध आत्मिक विषय में तब्दील करके पूरे मामले को सिर के बल खड़ कर दिया जा रहा है। इन्हीं तमाम कारणों से वह समय दूर नहीं होगा, जब यह प्रमाणित करने के लिये इकट्ठे हुए लोग कि हम अयोग्य नहीं है, अपना बोरिया-बिस्तर समेटते हुए दिखाई देने लगेंगे – ‘जो आता है वह जाता है’ का बीतरागी गान करते हुए। स्वपन दासगुप्त मोदी-विरोधियों से मोदी की पिटाई के लिये नयी छड़ी खोजने की बात करते हैं। यह नहीं देखते कि जो पिटे हुए रास्ते पर चलने की पंगुता का शिकार हो, उसे पीटने के लिये किसी छड़ी की जरूरत ही नहीं होगी। मोदी शासन के प्रारंभ में ही उसके दुखांत के बीज छिपे हुए हैं।

——अरुण माहेश्वरीphoto

Read Full Post »

अगर आपने हिटलर की आत्मकथा ‘माईन काम्फ़ ’ को पढ़ा हो तो इस बात को पकड़ने में शायद आपको एक क्षण भी नहीं लगेगा सांप्रदायिक नफरत फैलाने के उद्देश्य से भारत में अभी चल रहे ‘लव जेहाद’ नामक अनोखे अभियान का मूल स्रोत क्या है। हिटलर यहूदियों के बारे में यही कहा करता था कि ‘‘ये गंदे और कुटिल लोग मासूम ईसाई लड़कियों को बहला-फुसला कर, उनको अपने प्रेम के जाल में फंसा कर उनका खून गंदा किया करते हैं।’’

यहां हम हिटलर के शासन (थर्ड राइख) के दुनिया के सबसे प्रामाणिक इतिहासकार विलियम एल. शिरर की पुस्तक ‘The Rise and Fall of Third Reich’ के एक छोटे से अंश को रख रहे हैं, जिसमें शिरर ने हिटलर की ऐसी ही घृणित बातों को उद्धृत करते हुए उनको विश्लेषित किया है। शायद, इसके बाद भारत में संघ परिवार के लोगों के ‘लव जेहाद’ अभियान की सचाई के बारे में कहने के लिये और कुछ नहीं रह जायेगा। शिरर अपनी इस पुस्तक के पहले अध्याय ‘Birth of the Third Reich’ के अंतिम हिस्से में लिखते हैं :

‘‘ हिटलर एक दिन वियेना शहर के भीतरी हिस्से में घूमने के अपने अनुभव को याद करते हुए कहता है, ‘‘अचानक मेरा सामना बगलबंद वाला काला चोगा पहने एक भूत से होगया। मैंने सोचा, क्या यह यहूदी है? लिंत्स शहर में तो ऐसे नहीं दिखाई देते। मैंने चुपके-चुपके उस आदमी को ध्यान से देखा, उसके विदेशी चेहरे, उसके एक-एक नाक-नक्शे को जितना ध्यान से देखता गया, मेरे अंदर पहले सवाल ने नया रूप ले लिया। क्या वह जर्मन है?’’(अडोल्फ हिटलर, ‘माईन काम्फ़ ’, अमरीकी संस्करण, बोस्तोन, 1943, पृष्ठ : 56)

‘‘हिटलर के जवाब का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। फिर भी वह कहता है, जवाब के पहले उसने ‘‘किताबों के जरिये अपने संदेह को दूर करने का फैसला किया।’’ उन दिनों वियेना में जो यहूदी-विरोधी साहित्य काफी बिक रहा था, वह उसमें खो गया। फिर सड़कों पर सारी स्थितियों को करीब से देखने लगा। वह कहता है, ‘‘मैं जहां भी जाता, हर जगह मुझे यहूदी नजर आने लगे और मैं उन्हें जितना अधिक देखता, वे मुझे बाकी लोगों से अलग दिखाई देने लगे। …बाद में चोगा पहने लोगों की गंध से मैं बीमार सा होने लगा।’’(वही, पृ : 56-57)

‘‘इसके बाद, वह कहता है, ‘‘उसने उन ‘चुनिंदा लोगों’ के शरीर पर नैतिक धब्बों को देख लिया। …खास तौर पर पाया कि सांस्कृतिक जीवन में ऐसी कोई गंदगी या लंपटगिरी नहीं है, जिसके साथ कोई न कोई यहूदी न जुड़ा हुआ हो। इस मवाद को यदि आप सावधानी से छेड़े तो रोशनी गिरते ही किसी सड़े हुए अंग के कीड़ों की तरह चौंधिया कर ये किलबिलाते दिख जायेंगे।’’ वह कहता है, उसने पाया कि वैश्यावृत्ति और गोरे गुलामों के व्यापार के लिये मुख्यत: यहूदी जिम्मेदार हैं। इसे ही आगे बढ़ाते हुए कहता है, ‘‘पहली बार जब मैंने बड़े शहर की गंदगी में इस भयानक धंधे को चलाने वाला घुटा हुआ, बेशर्म और शातिर यहूदी को देखा तो मेरी पीठ में एक सनसनी दौड़ गयी।’’(वही, पृ : 59)

‘‘यहूदियों के बारे में हिटलर की इन उत्तेजक बातों का काफी संबंध उसकी एक प्रकार की विकृत कामुकता से है। उस समय वियेना के यहूदी-विरोधी प्रकाशनों का यह खास चरित्र था। जैसाकि बाद में फ्रंखोनिया के हिटलर के एक खास चमचे, न्यूरेमबर्ग के अश्लील साप्ताहिक ‘Der Stuermer’ के मालिक में देखा गया, वह एक घोषित विकृत मानसिकता का व्यक्ति था और हिटलर के शासन (थर्ड राइख) का सबसे घृणास्पद व्यक्ति था। मीन कैम्फ में यहूदियों की ऐसी-तैसी करने के लिये जघन्य संकेतों वाली बातें भरी हुई हैं कि यहूदी मासूम ईसाई लड़कियों को फांसते हैं और इसप्रकार उनके खून को गंदा करते हैं। हिटलर ही ‘‘घिनौने, कुटिल, चालबाज हरामी यहूदियों द्वारा सैकड़ों हजारों लड़कियों को फुसलाने की डरावनी कहानियां’’ लिख सकता है। रूडोल्फ ओल्डेन कहता है कि हिटलर के इस यहूदी-विरोध की जड़ में उसकी दमित कामुक वासनाएं हो सकती है। यद्यपि तब वह बीस-पच्चीस साल का था। जहां तक जानकारी है, वियेना की उसकी यात्रा में उसका औरतों से किसी प्रकार का कोई संबंध नहीं हुआ था।

‘‘हिटलर आगे कहता है, ‘‘धीरे-धीरे मैं उनसे नफरत करने लगा। यही वह समय था जब मेरे जीवन में सबसे बड़ा आत्मिक भूचाल आया था। मैं अब कमजोर घुटनों वाला शहरी नहीं रह गया। यहूदी-विरोधी होगया।’’ (वही, पृ : 63-64)

‘‘अपने बुरे अंत के समय तक वह एक अंधा उन्मादी ही बना रहा। मौत के कुछ घंटे पहले लिखी गयी अपनी अन्तिम वसीयत में भी उसने युद्ध के लिये यहूदियों को जिम्मेदार ठहराया, जबकि इस युद्ध को उसीने शुरू किया था जो अब उसे और थर्ड राइख को खत्म कर रहा था। यह धधकती हुई नफरत, जिसने उस साम्राज्य के इतने सारे जर्मनों को ग्रस लिया था, अंतत: इतने भयंकर और इतने बड़े पैमाने के कत्ले-आम का कारण बनी कि उसने सभ्यता के शरीर पर ऐसा बदनुमा दाग छोड़ दिया है जो उस समय तक कायम रहेगा जब तक इस धरती पर इंसान रहेगा।’’ (William L. Shirer, The Rise and Fall of the Third Reich, Fawcett Crest, New York, छठा संस्करण, जून 1989, पृष्ठ : 47-48)

यहां उल्लेखनीय है कि भारत में संघ परिवारियों के बीच हिटलर की आत्मकथा ‘माईन काम्फ़ ’ एक लोकप्रिय किताब है, जबकि साधारण तौर पर इस किताब को दुनिया में बहुत ही उबाऊ और अपठनीय किताब माना जाता है। लेकिन, जर्मन इतिहासकार वर्नर मेसर के शब्दों में, ‘‘लोगों ने हिटलर की उस अपठनीय पुस्तक को गंभीरता से नहीं पढ़ा। यदि ऐसा किया गया होता तो दुनिया अनेक बर्बादियों से बच सकती थी।’’ (देखें, हिटलर्स माईन काम्फ़ : ऐन एनालिसिस)

पूरी तरह से हिटलर के ही नक्शे-कदम पर चलते हुए भारत में सांप्रदायिक नफरत के आधार पर एक फासिस्ट और विस्तारवादी शासन की स्थापना के उद्देश्य से आरएसएस का जन्म हुआ था। इसके पहले सरसंघचालक, गुरू गोलवलकर के शब्दों में, “अपनी जाति ओर संस्कृति की शुद्धता बनाए रखने के लिए जर्मनी ने देश से सामी जातियों – यहूदियों का सफाया करके विश्व को चौंका दिया है। जाति पर गर्वबोध यहां अपने सर्वोंच्च रूप में व्यक्त हुआ है। जर्मनी ने यह भी बता दिया है कि सारी सदिच्छाओं के बावजूद जिन जातियों और संस्कृतियों के बीच मूलगामी फर्क हो, उन्हें एक रूप में कभी नहीं मिलाया जा सकता है। हिंदुस्तान में हम लोगों के लाभ के लिए यह एक अच्छा सबक है।’’(एम.एस.गोलवलकर, वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइन्ड, पृष्ठ : 35)

‘लव जेहाद’ के मौजूदा प्रसंग से फिर एक बार यही पता चलता है कि संघ परिवार के लोग आज भी कितनी गंभीरता से हिटलर की दानवीय करतूतों से अपना ‘सबक’ लेकर ‘मूलगामी फर्क वाली जातियों और संस्कृतियों के सफाये’ के घिनौने रास्ते पर चलना चाहते हैं।
– अरुण माहेश्वरी
साभार

Read Full Post »