आखिरकार कई वर्षों और दशकों की मशक्कत के बाद भाजपा को अकेले बहुमत मिल ही गया। एक मायने में यदि यह अचरज भरा है तो अन्य दृष्टि से ऐसा नहीं है। ऐसे सत्ता परिवर्तन की तैयारियाँ काफी अरसे से की जा रही थीं और इसके लिए जनता के बीच सांप्रदायिक धु्रवीकरण और अन्य ‘प्रयोग’ किए जा रहे थे, जैसा की नई शासक पार्टी ने खुद कई बार दावा किया है। इस परिवर्तन की कई खासियतें हैं और उन पर आने वाले समय में विचार-विश्लेषण होता रहेगा। सुनियोजित योजना के तहत पिछले दो एक दशकों से भाजपा केन्द्र में अपनी सत्ता लाने की कोशिश में रही है।
वैसे जनतंत्र में सभी को चुनाव लड़ने और सत्ता में आने, उचित संख्या में सीटें प्राप्त करके अपनी सरकार बनाने का आधिकार है और इसमें कोई गलत भी नहीं है लेकिन इस सन्दर्भ में कुछ विशेषताओं की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। पहली बार सत्ताधारी पार्टी इतने कम मतों से जीत कर आई है। भाजपा को मात्र 31 प्रतिशत वोट मिले हैं और बाकी सभी को 69 प्रतिशत का विशाल बहुमत, जो सीटों के रूप में रूपांतरित नहीं हो पाया। इधर कुछ समय से समानुपातिक चुनाव प्रणाली के पक्ष में विचार दिए जा रहे हैं। इन चुनाव नतीजों से चुनाव प्रणाली बदलने का तरीका मजबूत होता है। आखिर जिनको 20 या 50 या 69 प्रतिशत मत मिले हैं उनका उचित प्रतिनिधित्व तो होना ही चाहिए। इस माने में नतीजे एकतरफा हैं।
दक्षिणपंथ की जीत
इस देश में पहली बार वह ताकत जीत कर आई है जिसका आजादी के आंदोलन से कोई संबंध नहीं था। साथ ही हर मायने में एक दक्षिणपंथी पार्टी की सरकार बनी है। संघ ने हमेशा ही स्वतंत्रता संग्राम से स्वयं को अलग रखा और अपना निशाना ब्रिटिश साम्राज्यवाद को नहीं बल्कि कुछ समुदायों को बनाया। संघ ने साफ कहा कि वह राजनैतिक संस्था नहीं है, इसलिए आजादी की लड़ाई में भाग नहीं लेगी। अब अचानक इतने अरसे बाद वह चुनाव के राजनैतिक मैदान में क्यों कूद पड़ी, यह अचरज की तथा विश्लेषण की बात है। इसका जवाब तो उन्हे ही देना है। इस मानसिकता से वे देश को कैसे चलाएँगे, यह देखना है। वैसे देश का जनतांत्रिक ढाँचा किसी को इतनी आसानी से उसे तोड़ने की शक्ति नहीं देता, फिर भी खतरा तो है ही।
हम यह भी याद करें की सांप्रदायिक शक्तियों से लड़ते हुए गणेश शंकर विद्यार्थी और महात्मा गाँधी ने क्रमशः आजादी से पहले और बाद में अपनी जानें गवाँईं। वे सांप्रदायिक षड्यंत्रों के शिकार हुए और दोनों की ही हत्याएँ साम्प्रदायवादी शक्तियों ने कीं। हिंदू और मुस्लिम तथा अन्य संप्रदायवाद देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बने हुए हैं। इस सन्दर्भ में संघ पर प्रश्न-चिह्न है क्योंकि उसने इन दो हत्याओं तथा अन्य घटनाओं की अभी तक निंदा नहीं की है।
भारत के इतिहास में पहली बार पूर्णतः दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी शक्तियों की केन्द्र में जीत हुई है। यदि इस लेबल से केंद्रीय पार्टी अपने को मुक्त करले तो बड़ी उपलब्धि होगी। लगातार हमारी संसद और लोकसभा में प्रथम आम चुनावों से ही मनमर्जी, जनतांत्रिक शक्तियों का वर्चस्व रहा है। 1952 से लेकर आज तक दक्षिण पंथी पार्टियाँ हाशिए पर रही हैं। वर्तमान परिवर्तन कैसे हुआ, इस पर कुछ विचार हम आज प्रस्तुत करेंगे:-
आज देश में जो कुछ विकास देख रहे हैं, वह पब्लिक सेक्टर आधारित उन मूल आर्थिक नीतियों का नतीजा है जो वाम तथा कम्युनिस्ट विचारधारा और प्रगतिशील कांग्रेसियों की देखरेख में लागू की र्गइं। आज भारत 1947 का पिछड़ा, गरीब और विदेशी सहायता पर निर्भर भारत नहीं रह गया है। आज भारत चीन के बाद विश्व का दूसरा सबसे तेज विकसित होता हुआ देश है जो कच्चे माल के निर्यात पर नहीं बल्कि तैयार विकसित औद्योगिक सामानों, जिनमे ऑटोमोबाइल और भारी मशीनें शामिल हैं, के निर्यात में अपनी महत्वपूर्ण जगह बना चुका है। यह विकास है जिसे दक्षिणपंथी शक्तियाँ नजर अंदाज करना चाहती हैं। यह विकास बड़े सामंतों, इजारेदारों और साम्राज्यवादियों से संघर्ष करके हुआ है। यह नीति अब खतरे में पड़ गई है।
आज ‘विकास’ की बात करना एक फैशन हो गया है। भाजपा ने भी बड़े दावे चुनावों में किए हैं और यह दर्शाने की कोशिश की है कि सिर्फ वही ‘विकास’ का प्रतिनिधि है। अब तक विरोध करते हुए अचानक संघ विकास का प्रचारक बन गया है, लेकिन अब तक उसने जनता को और देश को यह नहीं बताया है कि वह कैसा विकास करेगा क्या कदम उठाएगा और देश की समस्याएँ कैसे हल करेगा। यह तो समय ही बताएगा, लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि भारत विकास के ही उस रास्ते पर चल रहा था जिस रास्ते का पुरजोर विरोध स्वयं भाजपा ने लगातार किया है। सवाल यहाँ आर्थिक रणनीति और कार्यनीति का है जिस पर संघ और मोदी ने अब तक कुछ भी पेश नहीं किया है। विकास शब्द का उच्चारण करने से विकास नहीं होगा। हमारे देश की स्वीकृत रणनीति पब्लिक सेक्टर के गिर्द मिश्रित अर्थव्यवस्था की रही है जो ‘नेहरू आर्थिक रूपरेखा’ या नेहरू मार्ग के नाम से जानी जाती है।
आज की आर्थिक और राजनैतिक घटनाएँ इसी आर्थिक आधार और उसके अंतर्विरोधों की देन हैं। इसलिए, देश की वर्तमान घटनाएँ विकास की कमी नहीं बल्कि विकास के अर्थविरोधों का नतीजा हैं। विकास का यह मार्ग परस्पर टकराओं से भरा और कई मायनों में अपूर्ण रहा है। वर्तमान सरकार इस विकास के चरम दक्षिणपंथी तबकों की नीतियों का परिणाम हैं, सिर्फ जनता के असंतोष का नहीं।
इजारेदार पूँजीवाद का समर्थन
कॉर्पोरेट घरानों और देश के इजारेदार पूँजीपतियों के सबसे दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी तबकों, जिन्हें राजनीति की भाषा में चरम दक्षिणपंथी कहते हैं, ने अपनी सारी ताकत मोदी के पक्ष में झोंक दी। साथ ही कंाग्रेस की जन विरोधी नीतियों ने इन्हें पूरा अवसर दिया। संघ विरोधी पार्टियों में एकता की भारी कमी रही, और संघ आदि ने जनता के उन तारों को छेड़ा जो दुखती रग थे। जनता ने अपने गुस्से का इजहार इन नीतियों के रूप में किया।
वर्गीय दृष्टिकोण से इजारेदार पूँजीवाद और कॉर्पोरेट घरानों के सबसे दक्षिणपंथी हिस्सों ने मोदी के रूप में चरम दक्षिणपंथी प्रक्रियावाद को तैयार किया। यह शब्दों का जाल नहीं, एक लच्छी है। इसीलिए अकूत मात्रा में धन बहाया गया। अखबारों के अनुसार 10 हजार करोड़ रुपये खर्च किए गए। कहाँ से आए ये पैसे? और इस धन को तो बटोरने की पहले से कोशिश होगी। इसे अभी तक जनता समझ नहीं पाई है। जिस दिन थोड़ा भी समझ जाएगी, भाजपा का पतन शुरू हो जाएगा।
कॉरपोरेट घराने क्यों भाजपा के पीछे हैं? क्योंकि उन्हें पिछली सरकार में जो भी रुकावटें थी, उनकी पूर्ण समाप्ति वे चाहते हैं। वे निरंकुश इजारेदार-साम्यवादी पूँजी का शासन चाहते हैं। मोदी इसके लिए सबसे उपयुक्त हैं और उनकी पार्टी भाजपा, सबसे उपयुक्त पार्टी और संघ सबसे उपयुक्त ‘हथियार बंद फौज’ है। उनके लिए, ये सारी घटनाएँ हमें जाने अंजाने में 30 के दशक में जर्मनी में हिटलर के उत्थान की याद दिलाती हैं। उस पर फिर कभी विचार किया जाएगा, जब अन्य घटनाएँ सामने आएँगी।
इसलिए विकास की दिशा को पूरी तरह दक्षिण पाठ और चरम दक्षिण पाठ की ओर मोड़ने की पूरी तैयारियाँ चल रही हैं। हमारा पब्लिक सेक्टर, देश के अर्थतंत्र का आधार और केन्द्र, हमारी राष्ट्रीयता का आर्थिक आधार, खतरे में है।
भाजपा की जीत और अन्य की पराजय के कुछ कारण, धन और मीडिया की भूमिका गौर करने लायक है, पैसों तथा मीडिया की भूमिका इससे पहले इतनी अधिक कभी नहीं थी। सबसे बड़े पूँजीपतियों ने ‘दिल खोलकर’ (अर्थात तिजोरी खोलकर!) संघ ने भाजपा के लिए धन पानी की तरह बहाया। इसका कारण है कि वे अपने हित में अब पूरी तरह संघ जैसी शक्तियों को खड़ा करना चाहते हैं। इसके लिए हमें कड़ी रिसर्च की जरूरत नहीं। अखबारों में कई तथ्य आ चुके हैं।
यह अचरज की बात है और कांग्रेस की नाकामी और उदासीनता कि मीडिया पूरी तरह सरकार और सरकारी पार्टी कांग्रेस के हाथ से निकल चुका था। आज के जमाने में मीडिया समाज और सत्ता का चैथा खंभा कहलाता है, लेकिन उससे शासक पार्टी लगभग पूरी तरह गायब थी। आधा चुनाव तो वह यहीं हार गई, सैकड़ों चैनलों में भाजपा व संघ और मोदी की रिंग कॅमेंट्री की जाती रही। मीडिया में आम लोगों और मेहनतकशों की खबरें नदारद थीं अर्थात वह देश का प्रतिबिम्ब नहीं रह गया था और अभी भी नहीं है। भाजपा के चुनाव जीतने के बाद ऐसा लगता है कि ज्यादातर अखबार, चैनल और पत्रकार सिर्फ सरकार की चमचागीरी में लगे हुए हैं। यह देश के लिए बड़ी चिंताजनक बात है। मीडिया से जनता गायब हो चुकी है। यह हमें पश्चिम के ‘एंबेडेड’ अर्थात सरकारी पम्परा से जुड़े हुए मीडिया की याद दिलाते हंै।
कांग्रेस की नाकामयाबी
ना कांग्रेस, ना ही अन्य कोई पार्टी देश में हो रहे परिवर्तनों को समझ पाई। कांग्रेस आत्म-संतुष्टि से पीडि़त रही। सिर्फ विकास की दर बढ़ने से ही देश का भला नहीं होता है। विकास का फल जनता तक पहुँचना चाहिए, यह समझ उसे बड़ी देर से आई. कांग्रेस पहले ही हारी हुई फौज के समान लड़ रही थी। उसने मीडिया को पूरी तरह कार्पोरेटों और संघ-भाजपा के हवाले कर दिया था। यह नीति समझ में आने लायक नहीं है। कांग्रेस को अपना दंभ त्यागकर अन्य दलों के साथ बराबरी का व्यवहार सीखना होगा। कांग्रेस ने नव-उदारवाद के नतीजों की, जिनका शिकार जनता हुई, पूरी तरह अनदेखी की। ऐसा लगता था की ‘महँगाई बढ़ी तो क्या?’ का रुख उसने अपना लिया था। इस समस्या का समधान नई सरकार को भी करना पड़ेगा। बोलना आसान है लेकिन महँगाई पर नियंत्रण करना आसान नहीं। वाम तथा अन्य दलों की दिशाहीनता, बिहार तथा कुछ एक अन्य जगहों में वाम तथा कुछ अन्य दल और कांग्रेस नजदीक आए हैं। उन्हें एहसास हुआ है कि ‘धर्मनिरपेक्ष ताकतों’ को एक जगह आना चाहिए। इसमे विचारधारा से अधिक कुछ अन्य कारकों की भूमिका भी है।
यह समझदारी पहले क्यों नहीं आई? पहले वे क्या कर रहे थे? और वाम दलों ने अन्य दलों तथा कांग्रेस के साथ सीमित ही सही, तालमेल बिठाने का काम क्यों नहीं किया? चुनाव के बाद तालमेल का क्या मतलब रह जाता है जब आपके पास नंबर ही नहीं हैं, सीटें ही नही मिलीं।
इन प्रश्नों का उत्तर तो वे ही दे सकते हैं। अंकगणित स्पष्ट है- 31 प्रतिशत बनाम 69 प्रतिशत, सीमित तालमेल में भी भाजपा को कोई अवसर नहीं बनता, जीतने का कारण स्पष्ट है-दिशाहीनता। ऐसी पार्टियाँ जो वामपंथी हैं, जो वैज्ञानिक होने का दावा करती हैं, वे भी इस बात को क्यों नहीं समझ पाईं? ऐसा लगता है कि उन्होने रणनीति ताक पर रख दी और उनकी दृष्टि अंध कांग्रेस विरोध से पीडि़त हो गई। वे चुनाव के बाद तीसरे मोर्चे की तलाश में थे, यह भूलते हुए कि यदि सीटें नहीं आईं तो कोई तीसरा या चैथा मोर्चा ना बन सकता है, ना ही उसकी सरकार, हुआ भी यही।
वाम तथा अन्य दल अपनी रणनीति तैयार नहीं कर पाए, वैचारिक संघर्ष नहीं चला पाए, आधे मन से चुनाव लड़े और पूरी तरह तालमेल से अलग रहे। यह अति स्वाभिमान का मामला हुआ। नतीजतन, आज वाम 2008 के बाद 62 सीट से 12 पर आ गया है।
वाम को पूरी तरह समय के साथ बदलने की जरूरत है। उसे देश में हो रहे परिवर्तनों, बदलती सामाजिक रचनाओं, मीडिया, सूचना और तकनीकी क्रांति के नतीजों, मोबाइल और टीवी के महत्व, इत्यादि कई चीजों को समझना होगा। एक के बाद एक बड़े शहरों में वामपंथ कहीं नहीं है। ये शहर और भी बड़े और संख्या में भी अधिक होते जा रहे हैं। फलस्वरूप, वास्तव में वाम और प्रगतिशील छोटे होते जा रहे हैं। चुनाव नतीजे इन मायनों में आश्चर्य की बात नहीं हैं, बल्कि वास्तविकता के ही प्रतिबिम्ब हैं।
वाम को अपनी पूरी रणनीति और कार्यनीति बदलनी होगी। उसे सारी प्रगतिशील शक्तियों को एकजुट करना होगा जिसमें कांग्रेस के प्रगतिशील तबके भी होंगे। सिर्फ एकता या नजदीकियाँ काफी नहीं, वाम सहयोग या मोर्चे को करना क्या है, किससे मित्रता, किससे दूरी बनाना है, नीतियाँ क्या होंगी, यह समझना होगा। वाम के पास कोई वैकल्पिक अर्थनीति नहीं है। वह सिर्फ दक्षिणपंथ की नीतियों पर प्रतिक्रिया दे रहा है, दूसरों के गेंद का जवाब दे रहा है, वह भी ठीक से नहीं। वाम और जनवादी अलग-अलग रहें तो दक्षिणपंथ की जीत सुनिश्चित है। अपने एजेेंडा और उस पर देश को चलाना, यह आवश्यक है।
उसे ऐसा एजेण्डा तैयार करना होगा। जिस पर देश आकृष्ट हो, जिसके गिर्द कांग्रेस समेत अन्य जनवादी पार्टियाँ सीमित अर्थों में ही सही, नजदीक आएँ, कुछ अधूरे मन से कोशिश अवश्य हुई है लेकिन प्रभावी तरीके से नहीं। वाम और जनवादी शक्तियों को स्पष्टता और
धारदार नीतियाँ अपनानी होंगी और देश को साफ दिशा देनी होगी। कोई अगर मगर नहीं चलेगा, ना ही लंबे चैड़ माँग पत्र। वाम सभी प्रगतिशील ताकतों को एक जगह लाए और जनता और देश को दिशा दे वैचारिक तेजी लाए।
देश का भविष्य
हम कह आए हैं कि आज पूरी तरह दक्षिणपंथ की ताकतें सत्ता में आ गई हैं। जाहिर है, नीतियों में इसी के अनुरूप परिवर्तन होगा या कोशिश होगी। इसका यह भी मतलब है कि आजादी के बाद देश ने जो भी उपलब्धियाँ हासिल की थीं उन पर पूरा हक है। आर्थिक क्षेत्र, स्कूल-कॉलेज के पाठ्यक्रम तथा इस प्रकार की अन्य बातें खतरनाक मोड़ पर हैं।
यह जानी हुई बात है कि छोटे बच्चों में ही सांप्रदायिक मानसिकता भरी जा रही है, जिसकी गति तेज होगी। जब पाठ्यक्रमों में हिटलर पढ़ा जाए और गांधी गायब हों तो देश के मानस पर क्या प्रभाव पड़ेगा और भावी विचार कैसे होंगे यह समझा जा सकता है। 35 वर्षों के एक छत्र शासन ने वैज्ञानिक और प्रगतिशील विचारधारा से अज्ञता को शिक्षित करने के लिए कुछ नहीं किया। दूसरी और विभाजनकारी साम्प्रदायिक विचारधारा, चाहे जिसकी हो, फैलाई जाती रही।
दूसरे शब्दों में विचारधारा के पहलुओं को, उसके विकास और अंतर्विरोधों को नजरअंदाज कर दिया गया। यह भुला दिया गया कि विचारधारा का संघर्ष अत्यंत ही महत्वपूर्ण है।
क्या प्रगतिशील, जनवादी, वाम तथा धर्मनिरपेक्ष विचारधारा फिर से एक बार देश को स्वस्थ दिशा में ले जा पाएगी? यह विवेकपूर्ण विचारधारात्मक कार्यों से ही भविष्य में साबित हो पाएगा।
-अनिल राजिमवाले
मो0 09868525812
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चुनावी नतीजे: देश दक्षिणपंथ की ओर
Posted in loksangharsha, tagged अनिल राजिमवाले, गांधी, वैज्ञानिक, हिटलर on जून 16, 2014| Leave a Comment »
संघ के जहरीले प्रचार के कारण गांधी जी की हत्या हुई थी
Posted in loksangharsha, tagged एल. एस. हरदेनिया, गांधी, पटेल, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, हत्या on मार्च 20, 2014| Leave a Comment »
राहुल गांधी ने आरोप लगाया है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने महात्मा गांधी की हत्या की थी।संघ इस आरोप को बेबुनियाद बता रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि महात्मा गांधी की हत्या में संघ का अप्रत्यक्ष हाथ था। हत्या का फैसला कोई प्रस्ताव पारित करके नहीं किया गया था परन्तु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि संघ व हिन्दू महासभा के कुछ प्रमुख नेताओं को यह जानकारी थी कि महात्मा गांधी की हत्या होने वाली है। यह आरोप कि संघ को ज्ञात था कि महात्मा गांधी की हत्या होने वाली है, तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने लगाया था। पत्र में पटेल ने लिखा था ‘‘उसके (आर.एस.एस.) सभी नेताओं के भाषण साम्प्रदायिक जहर से भरे रहते थे। उन जहरीले भाषणों के चलते देश में ऐसा वातावरण बना जिससे यह बड़ी त्रासदी (गांधी जी की हत्या) घटी। हत्या के बाद संघ के स्वयंसेवकों ने खुशियां मनाईं और मिठाई बांटी।’’
पटेल ने इस पत्र की कापी जनसंघ के प्रथम अध्यक्ष और हिन्दू महासभा नेता श्यामाप्रसाद मुखर्जी को भी भेजी थी। सरदार पटेल ने महात्मा गांधी की हत्या के बाद तत्कालीन सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर को एक पत्र लिखासंदेह नहीं कि नाथूराम गोडसे, जिसने गांधीजी की हत्या की थी, वे संघ के सदस्य रहे थे। उन्हें बौद्धिक प्रचारक का उत्तरदायित्व सौंपा गया था। उनके भाई गोपाल गोडसे लिखते हैं कि ‘‘नाथूराम गोडसे ने अदालत को बताया था कि उन्होंने 1934 में संघ छोड़ दिया था परंतु वास्तविकता यह है कि उन्होंने (नाथूराम गोडसे) संघ को कभी नहीं छोड़ा’’ गोपाल गोडसे के इस कथन से स्पष्ट होता है कि वे उस समय भी संघ से जुड़े थे जब उन्होंने गांधी की हत्या की थी।
गोडसे की वास्तविक स्थिति के बारे में आउटलुक पत्रिका ने सरसंघचालक प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह से एक साक्षात्कार में पूछा था। राजेन्द्र सिंह ने उत्तर दिया था कि ‘‘नाथूराम गोडसे अखंड भारत का सपना देखता था। उसका इरादा ठीक था परंतु उसने जो तरीका अपनाया वह गलत था।’’
संघ ने कभी भी नाथूराम गोडसे से अपना संबंध नहीं तोड़ा। इसके ठीक विपरीत, संघ उसके विचारों को प्रचारित करता रहा है। संघ वर्षों तक नाथूराम गोडसे और उनके भाई की किताबों के विज्ञापन अपने साप्ताहिक समाचारपत्र आर्गनाईजर में छापता रहा है। जैसे दिनांक अक्टूबर 5, 1997 के संस्करण में रीडेबल अटरेक्टिव न्यू बुक्स शीर्षक से विज्ञापन छपा था। इन किताबों में नाथूराम गोडसे की किताब ‘‘मे इट प्लीज युअर आनर’’ और गोपाल गोडसे की किताब ‘‘गांधीज मर्डर एंड आफ्टर’’ शामिल हैं। इस तरह के विज्ञापन समय-समय पर छपते रहे हैं।
सरदार पटेल ने, जिन्हें नरेन्द्र मोदी और संघ अपना हीरो मानता है, गांधी की हत्या के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगाया था। 4 फरवरी 1948 को प्रतिबंध लगाया गया था। ‘भारत सरकार ने 2 फरवरी को अपनी घोषणा में कहा है कि उसने (भारत सरकार) उन सभी विद्वेश कारी तथा हिंसक शक्तियों को जड़मूल से नष्ट कर देने का निष्चय किया है, जो राष्ट्र की स्वतत्रंता को खतरे में डालकर उसके उज्जवल नाम पर कलंक लगा रही हैं। उसी नीति के अनुसार, चीफ कमिश्नरों के अधीनस्थ सब प्रदेशों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अवैध घोषित करने का निर्णय भारत सरकार ने कर लिया है। गवर्नरों के अधीन राज्यों में भी इसी ढंग की योजना जारी की जा रही है।’’ सरकारी विज्ञप्ति में आगे कहा गया: ‘‘संघ के स्वयंसेवक अनुचित कार्य भी करते रहे हैं। देश के विभिन्न भागों में उसके सदस्य व्यक्तिगत रूप से आगजनी, लूटमार, डाके, हत्याएं तथा लुकछिप कर श स्त्र, गोला और बारूद संग्रह करने जैसी हिंसक कार्यवाहियां कर रहे हैं। यह भी देखा गया है कि ये लोग पर्चे भी बांटते हैं, जिनसे जनता को आतंकवादी मार्गों का अवलंबन करने, बंदूकें एकत्र करने तथा सरकार के बारे में असंतोश फैला कर सेना और पुलिस में उपद्रव कराने की प्रेरणा दी जाती है।’’
सरकारी आदेश में वे अन्य कारण भी गिनवाए गये जिनके चलते आरएसएस पर प्रतिबंध लगाना जरूरी हो गया था। इस संदर्भ में जानने लायक एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जब आरएसएस पर प्रतिबंध लगाया गया तब देश के गृहमंत्री सरदार पटेल ही थे, जिनको आरएसएस कांग्रेस में अपना प्रिय नेता मानती थी और आज भी मानती है। सरदार पटेल ने गांधी जी की हत्या में आरएसएस की भूमिका के बारे में स्वयं गोलवलकर को एक पत्र के माध्यम से जो कुछ लिखा था वह भी पढ़ने लायक है। सरदार पटेल ने 19.9.1948 के अपने पत्र में लिखा, ‘‘हिन्दुओं का संगठन करना, उनकी सहायता करना एक प्रश्न है पर उनकी मुसीबतों का बदला, निहत्थे व लाचार औरतों, बच्चों व आदमियों से लेना दूसरा प्रष्न है…उन्होंने कांग्रेस का विरोध करके और इस कठोरता से कि न व्यक्तित्व का ख्याल, न सभ्यता व शिष्टता का ध्यान, जनता में एक प्रकार की बेचैनी पैदा कर दी थी। इनकी सारी स्पीचिज सांप्रदायिक विष से भरी थीं। हिन्दुओं में जोश पैदा करना व उनकी रक्षा के प्रबन्ध करने के लिए यह आवश्यक न था कि वह जहर फैले। इस जहर का फल अन्त में यही हुआ कि गांधी जी की अमूल्य जान की कुर्बानी देश को सहनी पड़ी और सरकार व जनता की सहानुभूति जरा भी आरएसएस के साथ नहीं रही, बल्कि उनके खिलाफ हो गयी। उनकी मृत्यु पर आरएसएस वालों ने जो हर्ष प्रकट किया था और मिठाई बांटी, उस से यह विरोध और बढ़ गया और सरकार को इस हालत में आरएसएस के खिलाफ कार्यवाही करना जरूरी ही था।
‘‘तब से अब 6 महीने से ज्यादा हो गए। हम लोगों की आशा थी कि इतने वक्त के बाद सोचविचार कर के आरएसएस वाले सीधे रास्ते पर आ जाएंगे। परन्तु मेरे पास जो रिपोर्ट आती हैं उनसे यही विदित होता है कि पुरानी कार्यवाहियों को नई जान देने का प्रयत्न किया जा रहा है।’’
प्रतिबंध लगने के बाद संघ की गतिविधियां ठप्प हो गईं। इसके बाद संघ द्वारा प्रतिबंध उठाने के लिए अथक प्रयास किए गए। अपने प्रयासों के दौरान गोलवलकर ने पटेल को अनेक पत्र लिखे। परन्तु पटेल ने बार-बार यह स्पष्ट किया कि प्रतिबंध उठाने के अनुरोध पर उसी समय विचार किया जाएगा जब संघ उसके संविधान का प्रारूप पेश करे।
14 नवंबर 1948 को गृह मंत्रालय की ओर से एक विज्ञप्ति जारी की गई जिसमें यह स्पष्ट रूप से कहा गया कि गोलवलकर प्रतिबंध उठवाना तो चाहते हैं परंतु संघ अपने स्वरूप और गतिविधियों में किसी प्रकार का सुधार करने को तैयार नहीं है। पटेल ने श्यामाप्रसाद मुखर्जी को लिखे एक पत्र में कहा कि संघ की गतिविधियों से देश को खतरा है। वे वास्तव में राष्ट्रविरोधी हैं। बाद में संघ ने अपने संविधान का प्रारूप पटेल को भेजा। इस प्रारूप में संघ ने यह स्पष्ट प्रावधान किया कि संघ, राजनीति में हिस्सा नहीं लेगा और अपनी गतिविधियों को सांस्कृतिक क्षेत्र तक सीमित रखेगा। यह आश्वासन देने के बावजूद, संघ अब सीधे राजनीति में भाग ले रहा है। इस तरह वह पटेल को दिए गए आश्वासन के ठीक विपरीत कार्य कर रहा है। आज भी संघ जिन उद्देश्यों के लिए काम कर रहा है वे उस संविधान के विरूद्ध हैं जिसके द्वारा हमारे राष्ट्र की सभी प्रकार की गतिविधियों का संचालन होता है।
-एल.एस. हरदेनिया
दादा गजेन्द्र सिंह समाज के हर वर्ग के प्रेरणा दायक
Posted in loksangharsha, tagged गांधी, दादा गजेन्द्र सिंह, विधायक, समाज, सुमन on अक्टूबर 22, 2013| Leave a Comment »
बाराबंकी। पूर्व विधायक, समाज सुधारक स्व0 गजेन्द्र सिंह की प्रथम पुण्य तिथि के अवसर पर पूर्व अध्यक्ष जिला बार एसोसिएशन बृजेश दीक्षित की अध्यक्षता में गांधी भवन देवां रोड पर एक स्मृति सभा का आयोजन किया गया।
कार्यक्रम का प्रारम्भ महन्त गुरूशरण दास ने स्व0 गजेन्द्र सिंह के चित्र पर माल्यार्पण कर उन्हें श्रद्धासुमन पेश करते हुए किया।
इस अवसर पर अपने संबोधन में बृजेश दीक्षित ने कहा कि दादा गजेन्द्र सिंह समाज के हर वर्ग के प्रेरणा दायक थे। उनके लिए सच्ची श्रद्धांजलि उनके विचारों का अनुसरण करने में ही है।
गांधी वादी विचारक एवं गांधी समारोह ट्रस्ट के अध्यक्ष प0 राजनाथ शर्मा ने पूर्व विधायक को अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए कहा कि उनका जीवन एक सच्चे एवं निर्भीक इंसान के जीवन की अभिव्यक्ति थी और गांधी समारोह ट्रस्ट के वह संस्थापक सदस्य थे और उन्हीं की प्रेरणा से ट्रस्ट द्वारा अनेको कार्यक्रम सम्पन्न कराए गए।
वरिष्ठ पत्रकार हशमतउल्ला ने पूर्व विधायक के जीवन व उनके कार्यों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि वह बहुआयामी व्यक्तित्व के मालिक थे। एक ओर जहां वह एक निर्भीक व बेबाक राजनेता थे तो वहीं उर्दू व हिन्दी साहित्य के प्रेमी थे, उन्हें यदि रामायण की चौपाइयों , गीत, श्लोक व प्रमुख कवियों की कविताएं कठस्थ थी तो वहीं उर्दू के ऐसे नायाब अशआर याद थे जो किसी ने कभी सुने भी न हों।
फखरूद्दीन अली अहमद कमेटी के पूर्व चेयरमैन निहाल रिजवी ने दादा गजेन्द्र सिंह के साथ बिताए गए अपने समय का स्मरण करते हुए कहा कि जिले में राजनीति की युवा पीढ़ी को तैयार करने में दादा की अहम भूमिका रही है। उन्होंने कहा कि वह एक निर्भीक राजनेता थे और आम आदमी के सरोकारो के पैरोकार थे।
जिला उपभोक्ता फोरम के पूर्व सदस्य हुमायू नईम खां ने दादा गजेन्द्र सिंह को श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि वह अपने आदर्शों से कभी समझौता न करने वाले इंसान थे और सामाजिक समस्याओं के प्रति उनकी संवेदनाओं ने सदैव उन्हें आम इंसानों के करीब रखा।
वरिष्ठ प्रवक्ता जवाहर लाल नेहरू परास्नातक महाविद्यालय डा. राजेश मल्ल ने अपने संबोधन में कहा कि दादा गजेन्द्र सिंह ने राजनीति में अपराधिक प्रवृत्ति के लोगों के प्रवेश पर वह सदैव चिन्तित रहे और इसका विरोध करने के दृष्टिकोण से ही वह काफी समय तक एक राज्यमंत्री द्वारा राष्ट्रीय ध्वजारोहण किए जाने के खिलाफ अपनी आवाज बुलन्द करते हुए अपनी गिरफ्तारी देते रहे।
इस अवसर पर पवन कुमार वैश्य, बृजमोहन वर्मा, डा. उमेश चन्द्र वर्मा, डा. एस.एम. हैदर, प्राचार्य रामस्वरूप यादव, पूर्व विधायक शिवकरन सिंह, हरिशरण दास, राकेश कुमार सिंह, दिलीप गुप्ता एडवोकेट, उपेन्द्र सिंह, श्रीमती नीरज सिंह, अजय सिंह, प्रशान्त मिश्र, सुरेन्द्र नाथ मिश्र, हरि गुप्ता, राजेन्द्र बहादुर सिंह, पुष्पेन्द्र कुमार सिंह, सलाम मोहम्मद, विजय प्रताप सिंह, आनंद सिंह, अरविन्द वर्मा, गनेश सिंह, धीरेन्द्र सिंह, राजेश्वर दयाल बाजपेयी, मेराज अहमद ने भी अपने विचार रखते हुए दिवंगत राजनेता को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की।
कार्यक्रम के अंत में रणधीर सिंह सुमन ने आए हुए सभी आगुन्तकों के प्रति अपना आभार व्यक्त किया।
रणधीर सिंह सुमन
एडवोकेट
जिला-बाराबंकी