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Posts Tagged ‘जगदीश्वर चतुर्वेदी’

          आभासी संसार यानी वर्चुअल जगत,यह असल में वर्चुअल रियलिटी है। यह तकनीकी है,अवधारणा नहीं है,यह वातावरण है,एनवायरमेंट है। 7जून1989 को कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर तंपनी ऑटोडेक्स और कम्प्यूटर कंपनी बीपीएल ने इसकी घोषणा की। इसका जन्म 1984 में एक विज्ञानकथा के गर्भ के जरिए हुआ।विलियम गिब्सन के उपन्यास ‘न्यूरोमेंसर’ से इसका सिलसिला शुरु होता है। इसका राजनीतिक आयाम भी है,यह ‘स्टारवार’कार्यक्रम के गर्भ से निकली तकनीक है।यह समाजवाद के पराभव के साथ आई तकनीक है। जो लोग पूंजीवाद के प्रति आलोचनात्मक रवैय्या रखते थे,समाज को बदलना चाहते थे,जिनमें युद्ध के खिलाफ और शांति के पक्ष में भावनाएं थी उन्हीं को वर्चुअल रियलिटी ने निशाना बनाया।नई जीवनशैली दी।वर्चुअल रियलिटी के सिद्धांतकार जेरोन लेनियर ने वर्चुअल रियलिटी को पेश करते हुए नारा दिया ” जनता को कल्पनाशीलता से मुक्त करो,लोगों को संप्रेषित करने में मदद करो।” आरंभ में वर्चुअल रियलिटी में सामाजिक आलोचना का भाव था बाद में सिर्फ तकनीकी रह गई।जो आलोचक थे वे व्यवसायी हो गए। 
     जेरोन लेनियर ने लिखा है ‘ वर्चुअल रियलिटी हमारे बाहरी जगत पर असर डालती है।हमारे आंतरिक जगत पर असर नहीं डालती।नया वस्तुगत यथार्थ पैदा करती है।तुम इसमें रमण कर सकते हो,यह संक्रमणशील है,तुम इसकी चीजों का दुरुपयोग नहीं कर सकते;यह कृत्रिम वातावरण की खुली तकनीकी है। इसने व्यक्ति,निजता, समुदाय, समय और आकार आदि के बारे में हमारी अब तक की समस्त धारणाओं को बदला है।’
        वर्चुअल रियलिटी का काम है कार्रवाई,शिरकत और नियंत्रण स्थापित करना।यह दुनिया को वर्चस्ववादी दृष्टिकोण से देखने का विमर्श तैयार करती है।इसीलिए वर्चस्ववादी ताकतों को सबसे प्रिय है।इसका काम मुख्य काम है व्यस्त रखना।लक्ष्य है वर्चस्व स्थापित करना।इसका लक्ष्य सत्य या विवेक नहीं है, बल्कि निजी दृष्टिकोण है।यह समस्त विमर्शों को अपने मातहत बना लेना चाहती है।
         उल्लेखनीय है साँफ्टवेयर में संगीत के लय की तरह हर चीज को व्यक्त करने की क्षमता है । यहाँ संगीत से लेकर व्यक्ति तक हर चीज को व्यक्त कर सकते हैं । मौजूदा दौर में मनुष्य की हर गतिविधि सॉफ़्टवेयर से जुडी हैं या उसके जरिए संचालित हो रही हैं । कहने के लिए www के नाम पर तरह तरह के डिज़ायन और साफ्टवेयर इस्तेमाल किए जा रहे हैं , इसे वेब 2.0 (web 2.0) की विचारधारा कहते हैं औ, सतह पर यह स्वतंत्रता का वायदा करती है लेकिन असलियत में यहाँ मनुष्य से ज़्यादा मशीनों को स्वतंत्रता है । वे इसे ‘ओपेन कल्चर’ या खुली संस्कृति कहते हैं। ब्लाग, सोशलमीडिया, वीडियो, यू -ट्यूब ,हल्की टिप्पणियाँ यहाँ नाटकीय और हार्मलेस नजर आती हैं ।लेकिन बृहत्तर स्तर पर यह विखंडित(फ्रेगमेंट) संस्कृति का लगावरहित संचार  है। इससे निजी मेल मुलाक़ात की परंपरा या आदत की क्षति होती है ।कम्युनिकेशन इन दिनों कभी -कभी अति-मानवीय फिनोमिना नजर आता है । मनुष्य से परे का फिनोमिना नजर आता है।
               मौजूदा दौर में व्यक्ति से हमारी आकांक्षाएँ बहुत कम हो गयी हैं, न्यूनतम आकांक्षाओं के साथ जीना , रहना सामान्य बात हो गयी है । तकनीक की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह बताती है कि आदमी कितनी जल्दी बदलता है । डिजिटल डिज़ायन में छोटा सा परिवर्तन व्यापक स्तर पर समाज को प्रभावित करता है । ख़ासकर वे लोग जो इसका इस्तेमाल करते हैं वे तेज़ी से प्रभावित होते हैं । वर्चुअल रियलिटी की खूबी है कि निज की शक्ति और सामाजिक दृष्टि को रुपान्तरित करती है । इसी अर्थ में तकनीक को मनुष्य या निज का एक्सटेंशन कहा गया ।
     हमारी अस्मिता तुरंत गजटस बदलते ही रुपान्तरित हो जाती है । सूचना तकनीक के साथ सोशल इंजीनियरिंग के बिना काम करना संभव नहीं है। हमें सवाल करना चाहिए ब्लॉगिंग, ट्विटिंग, फेसबुक आदि से व्यक्ति कितना बदलता है ? मैं क्या हूँ ? मेरी पहचान क्या है ? जिन लोगों ने इसके प्रोग्राम बनाए वे तो सिर्फ़ यही माँग करते हैं कि आप कम्प्यूटर से संपर्क-संबंध रखें , यानी अपने दिमाग़ के किसी कोने के साथ कम्प्यूटर का संबंध बनाकर रखें। कम्प्यूटर में अनजान वैज्ञानिकों की भीड़ के बनाए प्रोग्राम हैं जिनके साथ हम संपर्क रखते हैं । यह एक तरह से अल्लम-गल्लम लोगों के समूह हैं ,जो मनुष्य कहलाते हैं। ये ही लोग हैं जो अंगागि-भाव से जुड़े हैं। इनकी राय ही वैध राय है । यहाँ रीयल व्यक्ति की नहीं कृत्रिम व्यक्ति की राय मिलती है । यह व्यक्ति भी फार्मूलाबद्ध ढंग से बोलता है । रुढिबद्ध भाषा, तयशुदा भाषा उसकी विशेषता है और यह सब काम मशीन करती है । यह कृत्रिम मनुष्य है जो कम्प्यूटर में बैठा हुआ है । लेकिन मनुष्य तो फ़ार्मूला नहीं है । मनुष्य फ्रेगमेंट नहीं है।लेनियर ने लिखा ” फ्रेगमेंट आर नोट पीपुल्स”, मनुष्य  तो परिवर्तनशील है। वह तो रहस्यमय विश्वासों में डूबा व्यक्ति है। लेनियर ने लिखा क्या कोई तकनीकीविद विश्वास करेगा कि अतीत से बेहतर भविष्य हो सकता है.तकनीकीविदों को आदर्शवादी होना चाहिए , उनके पास आदर्श विचार होने चाहिए।
          तकनीकी विकास की प्रक्रिया निरंतर विभ्रम पैदा करती रही है। यह एक तरह का तकनीकी पागलपन भी है। इसके कारण वास्तव और आदर्श कम्प्यूटर में निरंतर विभ्रम बना रहता है । तकनीक यह मानकर चलती है कि प्रत्येक तकनीक नए के ब्राण्ड रुप में काम करे या  जानी जाय। समूची रणनीति यह है कि  हम कम्प्यूटर के बारे में यथार्थवादी ढंग से न सोचें। कम्प्यूटर के प्रोग्राम जिस गति से आ रहे हैं उसके कारण एकदिन हम बंद गली में जाकर क़ैद हो सकते हैं!
   नई तकनीक आने के साथ जो चीज़ें आई हैं वे मनुष्य के अंगों से जुड़ी हैं,मसलन् हमारे आँखों और कान से वेबकाम्स और मोबाइल फ़ोन जुड़े हैं ये हमारी स्मृति की विस्तारित मेमोरी या स्मृति का अंग हैं। ये वे स्ट्रक्चर हैं जो दुनिया और अन्य लोगों से  जोड़ सकता है, और ये संरचनाएँ पलटकर यह भी सोचने का मौक़ा देती हैं कि व्यक्ति चाहे तो स्वयं के बारे में सोच सकता है ।
          लेनियर ने लिखा है कि तकनीक की नई उप-संस्कृति  आज सबसे ज्यादा प्रभावशाली है और असर पैदा करने वाली है। मजेदार बात यह है कि इस उप-संस्कृति का कोई नाम नहीं है। लेकिन साइबर वैज्ञानिक इसे डिजिटल माओवादी कहते हैं। इसमें आदिवासियों जैसा सांस्कृतिक खुलापन और साझा सर्जनात्मक तत्व हैं। यह कम्प्यूटर साइंस के कृत्रिम विवेक से जुड़ी है। इसकी विशेषता है संदर्भविरोध या एंटीकंटेस्ट,इसमें फाइलें एक-दूसरे के साथ बिना संदर्भ के साझा की जा सकती हैं,समाहित की जा सकती हैं। इसकी राजधानी सिलिकॉनवेली है। लेकिन इसकी शक्ति सारी दुनिया में फैली हुई है। इसने साइबर समग्रतावाद को जन्म दिया है। इस प्रसंग में लोग सबसे बड़ी गलती यह कर रहे हैं कि वे निजी नेटवर्क को ध्वस्त करने में लगे हैं। इससे अराजकता और बढ़ेगी। नेटवर्क में अराजकता न बढ़े इसके लिए जरुरी है कि ज्यादा से ज्यादा रियल लोग नेटवर्क में शिरकत करें। यदि नेटवर्क में अमूर्त लोग रहते हैं तो यह अर्थहीन हो जाएगा। नेटवर्क अर्थहीन न बने इसके लिए जरुरी है कि रीयल लोग नेटवर्क में सक्रिय हों। रीयल लोग रहेंगे तो नेटवर्क अर्थवान रहेगा। क्योंकि अर्थवत्ता नेटवर्क में नहीं रीयल लोगों में है।
     आभासी संसार में शब्द सर्जना का रीयल सुख तब ही संभव है जब हम इसके मसलों पर खुलकर बहस करें। हमें इसके मसलों को जानना होगा और उन पर बौद्धिकों के बीच में बहस चलानी होगी। हमारे वैज्ञानिकों से लेकर मीडिया तक,राजनेताओं से लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं तक आभासी संसार का उपयोग बड़े पैमाने पर हो रहा है लेकिन उसके बुनियादी संरचना से जुड़े सवालों पर कोई गंभीर विचार विमर्श अभी नहीं हो रहा है। राजीव गांधी के कम्प्यूटर मिशन से लेकर नरेन्द्र मोदी के डिजिटल इंडिया के मिशन तक सूचना तकनीक के प्रचार-प्रसार का एक ही लक्ष्य है सूचना उपभोक्ता तैयार करना, सूचना तकनीक के उपभोक्ता तैयार करना, यहां तक कि हमारी तथाकथित बड़ी सूचना-संचार कंपनियां भी सेवाक्षेत्र में ही सीमित हैं और उन्हीं कामों पर जोर दे रही हैं जहां उपभोक्ता है और मुनाफा है।
    आभासी संसार का सपना डिजिटल बुद्धिजीवी से जुड़ा है। आम जनता के दैनंदिन जीवन में डिजिटल कम्युनिकेशन का दखल बढ़ा है। हमें डिजिटल गुरु बनना है तो हमारे देश के बौद्धिकों को डिजिटल आदतों और संस्कारों को अपनाना होगा।  अभी अधिकांश बौद्धिक-लेखक आदि प्रिंटसंचार और तदजनित मसलों तक सीमित हैं। पूरा देश अभी भी 19वीं सदी के सवालों से जूझ रहा है। देश इन सवालों से मुक्त हो इसके लिए जरुरी है ‘डिजिटल छलांग’ लगाई जाय,’डिजिटल छलांग’ बौद्धिकों को डिजिटली एक्टिव किए बिना संभव नहीं है। विश्व में बौद्धिक वर्चस्व की प्रक्रियाओं में दखल देने के लिए यह जरुरी है, वरना हमारे देश की डिजिटल प्रतिभाओं का अमेरिका-ब्रिटेन आदि देशों की ओर प्रतिभा पलायन होता रहेगा। आभासी संसार में शब्द सर्जना के लिए डिजिटल प्रतिभाओं को रोकना,उनके लिए यहां पर्याप्त संसाधन जुटाना और प्रभावशाली संरचनाओं का निर्माण करना बेहद जरुरी है। हम पहले से देश के प्रति बेगानेपन के शिकार थे,आभासी संसार ने हमारे बेगानेपन को और बढ़ाया है, कम्प्यूटर आने के बाद हमारे देश में प्रतिभा पलायन तेज हुआ है,इसे किसी भी कीमत पर रोकने की जरुरत है।
  सवाल यह है कि संचार क्रांति को ज्ञानक्रांति में कैसे बदलें ? सूचनासमाज को ज्ञानसमाज कैसे बनाएं ? हमारे यहां ज्ञान समाज और सूचना समाज की समस्याओं को लेकर कोई बहस नहीं है,बौद्धिकों से लेकर मीडिया तक इसके सवालों पर एकसिरे से चुप्पी छाई हुई है, यह चुप्पी क्यों है ? मजेदार बात है सूचना तकनीक और आभासी संसार के बारे में अधिकांश खबरें कानून-व्यवस्था की समस्या से जुड़ी हैं या फिर उपभोक्ता के नजरिए से आती हैं यानी प्रोडक्ट की बिक्री के प्रसंग में सूचना तकनीकी की खबरें आ रही हैं।
     आभासी संसार में शब्द सर्जना के लिए आंतरिक प्रतिबंधों,पुराने संस्कारों,खासकर कम्युनिकेशन की पुरानी आदतों और झिझक से लड़ने की जरुरत है। लेखक के नाते हमारे अंदर अनेक किस्म के आंतरिक प्रतिबंधकाम करते रहते हैं,इनसे लड़ने की जरुरत है। आभासी संसार में दखल बढ़ाने के लिए विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों के स्तर पर कम्प्यूटर और डिजिटल तकनीक के आविष्कार  और नए सॉफ्टवेयर निर्माण ध्यान देने की जरुरत है। अभी हमारे यहां सभी कम्प्यूटर पाठ्यक्रम प्रयोजनमूलक हैं ,और सेवाक्षेत्र केन्द्रित हैं। उनमें रिसर्च और नए अनुसंधान के लिए कोई स्थान नहीं है।
     आभासी संसार और भारतीय पूंजीवाद के रिश्ते को भी हमें खोलकर देखना चाहिए। हमारे देश का पूंजीपतिवर्ग तो कम्प्यूटर को सेवा और मुनाफे से अधिक मानकर नहीं चलता। हमें विचार करना चाहिए कि हमारे देश के पूंजीपतिवर्ग की प्रकृति क्या है ? इससे तय होगा कि हमारे देश के आभासी संसार की प्रकृति क्या होगी ?
    हमारे देश के पूंजीपतिवर्ग की चारित्रिक विशेषता है मुनाफा-मुनाफा और सिर्फ मुनाफा कमाना। उसके पास मुनाफा कमाने का विवेक तो है लेकिन ज्ञान,खोज,अनुसंधान और नए के निर्माण की बुद्धि नहीं है। वह व्यापार में रिस्क लेता है लेकिन ज्ञान और खोज के क्षेत्र में उसने कभी कोई जोखिम नहीं उठाया। ‘खोज’ के बिना आधुनिकता का नजरिया नहीं बनता। यही वजह है भारत के पूंजीपति के पास दौलत है, मुनाफा कमाने की तकनीक है लेकिन खोज की संरचनाएं नहीं हैं। खोज के लिए वह निवेश नहीं करता। इससे भी भयानक स्थिति अकादमिक जगत में है वहां पर विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रम तो हैं ,लेकिन ‘खोज ‘ का नजरिया गायब है। ये पाठ्यक्रम सिर्फ नौकरी पाने की कला सिखाते हैं। इसका दुष्परिणाम यह निकला है कि हमारे देश से प्रतिभा पलायन बड़े पैमाने पर हुआ। प्रतिभा पलायन से बचने का एक ही तरीका है प्रतिभा संरक्षण की संरचनाओं का निर्माण और संसाधनों का विकास। प्रतिभा को शत्रु या प्रतिस्पर्धी के रुप में देखने की बजाय मित्र-नागरिक के रुप में देखा जाय। प्रतिभाशाली व्यक्ति लोकतंत्र की शक्ति होता है। प्रतिभाशाली व्यक्ति को  डिजिटल  युग में दाखिल कर पाते हैं तो हमारे सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक विमर्श के बुनियादी आधार में परिवर्तन हो आएगा। हम देखेंगे कि हठात हम जिन मसलों पर उलझते थे वे एकसिरे से अप्रासंगिक हो गए है। डिजिटल इंडिया में जाने के लिए हम यह सोचें कि डिजिटल संसार में डिजिटल उपभोक्तासमाज के साथ जाना चाहते हैं या फिर डिजिटल बौद्धिकों को भी साथ में लेकर जाना चाहते हैं। केन्द्रसरकार की संचारनीति का मुख्य जोर डिजिटल उपभोक्तावाद पर है। इन नीतियों के केन्द्र में सेवाक्षेत्र और सेवकक्षेत्र है,बौद्धिकों का क्षेत्र इसके लक्ष्य से बाहर है।
         आभासी संसार का कोई भी परिप्रेक्ष्य स्थानीय संरचनाओं और तकनीकी सचेतनता पर आधारित है। भारत की लेखकीय दुनिया किस तरह की तकनीकीचेतना की अवस्था में है इस पर बहुत कुछ निर्भर करता है कि आभासी संसार किस तरह की समस्याओं से मुखातिब है। स्थिति यह है कि कम्युनिकेशन के कम्प्यूटरजनित रुपों के इस्तेमाल के मामले में लेखक-शिक्षक सबसे पीछे हैं, कायदे से इनको आगे होना चाहिए। हमारे यहां यह विलक्षण स्थिति है कि जो जितना ज्ञानी है,वह उतना ही कम्प्यूटर और डिजिटल सर्जना से दूर है। सचेतन लोगों का दूर रहना अपने आपमें बड़ी चुनौती है। वे दूर क्यों हैं ? इसके पीछे क्या कारण हैं ? सबसे पहले उसकी खोज करने की जरुरत है।भारतीय लेखक का मनोजगत और उसके दैनंदिन अभ्यास में पुरानी लेखकीय आदतें रुढ़िबद्ध हैं। इनके प्रति वह संरचना के स्तर पर संघर्ष नहीं करता। उसमें परिवर्तन की इच्छा का अभाव है।
  आभासी संसार के आने के बाद भाषाओं के साथ सबसे बड़ी दुर्घटना घटी है। भाषा का पहले कोई मालिक नहीं होता था लेकिन अब भाषाओं के मालिक संगठन का उदय हो गया है। इसे ‘यूनीकोड कंस्टोरियम’ कहते हैं। इसमें Adobe Systems, Apple, Google, IBM, Microsoft, Oracle Corporation, Yahoo! and Oman’s Ministry of Endowments and Religious Affairs सदस्य हैं। इसमें कोई भारतीय कंपनी नहीं है और नकोई भारतीय वैज्ञानिक इसके बोर्ड का सदस्य है। लेकिन संस्थान के रुप में भारत इसका सदस्य है। लेकिन भारत का कोई प्रतिनिधि उसकी सूची में नहीं है।
   हिन्दी में वेबसाइट कल्चर का क्रमशःविकास हो रहा है,प्रयोजनमूलक कम्प्यूटर शिक्षा का भी विकास हो रहा है । लेकिन बाधाएं भी अनेक हैं,ब्लॉगिंग और वेबसाइट की मदद करने वाली संस्थाओं का अभाव है, हिन्दी वेबसाइट के प्रमोशन में व्यापार-जगत की कोई दिलचस्पी नहीं है। जबकि स्थानीय स्तर पर इस तरह के मददगार बनाए जा सकते,आर्थिक संसाधनों के अभाव में वेबसाइट को बनाए रखना अपने आप में बड़ी चुनौती है।  दूसरी बड़ी चुनौती है वैविध्यपूर्ण सामग्री के धारावाहिक फ्लो की। कायदे से भारत सरकार और विभिन्न राज्य सरकारों को,खा,कर छत्तीसगढ़ की सरकार को अपने सभी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में सभी के लिए वाई-फाई की सुविधा देनी चाहिए,साथ ही विभिन्न विषयों के विभागों के वेबसाइट निर्माण के लिए नियमित आर्थिक मदद देनी चाहिए।साथ ही वेबप्रकोष्ठ भी बनाया जाय। सभी विभागों की शोध पत्रिकाओं को नेट पर होना चाहिए।
    विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के द्वारा पहल करके विभिन्न विषयों पर नई-पुरानी सामग्री के अपलोड करने की नियोजित स्कीम बनाकर लागू की जानी चाहिए। हम यदि डिजिटल इंडिया में जाना चाहते हैं तो यह अनिवार्य करें कि विभिन्न विश्वविद्यालयों की वेबसाइट पर विभिन्न विषयों की भारत के लेखकों,समाजविज्ञानियों,वैज्ञानिकों आदि की किताबें –निबंध और पाठ्य सामग्री उपलब्ध हों। फिलहाल दशा यह है कि जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय की वेबसाइट तक दरिद्रतम रुप में है। कायदे से सभी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में वाई-फाई की सुविधा हो, प्राइमरी से लेकर विश्वविद्यालय तक के सभी शिक्षकों को मुफ्त नेट कनेक्शन दिया जाय। साथ ही प्रत्येक स्कूल-कॉलेज-विश्वविद्यालय की वेबसाइट हो, वहां शिक्षकों-छात्रों के मुफ्तलेखन के वॉल हों।
       प्राचीन रचनाओं को नेटलूट से बचाने के लिए भारत सरकार,लेखक संगठन और प्रकाशक संगठन मिलकर प्रयास करें वरना हमारी समस्त रचनाएं अमेरिकी दूरसंचार कंपनियों खासकर गूगल के स्वामित्व में चली जाएंगी। यह दुर्भाग्यजनक है कि हमने इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया है। इस प्रसंग में सबसे पहला कदम यही हो सकता है कि भारत अपना सर्चइंजन तैयार करके उपलब्ध कराए। साथ ही साइबर कानूनों का जनहित में पुनर्मूल्यांकन किया जाय। इसी प्रसंग में बौद्धिकसंपदा अधिकार कानून की नए सिरे से समीक्षा की जानी चाहिए।
     गूगल ने 16दिसम्बर2014 से स्पेनिश गूगल न्यूजसेवा को स्थायी तौर पर बंद करने की घोषणा की है। यह घोषणा स्पेनिश बौद्धिक संपदा कानून में लाए गए परिवर्तन के कारण करनी पड़ी। स्पेन ने किसी लिंक और समाचारलेख से जुड़ी सामग्री के प्रकाशन को एकदम फ्री करने का फैसला किया है। जबकि गूगल इसके लिए पैसे लेता था। खासकर न्यूजलाइन एग्रीगेटर में मुफ्त इस्तेमाल करने का प्रावधान कर दिया है। उल्लेखनीय है गूगल लिंक शेयर करने और न्यूजलेख शेयर करने का चार्ज वसूल करता है। उल्लेखनीय है जर्मनी ने 2013 में इसी तरह का कानून बनाया था लेकिन गूगल के दबाव के कारण वे मुफ्त शेयर करने वाले प्रावधान को लागू नहीं कर पाए और गूगल को भुगतान करते रहे। हमें भारत के संदर्भ में इस पहलू की जांच करने की जरुरत है कि क्या न्यूजसेवा के जरिए लिंक और न्यूजलेख शेयर करने पर गूगल को भुगतान करना पड़ता है ?
       आभासी संसार में शब्द सर्जना का नया दौर डिजिटल बुक के साथ आरंभ होगा। हमें देखना चाहिए कि इसका क्या असर होगा ? क्या इससे किताब पढ़ने की आदत कम होगी ? क्या इससे पाठक की रीडिंग आदत का सार्वजनिक उदघाटन हो जाएगा तो पाठक पर कोई बुरा असर पड़ेगा? क्या इससे पाठक को संकलित की गयी सूचना पर वर्चस्व स्थापित करने का मौका मिलता है ? डिजिटल बुक पढ़ने की सूचना सार्वजनिक होने से क्या रीडिंग आदत पर कोई बुरा असर होता है ? अभी तक विचार की प्राइवेसी हुआ करती थी लेकिन डिजिटल बुक आने के बाद उसकी प्राइवेसी खत्म हो गयी है,यह प्राइवेसी हमारी अभिव्यक्ति की आजादी,विचार और खोज का हिस्सा थी। विचार की यदि प्राइवेसी नहीं होगी तो विचारों का विकास संभव नहीं है। यह हम सब जानते हैं कि मार्क्स,लेनिन, माओ,स्टालिन आदि के विचारों को पढ़ने के कारण पाठक के घरों पर छापे पड़े हैं,सजाएं तक हुई हैं,खासकर अमेरिका से लेकर भारत तक यह स्थिति देखने में आती है। यदि किसी के घर माओवादी सामग्री मिल जाय या किसी प्रतिबंधित संगठन की सामग्री मिल जाय तो पुलिस परेशान करना आरंभ कर देती है। अमेरिका-ब्रिटेन आदि में तो हालात यहां तक खराब हैं कि लाइब्रेरी आने-जाने वालों का रिकॉर्ड मगाकर देखा जा रहा है कि लाइब्रेरी में कौन सा पाठक किस तरह की किताबें पढ़ता है या लेता है।इसके आधार पर उसके खिलाफ कार्रवाई हो रही हैं। पिछले दिनों एक भारतीय को बम से संबंधित किताबें पढ़ने,वेबसाइट देखने के कारण 25साल की सजा ब्रिटेन की अदालत ने सुना दी थी,जबकि उस लड़के का किसी आतंकी संगठन से कोई संबंध नहीं था।
   अभी हालात यह  हैं कि आप दुकान पर जाइए चुपचाप किताब खरीदो और चलते बनो, लेकिन इंटरनेट पर यह मुसीबत है कि आपके पीछे लोग लगे रहते हैं, क्या पढ़ रहे हो,कहां से पढ़ रहे हो।फोलो करते रहते हैं। इसके कारण यूजर को अनेक मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है, अनेक देशों में प्रतिबंधित साहित्य को पढ़ने वालों पर सख्त कार्रवाई हुई है। डिजिटल बुक में पाठक की पढ़ने की आदत गुप्त नहीं रहती, आप किसी भी पाठक की रीड़िंग आदत का विश्लेषण कर सकते हैं,पता कर सकते हैं कि वह कहां क्या पढ़ रहा है।जबकि पुराने ढ़ांचे में पढ़ने की आदत गुप्त रहती थी।  आप एकबार डिजिटल बुक की दुनिया में दाखिल हुए तो फिर दूरसंचार कंपनियां आपका पीछा करती रहती हैं कि कहां और क्या पढ़ रहे हो ,कहां से किताब ले रहे हो आदि।
     डिजिटल बुक खोजते समय अपनी पढ़ने की प्राइवेसी का ख्याल रखें ऐसी किसी भी वेबसाइट पर डिजिटल बुक न पढ़ें जो आपसे रजिस्ट्रेशन की मांग करती हो या आपकी कोई निजी जानकारी मांगती हो। ऐसी वेबसाइट पर जाएं जो पाठक की पहचान को जानने की कोशिश न करे, गुमनाम ढ़ंग से किताब पढ़ना जरुरी है,इससे आपको अपनी प्राइवेसी बचाने में मदद मिल सकती है। आपकी निजी सूचनाएं सुरक्षित रह सकती हैं। अनेक वेबसाइट हैं जहां डिजिटल बुक के साथ अनेक फीचर जुड़े होते हैं जिनकी हम उपेक्षा करते हैं और नहीं जानते कि इन फीचर का मतलब क्या है । मसलन् किंडल के जरिए सन् 2009 में अमाजॉन की किताब डाउनलोड करते समय यह पाया गया कि वहां एक ऐसा ही फीचर था जिसके जरिए अमाज़ान ने यूजर की सूचनाएं एकत्रित कर ली थीं, यह हाल सोनी 2005 में सोनी ने किया था वह अपनी साइट से डाउनलोड करने वालों की सूचनाएं एकत्रित करता रहा और इसके जरिए उसने यूजर की संगीत सुनने की आदतों और संगीत की प्राथमिकताओं को पता कर लिया .
 मुख्य बिंदु – अमेरिकी विदेशनीति के अंतर्ग्रथित अंश के तौर पर इंटरनेट स्वाधीनता की मांग अमेरिका कर रहा है । चीन -ईरान आदि देशों के संदर्भ में ।साथ ही सोशलमीडिया की आजादी की माँग की जा रही है ।आज फेसबुक और ट्विटर को अमेरिका राजनीतिक औजार की तरह इस्तेमाल कर रहा है ।
         इंटरनेट पर एक खास किस्म का अधिनायकवाद चल रहा है । मसलन राज्य बनाम राज्यविरोधी , पश्चिमपरस्त बनाम पश्चिमविरोधी । इस तरह का ध्रुवीकरण आमजनता के वैविध्य और विभिन्न स्तरों की अनदेखी करता है । मसलन रुस,चीन और भारत में जनता का बहुत बड़ा वर्ग है जो नव्य उदारीकरण का विरोधी है ।
इंटरनेट पर राष्ट्रवाद ,अतिवाद और धार्मिक फंडामेंटलिज्म की आंधी चल रही है। इंटरनेट पर हिजबुल्ला ,मुस्लिम ब्रदरहुड या संघ परिवार की अतिसक्रियता बताती है कि इंटरनेट सभी को इमपावर करता है । खासकर उन ताकतों को ज्यादा ताकतवर बनाता है जो राज्य को कमज़ोर करना चाहते हैं ।उनको शक्ति देता है जो लोकतांत्रिकीकरण के पक्ष में हैं ।
इसीतरह फेसबुक और ट्विटर सबको शक्तिशाली बनाते हैं । यह भी नहीं कह सकते कि इंटरनेट का सारा उत्पादन अच्छा है यहाँ पर बुरी चीजें भी हैं ।
           डिजिटल असमानता –
    डिजिटल समानता का आधार है डिजिटल तकनीक की उपलब्धता और अनुपलब्धता । जिनके पास डिजिटल तकनीक है , कम्प्यूटर है या मोबाइल है । इसमें भी यह देखना होगा कि ब्राडबैंड या इंटरनेट कनेक्शन है या नहीं  ? कितने के पास इनमें से क्या है और क्या नहीं है । खासकर इंटरनेट यूजर और इंटरनेट के बिना । जो इंटरनेट यूजर हैं वे संचार समृद्ध हैं और जो इंटरनेट यूजर नहीं हैं वे संचार दरिद्र हैं । अब इनमें भी देखें कि किस जाति के लोगों में इंटरनेट की खपत ज्यादा है ? पश्चिम में काले – गोरे का भेद इस प्रसंग में आया है । भारत में यह भेद नहीं है लेकिन जो सामाजिक – धार्मिक जनसंख्या है उसके आधार पर हमें देखना चाहिए । इससे डिजिटल के सामाजिक विभाजन को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं । गाँव और शहर, कस्बे या छोटे शहर और महानगर, महानगर के मध्यवर्गीय और कच्ची बस्तियों या स्लम में रहने वालों के बीच का डिजिटल भेद समझने में मदद मिलेगी ।  जातियों में भी किन जातियों में इंटरनेट का उपयोग ज्यादा है और किनमें कम है यह भी देखने की ज़रुरत है ।
कहने का तात्पर्य यह है कि भेद के जितने मौजूदा रुप हैं उनको इंटरनेट के साथ जोड़ें तो डिजिटलभेद का संसार खुल जाएगा । यह संभव है सवर्ण हो और सामाजिक भेदभाव का शिकार न हो लेकिन इंटरनेट कनेक्शन न रखता हो । असवर्ण हो और इंटरनेट कनेक्शन रखता हो तो उसे डिजिटल समृद्ध ही कहेंगे । भले ही सामाजिक जीवन में विभिन्न किस्म के भेदभाव का शिकार हो लेकिन वैसे नेट कनेक्शन रखता हो तो उसे कनेक्टेड कहेंगे । यह कनेक्टिविटी सुपरफीशियल है । नेट की दौड़ में वे ही लोग शामिल हो सकते हैं जो पहले से आर्थिक समर्थ हैं और नये कम्युनिकेशन की जिनको ज़रुरत है । मसलन ऐसे करोड़ों लोग हैं जो निजी कम्युनिकेशन में विश्वास करते हैं  और जिनको लोकल कम्युनिकेशन में ही रहना है तो वे क्यों लें नेट कनेक्शन या मोबाइल फोन ?
डिजिटल भेदभाव को कम करने का एक बडासाधन है सामुदायिक काॅलसेंटर और सामुदायिक कम्प्यूटर सेवा । इसके अलावा इंटरनेट पर मुफ्त और ओपन सोर्स साॅफ्टवेयर की उपलब्धता और नेट संसाधनों के रुप में मुफ्त ज्ञान सामग्री और लाइब्रेरी के ज़रिए डाउनलोड सुविधा ।
डिजिटल भेदभाव न हो इसके लिए जरुरी है कि ब्राडबैंड को आम जनता तक पहुँचाया जाय । कम्प्यूटर तकनीक मुफ्त में प्रदान की जाय।
विकसित देशों का डिजिटल परिदृश्य और अनुभव – 
डिजिटल भेदभाव का आलम यह है कि पाँच में एक वयस्क अमेरिकी वयस्क इंटरनेट का इस्तेमाल नहीं करता ।’ पेव इंटरनेट प्रोजेक्ट ‘ के अनुसार सन् 2011 में 94 फीसदी काॅलेज शिक्षित अमेरिकन इंटरनेट का इस्तेमाल करते  थे , किंतु इनमें 43 फीसदी हाईस्कूल तक पास नहीं थे । आॅनलाइन रहने वालों में 62फीसदी लोग ऐसे थे जिनकी सालाना आमदनी  30 हज़ार डालर सालाना थी जबकि आॅनलाइन रहने वालों में 97 फीसदी की आमदनी 70 हज़ार डालर सालाना थी । इसमें भी नस्ल ,वर्ग और जातीयता का भेद बहुत बड़ी भूमिका अदा करता है ।
‘पेव’ के सर्वे के अनुसार अमेरिका की 88 फीसदी आबादी के पास सेलफोन है, 57 फीसदी के पास लेपटाॅप है, 19फीसदी के पास ई बुक रीडर है और 19 फीसदी के पास टेबलेट कम्प्यूटर है ।  63 फीसदी अपने वायरलैस के जरिए आॅनलाइन रहते हैं ।
 जो नौजवान इंटरनेट पर नहीं जाते उनमें से आधे ने कहा है कि इंटरनेट उनके लिए प्रासंगिक नहीं है इसीलिए वे इंटरनेट पर नहीं जाते । इनमें से ज्यादातर ने कभी इंटरनेट का इस्तेमाल नहीं किया । यहाँ तक कि इनमें से अधिकांश के घर में भी इंटरनेट नहीं है । औसतन पाँच में से एक युवक ने कहा कि वे नहीं जानते कि इंटरनेट तकनीक का प्रयोग कैसे करते हैं । दस में से एक युवक ने कहा कि वो भविष्य में ईमेल या इंटरनेट का प्रयोग करेगा ।
अमेरिका में 27फीसदी युवा किसी न किसी रुप में अपाहिज हैं । जिन युवाओं में अपंगता  नहीं है उनमें से मात्र 54फीसदी ही इंटरनेट पर जाते हैं जबकि अपाहिज युवाओं 81 फीसदी जाते हैं । अपाहिज युवाओं में दो फीसदी युवा ऐसे हैं जो इंटरनेट का किसी भी तरह इस्तेमाल नहीं कर सकते ।
‘ पेव’ के सर्वे के अनुसार सन् 1995 में अमेरिका में दस में से एक वयस्क आॅनलाइन था । जबकि अगस्त 2011 में कराए सर्वे के अनुसार 78 फीसदी वयस्क और 95 फीसदी तरुण या अवयस्क आॅनलाइन पाए गए ।
एक ज़माना था जब इंटरनेट यूजर के डाटा विश्लेषण में नस्ल , पैसा ,लिंग,  अल्पसंख्यक और उम्र या शिक्षा को बुनियादी पैमाना मानकर देखा जाता था । लेकिन ‘पेव’ के नए सर्वे से पता चलता है कि अब ये पैमाने बेमानी हो गए हैं ।
सर्वे में उन कारणों की जाँच की गयी जिनके कारण सन् 2000 में पाँच में से एक अमेरिकी  वयस्क इंटरनेट का इस्तेमाल नहीं करता था । तकरीबन 54 फीसदी मानते थे कि इंटरनेट ख़तरनाक है , खासकर उम्रदराज लोग यह मानते थे ।इनकी हाईस्कूल से भी कम शिक्षा थी । तकरीबन 39फीसदी मानते थे कि इंटरनेट बड़ा खर्चीला है । खासकर 30साल से कम उम्र के ,हिस्पेनिक वयस्क मानते थे । इनकी शिक्षा हाईस्कूल से कम थी । लेकिन हाल में 2011 में कराए सर्वे से पता चला कि जो लोग इंटरनेट पर नहीं जाते उनमें से 49 फीसदी मानते हैं कि इंटरनेट उनके लिए प्रासंगिक नहीं है । वे इंटरनेट का किसी भी रुप में इस्तेमाल नहीं करना चाहते । इसके अलावा इंटरनेट का इस्तेमाल न करने वाले 21फीसदी ने कहा कि इंटरनेट खर्चीला है अतः वे नहीं जाते । तकरीबन इतने ही लोगों ने कहा कि वेइस्तेमाल करना नहीं जानते इसलिए नहीं जाते ।
‘पेव’ के सन् 2011 के सर्वे में खोज की गयी कि इंटरनेट का इस्तेमाल न करने के पीछे क्या कारण हैं ? पता चला 31फीसदी की कोई दिलचस्पी नहीं है, 12फीसदी ने कहा कम्प्यूटर नहीं है , 10 फीसदी ने कहा बहुत खर्चीला है , 9फीसद ने कहा मुश्किल है , 7फीसदी मानते हैं कि यह समय की बर्बादी है , 6फीसदी मानते हैं इंटरनेट उनके पास नहीं है , 6फीसदी ने कहा कि उनके पास सीखने का समय नहीं है ।4फीसद ने कहा कि वे सीखने के लिहाज अब काफ़ी बूढे हो गए हैं, 4फीसदी ने कहा कोई ज़रुरत नहीं है ।2फीसदी ने कहा कि नहीं जानते कैसे सीखें, 2 फीसदी अपंगता के कारण इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं ,1 फीसदी वायरस आदि के डर के  कारण इंटरनेट का इस्तेमाल नहीं करते हैं ।
     अमेरिका के बारे में यह मिथ है कि वहाँ पर सबके पास फोन है ,इंटरनेट है या मोबाइल है । सच यह नहीं है । यह सच है कि अमेरिका में आम लोगों में फोन कनेक्टिविटी बेहतर है लेकिन गाँवों या छोटे शहरों में रहने वाले कम आयवर्ग के सभी लोगों में अभी तक फोन नहीं पहुँचा है । सैंट्रल सिटी और ग्रामीण इलाकों में फोन अभी तक 79.8 फीसदी लोगों तक पहुँचा है । गाँवों में 81.6फीसदी और शहरों में 81.7 फीसदी लोगों तक पहुँचा है । गाँव के लोगों में मात्र 4.5 आबादी तक कम्प्यूटर पहुंचा है । इनमें मात्र 23.6फीसदी घरों में कम्प्यूटर है । जबकि सैंट्रल सिटी में मात्र 7.6फीसदी आबादी तक पहुँच है और इनमें मात्र 43.9फीसदी के पास कम्प्यूटर है । जबकि शहरी इलाकों में मात्र 8.1जनता के पास कम्प्यूटर पहुँचा है और इसमें भी 44.1 फीसदी के पास निजी कम्प्यूटर है ।
ग्रामीण अमेरिकी घरों में (जिनमें अमेरिकन इण्डियन आदि आते हैं ) मात्र 75.5 फीसदी के पास फोन है । ग्रामीण काले लोगों में मात्र 6.4 फीसदी के पास कम्प्यूटर है । सैंट्रल सिटी के मात्र 10.4 काले लोगों के पास कम्प्यूटर है । सैंट्रल सिटीवासी हिस्पैनिकों में मात्र 10.5 के पास कम्प्यूटर है । शहरी काले लोगों में मात्र 11.8फीसदी के पास कम्प्यूटर है । एशियाई और पेसीफिक बाशिंदों में मात्र 26.7 फीसदी के पास कम्प्यूटर है । ग्रामीण नेटिव अमेरिकन के पास सबसे कम निजी कम्प्यूटर हैं ।
सर्वोच्च 10 इंटरनेट पहुँच वाले देशों में अमेरिका सबसे ऊपर है और उसके बाद स्वीडन, डेनमार्क, स्विटजरलैंड, नाॅर्वे ,नीदरलैंड ,कनाडा ,आस्ट्रेलिया , सिंगापुर ,दक्षिण कोरिया का नाम आता है ।ये सभी समृद्ध देश हैं , कोरिया को छोड़कर ।
इसी तरह ब्रिटेन में चार में से एक वयस्क कभी भी इंटरनेट का इस्तेमाल नहीं करता ।एक तिहाई घरों में इंटरनेट कनेक्शन नहीं है । ब्रिटेन में 65साल उम्र से ऊपर के 39फीसदी लोगों के पास इंटरनेट नहीं है । सामाजिक- आर्थिक तौर पर कमज़ोर तबके के 49फीसदी लोगों के पास इंटरनेट नहीं है । सोशल हाउसिंग में रहने वाले 70 फीसदी लोगों के पास इंटरनेट नहीं या वे आॅनलाइन नहीं हैं । निचले स्तर पर रहने वाले मात्र 25 फीसदी को ही सरकारी तंत्र संपर्क कर पाता है यदि सबके साथ नेट संपर्क करे तो आर्थिकबोझ ही नहीं उठा सकती सरकार ? फलत: 75फीसदी से ज्यादा ग़रीब लोग आॅनलाइन सरकारी संपर्क के बाहर हैं । ब्रिटेन के जो लोग आॅनलाइन नहीं हैं उनमें 38 फीसदी लोग हैं जो बेरोजगार हैं ।
एक ज़माना था भारत और चीन में 50 -50मिलियन टेलीफोन उपभोक्ता थे । देखते ही देखते चीन का आंकड़ा बदल गया और भारत का आंकड़ा जस का तस बना रहा । चीन ने सालाना 25मिलियन का इजाफा किया है लेकिन उस गति से भारत अपना विकास नहीं कर पाया है । इस प्रसंग में बार बार अमेरिका का उदाहरण दिया जाता है लेकिन अभी भी वहाँ पर मात्र  65 फीसद जनता ही इंटरनेट की यूजर है वहाँ पर शत प्रतिशत का लक्ष्य सन् 2020 तक पाने का लक्ष्य रखा गया है । दूसरी बात यह कि अमेरिका में 35डालर प्रति माह इंटरनेट भाड़ा खर्च करने की स्थिति में ग्रामीण जन हैं । हमारे यहाँ तो महानगरीय मध्यवर्ग भी इतना पैसा खर्च करने की स्थिति में नहीं है ।
सारी दुनिया में कम्प्यूटर – इंटरनेट का विकास तेज़ी से हुआ है और यह देखा गया है कि सन् 1990 में विश्व के 100 में से 2.5 के पास पर्सनल कम्प्यूटर था ,सन् 2001में 100 में 9 के पास कम्प्यूटर आ गया । जबकि इंटरनेट का उपयोग करने वालों की संख्या 1990 में शून्य थी जो 2001 में बढ़कर 8.1 जनसंख्या हो गयी ।
आंकडे बताते हैं कि सन् 2001 में उत्तरी अमेरिका में 100 में 61.1कम्प्यूटर था । जबकि उस समय दक्षिण एशियाई देशों में 100 में 0.5 के पास कम्प्यूटर था । इसी तरह कम्प्यूटर की पहुँच अफ्रीकी देशों में 100 में से 1 एक के पास कम्प्यूटर था । यूरोप और सेंट्रल एशियाई देशों में 100 में 18.1 के पास कम्प्यूटर था ।
नेट लाइब्रेरी और ओपनसोर्स –
पहले इंटरनेट सामग्री के संरक्षण को लेकर अनेक असुविधाएं थीं लेकिन फिलहाल ऐसा नहीं है ।  Wayback Machine आने के बाद से एक बड़ा परिवर्तन आया है कि इंटरनेट पर जो भी चीज़ इंटरनेट लाइब्रेरी में लिखी जाती है वह स्वत: संरक्षित हो जाती है । ब्रेवस्टार ने इंटरनेट आर्काइव नामक संस्था का गठन किया और इस पर वेबक मशीन का प्रयोग आरंभ किया । इस पर लाइब्रेरी है जिसमें हज़ारों किताबें हैं । इंटरनेट आर्काइव में इस समय 150 विलियम आइटम हैं । यह गुटेनवर्ग प्रकल्प से भिन्न लाइब्रेरी है । प्रोजेक्ट गुटेनवर्ग में चालीस हज़ार ई बुक हैं । इनको मुफ्त में डाउनलोड किया जा सकता है  और किसी भी पापुलर ई बुक रुप में पढ़ा जा सकता है ।
   ओपन लाइब्रेरी की खूबी है कि यह दुनिया की अनेक लाइब्रेरी के साथ काम कर रही है और उनके केटेलाॅग को इंटरनेट पर लाए हैं । अभी तक ये 20मिलियन टाइटिल्स को स्कैन करके इंटरनेट पर दे चुके हैं । इसके अलावा 1.7 मिलियन किताबों को सार्वजनिक कर चुके हैं । यहाँ से मुफ्त में किताबें डाउनलोड की जा सकती हैं ।
 इंटरनेट प्रकाशन के तीन तत्व हैं । ये हैं स्पीड,काॅस्ट और एक्सिस । स्पीड में नकारात्मक ध्वनि भी निकलती है फास्ट फूड जैसी । यहाँ’फास्ट ‘नकारात्मक है । इसी तरह ‘फ्री’ का अर्थ है अगंभीर या चीप । इसी प्रकार एक्सिस का मतलब है जनता का सहज पहुँच के दायरे में । अकादमिक ज्ञानदाता मानते रहे हैं कि ज्ञान को जनता में नहीं समझदारी या बुद्धिमान लोगों को ही देना चाहिए। जो ज्ञान सामान्य जनता को दिया जाता है वह सस्ता और ग़ैर अकादमिक होता है ।
भारत का अनुभव –
भारत में इनदिनों लेपटाॅप बाँटकर डिजिटल भेद को कम करने की कोशिश की जा रही है। लेकिन इससे डिजिटल भेद कम नहीं होगा । डिजिटल भेदभाव कम करने के लिए जरुरी है कि युवा इंटरनेट का नियमित इस्तेमाल करें । नियमित इस्तेमाल ही है जो उनको भेद ख़त्म करने में मदद करेगा । डिजिटल भेद को ख़त्म करने के लिए आॅनलाइन रहें और कंटेंट पैदा करें । उनकी डिजिटल सार्वजनिक मंचों पर आवाज सुनाई दे ।
डिजिटल स्पेस में दो तरह के लोग हैं एक वे हैं जो आॅनलाइन हैं और दूसरे वे हैं जो आॅफलाइन हैं । जो आॅलाइन हैं वे डिजिटल असमान हैं । डिजिटल समानता के लिए आॅनलाइन होना जरुरी है । नीति निर्माताओं औरपत्रकारों के लिए आ़नलाइन कंटेंट महत्वपूर्ण और जरुरी है । किसी के पास डिजिटल गैजेट्स हैं लेकिन वो आॅनलाइन नहीं रहता तो ऐसे व्यक्ति को डिजिटल असमान की कोटि में ही रखेंगे ।
डिजिटल विभाजन अमेरिका से लेकर भारत तक वैसे ही फैला है जैसे अभाव और बेकार फैली हुई है । मसलन यूरोपीय देशों में 77फीसदी लोग नेट से जुड़े हैं जबकि अफ्रीका में मात्र 7 फीसदी लोग ही नेट से जुड़े हैं । यही हाल भारत का है । अमेरिका का सारी दुनिया में ब्राॅडबैंड की प्रति व्यक्ति में चौदहवां स्थान है । यह डिजिटल अंतराल अविकसित मुल्कों में और भी ज्यादा है ।
भारत में डिजिटल असमानता को देखने का तरीका यह भी हो सकता है कि कितने फीसदी एसीएसटी हैं जिनके पास डिजिटल गजैट्स हैं और नेट का नियमित प्रयोग करते हैं ? इसी तरह अल्पसंख्यकों और औरतों में कितने हैं जो नियमित नेट पर लिखते हैं । एक बड़ा हिस्सा है जो आॅनलाइन तो रहता है लेकिन कंटेंट निर्माण में उसकी कोई भूमिका नहीं है । हाशिए के जागरुक लोगों का कंटेंट निर्माण न करना उनको डिजिटल असमान में बनाए रखता है ।
     स्मार्ट फोन की हाल मेंखपत बढ़ी है लेकिन स्मार्ट फोन से आप १०पेज का लेख नहीं लिख सकते । डिजिटल असमानता को ख़त्म करने के लिए डिजिटल कंटेंट बनाएँ और डिजिटल उत्पादन पर नियंत्रण रखें और डिजिटल सक्रियता बनाए रखें ।
भारत में दो तरह के डिजिटल लोग हैं एक वे हैं जो स्पीडवाले नेट का इस्तेमाल करते हैं और एक वे हैं जो धीमी गति के नेट का इस्तेमाल करते हैं या जिनके शहरों में नेट बेहद धीमी गति से चलता है । जो डिजिटल समर्थ  हैं वे राकेट की गति में रहते हैं और डिजिटल असमर्थ हैं वे चींटी की गति से चलते हैं । हमें देखना चाहिए कि हाइस्पीड नेट के कितने यूजर हैं ?
      यह भी देखें  भारत में नेट कनेक्टेड सक्रिय मध्यवर्गीय कितना है ? 
अमेरिका और भारत में कम्प्यूटर के उपयोग को लेकर जो अंतर है उसे भी देखें , मसलन् , भारत में 1000 में 6 लोगों के पास निजी कम्प्यूटर है जबकि अमेरिका में 10 में से 6 के पास निजी कम्प्यूटर है । इस अंतराल का सूचना ,ज्ञान ,शिक्षा और विकास पर व्यापक असर देखा जा सकता है ।
डिजिटल भेदभाव का सीधा संबंध व्यक्ति की आय और बिजली की उपलब्धता से है । हमें देखना चाहिए प्रति व्यक्ति आमदनी क्या और वो किस किस मद में खर्च कितना पैसा खर्च करता है । इस नजरिए से देखने पर पाएंगे कि भारत में डिजिटल असमानता सभी असमानताओं से बड़ी असमानता है । मसलन प्रति व्यक्ति आय और उस आय का नियमित खर्चा किन किन मदों में होता है इसे देखना चाहिए । शहर और गाँव में किस रुप में विभिन्न मदों में खर्चा होता है और किस तरह उसका पूरे आर्थिकतंत्र पर असर हो रहाहै इसे देखने की ज़रुरत है ।
डिजिटल असमानता को आय,व्यय,बिजली,शहर,गाँव, जाति,शिक्षा और भाषा के आधार पर देखा जाना चाहिए ।
यह भी देखें कि कम्प्यूटर है तो उसकी मेंटीनेंस भी है या नहीं । दफ्तरों में एक बड़ा हिस्सा मेंटीनेंस के बिना सड़ रहा है । दूसरा यह कि कम्प्यूटर है तो इंटरनेट है या नहीं ? एक कम्प्यूटर या एक इंटरनेट कनेक्शन को कितने लोग इस्तेमाल करते हैं  ?
     भारत में स्थिति एकदम विलक्षण है । यहाँ पर टेलीफोन कनेक्शन का कुछ खास महानगरों या राज्यों में ही सबसे ज्यादा विकास हुआ है। यूएनडीपी रिपोर्ट 2001 के अनुसार 1.4 मिलियन टेलीफोन कनेक्शन में से 1.3 मिलियन कनेक्शन दिल्ली ,बंगलौर, तमिलनाडु ,दक्षिण कर्नाटक और महाराष्ट्र में ही हैं ।
      ताज़ा आंकडे बताते हैं कि दिसम्बर 2012 तक इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या 15 करोड हो जाने का अनुमान है । शहरी भारत में 10.5करोड तथा ग्रामीण भारत में साढें चार करोड इंटरनेट यूजर हैं । वर्तमान यूजरों में 9.7 करोड एक्टिव यूजर हैं । यूजरों में 48 फीसदी यूजर इंटरनेट का हर हफ्ते कम से कम 5 या 6 बार इस्तेमाल करते हैं । जबकि 28फीसदी रोज़ इस्तेमाल करते हैं ।
     ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट यूजरों की संख्या में तेज़ी से इजाफा हुआ है । सन् 2010 में गांवों में 50लाख इंटरनेट यूजर थे वहीं जून 2012 में यह संख्या बढ़कर 3.8करोड हो गयी है । आई क्यूब की रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण भारत में रहने वाले 83.3 करोड लोगों में  7करोड लोग कम्प्यूटर साक्षर हैं । इसमें से 3.8करोड यूजर हैं और  3.1 करोड सक्रिय यूजर हैं ।
   ग्रामीण भारत में 32.3करोड मोबाइल धारकों में 36लाख ग्रामीण इंटरनेट का मोबाइल पर इस्तेमाल करते हैं ।   इसके अलावा भारतीय भाषाओं का प्रयोग बढ रहा है । अभी79 फीसदी लोग अंग्रेजी भाषा का इस्तेमाल करते हैं ।
जबकि हिंदी इस्तेमाल करने वालों की संख्या 32 फीसद हो गयी है ।
आज भी लोग इंटरनेट सेवाओं को हासिल करने के लिए अपने घर से दस किलोमीटर दूर जाकर ही साइबर कैसे आदि की सेवाओं का उपयोग कर पाते हैं ।
इंटरनेट और विकास- 
  इंटरनेट का हमारी अर्थव्यवस्था के विकास में बहुत बड़ा योगदान है । भारत के सकल घरेलू उत्पाद में इंटरनेट का 30विलियम डालर का योगदान है । आगामी तीन सालों में यह बढ़कर 100 विलियन डालर हो जाएगा । यानी कुल जीडीपी का 1.6फीसद है जो सन् 2015 तक विकसित होकर 3.3 फीसद हो जाएगा । इसके कारण इंटरनेटजनित अर्थव्यवस्था शिक्षा और स्वास्थ्य से भी बड़ी अर्थव्यवस्था हो जाएगी ।
      सन् 2015 तक इंटरनेटजनित उद्योग में 22मिलियन लोगों को नौकरी मिलेगी । मैंकेजीकी रिपोर्ट के अनुसार भारत में पीसी की पहुँच अभी 1000 लोगों में मात्र 48 के बीच है । यह अर्जेंटीना,मैक्सिको और वियतनाम से भी नीचे है । यानी सारी दुनिया में 57वें नम्बर पर हैं ।
डिजिटल असमानता को परखने के पैमाने – 
डिजिटल असमानता के तीन बड़े रुप हैं पहला, विकसित और अविकसित देशों के बीच डिजिटल असमानता , दूसरा एक ही देश में असमानता और तीसरा डिजिटल यूजरों के बीच असमानता ।
डिजिटल असमानता को देखने के लिए हम देखें कि प्रथम, क्या यूजर आर्थिक तौर सक्षम है और इंटरनेट आदि का खर्चा उठा सकता है ? दूसरा ,क्या  यूजर ज्ञानात्मकतौर पर सक्षम है ? क्या कम्प्यूटर और इंटरनेट के उपयोग के तरीकों को बेहतर ढंग से जानता है ? तीसरा ,क्या यूजर के इस्तेमाल के लिए इंटरनेट पर पर्याप्त सामग्री है ? चौथा , क्या यूजर जानता है कि उसके पास राजनीतिक संरचनाओं और सत्ता की संरचनाओं का वह इंटरनेट पर किस तरह इस्तेमाल करे ? किस तरह कम्युनिकेट करे ? पाँचवा , यूजर की शिक्षा और ज्ञान का स्तर किस तरह का है और वह इसका सही उपयोग जानता है कि नहीं ? छठा , किसी समुदाय विशेष के ईज्ञान को जानने के लिए उसकी भाषा ,शिक्षा , साक्षरता और संस्थान संरचनाओं और सूचना और तकनीक के इस्तेमाल के स्तर का ज्ञान होना चाहिए । यानी डिजिटल असमानता को समझने के लिए समग्र नजरिए की ज़रुरत है । किसी एक पहलू पर केन्द्रित होकर देखने से डिजिटल असमानता को देख ही नहीं सकते ।
      इसके अलावा यूजर की तकनीकी क्षमता या कौशल की भी बडी भूमिका होती है । मसलन् जो तकनीक उपयोग में लायी जा रही है उसका तकनीकी स्तर क्या है ? तकनीक के उपयोग की कितनी स्वतंत्रता और स्वायत्तता है ? सामाजिकतौर पर किस तरह की मदद मिल सकती है और किस तरह के नेटवर्क मदद के लिए उपलब्ध हैं ? तकनीक के इस्तेमाल का स्तर क्या ? ये चार बड़े कारक हैं जिनके आधार पर तकनीकी क्षमता का अनुमान किया जा सकता है ।
औरतों के संदर्भ में – 
  यह सच है  कि बाज़ार में सबसे बड़ी क्रेता औरतें हैं लेकिन कम्प्यूटर की सबसे बड़ी यूजर अभी औरतें नहीं हैं । अधिकांश औरतें अभी भी इंटरनेट और कम्प्यूटर के दायरे के बाहर हैं । तीन-चौथाई औरतों ने तो अभी बटन तक नहीं पकड़ी है । हाल ही में अमेरिका में पहलीबार ऐसा हुआ है कि पुरुषों की तुलना में औरतों की संख्या में औसतन इजाफा हुआ है। एशिया में भी पुरुष समुदाय बड़ा यूजर है इंटरनेट का । मसलन औरतें बहुत कम ईमेल रखती हैं । औरतें जितनी मोबाइल फोन और इंटरनेट सेवाओं को जानेंगी या इनका उपयोग करेंगी उतना ही वे अभिव्यक्ति और गतिशीलता के मामले में सक्रिय होंगी । औरत की सक्रियता और पहचान को निर्मित करने और उसे सूचना संपन्न बनाने में यह माध्यम बहुत बड़ी भूमिका अदा कर सकता है । यहाँ तक कि उसकी बाज़ार संबंधी समझ बनाने और अच्छा क्रेता बनाने में भी मददगार हो सकता है । स्त्री के सबलीकरण में संचार की बड़ी भूमिका रही है। स्त्री को अपनी बात संप्रेषित करने के अत्याधुनिक उपकरण और परिवेश मुहैय्या कराना समाज का दायित्व है और इसमें सरकारों की बड़ी भूमिका हो सकती है ।
ब्लाग के फ़ायदे –
ब्लाॅग  ने सहभागिता और सामाजिक लेखन को बढ़ावा दिया है और एक नए किस्म की संस्कृति पैदा की है । कम्युनिकेशन के रुप में लेखक और पाठक का नया संबंध बना है जो पाठक है वह लेखक भी है और अपने विचार रीयलटाइम में दे सकता है । ब्लाॅग लेखन में गद्य या पद्य के अलावा या यों कहें शब्दों के अलावा अनेक मीडिया रुपों का भी उपयोग किया जा सकता है । कृति के इस्तेमाल के प्रति पुराना नज़रिया बदला है । आप मेरे लेखन का इस्तेमाल करें मैं आपके लेखन का इस्तेमाल करूँ । यह लेखन में खुले,पारदर्शी और सहभागी लेखनयुग के आगमन की सूचना है ।
ब्लाॅग में शोध कार्यों के लिए भी इस्तेमाल की अनंत संभावनाएं हैं । शोधार्थी अपना ब्लाॅग बनाएँ और इसमें सहपाठी मित्रों को शामिल करें। साहित्य का शिक्षक होने के नाते मैं नए मीडिया की उपेक्षा नहीं कर सकता। नया मीडिया नई संवेदनशीलता और नए दृष्टिकोण की माँग करता है। पुराने नज़रिए से नया मीडिया बहुत कम समझ में आएगा। यह मीडिया शेयरिंग पर निर्भर है। शेयरिंग और अनौपचारिकता के बिना नया मीडिया अर्जित करना संभव नहीं है। पुरानी लेखकीय आदतें इस माध्यम में मदद नहीं करतीं।
  डिजिटल युग में आलोचना- 
नए युग में निजी अनुभव और व्यक्तित्वकेन्द्रित लेखन आ रहा है। सवाल यह है कि इसे आलोचना में रुपान्तरित कैसे करें ? यह एक तरह का अनौपचारिक लेखन भी है, निजी अनुभव और निजी नज़रिए को  महान बताया जा रहा है, जबकि बेहतर लेखन वह है जो अन्य के नज़रिए की कसौटी पर खरा उतरे ।इंटरनेट के आने के बाद लेखक-पाठक का नया संबंध पैदा हुआ है।नए संबंध की रीयलटाइम कम्युनिकेशन ने प्रकृति तय की है। पहले लेखक का पाठक से लिखने के बाद संबंध ख़त्म हो जाता था । लेकिन नए दौर में पाठक कभी भी लेखक से संपर्क कर सकता है,और अपनी राय कह सकता है। (जगदीश्वर  चतुर्वेदी  का रायपुर साहित्यमेला में 14दिसम्बर 2014 को दिया गया भाषण)

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यह संयोग है कि शिव सेना नेता बालठाकरे की मौत का कवरेज खत्म हुआ और कसाब की फाँसी का कवरेज आरंभ हुआ। ठाकरे के कवरेज ने हिन्दुत्व को महिमामंडित किया और उनके मुस्लिम विरोधी नजरिए को निजी गुणों की जय-जयकार के कोलाहल के जरिए छिपाया गया। इस तरह की प्रस्तुतियों के जरिए कारपोरेट मीडिया और खासकर टी.वी. न्यूज चैनलों की दिषा पहले से तय हो चुकी थी। कसाब को फाँसी दिए जाने पर एक नेता ने टी.वी. पर कहा कि कसाब को फाँसी पर लटकाकर केन्द्र सरकार ने बाल ठाकरे को बेहतरीन श्रद्धांजलि दी है। यह सच है कि 26/11 की घटना बड़ी आतंकी घटना थी। उसमें जितने बड़े पैमाने पर जन-धन की क्षति हुई और शिव सेना आम लोगों की भावनाओं को आघात पहुँचा उसकी भरपाई किसी भी तरह संभव नहीं है। कसाब को फाँसी दिए जाने के संदर्भ में कई बातें हैं जिन पर गौर किया जाना चाहिए। पहली बात यह है कि कसाब को फाँसी एक न्यायिक प्रक्रिया के तहत दी गई है। यह अकस्मात् घटित घटना नहीं है। फाँसी को सुरक्षा कारणों से गुप्त रखा गया था। हमारे अनुसार सुरक्षा कारणों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है मीडिया का उपद्रव। सरकार ने मीडिया उपद्रव से बचने के लिए कसाब की फाँसी की प्रक्रिया को मीडिया से छिपाया। लेकिन कसाब के घर वालों से लेकर पाक सरकार तक, भारत के राष्ट्रपति से लेकर सेशन जज तक सबको मालूम था कि फाँसी कब दी जाएगी। यह फाँसी इस मायने में महत्वपूर्ण है कि पहली बार किसी आतंकी को स्वतंत्र भारत में फाँसी दी गई। पंजाब, कश्मीर से लेकर उत्तर-पूर्व के राज्यों तक सक्रिय आतंकियों में से आज तक किसी को फाँसी की सजा नहीं दी गई। कसाब की फाँसी का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है इसमें शामिल इंटरनेट प्रमाण। इन प्रमाणों के आधार पर ही भारत की सुरक्षा एजेंसियाँ यह सुनिष्चित कर पाईं कि आखिरकार कैसे और किस तरह आतंकियों के तार पाकिस्तान से जुड़े हैं। पाक में भी कौन से आतंकी और आई.एस.आई. के कौन से अधिकारी के निर्देष पर मुंबई हमला संपन्न किया गया। इस काम में अमरीकी संस्थाओं और एफ.बी.आई. ने भारत सरकार की मदद की और अदालत में आकर उनके अधिकारियों ने इंटरनेट प्रमाणों की पुष्टि भी की। इस घटना के बाद भारत सरकार की नींद टूटी और इंटरनेट फ्लो और सक्रियता की नजरदारी करने और समस्त दूरसंचार कम्युनिकेशन की राजनैतिक नजरदारी को नए सिरे से नियोजित किया गया।
कसाब की फाँसी का एक अन्य पहलू यह भी है कि संभवतः यह पहला आतंक विरोधी मुकदमा था जिसे कम समय में उसके अंजाम तक पहुँचाया गया। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि मुंबई की घटना के बाद पाकिस्तान का आतंकियों के साथ आंतरिक अंतर्विरोध तेज हुआ है और अमरीका का भारत के प्रति नजरिया बदला है।
मुंबई की 26/11 की घटना सामान्य आतंकी घटना नहीं थी। वह कई मायनों में सुरक्षा और कम्युनिकेशन के क्षेत्र में मूलगामी परिवर्तनों को लाने का बहाना बनी। जब यह घटना हुई तो उस समय टी.वी. चैनलों की बाढ़ आ चुकी थी और चैनलों ने मनमाने ढ़ंग से टी.वी. कवरेज दिखाया था। यहाँ तक कि पाक स्थित एक आतंकवादी के एक चैनल ने लाइव इंटरव्यू तक प्रसारित किया था। बाद में सरकारी दबाव में उस चैनल को प्रसारण रोकना पड़ा और मुंबई में न्यूज चैनलों के प्रसारण को रोका गया था। उस समय यह तथ्य सामने आ चुका था कि भारत के टी.वी. चैनलों के पास आतंकी कार्रवाई को कवरेज करने का अभी तक हुनर विकसित नहीं हुआ है। ठीक यही वह समझ है जिसके तहत भारत सरकार ने कसाब की खबरों को सेंसर करके रखा और फाँसी दिए जाने के बाद ही बताया कि कब फाँसी दी गई। इसके बाद न्यूज चैनलों में फाँसी के कवरेज को लेकर प्रतिस्पर्धा आरंभ हो गई। कसाब के टी.वी. कवरेज को समग्रता में पहले से चले आ रहे बालठाकरे की मृत्यु के हिन्दू न्यूज फ्लो के संदर्भ में देखने की जरूरत है। पहले मीडिया ने एक हिन्दुत्ववादी नेता को नायक बनाया और उसकी समस्त पृथकतावादी-साम्प्रदायिक राजनीति की, व्यक्तिगत गुणों की भूरि-भूरि प्रशसा करके एक तरह से वैधता प्रदान की। बाद में कसाब का कवरेज देते समय प्रच्छन्नतः आतंकवाद का महिमामंडन किया। इस क्रम में चैनलों ने सरकार के फैसले की गोपनीयता और प्रक्रिया पर हमले नियोजित किए और उन लोगों को व्यापक स्पेस दिया जो कसाब की सरेआम फाँसी देखना चाहते थे या जो लोग सरकार के प्रयासों से सहमत नहीं थे। आष्चर्य की बात यह है कि चैनलों में एकसिरे से गृहमंत्रालय का कोई अधिकारी नजर नहीं आया और सिर्फ केन्द्रीय गृहमंत्री, महाराष्ट्र के गृहमंत्री और मुख्यमंत्री के बयान थे। कुछ पुलिस अधिकारियों के भी बयान थे।
इस खबर का क्रम कुछ इस प्रकार रखा गया-पहले खबर आई कि राष्ट्रपति ने फाँसी माफ करने का आवेदन खारिज कर दिया है। बाद में सीधे फाँसी की खबर और अंत में कसाब की फाँसी पर टुकड़ों में खबरें और मंत्रियों के बयान के बाद पुरानी फाइलें और पुरानी यादें और सरकार की विफलता का राग। कायदे से जब यह खबर आई कि राष्ट्रपति ने फाँसी की सजा माफ करने का आवेदन खारिज कर दिया है तो सीधे एक्षन तय था, उसमें विलम्ब नहीं किया जा सकता था। लेकिन किसी भी चैनल ने यह जानने या बताने की कोषिष नहीं की कि कसाब को फाँसी कब लगेगी? किसी भी चैनल ने केन्द्रीय गृहमंत्रालय का दरवाजा नहीं खटखटाया और ना ही कोई महाराष्ट्र के गृहमंत्री के पास पहुँचा। जबकि पाक में कसाब के घरवालों को संदेश जा चुका था, पाक को मैसेज जा चुका था। लेकिन हमारा मीडिया सरकारी भक्त की तरह चुपचाप देखता रहा, उसे यह खबर तब हाथ लगी जब फाँसी की कार्रवाई संपन्न हो गई। फाँसी लगाए जाने के बाद पुरानी फाइलों,क्लीपिंग आदि की मीडिया वर्षा आंरंभ हो गई। इस क्रम में चैनल भूल गए कि फाँसी दण्ड है, यह उत्सव नहीं है। न्यूज चैनलों ने फाँसी को दण्ड के दायरे से निकालकर गली-मुहल्ले की तू-तू मैं-मैं के टाॅकषो में बदल दिया। इस क्रम में मध्यवर्ग में पनप रही बर्बर मनोदषा के रूप भी सामने आए। यह सच भी सामने आया कि मध्यवर्ग के ज्ञानी-गुणी-स्वयंभू लोग लोकतंत्र के बजाय फासिज्म और फंडामेंटलिज्म के गुणों के प्रति ज्यादा आकर्षित हैं। वे फास्टफूड की फास्ट न्याय, तालिबानियों की तरह सरेआम फाँसी की माँग करने लगे। कसाब को फाँसी दी गई ,यह खबर थी, महाखबर नहीं थी। किसी खबर को जब महाखबर, उत्सव या मनोरंजन या आनंद में तब्दील कर दिया जाता है तो वह खबर का अर्थ खो देती है। इस अर्थ में टी.वी. चैनलों ने कसाब की खबर को प्रसारण के साथ ही मार डाला। यानी भारत सरकार की आतंकवाद विरोधी मुहिम में छेद कर दिया। यह प्रकारान्तर से आतंकवादी कसाब की सेवा है। कसाब को जितना स्पेस टी.वी. चैनलों ने दिया है उसकी तुलना में आतंकवाद विरोधी नजरिए को उतना स्पेस नहीं मिला। टी.वी. में स्पेस महत्वपूर्ण होता है, फलतः कसाब मरकर भी चैनलों में अमर हो गया।
कसाब के प्रसंग में यह प्रसंग भी जरूरी है कि उस पर कितना खर्चा आया। कुल मिलाकर 29.5 करोड़ रूपये का खर्चा आया, इसमें कसाब के खाने पर चार साल में 42,313 रूपये, कसाब के कपडों पर 1,878 रूपये और चिकित्सा पर 39,829 रूपये मात्र खर्च किए गए। इसके अलावा जो भी खर्चा है वह सुरक्षा आदि मामलों पर किया गया है।
-जगदीश्वर चतुर्वेदी

लेखक-कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं।

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दूसरा फ्रंट है भारत-अमरीका संयुक्त व्यापार संगठन, इस संगठन के द्वारा लिए गए तमाम फैसलों को हरित क्रांति के बहाने थोपा जा रहा है। इस कौंसिल के अनेक नीतिगत फैसलों ने कृषि क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय निगमों का दबाब बढ़ा दिया है। तीसरा बड़ा नीतिगत फैसला बीज के क्षेत्र में 1987 में लिया गया। इसके तहत बीज के क्षेत्र में सरकारी आधिपत्य की समाप्ति कर दी गई और बीज के क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय निगमों के प्रवेश का रास्ता साफ कर दिया गया। अभी जिस बीज बिल को संसद के सामने पेश किया गया है वह सीधे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों की हिमायत करता है। तमाम संशोधनों के बाद भी इस बिल का रुझान निजी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ओर बना हुआ है। यह बिल किसानों को बीज के संरक्षण, उत्पादन, विनिमय, साझेदारी आदि का हक नहीं देता। इसमें राज्य सरकारों की भूमिका को हाशिये पर डाल दिया गया है। साथ ही बीज के क्षेत्र में सार्वजनिक क्षेत्र की मजबूत भूमिका को सुनिश्चित नहीं करता। यह बिल मूलतः बीज के अ-राष्ट्रीयकरण की दिशा में उठाया गया बड़ा कदम है। उदारीकरण की नीतियों को लागू किए जाने के कारण खाद के उत्पादन के मामले में तेजी से गिरावट आई है। खाद के मामले में सरकारी क्षेत्र के तंत्र को तोड़ने के सुनियोजित प्रयास किए गए हैं। खाद उत्पादन की क्षमता बढ़ाने के काम को विदाई दे दी गई है। सात क्षेत्रों में खाद का उत्पादन बंद कर दिया गया है। सरकार ने खाद सब्सीडी को किसानों को न देकर सीधे खाद कारखानों को देने का फैसला किया है इससे मझोले और छोटे किसानों को सीधे नुकसान होगा।
इन दिनों मीडिया में केन्द्र सरकार की एक नीति और कार्यक्रम के बारे में सबसे ज्यादा प्रचार हो रहा है, वह है “मनरेगा” यानी महात्मा गांधी अनिवार्य ग्रामीण रोजगार योजना,। इस कार्यक्रम को जिस फैशन और मीडिया हाइप के साथ पेश किया जा रहा है और कांग्रेस के नेता इस पर जिस तरह जोर दे रहे हैं उतना वे उसके दुष्परिणामों के बारे में नहीं बता रहे। इस योजना को लागू करने का कृषिक्षेत्र पर सीधा असर यह होगा कि छोटी जोत के किसानों और मझोले किसानों को खेतों में फसल के समय काम करने वाले मजदूर ही नहीं मिलेंगे। इससे धीरे-धीरे मझोले और छोटी जोत के किसानों का खेती से पलायन और विस्थापन आरंभ हो जाएगा। इसके अलावा जो इलाके या राज्य तथाकथित हरित क्रांति के गढ़ माने जाते हैं वहाँ पर भी खेती के समय माइग्रेटेड मजदूर नहीं आ पाएँगे, इन माइग्रेटेड मजदूरों के जरिए ही बड़े पैमाने पर हरित क्रांति संभव हुई है। सरकार ने मनरेगा के तहत जो योजना बनाई है उसमें मजदूरों को कृषि के बजाय सड़क निर्माण और इंफ्रास्ट्रक्चर के कामों में लगाने को प्राथमिकता दी है। फलतः कृषि के लिए फसल के समय मजदूरों की कमी होती चली जाएगी, और धीरे धीरे कृषि उत्पादन में गिरावट आएगी, जमीनें बिकेंगी, खेत मजदूरों की संख्या बढ़ेगी और भूमि के स्वामित्व का केन्द्रीकरण बढ़ेगा। मूल बात यह है कि इससे गाँवों में पामाली बढ़ेगी। कायदे से केन्द्र सरकार को इस योजना के तहत कृषि उत्पादन के काम को शामिल करना चाहिए। मसलन् फसल बोने और कटाई के समय मजदूरों की उपलब्धता बनाए रखने पर ध्यान देना होगा। साथ ही माइग्रेषन को एकदम रोकने का अर्थ भयानक हो सकता है। बहुराष्ट्रीय कृषि कंपनियों का सरकार पर दबाब है कि मनरेगा को सख्ती से लागू किया जाए जिससे उन्हें व्यापारिक लाभ हो सके। आँकड़े बताते हैं कि मनरेगा में काम करने वाले मझोले और छोटी जोत के किसान हैं और उनमें 42 फीसदी अब खेती नहीं करना चाहते। इसका अर्थ यह भी है कि भारत को अपनी जरूरत का गेहूँ आदि खाद्य विदेशों से मँगाना पड़ेगा। मनरेगा यदि ईमानदारी से लागू हो गया तो हरित क्रांति के विगत 40-45 सालों में जितने भी लाभ देश ने उठाए हैं वे सारे खत्म हो जाएँगे। हमें ऐसी नीति बनानी चाहिए जिससे कृषि बचे और मनरेगा भी बचे। मनरेगा को महज दैनिक मजदूरी का विकल्प बनाने के बजाय कृषि उत्पादन बढ़ाने का विकल्प बनाना चाहिए। कृषि में आर्थिक अवस्था बेहद खराब है हमें उसको दुरुस्त करने के उपाय करने चाहिए। मसलन् पंजाब के किसानों में 89 प्रतिशत खेती करने वाले किसान कर्ज में डूबे हुए हैं। पंजाब में कृषि करने वाले परिवारों की आय में बढ़ोत्तरी नहीं हो रही है इसके कारण युवाओं में खेती का आकर्षण घट रहा है।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण 2003-04 के अनुसार लंबे समय से कृषक परिवार की मासिक आय 3,400 रूपये पर अटकी हुई है। यह आय बढ़े इस ओर कोई नीतिगत पहलकदमी सामने नहीं आई है। किसान को आमदनी बढ़ाने के लिए नगदी फसल पैदा करने के लिए कहा जा रहा है। लेकिन इसके चलते खाद्यसंकट पैदा हो सकता है। नगदी फसलें पैदा करने से देश और किसान का समग्रता में कोई फायदा नहीं होता। इसके अलावा प्राइवेट कंपनियों के लिए ठेके पर मजदूरी करने का भी पंजाब के किसानों का बड़ा बुरा अनुभव रहा है। कंपनियों के खेतों में ठेके पर काम करने वालों में कम जोत वाले किसानों की संख्या ही सबसे ज्यादा रही है और वे इस ठेकाप्रथा से तंग आ चुके हैं। ठेके पर काम करने गए 65 फीसदी किसान मानते हैं कि वे दोबारा इस तरह की मजदूरी के काम पर जाना नहीं चाहते। नगदी फसलों के प्रति आकर्षण पैदा करने के लिए कृषि के नए मॉडल पेश किए जा रहे हैं, किसानों से कहा जा रहा है गेहूँ नहीं गुलाब पैदा करो। चावल नहीं गन्ना पैदा करो। कृषि उत्पादन को वर्णसंकर बीजों की मदद से वैविध्यमय बनाओ। इस तरह के सुझावों के परिणामों पर पंजाब के अनुभवों के आधार पर विचार करें तो आँखें खुल जाएँगी। मसलन्, गन्ने के उत्पादन में गेहूँ और चावल से ज्यादा पानी लगता है। मोटे तौर पर ढाईगुना ज्यादा पानी खर्च होता है। गुलाब के उत्पादन में भी पानी सामान्य फसल से ज्यादा मात्रा में खर्च होता है। सामान्य तौर पर गेहूँ और चावल के उत्पादन की तुलना में नगदी फसल के उत्पादन में पाँच से दस गुना ज्यादा पानी और तिगुना रासायनिक खाद खर्च होता है। कायदे से हमें उद्योगकेन्द्रित कृषि उत्पादन से बचना चाहिए। नगदी फसलों का उससे गहरा संबंध है।
हमें स्वाभाविक कृषि उत्पादन के विभिन्न क्षेत्रों के विकास पर जोर देना चाहिए। अमरीका से हमारे देश में बहुत कुछ सीखने पर जोर है, ऐसे में यदि एक बात अमरीका से सीख लें तो हमें सुख मिलेगा। अमरीका में कृषियोग्य जमीन को गैर-कृषि कार्यों में इस्तेमाल या स्थानान्तरित नहीं किया जा सकता। अतःभारत में भी कृषियोग्य जमीन को कृषि तक सीमित रखा जाए। इस जमीन को सुरक्षित-संरक्षित करने के उपाय किए जाएँ। कृषियोग्य जमीन को समृद्ध करने के लिए विशेष आर्थिक उपाय किए जाएँ। अमरीका में इसके लिए विशेष पैकेज दिया जाता है। इस तरह की सहायता का मकसद है कृषियोग्य जमीन को और ज्यादा उपजाऊ और उपयोगी बनाना।
हमें खेतों की जरूरत है, वे हमारी अर्थव्यवस्था की धुरी हैं। खेतों का लोप हमारी सभ्यता का लोप है। खेत बचें इसके लिए जरूरी है कि रासायनिक खाद का उपयोग बंद किया जाए, किसानों को बैंकों से सस्तीदर पर कर्ज दिया जाए, सस्ती बिजली, पानी, स्कूल, अस्पताल, मनोरंजन की व्यवस्था की जाए। फसल की बिक्री, खरीद आदि की समुचित व्यवस्था की जाए।
-डा जगदीश्वर चतुर्वेदी

मो. 09331762368

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हमने किसानों के विकास के लिए तेज औद्योगिकीकरण का रास्ता नहीं अपनाया। मैन्यूफैक्चरिंग से सेवाक्षेत्र की ओर समूचे विकास की दिशा को मोड़ दिया है। इससे किसान की पामाली और बढ़ी है। उसके सामाजिक रुपान्तरण की प्रक्रिया में विचलन आ गया है। वह लगातार लंपट सर्वहारा बनता चला जा रहा है। भारत की विलक्षण स्थिति है कि यहाँ पर किसान का तेजी से विस्थापन हो रहा है, वह नगर महानगर की ओर पलायन कर रहा है।
इस क्रम में एक बड़ी आबादी क्रमषः निम्न मध्यम वर्ग और मध्यम वर्ग में रूपान्तरित हो रही है। शहरों की झुग्गी-झोंपडि़यों के इलाकों में समानान्तर बस्तियाँ लगातार बढ़ती जा रही हैं। एक अवधि के बाद इन बस्तिया
को वैध बनाने की माँग उठती है और देखते-ही देखते इन कच्ची बस्तियों की जगह पक्की रिहायशी कॉलोनी जन्म ले लेती है। कुछ महानगरों में झुग्गी बस्तियों में रहने वालों को ठेलकर उपनगरों और पुनः गाँवों की ओर बसाया जा रहा है। दिल्ली-मुंबई आदि में यह फिनोमिना साफ तौर पर देखा जा सकता है। मूल बात यह है कि किसान का विस्थापन सिर्फ किसान को ही अस्त-व्यस्त नहीं करता अपितु अन्य शहरी बाषिंदों को भी सीधे प्रभावित करता है। मुश्किल यह है कि किसानों के विस्थापन के बारे में हमारे पास सही समझ नहीं है, दीर्घकालिक प्रतिवाद का कार्यक्रम नहीं है, यदा-कदा वामदलों और कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं ने किसानों की बेदखली का विरोध किया है, अनेक स्थानों पर आंदोलन किए हैं। इस प्रसंग में उनकी नजर में तात्कालिक राजनैतिक कार्यभार प्रमुख रहे हैं। वे समूची प्रक्रिया और उससे जुड़े राजनैतिक एजेण्डे को आम जनता में लोकप्रिय बनाने में असमर्थ रहे हैं।
किसानों के जीवन में मच रही तबाही के स्वर जितने तीव्र होने चाहिए वे कहीं नजर नहीं आते, इसका प्रधान कारण है किसानों में निरंतर संगठन और आंदोलन का अभाव। दूसरा कारण है, किसान की गैर-क्रांतिकारी वर्गीय प्रकृति। मसलन् किसानों की माँगों पर ज्यों ही किसी इलाके में आंदोलन आरंभ होता है कुछ अर्से के बाद किसान नेताओं और आम किसानों को तरह-तरह के प्रलोभन मिलने आरंभ हो जाते हैं। यह प्रलोभन निजी लाभ से लेकर राजनैतिक कैरियर तक फैले होते हैं। दूसरा कारण है कि किसानों को सामाजिक परिवर्तन के बृहत्तर परिप्रेक्ष्य के इर्दगिर्द लामबंद नहीं कर पाए हैं।
वामदलों के द्वारा संचालित किसानों के अधिकाँश आंदोलन तात्कालिक अर्थवाद से आरंभ होते हैं और उसके इर्दगिर्द ही समाप्त हो जाते हैं। इसके कारण किसानों को सामाजिक परिवर्तन की बृहत्तर प्रक्रिया में खींचने में अभी तक सफलता नहीं मिली है। वामदलों के नेतृत्व में चलने वाले किसान संगठनों में साझा माँगें हैं, साझा लक्ष्य हैं, लेकिन इस आंदोलन और किसान संगठनों का देश में असमान विकास हुआ है।
किसान सभाओं की अब तक की माँगों पर गौर करें तो अधिकाँश समय कृषि उपज का उचित मूल्य, मुफ्त में बिजली, अवैध भूमि अधिग्रहण के प्रतिवाद के मसले आंदोलन में प्रमुखता से उठे हैं। किसानों के सांस्कृतिक हितों और जरूरतों के सवालों पर कभी कोई संघर्ष नहीं हुआ है। आर्थिक मसलों को उठाने के कारण जहाँ एक ओर नीतिगत संघर्ष सामने आए वहीं दूसरी ओर किसान जीवन का अर्थवाद सामने आया और अंततः किसान आंदोलन अर्थवाद में ही फँसकर रह गया। किसान सभाएँ और आंदोलनकारी संगठन इन मसलों पर चले संघर्षों को बड़े राष्ट्रीय या क्षेत्रीय प्रतिवाद बनाने में सफल नहीं हो पाए। इसका परिणाम यह निकला कि केन्द्र सरकार के द्वारा किसानों की सब्सीडी कटौती को नहीं रोका गया। स्थानीय मसलों पर सरकार से यत्किंचित रिहायत हासिल करके शांत हो गए।
मसलन, अनेक इलाकों में किसानों ने सेज और दूसरे प्रकल्पों के लिए भूमि अधिग्रहण को वापस करा दिया या रुकवा दिया। इससे स्थानीय स्तर पर लाभ हो गया, लेकिन किसानों के ऊपर आर्थिक उदारीकरण के कारण पड़ रहे नीतिगत सवालों पर कोई राष्ट्रीय बहस और आंदोलन खड़ा नहीं कर पाए। इसी तरह उदारीकरण के विभिन्न चरणों में कृषि क्षेत्र में आए परिवर्तनों को लेकर कोई सुसंगत मूल्यांकन प्रतिवादी संगठन पेश नहीं कर पाए। यहाँ तक कि संसद में भी कोई मुकम्मल बहस नहीं हुई।
एक तरफ सरकार ने सब्सीडी कम कर दी दूसरी ओर किसानों की खेती में लागत बढ़ती गई इससे किसानों की पामाली में इजाफा हुआ। विष्व व्यापार संगठन और अन्य विष्व संस्थाओं के दबाब में केन्द्र सरकार ने विदेशों से कृषि और उससे जुड़े मालों के अबाध प्रवेश का मार्ग खोल दिया। उन पर लगने वाले टैक्सों में इच्छित रियायतें दीं। इससे विदेशी माल धड़ल्ले से बाजार में आ गए। फलतः विदेशी माल की तुलना में देशी किसान के माल की कीमत ज्यादा हो गई और वह बाजार में टिकने की अवस्था में नहीं रहा। पामाली की अवस्था में किसानों को बैंकों से कर्ज मँहगा और जटिल हो गया, इससे किसानों को मजबूरी में सूदखोरों की शरण में जाना पड़ा। फलतः आत्महत्याओं में तेजी आई। केन्द्र सरकार ने यदि आर्थिक उदारीकरण के आरंभ में ही किसानों के कर्ज माफ कर दिए होते और बैंकों से आसान ब्याज दरों पर कर्ज मुहैय्या करा दिया होता तो बड़े पैमाने पर किसानों को आत्महत्या करने से रोका जा सकता था। मसलन् 1995-96 में ही कर्जमाफी और कर्ज की ब्याज दरों में कमी का फैसला ले लिया जाता तो कम से कम 2 लाख किसानों को आत्महत्या करने से रोका जा सकता था।
इसी तरह ग्रामीण विकास के कार्यक्रमों जैसे सड़क, बिजली, पानी, परिवहन के लिए आवंटित धन, सुविधा और राजनैतिक सक्रियता में इस दौर में गिरावट आई है। कृषि के अनुसंधान पर होने वाले कामों में धनाभाव के कारण कमी आई है।
केन्द्र सरकार के नीतिगत कदमों के किस तरह के दूरगामी असर हो सकते हैं इनके बारे में मीडिया से लेकर राजनैतिक दलों तक व्यापक अचेतनता को सहज ही देखा जा सकता है। मसलन् केन्द्र सरकार ने अमरीका के बुश प्रशासन के साथ 2006 में उनकी भारतयात्रा के दौरान एक समझौता किया था इसे “भारत-अमरीका कृषि ज्ञान पहलकदमी” के नाम से जाना जाता है। इसे सरकार ने दूसरी हरित क्रांति के नाम से आम लोगों में प्रचारित-प्रसारित किया है।
अमरीका के साथ किए गए इस समझौते ने ज्ञान से लेकर सामाजिक-आर्थिक धरातल तक समस्त संरचनाओं को प्रभावित किया है। इस समझौते के कारण नीतिगत और आर्थिक विकास की दिषा को अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पक्ष में मोड़ दिया गया है। यही वह मुख्य समझौता है जिसके आधार पर हमारे देश में बहुराष्ट्रीय कृषि कंपनियाँ अपने बीज लेकर आ रही हैं। यही वह समझौता है जिसके आधार पर हमारे देष में कृषि अनुसंधानों पर होने वाले खर्चों में कटौती की गई है। इसके आधार पर ही बीज नीति, खाद नीति आदि बनाई गई हैं। यही वह समझौता है जिसके आधार पर वॉलमार्ट के भारत में प्रवेश का आधार बना है। इस समझौते के आधार पर अमरीका को सीधे हमारी कृषि नीति और ग्रामीण अर्थव्यवस्था से जुड़े सवालों पर हस्तक्षेप करने का अधिकार मिल गया है और वे लोग आए दिन तरह-तरह के सुझाव देते रहे हैं और भारत सरकार उन सुझावों को आँख बंद करके मानती रही है।
-डा जगदीश्वर चतुर्वेदी
क्रमश:

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59वें राष्ट्रीय नमूना सर्वे के अनुसार 40 फीसदी किसान तुरंत किसानी छोड़ने को तैयार बैठे हैं यदि उनको जीने का अन्य कोई विकल्प मिल जाए। इस दौरान एक नया फिनोमिना सामने आया है कि खेतिहर किसानों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है। सन् 1992 में 22 फीसदी खेतिहर किसान थे, सन् 2002-03 में इनकी संख्या बढ़कर 32 फीसदी हो गई है। दूसरी ओर कृषि उत्पादन में तेजी से गिरावट आई है। खासकर प्रतिव्यक्ति उत्पादन दर में आई गिरावट को अर्थषास्त्री बड़ा खतरा मान रहे हैं। कृषि क्षेत्र में काम के अवसर कम होते जा रहे हैं। एक तरफ उद्योग के क्षेत्र म नौकरियों की कमी है वहीं दूसरी ओर कृषि में भी नौकरियाँ नहीं हैं। ऐसी अवस्था में सामाजिक आर्थिकदशा के और भी बदतर होते चले जाने की संभावनाएँ हैं।
कृषि क्षेत्र में सन् 1990-91 में 3.27 फीसदी विकास दर थी जो सन् 2004-05 में घटकर 1.74 फीसदी रह गई है। जबकि इसी अवधि में गैर-कृषि क्षेत्र में विकास दर 7 और सवा सात फीसदी के आसपास घूमती रही है। कृषि क्षेत्र में काम करने वाली श्रमशक्ति को देखें तो पाएँगे कि सन् 2004 के 61वें राष्ट्रीय नमूना सर्वे के अनुसार 58.5 फीसदी श्रमशक्ति इस क्षेत्र में लगी हुई है। जबकि 1993-94 में इसकी तादाद 62 फीसदी थी। यानी इस दौर में कृषि क्षेत्र में काम धंधा करने वालों की संख्या में कमी आई है। औसत 2 फीसदी की दर से रोजगार दर में गिरावट आई है। पगारजीवी कृषि मजदूरों की संख्या में गिरावट आई है वहीं दूसरी ओर स्व-रोजगार करने वालों की संख्या में 3 फीसदी की दर से इजाफा हुआ है। कृषि मजदूरों, खासकर पुरुषों का बड़ी मात्रा में भवन निर्माण, सड़क निर्माण, होटल, रेस्टोरेंट के कामों की ओर स्थानान्तरण हुआ है। यह भी फिनोमिना सामने आया है कि 1990-91 से 2004-05 के बीच में दैनिक पगार पर काम करने वाले पुरुष मजदूरों की मजदूरी में कोई इजाफा नहीं हुआ, इसके विपरीत औरतों की पगार में कमी आई। 19-24 साल की उम्र के ग्रामीण युवाओं में बेकारी दर चरम पर है।
राष्ट्रीय नमूना सर्वे के 59वें चक्र के सर्वे के अनुसार 48.6 फीसदी किसान कर्ज में डूबे हुए हैं। इसी तरह का सर्वे 1991 में किया गया था उस समय 26 फीसदी किसान कर्ज में डूबे थे। यानी इस बीच में कर्जगीर किसानों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है। यानी कर्जगीर किसानों की संख्या दोगुना हो गई है। आंध्र में किए गए सर्वे के अनुसार वहाँ पर 5 में से 4 किसान परिवार कर्जगीर थे। तमिलनाडु में तीन-चैथाई किसान परिवार, केरल, पंजाब और कर्नाटक में दो-तिहाई किसान परिवार कर्जगीर हैं, महाराष्ट्र, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात,
मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल में 50 फीसदी किसान परिवार कर्जगीर हैं। सर्वे से यह भी पता चला है कि स्थानीय सूदखोर सबसे बड़ा ताकतवर वर्ग बनकर सामने आया है। क्योंकि ज्यादातर किसानों पर उसका ही कर्ज है। तकरीबन 29 फीसदी किसान उससे ही कर्ज लेते हैं। जबकि 12 फीसदी किसानों ने विभिन्न वस्तुओं के लेन-देन के रूप में दुकानदारों से कर्ज लिया है। मात्र 56 फीसदी किसानों ने वित्तीय संस्थानों जैसे बैंक आदि से कर्ज लिया है। कर्ज से मरने वाले किसानों की संख्या 1995 के बाद गैर सरकारी तौर पर दो लाख से ज्यादा आँकी गई है।
अधिकांष किसानों की आत्महत्या का प्रधान कारण था सूदखोरों का कर्ज न चुका पाना और उपज के उचित मूल्य का न मिलना। यह भी देखा गया कि कई दशक से किसान जो खेती कर रहा है वह घाटे में कर रहा है। उसका लागत मूल्य उसे नहीं मिल रहा है। इसकी ओर किसी भी सरकार ने ध्यान नहीं दिया। इसके विपरीत मीडिया, कारपोरेट स्वार्थ और सरकार ने मिलकर किसान की आत्महत्या के मसले को लोकल मसला बना दिया। कानून-व्यवस्था और कर्ज का मसला बना दिया। किसान की आत्महत्या का प्रधान कारण है उसके लागत मूल्य का न मिलना। वह कर्ज से परेशान है इसलिए क्योंकि लागत मूल्य नहीं मिलता। वह लगातार साल दर साल घाटा उठाकर खेती करता रहता है और जब घाटे का बोझ उठाने में अपने को असमर्थ पाता है तो आत्महत्या कर लेता है। यह भी पाया गया कि महाराष्ट्र में आत्महत्या करने वाले 80 फीसदी किसानों को कोई आर्थिक मदद राज्य सरकार से नहीं मिली।
भारत के किसानों की दुर्दशा के साथ चीन या किसी भी विकसित देश के किसानों की तुलना नहीं की जा सकती है। केन्द्र सरकार की नीतियों और विभिन्न राज्य सरकारों की नीतियों के केन्द्र में किसान कभी नहीं रहा, किसान की तकलीफों को कभी केन्द्रीय महत्व का दर्जा नहीं दिया गया। किसान को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखने के बजाए स्थानीय परिप्रेक्ष्य में देखा गया। उसकी समस्याओं को स्थानीय समस्याओं के रूप में पेश किया गया।
किसान को उसके संकट से निकालने का मार्ग किसानी में से नहीं निकलता। किसान को किसानी से हम जितना बेहतर ढंग से सुरक्षा देते हुए मुक्त करते जाएँगे, उतना ही कृषि संकट कम होगा। कृषि उत्पादन बढ़ाकर इस संकट से नहीं निकल सकते। इस संकट से निकलने के लिए वैकल्पिक नजरिए की आवष्यकता है। किसान की समस्या को जब तक सरकार किसान वर्ग की समस्या के रूप में नहीं देखती तब तक संकट पीछा नहीं छोड़ेगा। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि विश्व व्यापार संगठन की विश्वनीतियों का बुरा असर सीधे किसानों पर पड़ रहा है। उन नीतियों से बचाने के लिए नीतिगत संरक्षणात्मक उपाय भी सरकार को करने चाहिए। अभी हालात यह हैं कि हमारे देश में विश्व व्यापार संगठन की नीतियों से बचाने के कोई भी उपाय करने की स्थिति में सरकार नहीं दिखती। उस पर बहुराष्ट्रीय कृषि कारपोरेट घरानों का दबाब है जिसके कारण किसानों को अरक्षित छोड़ दिया गया है।
किसानों की तबाही का एक स्तर आर्थिक है और दूसरा सांस्कृतिक है। आर्थिक तबाही की ओर कभी-कभार ध्यान भी चला जाता है लेकिन सांस्कृतिक तबाही की ओर हमारा ध्यान एकदम नहीं जाता। हम किसान की आत्महत्या पर खबरें देख भी लेते हैं लेकिन किसान की सांस्कृतिक हत्या के सवाल हमारे विवादों का हिस्सा नहीं बन पाए हैं। हम जानते तक नहीं हैं कि आखिरकार किसानों को किस तरह की सांस्कृतिक बर्बादी का सामना करना पड़ रहा है।
केन्द्र सरकार की ओर से 11वीं पंचवर्षीय योजना में 25 हजार करोड़ की आर्थिक मदद की घोषणा की गई थी, जबकि उसी योजना में उद्योगपतियों को एक लाख करोड़ रुपये प्रतिवर्ष के करों में छूट देने की घोषणा की गई। शहरों में सिनेमा हैं, स्कूल हैं, कॉलेज हैं, विश्वविद्यालय हैं, लेकिन गाँवों में इनका पूरी तरह अभाव है। मनोरंजन के नाम पर कहीं-कहीं टी0वी0 चैनल हैं खाली। गाँवों में अखबार नहीं पहुँचते। स्थानीय भाषा में शिक्षा, लोक कला, लोक संगीत आदि की शिक्षा, प्रशिक्षण, मंचन, संचार आदि का कोई ढांचा उपलब्ध नहीं है।
-डा जगदीश्वर चतुर्वेदी
क्रमश:

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किसान हमारे समाज की आर्थिक और सामाजिक धुरी हैं। नव्य आर्थिक उदारीकरण के दौर में उस पर सबसे ज्यादा हमले और अत्याचार हुए हैं जो मीडिया में अमूमन नहीं आते। किसान की खबर तब ही आती है जब वहाँ हिंसा हो। यदि आंदोलन चल रहा है और कोई हिंसा नहीं घटती तो वह खबर नहीं बनती। किसान के सामान्य जीवन में जब कुछ अघटित घटता है तो मीडिया और राजनैतिकदलों को उसकी सुध आती है। जब कहीं से किसानों की आत्महत्या की खबरें आने लगती हैं तो प्रषासन हरकत में आता है और फिर सहायता कार्य की मीडिया बाइट्स आनी आरंभ हो जाती हैं। इससे एक तदर्थ कम्युनिकेशन बनता है। गहराई में जाकर देखें तो मीडिया उसके साथ समाज और राजनीति का कम्युनिकेशन नहीं बनाना चाहता।
किसान को कभी मीडिया से लेकर राजनैतिक दलों तक ने स्थाई एजेण्डा नहीं बनाया। एक जमाने में कुछ राज्यों में खासकर केरल और पष्चिम बंगाल में भूमि सुधार कार्यक्रम लागू करते समय यह देखा गया कि राजनीति से लेकर समाज के स्तर तक किसान प्रधान एजेण्डा था, लेकिन नव्य आर्थिक उदारीकरण के आने के बाद किसानों की आत्महत्या की खबरों के उद्घाटन के बाद सारा मामला नए सिरे से चर्चा के केन्द्र में आता है। केन्द्र सरकार ने 5 दषक बाद पहली बार किसानों की कर्जमाफी का राष्ट्रीय एलान किया। इससे करोड़ों किसानों के 80 हजार करोड़ के बैंक कर्ज माफ कर दिए गए। किसान समस्या के कई स्तर हैं जिन पर ध्यान देने की जरूरत है। पहला है नीति के स्तर पर, केन्द्र और राज्य सरकारों की नीतियाँ। दूसरा है किसान और कारपोरेट पूँजीवाद का अन्तरसंबंध। तीसरा है मीडिया, किसान और आम जनता का रुख।

केन्द्र की नीतियाँ-

मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यू0पी0ए0 सरकार का किसानों के प्रति विद्वेषपूर्ण रवैय्या है। सरकार की सबसे खतरनाक बात यह है कि “किसान संकट में हैं”, यह बात नीति के रूप में वह नहीं मानती। देष के विभिन्न इलाकों में दो लाख से ज्यादा किसानों ने कर्ज से परेषान होकर आत्महत्याएँ की हैं। इसके बावजूद केन्द्र सरकार “किसान संकट में है“ यह मानने को तैयार नहीं है।
किसी राज्य से यदि किसानों की आत्महत्या की खबरें आती हैं और मीडिया में हंगामा आरंभ होता है तो केन्द्र सरकार सक्रिय हो जाती है और प्रभावित क्षेत्र के लिए तत्काल आर्थिक पैकेज की घोषणा कर दी जाती है। क्षेत्र या जिला आधारित इस तरह के आर्थिक पैकेज की घोषणा का अर्थ यह है कि प्रभावित क्षेत्र के किसान जिस समस्या का सामना कर रहे हैं वह समस्या खासतौर पर उसी क्षेत्र से सम्बंधित है, इसे राष्ट्रीय समस्या या व्यापक समस्या के रूप में न देखा जाए। लोकल समस्या के रूप में देखा जाए।
किसान की समस्या को मीडिया कभी पूरी और निरंतर खबर नहीं बनाता। मीडिया मसले को कुछ इस तरह उछालता है कि श्रोताओं को वह मात्र बैंक या सूदखोर के कर्ज की समस्या लगे और उसे वह कानून व्यवस्था की समस्या बना देता है। किसी भी तरह नियमित एजेण्डा बनाकर कवरेज नहीं देता।
केन्द्र सरकार का मानना है कि किसान की समस्या तो मात्र उत्पादन की समस्या है। उसके माल के सही रख रखाब की समस्या है। केन्द्र सरकार किसान की समस्या को किस रूप में देखती है उसका आदर्ष नमूना है प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का 11वीं पंचवर्षीय योजना में प्रत्येक जिले को प्रति वर्ष 10 करोड़ रूपये की सहायता की घोषणा करना, और संसद से लेकर अन्य मंचों पर अतिरिक्त तौर पर 25 हजार करोड़ रूपये की आर्थिक सहायता राषि की घोषणा करना। इस सहायता राषि से किसानों के आर्थिक जीवन में कोई खास सुधार आने वाला नहीं है।
केन्द्र सरकार की नीतियों का मूल लक्ष्य है कृषि क्षेत्र में 4 फीसदी विकास दर बनाए रखना। वह विकास दर के प्रति आसक्त है और विकासदर के प्रति उसकी आसक्ति ने बीमारी की शक्ल ले ली है। सारी चीजें कृषि विकास दर को सामने रखकर की जा रही हैं। केन्द सरकार मानकर चल रही है यदि कृषि में 4 फीसदी की विकास दर हासिल कर लेते हैं तो बाकी किसी समस्या से घबराने की जरूरत नहीं है। विकास दर ही परम लक्ष्य है।
किसान के लिए आज सबसे संकट यह है कि किसानी करना घाटे का सौदा हो गया है। किसानी से किसान परिवार का पेट पालना संभव नहीं रह गया। किसानी को कैसे मुनाफे और किसान की गुजर-बसर का कार्य व्यापार बनाया जाए इस ओर हमारे योजनाकारों का ध्यान नहीं गया। किसी भी राज्य सरकार ने यह दर्षाने की कोषिष नहीं की है कि किसानी को कैसे लाभ का क्षेत्र बनाया जाए।
सवाल उठता है किसानी घाटे का सौदा क्यों है ? सन् 2002-03 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आँकड़ों के हिसाब से देष में 4 हैक्टेयर से कम की जमीन के स्वामित्व वाले 96.2 फीसदी किसान हैं। किसानों में मात्र 3.8 फीसदी किसान हैं जो अपने गुजर-बसर लायक ठीक से कमा-खा लेते हैं। बाकी किसान परिवारों को घाटे में खेती करनी पड़ती है।
सच यह है खेती में किसानों की लागत ज्यादा लगती है और उससे आय कम होती है। चूँकि किसान के पास विकल्पों का अभाव होता है और उसकी प्रकृति अचल होती है अतः वह संकट की अवस्था में भी खेती और गाँव के साथ अपना मोह नहीं तोड़ पाता और किसी तरह लस्टम पस्टम गुजारा कर लेता है। सरकार के द्वारा घोषित फसल का खरीद मूल्य कभी भी उसे लाभ नहीं देता। प्रत्येक फसल के बाद उसके ऊपर कर्जा होता है। परेशानियों का भयानक दबाब होता है।

-डा जगदीश्वर चतुर्वेदी
क्रमश:

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मसलन् माओवादी संगठन हिंसा ममता, माओवाद और आतंक के जरिए असुरक्षा का वातावरण बनाते हैं, और इस तरह वे पुलिसबलों को अत्याधुनिक हथियारों से लैस करने की जरूरत का एहसास तेज करते हैं। माओवादी या आतंकी हमलों के बाद यह माँग उठती रही है कि अत्याधुनिक हथियार खरीदे जाएँ, अत्याधुनिक संचारप्रणाली खरीदी जाए, पुलिसबलों को और भी सशस्त्र किया जाए। फलतः केन्द्र सरकार के विकासफंड का बहुत बड़ा हिस्सा सुरक्षामद में खर्च हो जाता है और देश में विकास के लिए पैसे का अभाव बना रहता है।
सामाजिक असुरक्षा और अस्थिरता का सब समय बने रहना, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए बेहद जरूरी है। इसे बहाना बनाकर हथियार और संचार उपकरण बेचने में उन्हें सुविधा होती है, वहीं दूसरी ओर केन्द्र सरकार को भी दबाव में रखने में मदद मिलती है। इस तरह के संगठनों के माध्यम से प्रच्छन्नतः ड्रग कार्टेल, शस्त्र निर्माता बहुराष्ट्रीय कंपनियों, संचार कंपनियों को अपना कारोबार बढ़ाने में मदद मिलती है।
माओवादी विचारधारा के नाम पर जो संगठन सक्रिय हैं उनका माओ के विचारों से कोई लेना देना नहीं है। इस संदर्भ में उन्हें छद्म माओवादी कहना समीचीन होगा। माओवादी जिन इलाकों में रहते हैं वहाँ सामान्य जनजीवन ठप्प हो जाता है। वहाँ दहशत का माहौल रहता है। दहशत के माहौल में सबसे बड़ी क्षति लोकतंत्र की होती है। राजसत्ता और प्रशासनिक मशीनरी निष्क्रिय हो जाती है और ये चीजें बहुराष्ट्रीय निगमों के वैचारिक लक्ष्य को पूरा करने में मदद करती हैं। वे भारत में निष्क्रिय लोकतंत्र देखना चाहते हैं और माओवादी यह काम बड़े कौशल के साथ करते हैं।
यह अचानक नहीं है कि नव्य उदारीकरण के दौर में बहुराष्ट्रीय निगमों की शक्ति बढ़ी है, वहीं दूसरी ओर माओवादियों की भी शक्ति में इजाफा हुआ है। केन्द्रीय गृहमंत्रालय की 2010 की एक रिपोर्ट के अनुसार सन् 2001 में 54 जिलों में माओवादी सक्रिय थे आज 230 से ज्यादा जिलों में सक्रिय हैं। संक्षेप में हम माओवाद के मीडिया कवरेज को भी समझ लें।
माओवादी संगठनों के बारे में मीडिया में आने वाली सूचनाएँ हमें माओवाद के बारे में कम उनके हिंसाचार के बारे में ज्यादा जानकारी देती हैं। आधुनिक सूचना क्रांति की यह सामान्य विशेषता है कि वह सूचना का विभ्रम पैदा करती है।यह दावा किया जा रहा है कि सूचना के जरिए सब कुछ बताया जा सकता है। सूचना में सभी प्रश्नों के जबाव होते हैं। लेकिन प्रसिद्ध मीडिया विशेषज्ञ बौद्रिलार्द ने इस प्रसंग में लिखा है कि सूचनाओं से हमें ऐसे सवालों के जबाव मिलते हैं जो उठाए ही नहीं गए हैं। तथाकथित मीडिया क्रांति-नेट क्रांति आदि के माध्यम से आनेवाली माओवादी संगठनों की सूचनाएँ हमें माओवादी संगठनों से जुड़े बुनियादी सवालों या प्रासंगिक सवालों का कोई उत्तर नहीं देतीं।
माओवादियों की जो इमेज मीडिया में आई है उससे उनकी वास्तविक इमेज सामने नहीं आती बल्कि निर्मित इमेज सामने आती है। नकली इमेज सामने आती है। इन इमेजों से माओवाद का आख्यान समझ में नहीं आता। माओवादी हिंसा जब होती है तब ही मीडिया में माओवादी संगठनों की कोई खबर सामने आती है। इससे यही आभास मिलता है कि माओवादी हिंसक हैं।
हिंसा की इमेज असल में माओवाद का हाइपररीयल यथार्थ है इसका वास्तव में यथार्थ से अंशमात्र संबंध है। जिस तरह उपभोक्ता मालों के विज्ञापनों की इमेज देखकर, बाजार में भीड़ देखकर, दुकानों में ठसाठस भरे माल देखकर यह कहना कि भारत बहुत समृद्ध है, यहाँ मालों की कोई कमी नहीं है। यह बात हाइपररीयल है। इसका भारत के यथार्थ से कोई संबंध नहीं है।
मीडिया इमेजों में हमें हाइपररीयल और रीयल में अंतर पैदा करना चाहिए। अमूमन मीडिया में हाइपररीयल इमेजों की वर्षा होती है और इसके आधार पर यथार्थ के बारे में सही समझ बनाना संभव नहीं होता। बाजार में भीड़, क्रेताओं ने दुकानों को सब समय घेरा हुआ है, दुकान में माल भरे हैं, ये सारी चीजें यह सूचना नहीं देतीं कि भारत में चीजों का सरप्लस उत्पादन हो रहा है। इनसे यह भी पता नहीं चलता कि भारत के नागरिक की क्रयक्षमता क्या है?
उसी तरह भारत में माओवादी इमेजों में हाइपररीयल और रीयल में अंतर करने की जरूरत है। मीडिया में माओवादी हिंसा की जो इमेज दिखाई जाती है वह वास्तविक नहीं है बल्कि संकेत या प्रतीक या साइन मात्र के रूप में सामने आती है।
माओवादी संगठनों का सबसे ज्यादा विस्तार ऐसे समय में हुआ है जब दक्षिणपंथी भाजपा, दक्षिणपंथी मिलीटेंट और जातिवादी संगठनों की राजनैतिक शक्ति में सबसे ज्यादा इजाफा हुआ है। माओवादियों ने अपनी प्रमुख क्रीडास्थली के रूप में उन राज्यों में तेजी से विकास किया है जहाँ भाजपा का शासन है या भाजपा तेजी से मजबूत हुई है। पश्चिम बंगाल में भी ममता बनर्जी के राजनैतिक उदय के समय में माओवादी संगठनों की शक्ति में अभूतपूर्व विकास हुआ है।
अतिदक्षिणपंथ के मिलीटेंट राजनैतिक प्रत्युत्तर के रूप में माओवादी संगठनों ने अपील पैदा की है। खासकर बुद्धिजीवियों में अपील पैदा करने में उन्हें सफलता मिली है। आज के माओवादी हों या पुराने नक्सलवादी हों ,ये मूलतः अतिदक्षिणपंथी राजनीति के सिक्के के दूसरे पहलू का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस अर्थ में ये कारपोरेट राजनीति के एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यह भी कह सकते हैं कि माओवादी मूलतः अतिदक्षिणपंथी राजनीति की औलाद हैं। याद करें स्वतंत्र भारत में अतिदक्षिणपंथ का सबसे पहला आक्रामक उभार 60-70 के बीच में ही देखा गया और उस समय नक्सलबाड़ी हुआ। दूसरा बड़ा उभार रामजन्मभूमि आंदोलन के साथ पैदा हुआ और इसने भारत में दक्षिणपंथी राजनीति को सम्मानजनक स्थान दिला दिया।इसके समानान्तर माओवादी आतंक और विभिन्न किस्म के आतंकी संगठनों ने जन्म लिया।
माओवादी हिंसा की इमेज का मीडिया में प्रसारण उनके प्रति नफरत पैदा नहीं करता बल्कि उनके प्रति हमदर्दी पैदा करता है। हिंसा की इमेज के साथ यह प्रचारित किया जाता है कि जिस इलाके म हिंसा की घटना घटी है उस इलाके में सड़क नहीं है, पानी नहीं है, सामान्य नागरिक सुविधाएँ नहीं हैं। यानी माओवादी हिंसा की इमेज के साथ एक-दूसरे किस्म का विचार धारात्मक शोषण आरंभ हो जाता है जिसकी दर्शक ने कल्पना तक नहीं की थी, अब दर्शक को जिससे घृणा करनी चाहिए उससे वह प्रेम करने लगता है। इस अर्थ में माओवादी कवरेज माओवादियों के प्रति हमदर्दी पैदा करता है। यह कारपोरेट विचार धारा और माओवाद का प्रेम संबंध है। माओवादी हिंसा की इमेज में जो चीज सामने ज्यादा आती है वह है हिंसा से बड़ी राजसत्ता जनित हिंसा, जो उपेक्षा के गर्भ से पैदा होती है।
माओवादियों का अहर्निश हिंसा करना, अपने से भिन्न राजनीति करने वाले को कत्ल कर देने का भावबोध मूलतःधार्मिक उन्मादी (फैनेटिक) के भावबोध से मिलता-जुलता है। माओवादी कार्यकर्ता सीधे हिंसा करते हैं, निर्दोष लोगों को कत्ल करते हैं, उनको हीरो या नायक के रूप में माओवादी सम्मान देते हैं। यह वैसे ही है जैसे भिण्डरावाले या बिनलादेन को उनके भक्त पूजते हैं। यानी माओवादी हिंसा के कवरेज में मीडिया के चरित्र के कारण कातिल नायक हो जाता है और निर्दोष व्यक्ति जालिम या जुल्मी-शोषक-उत्पीड़क हो जाता है। यही वजह है कि माओवादी हिंसा का कवरेज उनके लिए मददगार साबित होता है।
प्रत्येक माओवादी हिंसा या कत्ल के बाद उनको समझना और भी मुश्किल हो जाता है। वे हिंसा करते हैं अपना संदेश देने के लिए, लेकिन उनका संदेश प्रत्येक हिंसा या कत्ल के बाद और भी जटिल हो जाता है। उन्होंने हिंसा क्यों की? उसके तर्क और भी मुश्किल क्यों होते चले जाते हैं? यह हिंसा अंततः नागरिक के चिंतन को कुंद करता है। वे हिंसा के जरिए माओवाद का प्रतीकात्मक विनिमय करते हैं। हिंसा उनकी राजनीति का अंतिम बिन्दु नहीं है बल्कि यहाँ से तो बात आगे जाती है। यानी माओवाद में कत्ल समापन नहीं है, नए के जन्म की सूचना नहीं है, बल्कि मौत या हिंसा या आतंक का विकास है। यह अनिश्चितता और सामाजिक असुरक्षा का विकास है।

-जगदीश्वर चतुर्वेदी
मो. 09331762368
समाप्त

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लालगढ़ में अभी जो ऑपरेशन चल रहा है वह केन्द्र सरकार के दबाव के कारण चल रहा है। केन्द्र का दबाव ही है जिसके कारण लालगढ़ से सैन्यबलों को हटाया नहीं गया है। माओवादियों ने ममता सरकार के पुनर्वास पैकेज की पूरी तरह उपेक्षा की है। उल्लेखनीय है कि माओवादियों के खिलाफ लालगढ़ इलाके में माकपा का एकमात्र सांगठनिक मोर्चा लगा हुआ था और माकपा अपने सक्रिय सदस्यों के जरिए आम लोगों को संगठित करके माओवाद विरोधी जनमत तैयार कर रही थी और दूसरी ओर सशस्त्र बलों की भी लोकल ताकत के रूप में मदद कर रही थी।
लेकिन ममता सरकार आने के बाद सशस्त्र बलों का माकपा को सहयोग मिलना बंद हो गया और राज्य सरकार ने विभिन्न किस्म के झूठे मुकदमों में माकपा के कार्यकर्ताओं को फँसाना आरंभ कर दिया और स्थानीय स्तर पर माकपा कार्यकर्ताओं और हमदर्दों को लालगढ़ इलाक़ा छोड़ने के लिए मजबूर किया और इसका माओवादियों को सीधे लाभ मिला। लालगढ़ इलाके में अन्य किसी दल के पास माओवादियों से लड़ने की सांगठनिक क्षमता नहीं है। ऐसे में ममता बनर्जी सरकार का माकपा पर किया गया हमला मूलतः माओवादियों के लिए एक तरह से खुली छूट की सूचना थी कि वे अब लालगढ़ में मनमानी कर सकते हैं।
माओवादियों ने इस मौके का लाभ उठाया और दुकानदारों से लेकर मकानमालिकों-किराएदारों और सरकारी नौकरों तक सबसे रंगदारी हफ्ता वसूली का धंधा तेज कर दिया है। वे लालगढ़ में प्रतिमाह दो करोड़ रूपये से ज्यादा चैथ वसूली कर रहे हैं। चैथ वसूली करने वालों के खिलाफ यदि कोई व्यक्ति पुलिस में शिकायत करने जाता है तो उसकी शिकायतदर्ज ही नहीं की जाती है और उलटे पुलिसवाले माओवादी आतंक से परेशानी की अपनी दास्तानें सुनाने लगते हैं।
ममता सरकार के आने के बाद केन्द्र-राज्य सरकार की संयुक्त कमान में चल रहा संयुक्त अभियान कमजोर हुआ है। जबकि वामशासन में लालगढ़ इलाके से माओवादियों को पूरी तरह खदेड़ दिया गया था और कई दर्जन माओवादी गिरफ्तार किए गए थे। लेकिन ममता सरकार आने के बाद किसी भी माओवादी को सशस्त्रबलों ने पकड़ा नहीं है,उलटे राज्य सरकार गिरफ्तार माओवादियों को रिहा करने का मन बना चुकी है। संयोग की बात है कि केन्द्रीय गृहमंत्री पी.चिदम्बरम् ने ममता बनर्जी से साफ कहा है कि किसी भी माओवादी को रिहा नहीं किया जाना चाहिए।
सवाल यह है कि माओवाद की समस्या का समाधान क्या है? यह एक खुला सच है कि माओवाद की समस्या उन इलाकों में ज्यादा है जहाँ पुलिस थानों की संख्या कम है, थानों में पर्याप्त पुलिस नहीं है। सामान्य पुलिस व्यवस्था का जहाँ अभाव है वहाँ पर माओवादी जल्दी अपनी गतिविधियाँ संगठित करते हैं। माओवाद से लड़ने के लिए पुलिस व्यवस्था के विकास, थानों में पर्याप्त पुलिसकर्मी नियुक्त करने, थानों के अपग्रेडेशन की जरूरत है, इसके अलावा पुलिसकर्मियों को चुस्त-दुरूस्त बनाए जाने की भी सख्त जरूरत है। इसके अलावा माओवाद और विभिन्न किस्म के आतंकी संगठनों से निबटने के लिए माओवाद प्रभावित इलाकों में विशेषदलों की पर्याप्त मात्रा में समान रूप से नियुक्ति करने की जरूरत है।
भारत के प्रसिद्ध सुरक्षा विशेषज्ञ अजय साहनी के अनुसार माओवाद प्रभावित जिलों में आज तकरीबन 70 बटालियन नियुक्त करने की जरूरत है। एक बटालियन में 400 सैनिक होते हैं। साहनी का मानना है कि किसी एक इलाके में सैन्यबलों की खास मौजूदगी देखकर माओवादी उस इलाके से निकलकर अन्य कम पुलिसवाले इलाकों में चले जाते हैं। अतः माओवाद प्रभावित इलाकों में स्थाई तौर पर 28 हजार सैन्यबलों को नियुक्त किया जाना चाहिए और यह काम दीर्घ कालिक (मियादी) होना चाहिए। माओवाद से दीर्घ कालिक (मियादी) योजना बनाकर ही लड़ा जा सकता है। इस समस्या का समाधान यह नहीं है कि माओवाद प्रभावित इलाकों में विकास के कार्यक्रम लागू कर दिए जाएँ। विकास को माओवादविरोधी रणनीति के रूप में इस्तेमाल नहीं करना चाहिए बल्कि विकास को निरंतर चलने वाली सामान्य प्रक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिए।
माओवाद का समाधान विकास नहीं है। माओवाद का समाधान पुलिस एक्शन भी नहीं है। विकास को निरंतर जारी प्रक्रिया के रूप में लिया जाना चाहिए, दूसरा, माओवाद प्रभावित इलाकों में थानों को चुस्त बनाया जाना चाहिए। सामान्य तौर पर थानों में पर्याप्त पुलिस बलों की मौजूदगी और विशेषबलों द्वारा तुरंत, प्रभावशाली एक्शन लेने की मनोदशा तैयार करने की जरूरत है और इस काम को दलीय स्वार्थ से मुक्त होकर करना चाहिए।
कुछ विशेषज्ञ तर्क दे रहे हैं कि माओवादियों के सक्रिय होने का प्रधान कारण यह है कि नव्य आर्थिक उदारीकरण के कारण बड़े पैमाने पर देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों को जमीनें दी गई हैं और इसके कारण ही माओवादी संगठनों को इन इलाकों में अपना जाल फैलाने का अवसर मिला। यह तर्क एब्सर्ड है। माओवादी पहले से हैं और उन्हें हम नक्सल नाम से जानते हैं। नेपाल में विदेशी कपनियों का कोई पैसा नहीं लगा है फिर वहाँ माओवादी संगठनों ने व्यापक जनाधार कैसे बना लिया?
गरीबी, विकास का अभाव, बहुराष्ट्रीय निगमों या करपोरेट घरानों के हाथों में बड़े पैमाने पर आदिवासियों की जमीन के स्वामित्व के कारण माओवादी संगठनों का प्रसार नहीं हुआ है। इसका प्रधान कारण है
मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग के लोगों का किसान, आदिवासी आदि के प्रति रोमैंटिक क्रांतिकारी नजरिया। दूसरा प्रधान कारण है माओवादी संगठनों का अवैध धंधों, जैसे फिरौती वसूली, तस्करी, ड्रग स्मगलिंग,
अवैध हथियारों की खरीद-फरोख्त के ग्लोबल नेटवर्कों के साथ साझेदारी और मित्रता। खासकर बहुराष्ट्रीय शस्त्रनिर्माता कंपनियों के हितों के विकास के लिए काम करना।

-जगदीश्वर चतुर्वेदी
मो. 09331762368
क्रमश:

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ये वे लोग हैं जो वाम शासन में भूमिसुधार कार्यक्रम लागू किए जाने के बाद से विगत 20 सालों से भी ज्यादा समय से इस जमीन पर खेती, मछली पालन आदि कर रहे थे। लेकिन राज्य विधानसभा चुनावों में वाममोर्चे की हार के बाद अचानक इन लोगों पर तृणमूल कांग्रेस और भूस्वामियों के गुण्डों के हमले बढ़ गए। जिन किसानों पर हमले किए गए उनके पास वैध पट्टे थे।
इन हमलों में टेंटुलिया मौजा में 1263 बीघा, बातारगाछी में 800 बीघा, मुन्शीर घेरी में 1200 बीघा और नेबुतला में 2800 बीघा जमीन पर गुण्डों ने कब्जा कर लिया और पट्टादार किसानों को बेदखल कर दिया और पूरे इलाके में आतंकराज कायम कर दिया । टेंटुलिया में पूर्व वाम शासन के तहत भूमिसुधार के लिए अधिगृहीत 508 बीघा जमीन को 1205 किसानों में बाँटा गया था। इसके अलावा यहीं पर 755 बीघा जमीन और है जोअदालती मुकदमों में फँसी हुई थी और इसीलिए इस जमीन के औपचारिक पट्टे नहीं दिए जा सके थे। बहरहाल 2000 किसान इन जमीनों पर खेती कर रहे थे और सुप्रीम कोर्ट ने भी यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया था। लेकिन इस जमीन पर खेती कर रहे तीन हजार किसानों पर तृणमूली गुण्डों ने हमले किए और उनको इस जमीन से बेदखल कर दिया।
उल्लेखनीय है हरोआ एक जमाने में सामंती भूस्वामियों का मजबूत गढ़ हुआ करता था। लंबे किसान आंदोलन के बाद इस इलाके में वाममोर्चा सरकार भूमि
सुधारों को लागू कर पाई थी। भूस्वामियों ने अपनी पुरानी जमीन को हथियाने के लिए दो स्तरों पर हमले आरंभ किए हैं। पहले स्तर पर सीधे माकपा के कार्यकर्ताओं और हमदर्दों को निशाना बनाया जा रहा है, उन्हें डरा-धमकाकर इलाका छोड़ने के लिए मजबूर किया जा रहा है। जो घर-द्वार छोड़कर नहीं जाना चाहते उन्हें सीधे झूठे मुकदमों में फँसाकर पुलिस ने गिरफ्तार किया है। इस योजना में तथाकथित हथियारों की तलाशी के नाम पर झूठे केस बनाकर गिरफ्तारियाँ की जा रही हैं।
हरोआ के अलावा वीरभूमि, नानुर, दुबराजपुर, इलमबाजार, बाकुंडा के कोतुलपुर,इंदपुर, मेदिनीपुर के कांथी, नंदीग्राम, खेजुरी, भगवानपुर, पाताशपुर, एगरा, हुगली के पुरशुरा, खानकुल, धनियाखाली आदि में बड़े पैमाने पर किसानों को बेदखल किया गया है। इसी तरह वर्द्धवान जिले के कमरकाटी इलाके में 2200 किसान परिवारों की 1200 बीघा जमीन छीनी गई है। दूसरी ओर किसान सभा के नेतृत्व में पुनः नए सिरे से किसानों ने अपने को एकजुट किया और 1200 बीघा जमीन में से 700 बीघा पर फिर से अपना कब्जा जमा लिया। उसी तरह हरोआ में भी किसानों ने अपनी जमीन पर कब्जा करने के लिए सशस्त्र आंदोलन किया और तृणमूली गुण्डों और भूस्वामियों को जमीन छोड़कर भागने को मजबूर किया।
ममता सरकार आने के साथ ही लालगढ़ इलाके में माओवादियों के खिलाफ चल रहा सशस्त्र सैन्यबलों का ऑपरेशन बिना कहे ढीला कर दिया गया और इस बीच में माओवादियों ने जो इलाके सैन्यबलों के ऑपरेशन के कारण खोए थे उन पर पुनः कब्जा जमा लिया। लालगढ़ में चल रहा माओवाद विरोधी ऑपरेशन केन्द्र सरकार और राज्य सरकार के संयुक्त कमान के तहत चलाया जा रहा है, लेकिन ममता बनर्जी ने अपने माओवादी प्रेम के चलते इस ऑपरेशन को ठंडा कर दिया और विगत 5 महीनों में पुनः आतंक का राज कायम कर लिया, अपने खोए हुए इलाकों पर पुनः कब्जा जमा लिया, ममता सरकार से मित्र संबंध के बावजूद एक भी माओवादी ने न तो समर्पण किया और न ही माओवादियों ने लालगढ़ में आतंक और हत्या की राजनीति को बंद किया।
इसके विपरीत स्थिति यह है कि लालगढ़ में तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं पर भी माओवादियों के कातिलाना हमले हो रहे हैं। किसी भी दल को लालगढ़ में काम करने की मनाही है और इस इलाके में माओवादियों ने जबरिया धन वसूली का
धंधा तेज कर दिया है। पहले माओवादियों ने माकपा के 270 से ज्यादा सदस्यों की हत्या की और उनके आतंक के कारण सैंकड़ों लोग आज भी लालगढ़ से बाहर रह रहे हैं।
ममता सरकार ने यह मान लिया था कि वह विधानसभा चुनाव जीतने के चंद घंटों में माओवादी हिंसा को बंद कर देगी। लेकिन माओवादियों ने हिंसा और तेज कर दी और सीधे तृणमूल कांग्रेस के स्थानीय नेताओं को सरेआम कत्ल करके मौत के घाट उतार दिया।
हाल में ममता बनर्जी सरकार को केन्द्र सरकार ने हिदायत दी है कि किसी भी माओवादी नेता या कार्यकर्ता को छोड़ा न जाए। दूसरी हिदायत यह दी है कि लालगढ़ में सैन्यबलों का ऑपरेशन तेज किया जाए। फलतः ममता सरकार को मजबूर होकर माओवादियों के खिलाफ अभियान चलाना पड़ रहा है।
उल्लेखनीय है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी चुनाव जीतने के पहले बार-बार यह कहती रही हैं कि लालगढ़ में माओवादी नहीं हैं वहाँ तो माकपा की हरमदवाहिनी हमले कर रही है। ममता बनर्जी लंबे समय से पश्चिम बंगाल में खासकर लालगढ़ में माओवादियों की मौजूदगी को अस्वीकार करती रही हैं। इसके पीछे साफ कारण था कि वे माओवादियों के साथ साँठ-गाँठ करके किसी तरह चुनाव जीतना चाहती थीं और इसके लिए वे एकसिरे से झूठ बोलती रही हैं। अभी भी वास्तविकता यह है कि वे खुलकर माओवादियों के खिलाफ सक्रिय रूप से एक्शन नहीं ले रही हैं। पिछले दरवाजे से अपने हमदर्दों और मानवाधिकार कर्मियों के जरिए माओवादियों से मधुर
संबंध बनाए रखने की कोशिश कर रही हैं।

-जगदीश्वर चतुर्वेदी
मो. 09331762368
क्रमश:

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पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की सरकार को शासन में आए 6 माह हो चुके हैं। इन छह महीनों में अनेक चीजें बदली हैं। सामान्यतौर पर जिस लोकतांत्रिक माहौल के लौटकर आने की कल्पना की जा रही थी उसकी आशाएँ धूमिल हुई हैं। किसानों, मजदूरों, छात्रों और आदिवासियों पर राज्य सरकार, तृणमूल कांग्रेस और माओवादियों के हमलों में इजाफा हुआ है। साथ ही कलकत्ता उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण छात्र विरोधी फैसला दिया है। इस फैसले के अनुसार कोई भी स्कूली छात्र, स्कूल समय में किसी भी किस्म की रैली-जुलूस आदि में भाग नहीं ले सकता। यदि वह ऐसा करता है तो यह अवैध होगा। जबकि पश्चिम बंगाल में उच्च माध्यमिक और माध्यमिक स्कूलों में लोकतांत्रिक ढ़ंग से चुने हुए छात्रसंघ हैं और इनमें अधिकांश पर वाम छात्र संगठनों का कब्जा है।
ममता सरकार आने के बाद तकरीबन 50 हजार से ज्यादा वाम कार्यकर्ताओं को अपने इलाके छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा है। विभिन्न जिलों में अब तक तीन करोड़ रूपये से ज्यादा का रंगदारी भत्ता तृणमूल कांग्रेस के गुण्डों ने वाम कार्यकर्ताओं और समर्थकों से जबरिया वसूला है। तृणमूल कांग्रेस के गुण्डों ने 150 से ज्यादा माकपा कार्यालयों, 450 से ज्यादा ट्रेड यूनियनों और जनसंगठनों के दफ्तरों पर अवैध कब्जा कर लिया है। तृणमूली गुण्डों के जरिए वाम दलों के सदस्यों-हमदर्दों को कहा जा रहा है कि वे यदि अपने घर या इलाके में रहना चाहते हैं तो अपनी राजनैतिक वफादारी बदलें वरना वे इलाके में नहीं रह पाएँगे। दूसरी ओर शहरी इलाकों में झुग्गी-झोपडि़यों में रहने वाले वाम समर्थकों पर बड़े पैमाने पर हमले हो रहे हैं और उनको वामदलों का साथ छोड़ने के लिए दबाव डाला जा रहा है।
राज्य में इस तरह का आतंकराज लोग पहली बार नहीं देख रहे हैं बल्कि इस तरह की घटनाएँ 1971-1977 के बीच में देख चुके हैं। आम लोगों में जो लोग 1977 के बाद जन्मे हैं उन्हें यह अंदाजा नहीं था कि 71-77 के बीच का आतंकराज कैसा था? ममता बनर्जी की राजनैतिक शिक्षा उसी दौर में हुई है और उनको आतंक की राजनीति का गहरा अनुभव है।
आश्चर्य की बात है कि इस समय ममता बनर्जी के साथ माओवादियों की सहानुभूति और समर्थन है। जबकि 71-77 के बीच में कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय के शासन में सैकड़ों नक्सली पुलिस की गोलियों के शिकार बने। लेकिन इसबार नक्सलियों और माओवादियों ने कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस के संयुक्त गठबंधन को जिताने के लिए काम किया और एक पूर्व नक्सल नेता को ममता सरकार में श्रममंत्री बनाया गया है। रोचक बात यह है कि ममता सरकार नव्य-उदारीकरण के पक्ष में है और माओवादी-नक्सल और तथाकथित वामपंथी बुद्धिजीवी महाश्वेता देवी के नेतृत्व में ममता सरकार की प्रत्येक नीति को समर्थन दे रहे हैं। नव्य-आर्थिक उदारीकरण के मार्ग पर जाने का विगत वाममोर्चा सरकार का फैसला मौजूदा सरकार ईमानदारी से लागू कर रही है।
पहले विभिन्न इलाकों में माकपा के आतंक की खबरें आ रही थीं लेकिन नई सरकार आने के बाद गुण्डों की टोलियों ने माकपा का साथ छोड़कर ममता बनर्जी की शरण ले ली है और राज्य के विभिन्न इलाकों में आतंक की घटनाएँ आम हो गई हैं। इस तरह की घटनाओं की खबर सुनकर किसी को आश्चर्य नहीं होता।
पश्चिम बंगाल में राजनैतिक आतंक एक आम फिनोमिना है। आम लोग राजनैतिक सत्ता परिवर्तन के बाद राजनैतिक आतंक को लेकर गुस्से में कम हैं, इसके विपरीत आतंक के प्रति सहिष्णुताभरा व्यवहार कर रहे हैं। आतंक देख रहे हैं, लेकिन चुप हैं। मीडिया भी आतंक देख रहा है लेकिन चुप है।
दूसरी बात यह कि ममता बनर्जी को राज्य सरकार चलाने का कोई अनुभव नहीं है और यह अनुभवहीनता उनके सभी फैसलों में साफ झलकती है। दूसरी सबसे बड़ी समस्या है विगत वाम मोर्चा सरकार से भिन्न किस्म की कार्यप्रणाली और नीतियों को पेश करने में वे अभी तक सफल नहीं रही हैं। विधानसभा चुनाव के समय वे वाममोर्चा से भिन्न लोकतांत्रिक शासन प्रणाली देने का वायदा करके जीती हैं। आम लोगों में उनकी जनप्रिय इमेज भी है लेकिन राज्य प्रशासन में दलीय प्रतिबद्धता के आधार पर काम करने की जो बीमारी वाम शासन के दौरान घुस गई थी वह अभी तक बरकरार है। योग्यता, पेशेवर क्षमता, निष्पक्षता और सक्रियता के आधार पर फैसले कम और दलीय पक्षधरता के आधार पर फैसले ज्यादा लिए जा रहे हैं।
दूसरा एक बड़ा परिवर्तन यह आया है कि राज्य में बड़े किसान या पुराने जमींदार जो वाम शासन में हाशिए पर थे वे नए सिरे से आक्रामक हो उठे हैं, अपनी पुरानी जमीनों के स्वामित्व को जोर-जबरदस्ती और सरकारी मदद से हासिल करना चाहते हैं और गाँवों में बरगादार किसानों पर हमले तेज हो गए हैं। मीडिया और राज्य प्रशासन इस तरह के विवादों को जमीन हड़पने के मामले के बजाय माकपा बनाम तृणमूल की दलीय लड़ाई के रूप में पेश कर रहा है।
पश्चिम बंगाल में ममता सरकार आने के बाद से वामदलों और खासकर माकपा के कार्यकर्ताओं पर हमले तेज हुए हैं, तकरीबन 50 हजार लोग विस्थापित होकर अपने गाँव के बाहर अन्यत्र शिविरों में, मित्रों और रिश्तेदारों के यहाँ रह रहे हैं। सैंकड़ों कार्यकर्ताओं पर फर्जी मुकदमे दायर करके गिरफ्तार किया गया है। तकरीबन 1200 से ज्यादा माकपा कार्यकर्ताओं को राज्य प्रशासन विभिन्न किस्म के झूठे मुकदमों में फँसा चुका है। इस माहौल में वामदलों को अपनी एकजुटता का इजहार करके नए सिरे से उनका विश्वास जीतना होगा। इस प्रसंग में उत्तर चैबीस परगना के हरोआ इलाके की घटना का जिक्र करना बेहद जरूरी है। इस इलाके में जुलाई के प्रथम सप्ताह में तृणमूल कांग्रेस और भूस्वामियों ने स्थानीय प्रशासन की मदद से तकरीबन दस हजार किसानों को 7063 बीघा जमीन से बेदखल कर दिया । (एक एकड़ में तीन बीघे होते हैं।)।

-जगदीश्वर चतुर्वेदी
मो. 09331762368
क्रमश:

 
 

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