हमारी कार्यशील आबादी का 50 फ़ीसदी से ज़्यादा हिस्सा अभी भी खेती के क्षेत्र में ही मौजूद है। इसका यह अर्थ हर्गिज़ नहीं कि इतने लोगों की वहाँ वास्तव में ज़रूरत है। लोग वहाँ हैं क्योंकि उनके पास कोई विकल्प मौजूद नहीं है। वे वहाँ सरप्लस लेबर हैं जिसके रचनात्मक इस्तेमाल की न योजनाकारों को कोई परवाह है न चिंता। उनके पास या तो वहीं रह कर धीरे-धीरे ख़त्म हो जाने का इंतज़ार रहता है या उन्हें बाहर निकलकर जीवनयापन के किसी साधन की तलाश करनी होती है। खेती के भीतर पर्याप्त आमदनी की संभावनाएँ सिकुड़ती देख सीमांत व मध्यम किसान मजबूरी में खेती से बाहर होते जाते हैं। पहले आंशिक तौर पर, फिर पूरी तरह। उनके पास लंबे समय तक घाटा उठाकर भी खेती करते रहने का आर्थिक आधार नहीं होता। खेती के क्षेत्र के बाहर दूसरे क्षेत्रों में भी उनके लिए कोई जगह नहीं है।
ऐसा नहीं है कि जो लोग खेती करना छोड़ गए तो उनकी जगह कोई और खेती करने लगा। अगर खेती में गुज़र-बसर होती रहती तो जिन्होंने छोड़ी, वे ही क्यों छोड़ते। इसलिए उनके जाने पर अक्सर उनकी ज़मीन भी खेती के उपयोग से बाहर हो जाती है।
भारत में नव उदारवादी नीतियों के चलते जो गुब्बारा अर्थव्यवस्था पिछले दो दशकों में फैली है, उसने एक नए मध्यवर्ग और उपभोक्ता तबक़े को खड़ा किया। यह अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से वित्त और सर्विस सेक्टर पर टिकी है। उत्पादन का प्राथमिक क्षेत्र हेय हो गया है। इसी ने शेयर बाज़ार की सट्टेबाजी को सर्वोपरि बनाया और वही सट्टेबाजी ज़मीन के बाज़ार में भी आई। शहरों के आस-पास की ज़मीनों के दाम बढ़े हैं क्योंकि मध्यवर्ग के पास निवेश के लिए पैसा है। खेती का क्षेत्र काॅर्पोरेट के लिए खोल दिए जाने, कांट्रेक्ट खेती को राज्यों द्वारा बढ़ावा देने से आई.टी.सी., रिलायंस और टाटा जैसी कंपनियों की भी ग्रामीण भारत में सरगर्मियाँ बढी हैं। ज़मीन सबकी निगाहों में सोने से तेज चमक रही है।
नतीजा यह है कि खेती की ज़मीन का बहुत बड़ा हिस्सा चुपचाप खेती के उपयोग से बाहर हो गया है।
कुछ वर्षों पहले हमने देश में अनेक जगहों पर एस0ई0जे़ड0 (सेज़) के विरोध में ज़बर्दस्त आंदोलन देखा था और हममें से अनेक उस आंदोलन के हिस्से भी बने थे। सेज़ के प्रावधान मज़दूर विरोधी थे व उससे खेती की उपजाऊ ज़मीन किसानों से छीनी जा रही थी। अगर भारत सरकार द्वारा ‘फाॅर्मल अप्रूवल’ और ‘इन प्रिंसिपल अप्रूवल’ पाये सारे एसईजेड बन गए तो भी वे कुल 2.1 लाख हेक्टेयर ज़मीन ही ले सकते हैं। जबकि बाज़ार ने किसानों के साथ सौदे करके बिना किसी क़ानून और बिना किसी विरोध के देश की 1 करोड़ 80 लाख हेक्टेयर ज़मीन खेती के उपयोग से बाहर खिसका दी। देश के सारे राज्यों में खेती की ज़मीन में नाटकीय रूप से कमी आई है और उसे रोकने की कोई सजग कोशिश उस सरकार की तरफ़ से नहीं हुई जो देश की खाद्य सुरक्षा के लिए भी एक क़ानून बना रही है।
-विनीत तिवारी
क्रमश:
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खेती में दिखता पलायन का चेहरा-3
Posted in loksangharsha, tagged कुडनकुलम, जैतापुर, नर्मदा घाटी, विनीत तिवारी, शेयर बाज़ार भट्टा पारसौल, सरकार on मार्च 18, 2012| 1 Comment »
खेती में दिखता पलायन का चेहरा-2
Posted in loksangharsha, tagged कुडनकुलम, जैतापुर, दादरी, नर्मदा घाटी, पोस्को, भट्टा पारसौल, विनीत तिवारी on मार्च 18, 2012| Leave a Comment »

यहाँ हमें तमिलनाडु से लेकर उड़ीसा, बंगाल तक के मज़दूर गाँवों में देखने को मिले। सन् 2009 में ही केरल में न्यूनतम वेतन तीन सौ रुपये से ज़्यादा था (जो वाकई मज़दूर को मिलता भी था) इसलिए अच्छी मज़दूरी के आकर्षण में दूर-दूर के मज़दूरों का वहाँ आना सहज भी था। लेकिन 2007-08 में ही अमरीका से शुरू हुए आर्थिक मंदी के दौर ने अरब और खाड़ी के देशों पर भी असर डालना शुरू कर दिया था। केरल के बहुत सारे नौजवान खाड़ी के देशों में प्लंबर, पेंटर, ड्राइवर और होटलों में वेटर, कुक जैसे कुशल और अर्ध कुशल श्रेणी के कामों में लगे हुए हैं। आर्थिक संकट ने खाड़ी के देशों को यूरोप और अमरीका से आने वाले पर्यटकों से होने वाली आमदनी को प्रभावित किया, नतीजतन अनेक लोगों की नौकरियाँ ख़त्म हुईं। नौकरियाँ गँवाकर घर लौटे केरल के ग्रामीण नौजवानों ने खेतों में किए जाने वाले अनेक कामों को खुद करना शुरू कर दिया जिससे केरल में बाहरी मज़दूरों की माँग में भी कमी आई। हालाँकि यह असर घातक नहीं थे लेकिन फिर भी इसने राज्य की अर्थव्यवस्था के लगातार गैर आनुपातिक रूप से गल्फ-मनी पर बढ़ती निर्भरता के खतरों से आगाह तो किया ही।
एक तरफ़ यह पलायन और विस्थापन है जिसमें प्रत्यक्ष रूप से राज्य की कोई भूमिका नज़र नहीं आती लेकिन इन मामलों में भी राज्य अपनी योजना की नाकामी और श्रम बाज़ार की असंगत प्रक्रियाओं में उसके सार्थक हस्तक्षेप की कमी से पल्ला नहीं झाड़ सकता। दूसरी तरफ़ उस विस्थापन और पलायन के दिनोदिन बढ़ते उदाहरण हैं जिनमें राज्य ख़ुद सक्रिय भूमिका निभाता हुआ आम लोगों को विस्थापन और पलायन के लिए मजबूर कर रहा है। कानून की मनमानी व्याख्याएँ कर या नए दमनकारी कानून बनाकर और हर तरह के विरोध पर पुलिस की बंदूक तानकर भारतीय राज्य लोकतंत्र के मामले में अमरीका से होड़ ले रहा है। पुराने भूमि अधिग्रहण कानून के बदले और भी जनविरोधी नया क़ानून लाने की कोशिश, उत्तर-पूर्व के राज्यों से लेकर कुडनकुलम, जैतापुर, कलिंगनगर, दादरी, पोस्को, नियमगिरि, भट्टा पारसौल, नर्मदा घाटी, रायगढ़, प्लाचीमाड़ा, नंदीग्राम, और तमाम जगहों पर लोगों ने अपनी ज़मीनें छीनने और उजाड़े जाने की राज्य की कोशिशों के खि़लाफ़ लड़ाई लड़ी और लड़ रहे हैं।
लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि भारत में औसत जोत का आकार घटकर 1.06 हेक्टेयर रह गया है जो एक परिवार का पेट पालने के लिए काफ़ी नहीं। दूसरी तरफ़ ज़मीन की सीलिंग बढ़ाने के लिए हर राज्य में क़ानून बदले जा रहे हैं। हज़ारों हेक्टेयर की खेती करने के लिए काॅर्पोरेट घरानों को बुलाया जा रहा है। सामूहिक खेती की बात तो दूर, लोग अब भूमि सुधार की माँग भी भूलते जा रहे हैं। और यह तो औसत है। असल में तो बिहार, केरल और बंगाल में चैथाई हेक्टेयर से भी छोटी जोतें बहुतायत में हैं। इतनी कम ज़मीन पर संसाधनहीन ग़रीब किसानों द्वारा खेती करने से किसी भी तरह उनकी उपज इतनी नहीं हो सकती कि वे सिर्फ़ खेती के ही सहारे जी सकें। नतीजतन, खेती उनके लिए आमदनी का मुख्य ज़रिया नहीं रह जाती और जैसे ही उन्हें वाजिब लगते दाम मिलते हैं, वे खेती से किनारा कर लेते हैं।
ग़रीब ग्रामीण आबादी दो तरह के विस्थापन झेल रही है। एक तो भौगोलिक जिसमें लोग रोज़गार की तलाश में और जि़ंदा रहने के जतन में एक जि़ले से दूसरे जि़ले या एक राज्य से दूसरे राज्य जाते हैं, कभी मौसमी तौर पर कभी स्थायी तौर पर।
एक अन्य किस्म का विस्थापन हो रहा है जिसमें वे खेती के क्षेत्र से ही विस्थापित हो रहे हैं। वे खेती के क्षेत्र को छोड़ शहरों-महानगरों में मौजूद तमाम किस्म के असंगठित रोज़गारों का हिस्सा बन रहे हैं। वे आज रिक्शा चला रहे हैं, रेहड़ी लगा रहे हैं, फेरी लगा रहे हैं, सिक्योरिटी गार्ड बन रहे हैं, सब्ज़ी बेच रहे हैं, हम्माली कर रहे हैं, इमारतें बना रहे हैं, और कल उस रोज़गार से भी बेदख़ल हो रहे हैं। वे खेती से और गाँवों से बाहर शहर में आ गए हैं, जहाँ वहीं के बंद कारखानों के बेरोजगार मज़दूरों की पहले से ही इतनी भीड़ है कि इनके लिए हाशियों पर भी जगह नहीं। न रूपक में और न ही यथार्थ में। झाबुआ, धार, रतलाम जैसे आदिवासी बहुल इलाक़ों से जो आदिवासी रोज़गार की तलाश में क़रीबी राज्य गुजरात में काँच और गेत पत्थरों के कारखानों में काम करने जाते हैं, वे वहाँ से एकाध साल में ही सिलिकोसिस की मौत लेकर लौटते हैं। अब तक हज़ारों लोग मारे जा चुके हैं लेकिन त्रासदी यह है कि जिसके घर का एक सदस्य उसी सिलिकोसिस का शिकार हुआ, विकल्प के अभाव में उसी घर से दूसरा, जानते-बूझते उसी काम के लिए जाता है।
-विनीत तिवारी
क्रमश: