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Posts Tagged ‘नरेंद्र मोदी’

 

 
 फिल्म शोले में गब्बर सिंह की चर्चा गाँव-गाँव थी.  उसी तरह आम चुनाव में नरेंद्र मोदी की चर्चा गाँव-गाँव है। गब्बर सिंह को  छोटे-बड़े की ज़बान पर ले जाने का काम फिल्म ने  किया था उसी तरह नरेंद्र मोदी की चर्चा को  इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया ने करवा  रखी है।  फिल्म शोले ने अकूत मुनाफा कमाया था उसी तरह प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इस चुनाव में अकूत मुनाफा कमा रहा है।  फिल्म शोले के गब्बर सिंह का अंत अच्छा  नहीं रहा उसी तरह 16 मई को मीडिया के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हश्र होने की सम्भावना है।
          धरातल पर जो चुनाव हो रहा है उसमें  सत्तारूढ़ दल कांग्रेस व सांप्रदायिक संगठनो के विरोधी दल की स्तिथि ख़राब नजर नहीं आ रही है।  जनता में मुद्दों की चर्चा बंद हो गयी है दो दल बन गए हैं।  एक मोदी हराओ और दूसरा मोदी जिताओ।  मोदी जिताओ दल में मीडिया के पत्रकार  ज्यादातर शामिल हैं. जनता की ओर से उनको समर्थन नही मिल पा रहा है। मीडिया द्वारा तरह-तरह की अफवाहें उनके प्रधानमंत्री मोदी के समर्थन में हो रही है।  कभी समाचार यह आता है कि अमेरिका मोदी के आने से घबरा रहा है तो कभी पाकिस्तान ,  चीन भी भयाकुल है।  वस्तुस्तिथि यह है कि भाजपा के अधिकांश दिग्गज नेता अघोषित तरीके से मीडिया के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ हैं।  जिलों-जिलों से जो खबरें आ रही हैं वह भी मीडिया की बातों को असत्य ही साबित कर रही हैं।  भाजपा के नेतागण उम्मीदवार  हराओ , उम्मीदवार जिताओ के खेमे में बँट गए है। जिससे बहुत सारे प्रत्याशी चुनाव प्रबंधन में कमजोर हो रहे हैं। आज नरेंद्र मोदी ने वाराणसी से अपना नामांकन पत्र दाखिल किया जिसमें पार्टी के बड़े नेता शामिल नही हुए और वाराणसी के अगल-बगल के जिलों के कार्यकर्ताओं को जुटाकर भीड़ प्रदर्शित की गयी थी। कुल मिलाकर स्तिथि यह होनी है कि माया मिली न राम।

सुमन
लो क सं घ र्ष !

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आज जब बी.जे.पी. के नेता राष्ट्रीय सुरक्षा पर घडि़याली आँसू बहाते हैं, हँसी नहीं आती, बल्कि चिंता होती है। चिंता इसलिए कि राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे अहम मुद्दे पर भी वह दुष्प्रचार से बाज नहीं आते। देखते हैं ‘‘राॅ’’ के एक बड़े अधिकारी की गैरकांग्रेसी सरकारों के बारे में राय। ‘‘राॅ’’ के अतिरिक्त निदेशक बी. रमन ने रिटायरमेंट के बाद लिखा, ‘‘आतंकवादियों के सामने दयनीय आत्मसमर्पण के केवल दो उदाहरण हैं। एक 1989 में जब वी.पी. सिंह (इस सरकार का समर्थन भाजपा बाहर से कर रही थी) प्रधानमंत्री थे और मुफ्ती मुहम्मद सईद गृहमंत्री। दो, 1999 में जब भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार तीन आतंकवादियों की रिहाई के लिए सहमत हुई।’’
रमन लिखते हैं, ‘‘भाजपा ने चुनाव से पहले वादा किया था कि आई.एस.आई. के प्रॉक्सी वार पर श्वेतपत्र जारी करेगी और पाकिस्तान को आतंकवाद का संचालक घोषित करवाएगी। दोनों वादों पर अमल में वह विफल रही। इससे भी ज्यादा यह हुआ कि इस सरकार ने प्रच्छन्न कार्रवाई की क्षमता समाप्त करने के गुजराल सरकार के फैसले को भी नहीं पलटा। इससे सुरक्षा तंत्र को बहुत आश्चर्य हुआ।
इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और नरसिंह राव की, पाकिस्तान से पेश आने की नीति में दृढ़ता की निरंतरता थी। वाजपेयी सरकार की नीति में इसका अभाव था। अटल बिहारी वाजपेयी की लाहौर यात्रा या जनरल मुशर्रफ को शिखर वार्ता के लिए आगरा आमंत्रित करने से पहले खुफिया तंत्र से राय नहीं ली गई। नतीजा यह हुआ कि ये दोनों यात्राएँ विफल रहीं।’’
प्रधानमंत्री वाजपेयी की सरकार कश्मीरी अलगाववादियों और आतंकवादियों से बात करने की बहुत इच्छुक थी। इस हद तक कि वाजपेयी ने कहा, ‘‘इंसानियत के दायरे में तो बात हो सकती है।’’ रमन इस बारे में हकीकत बयान करते हैं, ‘‘अटल सरकार 2001 में हिजबुल मुजाहिदीन के एक वर्ग की ओर से वार्ता के
संबंध में उचित कदम नहीं उठा सकी। इससे पाकिस्तान स्थित हिजबुल मुजाहिदीन के नेतृत्व को, इस वर्ग की पहचान करने और उसे खत्म कर देने में कामयाबी मिल गई।’’
रमन ने इसका खुलासा नहीं किया है। लेकिन अंदर की कहानी यह है कि हिजबुल मुजाहिदीन के इस वर्ग से संपर्कों के दौरान सतर्कता नहीं बरती गई। इस अहम पहलू की अनदेखी कर दी गई कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. उग्रवादियों, अलगाववादियों के नरम पड़ रहे खेमे को सफल नहीं होने देगी। अगर उनकी सफलता की गुंजाइश रहे, तब तो कश्मीर में पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकवाद के खत्म होने की भी संभावनाएँ पैदा हो जाएँगी। यहाँ यह सवाल उठता है कि राजनैतिक नेतृत्व ने भारत की खुफिया एजेंसियों को विश्वास में क्यों नहीं लिया? सम्भावित उत्तर यही हो सकता है कि आज भाजपा नेता जिस सरकार को एक आदर्श बताकर पेश कर रहे हैं, वह पाकिस्तान के फौजी जनरलों पर बहुत भरोसा करने लगी थी। कारगिल का विश्वासघात एक स्वाभाविक परिणाम था।
-प्रदीप कुमार
लोकसंघर्ष पत्रिका चुनाव विशेषांक से

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इन दिनों नरेंद्र मोदी से लेकर उनके आगे-पीछे चलने वाले बी.जे.पी. नेता यह कहते नहीं अघाते कि वह देश को मजबूत सरकार देंगे, राष्ट्रीय सुरक्षा की गारंटी करेंगे और न जाने क्या-क्या करेंगे। उन्हें गलतफहमी है कि जनता की याददाश्त बहुत कमजोर होती है।
    एन.डी.ए. की सरकार में कैसे-कैसे समझौते हुए और देश की इज्जत को बट्टा लगा, इसकी कई मिसालें हैं। फिलहाल सबसे शर्मनाक घटना का उल्लेख।
    दिसंबर 1999 में पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी भारतीय यात्री विमान का अपहरण
कर कंधार ले गए थे। सक्षम और दृढ़ संकल्प सरकार अमृतसर हवाई अड्डे पर अपहृत विमान का रास्ता अवरुद्ध कर सकती थी। वीरोचित मुद्राएँ दिखाने वालों को कुछ नहीं सूझा। विमान के कंधार पहुँच जाने के बाद तो वीरों के हाथ-पैर फूल गए। मोदी और अन्य नेता कांग्रेस का मजाक यह कह कर उड़ाते हैं कि अजमल कसाब को बिरियानी खिलाई गई। दुष्प्रचार तो दुष्प्रचार ही ठहरा। उन्हें कौन बताए कि खाना-पीना जेल मैनुअल के हिसाब से होता है। काला सच यह है कि भाजपा के विदेशमंत्री जसवंत सिंह तीन कुख्यात आतंकवादियों को साथ लेकर
कंधार गए होंगे और उनका खाना-पीना जेल मैनुअल देख कर नहीं हुआ था।
    छोटे सरदार (अब पूर्व छोटे सरदार कहें, क्योंकि वर्तमान छोटे सरदार तो मोदी हैं) यानी तत्कालीन गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी और कंधार गए विदेशमंत्री जसवंत सिंह सत्ता से हटने के बाद मोटी-मोटी किताबें लिख चुके हैं। लेकिन ईमानदारी से यह नहीं बताया कि पर्दे के पीछे हुआ क्या था। आडवाणी और जसवंत कई इंटरव्यू भी दे चुके हैं। फिर भी सच सामने नहीं आया है। जसवंत का कहना है, ‘‘मैं रहस्योद्घाटन नहीं कर सकता। वक्त आने पर करूँगा।’’ यह मान कर चलते हैं कि बाद में भारत पर आतंक का कहर बरपा करने वाले तीन आतंकवादियों की रिहाई का फैसला सारे वीरों का सामूहिक फैसला था।
    बस एक शख्स ने आतंकवादियों की रिहाई का कड़ा विरोध किया था। संघ परिवारियों को सुन कर अच्छा नहीं लगेगा, क्योंकि वह संविधान के अनुच्छेद 370 की स्थाई उपस्थिति पर कोई समझौता नहीं कर सकता और मुसलमान भी है। इस समय केंद्रीय मंत्री फारूक अब्दुल्ला उस समय जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री थे। बकौल फारूक, ‘‘मैंने आडवाणी को फोन करके कहा था कि हम मसूद अजहर और मुश्ताक जरगर जैसे आतंकवादियों को रिहा नहीं कर सकते, उन पर कोर्ट में केस चल रहे हैं। इसलिए रिहा नहीं किया जा सकता।
    आडवाणी ने जवाब दिया कि यह केंद्रीय कैबिनेट का फैसला है, आप मदद करें। ‘‘यह बताना भी प्रासंगिक होगा कि फारूक ने किन परिस्थितियों में आडवाणी को फोन किया था। फारूक के अनुसार उस समय जम्मू में उनके राजकीय आवास पर ‘‘राॅ’’ के चीफ ए.एस. दुलात के नेतृत्व में एजेंसी की टीम पहुँच चुकी थी। अर्थात, आतंकवाद से सर्वाधिक प्रभावित होने वाले राज्य के मुख्यमंत्री से सलाह-मशविरा किए बगैर कश्मीर की जेल में बंद (तीसरा शेख उमर शेख दिल्ली की तिहाड़ जेल में था ) दो आतंकवादियों की रिहाई का फैसला कर लिया गया था। आडवाणी, जसवंत या एन.डी.ए. सरकार के किसी भी मंत्री ने आज तक फारूक के बयान का खंडन नहीं किया है। 
     एक मिसाल, देखें कांग्रेस आतंकवाद से कैसे निपटती है। 1984 में कांग्रेस की सरकार थी। प्रधानमंत्री थीं इंदिरा गांधी। जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के आतंकवादियों ने बर्मिंघम (ब्रिटेन) में भारतीय राजनयिक रवींद्र हरेश्वर म्हात्रे का अपहरण कर हत्या कर दी। वह तिहाड़ जेल में बंद लिबरेशन फ्रंट के नेता मकबूल भट की रिहाई की माँग कर रहे थे। अपहरण के तीसरे दिन म्हात्रे का शव बरामद हुआ। इसके बाद तिहाड़ जेल में ही भट को फाँसी दे दी गई। एन.डी.ए. के शासन में राष्ट्रीय सुरक्षा में ढिलाई और कांग्रेसी शासन में राष्ट्रीय हितों पर अडिग रहने और समझौतावादी नीति न अपनाने के अनेक उदाहरण हैं ,जिनके बारे में फिर। 

        -प्रदीप कुमार
लोकसंघर्ष पत्रिका  चुनाव विशेषांक से

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