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Posts Tagged ‘भँवर मेघवंशी’

पक्के हरामजादे हैं
हमारे मसीहा आजकल
बसपा मूलतः बामसेफ नामक एक अधिकारी कर्मचारी संगठन था, जिसमे अनुसूचित जाति, जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग तथा अल्पसंख्यक समुदाय के कर्मचारी शामिल थे। निसंदेह इस संगठन ने सामाजिक चेतना जगाने का काम पूरी शिद्दत से किया। बाबा साहब के ‘पे बैक टू सोसाइटी‘ के सिद्धांत को आधार बना कर समाज के पढ़े लिखे तबके ने बहुजन समाज को संगठित करने, जागृत करने तथा संघर्षशील बनाने के कार्य में अद्भुत सफलता पाई, शुरुआत में कांशीराम इसका नेतृत्व कर रहे थे, लेकिन जब उन्होंने बामसेफ और दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डीएसफोर) को बसपा में बदल डाला तो पीछे रह गए। कुछ लोगों ने बामसेफ को समाप्त करने के बजाए जिंदा रखने पर बल दिया और इस काम में जुट गए। फलतः आज बामसेफ अपने कई समूहों व गुटों में मौजूद है, हर गुट स्वयं को असली साबित करने में लगा रहता है। अलग-अलग प्रान्तों में अलग अलग समूहों का जोर है, राजस्थान में जो गुट ज्यादा प्रभावी है वह वामन मेश्राम का है, ये महाशय भी शुरुआत में मान्यवर कांशीराम के घनिष्ठ सहयोगी रहे थे, बाद में बसपा बन जाने के बाद इन्हांेने बामसेफ के एक धड़े को नेतृत्व देना शुरू कर दिया, मेश्राम आज भी सर्वाधिक सक्रिय बामसेफ समूह के नेता हैं। एक बार बामसेफ के मेश्राम गुट ने ‘आरक्षण समाप्ति की ओर‘ विषय पर राजसमन्द जिला मुख्यालय पर सम्मलेन आयोजित किया, मुझे भी बतौर वक्ता आमन्त्रित किया गया, सो मैं भी गया, कई वक्ता बोल चुके थे, मुख्य वक्ता बामसेफ के राष्ट्रीय
अध्यक्ष वामन मेश्राम बोलने वाले थे, इससे पहले ही केलवा राजकीय माध्यमिक विद्यालय के प्रधानाचार्य सोहन लाल रेगर ने खड़े होकर मंच पर मौजूद लोगों से एक सवाल पूछा कि अगर सब लोगों को रोजगार का
अधिकार मिल जाए तो क्या आरक्षण समाप्त हो सकता है? बस इतनी सी बात पर माननीय वामन मेश्राम बुरी तरह भड़क गए, वे सामान्य शिष्टाचार भी भूल गए और दलित गरिमा और स्वाभिमान की धज्जियाँ उड़ाते हुए बोले दृरे रेगर तुझे प्रिंसिपल किसने बना दिया है? सोहन लाल जी ने मेश्राम जी को टोका और बोले कि आप संसदीय भाषा नहीं बोल रहे हैं, माइंड योर लैंग्वेज, इस बात पर तो मेश्राम साहब बेकाबू ही हो गए बोले दृरे मुझे तमीज सिखाता है, मैं चाहँू तो अभी मेरे लोग उठा कर इस सभा से तुझे बाहर फेंक देंगे, चुपचाप बैठ, सवर्णों के दलाल जैसे सवाल करता है।.
बामसेफ के राष्ट्रीय अध्यक्ष जिन्हें माननीय कह कर लोग सम्मानित करते हैं और एक बड़ा नेता मानते हैं, उनके द्वारा किए गए इस तरह के घटिया व्यवहार से हर कोई स्तब्ध था, पर वहाँ एक चुप्पी सी छाई हुई थी, कोई भी साहब के गुस्से का शिकार नहीं होना चाहता था, पता नहीं सोहन जी की तरह किसी और को भी अपमानित होना पड़े इसलिए कोई कुछ नहीं बोला, लेकिन मैं कैसे सहन करता, मैंने माइक पर जाकर अपना गुबार निकाल ही दिया कि दृ हम इस तरह के व्यवहार का समर्थन नहीं कर सकते हैं बहुजन नायकों की ऐसी बेलगाम भाषा को हम सहन नहीं करेंगे, हमारी पूरी लड़ाई ही इज्जत, स्वाभिमान और गरिमा की है, अगर कोई भी, चाहे वे वामन मेश्राम साहब ही क्यों न हांे, हमारे लोगों के स्वाभिमान को ठेस पहुँचाएँगे तो हम उनसे भी संघर्ष को तैयार हंै, हम अनंत समय तक कथित अपने रहनुमाओं और परायों से लड़ेंगे, रही बात आज के इस निकृष्ट व्यवहार की तो मैं मंच की, ओर से आदरणीय सोहन लाल जी रेगर से क्षमा प्रार्थना करता हूँ और इस सभा का बहिष्कार करता हूँ, हमें ऐसे लोगांे की जरूरत नहीं है, जो सवालों, असहमतियों और आलोचनाओं से डर जाते हों, ऐसा कायर नेतृत्व हमें मंजूर नहीं है, हमें समावेशी और धीर, गंभीर तथा सबको सम्मान देने वाला सामूहिक नेतृत्व चाहिए। मैं यह कह कर मंच से नीचे आ गया, मेरे पीछे-पीछे बड़ी संख्या में शेष लोग भी निकल आए, अन्य कई मंचस्थ लोगों ने भी सभा छोड़ दी, बचे रहे केवल मेश्राम और उनकी चंदा उगाओ, चंदा खाओ टीम। इस दुखद अनुभव के बाद मैंने बामसेफ से एक दूरी बना ली, वैचारिक रूप से आज भी बामसेफ को स्वयं के नजदीक पाता हूँ, पर रहबरों की कथनी और करनी के फर्क ने मुझे उनसे जुड़़ने से पहले ही तोड़ डाला।
अब सुनता हूँ कि वामन मेश्राम का धंधा जोर शोर से चल रहा है, उनकी दुकान चल निकली है, पूरे मसीहा बन बैठे हैं, जय भीम के नारे को उन्होंने जय मूल निवासी में बदल डाला है, बामसेफ से पेट नहीं भरा तो भारत मुक्ति मोर्चा खड़ा कर लिया और अब राज सत्ता की ओर बढ़ने के लिए बहुजन मुक्ति पार्टी बना ली है, चंदा उगाही का काम बदस्तूर जारी है, मिशन के नाम पर सब कुछ जायज हो गया है, समाज के लिए जीवन देने वाले मसीहा अपने ही कार्यकर्ता की अपने से आधी उम्र की बेटी से परिणय सूत्र बंधन में
बंध कर शादीशुदा हो गए हैं, खुद की कोई फैक्ट्री तो उनकी चलती नहीं है कि अपनी बुढ़ापे की इस शादी का रिसेप्शन निजी पैसों से करते सो समाज से संगृहीत धन से ही शानदार आशीर्वाद समारोह कर डाला, बातें अब भी मिशन की ही होती हैं, जीवन में बड़े मजे हैं, मंचांे पर समाज परिवर्तन के उपदेश और खुद की जिन्दगी में रत्ती भर भी बदलाव नहीं, यह क्या हो जाता है हमारे मसीहाओं को अचानक? ज्यादातर दलित नेता थोड़ी सी प्रसिद्धि मिलते ही औरतखोरी पर क्यों उतर आते हैं, कई बार इन रहबरों की कारगुजारियाँ बेहद पीड़ा के साथ मिशनरी साथी सुनाते हैं, तब कहना पड़ता है कि पक्के हरामजादे हागए हैं हमारे मसीहा। आजकल दलित वर्ग की विडम्बना यह है कि कोई भी बाबा साहब के नाम पर मूर्खतापूर्ण थियरीज लेकर आ जाए उसे ही माननीय या साहब मान लिया जाता है, विगत कई वर्षों से बहुत सारी अमरबेलें दलित समाज के निरंतर सूखते जा रहे पेड़ पर फलती फूलती रही हैं जो साल भर घूम-घूम कर ‘पे बैक टू सोसाइटी‘ के नाम पर लोगों को मूर्ख बनाती हैं, चंदा उगाहती हैं और साल के आखिर में एक अधिवेशन करके हिसाब-किताब पूरा कर देती हैं, इनका यही काम हो गया है, बस बाबा साहब की कृपा से सबकी दुकानें चल रही हैं, कोई अगर इस दुकानदारी पर सवाल खड़ा कर दे तो उसे ‘यूरेशियन ब्राहमणों का दलाल‘ घोषित कर देते हैं या चंदे के कूपनों में घोटाले का मुख्य आरोपी करार देते हैं, बस उनका काम चलता रहता है और दलित बहुजन समाज अपना सिर धुनता रहता है, यह निरंतर प्रक्रिया है दशकों से चल रही है, मेरा मानना है कि जब तक दलित बहुजन मूलनिवासी समाज के लोग अपने ही मसीहाओं से जवाबदेही नहीं माँगेंगे तब तक हर दौर हरामी मसीहाओं का दौर ही रहेगा।

-भँवर मेघवंशी
क्रमस:
लोकसंघर्ष पत्रिका के दिसम्बर 2014 के अंक में प्रकाशित ccfe1-10628782_10202053747864567_9173450344336042494_o198715_201831289872425_6602212_n

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दलित बहुजन राजनीति की ओर
दलित सेना से निकाले जाने के बाद मेरे लिए अगला स्वाभाविक ठिकाना बहुजन समाज पार्टी और उस जैसी सोच रखने वाले संस्था, संगठन थे, मैं अपने आपको अब वैचारिक रूप से इन्हीं के करीब पाता था, मैंने सोच रखा था कि किसी दिन अगर मैं सक्रिय राजनीति का हिस्सा बनूँगा तो उसकी शुरुआत बसपा से ही होगी, बसपा उन दिनों मेरे लिए एक सामाजिक आन्दोलन थी, मेरे एक मित्र आर0पी0 जलथुरिया के घर बहुजन संगठक नामक अखबार आता था, मैं उसे नियमित रूप से पढ़ता था, बसपा सुप्रीमों मान्यवर कांशीराम के प्रति मन में बहुत अधिक सम्मान भी था, उनके द्वारा सोई हुई दलित कौमों को जगाने के लिए किए जा रहे प्रयासों का मैं प्रशंसक और समर्थक था, तिलक तराजू और तलवार को जूते मारने की बात मुझे अपील करती थी। उस वक्त का मीडिया आज जितना ही दलित विरोधी था, मान्यवर मीडिया के इस चरित्र का बहुत ही सटीक और सरल विश्लेषण करते हुए कहते थे कि मीडिया कभी भी बहुजन समर्थक नहीं हो सकता है, उसमें बनिए का पैसा और ब्राह्मण का दिमाग लगा हुआ है, अगर हम देखें तो हालात अब भी जस के तस ही है, अभी भी अधिकांश मीडिया हाउस के मालिक वैश्य हैं और संपादक ब्राह्मण।
कांशीराम को तत्कालीन मीडिया अक्सर एक अवसरवादी और जातिवादी नेता के रूप में पेश करता था, अवसरवाद पर बोलते हुए उन्होंने एक बार कहा था-हाँ मैं अवसरवादी हूँ और अवसर ना मिले तो मैं अवसर बना लेता हूँ समाज के हित में और वाकई उन्होंने बहुजनों के लिए खूब सारे मौके बनाए, उनके द्वारा दिए गए नारों ने उन दिनों काफी हलचल मचा रखी थी, मनुवाद को उन्होंने जमकर कोसा, जयपुर में हाईकोर्ट में खड़े मनु की मूर्ति को हटाने के लिए भी उन्होंने अम्बेडकर सर्कल पर बड़ी मीटिंग की, हम भीलवाड़ा से पूरी बस भर कर लोगों को लाए, मान्यवर की पुस्तक चमचा युग भी पढ़ी, उसमें चमचों के विभिन्न प्रकार पढ़कर आनंद आया, चमचों का ऐसा वर्गीकरण शायद ही किसी और ने किया होगा, वाकई कांशीराम का कोई मुकाबला नहीं था। बाबा साहब अम्बेडकर के बाद उन्होंने जितना किया, उसका आधा भी बहन कुमारी कर पातीं तो तस्वीर आज जितनी निराशाजनक है शायद नहीं होती, पर दलित की बेटी दौलत की बेटी बनने के चक्कर में मिशन को ही भुला बैठी।
मुझे मान्यवर से 5 बार मिलने का अवसर मिला, उनकी सादगी और समझाने के तरीके ने मुझे प्रभावित किया, वे जैसे थे, बस वैसे ही थे, उनका कोई और चेहरा नहीं था, तड़क भड़क से दूर, मीडिया की छपास लिप्सुता से अलग, लोगों के बीच जाकर अपनी बात को समझाने का उनका श्रम
साध्य कार्य मेरी नजर में वन्दनीय था, मैं उनकी बातों और नारों का तो दीवाना ही था, ठाकुर ब्राह्मण बनिया को छोड़कर सबको कमेरा बताना और इन्हें लुटेरा बताने का साहस वो ही कर सकते थे, ये मान्यवर कांशीराम ही थे जिन्होंने कांग्रेस को साँपनाथ, भाजपा को नागनाथ, जनता दल को सँपोला और वामपंथियों को हरी घास के हरे साँप निरूपित किया था, बसपा सपा गठबंधन सरकार के शपथ ग्रहण के वक्त लगा नारा-मिले मुलायम कांशीराम, भाड़ में जाए जय श्रीराम, उस वक्त जितना जरुरी था, आज भी उसकी उतनी ही या उससे भी अधिक जरूरत महसूस होती है।
चूँकि मेरा प्रारम्भिक प्रशिक्षण संघी कट्टरपंथी विचारधारा के साथ हुआ इसलिए चरमपंथी विचारधारा मुझे तुरंत लुभा लेती थी, उदारवादी और गांधीवादी टाइप के अम्बेडकरवादियों से मुझे कभी प्रेम नहीं रहा, समरसता, समन्वयन और भाईचारे की फर्जी बातों पर मेरा ज्यादा यकीन वैसे भी नहीं था, इसलिए मान्यवर जैसे खरी खरी कहने वाले व्यक्ति को पसंद करने में मुझे कोई दिक्कत नहीं थी, एक और बात जो उनकी मुझे पसंद आती थी वह यह थी कि वे कभी किसी की चमचागीरी नहीं करते दिखाई पड़े, याचक सा भाव नहीं, बहुजनों को हुक्मरान बनाने की ललक और उसके लिए जीवन भर का समर्पण, इसलिए मैं सदैव ही कांशीराम को पसंद करता रहा और आज भी अपनी सम्पूर्ण चेतना के साथ उन्हें आदर देता हूँ। मेरी उनसे आखिरी मुलाकात चित्तौड़गढ़ के डाक बंगले में हुई, वे गाडि़या लोहारों के सम्मेलन को संबोधित करने आए थे, उन्होंने कहा कि मैं चाहता हूँ की राजस्थान में कोई मेघवाल मुख्यमंत्री बने, मैं उन्हें राजा बनाने आया हूँ, लेकिन मान्यवर की इस इच्छा को परवान चढ़ाने के लिए बसपा कभी उत्सुक नहीं नजर आई, जो लीडरशिप इस समुदाय से उभरी शिवदान मेघ, भोजराज सोलंकी अथवा धरमपाल कटारिया के रूप में, उसे भी किसी न किसी बहाने बेहद निर्ममता से खत्म कर दिया गया, मैंने देखा कि ज्यादातर प्रदेश प्रभारी बहन जी उतर प्रदेश से ही भेजती हैं जिनका कुल जमा काम राजस्थान से पार्टी फण्ड, चुनाव सहयोग और बहन जी के बर्थ डे के नाम पर चंदा इकट्ठा करना रहता है,
जब तक मान्यवर कांशीराम जिंदा और सक्रिय रहे, तब तक बसपा एक सामाजिक चेतना का आन्दोलन थी ,उसके बाद वह जेबकतरों की पार्टी में तब्दील होने लगी, जिधर नजर दौड़ाओ उधर ही लुटेरे लोग आ बैठे, बातें विचारधारा तथा मिशन की और काम शुद्ध रूप से लूट-पाट। सेक्टर प्रभारी से लेकर बहनजी तक जेब गरम ही बसपा का खास  धरम हो गया, धन की इस वेगवान धारा में विचारधारा कब बह कर कहाँ जा गिरी, किसी को मालूम तक नहीं पड़ा, आज भी यह प्रश्न अनुत्तरित है कि बसपा नामक विचारधारा का आखिर हुआ क्या?
तिलक तराजू और तलवार को चार-चार जूते मारने वाले उन्हीं  तिलक धारियों के जूते और तलुवे चाटने लग गए, बसपा का हाथी अब मिश्रा जी का गणेश था, मनुवाद को कोसने वाले अब ब्राह्मण भाईचारा सम्मेलनों में शंखनाद कर रहे थे और पूरा बहुजन समाज बहनजी की इस कारस्तानी को सामाजिक अभियांत्रिकी समझ कर ढपोरशंख बना मूक दर्शक बना हुआ था, किसी की मजाल जो दलित समाज की नई नवेली इस तानाशाह के खिलाफ सवाल उठाने की हिम्मत करता? बसपा अब द्विजों को जनेऊ बाँटने का गोरखधंधा भी करने लगी थी, दलितों को बिकाऊ नहीं टिकाऊ होने की नसीहत देने वाली पार्टी के चुनावी टिकट सब्जी मंडी के बैगनों की भाँति खुले आम बिकने लगे, पैसा इकट्ठा करना ही महानतम लक्ष्य बन चुका था, बर्थ डे केक, माथे पर सोने का ताज और लाखों रूपए की माला पहन कर बहनजी मायावती से मालावती बन बैठीं, बहुजन समाज स्वयं को ठगा सा महसूस करने लगा, सामाजिक परिवर्तन के एक जन आन्दोलन का ऐसा वैचारिक पतन इतिहास में दुर्लभ ही है, मैं जिस उम्मीद के साथ बसपा में सक्रिय हुआ, वैसा कोई काम वहाँ था ही नहीं, वहाँ कोई किसी की नहीं सुनता है, बहन जी तो कथित भगवानों की ही भाँति अत्यंत दुर्लभ हस्ती हैं , कभी कभार पार्टी मीटिंगों में दर्शन देतीं, जहाँ सिर्फ वे कुर्सी पर विराजमान होतीं और तमाम बहुजन कार्यकर्ता उनके चरणों में बैठ कर धन्य महसूस करते, बसपा जैसी पार्टी में चरण स्पर्श जैसी ब्राह्मणवादी क्रिया नीचे से ऊपर तक बेहद पसंद की जाती है, जो जो चरनागत हुए वे आज तक बहन जी के शरनागत है, शेष का क्या हाल हुआ, उससे हर कोई अवगत है, जो भी बहन जी को चमकता सितारा लगा, उसकी शामत आ गयी, बोरिया बिस्तर बँध गए, सोचने समझने की जुर्रत करने वाले लोग गद्दार कहे जा कर मिशनद्रोही घोषित किए गए और उन्हें निकाल बाहर किया गया, हालत इतने बदतर हुए कि हजारों जातियों को एकजुट करके बनी बहुजन समाज पार्टी सिर्फ ब्राह्मण चमार पार्टी बन कर रह गई, मान्यवर कांशीराम रहस्यमय मौत मर गए और धीरे-धीरे बसपा भी अपनी मौत मरने लगी, उसका मरना जारी है। सामाजिक चेतना के एक आन्दोलन का इस तरह मरना निःसंदेह दुख का विषय है पर किया ही क्या जा सकता है, जहाँ आलोचना को दुश्मनी माना जाता हो और कार्यकर्ता को पैसा उगाहने की मशीन, वहाँ विचार की बात करना ही बेमानी है, मैं बसपा का सदस्य तो रहा और मान्यवर ने मुझे राष्ट्रीय कार्यकारिणी के लिए भी नामित किया, लेकिन मैं कभी भी आचरण से बसपाई नहीं हो पाया, मुझमें वह क्षमता ही नहीं थी, यहाँ भी लीडर नहीं डीलर ही चाहिए थे, जिन कारणों ने पासवान जी से पिंड छुड़वाया वे ही कारण बहनजी से दूर जाने का कारण बने, दरअसल जिस दिन कांशीराम मरे, उस दिन ही समाज परिवर्तन का बसपा नामक आन्दोलन भी मर गया, मेरे जैसे सैंकड़ों साथियों के सपने भी मर गए, उस दिन के बाद ना मुझे बसपा से प्यार रहा और ना ही नफरत।
-भँवर मेघवंशी
लोकसंघर्ष पत्रिका -सितम्बर अंक में प्रकाशित
मोबाइल: 09571047777

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धर्मान्तरण की कोशिशे
मैंने गंभीरता से धर्मान्तरण के बारे में सोचना शुरू किया, संघ में रहते हुए यह समझ थी कि सिख, जैन और बौद्ध तो हिन्दू ही है और मुसलमानों को लेकर अभी भी दिल दिमाग में कई शंकाए आशंकाए थीं, इसलिए इस बारे में सोचना भी जरूरी नहीं लगा, तब एक मात्र विकल्प के रूप में ईसाई ही बचे थे, मैंने सोचा क्यों नहीं ईसाई लोगों से बात की जाये, ये लोग पढ़े लिखे भी होते हैं और कम कट्टर भी, रही बात संघ की तो वे ईसाइयों से भी उतने ही चिढ़ते है जितने कि मुस्लिमों से। लेकिन सवाल यह उठ खड़ा हुआ कि ये ईसाई लोग पाए कहाँ जाते हैं मैं आज तक किसी भी ईसाई से नहीं मिला और ना ही कोई परिचित था हालाँकि आरएसएस में रहते उनके खिलाफ बहुत पढ़ा था, यह भी सुन रखा था कि जो भी उनके धरम में जाता है, उन्हें लड़की और नौकरी दी जाती है, पर मुझे तो दोनों की ही जरुरत नहीं थी, मुझे तो सिर्फ बदला लेना था, मुझे तो सिर्फ उनको चिढ़ाना था, जिन्होंने मेरी बेइज्जती की थी और मुझे ठुकरा दिया था। मैंने ईसाई खोजो अभियान शुरू कर दिया, जल्दी ही मैं भीलवाड़ा शहर के आजाद नगर क्षेत्र के एक प्रिंटिंग प्रेस के मालिक से मिलने में सफल रहा जिनका नाम बथुअल गायकवाड़ बताया गया था, दरअसल मेरे जीजाजी जो कि प्रेस पर कम्पोजीटर थे, वे कुछ ही दिन पहले इस प्रेस पर काम पर लगे थे और मैं उनको ढूँढते हुए वहाँ पहँुचा तो मेरी दोनों खोजें पूरी हो गई, ये महाशय एक स्कूल और चर्च के भी मालिक थे, मैंने उनसे बात की और अपना छिपा हुआ एजेंडा बताया और उनसे पूछा कि-क्या मैं ईसाई बन सकता हूँ? उन्होंने पूछा कि क्यों बनना चाहते हो? तब मैंने उन्हें आरएसएस के साथ चल रहे अपने पंगे के बारे में बताया और कहा कि मैं उनको सबक सिखाना चाहता हूँ। इस पर गायकवाड़ जी बोले-मसीहियत बदला लेने में नहीं बल्कि माफ करने में विश्वास करती है। इसलिए तुम भी उन्हें माफ कर दो और रेगुलर चर्च आना शुरू करो, जीजस में यकीन करो, वही हमारा मुक्तिदाता और सारे सवालों का जवाब है। मैंने उनसे साफ कहा कि मैं मुक्ति नहीं खोज रहा और न ही धर्म और भगवान, ना ही मेरा कोई सवाल है, मुझे कोई जवाब नहीं चाहिए मैं तो सिर्फ और सिर्फ संघ की पाखंडी और दोगली नीति को बेनकाब करना चाहता हूँ उन्होंने मेरी बात को पूरी ओढ़ी हुई धार्मिक गंभीरता से सुना और अगले रविवार को प्रार्थना में आने का न्योता दिया, मैं रविवार को उनकी प्रार्थना सभा का हिस्सा बनता इससे पहले ही पादरी साहब ने मेरे जीजाजी के मार्फत मेरे परिवार तक यह समाचार भिजवा दिए कि मुझे समझाया जाए क्योंकि मैं ईसाई बनने की कोशिश कर रहा हूँ।
बाद में उन्हें छोड़ कर मैं मेथोडिस्ट, बैप्टिस्ट, सीएनआई, सीरियन, कैथोलिक और भी न जाने कैसे कैसे अजीबो गरीब नाम वाले चर्च समूहों के पास पहुँचा, उन्हें अपनी बात बताई और कहा कि मुझे ईसाई बना दो, लेकिन सब लोग आरएसएस का नाम लेते ही घबरा जाते थे, उन्हें लगता था कि मैं आरएसएस का ही आदमी था जो किसी साजिश के तहत उन्हें जाल में फँसाने की कोशिश कर रहा था, इसलिए वे जल्दी ही किसी न किसी बहाने अपना पिंड छुड़ा लेते मुझे कहीं भी सफलता नहीं मिल पा रही थी।
मसीह मंजूर, मसीहियत नामंजूर
पर हार मानना मेरे स्वभाव में नहीं था, मैं एक स्कूल टीचर से मिला जो मूलतः ब्राह्मण थे मगर वे धर्मान्तरण कर हरिनारायण से अच न्यूमेन हो गए थे। उन्होंने मुझे कुछ धार्मिक शिक्षा दी, मुझे धरम करम में कोई रुचि नहीं थी, सही बात तो यह थी कि मुझे बाइबिल, चर्च, जीसस और मुक्ति जैसी किसी भी बात में रुचि नहीं थी, मेरा मकसद तो कुछ और ही था, मैं न्यूमेन से संतुष्ट नहीं था, उन्होंने मुझे एक सेवंथ डे एडवेंटिस्ट पास्टर परवेज लाल का पता देकर कहा कि इनको चिट्ठी लिखना शायद ये तुम्हारी कुछ मदद कर पाएँगे, मैंने चिट्ठी लिख दी और गाँव आ गया। कुछ ही दिनों में दो अपरिचित सज्जन मेरे घर की दहलीज पर खड़े हो कर मुझी से मेरा पता पूछ रहे थे, मैंने कहा कि मैं ही हूँ वह जिसे आप खोज रहे है। उन्होंने बताया कि वे जोधपुर से आए हैं पादरी पीम लाल, मैंने उनका स्वागत किया, चाय पिलाई, उन्होंने मेरी पूरी बात सुनी और मुस्करा कर बोले कल मेरे साथ चलो।
मैं उनके साथ जोधपुर आ गया करीब तीन महीने उनके पास रहा, उन्होंने पूरी बाइबिल शब्दशः पढ़ा दी, क्षमा, करुणा और प्रायश्चित का महत्व समझाया, इतना कुछ समझाया जितना कि एक ‘’बेचलर ऑफ थियोलोजी‘ के लिए जरुरी होता है, मगर मैं अब भी एक बागी हिन्दू ही था, इसी कारण ज्यादा भरोसेमंद नहीं था उनके लिए, एक रोज उनके चर्च के तमाम विश्वासियों और खुद पास्टर साहब ने तय किया कि मेरा बप्तिस्मा किया जाए, पर इसके लिए जरुरी था कि मैं जोधपुर के जिला कलेक्टर के सामने यह शपथपत्र प्रस्तुत करूँ कि मैं ईसाई बनना चाहता हूँ मैंने यह करने से साफ इंकार कर दिया, मैं तो सिर्फ आरएसएस को चिढ़ाना चाहता था मुझे सिर्फ इतना ही करना था, न इससे कुछ कम और न ही इससे ज्यादा  उन्होंने आपस में कुछ तय किया तथा कानूनन धर्म परिवर्तन करने की योजना को त्याग दिया। अंततः उन्होंने बपतिस्मे की केवल धार्मिक रीति गुपचुप तरीके से करने का निश्चय किया।
फिर एक रविवार को उन्होंने कुछ गीत गाए, बाइबिल से कुछ आयतें पढ़ीं और मुझे पानी के एक टैंक में डुबोकर बाहर निकला, बाहर निकालते वक्त उन्होंने मुझे सफेद कपड़े में ढँका और मेरे कान में कहा कि ‘आज से तुम्हारा पुनर्जन्म हो गया है‘, इस प्रक्रिया को वो ‘बोर्न अगेन‘ कहते है, अब मैं उनकी नजर में एक भरोसेमंद व्यक्ति था लेकिन मुझे धर्म का खोखलापन साफ नजर आ रहा था, यह क्या धर्म है, जो हर सवाल के लिए जीसस को ही उत्तरदायी मानता हो, मेरे अन्दर विद्रोह की लहर सी उठी, मैं यह क्या होने दे रहा हूँ अपने साथ मुझे लगा कि मैं एक खाई से निकल कर कुँए में गिर गया हूँ, एक गुलामी से निकल कर दूसरी दासता में जा रहा था। वास्तव में मैं उस दिन खुद को एक ऐसे कैदी के रूप में पा रहा था जो सिर्फ जेल बदल रहा था।
मैं अपने भीतर के विद्रोही इन्सान को दबा नहीं पा रहा था, मैंने स्पष्ट कर दिया कि मुझे मसीह तो फिर भी मंजूर हो सकते हैं पर आपकी यह मसीहियत मुझे कतई मंजूर नहीं है मैं इसे बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगा भले ही आप लोग टाई, कोट और जूते पहन कर अंग्रेजी में प्रार्थना करते हैं लेकिन मूर्खताओं में आपका भी मुकाबला नहीं है। मुझे धर्म के किसी भी संगठित स्वरूप पर घिन आने लगी, मैं ईसाइयत के अन्धे कुँए से बाहर आने को छटपटाने लगा, जल्दी ही मैंने उनको उनकी तमाम मूर्खताओं के साथ अलविदा कह दिया। मुझे सुकून तब मिला जब मैं उनसे मुक्त हुआ मैं आराम की नींद सोया, मुझे लगा कि मुक्ति जीसस, बाइबिल या मसीहियत अथवा किसी भी धर्म में नहीं है बल्कि मुक्ति तो इनसे मुक्त हो जाने में है और मैं इनसे मुक्त हो रहा था मैं खुश था मुझे खुशी हो रही थी कि मैं अब धार्मिक नहीं था मैं विश्वासी नहीं था मैं स्वर्ग में स्थान नहीं पाने जा रहा था मैं अब नरक जाने वाली गाड़ी में सवार था और मैं वाकई इससे बेहद खुश था।
-भँवर मेघवंशी
लोकसंघर्ष पत्रिका -सितम्बर अंक में प्रकाशित

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 देशी तालिबानियों से संघर्ष की शुरुआत

लोकसंघर्ष पत्रिका  का कवरअब मैं वे सब काम करने को तत्पर था, जो तालिबान के इस भारतीय संस्करण को चोट पहुँचा सके, इसकी शुरुआत मैंने छात्र राजनीति में विद्रोही कदम उठाने के जरिये की, भीलवाड़ा कॉलेज में आरएसएस के विद्यार्थी संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् से बगावत करके एक नया छात्र संगठन बनाया गया, जिसे विद्यार्थी अधिकार रक्षक संघ (वार्स) नाम दिया गया, संघ के ही एक अन्य बगावती स्वयंसेवक बृजराज कृष्ण उपाध्याय इसका नेतृत्व कर रहे थे, मैं इसके प्रारंभिक काल का संगठन मंत्री बना, हमने संघी छात्र संगठन के पाँव उखाड़ना चालू कर दिया, जगह-जगह पर वार्स की इकाइयाँ स्थापित होने लगीं, लोग संघ की मानसिक गुलामी से निजात पाने के लिए वार्स को विकल्प के रूप में देखने लगे, हमारे नेता बृजराज में गजब की हिम्मत और लगन रही, अद्भुत जीवट वाला व्यक्ति, उस बन्दे पर आरएसएस के लोगों ने बहुत जुल्म ढाए अलग छात्र संगठन बनाना संघ को बर्दाश्त नहीं था, इसलिए आरएसएस और एबीवीपी के कार्यकर्ताओं द्वारा उन पर कई बार जानलेवा हमले किए गए, एक बार तो मांडलगढ़़ इलाके में त्रिवेणी चैराहे के पास उनके साथ भयंकर मारपीट की गयी, सिर में पेचकश घुसेड़ दिया गया और फिर मरा समझ कर छोड़कर भाग गए, यह हमला इसलिए किया गया क्योंकि वार्स के साथी संघ से जुड़े लोगों के आपराधिक कृत्यों को उजागर कर रहे थे दरअसल उन दिनों संघ के अल्पकालिक प्रचारक और विस्तारक किस्म के जो लोग थे, वे इस खनन क्षेत्र में अवैध एक्सप्लोजिव तथा हथकड़ी शराब बेचने वालों को संरक्षण दे रहे थे, ऐसा हमें मालूम हुआ था, यह भी पता चला कि कुछ माननीय भाई साहब ऐसे लोगों से वसूली भी करते रहे थे, बस इन्हीं बातों के बारे में सार्वजनिक रूप से बोलना हमें भारी पड़ गया, निशाने पर पूरा संगठन ही था, मगर हत्थे सिर्फ बृजराज कृष्ण उपाध्याय ही चढ़े, सो उन्हें इतना मारा गया कि वे राष्ट्रभक्तों के हाथों शहीद होते-होते बचे वैसे भी मांडलगढ़    सेंड स्टोन माइनिंग का इलाका है जहाँ पर किसी की भी जान लेना खनन माफिया के दाहिने हाथ का खेल रहा है, ऐसे इलाके में उपाध्याय को मारने की साजिश की गई थी, लेकिंन किसी प्रकार से उनकी जान बचा ली गयी, आसपास के लोगों ने गंभीर रूप से घायल उपाध्याय को समय रहते उपचार के लिए महात्मा गांधी चिकित्सालय भीलवाड़ा पहुँचा दिया, जहाँ वे लम्बे उपचार के पश्चात ठीक हो पाए। बात सिर्फ संघ के कथित अनुशासित स्वयंसेवकों के धतकरमों को उजागर करने मात्र की ही नहीं थी बल्कि चरित्र, शील और संस्कार का दंभ भरने वाले उस छात्र संगठन की कारगुजारियों के पर्दाफाश की भी थी, जिन्होंने अपनी ही छात्रा इकाई की पदाधिकारियों के शील को भंग करने जैसे पाप कर्म करने से भी गुरेज नहीं किया था, हालत इतने संगीन थे कि उनमें से एक का गर्भपात करवा कर भ्रूण हत्या जैसी अधम कार्यवाही तक को अंजाम दिया गया था। इस फर्जी शील, चरित्र और संस्कार पर हम नहीं बोलते, ऐसा तो हो नहीं सकता था, हमने जब उनकी पोल खोलनी शुरू की तो वे अपने चिर परिचित हथियार डंडे के साथ हम लोगों से विचार विमर्श करने आ पहुँचे, संघ के लोग ज्यादातर मौकों पर तर्क के स्थान पर लट्ठ का उपयोग करते हैं, उन्हें यही सिखाया गया है कि लातों के भूत बातों से नहीं मानते हैं खैर, संघी आकाओं के इशारे पर शिक्षा के मंदिरों को गुंडागर्दी के अड्डे बनाने की हर कोशिश को विफल करने के लिए वार्स बेहद मजबूती से कई साल तक भीलवाड़ा में सक्रिय रहा,कई कॉलेजों में कई बार छात्र संघ चुनाव में हमारे अभ्यर्थी जीते, हमने न केवल भाजपाई संघी छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् को, बल्कि कांग्रेसी छात्र संगठन एनएसयूआई को भी कॉलेज परिसर से खदेड़    दिया। वार्स एक वैकल्पिक छात्र संगठन के रूप में उभरा जिसने लम्बे समय तक केवल छात्र समस्याओं को ही नहीं उठाया बल्कि शहर और जिले की विभिन्न जन समस्याओं को भी प्रभावी तरीके से उठाया तथा युवाओं को जातिवादी और सांप्रदायिक छात्र संगठनों से भी दूर रखा।

ये कौन से ब्राह्मण हुए ?
संघ की वजह से अम्बेडकर छात्रावास छूट गया था और अब संघ कार्यालय भी, शहर में रहने का नया ठिकाना ढूँढना पड़ा, मेरे एक परिचित संत चैतन्य शरण शास्त्री, जो स्वयं को अटल बिहारी वाजपेयी का निजी सहायक बताते थे, वे उन दिनों कृषि उपज मंडी भीलवाडा में स्थित शिव हनुमान मंदिर पर काबिज थे, मैंने उनके साथ रहना शुरू किया, हालाँकि थे तो वे भी घनघोर हिन्दुत्ववादी लेकिन संघ से थोड़े    रूठे हुए भी थे, शायद उन्हें किसी यात्रा के दौरान पूरी तवज्जोह नहीं दी गयी थी, किसी जूनियर संत को ज्यादा भाव मिल गया, इसलिए वे खफा हो गए, हम दोनों ही खफा-खफा हिंदूवादी एक हो गए और एक साथ रहने लगे। मैं दिन में छात्र राजनीति करता और रात्रि विश्राम के लिए शास्त्री जी के पास मंदिर में रुक जाता, बेहद कठिन दिन थे, कई बार जेब में कुछ भी नहीं होता था, भूखे रहना पड़ता, ऐसे भी मौके आए जब किसी पार्क में ही रात गुजारनी पड़ी भूखे प्यासे ऊपर से एंग्री यंगमैन की भूमिका जहाँ भी जब भी मौका मिलता, आरएसएस के खिलाफ बोलता और लिखता रहता। उन दिनों कोई मुझे ज्यादा भाव तो नहीं देता था पर मेरा अभियान जारी रहता, लोग मुझे आदिविद्रोही समझने लगे। संघ की ओर से उपेक्षा का रवैय्या था ना तो वे मेरी बातों पर कुछ बोलते और ना ही प्रतिवाद करते, एकठंडी सी खामोशी थी उनकी ओर से, इससे मैं और भी चिढ गया। संत शास्त्री भी कभी कभार मुझे टोकाटाकी करते थे कि इतना उन लोगों के खिलाफ मत बोलो, तुम उन लोगों को जानते नहीं हो अभी तक, संघ के लोग बोरे में भर कर पीटेंगे और रोने भी नहीं देंगे। पर मैंने कभी उनकी बातों की परवाह नहीं की
वैसे तो चैतन्य शरण शास्त्री जी अच्छे इन्सान थे मगर थे पूरे जातिवादी। एक बार मेरा उनसे जबरदस्त विवाद हो गया, हुआ यह कि शास्त्री और मैं गांधी नगर में गणेश मंदिर के पास किसी बिहारी उद्योगपति के घर पर शाम का भोजन करने गए, संभवतः उन्होंने किन्हीं धार्मिक कारणों से ब्राह्मणों को भोजन के लिए आमंत्रित किया था, शास्त्री जी मुझे भी साथ ले गए, मुझे कुछ अधिक मालूम न था, सिर्फ इतनी सी जानकारी थी कि आज शाम का भोजन किसी करोड़पति बिहारी बनिए के घर पर है। इस प्रकार घर-घर जाकर भोजन करने की आदत संघ में सक्रियता के दौरान पड़ ही चुकी थी, इसलिए कुछ भी अजीब नहीं लगा, संघ कार्यालय प्रमुख रहते हुए मैं अक्सर प्रचारकों के साथ संघ के विभिन्न स्वयंसेवकांे के यहाँ खाने के लिए जाता था और वह भी कथित उच्च जाति के लोगों के यहाँ, सो बिना किसी संकोच के मैं शास्त्री जी के साथ चल पड़ा। भोजन के दौरान यजमान (दरअसल मेजबान) परिवार ने मेरा नाम पूछा, मैंने जवाब दिया-भंवर मेघवंशी, वे लोग बिहार से थे, राजस्थान की जातियों के बारे में ज्यादा परिचित नहीं थे, इसलिए और पूँछ बैठे कि-ये कौन से ब्राह्मण हुए? मैंने मुँह खोला-मैं अनुसूचित, मेरा जवाब पूरा होता उससे पहले ही शास्त्री जी बोल पड़े-ये क्षत्रिय मेघवंशी ब्राह्मण हैं। बात वहीं खत्म हो गई, लेकिन जात छिपाने की पीड़ा ने मेरे भोजन का स्वाद कसैला कर दिया और शास्त्री भी खफा हो गए कि मैंने उन्हें क्यों बताने की कोशिश की कि मैं अनुसूचित जाति से हूँ। हमारी जमकर बहस हो गई मैंने उन पर झूठ बोलकर धार्मिक लोगों की आस्था को ठेस पहँुचाने का आरोप लगा दिया तो उन्होंने भी आखिर कह ही दिया कि ओछी जाति के लोग ओछी बुद्धि के ही होते हैं। मैं तो तुम्हे ब्राह्मण बनाने की कोशिश कर रहा हूँ और तुम उसी गन्दी नाली के कीड़े बने रहना चाहते हो, मैं गुस्से के मारे काँपने लगा, जी हुआ कि इस ढोंगी की जमकर धुनाई कर दूँ पर कर नहीं पाया, मगर उस पर चिल्लाया, मैं भी कम नहीं मैंने भी कह दिया तुम भी जन्मजात भिखमंगे ही तो हो, तुमने कौन सी कमाई की आज तक मेहनत करके, तो शास्त्री ने मुझे नीच जाति का प्रमाण पत्र जारी कर दिया और मैंने उन्हें भिखारी घोषित कर दिया अब साथ रह पाने का सवाल ही नहीं था। मैं मंदिर से निकल गया, मेरे साथ रहने से उनके ब्राह्मणत्व पर दुष्प्रभाव पड़ सकता था और कर्मकांड से होने वाली उनकी आय प्रभावित हो सकती थी, वहीं मैं भी अगर ब्राहमणत्व की ओर अग्रसर रहता तो मेरी भी संघ से लड़ाई प्रभावित हो सकती थी, इसलिए हमारी राहें जुदा हो गईं, न मैं ब्राह्मण बन सका और न ही वे इन्सान बनने को राजी हुए, बाद में हम कभी नहीं मिले।

-भँवर मेघवंशी
लोकसंघर्ष पत्रिका -सितम्बर अंक में प्रकाशित

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खुद को खत्म कर देने का ख़याल
मैंने सर संघचालक को जो चिटठी लिखी, उसका कोई जवाब नहीं आया, मैं हर स्तर पर जवाब माँगता रहा, लड़ता रहा लेकिन हर स्तर पर एक अजीब सी चुप्पी थी, हर तरफ से निराशा ही हाथ लगी, कोई भी इस घटना की गंभीरता को समझने को तैयार नहीं था, सबको लगता था कि यह एक बहुत ही सामान्य घटना है, ऐसा तो होता ही रहता है, इसमें क्या बड़ी बात है, जिससे मुझे इतना नाराज और तनावग्रस्त होना चाहिए। मैंने इतनी पीड़ा कभी नहीं महसूस की थी पहले, जितनी उन दिनों कर रहा था, वे दिन वाकई बेहद दुखद थे, मैं अक्सर खुद को किंकर्तव्यविमूढ़ पाता था, कुछ भी करने और सोचने की शक्ति नहीं बची थी, मैं अवसाद की स्थिति में जा रहा था, मुझे कहीं भी सुना नहीं जा रहा था, जो बात मेरे अन्दर इतनी उथल पुथल मचाए हुए थी, उससे लोगों को कोई फर्क ही नहीं पड़ा, दुनिया तो वैसे ही चल रही थी, जैसी पहले चलती थी। मैं इतना निराश था कि मेरे दिमाग में खुद को खत्म कर देने के खयाल आने लगे, मैंने खुदकशी के बारे में सोचा, मैंने मरने की कईं तरकीबें सोची, कुएँ में कूद जाना, फाँसी लगाना या जहर खा कर मुक्त हो जाना, कुछ तो करना ही था, इसलिए विषपान का विकल्प ही मुझे सर्वाधिक उपयुक्त जान पड़ा, घर में चूहे मारने की दवा मौजूद थी, एक रात खाने के साथ ही मैंने उसे खा लिया और सो गया, मुझे नींद का आभास हो रहा था, मुझे लग रहा था कि अब मेरी जिन्दगी की फिर कोई सुबह नहीं होगी। मैं सोया हुआ था, शायद नींद में था या जग रहा था मैं जी रहा था या मैं मर रहा पेट में दर्द की एक भयंकर लहर सी उठी। उल्टी करने की अदम्य इच्छा और जरूरत ने मुझे झकझोर दिया, मैं दर्द के मारे दोहरा हो रहा था, मैं उठ बैठा और उल्टियाँ करने को बाहर भागा उल्टियों के चलते बुरा हाल था, कलेजा मुँह को आने लगा, अंतडि़याँ खिंची चली आती थी, सिर चकराता था और बेहोशी जारी थी, अचानक बिगड़ी तबियत से परिजन चिंतित हो उठे, बड़े भाईसाहब को तुरंत बुलाया गया, वे आए तब तक मेरी आँखें बंद होने लगी, भाईसाहब ने पूछा कि अचानक क्या हुआ, मैं बामुश्किल सिर्फ इतना बता पाया कि मैंने चूहे की दवा खायी। बाद में मुझे बताया गया कि भाईसाहब गाँव से डॉक्टर को लेने को भागे, डॉ0 सुरेश शर्मा तुरंत भागते हुए आ पहुँचे, उन्होंने ग्लूकोज में कई सारे इंजेक्शन डाले और इलाज प्रारंभ किया, चूँकि पुलिस और अन्य लोगों तक बात नहीं पहँुचे इसलिए अगले कई घंटों तक घर में ही गुपचुप इलाज चलाया गया, मेरे बड़े भाई बद्री जी भाईसाहब का इतना बड़प्पन रहा कि उन्होंने कभी भी किसी को इस घटना का जिक्र नहीं किया, मैं उनकी सक्रियता और डॉ0 शर्मा के त्वरित इलाज की वजह से बच गया पर ऐसी बातें अंततः बाहर आ ही जाती है, डॉ0 साहब ने गोपनीयता भंग कर दी, बात आग की तरह पूरे गाँव में फैल गई, मैं स्वस्थ तो हो गया पर लज्जा और ग्लानि से भर गया, मैं उन दिनों हर जगह असफलता का सामना कर रहा था, आत्महत्या के प्रयास में भी सफल नहीं हो पाया, हर जगह की तरह यहाँ भी मैं हार गया था, मौत हार गई, जिन्दगी जीत गई थी, मुझे लगता था कि हर गाँव वासी को मेरी इस नादानी के बारे में जानकारी है इसलिए मैं मारे शर्म के कई महीनों तक लोगों का सामना नहीं कर पाता था, मैं वापस भीलवाड़ा चला गया। शहर आकर मैंने सोचना शुरू किया, खुद से ही पूछने लगा कि मैं क्यों मर रहा था और किनके लिए मर रहा था, किस बात के लिए? मेरे मर जाने से किसको फर्क पड़ने वाला था? ठन्डे दिमाग से सोचा तो अपनी तमाम बेवकूफियों पर सिर पीट लेने को मन करने लगा, मरने को तो मैं पहले भी उनके प्यार में राजी था अयोध्या जाकर और मरने को तो मैं बाद में भी तैयार हो गया था उनके नफरत भरे व्यवहार के कारण पर दोनों ही स्थिति मंे मरना तो मुझे ही था, कभी हँसते-हँसते तो कभी रोते-रोते क्या वे मेरी जिन्दगी के मालिक हैं? क्या मेरे जीने के लिए आरएसएस का प्यार या नफरत जरुरी है? मुझे क्यों मरना चाहिए, मुझे उनसे क्यों सर्टिफिकेट चाहिए, वे कौन होते हैं मेरे जीवन और सोच को नियंत्रित करने वाले? मैं अब तक भी उनके साथ क्यों बना हुआ हूँ? मैं ऐसे घटिया और नीच सोच विचार और पाखंडी व्यवहार वाले लोगों के साथ क्यों काम करना चाहता हूँ,जो मेरे घर पर बना खाना तक नहीं खा सकते हैं! मैं ऐसे लोगों का हिन्दू राष्ट्र क्यों बनाना चाहता हूँ? मैं एक ऐसा धार्मिक राष्ट्र बनाने का आकांक्षी क्यों था जिसमें मेरे साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार होने वाला है आखिर क्यों?
ऐसे ही जलते हुए सैंकड़ों सवालों ने मुझे जकड़ लिया था खूब अन्तद्र्वन्द्व मनन चिंतन और थक जाने की स्थिति तक मंथन के पश्चात मैंने तय किया कि मैं आरएसएस को न केवल पूरी तरह नकार दूँगा बल्कि उनके द्वारा मेरे साथ किए गए जातिगत भेदभाव को भी सबके समक्ष उजागर करूँगा, इस दोगले हिन्दुत्व और हिन्दुराष्ट्र की असलियत से सबको वाकिफ करवाना मेरा आगे का काम होगा। मैंने संकल्प कर लिया कि संघ परिवार के चेहरे से समरसता के नकाब को नोंचकर इनका असली चेहरा मैं लोगों के सामने लाऊँगा। मैंने अपनी तमाम सीमाओं को जानते हुए भी निश्चय कर लिया था कि मैं संघ परिवार के पाखंडी हिन्दुत्व को बेनकाब करूँगा और मैं अपनी पूरी ताकत के साथ अकेले ही आरएसएस जैसे विशालकाय अर्धसैनिक सवर्ण जातिवादी संगठन से दो-दो हाथ करने निकल पड़ा। मैंने अपनी व्यक्तिगत पीड़ा और अपमान को निजी दुश्मनी बनाने के बजाए सामाजिक समानता, अस्मिता एवं गरिमा की सामूहिक लड़ाई बनाना तय किया और एक भीम प्रतिज्ञा की कि मैं अब हर तरीके से संघ और संघ परिवार के समूहों तथा उनके विघटनकारी विचारों की मुखालिफत बोलकर, लिखकर और अपने क्रियाकलापों के जरिये करूँगा, यह जंग जारी रहेगी।

-भँवर मेघवंशी
मो-09571047777
क्रमश :
लोकसंघर्ष पत्रिका में प्रकाशित
(लेखक की शीघ्र प्रकाश्य आत्मकथा: हिन्दू तालिबान’ का पहला भाग)
मोबाइल: 09571047777edc58-01

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बन्धु, खाना पैक कर दो
मैंने अस्थिकलश यात्रियों से भोजन करने का जैसे ही आग्रह किया, वे थोडा सा झिझके, मुझे सेवा भारती के तत्कालीन जिला प्रमुख और संघ के एक पदाधिकारी तुरंत एक तरफ ले कर गए, बहुत ही प्यार से उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखा, मेरे द्वारा किए गए इस शानदार आयोजन की भूरि-भूरि प्रशंसा की, मेरे काम को देर तक सराहने और मेरी संघ और राष्ट्र के प्रति निष्ठा पर अतीव प्रसन्नता जाहिर करने के बाद वे अत्यंत ही धीमी आवाज में बोले-बन्धु, आप तो हमारे समाज की विषमता से परिचित ही है, संघ के सारे प्रयासों के बाद भी अभी तक हिन्दू समाज समरस नहीं हो सका, हम तो आप जब भी चाहोगे तब आपके साथ आपके ही घर पर एक ही थाली में बैठकर खाना खा लेंगे, पर आज हमारे साथ साधु संत और अन्य लोग भी हैं, वे यह स्वीकार नहीं करेंगे कि हमने उन्हें किसी वंचित समुदाय के घर का खाना खिला दिया है, वे नाराज हो कर यात्रा छोड़कर वापस चले जाएँगे, मुझे काटो तो उस वक्त खून नहीं निकले, मैं स्तब्ध था, मेरे मस्तिष्क में विचारों की कई आँधियाँ एक साथ चल रही थी, मेरे जबान पर कोई शब्द ही नहीं आ रहे थे, जिससे मैं उन्हें अपनी परिस्थिति बता पाता, न मैं कुछ बोल पा रहा था और न ही उनके द्वारा दिए जा रहे तर्कों कुतर्कों को ही मैं सुन पा रहा था लेकिन उनके आखिरी वाक्य मुझे आज तक याद रह गए है-आप ऐसा करो कि खाना पैक करके गाड़ी में रखवा दो, अगले गाँव में कार्यक्रम के बाद सबको बैठाकर खिला देंगे मतलब साफ था कि वे बिना यह बताए कि यह मुझ दलित स्वयंसेवक के घर का बना खाना है, इसे चुपचाप सबको अगले गाँव में खिला दिया जाएगा। मेरी स्थिति उस वक्त बड़ी विचित्र हो गई थी, मैं अपने ही घर में हार महसूस कर रहा था, बिना कुछ किए ही मेरे पिताजी जीतते प्रतीत हो रहे थे, मैं उलझन में था कि पिताजी के सवालों का क्या जवाब दूँगा कि क्यों नहीं खाना खाया उन लोगों ने? फिर भी दिल कड़ा करके मैंने खाना पैक करवाना शुरू करवाया, घरवालों ने कारण पूछा तो मैंने कह दिया कि अगले गाँव भगवानपुरा में एक और कार्यक्रम है, पहले ही बहुत देरी हो गई है, इसलिए वहीं जाकर खाएँगे खाना, जैसे तैसे यह कह कर मैंने उस वक्त तो अपना पिंड छुड़वा लिया पर मन का सारा उत्साह जाता रहा, जाति से हीन होने का भाव हावी होने लगा, बार-बार यही सोच उभर कर आने लगी कि मेरे साथ यह क्या हो रहा है? संघ के लोग मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकते हैं? मैं एक अनुशासित स्वयंसेवक, जुनूनी कारसेवक, जिला कार्यालय प्रमुख अगर मेरे साथ ही ऐसा छुआछूत, तो मेरे अन्य समाज बंधुओं के साथ कैसा दुर्व्यवहार हो रहा होगा? उस दिन पहली बार मैंने एक हिन्दू से परे हट कर सिर्फ निम्न जातिय दलित के नजरिए से सोचना शुरू किया, मैं जितना सोचता था, उतना ही उलझता जाता था सही बात तो यह है कि वह रात मेरे जीवन की सबसे लम्बी रात थी, बीतने का नाम ही नहीं लेती थी आँखों ही आँखों में गुजारी वह रात और कल का सूरज तो और भी भयंकर उदित होने जा रहा था, उसकी तो शायद मैंने कल्पना भी नहीं की थी।
और उन्होंने खाना फेंक दिया
आज मेरे लिए कयामत का दिन था, कल की रात अभी बीती ही थी कि सुबह का भयावह सूरज अपनी तेज किरणों के साथ उपस्थित था, मेरे साथी स्वयंसेवक पुरुषोत्तम क्षत्रिय जो की अस्थि कलश यात्रा के साथ ही चल रहे थे, घर आ पहुँचे, वे मेरे अम्बेडकर छात्रावास के दिनों के पड़ोसी भी थे, कवि होने के नाते अच्छे दोस्त भी। हम लोग आजाद नगर शाखा में साथ साथ जाते थे, हर बात एक दूसरे को साझा करते थे, गहरी मित्रता थी, वे सुबह खीर की केतली लेकर लौटे थे, उन्होंने जो कुछ मुझे बताया, वह अविश्वसनीय और अकल्पनीय था, उनके द्वारा दी जा रही सूचना मेरे दिमाग पर हथौड़े मारने जैसी थी। पुरुषोत्तम जी ने बताया कि आपके यहाँ से ले जाई गई खीर, पूरी भगवानपुरा मोड़ पर सड़क किनारे फेंक दी गई और रात को खाना वैध शर्मा के यहाँ बनवा कर देर रात खाया गया, मुझे कहा गया है कि मैं आपको यह बात नहीं बताऊँ लेकिन मैं झूठ नहीं बोलना चाहता, आपके खाने को खाया नहीं गया बल्कि फेंक दिया गया, मैंने पुरुषोत्तम जी से साफ कहा कि कुछ भी हो लेकिन संघ के स्वयंसेवक इतने जातिवादी और निकृष्ट नहीं हो सकते हैं, आप मजाक करने के लिए इतना बड़ा सफेद झूठ नहीं बोल सकते हैं? उन्होंने कहा कि यकीन नहीं होता है तो चल कर देख लो, कुछ ना कुछ तो अवशेष वहाँ मिल ही जाएँगे हम दोनों दोस्त साईकिल पर सवार हुए और भगवानपुरा मोड़ पर पहँुचे, जाकर देखा, पुरुषोत्तम सही साबित हुए, वाकई मेरे घर से गया खाना सड़क किनारे बिखरा हुआ था, जिसे चील, कौव्वे, कुत्ते, चींटिया बिना किसी भेदभाव के लगभग चटकर चुके थे, यह मेरे बर्दाश्त के बाहर था। उस शाम अस्थि कलश यात्रा ब्राह्मणों की सरेरी पहँुचने वाली थी, मैंने वहा जाकर खुल कर बात करने का निश्चय कर लिया था, अब बहुत हो चुका था, निर्णायक जंग का वक्त आ पहँुचा था, लड़ाई शुरू हो गई थी, सिर्फ घोषणा बाकी थी।
कहीं कोई सुनवाई नहीं
शाम को मैं अत्यंत आक्रोश के साथ ब्राह्मणों की सरेरी पहुँचा, मैंने अस्थि कलश यात्रियों से इस शर्मनाक घटनाक्रम के बारे में सफाई माँगी, उन्होंने भोजन फेंकने की घटना से साफ इनकार कर दिया, जब मैंने उन्हें बताया कि पुरुषोत्तम जी ने मुझे यह जानकारी दी है तब उन्होंने यह तो स्वीकार किया कि भोजन लिए गाड़ी में पीछे बैठे व्यक्ति के हाथ से भगवानपुरा के मोड़ पर जब गाड़ी स्पीड में मुड़ी तो खाना गिर गया, अब भला गिरा हुआ खाना कैसे खाते? इसलिए वैद जी के घर पर रात में खाना बनवा कर खाना पड़ा मैं उनके शब्दों और उनके चेहरे के भावों के बीच फंसे हुए सच को साफ-साफ देख पा रहा था, ये परम पूज्य भाई साहब सफेद झूठ भी कितनी आसानी से बोल रहे हैं। मुझे पक्का यकीन हो गया कि वे सरासर असत्य बोल रहे हैं। अगर खाना किसी के हाथ से गिरता तो सड़क के बीचों बीच गिरता, सड़क के किनारे पर जा कर कैसे गिरा खाना? दूसरे अगर पूरी गिरती तो खीर बची रहती और अगर खीर गिरती तो केतली पर मोच के निशान आते, मगर खीर और पूरी दोनों ही फेंके गए थे जान बूझ कर, उन्होंने पूरे होशोहवास में एक दलित स्वयंसेवक के घर से आया खाना फेंक दिया था, अब इस गलती को गलती मानने के बजाए अजीब से कुतर्क देने पर तुले हुए थे उनके झूठ और जूठ को सच के रूप में स्थापित करने की कोशिश से मेरा दिल फट गया, मुझे अत्यंत लज्जा और अपमान का अहसास हुआ, मैंने महसूस किया कि संघ के लोगों ने सिर्फ मेरे घर का बना खाना ही नहीं फेंका बल्कि मुझे भी दूर फेंक दिया है। मेरे सामने वह सारा समय और घटनाक्रम चलचित्र की भाँति गतिशील था, जब मैं अपनी पूरी क्षमता लगा कर संघ के काम को बढ़ाने पर तुला हुआ था। मैं उस मौके को याद कर रहा था, जब मैं रामजी के नाम पर शहीद होने के लिए घर से भाग गया था अगर मैं अयोध्या पहँुचने में सफल हो जाता और सरयू पुल पर पुलिस की गोली का शिकार हो जाता तो क्या वे मेरी लाश को भी छूते, मेरी मृतदेह घर भी पहँुचाई जाती या खाने की ही तरह सरयू में फेंक दी जाती? मैंने खुद से सवाल किया कि क्या मैं इसी हिन्दू राष्ट्र के लिए मरने मारने पर उतारू हूँ, जिसमें मेरा स्थान ही नहीं है। मेरी औकात क्या है? मेरी अपनी पहचान क्या है? मैं क्या हूँ? आखिर कौन हूँ मैं? एक रामभक्त कारसेवक हिन्दू या शूद्र अछूत जिसके घर का बना खाना भी स्वीकार नहीं। हिन्दू राष्ट्र की ध्वजा फहराने वालों के साथ मैं अपने को किस पहचान के साथ खड़ा करूँ?
बहुत सोचा पाया कि हिन्दू वर्ण व्यवस्था में शूद्र और जाति व्यवस्था में अछूत हूँ मैं अवर्ण मैं भले ही स्वयंसेवक था लेकिन पूरा हिन्दू नहीं था इसलिए मेरी स्वीकार्यता नहीं थी इसीलिए मुझे विस्तारक बनने की तो सलाह दी गई थी लेकिन प्रचारक बनने से रोक दिया गया था बस, अब मुझे खुद को जानना है, अपने साथ हुए हादसे के कारणों को खोजना है और उन कारणों को जड़ से मिटा देना है। मैंने इस अन्याय और भेदभाव के खिलाफ नागपुर तक अपनी आवाज बुलंद करने का निश्चय कर लिया मैं अस्थि कलश यात्रा के साथ चल रहे नेताओं से लेकर संघ के विभिन्न स्तर के प्रचारकों के पास गया मैंने कोई भी जगह और स्तर नहीं बाकी रख छोड़ा, जहाँ अपनी व्यथा नहीं पहँुचाई हो लेकिन सुनवाई कहीं भी नहीं होती दिखी, तब मैंने माननीय सर संघचालक रज्जू भैय्या तक भी अपनी गुहार लगाई। उन्हें पत्र लिखा, सारी बात लिखी और कहा कि आपके संगठन के स्थानीय ठेकेदार नहीं चाहते हैं कि मैं अब और एक भी दिन हिन्दू के नाते रहूँ और काम करूँ, लेकिन संघ के नक्कारखाने में मुझ तूती की आवाज को कौन सुनता? वहाँ भी किसी ने नहीं सुना सही बात तो यह थी कि सुनना ही नहीं था, जिन-जिन भी संघ प्रचारकों और पदाधिकारियों से मैं मिला, उन्होंने इसे एक बहुत छोटी सी बात कह कर टाल दिया, उल्टे मुझे ही नसीहतें मिलीं कि इस बात को छोड़कर मैं सकारात्मक काम में मन लगाऊँ पर मैं मानने को कतई तैयार नहीं था कि यह छोटी सी बात है, तब भी नहीं और आज भी नहीं, छुआछूत और भेदभाव किसी भी इन्सान की जिन्दगी में छोटी सी बात नहीं होती है, सिर्फ हिन्दू राष्ट्र के निर्माताओं के लिए यह छोटी सी बात हो सकती है।
-भँवर मेघवंशी
मो-09571047777
क्रमश :
लोकसंघर्ष पत्रिका में प्रकाशित
edc58-01

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पुलिस वाले लाठियाँ लिए टूट पडे़
मैं इस उपद्रव बनाम आन्दोलन का हिस्सा था और कुछ हद तक अगुवाई में भी था, इसलिए थोड़ी बहुत देर तो पथराव में भागीदार रहा, फिर जब आस पास के लोग छँटने लगे तो मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ कि अकेले ही पत्थर फेंक रहा हूँ, कहीं पुलिस की लाठी गोली का शिकार हो गया, तो भय का अहसास हुआ इधर-उधर देखा, सामने ही भीमगंज स्कूल था, दौड़कर उसमंे घुस गया और बच्चों के बीच छिप कर बैठ गया, काफी देर तक बाहर से गोलियाँ चलने की आवाजें आती रही, पता चला कि कफ्र्यू लगाने की घोषणा की जा चुकी है, अब शायद बाहर जाना संभव नहीं हो पाएगा, तब चिंता हुई, क्या करूँ, कैसे बाहर जाऊँगा, पर यह सोच कर शांत रहा कि इतने सारे बच्चों को भी तो पहँुचाया जाएगा, उन्हीं के साथ चला जाऊँगा।
उपद्रव के शांत होते ही पुलिस की सुरक्षा में बच्चों को घर पहँुचाने का इंतजाम किया गया, पुलिस और शिक्षकों ने मिल कर सब बच्चों को बाहर निकाला, मैं भी अन्य बच्चों के साथ-साथ बाहर तक आया, ज्यों ही गली में पहँुचा, पाँच छह पुलिसवाले लाठियाँ लिए मुझ पर टूट पड़े, मैं समझ ही नहीं पाया कि इतने विद्यार्थियों में उन्होंने मुझ अकेले को ही कैसे पहचान लिया? मैं भी तो शेष बच्चों की तरह ही दुबला पतला किशोर था, उन्होंने कैसे जाना कि मैं स्टूडेंट नहीं उपद्रवकारी हूँ। मैं उस वक्त अपने ललाट पर तिलक और केसरिया पट्टी जो सिर पर बाँध रखी थी, उसे तो भूल ही चुका था, पुलिसकर्मी मुझ पर धुआँ धार लाठियाँ फटकार रहे थे, मैं गिरते पड़ते आगे-आगे भाग रहा था और वे पीछे-पीछे। अनगिनत लाठियों के वार से उठे दर्द से बिलबिलाता, पुलिस से बचता बचाता मैं भाग कर किसी तरह मानिकनगर होकर महात्मा गाँधी अस्पताल पहँुच गया, जहाँ पर सैंकड़ों की तादाद में आक्रोशित हिन्दू खड़े थे, दोनों मृतकों की लाशें वहाँ पहँुच चुकी थी, कई सारे घायल लोग भी वहाँ लाए जा रहे थे, मैं भी लहूलुहान था, मेरा भी प्राथमिक उपचार किया गया, वहाँ से मुझे संघ कार्यालय पहँुचाया गया, जहाँ पर कफ्र्यू के अगले पाँच दिनों तक मेरी चोट खाई पीठ की मालिश की गई, पंचमुखी बालाजी रिको एरिया के महंत लाल बाबा प्रेमदास महाराज भी हमारे साथ थे और भी लोग थे, किसी तरह वे बुरे दिन बीते, दर्द निवारक गोलियों से दर्द गया तो घर की याद आई, गाँव लौट कर आया, इस पूरे घटनाक्रम से मन में अजीब सा महसूस होने लगा, लगने लगा कि किसी न किसी दिन या तो पुलिस के हाथों अथवा विधर्मी लोगों के हाथों मारा जाऊँगा, हालाँकि उन दिनों बहुत बेचैनी थी फिर भी संघ के प्रतिष्ठा और समर्पण में कोई कमी नहीं आई थी, संघ कार्य को भगवान का काम मानने की प्रवृति इतनी हावी थी कि आरएसएस के खिलाफ एक भी शब्द मुझे बर्दाश्त नहीं होता था, मेरे पिताजी जो कि जन्मजात कट्टर किस्म के कांग्रेसी थे, जो मुझे खाकी नेकर और काली टोपी पहने शाखा में जाते वक्त अक्सर रोकते थे और टोकते हुए कहते थे-यह तुम्हारी बनिया बामन पार्टी कभी हम किसानों और नीची जात वालों की सगी नहीं होगी, ये मियाओं से लड़ाने के लिए हमें काम में लेते हैं, खुद तो लड़ नहीं सकते, डरपोक हैं। मुझे अपने पिताजी की बातों में कांग्रेसी शाख की बू आती थी, मुझे लगता था कि वे भी जातिवाद और मुस्लिम तुष्टिकरण की ओछी और घिनौनी राजनीति के एक मोहरे मात्र हैं, उनको राष्ट्रभक्ति का तनिक भी ज्ञान नहीं है, वरना भला भारत माता की सेवा में लगे एक पवित्र और राष्ट्रवादी संगठन के खिलाफ वे ऐसी बातें कह सकते हैं? मैंने उनकी कभी भी इस मामले में बात नहीं मानी, पहली बार आरएसएस की चड्डी पहनने से लेकर अयोध्या भाग जाने और अब जिला मुख्यालय से बुरी तरह से पिटकर आने तक के हर मौके पर वे विरोध में कर रहे थे। वैसे तो वे शुरू से ही मेरे शाखा में जाने के विरोधी ही थे, कभी कभार बहुत नाराज हो जाते तो मुझे और आरएसएस दोनों को ढेर सारी अश्लील गालियाँ देते। मुझे बुरा तो बहुत लगता, मन होता था कह दूँ कि मुझे दे दो गालियाँ पर संघ को क्यों देते हो? पर सच बताऊँ तो कभी इतनी हिम्मत नहीं हो पाई, सो मन ही मन कुढ़ता रहता था। शायद वे चाहते थे कि या तो मैं पढूँ अथवा खेतों में काम में मदद करूँ, पर मैं सोचता कि-मैं और खेतों में काम? मैं संघ जैसे महान संगठन का स्वयंसेवक, राष्ट्र निर्माण में निमग्न और वे चाहते हैं कि मैं मानव निर्माण की इस फैक्टरी को छोड़ कर उनके साथ भेड़ें चराऊँ? मैं प्रचारक बनने की क्षमता वाला इन्सान चरवाहा बन जाऊँ, नहीं बाबा नहीं, यह कभी भी नहीं होगा, मैंने ठान लिया था कि संघ कार्य जिन्दगी में कभी भी नहीं छोडूँगा, परम पूज्य डाक्टर केशव बलिराम हेडगेवार जी ने कहा था कि संघ का कोई भी स्वयंसेवक होता या नहीं होता, वह काम करे या नहीं करे सदैव ही स्वयंसेवक बना रहता है, इसलिए मैं तो सदा सदा स्वयंसेवक बना रहूँगा और सक्रिय ही रहूँगा। पिताजी और घर वाले कुछ भी सोचें या कहें, मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा, वैसे भी उन जैसे कांग्रेसियों को कभी संघ का ईश्वरीय काम समझ में न तो आया है और न ही आएगा, हम पिता पुत्र के बीच का रिश्ता भी कांग्रेस-आरएसएस के बीच के रिश्ते जैसा रूप लेता जा रहा था, उनका टोकना और चेताना जारी था और मेरी नहीं मानने और अधिकाधिक संघ कार्य में जुटे रहने की जिद जारी थी।
जब मेरे गाँव आई अस्थि कलश यात्रा
अयोध्या में मरे कारसेवकों और भीलवाड़ा में मारे गए रतन लालों को हुतात्मा (शहीद आत्मा) घोषित किया जा चुका था, अब उनकी हड्डियों की कलश यात्रा गाँव-गाँव घुमाई जा रही थी, साधु-संत, संघ, विहिप के पदाधिकारी गण और नौजवान स्वयंसेवक इस यात्रा में साथ चल रहे थे, गाँव-गाँव घूमते हुए मेरे गाँव भी आ पहँुची रामभक्तों की अस्थि कलश यात्रा, रात के 9 बजे मेरे गाँव पहँुचने पर यात्रा का हमने भव्य स्वागत किया, हम युवाओं ने अपनी दलित बस्ती को फूल पत्तियों की बन्दनवार से सजाया, ढोल, थाली, मांदल और शंख बजाते हुए नाचते गाते हुए हमने यात्रा का ‘न भूतो ना भविष्यति’ सत्कार किया। सभा हुई, अयोध्या के राम जन्मस्थल पर मुल्ला यम सिंह सरकार की पुलिस द्वारा की गई बर्बरता पर एक फिल्म का प्रदर्शन किया गया और बाद में संतों और अन्य हिन्दू नेताओं ने भीलवाड़ा में हुए पुलिसिया अत्याचार का बेहद मार्मिक वर्णन किया, मजे की बात यह थी कि उस दिन हुए उपद्रव के दौरान इनमंे से एक भी व्यक्ति को कोई चोट नहीं पहँुची थी लेकिन ऐसा आँखों देखा हाल प्रस्तुत किया कि मौजूद लोगों की ऑंखें भर आईं, हालाँकि मैं खुद भीलवाड़ा में पुलिस जुल्म का शिकार हुआ था, लेकिन इतने मार्मिक अंदाज में मैं भी इस बात को नहीं रख पाता, जितने अच्छे तरीके से उन लोगों ने रखा, जो वहाँ उस रोज मौजूद ही नहीं थे, शायद यही ट्रेनिंग है जो संघ में सीखनी पड़ती है, विद्वान लोग जल्दी ही सीख जाते हंै, वैसे भी इस देश में भूख पर भाषण भूखे इन्सान से ज्यादा अच्छा वे लोग देते हैं जिनका पेट भरा होता है, यहाँ भी वही हो रहा था, हृदय को छू लेने वाले भाषण ‘हिन्दुवः सोदरा सर्वे ‘मतलब कि’ हिन्दू-हिन्दू भाई भाई के नारे लगाए गए, हिन्दू समाज में फैली असमानता की सामाजिक विकृति पर प्रहार किया गया, हिन्दू एकता और संगठित रहने पर बल देते हुए तथा सभी वंचित समुदायों के समाज जनों को गले लगाने के आह्वान के साथ सभा का समापन हुआ।
सभा की समाप्ति पर मैंने सब लोगों से अपने घर भोजन करने का आग्रह किया, हमने अपने घर पर खीर पूरी का भोजन सबके लिए तैयार किया था, जब खाना बन रहा था, तब भी आदतन पिताजी ने टोका टोकी की थी कि-‘क्यों खाने का सामान खराब कर रहे हो, ये लोग यहाँ नहीं खाने वाले हैं, पाखंडी हैं सब, बोलते कुछ हैं और करते कुछ और ही हैं, इनके अन्दर हमारे लिए जहर भरा हुआ है। मैं जल भुन गया, पहली बार मैंने अपनी तमाम ताकत बटोर कर आखिर प्रतिवाद कर ही दिया-आप क्या जानते हैं संघ के बारे में? मैं पाँच साल से उनके साथ हूँ, उनके सबसे बड़े कार्यालय का प्रमुख हूँ, कितने ही स्वयंसेवकों के घर जा कर मैंने खाना खाया है, हमारे संघ में आपके गाँव की तरह छुआछूत और जाति भेदभाव नहीं चलता है, यह सब आपकी कांग्रेस की देन है, पिताजी बोले-‘बेटा कांग्रेस तो हम नीची कौम के लिए माँ का पेट है, तुम इसे कभी नहीं समझोगे। अच्छी बात है अगर तुम्हारी संस्था में सब जातियाँ बराबर हो गई है, तो बनाओ खाना मुझे भी उन्हें खिला कर खुशी होगी, हम बाप बेटे के बीच में यह एक प्रकार का युद्ध विराम था मैं भी राजी और वे भी नाराज नहीं, खाना तैयार था और अब खाने वाले भी तैयार होने वाले थे। मैं बेहद प्रसन्नता और विजयी मुद्रा में भाग-भाग कर काम कर रहा था मैं अपनी जिन्दगी में पहली और आखिरी बार शायद इस अस्थि कलश यात्रा के उसी दिन नाचा भी और गाया भी। मैंने ही आज की सभा का संचालन भी किया था ,मेरे उत्साह और हर्ष की कोई सीमा नहीं थी, मुझे लग रहा था कि मेरे घर रामभक्त नहीं बल्कि साक्षात् भगवान श्री राम पधार रहे हैं ठीक वैसे ही जैसे शबरी के बेर खाने उसकी झोंपडी चले गए थे राम। मैं मन ही मन इसलिए भी खुश था कि आज अपने कांग्रेसी पिता को मैं गलत साबित करने जा रहा था, मैंने उनके प्रभुत्व वाले कांग्रेसी गाँव में हिन्दुत्व का झंडा गाड़ दिया था आज की इस श्रद्धांजलि सभा का सफल आयोजन हिन्दू राष्ट्र की स्थापना की दिशा में बढ़ता हुआ सफल कदम था, मैंने अपने घर के मुख्य दरवाजे पर आज ही दो स्टीकर लगाए थे-गर्व से कहो हम हिन्दू हैं और बड़े भाग्य से हम हिन्दू हैं।
-भँवर मेघवंशी
मो-09571047777
क्रमश :
लोकसंघर्ष पत्रिका में प्रकाशित
edc58-01

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अम्बेडकर छात्रावास में विचारधारा भ्रष्ट हो जाएगी
गाँव से जो संघ के साथ सफर शुरू हुआ, वह तहसील मुख्यालय मण्डल होते हुए जिला स्तर भीलवाड़ा तक पहुँच गया, भीलवाड़ा शहर में मैं अम्बेडकर आवासीय छात्रावास का छात्र था, पर वहाँ भी आरएसएस के ही गुणगान करता था, चूँकि मैं नेकर पहन कर रोज शाम शाखा में जाता था, इसलिए कुछ सीनियर छात्र मुझे चड्डा साहब कह कर भी चिढ़ाते थे, लेकिन मुझमें श्रेष्ठता का भाव इतना प्रबल हो चुका था कि मैं अपने आगे सब को हीन मानता था, मुझे लगता था कि ये तुच्छ लोग अभी जानते नहीं हैं कि मैं कितनी महान ईश्वरीय कार्य योजना का हिस्सा हूँ, जिस दिन जान जाएँगे, ये सब लोग नतमस्तक हो जाएँगे। मैं अपनी ही धुन में सवार था, दलित और आदिवासी समुदाय के कई अन्य छात्र जो मेरे साथ हाॅस्टल में रहते थे, मैं उन्हें हिन्दुत्व की विचारधारा के बारे में जानकारियाँ देता था, उनमें से दो चार को तो मैं शाखा में ले जाने में भी सफल रहा, लेकिन वे जल्दी ही भाग छूटे, उन्हें संघ के ड्रेस और तौर तरीके पसंद नहीं आए फिर भी मैं डटा हुआ था, इस बीच भीलवाड़ा के नगर प्रचारक जी का आगमन हमारे छात्रावास में हुआ, मैं तो बहुत खुश था कि प्रचारक महोदय हमारे द्वार आ रहे हैं, वे वाकई आए, उन्होंने अम्बेडकर छात्रावास के स्टूडेंट्स के रंग ढंग देखे और मुझसे बोले-आपको यहाँ नहीं रहना चाहिए, इस अम्बेडकर छात्रावास में तो आपकी विचार धारा ही भ्रष्ट हो जाएगी। अब मैं विचारधारा को बचाने के लिए अम्बेडकर छात्रावास छोड़कर आरएसएस के जिला कार्यालय पहँुच गया था, जहाँ पर जल्दी ही मुझे जिला कार्यालय प्रमुख का दायित्व मिल गया, मुझमें शुद्धता और श्रेष्ठता का भाव और सघन हो गया, मुझे अपने हिन्दू होने पर बड़ा गर्व पैदा हो गया था, मैं खुद को सौभाग्यशाली मानता था, मानू भी क्यों नहीं क्योंकि मेरे मन में समाया हुआ था कि हम हिन्दुओं ने ही दुनिया को सभ्यता सिखाई, हमने अंक और दशमलव दिया, हमारे वेद ईश्वरीय हैं, जिनके मुकाबले ज्ञान में विश्व के सभी धर्म ग्रन्थ बौने दिखाई पड़ते हैं, हमारे यहाँ हर प्राणी में भगवान माने गए और नारियों को देवियाँ, ऐसी महानतम संस्कृति का हिस्सा होना सबसे अधिक पुण्य और गर्व का ही तो काम है, उन दिनों हिंदी हिन्दू हिन्दुस्थान-माँग रहा है सकल जहान जैसे नारे लगा कर सीना फूल जाता था, संघ से पूरी तरह से सराबोर हो जाने के कारण किसी और विचार के लिए मेरे दिमाग में जगह ही नहीं बची थी। इसीलिए मनुस्मृति पर गर्व करना तो आ गया पर भारत का संविधान किस चिडि़या का नाम है, यह पता ही नहीं था, उन दिनों मैंने महाराणा प्रताप का यशोगान तो खूब गाया, पर भीलू राना पूंजा के बारे में कुछ भी नहीं जाना। मीरा के प्रेम और भक्ति के पद पायोजी म्हे तो राम रतन धन पायो तो याद रहा पर संत रैदास से जान पहचान ही नहीं हो सकी, खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी, की कीर्ति पताका तो फहराई, लेकिन कौन थी झलकारी बाई, कुछ पता नहीं लगा, अगर जाना भी तो वंचितों का यही इतिहास, जिसमें राम को जूठे बैर खिलाती शबरी, द्रोणाचार्य को श्रद्धावनत होकर अँगूठा काट कर देता गुरु भक्त एकलव्य, सीना चीरकर स्वामिभक्ति का प्रदर्शन करते हनुमान, कपडे़ धोते धोबी, जूते बनाता चर्मकार, सफाई करता स्वच्छकार यानी कि वही प्राचीन जाति व्यवस्था और वही पुश्तैनी कर्म!
उन दिनों मेरे आदर्श अम्बेडकर, फुले, कबीर या बुद्ध नहीं थे, क्योंकि इन्हें तो जाना ही नहीं, जिन्हें जान पाया वे राष्ट्रनायक थे सावरकर, तिलक, गोखले और हेडगेवार तथा गुरूजी गोलवलकर ये ही आदर्श थे और ये ही मेरी प्रेरणा के स्रोत थे, नगर प्रचारक जी ने सही ही कहा था कि अगर मैं अम्बेडकर छात्रावास में टिक जाता तो शायद मेरी विचारधारा जल्दी ही भ्रष्ट हो जाती।
आचार्य रजनीश, आरएसएस और मैं
विचारधारा की चूल हिलने की शुरुआत मेरे संघ कार्यालय में रहते हुए अनायास ही हो गई, उन्हीं नगर प्रचारक महोदय के साथ एक दिन मैं तीरथ दास जी नामक स्वयंसेवक के घर गया, जो हाल में ओशो रजनीश से प्रभावित होकर संघ कार्य में शिथिलता बरतने लगे थे, हम उन्हें समझाने और वापस सही रास्ते पर लाने गए, हमें लगा कि वे वैचारिक विचलन के शिकार हो गए हैं, उनसे नगर प्रचारक जी ने लम्बी बातचीत की, लेकिन वे टस से मस भी नहीं हुए, आते वक्त उन्होंने एक अखबार ओशो टाइम्स भेंट किया, जो प्रचारक जी ने तो हाथ में भी नहीं लिया पर मैं ले आया और जिला कार्यालय में बैठ कर पढ़ने लगा, प्रचारक जी को यह सहन नहीं हुआ, उन्होंने ओशो टाइम्स मेरे हाथों से छीनकर फेंकते हुए कहा-यह आदमी विचारों में भटकाव लाता है, गुमराह कर देता है, इसको जिन्दगी में कभी मत पढ़ना।
मैं स्तब्ध रह गया, मेरे मन में यह सवाल उठा कि पढ़ने से विचारधारा में भटकन कैसे आ सकती है? इस एक घटना ने मेरी रुचि ओशो के साहित्य में जगा दी, मैंने चोरी छिपे ओशो टाइम्स पढ़ना शुरू कर दिया और इस तरह मेरे मस्तिष्क की अन्य खिड़कियाँ भी खुलने लगी और संघ की पवित्र और शुद्ध विचारधारा अंततः भ्रष्ट होने लगी।
गुलमंडी क्या पाकिस्तान में है ?
मेरे प्रचारक बनने का सपना भले ही धराशायी हो गया था और थोड़ा बहुत ओशो को भी पढ़ने लगा था, मगर संघ, राष्ट्र निर्माण और हिन्दुत्व से मोह बरकरार था, अम्बेडकर छात्रावास छोड़ देने के बाद पूरी तरह से आरएसएस के जिला कार्यालय में रहते हुए एक निष्ठावान स्वयंसेवक के तौर पर मैं अब भी कार्यरत था। किसी विकल्प या वैकल्पिक विचारधारा के बारे में सोचने जितना खुलापन अभी नहीं आ पाया था इसलिए हिन्दू राष्ट्र के निर्माण हेतु रात दिन लगा हुआ ही था, अयोध्या की पहली कारसेवा की असफलता के बावजूद देश भर में राम मंदिर बनाने के लिए हिन्दू जन मानस में उबाल आया हुआ था, संघ परिवारीय संस्थाएँ मंदिर बनाओ या गद्दी छोड़ो आन्दोलन चला रही थीं। 12 मार्च 1992 का दिन था, हम राम मन्दिर निर्माण की माँग को लेकर एक विशाल जुलूस सांगानेरी गेट भीलवाड़ा से प्रारम्भ करके मुस्लिम बहुल इलाके गुलमंडी में होते हुए जिला कलेक्टर कार्यालय तक ले जाना चाहते थे, हजारों की तादाद में उत्साही रामभक्त सिर पर भगवा पट्टी बांधकर सौगन्ध राम की खाते हैं, के नारे लगाते हुए दूधाधारी मन्दिर के बाहर खड़ेे थे। हालाँकि प्रदेश में भाजपा का राज था, ौरों सिंह शेखावत मुख्यमंत्री थे और बंशी लाल पटवा भीलवाड़ा के विधायक, मतलब यह कि प्रदेश में अपनी ही सरकार थी, लेकिन पुलिस वाले रास्ता रोके खड़े थे, जुलूस आगे नहीं बढ़ने दिया जा रहा था।
उस दिन शुक्रवार था, जुम्मे की नमाज और हमारे जुलूस का वक्त लगभग एक ही होने की वजह से पुलिस को कानून और व्यवस्था की स्थिति बिगड़ती नजर आ रही थी, इसलिये प्रशासन हम आन्दोलनकारियों को समझाने की कोशिश में लगा था, पुलिसया रिपोर्टों ने दोनों समुदायों के बीच भिडंत की आशंका जताई थी, पुलिस ने राम के भक्तों से रास्ता बदल देने का आग्रह किया, पर स्टेट में संघ की ही सत्ता थी, इसलिए हम तो बेखौफ थे पुलिस जरुर दबी हुई सी थी, उनके आला अधिकारियों ने हमारे बड़े नेताओं से खूब मिन्नतें की, हम कहाँ मानने वाले थे। हमने रास्ता बदलने से यह कह कर साफ इंकार कर दिया कि हमारा जुलूस गुलमंडी में क्यों होकर न जाएँ, वह क्या पाकिस्तान में है? हमने कहा-जाएँगे तो उधर से ही, चाहे जो हो जाएँ। अभी पुलिस और रामभक्तों में तकरार चल ही रही थी कि जुलूस के पीछे से पथराव शुरू हो गया, स्थितियाँ बिगड़ती देखकर पुलिस को लाठी चार्ज करना पड़ा, घुड़सवार पुलिस ने रामभक्तों को निर्ममता से कुचला, फिर भी स्थिति बेकाबू ही बनी रही, हालात और बिगड़े तो हवाई फायर हुए और अंततः कई राउंड गोलियाँ बरसाई गई, जिसमें दो लोग शहीद हो गए। एक खामोर के रतन लाल थे तो दूसरे भीलवाड़ा के रतन लाल, एक सेन थे तो दूसरे जैन, दोनों का ही राम जन्मभूमि आन्दोलन और इस उपद्रव से दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं था, हकीकत तो यह थी कि भीलवाड़ा निवासी रतन लाल जैन डेयरी में रात्रिकालीन ड्यूटी करके लौटे थे और दिन के वक्त घर में आराम कर रहे थे, धाय धाय की आवाजों से जगे और बाहर यह देखने निकले कि हो क्या रहा है, इतने में पुलिस की एक गोली उनकी छाती में समा गई, दूसरे खामोर गाँव के निवासी रतन लाल सेन बाजार में खरीददारी करने आए हुए थे और पुलिस की गोली के शिकार हो गए, लेकिन संयोग से दोनों ही मरने वाले हिन्दू थे, इसलिए दोनों को शहीद घोषित करके उनका अस्थि कलश निकाले जाने की घोषणा तुरत फुरत ही कर दी गयी।
हालाँकि दोनों ही मृतकों का राम जन्मभूमि और संघ परिवार से कोई लेना देना नहीं था, उन्होंने दुर्घटनावश ही अपने प्राण खोए थे मगर फिर भी उन्हें शहीद का दर्जा मिल गया, अच्छा हुआ कि दोनों मरने वाले हिन्दू थे, इसलिए ‘शहीद’ हो गए, मुसलमान होते तो ‘ढेर‘ हो जाते।
-भँवर मेघवंशी
मो-09571047777
क्रमश :
लोकसंघर्ष पत्रिका में प्रकाशित

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हिन्दू राष्ट्र की ओर..
मेरी जल्दी ही पदोन्नति हो गई, मैं मुख्य शिक्षक से कार्यवाह बना दिया गया, दोनों ही नियुक्तियाँ जबानी ही थी, किसी प्रकार का लिखित आदेश नहीं, जब स्वयंसेवकों को ही सदस्यता की कोई रसीद या पहचान पत्र देय नहीं है तो पदाधिकारियों को भी उसकी क्या जरुरत है? मैंने पूछा था इस बारे में भी तो जवाब मिला कि संघ में इस प्रकार की कागजी खानापूर्ति के लिए समय व्यर्थ करने की परम्परा नहीं है।
खैर, कार्यवाह बनने के बाद मेरी जिम्मेदारियों में प्रखण्ड (ब्लॉक) स्तरीय बैठकों में भाग लेना भी शामिल हो गया, जब मैं पहली बार दो दिवसीय बैठक में भाग लेने तहसील मुख्यालय मण्डल गया, तो साथ में बिस्तर, गणवेश, लाठी और खाने के लिए थाली कटोरी भी साथ ले जानी पड़ी। किराया भी खुद देना पड़ा और बैठक का निर्धारित शुल्क भी चुकाना पड़ा। रात का खाना भी घर से बाँधकर ले गया। दूसरे दिन भोर में तकरीबन 5 बजे विसल की आवाज से नींद खुली, नित्यकर्म से निवृत होने के बाद संस्कृत में प्रातः स्मरण
मधुर समवेत स्वरों में दोहराया गया, प्रातःकालीन शाखा लगी, दिन में पूरे प्रखण्ड में आरएसएस के काम का प्रगति प्रतिवेदन प्रस्तुत किया गया। भोजन और बौद्धिक सत्र चले, अलग-अलग समूहों में बैठकर राष्ट्र की दशा और दिशा पर गंभीर चर्चा हुई, इस दो दिन के एकत्रीकरण से मुझे स्पष्ट हो गया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का राष्ट्र निर्माण का कार्य ‘मानवीय’ न होकर ‘ईश्वरीय’ कार्य है, इसमंे काम करने का अवसर बिरले और नसीब वाले लोगों को ही मिलता है, संघ कोई संस्था नहीं है, यह तो व्यक्ति निर्माण का कारखाना है। जिससे हम जैसे संस्कारवान युवाओं का निर्माण हो रहा है, जिला स्तर से आए प्रचारक जी और संघ चालक जी ने बहुत ही प्रभावी उद्बोधन दिया, उनका एक-एक वाक्य मुझे वेद वाक्य लगा, कितने महान और तपस्वी लोग है ये, जिन्होंने अपना जीवन राष्ट्र सेवा में समर्पित कर दिया, मैंने भी मन ही मन निश्चय कर लिया कि अपना जीवन भी संघ के पवित्र उद्देश्यों को पूरा करने में लगाऊँगा। मैंने जीवन व्रती प्रचारक बनने की ठान ली।
हमें प्रचारक चाहिए विचारक नहीं
घर परिवार त्याग कर सन्यासी की भाँति जीवन जीते हुए राष्ट्र सेवा में स्वयं को समर्पित करने के लिए पूर्णकालिक प्रचारक बनने की अपनी इच्छा को मैंने संघ के जिला प्रचारक जी के समक्ष रखा, उनके द्वारा दिए गए लम्बे जवाब में से दो बातें अब तक मुझे जस की तस याद है।
मैं: भाई साहब मैं प्रचारक बनना चाहता हूँ।
जिला प्रचारक: बन्धु, आपके विचार तो बहुत सुन्दर हैं, लेकिन दृष्टि समग्र नहीं है, आज उत्साह में हो तो प्रचारक बन जाना चाहते हो, लेकिन हमारा समाज काफी विषम है, कल कोई आपसे नाम पूछेगा, गाँव पूछेगा और अंततः समाज (जाति) भी पूछेगा और अगर उन्हें पता चला कि ये प्रचारक जी तो वंचित (दलित) समुदाय से आए हैं, तो उनका व्यवहार बदल सकता है, तब अपमान का घूँट भी पीना पड़ेगा, मुझे मालूम है, आप यह नहीं सह पाओगे, दुखी हो जाओगे, प्रतिक्रिया करने लगोगे, वाद विवाद होगा, इससे संघ का काम बढ़ने के बजाए कमजोर हो जाएगा, इसलिए मेरा सुझाव है कि आप प्रचारक नहीं विस्तारक बन कर थोड़ा समय राष्ट्र सेवा में लगाओ।
जिला प्रचारक के इस जवाब से मैं बहुत दुखी हुआ, मुझे अपने निम्न समाज में पैदा होने पर कोफ्त होने लगी, पर इसमें मेरा क्या कसूर था? यह कैसी विडम्बना थी कि मैं अपना पूरा जीवन संघ के ईश्वरीय कार्य हेतु समर्पित करना चाहता था, लेकिन मेरी जाति इसमें आड़े आ रही थी, पर यह सोच कर मैंने खुद को तसल्ली दी कि महर्षि मनु के विधान के मुताबिक हम सेवकाई करने वाले शूद्र समुदाय हैं, अभी सम्पूर्ण हिन्दू समाज में हमारी स्वीकार्यता नहीं बन पाई है, खैर, कोई बात नहीं है, संघ सामाजिक समरसता के लिए प्रयासरत तो है ही, जल्दी ही वह वक्त भी आ जाएगा, जब मेरे जैसे वंचित समुदाय के स्वयंसेवक भी पूर्णकालिक प्रचारक बन कर अपना जीवन राष्ट्र सेवा में लगा पाएँगे, ये वे दिन थे जब मैंने लिखना शुरू कर दिया था, मैं शुरू शुरू में उग्र राष्ट्रभक्ति की कविताएँ लिखता था, मैंने एक हस्तलिखित पत्रिका ‘हिन्दू केसरी’ का पाकिस्तान मिटाओ अंक भी निकाला था, स्थानीय समाचार पत्रों में राष्ट्र चिंतन नाम से स्तम्भ लिखने लगा था, कई शाखाओं में गणवेश धारण किए हुए जाकर बौद्धिक दे आया था मैंने खुद को हिंदूवादी बनाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रखी थी, फिर भी मैं महसूस करता था कि मुझे वह स्वीकार्यता नहीं मिल पा रही है, जिसका मैं हकदार था, लेकिन उस दिन प्रचारक बनने के सवाल पर जो उनकी दूसरी बात थी, उसने मुझे अपनी औकात दिखा दी, प्रचारक जी ने मेरे सिर की तरफ इशारा करके मेरी बुद्धिजीविता का मखौल उड़ाते हुए साफ तौर पर कह दिया कि-आप जैसे ज्यादा सोचने वाले लोग केवल अपनी गर्दन के ऊपर-ऊपर मजबूत होते है, शारीरिक रूप से नहीं, वैसे भी संघ को ‘प्रचारक’ चाहिए, जो नागपुर से कही गई बात को वैसा का वैसा हिन्दू समाज तक पहँुचाए, आप की तरह के सदैव सवाल करने वाले विचारक हमें नहीं चाहिए और इस तरह मैं विचारक से प्रचारक बनते बनते रह गया।
-भँवर मेघवंशी
मो-09571047777
क्रमश :
लोकसंघर्ष पत्रिका में प्रकाशित

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भगवा ही गुरु है हमारा
उन दिनों संस्कृत सीखने और याद करने की मैं हर तरह से कोशिशें करता था, कई श्लोक मुझे कंठस्थ थे, जिन्हें मैं धारा प्रवाह बोल सकता था, मुझे पंचांग देखने का भी नया-नया शौक लग गया था। भगवत गीता और सुन्दर कांड तथा हनुमान चालीसा तो दिनचर्या का अंग ही बन गई थी। शाखा में ‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे, त्वया हिन्दू भूमे नमस्ते नमस्ते’ की प्रार्थना की जाती थी। तब तक हमारी शाखा को भगवा झंडा (ध्वज) नहीं मिला था, इसलिए हम लोग एक गोल घेरा बनाकर उसके मध्य में एक बिंदु लगा लेते थे और कल्पना करते थे कि उस स्थान पर भगवा ध्वज लहरा रहा है, उसी की छत्र छाया में हम भारत माता की स्तुति करते थे, हमें बताया गया था कि मनुष्यों के मन में तो विकार आ जाते है मगर निष्कलंक और वैराग्य के प्रतीक भगवा ध्वज में किसी प्रकार का कोई खोट नहीं आ सकता है, इसलिए संघ (आरएसएस) ने उसे अपना गुरु माना है गाँव में शाखा लगते हुए 6 माह हो चुके थे, विजयदशमी का पर्व आ गया था, जिला प्रचारक जी ने हमारी शाखा को
ध्वज प्रदान करने की घोषणा कर दी, हम खुशी से झूम उठे, हमें हमारा गुरु मिल गया था, अब हम निगुरे नहीं रहे, एक बड़े लोहे का सरिया, स्टैंड और सूती कपडे़ का भगवा झंडा हमें मिल गया, हमने अपने जीवन की पहली गुरु दक्षिणा दी, पर मेरा सदैव सवाल करने वाला मन यहाँ भी चुप नहीं रह सका, मैंने पूछ ही लिया कि कोई वस्तु (एक झंडा) कैसे हमारा गुरु की भाँति मार्गदर्शन करेगी? तहसील के सेवा प्रमुख ने मुझे इस तरह जवाब दिया, उन्होंने हँसते हुए एक वैदिक ऋषि का उदाहरण दिया कि-उन्होंने पेड़, पौधे, नदियों, कुत्ते और बिल्ली जैसे 24 सजीव एवं निर्जीव पदार्थों तथा जीव जंतुओं को अपना गुरु माना था, हमारी हिन्दू संस्कृति तो इतनी उदार, उदात्त और विशाल रही है, फिर हम भगवा ध्वज को क्यों गुरु नहीं मान सकते है? मेरी शंका का समाधान हो चुका था, संघ के सब लोगों के पास प्राचीन समय के उदाहरण और तैयार जवाब होते हैं, मैंने मान लिया भगवे झंडे को अपना गुरु और शाखा के डंडे को अपना साथी, मेरी स्वयंसेवक के रूप में शेष यात्रा इसी तरह के जवाबों, तर्कों और कुतर्कों को सुनते हुए ही चली क्योंकि आरएसएस में संशय नहीं श्रद्धा का बड़ा महत्व है, यह मुझे पता चल गया था। एक बार मैंने एक प्रचारक महोदय से पूछा कि भारत में तो हम हिन्दू बहुसंख्यक हैं फिर असुरक्षित कैसे हैं? दरअसल मेरी समस्या यह थी कि मैं जिस गाँव का निवासी हूँ वहां आज तक एक भी मुस्लिम या अन्य धर्मावलम्बी रहते ही नहीं हैं, हमारे यहाँ तो नमाज या अजान की आवाज तक सुनाई नहीं पड़ती थी, इसलिए मैं इन धरम के लोगों को बड़ी मुश्किल से दुश्मन के रूप में देख पा रहा था इसलिए पूछ लिया सवाल, जवाब मिला कि राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी तक ने कहा था कि आम हिन्दू शांतिप्रिय कायर होता है जबकि आम मुसलमान उपद्रवी, गुंडा, इनका भरोसा नहीं, कब विश्वासघात कर दें इसलिए ज्यादा संख्या होने के बावजूद भी हम हिन्दू अपने ही देश में सुरक्षित नहीं हैं, उस दिन से मुझे यकीन आने लगा कि वाकई ये दूसरे धर्मो के लोग हम हिन्दुओं के दुश्मन है।
पांचजन्य ने बनाया बौद्धिक रूप से कट्टर
शाखा में कुछ साहित्य तो मुफ्त आता था, राजस्थान आरएसएस का मुखपत्र पाथेयकण 30 रुपये सालाना चंदा जमा करवाने पर आने लगा, संघ द्वारा प्रकाशित छोटी छोटी अन्य किताबें भी आती थीं, जिन्हें 2 से 5 रुपये में बेचा जाता था, मैंने उन्हीं दिनों सीताराम गोयल की लिखी पुस्तक ‘हिन्दू समाज खतरे में’ पढ़ी, मेरा मन तड़फ उठा, इसमें इस्लाम, ईसाइयत और कम्युनिस्ट लोगों द्वारा हिन्दू समाज के खिलाफ रचे जा रहे पूरे षड्यंत्र की जानकारी दी गई थी, बेचारा हिन्दू समाज चारों ओर से इन दुष्टों के चक्रव्यूह में फँसा हुआ था।
मेरी जानने की भूख बढ़ती ही जा रही थी, मैं साप्ताहिक समाचार पत्र पांचजन्य का भी नियमित ग्राहक और पाठक बन गया, इसके हर अंक को मंै किसी धर्म ग्रन्थ की तरह पूरे मनोयोग से पढ़ता था, जिस सप्ताह पांचजन्य नहीं पहँुचता, वह हफ्ता सूना-सूना सा गुजरता था, सच कहूँ तो संघ जिस हिन्दू राष्ट्र की बार-बार बात करता है, उसकी पहचान और समझ भी मुझे पांचजन्य पढ़ने से ही हुई, मैं आज यह स्वीकार कर सकता हूँ कि पांचजन्य ने ही मुझमंे वैचारिक और बौद्धिक कट्टरता भरी, वैसे तो कट्टरता संघ के विभिन्न प्रशिक्षण करने से भी खूब बढ़ी, पाँच दिवसीय आईटीसी से लगाकर बीस दिवसीय ओटीसी करने के अनुभव काफी कारगर रहे। इस दौरान कठोर अनुशासन की पालना की जाती थी, जमकर शारीरिक व्यायाम करवाए जाते थे, लाठी, चाकू, तलवार चलाने का प्रशिक्षण आत्मरक्षा के नाम पर दिया जाता था, उन दिनों शिविर स्थल से बाहर जाकर किसी से भी मिलने की अनुमति नहीं होती थी, इस तरह की ट्रेनिंग को मीडिया से बचाकर करवाया जाता था, आज की तरह समाचार पत्रों में किसी तरह की कोई सूचना नहीं दी जाती थी, कहा जाता था कि प्रसिद्धि विमुख होकर निश्रेयस राष्ट्र सेवा में निमग्न रहना ही सच्चे स्वयंसेवक होने का गुण है। प्रशिक्षण और संघ साहित्य के तालमेल ने मेरे दिमाग को पूरी तरह से कट्टरपंथी बना दिया था। अब मैं किसी से भी बहस करने और भिड़ जाने को तैयार था खास तौर पर सेकुलर किस्म के कांग्रेसियों से, वही थे ज्यादातर मेरे इर्द-गिर्द, विधर्मी मुसलमान तो थे नहीं गाँव में उन्हें खोजने तो दूर जाना पड़ता था।
दुश्मन मिल गया
पर एक दिन अचानक ही मुझे बिन माँगे ही मेरा शत्रु घर बैठे ही मिल गया, हुआ यह कि मेरे ही गाँव के राजकीय प्राथमिक आयुर्वेदिक औषधालय में एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी कहीं से ट्रांसफर होकर आया, वह सर पर जालीदार टोपी लगाता था, दाढ़ी रखता था और सलवार कुर्ता पहनता था, नाम था-अमीर खान, मुझे उसे देखते ही पक्का विश्वास हो गया था कि यही है वह जो देश के दुश्मन लोगों की जमात का आदमी है। सौभाग्य से मुझे अपने घर के इतने करीब एक दुश्मन प्राप्त हो गया था। अब मुझे भाई साहब लोगों द्वारा बताई गई बातें ज्यादा ठीक से समझ में आने लगी, मैं हर बात से अमीर चाचा को जोड़कर देखता और वह विधर्मी मेरे दुश्मन की हर कल्पना पर खरा उतरता। अब तक मैंने सैंकड़ों बार सुना और पढ़ा था कि इन्हीं मलेच्छ विधर्मियों की वजह से हमारी भारत माता के दो टुकड़े हुए हैं, ये लोग भारत को माँ नहीं बल्कि डायन मानते हैं, क्रिकेट में पाकिस्तान की जीत पर खुशियाँ मनाते हैं, चार-चार औरतें रखकर चालीस-चालीस औलादें पैदा करते हैं, जल्दी से जल्दी अपनी आबादी बढ़ाकर शेष बचे भारत पर भी कब्जा करना चाहते हैं, ये लोग तो नसबंदी भी नहीं करवाते, इन्हें तो कानूनों में भी छूट है, सुप्रीम कोर्ट की भी बात नहीं मानते, शाहबानो नाम की बुढि़या के मामले में तो इन्हें खुश करने के लिए संसद ने कानून ही बदल दिया, इन्हें हज करने में अनुदान मिलता है जबकि हमें कैलाश मानसरोवर की यात्रा के लिए भी टैक्स भरना पड़ता है, इनके लड़के दिन भर लोहा कूटते हैं और शाम होते ही बनठन कर हमारी बहु बेटियों को पटाने निकल पड़ते हैं, स्कूल कालेज में हिन्दू लड़कियों को प्यार के नाम पर फँसाकर भगा ले जाते हैं, यौन शोषण के बाद उन्हें बदनाम बस्तियों में बेच देते हैं, इनके मदरसों में ‘अ’ से आलिम नहीं ‘अलगाववाद’ पढ़ाया जाता है, सब तरह के उग्रवाद की जड़ में यही लोग होते हैं, इन्होंने मस्जिदों के नीचे हथियार छिपा रखे हैं, जब भी पाकिस्तान हमला करेगा, तब ये देश के भीतर उसके लिए हमसे लड़ेंगे, ये गोमांस खाते हैं, स्वभाव से निर्दय और क्रूर होते हैं, पाकिस्तान की जासूसी करते हैं, हमारे देश और धर्म किसी के भी सगे नहीं हैं इस तरह की सैंकड़ों बातें मेरे दिमाग में घर किए हुए थीं, जिसके चलते ही मुझे अमीर चाचा और उसके जैसे दिखाई पड़ने वाले हर व्यक्ति में एक उग्रवादी और देशद्रोही इन्सान नज़र आने लगा। मैं सोचता था कि इतने बुरे लोगों को भारत में क्यों रखा जा रहा है, सरकार इन्हें फौज के जरिये जबरन क्यों पाकिस्तान नहीं भेज देती, मगर मैंने सत्ता, कांग्रेस के मुस्लिम तुष्टिकरण के बारे में भी पढ़ा था, ऐसी मुस्लिम परस्त पार्टी के सत्ता में रहते और उम्मीद भी क्या की जा सकती है? मेरे तो अपने ही घर में सब कांग्रेसी भरे पड़े थे, तो क्या मैं राष्ट्रद्रोहियों के खानदान से हूँ? अक्सर ऐसे सवाल उठते रहते थे, जैसे-जैसे इस तरह के बहुत सारे सवाल मुझे घेरते, मैं और अधिक ताकत से हिन्दू समाज को संगठित करने के संघ कार्य में खुद को लगा देता, मुझे विश्वास था कि संगठित हिन्दू समाज ही समर्थ भारत बना सकता है, अब मेरे जीवन का एक ही लक्ष्य था हर हाल में भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना है।
-भँवर मेघवंशी
मो-09571047777
क्रमश :
लोकसंघर्ष पत्रिका में प्रकाशित
edc58-01

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