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Posts Tagged ‘विनीत तिवारी’


विडंबना यह है कि खेती में मज़दूर तो सरप्लस हैं लेकिन ज़मीन घट रही है। मज़दूरों की कमी को मशीनों से पूरा करने वालों के पास भी अभी भारत जैसे अन्न मुख्य आहार वाले देश में खेती के लिए ज़मीन का कोई विकल्प नहीं है। इसलिए ग्रामीण आबादी के पलायन और खेती पर निर्भर आबादी की चिंता में ज़मीन को बचाने की चिंता भी अनिवार्य तौर पर शामिल होगी।

पूरी अर्थव्यवस्था को बदलने की ज़रूरत

एक खेत जितना एक या दो पीढ़ी के लिए पैदा कर सका, उसकी क़ीमत से कई गुना ज्यादा का उछाल उससे बग़ैर फसल लिए काॅलोनाइजर हासिल कर लेता है। आप एक एकड़ वाले किसान को या भूमिहीन मज़दूर को भला कैसे यह समझा सकते हैं कि अपनी छोटी जोत में खेती करते हुए अभी आधापेट खाकर रहो और अगली पीढ़ी को एक-चैथाई पेट खाने की आदत डालो लेकिन ज़मीन मत छोड़ो, खेती मत छोड़ो, क्योंकि लंबे समय में तुम्हारे लिए और इस संसार की खाद्य सुरक्षा के लिए यही ठीक है। यह हरगिज़ नहीं चल सकता। और अनेक बार हमने देखा कि यह नहीं चला। भूख और जीने की ज़रूरत को किसी भी ‘कृषिप्रधान देश की संस्कृति की दुहाई’ से नहीं ढका जा सकता, बल्कि इसके लिए ऐसे ठोस उपाय करने की ज़रूरत होगी जिससे खेती में लगे लोगों को सम्मानजनक रोज़गार और जीवन-सुरक्षा मिल सके। वरना बाज़ार और बाज़ार के मातहत चल रहा राज्य खेती में लगे लोगों के लिए वही विकल्प उपलब्ध करवाता रहेगा जैसे उसने विदर्भ या वारंगल और अनेक अन्य किसान आत्महत्या वाले इलाक़़ों के किसानों को दिए हैं।
बेशक एक जगह से जाकर दूसरी जगह बस जाने का लोगों का हर देश में हजारों वर्षों पुराना इतिहास है। कभी वे प्राकृतिक आपदाओं के चलते सुरक्षित जगहों की तलाश में गए, कभी सामाजिक-आर्थिक कारणों से। पंजाब से लोग कनाडा और इंग्लैंड गए, तमिलनाडु और आँध्रप्रदेश से कम्बोडिया, थाइलैंड और वियतनाम, केरल के लोग पहले बर्मा, श्रीलंका, सिंगापुर गए और बाद में जर्मनी, अमरीका और खाड़ी के देश। इसी तरह गुजरात के लोग भी अफ्रीका और यूरोप के अनेक देशों तक पहुँचे। उड़ीसा के लोग जावा-सुमात्रा पहुँचे तो भोजपुरी लोग फिजी, माॅरीषस, सूरीनाम, त्रिनिडाड, युगांडा तक। वे देषों की सरहदों के भीतर घूमते-भटकते रहे और उन्होंने पर्वतों-समुंदरों को भी लाँघा। अनेक दफ़ा वे गु़लाम मज़दूरों की तरह काम करने के लिए दुनिया के कोने-कोने में ले जाए गए।
पूँजीवाद का पूरा इतिहास संपत्ति संचय के लिए श्रम के शोषण और उसे एक जिंस की तरह इस्तेमाल करने का रहा है। जहाँ पूँजीवाद को ज़रूरत होती है वह उस दिशा में श्रम को पलायन पर मजबूर करता है। संभव हुआ तो ज़ंजीरों में जकड़कर, नहीं तो मोटी तनख़्वाह पर। दोनों ही तरह के पलायन और विस्थापन अंततः पूँजीवादी डिजाइन के ही हिस्से होते हैं जिसका मक़सद मुनाफ़ा होता है – किसी भी क़ीमत पर, और जब श्रम की ज़रूरत ख़त्म हो जाती है तब वह श्रम को अपने आप मरने मिटने के लिए छोड़ देता है। ज़ाहिर है हमारे लिए जो हल स्वीकार्य होगा उसमें मेहनतकश लोग केन्द्र में होंगे। हालाँकि हर जनसंघर्ष और उससे हासिल उपलब्धि का महत्त्व है लेकिन इस परिस्थिति से निपटने के लिए केवल खेती में नहीं बल्कि पूरी अर्थव्यवस्था में ही आमूलचूल परिवर्तन की ज़रूरत है, और अर्थव्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन अर्थव्यवस्था से नहीं, बल्कि राजनीति से होते हैं।
-विनीत तिवारी
मो. 09893192740

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खेती से खिसकती ज़मीन

हमारी कार्यशील आबादी का 50 फ़ीसदी से ज़्यादा हिस्सा अभी भी खेती के क्षेत्र में ही मौजूद है। इसका यह अर्थ हर्गिज़ नहीं कि इतने लोगों की वहाँ वास्तव में ज़रूरत है। लोग वहाँ हैं क्योंकि उनके पास कोई विकल्प मौजूद नहीं है। वे वहाँ सरप्लस लेबर हैं जिसके रचनात्मक इस्तेमाल की न योजनाकारों को कोई परवाह है न चिंता। उनके पास या तो वहीं रह कर धीरे-धीरे ख़त्म हो जाने का इंतज़ार रहता है या उन्हें बाहर निकलकर जीवनयापन के किसी साधन की तलाश करनी होती है। खेती के भीतर पर्याप्त आमदनी की संभावनाएँ सिकुड़ती देख सीमांत व मध्यम किसान मजबूरी में खेती से बाहर होते जाते हैं। पहले आंशिक तौर पर, फिर पूरी तरह। उनके पास लंबे समय तक घाटा उठाकर भी खेती करते रहने का आर्थिक आधार नहीं होता। खेती के क्षेत्र के बाहर दूसरे क्षेत्रों में भी उनके लिए कोई जगह नहीं है।
ऐसा नहीं है कि जो लोग खेती करना छोड़ गए तो उनकी जगह कोई और खेती करने लगा। अगर खेती में गुज़र-बसर होती रहती तो जिन्होंने छोड़ी, वे ही क्यों छोड़ते। इसलिए उनके जाने पर अक्सर उनकी ज़मीन भी खेती के उपयोग से बाहर हो जाती है।
भारत में नव उदारवादी नीतियों के चलते जो गुब्बारा अर्थव्यवस्था पिछले दो दशकों में फैली है, उसने एक नए मध्यवर्ग और उपभोक्ता तबक़े को खड़ा किया। यह अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से वित्त और सर्विस सेक्टर पर टिकी है। उत्पादन का प्राथमिक क्षेत्र हेय हो गया है। इसी ने शेयर बाज़ार की सट्टेबाजी को सर्वोपरि बनाया और वही सट्टेबाजी ज़मीन के बाज़ार में भी आई। शहरों के आस-पास की ज़मीनों के दाम बढ़े हैं क्योंकि मध्यवर्ग के पास निवेश के लिए पैसा है। खेती का क्षेत्र काॅर्पोरेट के लिए खोल दिए जाने, कांट्रेक्ट खेती को राज्यों द्वारा बढ़ावा देने से आई.टी.सी., रिलायंस और टाटा जैसी कंपनियों की भी ग्रामीण भारत में सरगर्मियाँ बढी हैं। ज़मीन सबकी निगाहों में सोने से तेज चमक रही है।
नतीजा यह है कि खेती की ज़मीन का बहुत बड़ा हिस्सा चुपचाप खेती के उपयोग से बाहर हो गया है।
कुछ वर्षों पहले हमने देश में अनेक जगहों पर एस0ई0जे़ड0 (सेज़) के विरोध में ज़बर्दस्त आंदोलन देखा था और हममें से अनेक उस आंदोलन के हिस्से भी बने थे। सेज़ के प्रावधान मज़दूर विरोधी थे व उससे खेती की उपजाऊ ज़मीन किसानों से छीनी जा रही थी। अगर भारत सरकार द्वारा ‘फाॅर्मल अप्रूवल’ और ‘इन प्रिंसिपल अप्रूवल’ पाये सारे एसईजेड बन गए तो भी वे कुल 2.1 लाख हेक्टेयर ज़मीन ही ले सकते हैं। जबकि बाज़ार ने किसानों के साथ सौदे करके बिना किसी क़ानून और बिना किसी विरोध के देश की 1 करोड़ 80 लाख हेक्टेयर ज़मीन खेती के उपयोग से बाहर खिसका दी। देश के सारे राज्यों में खेती की ज़मीन में नाटकीय रूप से कमी आई है और उसे रोकने की कोई सजग कोशिश उस सरकार की तरफ़ से नहीं हुई जो देश की खाद्य सुरक्षा के लिए भी एक क़ानून बना रही है।
-विनीत तिवारी
क्रमश:

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यहाँ हमें तमिलनाडु से लेकर उड़ीसा, बंगाल तक के मज़दूर गाँवों में देखने को मिले। सन् 2009 में ही केरल में न्यूनतम वेतन तीन सौ रुपये से ज़्यादा था (जो वाकई मज़दूर को मिलता भी था) इसलिए अच्छी मज़दूरी के आकर्षण में दूर-दूर के मज़दूरों का वहाँ आना सहज भी था। लेकिन 2007-08 में ही अमरीका से शुरू हुए आर्थिक मंदी के दौर ने अरब और खाड़ी के देशों पर भी असर डालना शुरू कर दिया था। केरल के बहुत सारे नौजवान खाड़ी के देशों में प्लंबर, पेंटर, ड्राइवर और होटलों में वेटर, कुक जैसे कुशल और अर्ध कुशल श्रेणी के कामों में लगे हुए हैं। आर्थिक संकट ने खाड़ी के देशों को यूरोप और अमरीका से आने वाले पर्यटकों से होने वाली आमदनी को प्रभावित किया, नतीजतन अनेक लोगों की नौकरियाँ ख़त्म हुईं। नौकरियाँ गँवाकर घर लौटे केरल के ग्रामीण नौजवानों ने खेतों में किए जाने वाले अनेक कामों को खुद करना शुरू कर दिया जिससे केरल में बाहरी मज़दूरों की माँग में भी कमी आई। हालाँकि यह असर घातक नहीं थे लेकिन फिर भी इसने राज्य की अर्थव्यवस्था के लगातार गैर आनुपातिक रूप से गल्फ-मनी पर बढ़ती निर्भरता के खतरों से आगाह तो किया ही।

खेती से पलायन-विस्थापन और राज्य

एक तरफ़ यह पलायन और विस्थापन है जिसमें प्रत्यक्ष रूप से राज्य की कोई भूमिका नज़र नहीं आती लेकिन इन मामलों में भी राज्य अपनी योजना की नाकामी और श्रम बाज़ार की असंगत प्रक्रियाओं में उसके सार्थक हस्तक्षेप की कमी से पल्ला नहीं झाड़ सकता। दूसरी तरफ़ उस विस्थापन और पलायन के दिनोदिन बढ़ते उदाहरण हैं जिनमें राज्य ख़ुद सक्रिय भूमिका निभाता हुआ आम लोगों को विस्थापन और पलायन के लिए मजबूर कर रहा है। कानून की मनमानी व्याख्याएँ कर या नए दमनकारी कानून बनाकर और हर तरह के विरोध पर पुलिस की बंदूक तानकर भारतीय राज्य लोकतंत्र के मामले में अमरीका से होड़ ले रहा है। पुराने भूमि अधिग्रहण कानून के बदले और भी जनविरोधी नया क़ानून लाने की कोशिश, उत्तर-पूर्व के राज्यों से लेकर कुडनकुलम, जैतापुर, कलिंगनगर, दादरी, पोस्को, नियमगिरि, भट्टा पारसौल, नर्मदा घाटी, रायगढ़, प्लाचीमाड़ा, नंदीग्राम, और तमाम जगहों पर लोगों ने अपनी ज़मीनें छीनने और उजाड़े जाने की राज्य की कोशिशों के खि़लाफ़ लड़ाई लड़ी और लड़ रहे हैं।
लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि भारत में औसत जोत का आकार घटकर 1.06 हेक्टेयर रह गया है जो एक परिवार का पेट पालने के लिए काफ़ी नहीं। दूसरी तरफ़ ज़मीन की सीलिंग बढ़ाने के लिए हर राज्य में क़ानून बदले जा रहे हैं। हज़ारों हेक्टेयर की खेती करने के लिए काॅर्पोरेट घरानों को बुलाया जा रहा है। सामूहिक खेती की बात तो दूर, लोग अब भूमि सुधार की माँग भी भूलते जा रहे हैं। और यह तो औसत है। असल में तो बिहार, केरल और बंगाल में चैथाई हेक्टेयर से भी छोटी जोतें बहुतायत में हैं। इतनी कम ज़मीन पर संसाधनहीन ग़रीब किसानों द्वारा खेती करने से किसी भी तरह उनकी उपज इतनी नहीं हो सकती कि वे सिर्फ़ खेती के ही सहारे जी सकें। नतीजतन, खेती उनके लिए आमदनी का मुख्य ज़रिया नहीं रह जाती और जैसे ही उन्हें वाजिब लगते दाम मिलते हैं, वे खेती से किनारा कर लेते हैं।
ग़रीब ग्रामीण आबादी दो तरह के विस्थापन झेल रही है। एक तो भौगोलिक जिसमें लोग रोज़गार की तलाश में और जि़ंदा रहने के जतन में एक जि़ले से दूसरे जि़ले या एक राज्य से दूसरे राज्य जाते हैं, कभी मौसमी तौर पर कभी स्थायी तौर पर।
एक अन्य किस्म का विस्थापन हो रहा है जिसमें वे खेती के क्षेत्र से ही विस्थापित हो रहे हैं। वे खेती के क्षेत्र को छोड़ शहरों-महानगरों में मौजूद तमाम किस्म के असंगठित रोज़गारों का हिस्सा बन रहे हैं। वे आज रिक्शा चला रहे हैं, रेहड़ी लगा रहे हैं, फेरी लगा रहे हैं, सिक्योरिटी गार्ड बन रहे हैं, सब्ज़ी बेच रहे हैं, हम्माली कर रहे हैं, इमारतें बना रहे हैं, और कल उस रोज़गार से भी बेदख़ल हो रहे हैं। वे खेती से और गाँवों से बाहर शहर में आ गए हैं, जहाँ वहीं के बंद कारखानों के बेरोजगार मज़दूरों की पहले से ही इतनी भीड़ है कि इनके लिए हाशियों पर भी जगह नहीं। न रूपक में और न ही यथार्थ में। झाबुआ, धार, रतलाम जैसे आदिवासी बहुल इलाक़ों से जो आदिवासी रोज़गार की तलाश में क़रीबी राज्य गुजरात में काँच और गेत पत्थरों के कारखानों में काम करने जाते हैं, वे वहाँ से एकाध साल में ही सिलिकोसिस की मौत लेकर लौटते हैं। अब तक हज़ारों लोग मारे जा चुके हैं लेकिन त्रासदी यह है कि जिसके घर का एक सदस्य उसी सिलिकोसिस का शिकार हुआ, विकल्प के अभाव में उसी घर से दूसरा, जानते-बूझते उसी काम के लिए जाता है।
-विनीत तिवारी
क्रमश:

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राष्ट्रपति भवन में थोड़ी देर बाद मैंने उन्हें अपनी टेबल की ओर आता देखा। मई घबरा गयी और कुछ नर्वस हो गयी। तब तक नेहरूजी मेरे पास आ पहुंचे। इतने नजदीक देखकर मुझे कुछ सूझ नही रहा था। मैं खड़ी हो गयी। वे काफी वरिष्ठ थे लेकिन उनकी उम्र से उनके व्यक्तित्व पर तब तक कोई असर नहीं पड़ा था। उनके साथ उनका कोई असिस्टेंट भी चल रहा था। मेरी ओर देखने के बाद प्रश्नवाचक दृष्टि से उसकी ओर देखा। उसने जल्दी से अंग्रेजी में उन्हें कहा, “शी इज एन एमपी”ज वाइफ फ्रॉम एम.पी।” मुझे आज तक नहीं पता कि उस व्यक्ति को ये कैसे पता था। पर ये सुनकर नेहरूजी ने कुछ क्षण मुझे अपलक देखा और फिर आँखों में प्रश्न लाकर पूछा, “होमी दाजी?” मैंने “हाँ” में सर हिलाया लेकिन मैं क्या बताऊँ कि मेरी हालत क्या हो रही थी। नेहरूजी द्वारा पहचान लिये जाने से बहुत ख़ुशी तो हो ही रही थी लेकिन पता नहीं क्यों, शर्म भी बहुत आ रही थी।
मेरा सर हिलाना था कि नेहरूजी ने मुझे कन्धों से पकड़ लिया और बोले, “ही इज ए ब्रिलियंट बॉय।” उस वक्त दाजी सबसे काम उम्र के सांसद थे। फिर नेहरु जी बोले, “पता नहीं ये लड़का कहाँ-कहाँ से चीजें ढूंढ कर लाता है और हमसे पार्लियामेंट में इतने सवाल करता है कि हमें मुश्किल हो जाती है। तुम जरा उसकी लगाम खींचकर उसे घर में ही रखा करो ताकि हमें थोडा आराम रहे। हम रोज ये सोचकर सदन में जाते हैं कि पता नहीं आज दाजी क्या पूछेगा।” नेहरु जी के मजाकिया लहजे ने मेरी घबराहट कुछ कम कर दी। मैंने भी सम्मान से जवाब दिया, “सर, संसद बेलगाम न हो जाए, इसके लिये मैंने उनकी लगाम छोड़ दी है।” यह सुनते ही नेहरूजी ठहाका मारकर हँसे और मेरी पीठ थपथपाकर अपने साथ वाले व्यक्ति से बोले, “देखो, ये तो दाजी से भी दो कदम आगे है।” कहकर वे आगे बढ़ने लगे। मैंने उन्हें नमस्कार किया। वे तीन-चार कदम आगे चलकर रुके और वापस आकर बोले, ” अगर वह मेरी पार्टी में आ जाए तो मैं उसे चीफ मिनिस्टर बना सकता हूँ।” मैं एकदम हडबडा गयी। फिर मुंह से निकला, “सर , एक ईमानदार और समर्पित कम्युनिस्ट वहां कांग्रेस में कैसे काम कर सकता है? वह जहाँ है, वहीँ ठीक है। उसे वहीँ रहने दीजिये।” कह तो दिया लेकिन मन में बहुत घबराहट भी हुई। इतने महान, विद्वान और देशभक्त व्यक्ति को उसकी पार्टी के बारे में ऐसा कहना मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था। पर अब क्या। अब तो बात निकल गयी। लेकिन नेहरूजी की बात ही कुछ और थी। उन्होंने हँसते हुए मेरी पीठ पर एक बुजुर्ग की तरह हाथ फेरा और चले गए।
यह बात पेरिन दाजी की किताब “यादों की रौशनी में” संपादक विनीत तिवारी से साभार लिया गया है।

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सार्वजानिक क्षेत्र के बारे में भी बहुत संक्षेप में कुछ कहना जरूरी है। सार्वजानिक क्षेत्र के उपक्रम हमारी नयी विकसित होती अर्थव्यवस्था की मॉस-पेशियों हैं। बेशक ये ठीक ही कहा गया कि वे ही समाजवाद नहीं हैं लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि वे हमारी उम्मीदें हैं। और हमारे सार्वजानिक क्षेत्र के उपक्रम भला कैसे चलाये जा रहे हैं ? उन्हें चलाने की जिम्मेदारी सेवानिवृत्त हो चुके, नाकाबिल अधिकारीयों को दी हुई है। जो अधिकारी किसी भी अन्य विभाग के लिये नाकाबिल समझे जाते हैं उन्हें सार्वजानिक क्षेत्र के उपक्रमों के प्रबंधक पद के लिये पूरी तरह काबिल मान जाता है। और ये अधिकारी इस प्रबंधन का पूरा सत्यानाश करते हैं।
श्रीमान, मै पूरे विश्वास और जिम्मेदारी के साथ आपको बता रहा हूँ कि इन अधिकारीयों ने खुद प्रधानमंत्री का मखौल बनाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी।
कुछ ही महीनो पहले प्रधानमंत्री जी खूब जोर-शोर के साथ भोपाल में बिजली की मोटरों का भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स (भेल) में उत्पादन का उद्घाटन करने आये थे। मै दावे के साथ कह रहा हूँ कि जो भोपाल भेल में बना बताया गया, उसमें कोई पुर्जा, कोई हिस्सा, यहाँ तक कि एक कील तक भी भोपाल में बनी हुई नहीं थी। लेकिन चूँकि वक्त पर काम ख़त्म दिखाना था इसलिए ये बदमाशी की गयी। सम्बंधित अधिकारीयों को साबित करना था कि उन्होंने दिए हुए वक्त में काम पूरा कर दिया वर्ना उनकी नौकरी चली जाती।
इसलिए इंग्लैंड में बनी हुई मोटरें लायी गयीं और उन्हें सिर्फ भोपाल हैवी इलेक्ट्रिकल्स में पेंट किया गया, उन पर रातों-रात लेबल बदला गया ताकि वे भोपाल में बनी दिखाई जा सकें और वहीँ मोटरें प्रधानमंत्री जी को दिखाई गयी जिनका उन्होंने अगले दिन जोरदार गाजे-बाजे के साथ उद्घाटन किया।
जिन कर्मचारियों ने रात में उन मोटरों को पेंट किया था, उन्ही कर्मचारियों को प्रधानमंत्री जी ने ये भाषण भी दिया कि उन्हें इन मशीनों को भोपाल में बनाये जाने पर गर्व है। वे कर्मचारी मुंह छिपाकर कनखियों से एक-दूसरे को देखते हुए हंस रहे थे और अधिकारीयों पर भी। मै ये घटना पूरी जिम्मेदारी के साथ बयान कर रहा हूँ।

पंडित जवाहर लाल नेहरु ने भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स भोपाल का उद्घाटन 6 नवम्बर 1960 को भोपाल में किया था उसके बाद कम्युनिस्ट सांसद होमी दाजी ने संसद के अन्दर उक्त भाषण दिया था। यह भाषण पेरिन दाजी की किताब “यादों की रौशनी में” संपादक विनीत तिवारी से साभार लिया गया है।

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मध्य प्रदेश से कम्युनिस्ट सांसद होमी दाजी को चुनाव न जीतने देने के लिये बिरला जी ने जमकर रुपया कांग्रेसी उम्मीदवार के ऊपर खर्च किया था। बिरला जी ने टेबल पर गुस्से में मुट्ठी ठोककर कहा कि मै देखता हूँ अब दाजी कैसे संसद में आता है। दाजी को लोकसभा चुनाव न जीतने देने के लिये पूंजीपतियों की पैसों की पोटलियाँ खुल गयीं। उसके पहले तक चुनाव में पैसों का ऐसा दखल नहीं होता था। दाजी के सामने कांग्रेस की तरफ से प्रकाश चन्द्र सेठी थे। उन्होंने दोनों हाथों से बिरला का पैसा बांटा। चुनाव के समय, जब हम गाँवों में प्रचार के लिये जाते थे तो गाँव की भोली-भाली, अनपढ़ महिलाएं कहती थी कि पंजे वाले लोग हमें एक-एक साडी, एक-एक शराब की बोतल और 10 किलो गेंहू दे गए हैं।
संसद में होमी दाजी ने कहा था कि मेरे प्रदेश का नाम मध्य प्रदेश से बदल कर सरकार बिरला प्रदेश क्यों नहीं रख देती ?
मुख्यमंत्री का बेटा, वित्तमंत्री का बेटा, मुख्य सचिव का बेटा, मुख्य सचिव की पत्नी का भाई, सचिव का भाई-ये सब बिरला के कर्मचारी हैं। और ये सब किसी तकनीकी पद के लिये नहीं नियुक्त किये गए हैं। ये सब उनके जन संपर्क अधिकारी (पी.आर.ओ) हैं जिनका एक मात्र काम मध्य प्रदेश के सचिवालय के चक्कर लगाना और कंपनी के लिये लाइसेंस और लीज हासिल करना है।
यह तथ्य हैं कि मतदाताओं की खरीद फरोख्त का कार्य सबसे पहले कांग्रेस ने ही प्रारंभ किया था और उसके बाद जैसे-जैसे देश का विकास हुआ। उद्योगपति बढे उन्होंने अपने हितों के लिये विभिन्न राजनितिक दलों को खरीद कर चुनाव लड़ाने लगे।
लाल रंग से लिखे गए वाक्य पेरिन दाजी द्वारा लिखित तथा विनीत तिवारी द्वारा सम्पादित “यादों की रौशनी में” से साभार लिये गए हैं।

सुमन
लो क सं घ र्ष !

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