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Posts Tagged ‘शकील सिद्दीक़ी’

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प्रेमचन्द को लेकर एक बार फिर पुराने विवादों को जीवित करने के प्रयास हो रहे हैं, उनके सामाजिक दृष्टिकोण व प्रतिबद्धता के प्रति एक बार फिर शंकाएँ प्रकट की जा रही हैं। एक हिन्दी दैनिक की इस विवाद में विशेष रुचि है। प्रगतिशील आन्दोलन, सामाजिक समानता तथा बदलाव के चिंतन के प्रति उनके झुकाव पर संशय का आवरण डालने की कोशिश हो रही है। कहा जा रहा है कि प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े लोग गैरजरूरी तौर पर अपने हितों की पूर्ति के लिए उन्हें वामपंथी, कम्युनिस्ट और धर्म निरपेक्ष साबित करने के उद्देश्य से उनकी कुछ खास रचनाओं को महिमामंडित कर रहे हैं। उन्होंने प्रगतिशील लेखकों के प्रथम राष्ट्रीय अधिवेशन की
अध्यक्षता क्या कर दी कि उन्हें सचेत रूप से पैदाइशी तरक्की पसंद और इस तहरीक का हिमायती साबित करने की मुहिम ही चला दी गई है। उहें अनावश्यक रूप से प्रगतिशील आन्दोलन का नायक बनाया जा रहा है, उनके मस्तक पर प्रगतिशीलता का ताज रखा जा रहा है। यानी कि प्रेमचन्द के व्यक्तित्व व कृतित्व के वृहत्तर प्रमुखता में प्रमाणित यथार्थ ही को झुठलाने की हठवादी कोशिशें हो रही हैं। कुछ उसी तरह जैसे कुछ विद्वान उन्हें घृणा का प्रचारक या दलित विरोधी रचनाकार के रूप में स्थापित करने का स्वप्न देखते हैं। अन्ततः उनका स्वप्न भंग होता है फिर भी वे सच्चाई को स्वीकार करने को तैयार नहीं होते। अब जबकि कथा सम्राट का लिखा एक-एक शब्द प्रकाशित हो चुका है, तब उन्हें प्रगतिशील अथवा वामपंथी झुकाव वाला रचनाकार साबित करने के लिए कोई पत्र, लेख, टिप्पणी, डायरी, इन्दिराज, सम्पादकीय या कहानी रच पाना तथा उसे प्रकाशित प्रसारित करा पाना किसी के लिए संभव नहीं हैं। जैसा कि प्रेमचन्द्र ने मित्र और जमाना के सम्पादक मुंशी दया नारायण निगम को एक पत्र में यह लिखा कि ‘‘मैं, अब करीब-करीब बोशेविक वसूलों का कायल हो गया हूँ। ‘‘या यह कि मैं उस आने वाली पार्टी का मेम्बर हूँ जो कोतहुन्निसा (विपन्नवर्ग) की सियासी तालीम को अपना दस्तूर उल-अमल बनाए।’’
प्र्रश्न यह है कि इस प्रकार के विचारों को प्रगतिशीलों या वामपंथियों द्वारा महत्व देने और प्रचारित करने पर किसी को आपŸिा क्यों होनी चाहिए। बीसवीं सदी में मज़्ादूर वर्ग की उभरती हुई संगठित शक्ति से उत्साहित होकर यदि प्रेमचन्द्र समानता पर आधारित समाज के निर्माण को संभव मान पाए और यह कह पाए कि ‘‘यह काम बहुत मुश्किल नहीं। पूँजी और सम्पŸिा से खूनी लड़ाइयाँ लड़नी पड़ेंगी।’’ तो फिर आखिर इसका जोर देकर उल्लेख करने में हर्ज क्या है। यदि वे गांधीवादी आदर्शवाद से समाजवादी यथार्थवाद की ओर आते हुए बदलाव के संघर्ष की निर्णायक शक्तियों की पहचान कर सके। गांधी के प्रभाव के बावजूद शोषण एवम् उत्पीड़न के विरुद्ध आकार लेती किसानों में नई-नई पैदा हुई जनवादी चेतना को प्रतिबिम्बित करने वाला उपन्यास प्रेमाश्रम लिख पाए तो शोषण व लूट की नई शक्तियों के उभार, उनसे पैदा हुई प्रतिरोध की नई आँच तथा सामूहिक संघर्षों की नई स्थितियों को चिह्नित करते हुए संघर्ष के नए नायक दे पाए, पराजित दमित जनता को रंग भूमि जैसा उपन्यास रचकर विजय का एक बोध दे सके, प्रेमाश्रम से होते हुए गोदान तक की वैचारिक विकास की यात्रा तय कर पाए जो अवश्य ही कला के विकास की भी यात्रा है, तो उन्हें दलित-दमित सताई गई जनता का पक्षधर लेखक क्यों नहीं कहा जाएगा, भारत के मुक्ति संघर्ष, उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद तथा सामंतवाद के विरुद्ध संगठित हुए जनान्दोलनों का प्रतिबद्ध चित्रेता कहने में संकोच कैसा।
उन्हें प्रगतिशील जनवादी, अवाम दोस्त, जनसंघर्षों के जबरदस्त हिमायती, वर्ग विभाजित समाज में वर्गीय यथार्थ की खरी पहचान, साम्प्रदायिकता व जातिवाद का प्रखर आलोचक, धर्मान्धता, रूढि़वाद और कूप मण्डूकता के विरुद्ध निरन्तर आक्रमण की भूमिका में रहने वाला रचनाकार साबित करने के लिए किसी बाहरी उपकरण की आवश्यकता नहीं, विराटता लिए हुए उनका विविध आयामी बृहŸार लेखन ही उन्हंे यह सब सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। अप्रैल 1936 में वह प्रगतिशील लेखकों के प्रथम राष्ट्रीय अधिवेशन (लखनऊ) की सदारत करते या नहीं, साहित्य का शिलालेख बन जाने वाला नितांत सारगर्भित, दिशा वाहक अध्यक्षीय सम्बोधन दे पाते या नहीं, इससे स्थितियों में कोई बड़ा अन्तर नहीं पड़ता क्योंकि सन् 36 आते-आते वह 1906, 1919-20 तथा 1930 के प्रेमचन्द्र से बहुत आगे आ चुके थे।
अतार्किकता का अतिक्रमण करते हुए वे तार्किकता की ओर जाते हैं, उनके यहाँ कला और दृष्टिकोण दोनों स्तरों पर निरन्तर विकास दिखाई पड़ता है, प्रौढ़ता किसी सचेत प्रयास की अपेक्षा स्वाभाविक गति से आती दिखती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि वे अत्यन्त सजग रचनाकार थे, हालात और कला के बदलते स्वरूप पर उनकी गहरी नज़्ार थी। लेखन की सोद्देश्यता पर उनका विश्वास लगातार अधिक दृढ़ होता गया था, लेखन में वे सोशल ऐक्टिविस्ट की तरह सक्रिय थे, किसी दूसरे ने नहीं, स्वयम् अपनी चेता से उन्होंने अपने लिए कई जिम्मेदारियाँ निर्धारित कर रखी थीं। इस बात को वह समझ रहे थे कि व्यक्ति की परिवार के प्रति जिम्मेदारियों के मुकाबले लेखक के समाज के प्रति कहीं
अधिक गुरुतर दायित्व होते हैं। अपने लेखकीय सरोकारों मात्र के कारण ही नहीं बल्कि इन सरोकारों को व्यावहारिकता के स्तर पर घटित करने, इस कारण जीवन और सुविधाओं को संकट में डालने, ख़तरे मोल लेने, आर्थिक क्षति उठाते हुए भी, जनसंचार माध्यमों को जुटाने तथा उनका भरपूर इस्तेमाल करने के कारण भी वे विश्व के कई बड़े रचनाकारों के निकट जा पहुँचते हैं। उन रचनाकारों के निकट जिन्होंने विधाओं की सीमाएँ तोड़ीं, माध्यमों का अतिक्रमण किया और सामाजिक सक्रियता की मिसालंे पेश कीं। ठीक उसी तरह जैसे 1920 में गांधी जी के आवाह्न पर उन्होंने भविष्य को दाँव पर लगाते हुए, आर्थिक तंगी के बावजूद सरकारी नौकरी को ठोकर मार दी। अवश्य ही उन्होंने सरकारी नौकरी गांधी जी के प्रभाव में छोड़ी थी, गांधी जी के लिए नहीं। उन्होंने यह कुर्बानी देश के लिए, उसकी आजादी के लिए की थी। कुल मिलाकर यहाँ के अवाम के लिए वे देख रहे थे कि भारतीय सामंतों के गठजोड़ से किस क्रूरता से ब्रिटिश शासन यहाँ के सदियों के सताए गए अवाम का दमन कर रहा है। कुछ आधुनिक सुविधाओं शिक्षा और ज्ञान का अवदान देते हुए उसने सुनियोजित तरीके से भारतीय समाज के आधुनिकीकरण और समग्र विकास, सबकी तरक्की को संभव करने में बाधा पहुँचाई। संस्कृति व सभ्यता को आघात पहुँचाया है, भारतीय स्वाभिमान की धज्जियाँ उड़ाई हंै, साम्राज्य की मजबूती के लिए सामाजिक विभेद को उग्र किया है, कारणवश उन्हें औपनिवेशिक दासता से जल्द से जल्द मुक्ति आवश्यक महसूस होती थी। जिसे पाने के अभियान में सहयोगी की भूमिका में अपने को स्थापित करते हुए उन्होंने अपना समूचा लेखन अपने आलोचनात्मक विवेक को सक्रिय रखते हुए राष्ट्रीय आन्दोलन को समर्पित कर दिया। इसी कारण वह राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रतिबिम्ब होने का गौरव प्राप्त कर सका। समग्र इच्छा से भारतीय समाज की सामूहिक चेतना को पुरातन पंथी पिछड़ेपन, कूपमण्डूकता तथा अन्ध विश्वासों से मुक्त कराके आधुनिकता के रास्ते पर ले जाने का विशेष महत्व है। वे कहते हैं-‘‘जब जनता मूर्छित थी, तब उस पर धर्म और संस्कृति का मोह छाया हुआ था, ज्यों-ज्यों उसकी चेतना जागृत होती जाती है, वह देखने लगी है कि यह संस्कृति केवल लुटेरों की संस्कृति थी, राजा बनकर, विद्वान बनकर, जगत सेठ बनकर, जनता को लूटती थी। उसे आज अपने जीवन की रक्षा की ज्यादा चिंता है जो संस्कृति की रक्षा से कहीं ज्यादा आवश्यक है। (साम्प्रदायिकता और संस्कृति) इन सबका प्रगतिशील आन्दोलन से संलग्न रचनाकारों बुद्धिजीवियों के लिए विशेष महत्व है। आखिर प्रगतिशील आन्दोलन की चिन्ताएँ और सरोकार वही तो हैं जो प्रेमचन्द्र के थे। संयोग से जिसकी नितांत अर्थपूर्ण व्याख्या स्वयम् उन्होंने ही की:-
‘‘कविता में अगर जागृति पैदा करने की शक्ति नहीं है, तो वह बेजान है… प्रेमिकाओं के सामने बैठकर आँसू बहाने का यह ज़्ामाना नहीं है। इस व्यापार में हमने कई सदियाँ खो दीं, विरह का रोना रोते-रोेते हम कहीं के नहीं रहे। अब हमें ऐसे कवि चाहिए, जो हज़्ारत इकबाल की तरह हमारी मरी हुई हड्डियों में जान डालें।’’
अपनी पत्रिका ‘‘हंस’’ जारी करते हुए उन्होंने लिखा कि ‘‘हंस भी उन्हीं उद्देश्यों को पाने के लिए जारी किया गया है’’ और बहुत स्वाभाविक तरीके से हंस’’ प्रगतिशील आन्दोलन का मुख पत्र बन गया। उन्होंने ही कहा था-साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है… वह संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है…पिछले दो सौ सालों से क्या सचमुच साम्प्रदायिकता संस्कृति की आड़ में जनशत्रुता के अपने लक्ष्य को पाने के लिए बार-बार शर्मनाक प्रपंच नहीं रचती रही है और क्या आज वह संस्कृति की आड़ में मुनाफ़ा व लूटख़ोरों की महत्वपूर्ण सेवक नहीं बनी हुई है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर लूटखोर कारपोरेट जगत के लिए पाँवड़े कौन बिछा रहा है और कारपोरेट जगत आखि़र क्यों सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के छद्मनायक को महानायक बनाने के अभियान में जुटा हुआ है। स्त्री की पुरानी यातनाप्रद, अमानवीय लक्षणों से युक्त दासता का समर्थन करने वाला कोई व्यक्ति आज क्या अपने को शिक्षित, आधुनिक या संवेदनशील कह सकता है? वह कहे न कहे क्या लोग उसे इस रूप में स्वीकार कर सकते है, यदि नहीं तो उसे इस विविध रंगी समाज के साथ प्रेमचन्द्र का कृतज्ञ होना ही चाहिए क्योंकि पिछले कई सौ वर्षों के सांस्कृतिक इतिहास में वे एक ऐसे रचनाकार के रूप में सामने आते हैं जिसने स्त्री की यातनामयी दासता के प्रश्न को गहरी संवेदनशीलता तथा प्रखर दृष्टि सम्पन्नता से अपने लेखन की अन्तर्वस्तु में शामिल किया और कई यादगार रचनाएँ दीं। सम्पादकीय टिप्पणियाँ कीं, उŸोजक लेख लिखे, इसे याद रखा जाना चाहिए कि स्त्री सरोकार प्रगतिशील लेखक संघ तथा आन्दोलन के बुनियादी सरोकारों में प्रमुख रहा है। यह संयोग या सहसा घटित घटना नहीं है कि प्रगतिशील आन्दोलन की पूर्व पीठिका के रूप में पहचाना जाने वाला नवम्बर 1932 में प्रकाशित चार कहानीकारों का संयुक्त संग्रह ‘अंगारे’ कहानियों में स्त्री प्रश्न को प्रमुखता प्राप्त थी, कहानीकार थे-सज्जाद जहीर, अहमद अली, डाॅ. रशीद जहाँ तथा महमूदुज़्ज़फ़र। यह भी कोई संयोग नहीं है, कि भारत में प्रगतिशील लेखक संघ की पहली इकाई के गठन, प्रगतिशील लेखकों के प्रथम राष्ट्रीय अधिवेशन (1936) के आयोजन तथा प्रगतिशील आन्दोलन के विस्तार में इन कहानीकारों ने सक्रिय भूमिका निभाई, ख़तरे भी उठाए। स्त्री के प्रश्न, प्रगतिशील आन्दोलन की सैद्धांतिकी में अनिवार्य रूप से शामिल रहा है। वैसे ही जैसे प्रेमचन्द्र के लेखकीय सरोकारों में। कारणवश प्रगतिशील आन्दोलन अथवा सोच से जुड़े लोगों के लिए प्रेमचंद्र अत्यंत सम्मानीय रचनाकार हैं, उनकी इन विशिष्टताओं की निरन्तर चर्चा प्रगतिशील आन्दोलन की अनिवार्य ज़्ारूरत है।
इसी प्रकार हज़्ाारों वर्षों से दलितों पर होते आए अत्याचार, दमन तथा उनके प्रति अन्य प्रकार के अमानवीय व्यवहार से तीव्र असहमति, उसकी आलोचना, प्रतिकार तथा उनकी नितांत कारुणिक सामाजिक अवस्था में परिवर्तन के लिए सामाजिक आकांक्षा और संकल्प जगाना भी प्रगतिशील आन्दोलन की सैद्धंतिकी में शामिल रहा है। वर्गीय यथार्थ को और संघर्ष को महत्वपूर्ण मानते हुए जाति का प्रश्न भी निरन्तर महत्वपूर्ण बना रहा है। प्रगतिशील आन्दोलन से एकदम आरंभ से जुड़े रचनाकारों के रचना सरोकारों ही को देखिए, लन्दन में प्रलेस के संस्थापकों में प्रमुख मुल्क राज आनन्द के उपन्यास ‘‘अछूत’’ ही को लीजिए। यह एकदम आरम्भ की घटना है। डाॅ0 रशीद जहाँ, सज्जाद ज़्ाहीर, कृश्न चन्दर, इस्मत चुग़ताई की भी ऐसी कहानियाँ शुरुआती दौर की हैं।

साम्प्रदायिकता, जातिभेद, अमानवीय शोषण के लिए धार्मिक सिद्धान्तों के इस्तेमाल, अन्याय के पक्ष में गुंजाइश पैदा करने वाली पुरातन सोच पर आधारित सामाजिक व्यवस्था, नए जमाने की बदली हुई प्रवृŸिायों तथा लूट व मुनाफे की असंवेदनशील व्यवस्था प्रचलित करने वाली महाजनी सभ्यता के ख़तरों को समझते हुए पाठकों को उससे आगाह कर रहे थे तथा नई सामाजिक व्यवस्था के प्रबल पक्षधर के रूप में प्रस्तुत हो रहे थे तो इसका मतलब वे आने वाली पीढि़यों, विशेष रूप से प्रगतिशील, जनवादी, आधुनिक सोच के लोगों के लिए सीखने के विपुल अवसर प्रदान कर रहे थे। प्रगतिशील सोच आन्दोलन से सबद्ध रचनाकार, बुद्धिजीवी इसी रूप में उन्हें देखते हुए आदर देते हैं, ऐसी विभूति की निरन्तर चर्चा करना उनकी लेखकीय, वैचारिक व सामाजिक जि़्ाम्मेदारी है।
महाजनी सभ्यता ही में उन्होंने आगाह किया है कि नई सामाजिक व्यवस्था का महाजनी सभ्यता के गुर्गे हर संभव विरोध करेंगे, उसके बारे में भ्रान्तियाँ फैलाएँगे, अवाम को गुमराह करेंगे, उनकी आँखों में धूल झोंकेंगे, लेकिन जो हक है उसे आखिरकार एक न एक दिन फतह होगी और जरूर होगी। पाठक स्वयं तय करें ऐसे में प्रगतिशीलों को उन्हें अलग से समाजवादी, सामाजिक व्यवस्था का हिमायती व प्रचारक साबित करने के लिए कोशिश करने की क्या आवश्यकता, लेनिन के तोलस्ताय के बारे में कहे गए यह शब्द क्या प्रेम चन्द्र पर भी लागू नहीं होते। ‘गहराई से उद्वेलित सारा जन समुद्र अपने समी दुर्बल व सबल पक्षों के साथ उनकी रचनाओं से साकार हो उठा है’’।

प्रेमचन्द्र की सद्गति, दूध का दाम, ठाकुर का कुआँ, कफ़न इत्यादि कहानियाँ अपने कालजयी संवेदनात्मक आवेग और विषयगत ईमानदारी के कारण लगातार चर्चा में बनी ही रहेंगी। गोदान व रंगभूमि में बृहŸार सन्दर्भों में कथानक का हिस्सा बना यह प्रश्न हो या उनकी कहानियाँ ये सब लगभग प्रगतिशील आन्दोलन की शुरूआत से पहले की कृतियाँ हैं। बाद के वर्षों में हिन्दी व उर्दू में इस चिंता को गंभीर सरोकार के रूप में प्रतिपादित करने वाली अधिकांश कृतियाँ प्रगतिशील आन्दोलन से जुड़े रचनाकारों ही ने दी हैं। उदाहरण देना लेख को लम्बा करना होगा, प्रगतिशील-जनवादी रचनाकारों के लिए तथा प्रगतिशील आधुनिक सोच से परोक्ष रूप से प्रभावित कलमकारों के लिए प्रेमचन्द्र की हैसियत दिशा वाहक की है। वे रास्ता दिखाते हैं। यही कारण है अनेक प्रयासों के बावजूद उनकी कथा एवं चिन्तन परम्परा को केन्द्रीय हैसियत प्राप्त है, उसे अप्रासंगिक नहीं बनाया जा सका। इस तथ्य को समझिए कि उनके समय के समस्याग्रस्त, रूढि़ग्रस्त, विसंगतिपूर्ण, अन्याय व दमन को परिश्रय देने वाले समाज में बुनियादी परिवर्तनों को संभव नहीं किया जा सका। तब्दीलियाँ भीतरी से ज्यादा ऊपरी हैं। कल के प्रश्न आज भी मुँह बाये खड़े हैं। यथार्थ के प्रति नुकीली निर्ममता तथा दृष्टि सम्पन्नता का उदाहरण प्रस्तुत करने वाला आज विपुल मात्रा में जो दलित लेखन हो रहा है, क्या वह उसी परम्परा का विकास नहीं है। काल विशेष के उपरान्त प्रेमचन्द्र का सभी तरह का लेखन प्रगतिशील आन्दोलन का प्रतिबिम्ब बनते हुए, अवश्य ही वह राष्ट्रीय आन्दोलन का भी प्रतिबिम्ब था, दलितों, स्त्रियों, समाज के दूसरे दबे कुचले वर्गों, मेहनतकशों, एवं शोषित किसानों के पक्ष में क्या वातावरण नहीं बनाया। आखिर वह किसानों के एक मजबूत संगठन के आकांक्षी क्यों थे?
-शकील सिद्दीक़ी

मोबाइल: 09839123525

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किताब चर्चा उपन्यास-नूर जहीर
हार्परकोलिन्स, नई दिल्ली
पृष्ठ:286; मूल्य : रु. 199 (पेपरबैक)
सामाजिक संरचना के भीतर छिपा है स्त्री मुक्ति का सपना

कथा कृतियां यथार्थ के प्रति आग्रही होने के बावजूद कल्पना के सहारे की मोहताज रही हैं। खांटी वास्तविकताओं पर आधारित होने पर भी। उपन्यास मेे यह मोहताजी कहानी की अपेक्षा अधिक होती है। यथार्थ अथवा वास्तविकताओं को भी तोड़ना मरोड़ना पड़ता है, उन्हे संवारना बिगाड़ना पड़ता है कि बहुधा उन्हे जस का तस प्रस्तुत नही किया जा सकता। 2011 में प्रकाशित चर्चित लेखिका नूर ज़हीर का उपन्यास ‘अपना खुदा एक औरत’ की भी यही स्थिति है। हार्पर कालिन्ससे आया 286 पृष्ठीय यह उपन्यास दरअस्ल उनके अंगे्रजी उपन्यास ‘माई गाड
इज़ अ वूमन’ का उन्हीं के द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद है। प्रकट न किए जाने के बावजूद उपन्यास उनकी मां रजि़या सज्जाद ज़हीर के जीवन संघर्ष पर आधारित है, जिसका ख़ासा हिस्सा उनके पति यानी नूर के पिता तथा भारतीय सांस्कृतिक इतिहास के एक बड़े व्यक्तित्व सज्जाद ज़हीर के संघर्ष के साथ जुड़ा हुआ है। उपन्यास के लगभग सवा सौ पृष्ठ दिल्ली में मंच कलाओं का धंधा करने वाली अमृता गोविन्द उससे जुड़े कलाकारों के संघर्ष का विवरण लिए हुए है। इस ग्रुप से जुड़े होने का कारण यह संघर्ष रजि़या का भी है, जो उपन्यास में सफि़या के नाम से प्रस्तुत है। थोड़ा वृहत्तर रूप में देखिये तो यह संघर्ष सफि़या और अमृता से आगे जाते हुए भारतीय स्त्री के संघर्ष का विस्तार ग्रहण करता है। इस रूप मे वह मुखर रूप में इस त्रासदी को उभारता है कि गुलामी से आजा़दी की ओर आये एक देश में स्त्री की बेडि़यां वही हैं, उसकी वंचनाएं और यातना के अवसर उपक्रम भी वही हैं। संसद, न्यायालय, प्रशासन और धर्मगुरू सब उसके खि़लाफ़ एक पंक्ति में है। मुस्लिम स्त्री के लिए शरीअत अतिरिक्त विशिष्ट विपरीतता है। उपन्यास का नायक अब्बास जाफ़री, जो स्पष्ट ही कम्युनिस्ट भी है, इसमें समयानुरूप परिवर्तन का प्रबल समर्थक है। वह मानता है कि ईमान और कानून दो अलग वास्तविकताएं है। ‘अपना खुदा एक औरत’ का कालखण्ड बीसवीं सदी केवे साठ-सत्तर वर्ष हंै, जो घटना पूर्ण तो हैं ही, महत्वपूर्ण भी है, इन वर्षो में बड़ी तब्दीलियां घटित हुई, स्त्री मुक्ति के स्वप्न को ठोस वैचारिक-तार्किक आधार इसी अवधि में प्राप्त हुआ, न्याय के लिए वाजिब संघर्ष भी तेज हुए। यह अवधि है, चैथे दशक से शाह बानो केस का सर्वोच्च न्यायालय के फैसला आने तक यानी 1985-86 तक। इस फैसल ने भारतीय समाज और राजनीति में एक भूचाल सा पैदा कर दिया। शरीअत को लेकर सबसे ज्यादा प्रश्न भी तभी उठे। स्त्री के प्रति शरीअत यानी इस्लाम के रवैये को लेकर अनेक उत्तेजक बहसों ने जन्म लिया। हालत यह थी कि फैसले का विरोध करने वालें को इस्लाम व मुसलमान मुखालिफ़ मान लिया गया। उपन्यासकार ने उन क्षणों की भयावहता को पकड़ने का प्रयास किया है इस क्रम में कई चेहरों की तुच्छता स्वतः उघड़ आयी है-
‘फैसला आने में आधा घण्टा लगा। फैसला जिसने एक छिहत्तर साल की औरत को इजज़त से जीने और मरने का हक़ दिया। तक़रीबन उतना ही समय लगा, मुस्लिम दुनिया में कहर बरपा होने में वह क़हर जो सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते हुए पूछ रहा है था कि हम अपनी औरतां का भेड़ बकरियों की तरह क्यों न रखंे, तुम हमें कुछ कहने वाले कौन होते हो।’ (पृ. 246)
सफि़या इस फैसले के पक्ष में खड़ी होती है, अपनी बेटी सितारा के साथ। वही सफि़या जो लखनऊ के एक अति चर्चित व प्रतिष्ठित परिवार के आक्सफोर्ड रिटर्न सैयदजा़दे अब्बास जाफ़री यानी सज्जाद जहीर की पत्नी है। जो शरीअत में समयानुसार परिवर्तन का प्रबल पक्षधर है। स्त्री मुक्ति का गंभीर समर्थक है। सफि़या शाह बानो का साथ देने के लिए अकेली बीमारी की हालत में दिल्ली से इंदौर जाती है, जहां विषम परिस्थितियांे में उसकी मौत उसके जीवन व संघर्ष का पटाक्षेप करती है। इस तरह चैथे दशक में आरम्भ हुआ स्त्री अस्मिता और आजा़दी का संघर्ष नौवे दशक में दुखद स्थितियों का शिकार होता है। चैथे ही दशक के चैथे वर्ष में विवादास्पद कहानी संग्रह ‘अंगारे’ प्रकाशित हुआ, किसी भी भाषा में स्त्री सरोकारों की, जिसमें मुस्लिम स्त्री के सरोकार प्रमुख है, इतनी शिद्दत भरी अभिव्यक्ति पहली बार हुई थी, इस चैथे दशक में सफि़या का विवाह अब्बास जाफ़री के साथ हुआ और प्रगतिशील लेखक संघ का पहला व दूसरा राष्ट्रीय अधिवेशन भी। नूर ने इसी चर्चित कहानी संग्रह ‘अंगारे’ को लपटें नाम दिया है, इसके प्रकाशन वर्ष को बदलते हुए उन्होने उससे जुड़े अनेक पक्षों को कथा की ज़रूरत के अनुरूप इधर-उधर किया है। ज़्यादा चिंताजनक यह है कि उन्हांेने यह तथ्य प्रतिपादित करना चाहा है कि कम्युनिस्ट पार्टी ने ‘लपटंे’ लिखने तथा मुसलमानों की भावनाओं को ठेस पहंचाने के आरोप में अब्बास जाफ़री को पार्टी से निकाल दिया था। शाह बानो प्रकरण में भी वह तथ्य रोपती हैं कि सवोच्च न्यायालय के फैसले पर माक्र्सिस्ट पार्टी ने मौन साधे रखा या फैसले का विरोध किया। इसी तरह अमृता गोविन्द के कला संस्थान में बोनस की मांग को लेकर चले कलाकारों के आंदोलन में पार्टी नेताओं के चरित्र को नकारात्मक बताया है। निः संदेह पार्टी या पार्टी नेताओ को इन तमाम नकारात्मकताओं से पूरी तरह मुक्त नहीं माना जा सकता लेकिन यथार्थ को एकदम उलट देने को अवश्य ही कथा साहित्य में तथ्यों की वास्तविकता की पड़ताल गैर मुनासिब है, कुछ लोग इसे कथा विरोधी प्रवृति भी कह सकते है, फिर भी यदि कथानक ऐसे जीवन को लेकर बुना गया है, जिसके तथ्य या घटनाक्रम बहुत सार्वजनिक हों, तब ऐसे सवाल जरूर खड़े हो सकते है। क्योकि इससे धारणाएं बनती या बिगड़ती हैं।
‘लपटंे’ ही वह पुस्तक है जो नितांत धार्मिक परिपाटीवादी घराने की सफि़या के अब्बास जाफ़री से शादी का प्रमुख कारण बनी। अब्बास के बाल्दैन ऐसी बहू चाहते थे, जो धार्मिक हो और नास्तिक अब्बास को, भटके हुए अब्बास को सही रास्ते यानी मजहब के रास्ते पर ला सके। हुआ इसके विपरीत। सफि़या काफी हद तक अब्बास के रंग में रंगते हुए आधुनिक, तर्क में विश्वास करने वाली, रूढि़ भंजक महिला बन गयी। अपनी अस्मिता, आत्म निर्णय का अधिकार मुनष्य के रूप में सम्मानजनक जीवन की पूर्णता, आत्म निर्भरता जिसकी प्रमुख चिंताएं बनीं अब्बास हर कदम उसके साथ था। इन चिंताओं को लेकर उसका पहला टकराव अब्बास की वालिदा लेडी ज़ीनत बेगम से हुआ। धार्मिक रूढि़यों और सामंती संस्कारों में लिप्त उनकी हैसियत परिवार में तानाशाह की सी थी, अब्बास और साफि़या ने समवेत रूप में इस तानाशाही को चुनौती दी। यह चुनौती ही बाद में व्यक्त की गयी मजाज़ की इस इच्छा को पूरा करना था कि तेरेे माथे पर यह आंचल बहुत ही खूब है लेकिन तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था। इस तरह औरत से इंसान बनने की जदोजहद शुरू होती है। लेडी जी़नत से टकराव का मतलब है, पराजित मूल्यों, जड़संस्कारों तथा मज़हबी सत्ता से टकराव, कि लेडी जी़नत की इस सत्ता से गहरी साँठ-गाँठ है। इस टकराव की आरंभिक परिणति होती है। ऐतिहासिक शानदार कोठी से तथा सर्वेन्ट क्वार्टर्स में पनाह लेने में जिसे उपन्यास में सागर पेशा, (शागिर्द पेशा) कहा गया है। रशीद जहां की कहानी ‘सिफ़र’ इसी घटना पर आधारित है। संयोग से उपन्यास में रशीद जहां ज़ाहिदा के रूप में मौजूद हैं और सफि़या व अब्बास के संघर्ष में प्रति पल उनके साथ हैं, यही हाल कात्यायनजी के रूप् में राहुल सांकृत्यायन तथा इरफ़ान के रूप में मजाज़ का भी है।
उपन्यास में कई क्षण ऐसे आए हैं जहां नूर ज़हीर की साहसिकता अभिभूत करती है। इसे उर्दू की महिला कथारों द्वारा व्यक्त बोल्डनेस का अगला पड़ाव भी कह सकते हैं। हिन्दी महिला कथा लेखन में शब्दबद्ध हुई बोल्डनेस से यह थोड़ा अलग इस अर्थ में है कि इसके सरोकार वैचारिक भी हैं और ज़्यादा बड़े फ़लक पर घटित होती है। नकारात्मकताओं के साथ ही सही, अपने खानदान के वैभव का बखान नूर ने भी किया है लेकिन उन्होंने जिस बेबाकी से इस वैभव के स्याह पहलुओं और दमनकारी प्रवृत्ति को तार-तार किया है, वह वास्तव में विरल है। उपन्यास बताता है कि सज्जाद जहीद की प्रसिद्ध ‘दुलारी’ की दुलारी को, जो एक खरीदी हुई लौंडी है, गर्भवती करने वाला कोई और नहीं अब्बास जाफरी का बड़ा भाई ही था। राज़ खुलने पर कुछ रक़म देकर उसे घर से निकाल दिया जाता है। बाद में वह एक जगह मरी हुई पायी जाती । जैसे लेडी ज़ीनत के जस्टिस पति, अब्बास जाफ़री के पिता, सफि़या के ससुर सफ़दर जाफ़री तथा उनकी अंग्रेज प्रेमिका एक जंगल में बुरी तरह घायल अवस्था में पड़े मिलते हैं प्रेमिका तो जान से जाती है और जस्टिस अपाहिज होकर हमेशा के लिए बिस्तरसे लग जाते हैं। कि इस तरह लेडी ज़ीनत का परिवार में एक छत्र साम्राज्य का सपना पूरा हुआ। वह नहीं चाहती थी कि जस्टिस साहब अकूत सम्पत्ति का कोई और हिस्सेदार भी हो और यह कि सैयर ज़ादे पति की संतान किसी फिरंगिन के गर्भ से हो। वह यह भी नहीं चाहतीं कि उनके अधर्मी नस्तिक पुत्र अब्बास जाफरी को जिसके खि़लाफ लखनऊ के शाही इमाम ने सामाजिक बहिष्कार का फ़तवा सादिर किया है, इस जायदद से एक लखौरी या कौड़ी भी दी जाय, अब्बास और सफि़या जिस जायदाद को ठोकर मारने का फैसला पहले से किये हुए हंै। इन क्षणों में लेखिका को पितृ सत्तात्मकता की वर्चस्व वादी मानसिकता के नंगेपन को बेबाकी से उधाड़ पाने का कौशल हासिल है। उन क्षणों में भी जब अब्बास जाफ़री जेल में है और सफि़या पहले प्रसव के लिए अस्पताल में। जिस दिन उसे अस्पताल से छुट्टी मिलती है, उसी दिन सागर पेशे यानी सर्वेन्ट कार्टर में ताला डाल दिया जाता है ताकि सफि़या समझ लें कि प्रतिष्ठित परिवार की विशाल कोठी के दरवाजे उसके लिए हमेशा के लिए बन्द हो गये हैं। यहां तक कि सर्वेनट क्र्वाटर के भी। सफि़या खुले मैदान में पेड़ के साथ में अपनी पहली संतान को, जो एक बेटी है, दूध पिलाती है। यह बेटी ही ‘सितारा’ है, सितारा जो भटके हुए पथिकों का सहारा होता है जो कल मां बनेगी और अगली पीढि़यों की जन्म दात्री जो होगी। योद्धा कल के संघर्षों की-यह जानते हुए, ‘कोई लड़ाई अकेले नहीं लड़ी जाती, कोई जीत भी तन्हा हासिल नहीं होती। वह युद्ध का परचम चाहे न फहराये, युद्ध होगा तो उसी की वजह से। वह लौ न सही, लेकिन वह शान्त ठहरा हुआ तेल होगी, जो ख़ामोशी से तरक़्क़ी की लो को जलाये रखेगी। उसी की वजह से लौ जिन्दा रहेगी, भभककर बुझ नहीं जायेगी। वह जो बार-बार जन्म लेगी, क्योंकि धरती की गुज़र, बगैर जगत्धात्री के नहीं हो सकती, वह हस्ती जो अंधेरे जज़्ब करके, असाधारण, सर्व शक्तिमान, सर्वव्यापी। अगर कोई खु़दा है और वही जि़म्मेदार है, क़ुदरत की मुतवातिर रफ़्तार का, तो वह ख़ुदा औरत के सिवा कौन हो सकता है।’
यह शब्द सफि़या के लिए कहे गये हांे या सितारा के लिए इससे क्या अन्तर पड़ता है। चिंतन की यह धार स्त्री मात्र के लिए है।
आलीशान सफ़दर मंजिल छोड़ते हुए सफि़या सोचती है।
‘वह पलट कर उन बेडि़यों को दोबारा तो नहीं पहन सकती, जिन्हें उसने नकार दिया था, क्या कभी वह दिन आयेगा जब शरीअत दोबारा लिखी जायेगी, कभी उसमें औरत की भी आवाज़ शामिल होगी? कब खु़दा यह फैसला करेगा कि वह पुरुषों द्वारा शोषित नहीं होना चाहता? कब किसी मज़हब में कोई औरत पैग़म्बर होगी?
यहां यह विचार करने की आवश्यता है कि स्त्री के पैग़म्बर बन जाने से अथवा स्त्री प्रभुत्व वाले किसी धर्म के आ जाने से क्या सचमुच स्त्री मुक्ति का सपना साकार हो सकेगा। सामाजिक संरचना में बुनियादी परिवर्तन तथा सम्पत्ति के स्वामित्व की वर्तमान व्यवस्था के रहते और पुरुष की मानसिकता को बदले बिना स्त्री की सामाजिक अवस्था में बड़े ही परिवर्तन संभव नहीं है? आखिर बंगाल में मां दुर्गा की, कुछ दूसरी देवियांे की आराधना भी व्यापकता में होती है। बावजूद इसके पितृ सत्ता की सघनता वहां कई अंचलों की अपेक्षा अधिक जटिल है।
स्त्री पहले पराधीन हुई या धर्म की उत्पत्ति ने उसे पराधीन किया, बहस तलब है, जिसकी यहां गुंजाइश नहीं।
शाह बानो प्रकरण को कथा तत्व बनाते हुए आखि़र लेखिका ये कह ही गयीं कि
‘शाह बानो की लड़ाई आर्थिक न्याय की लड़ाई है।’
आर्थिक न्याय की लड़ाई को संभव करने तथा मुक्ति का पूरा चांद पाने के लिए आधुनिक शिक्षा को ज़रूरी माना गया, उत्तर भारत संयुक्त प्रांत में रशीदजहां के पिता शेख़ अब्दुल्लाह अलीगढ़ की कोशिशों के बाद लखनऊ में मौलवी और जस्टिस करामत हुसैन द्वारा स्त्री शिक्षा के पक्ष मंे किए गये प्रयासों का विशिष्ट महत्व है। उपन्यास ऐसे विवरणों से सामाजिक विकास के इतिहास का गवाह भी बना है। लेडी ज़ीनत के प्रबल विरोध के बावजूद सफि़या इस कालेज में नौकरी करती है और आर्थिक आत्मनिर्भरता का संतोष पाती है। धर्म गुरू आधुनिक शिक्षा के इस अभियान के खि़लाफ़ हैं, लेकिन न तो मुज्तबा हुसैन यानी करामत हुसैन हार मानते हैं और न सफि़या। लखनऊ के बड़े आभूषण व्यवसायी झुनझुन जी के साथ समाज में शिक्षा अभियान के समर्थक बढ़ते जाते हैं।
‘तो इस तरह, दो दोस्तों, एक उस्तानी जी जो मुज्तबा साहब के रिश्ते की बहन थीं और प्राथमिक गणित और क़ुरआन पढ़ाती थी, एक अंग्रेजी और सांइस की टीचर, एक ड्राइवर,नेक इरादों और बग़ैर ताम झाम के आठ मुसलमान औरदो हिन्दू लड़कियों के साथ साजिदा हुसैन मुस्लिम गल्र्स कालेज खुला। हफ्ते में छह दिन हरे पर्दे वाली भूरी बस, रबड़ भोंपू बजाते ड्राईवर रशीद की निगहबाजी में, नौ बजे की एसेम्बली से पहले पहुंचने की होड़ में लखनऊ में से खड़खड़ाती धूल उड़ाती गुज़रती।’
कालेज और सफि़या के बीच रिश्तों को लेकर रोचक अप्रिय प्रसंग आते हैं, रूढि़वाद का विस्फोट भी। इस प्रक्रिया में आगे बढ़ने से कतराते एक समाज के कई त्रासद बिम्ब भी उभरते हैं। जिसकी चरम परिणति सफि़या को नौकरी से निकाल देने के रूप में हेाती है। इस बीच देश अंग्रेज़ों की गुलामी से आज़ाद हो चुका था। सफि़या एक जम्हूरी देश में नौकरी से निकाली गयी क्योंकि लखनऊ के शाही इमाम ने उसके पति के खि़लाफ़ सामाजिक बहिष्कार का फ़तवा जारी कर रखा था।
ग़ुलामी से आज़ादी की ओर आये देश में समाज कितना मुक्तत हो पाय था। स्त्री के बंधन तो वही थे। धर्म अब भी सामाजिक विकास के पथ की बड़ी बाधा बना हुआ था। अंग्रेज चले गये थे लेकिन पुरूष का आधिपत्य क़ायम था। नूर ज़हीर के शब्दों में कहें तो मुसलमान मर्दों के लिए संभोग अब भ्ीा सबसे सृजनात्मक काम था- सफ़दर मंजिल और मुज्तबा कालेज से निकाली गयी सफिया गोद में नवजात शिशु लिए भविष्य के निश्चय को निहार रही थी, उम्मीद की किसी किरण की तलाश में। पाली के विद्वान, यायावर, अब्बास, जाफ़री के मित्र कात्यायनजी उसे राह दिखाते हैं।
उनका पत्र लेकर वह दिल्ली गन्धर्व संस्था की मालकिन अमृता गोबिन्द राम से मिलती है। नृत्य व अभिनय कला का धंधा करने वाली इस संस्था में वह एक नये जीवन की ओर बढ़ती है पौरूषी आधिपत्य पूंजी की चमक और कलाकारों के शोषण का नया अनुभव जन्य अध्याय उसके सामने खुलता है। पुरूष आधिपत्य के अधिक भयावह तुच्छ दृश्य उसके सामने आते हैं।
सफि़या के कानों में कोई जैसे कह रहा था- ‘जिस दिन तुम स्वीाकर कर लोगी कि भाग्य, कि़स्मत जैसा कुछ नहीं है, तुम अपनी जिन्दगी बदलना शुरू करोगी’ बदलती हुई सफि़या ज़़्यादा बदल जाती है। स्त्री बाहरी दबावों से अपनी चेतना और इच्छा से बदलती है, हालात भी बदलते हैं उसे समानता सम्पूर्ण मुक्ति का शिखर उसे न तो धार्मिक क़ानूनों से मिलने वाला है, न संविधान के संरक्षण से। वह मिलेगा उसे नई सामाजिक संरचना और मुक्ति की विवेकपूर्ण वैज्ञानिक समानता से।
अतीत से जड़ चिन्तन से मुठभेड़ करता यह उपन्यास भविष्य के लिए एक सुन्दर सपना रचता है, और यह हक़ीक़त है कि दुनिया को सर्वाधिक सुन्दरता तथा सुन्दर सपने स्त्री ही ने दिए हैं।
यथार्थ कथ्य की शक्ति होती हैतो विचारधारा सज्जा तथा कल्पना सौन्दर्य। इस पूर्णता को पाते हुए रचना जहां संघर्ष से जुड़ती है, वहीं मक़ाम है अपना ख़ुदा एक औरत।

-शकील सिद्दीक़ी

mo- 09839123525

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एक ओर रोज़गार तथा व्यावसायिक शिक्षा के अवसरों का बड़े नगरों तक केन्द्रित होते जाना, विपुल सम्पदा तथा आधुनिकता की चकाचैंध का बढ़ना, दूसरी ओर सामाजिक पिछड़पन, शिक्षा व रोज़गार के अवसरों का सीमित होना, आधुनिकता के अवदानों की वंचना। फलस्वरूप ग्रामीण अंचलों, छोटे शहरों तथा अन्य पिछड़े क्षेत्रों से युवा वर्ग तथा दूसरे आयुवर्ग के लोगों का बड़े नगरों की ओर पलायन। ऐसे में युवाओं पर जीवन शैली को बदलने का दबाव बनना लाज़मी है। खुली हवा में साँस लेने के लिये बेचैन बेटियाँ जबरन थोपी गयी वर्जनाएं तोड़ती हैं, अपनी साहसिकता में कुछ ख़तरे भी उठाती हैं। मुक्ति के चिन्तन के साथ आगे बढ़ना है तो ख़तरे उठाना ही होंगे, मुक्तिबोध को याद कीजिये-
तोड़ने होंगे गढ़ और मठ सब
जाना होगा दुर्गम पहाड़ो के उस पार
यही वह मक़ाम है जहाँ बदलती सोच और जीवन पद्धति तथा जड़ संस्कारों के साथ होने वाले टकराव से पैदा हुए अन्तर्विरोध सामने आते है। रिश्तों की स्वाभाविकता तथा पवित्रता पर सन्देह करने वाले मुखर होते हैं। इस स्वाभाविकता व पवित्रता पर छापा मारने के लिये वह व्याकुल हो उठते हैं।
जि़म्मेदार व सभ्य नागरिक का विवेक व संस्कार न दे सकने वाला शिक्षा तंत्र तथा परिवार संस्था की कमज़ोरी के कारण भी हालात बिगड़े हैं। नशे के ख़तरों को जानते हुए भी सरकारों द्वारा शराब की सुलभता को नित नया विस्तार देने की नीतियों ने भी सामाजिक अराजकता को नयी उठान दी है। यह उपनिवेशवादी प्रवृत्ति है, जो संकेत करती है कि सरकारें जानता को अपना उपनिवेश बना कर रखना चाहती है। आर्थिक लाभ तथा युवा पीढ़ी में संघर्षशीलता की धार को कुन्द करने की मंशा से शराब माफि़याओं से सरकारों की साँठ-गाँठ किसी से छिपी नहीं है। जनविरोधी सत्ताएँ हमेशा ही से अपने विरुद्ध प्रतिरोध की संभावना को कुन्द करने के लिये नशाखोरी का इस्तेमाल करती आयी हैं। समूचे शिक्षा तंत्र, आबकारी नीति, की क़ानून, पुलिस व्यवस्था तथा न्याय प्रणाली की सघन समीक्षा के साथ समानुपातिक सामाजिक विकास को सिद्धान्त लागू किए बिना हालात में अपेक्षित तब्दीली संभव नहीं है। स्त्री के सम्मान को, उसकी प्रगति की समस्त संभावनाओं को सुनिश्चित कर सकने वाले सांस्कृतिक दृष्टिकोण की भी उतनी ही ज़रूरत है। उल्लेखनीय है कि सरकारें अपने कार्यक्रमों में सजी-धजी महिलाओं को सज्जा की वस्तु के रूप में प्रस्तुत करती हैं। ऐसी सुन्दरियाँ उन्हें सम्मोहित करती हैं, जिनके अधरों पर मादक मुस्कान हो, शब्द नहीं, चेहरे पर मृदुलता हो तनाव नहीं। आंखों में चमक हो, प्रश्न नहीं।
इसे बाज़ार वादी दृष्टिकोण ही कहा जायेगा। रोजे़ रौशन की तरह यह सब पर अयाँ (प्रकट) है कि आक्रामक होते बाज़ार तथा बाज़ारवादी दृष्टिकोण ने स्त्री का संकट बढ़ाया है। उसे माल बेचने का साधन, कई बार तो स्वयं उसे माल बना दिया। उपभोक्ता को ललचाने के उपक्रम मे वो स्वयं उपभोक्ता सामग्री में बदलते हुए यौन वस्तु बन गयी है। सभी तरह के विज्ञापनों के स्त्री विरोधी चरित्र पर फ़ौरी तौर पर अंकुश लगाने की आवश्यकता तो है ही।
विज्ञापनदाताओं को आकर्षित करने के उद्देश्य से टी0वी0 सीरीयल्स बनाने वालों ने बाज़ारवादी शक्तियों से धृणित समझौते किए हैं। जिस प्रकार भारतीय सिनेमा ने स्त्री के साथ विराटता ग्रहण करता आघातक़ारी विश्वासघात किया ठीक उसी तरह चैनल्स भी आमतौर पर स्त्री को अवमूल्यित करने के षड्यन्त्रों का हिस्सा बने हुए हैं। इन सीरियल्स में स्त्रियाँ या तो एक दूसरे के विरुद्ध षड्यन्त्र कर रही होती हैं अथवा अपना गर्भ किराये पर उठा रही होती है। उनकी दिलचस्पी प्रायः ग़ैर वैवाहिक, इतर पति सम्बन्धांे में होती है, धार्मिक परम्पराओं, आरोपित सामाजिक मूल्यों को बचाने या फिर स्त्री की रुढि़वादी छवि को सुरक्षित रखने में। चैनल्स ने फि़ल्मों के समान ही धार्मिक अन्ध विश्वास कर्मकाण्ड तथा रुढि़वाद के महिमामण्डन से स्त्री की कठिनाई को जटिल बनाया है। उसकी सामाजिक गतिविधि को बाधित किया है तथा उसके भीतर विकसित हो सकने वाले आत्म विश्वास को पीछे की ओर धकियाया है। सिनेमा में तो तब भी एक ख़ास दौर में सही सामाजिक उद्देश्य को ख़ास महत्व प्राप्त रहा है। यर्थाथवादी सिनेमा तथा समान्तर सिनेमा की भी एक धारा रही है। स्त्री संघर्षशीलता अपनी वास्तविक ज़मीन खोजती हुई चित्रित हुई है। कुछ फि़ल्मों में तो अन्याय व अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष में वो नेतृत्व कारी भूमिका में है। इन संघर्षों के सरोकार वृहत्तरता लिए हुए है। आज के सिनेमा तथा चैनल्स ने तो जैसे स्त्री की इस संघर्षशीलता का दाह संस्कार ही कर दिया। आज के सिनेमा (सब नहीं), सीरियल्स तथा विज्ञापनों के लिये स्त्री केवल देह रह गयी है। देह जिस पर हाथ फेरने मात्र से काला आदमी गोरा और मोटा आदमी स्मार्ट हो जाता है।
16 दिसम्बर को घटित घटना के विरुद्ध बेटियों का अप्रत्याशित रूप से बड़ी संख्या में प्रतिरोध के मैदान में उतरना, उनकी जीवटता, दृढ़ता तथा ख़तरे उठाने के हौसले ने मैथिलीशरण गुप्त के ‘मर्दानी’ को झुठलाते हुए साबित किया है कि वे लड़ीं इसलिये कि वह लड़कियाँ थीं। स्त्री थीं, वह लड़ी मर्दों या मर्दानों की अपेक्षा अधिक जुझारू तरीके़ से। यक़ीनन बेटे भी लड़े, भाई भी लड़े मज़बूती से लड़े लेकिन संवेदनहीनता की सीमाएँ लाँघ जाने वाली सरकार को झुका सकने वाली धार संघर्ष को बेटियों के कारण ही प्राप्त हुई।
भारतीय समाज की ऐतिहासिक उपलब्धि को अपेक्षित परिणामों तक पहुँचाने के लिये आवश्यक है कि बेटियाँ-बेटे, बहनें भाई सब यह समझें कि समानता के सिद्धान्त पर आधारित यौन हिंसा विरोधी सामाजिक चेतना को व्याप्तता में विकसित किए बिना यादगार संघर्ष के लक्ष्य केा प्राप्त कर पाना कठिन है। इसके लिये सघन सामाजिक विमर्श तथा व्यापक संवाद बनाना ही होगा। जिसकी शुरुआत यक़ीनन परिवार ही से करनी होगी।
ऐसी प्रत्येक घटना को तत्ववादी शक्तियाँ सामाजिक नैतिकता के आधार पर अपनी स्थिति मज़बूती करने के लिये इस्तेमाल करती आयी हैं धर्म गुरुओं की स्त्री विरोधी सोच ने उसके अवसाद को अधिक दंश कारी बनाया है। सह शिक्षा लिबास, सामाजिक सक्रियता तथा आज़ादाना विचरण हमेशा उनके निशाने पर रहे हैं। वह भूल जाते हैं कि बलात्कार तथा दूसरे प्रकार की यौन हिंसा के पीछे स्त्री पुरुष यानी कि लड़के लड़कियों के बीच एक मोटी दीवार का, घने अजनबी पन और सान्निध्य का कुण्ठाजनक अभाव प्रमुख रूप से उपस्थित है। यौन उत्तेजना को गति देने वाले वातावरण ने लड़के-लड़कियों को एक दूसरे के निकट आने की ललक को बढ़ाया है। बावजूद इसके बलात्कार के लिये इस ललक केा कारण मानना तथ्य संगत नहीं है। बलात्कार से इतर यौन हिंसा की दूसरी गतिविधियों में इस ललक की उपस्थिति संभव हो सकती है। सच पूछिये तो सह शिक्षा ने हालात को भयावह हद तक जाने से बचाया है, अनुभव बताते हैं कि सह शिक्षा की व्याप्तता हालात को बेहतर बनायेगी बिगाड़ेगी नहीं। समाज के आधुनिक विकास के लिये स्त्री का घर से बाहर निकलना नितान्त आवश्यक है, स्वयं उसके सुख के लिये आत्मनिर्भरता बेहतर स्थिति हो सकती है। धर्मों-मजहबांे से स्त्री के सेविका स्वरूप को आदर्श स्त्री का चिंतन लेने वाले उसकी आज़ादी, आत्मनिर्भरता, सामाजिक भागीदारी को कैसे स्वीकार कर सकते हैं।
समाज के आधुनिक विकास को अवरूद्ध करना आत्मघाती साबित होगा। आधुनिकता के इस महा अभियान में सबकी साझी भूमिका है फिर भी लड़कियों की तरक़्क़ी बताती है कि समाज सभ्यता तथा आधुनिकता के किस मुहाने तक पहुँच पाया है। मध्य युगीन जीवन मूल्यों से हम कितना मुक्त हो पाये हैं।
जिस समाज में औरतों को खुली हवा में साँस लेने, खिलखिलाने, चीख़ने, ज्ञान के नये क्षेत्रों में जाने, आत्मनिर्भर होने तथा अपनी प्रतिभा के जौहर दिखाने अपनी अस्मिता के संघर्ष पर पाबन्दी हो, वह समाज नहीं क़ैद ख़ाना है। ऐसे कै़दख़ाने की सलाख़ों का टूटना ही बेहतर है।

– शकील सिद्दीक़ी
लोकसंघर्ष पत्रिका में शीघ्र प्रकाश्य

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मंजू अरुण की एक कविता की पंक्तियाँ हैं-

‘‘बेटियाँ
यदि ताड़ की तरह बढ़ती हैं तो,
छतनार की तरह फैलती भी हैं।’’

और सच आज वह फैल गयी हैं, चारों तरफ़, मुट्ठी भींचे सीना ताने। क्षोभ, क्रोध, आवेश और आहत भाव से कुछ पश्चाताप से भी कि वह बचा नहीं पायीं दरिन्दगों की दरिंदगी की निशाना बनी अपनी एक साथी को। फिर भी एक, थोड़ा झीना ही सही एक आश्वस्त भाव है उनके पास कि वह सत्ता के मद से डूबे लोकतांत्रिक तानाशाहों को कुछ तो झुका पायीं, जो कह रहे थे, सरकारें जनता के पास नहीं जाया करतीं, वह जनता की बेटी का शव लेने एयरपोर्ट तक पहुँच गये, शमशान घाट भी। अब वह जनता के पास जाने के अवसर की तलाश में है। जनता जब सरकार के द्वार पर जम की गयी, तब वह थोड़ा विचलित हुए। जनता यदि सरकार चुनती है, तो उसे उखाड़ भी फेंकती है। हालाॅकि सरकारंे तो सिर्फ़ चुनने का अधिकार देना चाहती हैं। जैसे पुरुष (अधिकांश) अपनी वासनाओं की तुष्टि, स्वादिष्ट भोजन, ढेर सारे सुखों, अपनी नस्ल चलाने तथा स्त्री को स्त्री बने रहने के लिये विवाह करता है, उसे एक घर देता है। पुरुष ज़्यादातर उस स्त्री को बहुत पसन्द करता है जो घर में रहे। उसी तरह जैसे सरकारें घर में रहने वाली जनता को बहुत पसन्द करती हैं। जनता को घर में रखने के लिये ही तो उसने इतने सारे मादक टी0वी0 चैनल्स दिए हैं, नेट का रोमांच दिया है। स्त्री जो जनता ही का हिस्सा है, कात्यायनी की एक कविता के अनुसार ‘‘यह स्त्री सब कुछ जानती है/पिंजरे के बारे में/जाल के बारे में/यंत्रणा गृहों के बारे में।’’ इसलिये कभी-कभी ही सही वह निकलती हैं घरों से बाहर। इस बार बेटियों के साथ बेटे भी थे। बहुत से लोग इस कारण चिंतित हैं कि बेटियाँ स्कर्ट और जींस में बाल लहराते हुए निकलीं। उन्होंने दुपट्टे तक नहीं ओढ़ रखे थे। वह दिन में मोमबत्तियाँ जलाती हैं, रात में डिस्को जाती हैं। हिंसा के विरुद्ध सड़कों पर निकलती बेटियों के प्रति यह शब्द कम वीभत्स हिंसा नहीं है। इसमें अवमानना का दंश भी है। जिसकी चुभन आज भी जारी है।
देश की राजधानी में क्रूर हिंसा की इतनी बड़ी घटना घट गयी हो और सरकार के अधीन काम करने वाला प्रशासन जि़म्मेदार मंत्री इस तरह का व्यवहार करें जैसे दरिन्दों ने पाश्विकता की सीमाएँ न तोड़ी हों, जुम्मन मियाँ की बकरी मर गयी हो। संवेदनशीलता का ऐसा भयानक ह्रास कम देखने में आया है। साम्प्रदायिक या जातीय दंगों के दौरान तो यह होता है कि एक वर्ग दूसरे वर्ग के संहार, स्त्री के साथ बलात्कार पर चुप रहता है, या प्रसन्न होता है, दुखी कम लोग होते हैं। गर्भवती स्त्री का पेट फाड़कर भू्रण को आग में फेंकने, बलात्कार की फोटोग्राफ़ी की घटनाएँ उसी गुजरात में घटी जहाँ शान्ति और अहिंसा का बखान सबसे अधिक होता है। जो राष्ट्र पिता की जन्मभूमि है। जहाँ आसाराम बापू का आश्रम भी है। समझना होगा कि स्त्री के साथ हिंसा के विरुद्ध कट्टर कि़स्म के निर्पेक्ष दृष्टिकोण की आवश्यकता है। निर्पेक्षता का तात्पर्य चुप रहना नहीं, धर्म जाति और वर्ग के भेद से मुक्त होना है। परन्तु ऐसे अवसरों पर प्रायः सघन मौन ही प्रकट सच के रूप में सामने आया। समानता के सिद्धान्त पर विश्वास करने वाले व्यक्तियों एवम् संगठनों ने अवश्य प्रतिरोध दर्ज कराया, आन्दोलन किए। बलात्कारियों के प्रति सम्मति का भाव रखने वाले नरेन्द्र मोदी तो युवा हृदय सम्राट कहे जाने लगे। दिल्ली की घटना पर विराटता, विशेष रूप से युवजन में आक्रोश का फूट पड़ना एकदम स्वाभाविक है,वह लम्बे समय में शनैः शनैः संचित कथा का विस्फोट था। निश्चय ही वह बलात्कार व स्त्री के प्रति हिंसा की जघन्यतम् घटना थी तो क्या कम जघन्य घटनाओं पर मौन और बलात्कारियों के साथ सहानुभूति को उचित मान लिया जाये। आखि़र एक राजनैतिक दल के रूप में भारतीय जनता पार्टी के सम्बन्ध में बलात्कार की समस्या को लेकर बलात्कार विरोधियों का क्या रवैया होना चाहिये। यह विचारणीय विषय है। स्वयं कांग्रेस की सरकारों के समय में विभिन्न क्षेत्रों में आदिवासियों, दलित और मुस्लिम महिलाओं के साथ क्रूर बलात्कार हुए। भारत-पाकिस्तान सहित कुछ दूसरे देशांे में धर्म व नस्ल की आड़ में किए गये बलात्कार की घटनाओं के विरुद्ध महत्वपूर्ण लेखन दिखाई पड़ा। सआदत हसन मन्टो की कहानी खोल दो पिछले साठ वर्षों से लगातार चर्चा में है। हमारे देश में भी गुजरात की घटनाओं को लेकर तीखा बौद्धिक हस्तक्षेप हुआ है। धर्म निरपेक्ष व्यक्तियों-संगठनें ने ऐतिहासिक महत्व का काम किया है। प्रश्न बस इतना है, कि ऐसे व्यक्तियों या संगठनों की सामाजिक स्वीकृति का अनुपात क्या है? क्या वह पाकिस्तानी समाज में मन्टो की लोकप्रियता जैसा है।
कड़े क़ानूनों, कड़े दण्ड तथा उतनी ही कड़ाई से उन्हें लागू किए जाने की त्वरित अनिवार्यता से कौन इंकार कर सकता है, फिर भी स्त्री के साथ हिंसा, विशेष रूप से बलात्कार के प्रति घनी सामाजिक चेतना के फ़ौरी निर्माण की भी उतनी ही ज़रूरत है। इसके साथ ही समानता की चेतना जिसमें लैंगिक समानता भी शामिल है, अनिवार्य सिद्धान्त के रूप जीवन में सक्रियता आवश्यक है। वरना वर्गो, धर्मों, जातियों और सम्प्रदायों में विभाजित समाज में स्त्री के साथ हिंसा के ख़तरे हमेशा बने रहते हैं, बल्कि बने हुए है। समानता की प्रखर सामाजिक चेतना के अभाव मंे उनके प्रति उसी अनुपात में सम्मति का भाव भी बना रहता है। प्रतिशोध की आग बुझाने का वह आसान सा साधन जो बनी हुई है। अपराध रोकने में क़ानून तथा त्वरित कार्यवाही की उपयोगिता अपनी जगह लेकिन अपराध की संभावनाओं को कम करने के लिये अपराध विरोधी सामाजिक वातावरण का निर्माण भी लाज़मी है। क़ानूनों से अपराधियों को या अपराध करने की मंशा रखने वालों को हतोत्साहित तो किया जा सकता है, स्त्री के प्रति पुरुष की पारम्परिक सोच को नहीं बदला जा सकता। 16 जनवरी के उपरान्त लगातार घटती बलात्कार की घटनाएँ जिसका साक्षात उदाहरण है, पुलिस, न्याय व्यवस्था तथा प्रशासन में उनके प्रति अपेक्षित संवेदनशीलता का संचार भी संभव नहीं। पितृ सत्ता ने अपने साम्राज्य की लम्बी अवधि में पुरुष मानसिकता को फ़ासीवादी सोच के क़रीब ला खड़ा किया है। जिसके सामंतवादी वैचारिकता से गहरे रिश्ते हैं।
समाज की केन्द्रीय सोच और अपराध के अन्र्तसम्बन्धों को समझना कठिन नहीं है। यह स्थिति गम्भीर सांस्कृतिक संकट की ओर भी संकेत करती है। भारतीय गतिविधियों में बदलती हुई प्राथमिकताओं के अनुरूप स्पेस स्वीकार कर सकने वाले सांस्कृतिक विवेक का निर्माण नहीं हो सका है। बावजूद इसके उनकी सामाजिक सक्रियता को नया विस्तार मिला है। बहुत से लोग, जिनमें सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के अलमबरदार भी हैं तथा राजनेता और वैज्ञानिक भी कि बेटियों की बढ़ती सामाजिक भागीदारी को ही उनके प्रति जघन्य होती हिंसा का मूल कारण घोषित कर रहे हैं, ऐसे में वेशभूषा का उल्लेख तो आता ही है। कुछ पुरातन पंथी सहशिक्षा के सर इन हालात का दोष मढ़ रहे हैं। यह भूलते हुए कि हमारे समाज को ज़्यादा ख़राब होने से सह शिक्षा ने ही बचाया है। वह इस हक़ीक़त की ओर से आँखें मून्द लेते हैं कि देश में बलात्कार सहित दूसरी यौन हिंसा की घटनाएँ पारपम्परिक या घरेलू वेशभूषा वाली महिलाओं के साथ अधिक घटित होती हैं। ख़ौफ़नाक आँकड़ों का सच यह है कि सड़कों, पार्कों, सिनेमा हालों, रेस्ट्रां, माल्स या इस प्रकार के दूसरे सार्वजनिक स्थलों की अपेक्षा यौन हिंसा की घटनायें घरांे, खेतों, खलिहानों, नारी व बाल आश्रमों में अधिक सुनाई पड़ती है। सम्बन्धी, पड़ोसी तथा निकट परिचित लड़कियों का यौन उत्पीड़न करने में सबसे आगे हैं। रोली शिव हरे ने अपनी एक टिप्पणी में मध्य प्रदेश के आंकड़े दिए हैं कि मात्र एक वर्ष (2011) में बलात्कार के चैंतीस हज़ार मामले दर्ज हुए, पति द्वारा की गयी हिंसा के तक़रीबन सैंतीस हज़ार मामले सामने आये। समूचे देश के स्तर पर इस प्रकार कि हिंसक घटनाएँ कितने बड़े पैमाने पर घटित होगी, अनुमान लगा पाना कठिन नहीं है। जबकि प्रत्येक तीसरे मिनट पर बलात्कार होता हो।
अपराध के समूचे यथार्थ पर फि़लहाल बात न करें तो भी स्त्री के प्रति बढ़ते हुए अपराध की पृष्ठभूमि में सक्रिय सामाजिक विकास की असमानता बढ़ने वाली, असमानुपातिक पद्धति से पैदा हुई नक़ली चकाचैंध, विसंगतियों और कुण्ठा की भूमिका पर ध्यान दिए बिना अपने समय के सच की आँखांे में आँखें डाल पाना कठिन है। यह सहसा अथवा फि़ल्मों या टी0वी0 सीरियल्स का प्रभाव मात्र नहीं है कि हिंसा और अपराध हमारे समाज की स्थाई प्रवृत्ति बनती जा रही है। इसे आर्थिक विकास, शासन पद्धति, सामाजिक संगठनों, सभी प्रकार की धार्मिक नैतिकता तथा अध्यात्म की ऐतिहासिक विफ़लता के रूप में देखा जाना चाहिये। अनिवार्य मानवीय मूल्यों, न्यूनतम सांस्कृतिक प्रतिमानों तथा सामाजिक संहिता की भी अवसाद पूर्ण पराजय यहाँ दिखाई पड़ती है।

-शकील सिद्दीक़ी
क्रमश:

लोकसंघर्ष पत्रिका में शीघ्र प्रकाश्य

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