Feeds:
पोस्ट
टिप्पणियाँ

Posts Tagged ‘शमशान घाट’

KMBT_C20020121228133849~1
एक ओर रोज़गार तथा व्यावसायिक शिक्षा के अवसरों का बड़े नगरों तक केन्द्रित होते जाना, विपुल सम्पदा तथा आधुनिकता की चकाचैंध का बढ़ना, दूसरी ओर सामाजिक पिछड़पन, शिक्षा व रोज़गार के अवसरों का सीमित होना, आधुनिकता के अवदानों की वंचना। फलस्वरूप ग्रामीण अंचलों, छोटे शहरों तथा अन्य पिछड़े क्षेत्रों से युवा वर्ग तथा दूसरे आयुवर्ग के लोगों का बड़े नगरों की ओर पलायन। ऐसे में युवाओं पर जीवन शैली को बदलने का दबाव बनना लाज़मी है। खुली हवा में साँस लेने के लिये बेचैन बेटियाँ जबरन थोपी गयी वर्जनाएं तोड़ती हैं, अपनी साहसिकता में कुछ ख़तरे भी उठाती हैं। मुक्ति के चिन्तन के साथ आगे बढ़ना है तो ख़तरे उठाना ही होंगे, मुक्तिबोध को याद कीजिये-
तोड़ने होंगे गढ़ और मठ सब
जाना होगा दुर्गम पहाड़ो के उस पार
यही वह मक़ाम है जहाँ बदलती सोच और जीवन पद्धति तथा जड़ संस्कारों के साथ होने वाले टकराव से पैदा हुए अन्तर्विरोध सामने आते है। रिश्तों की स्वाभाविकता तथा पवित्रता पर सन्देह करने वाले मुखर होते हैं। इस स्वाभाविकता व पवित्रता पर छापा मारने के लिये वह व्याकुल हो उठते हैं।
जि़म्मेदार व सभ्य नागरिक का विवेक व संस्कार न दे सकने वाला शिक्षा तंत्र तथा परिवार संस्था की कमज़ोरी के कारण भी हालात बिगड़े हैं। नशे के ख़तरों को जानते हुए भी सरकारों द्वारा शराब की सुलभता को नित नया विस्तार देने की नीतियों ने भी सामाजिक अराजकता को नयी उठान दी है। यह उपनिवेशवादी प्रवृत्ति है, जो संकेत करती है कि सरकारें जानता को अपना उपनिवेश बना कर रखना चाहती है। आर्थिक लाभ तथा युवा पीढ़ी में संघर्षशीलता की धार को कुन्द करने की मंशा से शराब माफि़याओं से सरकारों की साँठ-गाँठ किसी से छिपी नहीं है। जनविरोधी सत्ताएँ हमेशा ही से अपने विरुद्ध प्रतिरोध की संभावना को कुन्द करने के लिये नशाखोरी का इस्तेमाल करती आयी हैं। समूचे शिक्षा तंत्र, आबकारी नीति, की क़ानून, पुलिस व्यवस्था तथा न्याय प्रणाली की सघन समीक्षा के साथ समानुपातिक सामाजिक विकास को सिद्धान्त लागू किए बिना हालात में अपेक्षित तब्दीली संभव नहीं है। स्त्री के सम्मान को, उसकी प्रगति की समस्त संभावनाओं को सुनिश्चित कर सकने वाले सांस्कृतिक दृष्टिकोण की भी उतनी ही ज़रूरत है। उल्लेखनीय है कि सरकारें अपने कार्यक्रमों में सजी-धजी महिलाओं को सज्जा की वस्तु के रूप में प्रस्तुत करती हैं। ऐसी सुन्दरियाँ उन्हें सम्मोहित करती हैं, जिनके अधरों पर मादक मुस्कान हो, शब्द नहीं, चेहरे पर मृदुलता हो तनाव नहीं। आंखों में चमक हो, प्रश्न नहीं।
इसे बाज़ार वादी दृष्टिकोण ही कहा जायेगा। रोजे़ रौशन की तरह यह सब पर अयाँ (प्रकट) है कि आक्रामक होते बाज़ार तथा बाज़ारवादी दृष्टिकोण ने स्त्री का संकट बढ़ाया है। उसे माल बेचने का साधन, कई बार तो स्वयं उसे माल बना दिया। उपभोक्ता को ललचाने के उपक्रम मे वो स्वयं उपभोक्ता सामग्री में बदलते हुए यौन वस्तु बन गयी है। सभी तरह के विज्ञापनों के स्त्री विरोधी चरित्र पर फ़ौरी तौर पर अंकुश लगाने की आवश्यकता तो है ही।
विज्ञापनदाताओं को आकर्षित करने के उद्देश्य से टी0वी0 सीरीयल्स बनाने वालों ने बाज़ारवादी शक्तियों से धृणित समझौते किए हैं। जिस प्रकार भारतीय सिनेमा ने स्त्री के साथ विराटता ग्रहण करता आघातक़ारी विश्वासघात किया ठीक उसी तरह चैनल्स भी आमतौर पर स्त्री को अवमूल्यित करने के षड्यन्त्रों का हिस्सा बने हुए हैं। इन सीरियल्स में स्त्रियाँ या तो एक दूसरे के विरुद्ध षड्यन्त्र कर रही होती हैं अथवा अपना गर्भ किराये पर उठा रही होती है। उनकी दिलचस्पी प्रायः ग़ैर वैवाहिक, इतर पति सम्बन्धांे में होती है, धार्मिक परम्पराओं, आरोपित सामाजिक मूल्यों को बचाने या फिर स्त्री की रुढि़वादी छवि को सुरक्षित रखने में। चैनल्स ने फि़ल्मों के समान ही धार्मिक अन्ध विश्वास कर्मकाण्ड तथा रुढि़वाद के महिमामण्डन से स्त्री की कठिनाई को जटिल बनाया है। उसकी सामाजिक गतिविधि को बाधित किया है तथा उसके भीतर विकसित हो सकने वाले आत्म विश्वास को पीछे की ओर धकियाया है। सिनेमा में तो तब भी एक ख़ास दौर में सही सामाजिक उद्देश्य को ख़ास महत्व प्राप्त रहा है। यर्थाथवादी सिनेमा तथा समान्तर सिनेमा की भी एक धारा रही है। स्त्री संघर्षशीलता अपनी वास्तविक ज़मीन खोजती हुई चित्रित हुई है। कुछ फि़ल्मों में तो अन्याय व अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष में वो नेतृत्व कारी भूमिका में है। इन संघर्षों के सरोकार वृहत्तरता लिए हुए है। आज के सिनेमा तथा चैनल्स ने तो जैसे स्त्री की इस संघर्षशीलता का दाह संस्कार ही कर दिया। आज के सिनेमा (सब नहीं), सीरियल्स तथा विज्ञापनों के लिये स्त्री केवल देह रह गयी है। देह जिस पर हाथ फेरने मात्र से काला आदमी गोरा और मोटा आदमी स्मार्ट हो जाता है।
16 दिसम्बर को घटित घटना के विरुद्ध बेटियों का अप्रत्याशित रूप से बड़ी संख्या में प्रतिरोध के मैदान में उतरना, उनकी जीवटता, दृढ़ता तथा ख़तरे उठाने के हौसले ने मैथिलीशरण गुप्त के ‘मर्दानी’ को झुठलाते हुए साबित किया है कि वे लड़ीं इसलिये कि वह लड़कियाँ थीं। स्त्री थीं, वह लड़ी मर्दों या मर्दानों की अपेक्षा अधिक जुझारू तरीके़ से। यक़ीनन बेटे भी लड़े, भाई भी लड़े मज़बूती से लड़े लेकिन संवेदनहीनता की सीमाएँ लाँघ जाने वाली सरकार को झुका सकने वाली धार संघर्ष को बेटियों के कारण ही प्राप्त हुई।
भारतीय समाज की ऐतिहासिक उपलब्धि को अपेक्षित परिणामों तक पहुँचाने के लिये आवश्यक है कि बेटियाँ-बेटे, बहनें भाई सब यह समझें कि समानता के सिद्धान्त पर आधारित यौन हिंसा विरोधी सामाजिक चेतना को व्याप्तता में विकसित किए बिना यादगार संघर्ष के लक्ष्य केा प्राप्त कर पाना कठिन है। इसके लिये सघन सामाजिक विमर्श तथा व्यापक संवाद बनाना ही होगा। जिसकी शुरुआत यक़ीनन परिवार ही से करनी होगी।
ऐसी प्रत्येक घटना को तत्ववादी शक्तियाँ सामाजिक नैतिकता के आधार पर अपनी स्थिति मज़बूती करने के लिये इस्तेमाल करती आयी हैं धर्म गुरुओं की स्त्री विरोधी सोच ने उसके अवसाद को अधिक दंश कारी बनाया है। सह शिक्षा लिबास, सामाजिक सक्रियता तथा आज़ादाना विचरण हमेशा उनके निशाने पर रहे हैं। वह भूल जाते हैं कि बलात्कार तथा दूसरे प्रकार की यौन हिंसा के पीछे स्त्री पुरुष यानी कि लड़के लड़कियों के बीच एक मोटी दीवार का, घने अजनबी पन और सान्निध्य का कुण्ठाजनक अभाव प्रमुख रूप से उपस्थित है। यौन उत्तेजना को गति देने वाले वातावरण ने लड़के-लड़कियों को एक दूसरे के निकट आने की ललक को बढ़ाया है। बावजूद इसके बलात्कार के लिये इस ललक केा कारण मानना तथ्य संगत नहीं है। बलात्कार से इतर यौन हिंसा की दूसरी गतिविधियों में इस ललक की उपस्थिति संभव हो सकती है। सच पूछिये तो सह शिक्षा ने हालात को भयावह हद तक जाने से बचाया है, अनुभव बताते हैं कि सह शिक्षा की व्याप्तता हालात को बेहतर बनायेगी बिगाड़ेगी नहीं। समाज के आधुनिक विकास के लिये स्त्री का घर से बाहर निकलना नितान्त आवश्यक है, स्वयं उसके सुख के लिये आत्मनिर्भरता बेहतर स्थिति हो सकती है। धर्मों-मजहबांे से स्त्री के सेविका स्वरूप को आदर्श स्त्री का चिंतन लेने वाले उसकी आज़ादी, आत्मनिर्भरता, सामाजिक भागीदारी को कैसे स्वीकार कर सकते हैं।
समाज के आधुनिक विकास को अवरूद्ध करना आत्मघाती साबित होगा। आधुनिकता के इस महा अभियान में सबकी साझी भूमिका है फिर भी लड़कियों की तरक़्क़ी बताती है कि समाज सभ्यता तथा आधुनिकता के किस मुहाने तक पहुँच पाया है। मध्य युगीन जीवन मूल्यों से हम कितना मुक्त हो पाये हैं।
जिस समाज में औरतों को खुली हवा में साँस लेने, खिलखिलाने, चीख़ने, ज्ञान के नये क्षेत्रों में जाने, आत्मनिर्भर होने तथा अपनी प्रतिभा के जौहर दिखाने अपनी अस्मिता के संघर्ष पर पाबन्दी हो, वह समाज नहीं क़ैद ख़ाना है। ऐसे कै़दख़ाने की सलाख़ों का टूटना ही बेहतर है।

– शकील सिद्दीक़ी
लोकसंघर्ष पत्रिका में शीघ्र प्रकाश्य

Read Full Post »

मंजू अरुण की एक कविता की पंक्तियाँ हैं-

‘‘बेटियाँ
यदि ताड़ की तरह बढ़ती हैं तो,
छतनार की तरह फैलती भी हैं।’’

और सच आज वह फैल गयी हैं, चारों तरफ़, मुट्ठी भींचे सीना ताने। क्षोभ, क्रोध, आवेश और आहत भाव से कुछ पश्चाताप से भी कि वह बचा नहीं पायीं दरिन्दगों की दरिंदगी की निशाना बनी अपनी एक साथी को। फिर भी एक, थोड़ा झीना ही सही एक आश्वस्त भाव है उनके पास कि वह सत्ता के मद से डूबे लोकतांत्रिक तानाशाहों को कुछ तो झुका पायीं, जो कह रहे थे, सरकारें जनता के पास नहीं जाया करतीं, वह जनता की बेटी का शव लेने एयरपोर्ट तक पहुँच गये, शमशान घाट भी। अब वह जनता के पास जाने के अवसर की तलाश में है। जनता जब सरकार के द्वार पर जम की गयी, तब वह थोड़ा विचलित हुए। जनता यदि सरकार चुनती है, तो उसे उखाड़ भी फेंकती है। हालाॅकि सरकारंे तो सिर्फ़ चुनने का अधिकार देना चाहती हैं। जैसे पुरुष (अधिकांश) अपनी वासनाओं की तुष्टि, स्वादिष्ट भोजन, ढेर सारे सुखों, अपनी नस्ल चलाने तथा स्त्री को स्त्री बने रहने के लिये विवाह करता है, उसे एक घर देता है। पुरुष ज़्यादातर उस स्त्री को बहुत पसन्द करता है जो घर में रहे। उसी तरह जैसे सरकारें घर में रहने वाली जनता को बहुत पसन्द करती हैं। जनता को घर में रखने के लिये ही तो उसने इतने सारे मादक टी0वी0 चैनल्स दिए हैं, नेट का रोमांच दिया है। स्त्री जो जनता ही का हिस्सा है, कात्यायनी की एक कविता के अनुसार ‘‘यह स्त्री सब कुछ जानती है/पिंजरे के बारे में/जाल के बारे में/यंत्रणा गृहों के बारे में।’’ इसलिये कभी-कभी ही सही वह निकलती हैं घरों से बाहर। इस बार बेटियों के साथ बेटे भी थे। बहुत से लोग इस कारण चिंतित हैं कि बेटियाँ स्कर्ट और जींस में बाल लहराते हुए निकलीं। उन्होंने दुपट्टे तक नहीं ओढ़ रखे थे। वह दिन में मोमबत्तियाँ जलाती हैं, रात में डिस्को जाती हैं। हिंसा के विरुद्ध सड़कों पर निकलती बेटियों के प्रति यह शब्द कम वीभत्स हिंसा नहीं है। इसमें अवमानना का दंश भी है। जिसकी चुभन आज भी जारी है।
देश की राजधानी में क्रूर हिंसा की इतनी बड़ी घटना घट गयी हो और सरकार के अधीन काम करने वाला प्रशासन जि़म्मेदार मंत्री इस तरह का व्यवहार करें जैसे दरिन्दों ने पाश्विकता की सीमाएँ न तोड़ी हों, जुम्मन मियाँ की बकरी मर गयी हो। संवेदनशीलता का ऐसा भयानक ह्रास कम देखने में आया है। साम्प्रदायिक या जातीय दंगों के दौरान तो यह होता है कि एक वर्ग दूसरे वर्ग के संहार, स्त्री के साथ बलात्कार पर चुप रहता है, या प्रसन्न होता है, दुखी कम लोग होते हैं। गर्भवती स्त्री का पेट फाड़कर भू्रण को आग में फेंकने, बलात्कार की फोटोग्राफ़ी की घटनाएँ उसी गुजरात में घटी जहाँ शान्ति और अहिंसा का बखान सबसे अधिक होता है। जो राष्ट्र पिता की जन्मभूमि है। जहाँ आसाराम बापू का आश्रम भी है। समझना होगा कि स्त्री के साथ हिंसा के विरुद्ध कट्टर कि़स्म के निर्पेक्ष दृष्टिकोण की आवश्यकता है। निर्पेक्षता का तात्पर्य चुप रहना नहीं, धर्म जाति और वर्ग के भेद से मुक्त होना है। परन्तु ऐसे अवसरों पर प्रायः सघन मौन ही प्रकट सच के रूप में सामने आया। समानता के सिद्धान्त पर विश्वास करने वाले व्यक्तियों एवम् संगठनों ने अवश्य प्रतिरोध दर्ज कराया, आन्दोलन किए। बलात्कारियों के प्रति सम्मति का भाव रखने वाले नरेन्द्र मोदी तो युवा हृदय सम्राट कहे जाने लगे। दिल्ली की घटना पर विराटता, विशेष रूप से युवजन में आक्रोश का फूट पड़ना एकदम स्वाभाविक है,वह लम्बे समय में शनैः शनैः संचित कथा का विस्फोट था। निश्चय ही वह बलात्कार व स्त्री के प्रति हिंसा की जघन्यतम् घटना थी तो क्या कम जघन्य घटनाओं पर मौन और बलात्कारियों के साथ सहानुभूति को उचित मान लिया जाये। आखि़र एक राजनैतिक दल के रूप में भारतीय जनता पार्टी के सम्बन्ध में बलात्कार की समस्या को लेकर बलात्कार विरोधियों का क्या रवैया होना चाहिये। यह विचारणीय विषय है। स्वयं कांग्रेस की सरकारों के समय में विभिन्न क्षेत्रों में आदिवासियों, दलित और मुस्लिम महिलाओं के साथ क्रूर बलात्कार हुए। भारत-पाकिस्तान सहित कुछ दूसरे देशांे में धर्म व नस्ल की आड़ में किए गये बलात्कार की घटनाओं के विरुद्ध महत्वपूर्ण लेखन दिखाई पड़ा। सआदत हसन मन्टो की कहानी खोल दो पिछले साठ वर्षों से लगातार चर्चा में है। हमारे देश में भी गुजरात की घटनाओं को लेकर तीखा बौद्धिक हस्तक्षेप हुआ है। धर्म निरपेक्ष व्यक्तियों-संगठनें ने ऐतिहासिक महत्व का काम किया है। प्रश्न बस इतना है, कि ऐसे व्यक्तियों या संगठनों की सामाजिक स्वीकृति का अनुपात क्या है? क्या वह पाकिस्तानी समाज में मन्टो की लोकप्रियता जैसा है।
कड़े क़ानूनों, कड़े दण्ड तथा उतनी ही कड़ाई से उन्हें लागू किए जाने की त्वरित अनिवार्यता से कौन इंकार कर सकता है, फिर भी स्त्री के साथ हिंसा, विशेष रूप से बलात्कार के प्रति घनी सामाजिक चेतना के फ़ौरी निर्माण की भी उतनी ही ज़रूरत है। इसके साथ ही समानता की चेतना जिसमें लैंगिक समानता भी शामिल है, अनिवार्य सिद्धान्त के रूप जीवन में सक्रियता आवश्यक है। वरना वर्गो, धर्मों, जातियों और सम्प्रदायों में विभाजित समाज में स्त्री के साथ हिंसा के ख़तरे हमेशा बने रहते हैं, बल्कि बने हुए है। समानता की प्रखर सामाजिक चेतना के अभाव मंे उनके प्रति उसी अनुपात में सम्मति का भाव भी बना रहता है। प्रतिशोध की आग बुझाने का वह आसान सा साधन जो बनी हुई है। अपराध रोकने में क़ानून तथा त्वरित कार्यवाही की उपयोगिता अपनी जगह लेकिन अपराध की संभावनाओं को कम करने के लिये अपराध विरोधी सामाजिक वातावरण का निर्माण भी लाज़मी है। क़ानूनों से अपराधियों को या अपराध करने की मंशा रखने वालों को हतोत्साहित तो किया जा सकता है, स्त्री के प्रति पुरुष की पारम्परिक सोच को नहीं बदला जा सकता। 16 जनवरी के उपरान्त लगातार घटती बलात्कार की घटनाएँ जिसका साक्षात उदाहरण है, पुलिस, न्याय व्यवस्था तथा प्रशासन में उनके प्रति अपेक्षित संवेदनशीलता का संचार भी संभव नहीं। पितृ सत्ता ने अपने साम्राज्य की लम्बी अवधि में पुरुष मानसिकता को फ़ासीवादी सोच के क़रीब ला खड़ा किया है। जिसके सामंतवादी वैचारिकता से गहरे रिश्ते हैं।
समाज की केन्द्रीय सोच और अपराध के अन्र्तसम्बन्धों को समझना कठिन नहीं है। यह स्थिति गम्भीर सांस्कृतिक संकट की ओर भी संकेत करती है। भारतीय गतिविधियों में बदलती हुई प्राथमिकताओं के अनुरूप स्पेस स्वीकार कर सकने वाले सांस्कृतिक विवेक का निर्माण नहीं हो सका है। बावजूद इसके उनकी सामाजिक सक्रियता को नया विस्तार मिला है। बहुत से लोग, जिनमें सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के अलमबरदार भी हैं तथा राजनेता और वैज्ञानिक भी कि बेटियों की बढ़ती सामाजिक भागीदारी को ही उनके प्रति जघन्य होती हिंसा का मूल कारण घोषित कर रहे हैं, ऐसे में वेशभूषा का उल्लेख तो आता ही है। कुछ पुरातन पंथी सहशिक्षा के सर इन हालात का दोष मढ़ रहे हैं। यह भूलते हुए कि हमारे समाज को ज़्यादा ख़राब होने से सह शिक्षा ने ही बचाया है। वह इस हक़ीक़त की ओर से आँखें मून्द लेते हैं कि देश में बलात्कार सहित दूसरी यौन हिंसा की घटनाएँ पारपम्परिक या घरेलू वेशभूषा वाली महिलाओं के साथ अधिक घटित होती हैं। ख़ौफ़नाक आँकड़ों का सच यह है कि सड़कों, पार्कों, सिनेमा हालों, रेस्ट्रां, माल्स या इस प्रकार के दूसरे सार्वजनिक स्थलों की अपेक्षा यौन हिंसा की घटनायें घरांे, खेतों, खलिहानों, नारी व बाल आश्रमों में अधिक सुनाई पड़ती है। सम्बन्धी, पड़ोसी तथा निकट परिचित लड़कियों का यौन उत्पीड़न करने में सबसे आगे हैं। रोली शिव हरे ने अपनी एक टिप्पणी में मध्य प्रदेश के आंकड़े दिए हैं कि मात्र एक वर्ष (2011) में बलात्कार के चैंतीस हज़ार मामले दर्ज हुए, पति द्वारा की गयी हिंसा के तक़रीबन सैंतीस हज़ार मामले सामने आये। समूचे देश के स्तर पर इस प्रकार कि हिंसक घटनाएँ कितने बड़े पैमाने पर घटित होगी, अनुमान लगा पाना कठिन नहीं है। जबकि प्रत्येक तीसरे मिनट पर बलात्कार होता हो।
अपराध के समूचे यथार्थ पर फि़लहाल बात न करें तो भी स्त्री के प्रति बढ़ते हुए अपराध की पृष्ठभूमि में सक्रिय सामाजिक विकास की असमानता बढ़ने वाली, असमानुपातिक पद्धति से पैदा हुई नक़ली चकाचैंध, विसंगतियों और कुण्ठा की भूमिका पर ध्यान दिए बिना अपने समय के सच की आँखांे में आँखें डाल पाना कठिन है। यह सहसा अथवा फि़ल्मों या टी0वी0 सीरियल्स का प्रभाव मात्र नहीं है कि हिंसा और अपराध हमारे समाज की स्थाई प्रवृत्ति बनती जा रही है। इसे आर्थिक विकास, शासन पद्धति, सामाजिक संगठनों, सभी प्रकार की धार्मिक नैतिकता तथा अध्यात्म की ऐतिहासिक विफ़लता के रूप में देखा जाना चाहिये। अनिवार्य मानवीय मूल्यों, न्यूनतम सांस्कृतिक प्रतिमानों तथा सामाजिक संहिता की भी अवसाद पूर्ण पराजय यहाँ दिखाई पड़ती है।

-शकील सिद्दीक़ी
क्रमश:

लोकसंघर्ष पत्रिका में शीघ्र प्रकाश्य

Read Full Post »