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Posts Tagged ‘हिटलर’

अगर आपने हिटलर की आत्मकथा ‘माईन काम्फ़ ’ को पढ़ा हो तो इस बात को पकड़ने में शायद आपको एक क्षण भी नहीं लगेगा सांप्रदायिक नफरत फैलाने के उद्देश्य से भारत में अभी चल रहे ‘लव जेहाद’ नामक अनोखे अभियान का मूल स्रोत क्या है। हिटलर यहूदियों के बारे में यही कहा करता था कि ‘‘ये गंदे और कुटिल लोग मासूम ईसाई लड़कियों को बहला-फुसला कर, उनको अपने प्रेम के जाल में फंसा कर उनका खून गंदा किया करते हैं।’’

यहां हम हिटलर के शासन (थर्ड राइख) के दुनिया के सबसे प्रामाणिक इतिहासकार विलियम एल. शिरर की पुस्तक ‘The Rise and Fall of Third Reich’ के एक छोटे से अंश को रख रहे हैं, जिसमें शिरर ने हिटलर की ऐसी ही घृणित बातों को उद्धृत करते हुए उनको विश्लेषित किया है। शायद, इसके बाद भारत में संघ परिवार के लोगों के ‘लव जेहाद’ अभियान की सचाई के बारे में कहने के लिये और कुछ नहीं रह जायेगा। शिरर अपनी इस पुस्तक के पहले अध्याय ‘Birth of the Third Reich’ के अंतिम हिस्से में लिखते हैं :

‘‘ हिटलर एक दिन वियेना शहर के भीतरी हिस्से में घूमने के अपने अनुभव को याद करते हुए कहता है, ‘‘अचानक मेरा सामना बगलबंद वाला काला चोगा पहने एक भूत से होगया। मैंने सोचा, क्या यह यहूदी है? लिंत्स शहर में तो ऐसे नहीं दिखाई देते। मैंने चुपके-चुपके उस आदमी को ध्यान से देखा, उसके विदेशी चेहरे, उसके एक-एक नाक-नक्शे को जितना ध्यान से देखता गया, मेरे अंदर पहले सवाल ने नया रूप ले लिया। क्या वह जर्मन है?’’(अडोल्फ हिटलर, ‘माईन काम्फ़ ’, अमरीकी संस्करण, बोस्तोन, 1943, पृष्ठ : 56)

‘‘हिटलर के जवाब का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। फिर भी वह कहता है, जवाब के पहले उसने ‘‘किताबों के जरिये अपने संदेह को दूर करने का फैसला किया।’’ उन दिनों वियेना में जो यहूदी-विरोधी साहित्य काफी बिक रहा था, वह उसमें खो गया। फिर सड़कों पर सारी स्थितियों को करीब से देखने लगा। वह कहता है, ‘‘मैं जहां भी जाता, हर जगह मुझे यहूदी नजर आने लगे और मैं उन्हें जितना अधिक देखता, वे मुझे बाकी लोगों से अलग दिखाई देने लगे। …बाद में चोगा पहने लोगों की गंध से मैं बीमार सा होने लगा।’’(वही, पृ : 56-57)

‘‘इसके बाद, वह कहता है, ‘‘उसने उन ‘चुनिंदा लोगों’ के शरीर पर नैतिक धब्बों को देख लिया। …खास तौर पर पाया कि सांस्कृतिक जीवन में ऐसी कोई गंदगी या लंपटगिरी नहीं है, जिसके साथ कोई न कोई यहूदी न जुड़ा हुआ हो। इस मवाद को यदि आप सावधानी से छेड़े तो रोशनी गिरते ही किसी सड़े हुए अंग के कीड़ों की तरह चौंधिया कर ये किलबिलाते दिख जायेंगे।’’ वह कहता है, उसने पाया कि वैश्यावृत्ति और गोरे गुलामों के व्यापार के लिये मुख्यत: यहूदी जिम्मेदार हैं। इसे ही आगे बढ़ाते हुए कहता है, ‘‘पहली बार जब मैंने बड़े शहर की गंदगी में इस भयानक धंधे को चलाने वाला घुटा हुआ, बेशर्म और शातिर यहूदी को देखा तो मेरी पीठ में एक सनसनी दौड़ गयी।’’(वही, पृ : 59)

‘‘यहूदियों के बारे में हिटलर की इन उत्तेजक बातों का काफी संबंध उसकी एक प्रकार की विकृत कामुकता से है। उस समय वियेना के यहूदी-विरोधी प्रकाशनों का यह खास चरित्र था। जैसाकि बाद में फ्रंखोनिया के हिटलर के एक खास चमचे, न्यूरेमबर्ग के अश्लील साप्ताहिक ‘Der Stuermer’ के मालिक में देखा गया, वह एक घोषित विकृत मानसिकता का व्यक्ति था और हिटलर के शासन (थर्ड राइख) का सबसे घृणास्पद व्यक्ति था। मीन कैम्फ में यहूदियों की ऐसी-तैसी करने के लिये जघन्य संकेतों वाली बातें भरी हुई हैं कि यहूदी मासूम ईसाई लड़कियों को फांसते हैं और इसप्रकार उनके खून को गंदा करते हैं। हिटलर ही ‘‘घिनौने, कुटिल, चालबाज हरामी यहूदियों द्वारा सैकड़ों हजारों लड़कियों को फुसलाने की डरावनी कहानियां’’ लिख सकता है। रूडोल्फ ओल्डेन कहता है कि हिटलर के इस यहूदी-विरोध की जड़ में उसकी दमित कामुक वासनाएं हो सकती है। यद्यपि तब वह बीस-पच्चीस साल का था। जहां तक जानकारी है, वियेना की उसकी यात्रा में उसका औरतों से किसी प्रकार का कोई संबंध नहीं हुआ था।

‘‘हिटलर आगे कहता है, ‘‘धीरे-धीरे मैं उनसे नफरत करने लगा। यही वह समय था जब मेरे जीवन में सबसे बड़ा आत्मिक भूचाल आया था। मैं अब कमजोर घुटनों वाला शहरी नहीं रह गया। यहूदी-विरोधी होगया।’’ (वही, पृ : 63-64)

‘‘अपने बुरे अंत के समय तक वह एक अंधा उन्मादी ही बना रहा। मौत के कुछ घंटे पहले लिखी गयी अपनी अन्तिम वसीयत में भी उसने युद्ध के लिये यहूदियों को जिम्मेदार ठहराया, जबकि इस युद्ध को उसीने शुरू किया था जो अब उसे और थर्ड राइख को खत्म कर रहा था। यह धधकती हुई नफरत, जिसने उस साम्राज्य के इतने सारे जर्मनों को ग्रस लिया था, अंतत: इतने भयंकर और इतने बड़े पैमाने के कत्ले-आम का कारण बनी कि उसने सभ्यता के शरीर पर ऐसा बदनुमा दाग छोड़ दिया है जो उस समय तक कायम रहेगा जब तक इस धरती पर इंसान रहेगा।’’ (William L. Shirer, The Rise and Fall of the Third Reich, Fawcett Crest, New York, छठा संस्करण, जून 1989, पृष्ठ : 47-48)

यहां उल्लेखनीय है कि भारत में संघ परिवारियों के बीच हिटलर की आत्मकथा ‘माईन काम्फ़ ’ एक लोकप्रिय किताब है, जबकि साधारण तौर पर इस किताब को दुनिया में बहुत ही उबाऊ और अपठनीय किताब माना जाता है। लेकिन, जर्मन इतिहासकार वर्नर मेसर के शब्दों में, ‘‘लोगों ने हिटलर की उस अपठनीय पुस्तक को गंभीरता से नहीं पढ़ा। यदि ऐसा किया गया होता तो दुनिया अनेक बर्बादियों से बच सकती थी।’’ (देखें, हिटलर्स माईन काम्फ़ : ऐन एनालिसिस)

पूरी तरह से हिटलर के ही नक्शे-कदम पर चलते हुए भारत में सांप्रदायिक नफरत के आधार पर एक फासिस्ट और विस्तारवादी शासन की स्थापना के उद्देश्य से आरएसएस का जन्म हुआ था। इसके पहले सरसंघचालक, गुरू गोलवलकर के शब्दों में, “अपनी जाति ओर संस्कृति की शुद्धता बनाए रखने के लिए जर्मनी ने देश से सामी जातियों – यहूदियों का सफाया करके विश्व को चौंका दिया है। जाति पर गर्वबोध यहां अपने सर्वोंच्च रूप में व्यक्त हुआ है। जर्मनी ने यह भी बता दिया है कि सारी सदिच्छाओं के बावजूद जिन जातियों और संस्कृतियों के बीच मूलगामी फर्क हो, उन्हें एक रूप में कभी नहीं मिलाया जा सकता है। हिंदुस्तान में हम लोगों के लाभ के लिए यह एक अच्छा सबक है।’’(एम.एस.गोलवलकर, वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइन्ड, पृष्ठ : 35)

‘लव जेहाद’ के मौजूदा प्रसंग से फिर एक बार यही पता चलता है कि संघ परिवार के लोग आज भी कितनी गंभीरता से हिटलर की दानवीय करतूतों से अपना ‘सबक’ लेकर ‘मूलगामी फर्क वाली जातियों और संस्कृतियों के सफाये’ के घिनौने रास्ते पर चलना चाहते हैं।
– अरुण माहेश्वरी
साभार

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आखिरकार कई वर्षों और दशकों की मशक्कत के बाद भाजपा को अकेले बहुमत मिल ही गया। एक मायने में यदि यह अचरज भरा है तो अन्य दृष्टि से ऐसा नहीं है। ऐसे सत्ता परिवर्तन की तैयारियाँ काफी अरसे से की जा रही थीं और इसके लिए जनता के बीच सांप्रदायिक धु्रवीकरण और अन्य ‘प्रयोग’ किए जा रहे थे, जैसा की नई शासक पार्टी ने खुद कई बार दावा किया है। इस परिवर्तन की कई खासियतें हैं और उन पर आने वाले समय में विचार-विश्लेषण होता रहेगा। सुनियोजित योजना के तहत पिछले दो एक दशकों से भाजपा केन्द्र में अपनी सत्ता लाने की कोशिश में रही है।
वैसे जनतंत्र में सभी को चुनाव लड़ने और सत्ता में आने, उचित संख्या में सीटें प्राप्त करके अपनी सरकार बनाने का आधिकार है और इसमें कोई गलत भी नहीं है लेकिन इस सन्दर्भ में कुछ विशेषताओं की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। पहली बार सत्ताधारी पार्टी इतने कम मतों से जीत कर आई है। भाजपा को मात्र 31 प्रतिशत वोट मिले हैं और बाकी सभी को 69 प्रतिशत का विशाल बहुमत, जो सीटों के रूप में रूपांतरित नहीं हो पाया। इधर कुछ समय से समानुपातिक चुनाव प्रणाली के पक्ष में विचार दिए जा रहे हैं। इन चुनाव नतीजों से चुनाव प्रणाली बदलने का तरीका मजबूत होता है। आखिर जिनको 20 या 50 या 69 प्रतिशत मत मिले हैं उनका उचित प्रतिनिधित्व तो होना ही चाहिए। इस माने में नतीजे एकतरफा हैं।
दक्षिणपंथ की जीत
इस देश में पहली बार वह ताकत जीत कर आई है जिसका आजादी के आंदोलन से कोई संबंध नहीं था। साथ ही हर मायने में एक दक्षिणपंथी पार्टी की सरकार बनी है। संघ ने हमेशा ही स्वतंत्रता संग्राम से स्वयं को अलग रखा और अपना निशाना ब्रिटिश साम्राज्यवाद को नहीं बल्कि कुछ समुदायों को बनाया। संघ ने साफ कहा कि वह राजनैतिक संस्था नहीं है, इसलिए आजादी की लड़ाई में भाग नहीं लेगी। अब अचानक इतने अरसे बाद वह चुनाव के राजनैतिक मैदान में क्यों कूद पड़ी, यह अचरज की तथा विश्लेषण की बात है। इसका जवाब तो उन्हे ही देना है। इस मानसिकता से वे देश को कैसे चलाएँगे, यह देखना है। वैसे देश का जनतांत्रिक ढाँचा किसी को इतनी आसानी से उसे तोड़ने की शक्ति नहीं देता, फिर भी खतरा तो है ही।
हम यह भी याद करें की सांप्रदायिक शक्तियों से लड़ते हुए गणेश शंकर विद्यार्थी और महात्मा गाँधी ने क्रमशः आजादी से पहले और बाद में अपनी जानें गवाँईं। वे सांप्रदायिक षड्यंत्रों के शिकार हुए और दोनों की ही हत्याएँ साम्प्रदायवादी शक्तियों ने कीं। हिंदू और मुस्लिम तथा अन्य संप्रदायवाद देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बने हुए हैं। इस सन्दर्भ में संघ पर प्रश्न-चिह्न है क्योंकि उसने इन दो हत्याओं तथा अन्य घटनाओं की अभी तक निंदा नहीं की है।
भारत के इतिहास में पहली बार पूर्णतः दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी शक्तियों की केन्द्र में जीत हुई है। यदि इस लेबल से केंद्रीय पार्टी अपने को मुक्त करले तो बड़ी उपलब्धि होगी। लगातार हमारी संसद और लोकसभा में प्रथम आम चुनावों से ही मनमर्जी, जनतांत्रिक शक्तियों का वर्चस्व रहा है। 1952 से लेकर आज तक दक्षिण पंथी पार्टियाँ हाशिए पर रही हैं। वर्तमान परिवर्तन कैसे हुआ, इस पर कुछ विचार हम आज प्रस्तुत करेंगे:-
आज देश में जो कुछ विकास देख रहे हैं, वह पब्लिक सेक्टर आधारित उन मूल आर्थिक नीतियों का नतीजा है जो वाम तथा कम्युनिस्ट विचारधारा और प्रगतिशील कांग्रेसियों की देखरेख में लागू की र्गइं। आज भारत 1947 का पिछड़ा, गरीब और विदेशी सहायता पर निर्भर भारत नहीं रह गया है। आज भारत चीन के बाद विश्व का दूसरा सबसे तेज विकसित होता हुआ देश है जो कच्चे माल के निर्यात पर नहीं बल्कि तैयार विकसित औद्योगिक सामानों, जिनमे ऑटोमोबाइल और भारी मशीनें शामिल हैं, के निर्यात में अपनी महत्वपूर्ण जगह बना चुका है। यह विकास है जिसे दक्षिणपंथी शक्तियाँ नजर अंदाज करना चाहती हैं। यह विकास बड़े सामंतों, इजारेदारों और साम्राज्यवादियों से संघर्ष करके हुआ है। यह नीति अब खतरे में पड़ गई है।
आज ‘विकास’ की बात करना एक फैशन हो गया है। भाजपा ने भी बड़े दावे चुनावों में किए हैं और यह दर्शाने की कोशिश की है कि सिर्फ वही ‘विकास’ का प्रतिनिधि है। अब तक विरोध करते हुए अचानक संघ विकास का प्रचारक बन गया है, लेकिन अब तक उसने जनता को और देश को यह नहीं बताया है कि वह कैसा विकास करेगा क्या कदम उठाएगा और देश की समस्याएँ कैसे हल करेगा। यह तो समय ही बताएगा, लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि भारत विकास के ही उस रास्ते पर चल रहा था जिस रास्ते का पुरजोर विरोध स्वयं भाजपा ने लगातार किया है। सवाल यहाँ आर्थिक रणनीति और कार्यनीति का है जिस पर संघ और मोदी ने अब तक कुछ भी पेश नहीं किया है। विकास शब्द का उच्चारण करने से विकास नहीं होगा। हमारे देश की स्वीकृत रणनीति पब्लिक सेक्टर के गिर्द मिश्रित अर्थव्यवस्था की रही है जो ‘नेहरू आर्थिक रूपरेखा’ या नेहरू मार्ग के नाम से जानी जाती है।
आज की आर्थिक और राजनैतिक घटनाएँ इसी आर्थिक आधार और उसके अंतर्विरोधों की देन हैं। इसलिए, देश की वर्तमान घटनाएँ विकास की कमी नहीं बल्कि विकास के अर्थविरोधों का नतीजा हैं। विकास का यह मार्ग परस्पर टकराओं से भरा और कई मायनों में अपूर्ण रहा है। वर्तमान सरकार इस विकास के चरम दक्षिणपंथी तबकों की नीतियों का परिणाम हैं, सिर्फ जनता के असंतोष का नहीं।
इजारेदार पूँजीवाद का समर्थन
कॉर्पोरेट घरानों और देश के इजारेदार पूँजीपतियों के सबसे दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी तबकों, जिन्हें राजनीति की भाषा में चरम दक्षिणपंथी कहते हैं, ने अपनी सारी ताकत मोदी के पक्ष में झोंक दी। साथ ही कंाग्रेस की जन विरोधी नीतियों ने इन्हें पूरा अवसर दिया। संघ विरोधी पार्टियों में एकता की भारी कमी रही, और संघ आदि ने जनता के उन तारों को छेड़ा जो दुखती रग थे। जनता ने अपने गुस्से का इजहार इन नीतियों के रूप में किया।
वर्गीय दृष्टिकोण से इजारेदार पूँजीवाद और कॉर्पोरेट घरानों के सबसे दक्षिणपंथी हिस्सों ने मोदी के रूप में चरम दक्षिणपंथी प्रक्रियावाद को तैयार किया। यह शब्दों का जाल नहीं, एक लच्छी है। इसीलिए अकूत मात्रा में धन बहाया गया। अखबारों के अनुसार 10 हजार करोड़ रुपये खर्च किए गए। कहाँ से आए ये पैसे? और इस धन को तो बटोरने की पहले से कोशिश होगी। इसे अभी तक जनता समझ नहीं पाई है। जिस दिन थोड़ा भी समझ जाएगी, भाजपा का पतन शुरू हो जाएगा।
कॉरपोरेट घराने क्यों भाजपा के पीछे हैं? क्योंकि उन्हें पिछली सरकार में जो भी रुकावटें थी, उनकी पूर्ण समाप्ति वे चाहते हैं। वे निरंकुश इजारेदार-साम्यवादी पूँजी का शासन चाहते हैं। मोदी इसके लिए सबसे उपयुक्त हैं और उनकी पार्टी भाजपा, सबसे उपयुक्त पार्टी और संघ सबसे उपयुक्त ‘हथियार बंद फौज’ है। उनके लिए, ये सारी घटनाएँ हमें जाने अंजाने में 30 के दशक में जर्मनी में हिटलर के उत्थान की याद दिलाती हैं। उस पर फिर कभी विचार किया जाएगा, जब अन्य घटनाएँ सामने आएँगी।
इसलिए विकास की दिशा को पूरी तरह दक्षिण पाठ और चरम दक्षिण पाठ की ओर मोड़ने की पूरी तैयारियाँ चल रही हैं। हमारा पब्लिक सेक्टर, देश के अर्थतंत्र का आधार और केन्द्र, हमारी राष्ट्रीयता का आर्थिक आधार, खतरे में है।
भाजपा की जीत और अन्य की पराजय के कुछ कारण, धन और मीडिया की भूमिका गौर करने लायक है, पैसों तथा मीडिया की भूमिका इससे पहले इतनी अधिक कभी नहीं थी। सबसे बड़े पूँजीपतियों ने ‘दिल खोलकर’ (अर्थात तिजोरी खोलकर!) संघ ने भाजपा के लिए धन पानी की तरह बहाया। इसका कारण है कि वे अपने हित में अब पूरी तरह संघ जैसी शक्तियों को खड़ा करना चाहते हैं। इसके लिए हमें कड़ी रिसर्च की जरूरत नहीं। अखबारों में कई तथ्य आ चुके हैं।
यह अचरज की बात है और कांग्रेस की नाकामी और उदासीनता कि मीडिया पूरी तरह सरकार और सरकारी पार्टी कांग्रेस के हाथ से निकल चुका था। आज के जमाने में मीडिया समाज और सत्ता का चैथा खंभा कहलाता है, लेकिन उससे शासक पार्टी लगभग पूरी तरह गायब थी। आधा चुनाव तो वह यहीं हार गई, सैकड़ों चैनलों में भाजपा व संघ और मोदी की रिंग कॅमेंट्री की जाती रही। मीडिया में आम लोगों और मेहनतकशों की खबरें नदारद थीं अर्थात वह देश का प्रतिबिम्ब नहीं रह गया था और अभी भी नहीं है। भाजपा के चुनाव जीतने के बाद ऐसा लगता है कि ज्यादातर अखबार, चैनल और पत्रकार सिर्फ सरकार की चमचागीरी में लगे हुए हैं। यह देश के लिए बड़ी चिंताजनक बात है। मीडिया से जनता गायब हो चुकी है। यह हमें पश्चिम के ‘एंबेडेड’ अर्थात सरकारी पम्परा से जुड़े हुए मीडिया की याद दिलाते हंै।
कांग्रेस की नाकामयाबी
ना कांग्रेस, ना ही अन्य कोई पार्टी देश में हो रहे परिवर्तनों को समझ पाई। कांग्रेस आत्म-संतुष्टि से पीडि़त रही। सिर्फ विकास की दर बढ़ने से ही देश का भला नहीं होता है। विकास का फल जनता तक पहुँचना चाहिए, यह समझ उसे बड़ी देर से आई. कांग्रेस पहले ही हारी हुई फौज के समान लड़ रही थी। उसने मीडिया को पूरी तरह कार्पोरेटों और संघ-भाजपा के हवाले कर दिया था। यह नीति समझ में आने लायक नहीं है। कांग्रेस को अपना दंभ त्यागकर अन्य दलों के साथ बराबरी का व्यवहार सीखना होगा। कांग्रेस ने नव-उदारवाद के नतीजों की, जिनका शिकार जनता हुई, पूरी तरह अनदेखी की। ऐसा लगता था की ‘महँगाई बढ़ी तो क्या?’ का रुख उसने अपना लिया था। इस समस्या का समधान नई सरकार को भी करना पड़ेगा। बोलना आसान है लेकिन महँगाई पर नियंत्रण करना आसान नहीं। वाम तथा अन्य दलों की दिशाहीनता, बिहार तथा कुछ एक अन्य जगहों में वाम तथा कुछ अन्य दल और कांग्रेस नजदीक आए हैं। उन्हें एहसास हुआ है कि ‘धर्मनिरपेक्ष ताकतों’ को एक जगह आना चाहिए। इसमे विचारधारा से अधिक कुछ अन्य कारकों की भूमिका भी है।
यह समझदारी पहले क्यों नहीं आई? पहले वे क्या कर रहे थे? और वाम दलों ने अन्य दलों तथा कांग्रेस के साथ सीमित ही सही, तालमेल बिठाने का काम क्यों नहीं किया? चुनाव के बाद तालमेल का क्या मतलब रह जाता है जब आपके पास नंबर ही नहीं हैं, सीटें ही नही मिलीं।
इन प्रश्नों का उत्तर तो वे ही दे सकते हैं। अंकगणित स्पष्ट है- 31 प्रतिशत बनाम 69 प्रतिशत, सीमित तालमेल में भी भाजपा को कोई अवसर नहीं बनता, जीतने का कारण स्पष्ट है-दिशाहीनता। ऐसी पार्टियाँ जो वामपंथी हैं, जो वैज्ञानिक होने का दावा करती हैं, वे भी इस बात को क्यों नहीं समझ पाईं? ऐसा लगता है कि उन्होने रणनीति ताक पर रख दी और उनकी दृष्टि अंध कांग्रेस विरोध से पीडि़त हो गई। वे चुनाव के बाद तीसरे मोर्चे की तलाश में थे, यह भूलते हुए कि यदि सीटें नहीं आईं तो कोई तीसरा या चैथा मोर्चा ना बन सकता है, ना ही उसकी सरकार, हुआ भी यही।
वाम तथा अन्य दल अपनी रणनीति तैयार नहीं कर पाए, वैचारिक संघर्ष नहीं चला पाए, आधे मन से चुनाव लड़े और पूरी तरह तालमेल से अलग रहे। यह अति स्वाभिमान का मामला हुआ। नतीजतन, आज वाम 2008 के बाद 62 सीट से 12 पर आ गया है।
वाम को पूरी तरह समय के साथ बदलने की जरूरत है। उसे देश में हो रहे परिवर्तनों, बदलती सामाजिक रचनाओं, मीडिया, सूचना और तकनीकी क्रांति के नतीजों, मोबाइल और टीवी के महत्व, इत्यादि कई चीजों को समझना होगा। एक के बाद एक बड़े शहरों में वामपंथ कहीं नहीं है। ये शहर और भी बड़े और संख्या में भी अधिक होते जा रहे हैं। फलस्वरूप, वास्तव में वाम और प्रगतिशील छोटे होते जा रहे हैं। चुनाव नतीजे इन मायनों में आश्चर्य की बात नहीं हैं, बल्कि वास्तविकता के ही प्रतिबिम्ब हैं।
वाम को अपनी पूरी रणनीति और कार्यनीति बदलनी होगी। उसे सारी प्रगतिशील शक्तियों को एकजुट करना होगा जिसमें कांग्रेस के प्रगतिशील तबके भी होंगे। सिर्फ एकता या नजदीकियाँ काफी नहीं, वाम सहयोग या मोर्चे को करना क्या है, किससे मित्रता, किससे दूरी बनाना है, नीतियाँ क्या होंगी, यह समझना होगा। वाम के पास कोई वैकल्पिक अर्थनीति नहीं है। वह सिर्फ दक्षिणपंथ की नीतियों पर प्रतिक्रिया दे रहा है, दूसरों के गेंद का जवाब दे रहा है, वह भी ठीक से नहीं। वाम और जनवादी अलग-अलग रहें तो दक्षिणपंथ की जीत सुनिश्चित है। अपने एजेेंडा और उस पर देश को चलाना, यह आवश्यक है।
उसे ऐसा एजेण्डा तैयार करना होगा। जिस पर देश आकृष्ट हो, जिसके गिर्द कांग्रेस समेत अन्य जनवादी पार्टियाँ सीमित अर्थों में ही सही, नजदीक आएँ, कुछ अधूरे मन से कोशिश अवश्य हुई है लेकिन प्रभावी तरीके से नहीं। वाम और जनवादी शक्तियों को स्पष्टता और
धारदार नीतियाँ अपनानी होंगी और देश को साफ दिशा देनी होगी। कोई अगर मगर नहीं चलेगा, ना ही लंबे चैड़ माँग पत्र। वाम सभी प्रगतिशील ताकतों को एक जगह लाए और जनता और देश को दिशा दे वैचारिक तेजी लाए।
देश का भविष्य
हम कह आए हैं कि आज पूरी तरह दक्षिणपंथ की ताकतें सत्ता में आ गई हैं। जाहिर है, नीतियों में इसी के अनुरूप परिवर्तन होगा या कोशिश होगी। इसका यह भी मतलब है कि आजादी के बाद देश ने जो भी उपलब्धियाँ हासिल की थीं उन पर पूरा हक है। आर्थिक क्षेत्र, स्कूल-कॉलेज के पाठ्यक्रम तथा इस प्रकार की अन्य बातें खतरनाक मोड़ पर हैं।
यह जानी हुई बात है कि छोटे बच्चों में ही सांप्रदायिक मानसिकता भरी जा रही है, जिसकी गति तेज होगी। जब पाठ्यक्रमों में हिटलर पढ़ा जाए और गांधी गायब हों तो देश के मानस पर क्या प्रभाव पड़ेगा और भावी विचार कैसे होंगे यह समझा जा सकता है। 35 वर्षों के एक छत्र शासन ने वैज्ञानिक और प्रगतिशील विचारधारा से अज्ञता को शिक्षित करने के लिए कुछ नहीं किया। दूसरी और विभाजनकारी साम्प्रदायिक विचारधारा, चाहे जिसकी हो, फैलाई जाती रही।
दूसरे शब्दों में विचारधारा के पहलुओं को, उसके विकास और अंतर्विरोधों को नजरअंदाज कर दिया गया। यह भुला दिया गया कि विचारधारा का संघर्ष अत्यंत ही महत्वपूर्ण है।
क्या प्रगतिशील, जनवादी, वाम तथा धर्मनिरपेक्ष विचारधारा फिर से एक बार देश को स्वस्थ दिशा में ले जा पाएगी? यह विवेकपूर्ण विचारधारात्मक कार्यों से ही भविष्य में साबित हो पाएगा।
-अनिल राजिमवाले
मो0 09868525812

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