Posts Tagged ‘suman’
साहिर लुधियानवी -आओ कोई ख्वाब बुनें
Posted in loksangharsha, tagged साहिर लुधियानवी -आओ कोई ख्वाब बुनें, loksangharsha, suman on जुलाई 26, 2015| Leave a Comment »
कांति मोहन सोज़ -लाल है परचम,नीचे हंसिया
Posted in loksangharsha, tagged कांति मोहन सोज़ -लाल है परचम, नीचे हंसिया, loksangharsha, suman on जुलाई 26, 2015| Leave a Comment »
अज़ीमुल्ला खान ——1857का राष्ट्र गीत
Posted in loksangharsha, tagged अज़ीमुल्ला खान ------1857का राष्ट्र गीत, loksangharsha, suman on जुलाई 26, 2015| 1 Comment »
सूर्य कान्त त्रिपाठी ‘निराला’ -अमीरों की हवेली
Posted in loksangharsha, tagged Captureसूर्य कान्त त्रिपाठी 'निराला' अमीरों की हवेली, loksangharsha, suman on जुलाई 26, 2015| Leave a Comment »
तालिबानी हिन्दू बनाने की मुहिम-12
Posted in loksangharsha, tagged अनिल राजिमवाले, अन्ना, suman on सितम्बर 21, 2014| Leave a Comment »
मैं कृषि मंडी से बाहर हो गया, घर लौटने का मन नहीं था, संघ के लोगों द्वारा खाना फेंकने के बाद से मैं घर जाने से कतराता था, भीलवाड़ा में ही इधर-उधर भटकना, कहीं खाना, कहीं सोना, कुछ भी ठिकाना न था, अनिश्चय, अनिर्णय और अन्यमनस्क स्थिति के चलते मेरा अध्ययन प्रभावित हो गया, मैंने माणिक्यलाल वर्मा राजकीय महाविद्यालय में प्रथम वर्ष कला संकाय में प्रवेश तो लिया और साल भर छात्र लीडरशिप भी की, लेकिन एग्जाम नहीं दे पाया ,घर पर पिताजी को जब इसकी खबर मिली तो उनकी डाँट पड़ी ,कुछ गालियाँ भी, बस गनीमत यह थी कि पिटाई नहीं हुई, लेकिन इससे पढ़ाई बाधित हो गई, बाद का सारा अध्ययन स्वयंपाठी के रूप में ही संपन्न हुआ। उन विकट दिनों में मुझे अपने छोटे से कमरे में शरण दी, करेड़ा क्षेत्र की नारेली ग्राम पंचायत के रामपुरिया गाँव के निवासी दौलत राज नागोड़ा ने, वे भी आरएसएस के स्वयंसेवक थे, ऑफिसर्स ट्रेनिंग प्राप्त, संघ कार्यालय पर भी रह चुके थे, बदनोर में रहते हुए उन्होंने संघ के आदर्श विद्या मंदिर में आचार्य के नाते भी अपनी सेवाएँ दी थीं, वे बहुत ही सक्रिय स्वयंसेवक माने जाते थे, उनका बौद्धिक भी बेहद सधा हुआ होता था, एक शिक्षक की तरह वे बोलते जो समझने में आसान होता, संघ के गीत भी उन्हें खूब कंठस्थ थे, जिन्हें वे विभिन्न मौकों पर गाते थे ,उनमे लोगो को मोबलाइज करने की अदभुत क्षमता है। उन्हें भी संघ कार्य के दौरान कई प्रकार के कटु अनुभव हुए, भेदभाव और अस्पृश्यता की कड़वी अनुभूतियाँ। एक बार उन्होंने महाराजा अजमीड आदर्श विद्या मंदिर में आयोजित आरएसएस के ऑफिसर्स ट्रेनिंग कैंप (ओटीसी) के बौद्धिक सत्र में जाति उन्मूलन में संघ की भूमिका से सम्बंधित सवाल उठा दिया, जिसका कोई जवाब संघ के पदाधिकारियों से देते नहीं बना ,तत्कालीन प्रचारक महोदय ने दौलत जी को कुछ उल्टा सीधा जवाब दे दिया, मामला इतना तूल पकड़ गया कि मारपीट की नौबत आ गई, जिला प्रचारक और दौलत राज नागोड़ा गुत्थमगुत्था हो गए, दौलत जी भी ठहरे ठेठ देहाती संघर्षशील व्यक्ति। हार मानने का तो सवाल ही नहीं उठता था, उन्होंने संघ के सैंकड़ों कार्यकर्ताओं की मौजूदगी में प्रचारक जी के बाल नोच लिए और उस दिन से आरएसएस से किनारा भी कर लिया, बाद में उन्होंने एक अम्बेडकर बचत समूह बनाकर दलितों को संगठित करना शुरू किया, यह काम उन्होंने निरंतर जारी रखा, दलित आदिवासी युवाओं को कानूनी प्रशिक्षण देने और उन्हें फूले, कबीर, अम्बेडकर के मिशन से जोड़ने में लगे रहे और आज भी लगे हुए हंै। संघ से लड़ाई होने के बाद दौलत राज जी गाडरीखेड़ा में एक कमरा किराये पर ले कर इलेक्ट्रीशियन ट्रेड में आईटीआई करने लगे इस सरकारी संस्थान में भी संघियों की भरमार थी, उनको वहाँ भी उनसे संघर्ष करना पड़ा, बहुत ही कठिन परिस्थितियों में उन्होंने उच्च शिक्षा हासिल की, पान की केबिन लगाकर उन्होंने अपनी वकालत की पढ़ाई पूरी की। फिर प्रैक्टिस शुरू की, वहाँ भी गरीबों के मुद्दे उठाये, उनकी पैरवी की, आज भी पीडि़तों के लिए उनकी प्रतिबद्धता जग जाहिर है तो ऐसे समर्पित साथी के साथ उस छोटे से कमरे में मैं कई दिनों तक टिका, वहीं से एक अखबार निकालने की धुन मुझ पर सवार हुई, मैं अभिव्यक्ति का एक जरिया चाहता था, जिससे संघ और उसकी विचार धारा के दोगलेपन को उजागर कर सकूँ, अंततः वह जरिया पा लिया ‘दहकते अंगारे’ नामक पाक्षिक समाचार पत्र प्रारंभ करके, दौलत राज नागोड़ा तब से आज तक साथ बने हुए हैं, कई बार उन्मादी हुड़दंगी लोगों ने हमारे खिलाफ फतवे जारी किए, हमारी निंदा की गयी ,हमें अलग थलग करने के प्रयास किये गए, मगर संघी हमें दलित, पीडि़त, वंचित जनता से अलग कर पाने में सफल नहीं हुए। दलितों पीडि़तो और हाशिये के तबकों के लिए हमारी आवाज बंद होने के बजाए बुलंद ही हुई। आज दौलत राज नागोड़ा एक स्थापित वकील है, तीन बार वे आसींद बार एसोसिएशन के निर्विरोध अध्यक्ष रह चुके हैं और राजस्थान के दलित मूवमेंट का जाना पहचाना नाम है। इन दिनों वे दलित आदिवासी एवं घुमंतू अधिकार अभियान राजस्थान (डगर) के प्रदेश संयोजक भी हंै और वंचितों के लिए पूरी तरह से समर्पित रहते हैं।
जिन्दगी में दोस्त तो बहुत मिले और मिलते रहते हैं, आगे भी मिलेंगे, पर विगत 25 वर्षों से दौलत जी के साथ जो वैचारिक और मिशनरी दोस्ती बनी रही, उसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ और अक्सर कहता हूँ कि जीवन में दोस्त हो तो दौलत राज जैसा।
बदलाव नहीं बदला लेने की इच्छा
मैं किसी भी तरीके से प्रतिशोध लेना चाहता था, इसके लिए किसी से भी हाथ मिलाने को तैयार था, जैसा कि नीति कहती है कि दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है, इसलिए मैं उन तमाम लोगांे से मिलने लगा जिनको आरएसएस के लोग बुरे लोग बताते थे, अब मेरे परिचय क्षेत्र में सेकुलर विधर्मी सब आने लगे, मैं आगे होकर उनसे परिचय बढ़ा रहा था, संघ में रहते हुए मेरे गिनती के मुसलमान ही परिचित थे, चूँकि मैं उन दिनों हास्य व्यंग्य के नाम पर घटिया किस्म की फूहड़ राजस्थानी कविताएँ लिखता था और उन्हें सुनाने के लिए कवि सम्मेलनों में जाता था, इसलिए जमालुद्दीन जौहर, अजीज जख्मी और एक मौलाना नौशाद आलम नामक मुसलमान मेरे जान पहचान के थे, एक और भी व्यक्ति थे वे ट्रेड यूनियन लीडर थे अलाउद्दीन बेदिल, वो भी कभी कभार शेरो शायरी करते थे, इसलिए मुलाकातें हो जाया करती थीं, इनमें से नौशाद आलम मेरी उम्र के ही थे और कविता कहानी के अलावा भी उनसे बातें होती थीं, इसलिए मैंने उनसे दोस्ती बनाने का निश्चय किया और उनसे मिलने निकल पड़ा। नौशाद आलम मूलतः बिहारी थे और मेरे निकटवर्ती गाँव भगवानपुरा में एक मस्जिद में इमामत भी करते थे और मदरसे में पढ़ाते भी थें, ग़ज़लें लिखना तो उनका शौक मात्र था, बाद के दिनों में वे गुलनगरी भीलवाड़ा की मस्जिद के इमाम बन गए, यह उन दिनों की बात है जब कि दूसरी कारसेवा भी हो चुकी थी और बाबरी मस्जिद तोड़ी जा चुकी थी, मुस्लिम मानस गुस्सा था, विशेषकर संघ परिवार के प्रति मुस्लिम युवाओं में भयंकर गुस्सा दिखलाई पड़ता था, तो उस तरह के गरमागरम माहौल में मैं एक दिन मौलाना नौशाद आलम से मिलने पहुँचा, थोड़ी झिझक तो थी, आज मैं एक मस्जिद से लगे मदरसे में बैठा था, इन मस्जिदों के तहखानों में असलहे छिपाकर रखे जाने की बातें संघ में रहते बहुत सुनी थी, इसलिए थोड़ा सा भय भी था पर जब आ ही गया तो बात करके ही वापसी होनी थी, इसलिए रुका रहा, मदरसे से फ्री होकर मौलाना साहब नमाज पढ़ने चले गए, लौटे तो बातचीत का सिलसिला चला, घंटों तक हुई गुफ्तगू का कुल जमा सार सिर्फ यह था कि हमारा दुश्मन एक ही है इसलिए मिलकर उसकी खिलाफत की जाए, सहमति बनी एक संगठन दलित युवाओं का और एक मुस्लिम यूथ का बनाने की। मैंने दलित एक्शन फोर्स बनाई जिससे दलित नौजवान जुड़ने थे और मौलाना नौशाद आलम ने मुसलमान युवाओं के लिए हैदर -ए-कर्रार इस्लामिक सेवक संघ बनाया, मकसद था आरएसएस की कारगुजारियों का पर्दाफाश करना और जरूरत पड़ने पर सीधी कार्यवाही करके जवाब देना, इन संगठनों के बारे में जगह जगह चर्चा शुरू की गई, लोग जुड़ने भी लगे लेकिन हम कुछ भी कर पाते इससे पहले ही खुफिया एजेंसियांे को इन दोनों संगठनों की भनक लग गई और सीआईडी तथा आईबी के अधिकारी और स्थानीय पुलिस हमारे पीछे पड़ गई, हमारे द्वारा नव स्थापित दोनों ही संगठन अपने जन्म के साथ ही मर गए, हम कुछ भी नहीं कर पाए लेकिन इस असफलता ने मुझे निराश और हताश नहीं किया, मेरा गुस्सा जरूर और बढ़ गया, मैंने हार मानने की जगह आरएसएस को चिढ़ाने के लिए धर्म परिवर्तन कर लेने की तरकीब सोची।
लोकसंघर्ष पत्रिका -सितम्बर अंक में प्रकाशित
आतंकवाद का सच -2
Posted in loksangharsha, tagged आतंकवाद का सच, loksangharsha, suman on जुलाई 20, 2013| Leave a Comment »
लोकसंघर्ष पत्रिका जून 2013 का मुख्य पृष्ठ
Posted in loksangharsha, tagged जून 2013, मुख्य पृष्ठ, लोकसंघर्ष पत्रिका, suman on जून 10, 2013| Leave a Comment »
श्रीमान जी,
पाठकों से अनुरोध है अपना वार्षिक सदस्यता शुल्क सौ रुपये जमा करने का कष्ट करें।
सादर
रणधीर सिंह सुमन
प्रबंध संपादक
लोकसंघर्ष पत्रिका
मो .09450195427
लो क सं घ र्ष !
2012 in review
Posted in मानवाधिकार, लोकसंघर्ष सुमन, हिन्दी ब्लॉग, loksangharsha, tagged loksangharsha, manavadhikar, suman on दिसम्बर 31, 2012| 1 Comment »
The WordPress.com stats helper monkeys prepared a 2012 annual report for this blog.
Here’s an excerpt:
4,329 films were submitted to the 2012 Cannes Film Festival. This blog had 15,000 views in 2012. If each view were a film, this blog would power 3 Film Festivals
अस्मिता ,वर्चस्व और अमेरिकी जेल व्यवस्था
Posted in loksangharsha, tagged अमेरिकी जेल, अस्मिता, जगदीश्वर चतुर्वेदी, न्यायव्यवस्था, वर्चस्व, suman on सितम्बर 23, 2012| Leave a Comment »
अमेरिका ने अपने देश में इस तरह की संस्कृति निर्मित की है जिसमें पुलिस और न्याय की हिंसा सामान्य और वैध लगती है। जिस तरह हमारे देश में आंदोलनकारियों पर लाठीचार्ज करना आमलोगों को वैध लगता है वैसे ही अमेरिकी समाज में भी पुलिस की हिंसा और आतंक को मीडिया प्रचार ने वैध बनाया है। सामान्य नागरिकों पर की गई पुलिस हिंसा को आजकल अमेरिका में लोग नॉर्मल एक्ट की तरह लेते हैं। एक जमाना था कि साधारण सी पुलिस कार्रवाई पर सारा देश हुंकार भर उठता था लेकिन लेकिन इन दिनों ऐसा कुछ भी नहीं होता।
प्रसिद्ध मार्क्सवादी मीडिया सिद्धांतकार बौद्रिलार्द के अनुसार रीगनयुगीन अमेरिकी परिप्रेक्ष्य में सीनिरियो या परिदृश्य महत्वपूर्ण है। अब सब कुछ सीनिरियो के कमिटमेंट और प्रस्तुति पर निर्भर है। अपराध हुआ है फोटो दिखाओ,कैमरे में कैद करो,टीवी पर प्रसारित करो। किसी व्यक्ति का गिरफ्तार होना और फिर उसका टीवी फोटो या सीन में प्रसारण ही महत्वपूर्ण मान लिया गया है। सीनिरियो के लिए कमिटमेंट असल में रीगन युग में जन्म लेता है। रीगन स्वयं फिल्म अभिनेता थे और कैलीफोर्निया के थे। उनके राष्ट्रपति बनने के बाद मीडिया में मूलगामी परिवर्तन यह आया कि सीनिरियो की प्रस्तुति महत्वपूर्ण मान ली गयी। खासकर विज्ञापन से लेकर टीवी तक सीनिरियो का महत्व बढ़ गया। विज्ञापन और टीवी दृश्यों के जरिए ही इमेजों के निर्माण,विध्वंस ,नियंत्रण और मेनीपुलेशन की पूरी दुनिया में बाढ़ आ गयी।
रीगन ने अपनी फिल्मी इमेज को अमेरिका की फिल्मी इमेज के निर्माण में सफलता के साथ इस्तेमाल किया। सामान्य जिंदगी जीने के लिए ब्लैकमेलिंग का मूलभूत गुण के रूप में इस्तेमाल किया। मीडिया प्रस्तुतियों में कहा गया सामान्य जिंदगी जीना चाहते हो तो ब्लैकमेलिंग करो। सहजजीना चाहते हो तो व्यक्तिगत हितों को तरजीह दो सामाजिक हितों की उपेक्षा करो।
अमेरिका आज जिस संकट में घिरा है उसका समाधान तब तक संभव नहीं लगता तब वह सामूहिक समाधान की धारणा को महत्ता नहीं देता। रीगनशासन ने इमेज को महान बनाया। कमाते हो तो अच्छे हो,इसमें यह महत्वहीन हो गया कि कैसे कमाते हो। अब प्रिफॉर्मेस पर जोर था। विज्ञापन ने लुक को महत्ता दी। इमेज प्रचारित रहे, चाहे जो करो। लुक के आधार निजी और सामाजिक बीमारियों को भी छिपा लिया गया। रीगन को कैंसर था लेकिन कैंसर जैसी बीमारी को भी लुक की ओट में छिपा लिया गया। यानी नई रणनीति में बीमारी भी लुक का हिस्सा बना दी गयी।
अब राजनीतिक खामियां या व्वस्था की खामियां या बेबकूफियां महत्वहीन हो गयीं, महत्वपूर्ण थी तो बस अमेरिका की इमेज। सुंदर,चमकीले,साफ-सुथरे,न्यायप्रिय,बहुलतावादी अमेरिका की इमेज की अहर्निश वर्षा ने अमेरिकी समाज के स्याह इलाकों को सामने आने ही नहीं दिया। इन स्याह इलाकों में से एक है अमेरिकी जेलप्रणाली।
अमेरिका की रीगनयुग से मीडिया में जिस तरह की इमेज वर्षा होती रही है उसके आधार पर अमेरिकी समाज और उसके तानेबाने को समझना मुश्किल है। मीडिया निर्मित इमेजों के आधार पर अमेरिका के राजनीतिक सत्य को नहीं जान सकते। यही हाल इन दिनों भारत का है। हमारी समस्त सरकारें खास किस्म के स्थायी शासन का भरोसा देती रही हैं। राजनीतिक स्थायित्व के ऊपर जोर देने के कारण भूलों, भ्रष्टाचार और असफलताओं को सरकार के लिए विध्वंसक नहीं माना जाता। अब भूलों और गलतनीतियों के कारण सरकारों का पतन नहीं होता। अब नेताओं पर जनता गर्व नहीं करती और नेता भी अपने फैसलों पर गर्व नहीं करते। यह वह परिदृश्य है जिसे रीगनयुग ने निर्मित किया और इस पैराडाइम में हम अभी भी जी रहे हैं।
अमेरिकी समाज में पुलिस और न्यायपालिका के खिलाफ नागरिकों के प्रतिवाद को मीडिया से एकदम धो-पोंछकर साफ कर दिया गया है। नई सूचना तकनीक के रूप में इंटरनेट और मोबाइल के आने के बाद से समूचे समाज की नजरदारी बढ़ा दी गयी है। अमेरिकी शासक जितना अपने देश के बाहर आतंकित और असुरक्षित हैं अपने देश में भी उतने ही आतंकित और असुरक्षित हैं। बाहर वे सीधे सेना,सूचना और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं और बहुराष्ट्रीय निगमों के जरिए हमला करते हैं देश में पुलिस नजरदारी और गिरफ्तारी के जरिए नागरिक अधिकारों पर हमले करते हैं।
अमेरिकी समाज में कारपोरेट घरानों की लूट और मनमानी के खिलाफ प्रतिवाद संभव नहीं है साथ ही पुलिस हिंसाचार और अत्याचार के विरोध में भी प्रतिवाद करना संभव नहीं है।आंकड़े बताते हैं कि अमेरिका में जेलबंदियों में आधे के करीब लोग नशीले पदार्थो की तस्करी या अवैध सेवन संबंधी मामलों में गिरफ्तार किए गए हैं। ” नेशनल ड्रग कंट्रोल पॉलिसी” संगठन के द्वारा जारी सन् 2009 की रिपोर्ट में अमेरिका के 10 महानगरों में किए गए एक सर्वे में कहा गया है कि इन शहरों में गिरफ्तार किए गए 87 फीसदी लोग अवैध नशीले पदार्थों के सेवन के शिकार पाए गए हैं। तरूणों में वैध नशीली दवाओं का प्रयोग अच्छी-खासी मात्रा में होता है।
सवाल यह उठता है कि अमेरिकी समाज में अवैध नशीले पदार्थों के सेवन का इतना व्यापक सामाजिक आधार क्यों और कैसे बना ? असल में ,शीतयुद्धीय राजनीति के तहत रीगन प्रशासन ने ड्रगवार के नाम से जो नीति अख्तियार की उसने अमेरिका के बाहर और अंदर आमलोगों को नशीले पदार्थों की लत का शिकार बनाया और यह काम बड़े सुनियोजित ढ़ंग से किया गया। ड्रगवार से लैटिन अमेरिका के साथ अमेरिका के अंदर का युवावर्ग भी बड़ी संख्या में प्रभावित हुआ।
ड्रगवार के कारण नशे की लत और अपराधकर्म में तेजी से इजाफा। विदेशों में ड्रगवार को माफिया गिरोहों, भाड़े के सैनिकों और अमेरिकी सैन्यहितों के विस्तार के साथ लागू किया गया और देश के अंदर युवाओं में नशे की लत,पॉपकल्चर,पॉप म्यूजिक और अपराधकर्म का त्रिकोणीय फार्मूला लागू किया गया इसके नियंत्रण के लिए बड़े पैमाने पुलिस प्रणाली और जेल व्यवस्था का विस्तार किया गया। जनसंख्या के एक बड़े हिस्से को जेलों में बंद रखकर जहां एक ओर गुलामी को बढ़ावा दिया गया वहीं दूसरी ओर ड्रगवार के जरिए जन नियंत्रण के लक्ष्य को भी हासिल किया गया। नॉम चोम्स्की ने “डिटरिंग डेमोक्रेसी” नामक किताब में लिखा है कि नशीले पदार्थों से जुड़े अपराधों के कारण संगठित अपराधकर्म को बढ़ावा मिला। यह माना जाता है कि अमेरिका की करव्यवस्था में आधे से ज्यादा कर तो ड्र्ग ट्रेड से ही आता है। नशीले पदार्थ वैध बिकें या अवैध बिकें वे असल में नशीले पदार्थ ही हैं। उल्लेखनीय है अमेरिका में तम्बाकू वैध है , मरिजुआना वैध नहीं है।क्योंकि मरिजुआना को कहीं पर भी पैदा किया जा सकता है। मरिजुआना की बिक्री करना मुश्किल है। जबकि तम्बाकू के साथ ऐसा नहीं है। यही वजह है अमेरिका की 60 फीसदी से ज्यादा आबादी मरीजुआना पीती है.इधर के तीन दशकों में अमेरिकी युवाओं में मरिजुआना को छोड़कर अन्य ज्यादा नशीले पदार्थों के सेवन की ओर उन्मुख हुए हैं। इसके कारण समाज में अनेक किस्म की गंभीर बीमारियां भी फैली हैं। तम्बाकू और शराब के सेवन से मरने वाले युवाओं की संख्या का अनुपात जेलों में बंद कैदियों की संख्या से भी ज्यादा है। नशेड़ियों को सजा और जुर्माने के जरिए भी प्रशासन को बड़ी मात्रा में धन मिलता है।
चोम्स्की ने लिखा है कि सोवियत संघ के पतन के बाद अमेरिकी विश्व नीति में तीसरी दुनिया के देशों के खिलाफ हिंसाचार और जोर-जबर्दस्ती प्रभुत्व में लेने का मनोभाव व्यक्त हुआ है। घरेलू स्तर पर आम जनता को विभिन्न तरीकों से नियंत्रण में रखने और धमकाने के साथ तुरंत गिरफ्तार करके सजा दिलाने के मैथड का जमकर दुरूपयोग किया गया है।
बंदीजनों को अमेरिकी समाज में सामान्य नागरिक से भिन्न नजर से देखा जाता है। सामान्य नागरिक को अमेरिकी प्रशासन ने “हम” और बंदीजन को “तुम” की कोटि में रखकर विभाजित किया है। इसमें “हम” के पास नागरिक अधिकार हैं,”तुम” के पास नागरिक अधिकार नहीं हैं। “तुम” केटेगरी के लोगों को नियंत्रण में रखने लिए अमेरिका के बजट का बहुत बड़ा हिस्सा कानून-व्यवस्था के ढाँचे पर खर्च होता है। यही स्थिति अमेरिका के बाहर है अमेरिका ने पाकिस्तान इराक,अफगानिस्तान, लीबिया आदि में विकास पर कम और सैन्य साजो -सामान खरीदने के लिए सहायता ज्यादा दी है।
अमेरिका ने ड्रगवार के बहाने देश के बाहर पराए मुल्कों यानी लैटिन अमेरिकी देशों की जनता की सेना से ठुकाई की, देश की जनता की पुलिस से ठुकाई करायी। देश के बाहर प्रतिक्रांतिकारी ताकतों को संगठित किया और देश में माफिया गिरोहों को संगठित किया।
कैदी नागरिक होता है। कैदी को अ-नागरिक मानकर किया गया बर्ताब सीधे मानवाधिकार का उल्लंघन है। अमेरिकी समाज में किसी भी अपराध में सजा पाए व्यक्ति को मतदान देने के नागरिक अधिकार से वंचित कर दिया जाता है और इस कारण लाखों अमेरिकी बाशिंदे नागरिक अधिकारों से वंचित हैं और दोयमदर्जे के नागरिक की हैसियत से जी रहे हैं। कोई व्यक्ति अपराध करने के कारण जब नागरिक अधिकार से वंचित किया जाता है तो यह उसके लिए दोहरी सजा है और यह सजा फांसी की सजा से भी बदतर है। नागरिक अधिकारों को किसी बहाने नहीं छीना जा सकता। इस समूचे पहलू को अस्मिता और मानवाधिकार परिप्रेक्ष्य में समझें तो बेहतर ढ़ंग से देख पाएंगे।
मैं क्या हूँ यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि मैं समाज में जिंदा हूँ और एक मनुष्य के रूप में जब मेरी उपस्थिति है तो यह मेरी मनुष्य के रूप में उपस्थिति है और मनुष्य के अलावा जितनी भी अस्मिताएं या पहचान के रूप है वे अप्रासंगिक हैं। व्यक्ति की पहचान को स्थान के आधार पर तय करना ठीक नहीं है। मैं घर पर रहूँ या जेल में। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।इससे मेरी पहचान तय नहीं हो सकती। ज्योंही आप किसी व्यक्ति की पहचान को उसके जेल में रहने के कारण निर्धारित करते हैं आप पाते हैं कि इस तरह संबंधित व्यक्ति की ही नहीं उसके परिवारीजनों,नाते-रिश्तेदारों और जाति या समुदाय या धार्मिक समूह की भीपहचान तय करने लगते हैं। अतः स्थान विशेष के आधार पर व्यक्ति और समुदाय की पहचान निर्धारित नहीं की जानी चाहिए। जेल के आधार पर जब किसी व्यक्ति की पहचान तय करते हैं तो उस व्यक्ति के अंदर स्थायी तौर पर अपराधबोध और कुंठा भर देते हैं। जेलबंदी का जिस पर लेबिल लगा होता है उसे हमेशा दागी अपराधी के रूप में देखा जाता है।
सवाल यह है कि अस्मिता के जब विभिन्न रूप बदलते हैं तो उनको अवस्था विशेष से जोड़कर देखा जाता है। मसलन् एक अविवाहित लड़की की अस्मिता विवाह करते ही बदलती है,वह विवाहिता कहलाने लगती है,माँ बनते ही वह माँ की अस्मिता हासिल कर लेती है। एक ही लड़की एक ही साथ लड़की,पत्नी,माँ आदि की अस्मिताओं से गुजरती है। यानी व्यक्ति की अस्मिता उसकी अवस्था के अनुसार बदलती रहती है,ऐसी अवस्था में एक जेलबंदी की अस्मिता को स्थायी तौर पर दागी अपराधी के रूप में देखना सही नहीं है। वह जब तक जेल में था वह अपराधी था। लेकिन जब वह सजा काट चुका वह अपराधी नहीं रहा।
अमेरिका में अपराधी व्यक्ति पर लगा दाग उसका,उसके परिवार का और उसके समुदाय का कभी पीछा नहीं छोड़ता और इस तरह व्यक्ति अहर्निश अपराधबोध से ग्रस्त कुंठा और हताशा में जीता है। यह अपराध और अपराधी के प्रति साम्राज्यवादी नजरिया है। जरूरत है इस नजरिए को बदलने की।
मैं अभी प्रोफेसर हूँ और नागरिक भी हूँ। बुनियादी पहचान मेरी नागरिक की है।नागरिक की पहचान के परिप्रेक्ष्य में ही मेरी पहचान के बाकी रूपों को परिभाषित किया जाना चाहिए। लेकिन 60 साल बाद नौकरी से अवकाश ग्रहण कर लूँगा तब में प्रोफेसर नहीं रहूँगा। मेरी प्रोफेसर की पहचान कक्षा में उपस्थिति के समय प्रमुख होगी और नागरिक की पहचान गौण होगी। लेकिन कक्षा के बाहर में नागरिक हूँ, पिता हूँ,चतुर्वेदी हूँ,पति हूँ आदि। इनमें से पहचान का प्रत्येक रूप किसी न किसी सामाजिक अवस्था से जुड़ा है।मैंने ज्योतिष से आचार्य भी किया है तो मैं जब किसी का फलादेश बता रहा होता हूं तो मेरी पहचान एक ज्योतिषी के रूप में होगी न कि एक प्रोफेसर के रूप में। इसी तरह एक कैदी जब तक जेल में है वह कैदी है साथ में नागरिक भी है।
आधुनिक युग में नागरिक अस्मिता के बिना अन्य किसी पहचान का कोई मूल्य नहीं है।आधुनिक समाज में नागरिक होना ही आधुनिक होना है। नागरिक के अधिकारों,मान्यताओं और मूल्यों की रोशनी में हमें पहचान के सभी रूपों को परिभाषित करना चाहिए। नागरिक की पहचान सभी किस्म की अस्मिता या पहचान का मूलाधार है। पहचान के जितने भी रूप हैं वे नागरिक की पहचान के साथ मिलकर ही अपनी स्थिति निर्धारित करते हैं। नागरिक नहीं तो आधुनिक नहीं।अमेरिकी न्याय की यह आयरनी है कि नागरिक को जब किसी अपराध में सजा मिलती है तो उसको मतदान के अधिकार से वंचित कर दिया जाता है।
आमतौर पर संकीर्णतावादी और फंडामेंटलिस्ट विचारधारा के लोग यह मांग करते देखे जाते हैं कि अपराधियों को कठोर से कठोर सजा दी जाय। इन लोगों का मानना है कठोर सजा देने से अपराधी फिर से अपराध नहीं करता। लेकिन यह धारणा व्यवहार में सच साबित नहीं हुई है। अमेरिका में कठोर सजाएं सुनाए जाने के बाद भी अपराधों में गिरावट नहीं आई है।इस तरह के विचारक आमतौर पर अपराध को नैतिकता से जोड़कर देखते हैं और बढ़ते अपराधों को नैतिक ह्रास का लक्षण बताते हैं। सच यह नहीं है। बल्कि ऐसा करके वे नैतिकता के क्षय का भय पैदा करते हैं और कठोरतम दण्ड के प्रावधान की मांग करते हैं। अपराधी के लिए कठोर दंड़ और नैतिकता के क्षय का भय एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ये दोनों कंजरवेटिव और फासिस्ट विचारधाराओं से जुड़ा नजरिया है।
कठोर दंड की मांग अंततःराजनीति में अधिनायकवाद को जन्म देती है।अमेरिकी सत्ता की मनमानी से आज सारी दुनिया परेशान है।वहां सत्ता पर कारपोरेट तानाशाही का कब्जा है। अपराध और कठोरदंड से भय के कारण लोकतंत्र बाधित हुआ है और सर्वसत्तावादी विचारधाराएं मजबूत हुई हैं। कारपोरेट अधिनायकवाद का मार्ग प्रशस्त हुआ है । ये लोग आए दिन न्याय के अधिनायकवादी समाधान सुझाते रहते हैं और इसके बहाने हाशिए के लोगों पर वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश करते हैं।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो अमेरिकी जेल प्रणाली 200साल पुरानी है। इसमें दो तरह के प्रयोग किए किए गए। पहला प्रयोग गरीबों को दंडित करने के लिहाज से कारागार बनाकर आरंभ किया गया। 18वीं शताब्दी के अंतिम दो दशकों में यह प्रणाली आरंभ की गयी।आरंभ में अस्थायी बंदीघर के रूप में जेल का इस्तेमाल किया जाता था।जब तक कोई बंदी मुकदमे से बरी नहीं हो जाता उसे बंदी कराए रखने के लिए जेलों का इस्तेमाल करते थे और उसे बंदी रखते थे।इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि अमीरलोग तो जुर्माना देकर छूट जाते थे लेकिन गरीबों को जुर्माना न भरने के कारण जेलों में बंद रखा जाता था।गरीबों को जेलों में तरह-तरह की यातनाएं दी जाती थीं और अनेक मामलों में सार्वजनिक तौर पर दंडित किया जाता था।यह पूरी प्रणाली अनेक उपनिवेशों में भी लागू की गयी।उनदिनों सार्वजनिक तौर पर दंडित करने का प्रावधान था।
पूंजीवाद के आगमन के समय बड़े पैमाने पर समूचे यूरोप में चोरियां हो रही थीं, छोटे छोटे चोरों को सुधारने के लिहाज से 1557 से बड़े पैमाने पर खाली घरों में सुधारघर बनाए गए और चोरों को इनमें बंदी बनाकर रखा जाता था। खासकर ब्रिटेन में इस तरह के सुधारघर थे।इनमें बंद लोगों से जबरिया श्रम कराया जाता था और यह प्रयोग काफी सफल रहा।कालांतर में इस तरह के संस्थान समूचे ब्रिटेन और यूरोप में फैल गए।लेकिन उस जमाने में सुधारघरों मे जो बंदी थे वे छोटे-मोटे अपराधों में बंदी हुआ करते थे और ये गरीब लोग थे।इन बंदियों को यातनाएं दी जाती थीं,दण्डित किया जाता था और अन्यत्र भी भेज दिया जाता था। इस तरह के बंदीघर या सुधारघर का विचार सबसे पहले इंग्लिश समाजसुधारक जॉन हार्वर्ड के दिमाग में आया और इस तरह के सुधारघर सबसे पहले ब्रिटिश उपनिवेश अमेरिका में बनाए गए।बाद में ब्रिटेन में बने।
उस जमाने में शारीरिक दंड़ और फांसी दोनों का ही विलियम पेन ने जमकर विरोध किया और कहा कि इन दोनों किस्म के दण्ड देने से बेहतर है लंबी सजाएं देना।अमेरिकी क्रांति के दौरान भी जेलों में शारीरिक यातनाएं देने का जमकर विरोध हुआ और ब्रिटिश औपनिवेशिक न्याय प्रणाली की जमकर आलोचना की गयी। इस तरह की आलोचना करने वालों में डा. बेंजामिन रश का नाम सबसे ऊपर आता है।रश साहब पेनसिलवेनिया में सर्जन थे और अमेरिकी स्वाधीन क्रांति के अमर जनगायक भी थे। उनके लिखे दो चर्चित पर्चे हैं। इन दोनों पर्चों ने अमेरिका में जेलसुधार की प्रक्रिया को जन्मदिया और विगत 200सालों में वह विभिन्न पड़ावों से गुजरती हुई मौजूदा प्रणाली तक पहुंची है।बाद में कैदी को जेल में पृथक कमरे में बंद रखने,एक निश्चित स्थान तक आने-जाने, उस पर नजर रखने के प्रावधान किए गए।
उस समय जेलप्रणाली का प्रधान लक्ष्य था कैदी के लिए एकांत, श्रम, और अहर्निश नजरदारी। ऐतिहासिक नजरिए से देखें तो अमेरिकी जेलप्रणाली ने आरंभ में जो मॉडल अपनाया उसका लक्ष्य था वर्गीय नियंत्रण और नस्लीय नियंत्रण। सन् 1814 के न्यूयार्क जेल के रिकॉर्ड बताते हैं कि जेल में बंद 29फीसदी लोग काले थे। सन् 1833 की रिपोर्ट बताती है कि जिन राज्यों में जनसंख्या में 1नीग्रो और 30गोरेलोग रहते थे,वहीं पर इन राज्यों की जेलों में 1काला और 4गौरवर्ण के कैदी बंद थे।दक्षिणी राज्यों में 19वीं सदी में जेलों में बंद कैदियों की संख्या 75प्रतिशत के करीब थी। इन राज्यों में आमतौर पर कैदियों को निजी लोगों को ठेके पर दे दिया जाता था।इसके कारण दक्षिणी राज्यों में खुलेआम गुलामप्रथा फलीफूली। इसे ठेकेदारी प्रथा भी कहते हैं।अमेरिका के दक्षिणी राज्यों में काले लोगों के खिलाफ जिस नग्नतम रूप में अमानवीय व्यवहार किया जाता था वह उस दौर में एक मिसाल माना जाता है।मसलन् सामान्य से अपराध के मामले में उस जमाने में पुलिस वाला नीग्रो को पकड़कर ले जाता था और फिर उसे लंबी सजा देकर बंद कर दिया जाता था, इस तरह नीग्रो जाति पर बर्बर जुल्म ढाए गए उनको गुलामी के लिए मजबूर किया गया। यही वजह है अमेरिका के दक्षिणी राज्यों में गुलामगिरी के खिलाफ सबसे तेज प्रतिक्रिया हुई। अमेरिकी जेलों में बंद कैदियों को सुनियोजित ढ़ंग से नशे की लत डाली जाती थी। उनको कोकीन,हेरोइन,अफीम आदि सप्लाई दी जाती थी। इस दुष्परिणाम यह होता था कि वे जब जेलों से बाहर निकलते थे तो नशे के आदी हो चुके होते थे और बाहर निकलकर फिर से अपराधकर्म में लिप्त हो जाते थे और फिर से लौटकर जेल में पहुँच जाते थे।
अमेरिकी जेलप्रणाली में दूसरा बड़ा प्रयोग 1929-30 की मंदी के समय किया गया। इस प्रयोग के दौरान यह पाया गया कि दूसरे विश्वयुद्ध के समय जेलों में कैदी कम थे और उसके पहले और बाद में कैदियों की संख्या ज्यादा थी।
बीसवीं शताब्दी के आरंभ में अमेरिका में नशीले पदार्थों के सेवन और उससे जुड़े अपराधों की बाढ़ आती है। फलतः इसदौर की जेलप्रणाली में नशीले पदार्थों के सेवन को आधार बनाकर चिन्तन आरंभ हुआ। सन् 1929 के आसपास आई मंदी के दौर में देखा गया कि तेजी से बेकारी बढ़ी है और अपराध भी बढ़े हैं। अपराधों का सिलसिला बंद हुआ है द्वितीय विश्वयुद्ध आने के साथ।युद्ध के दौरान अपराध का आंकड़ा तेजी से कम हो जाता है। लेकिन ज्योंही युद्ध खत्म होता है अपराधियों और बेकारों की संख्या में तेजी से उछाल आता है।यही वह दौर है जब दंड की टिकाऊ प्रणाली की हिमायत की जाती है।बेकारीऔर मंदी के कारण अपराधियों की संख्या में आया उछाल आंकड़ों से भी पुष्ट होता है।
सन् 1999 में अमेरिकी जेलों में प्रति एक लाख लोगों में 476लोग बंदी थे।यह संख्या 1929 की मंदी में जेलों में बंद लोगों की संख्या से तीन गुना ज्यादा है।अमेरिकी फेडरल जेलों में बंद लोगों की संख्या 1999 से 2000 में 9फीसदी बढ़ी है ।यानी अमेरिका के समस्त राज्यों की जेलों में 1990 में प्रति एक लाख की आबादी में 458लोग जेल में बंद थे जो 2000 में बढ़कर 702 हो गए।
सन् 2000 में फेडरल जेलों में बीस लाख लोग जेलों में बंद थे।ताजा आंकड़े बताते हैं कि अमेरिका के विभिन्न राज्यों में जेलों में कैदियों की संख्या बेशुमार है। इन जेलों में जेलों की क्षमता से 33 फीसदी ज्यादा कैदी बंद हैं। जून 2003 में न्याय सांख्यिकी विभाग के द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार विगत 4सालों ( 1999-2003)में जेलों में बंदियों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है।जेलों में बंद कैदियों में औरतों की भी बड़ी तादाद है। इन चार सालों में कुल जेलबंदियों में 5.0प्रतिशत औरतों की संख्या बढ़ी है। खासकर टैक्सास और कैलीफोर्निया में बंदियों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है।जबकि 9राज्यों में बंदियों की संख्या में गिरावट दर्ज की गयी है। अमेरिकी जेलों में बंदी लोगों का प्रोफाइल बताता हैकि कैदियों में 60फीसदी अल्पसंख्यक हैं।इनकी उम्र 20साल से नीचे है।अमेरिका की समग्र जेल बंदी संख्या सन् 2003 में 6.9 मिलियन यानी 70लाख दर्ज की गयी थी ।
नई अमेरिकी जेल प्रणाली और न्याय प्रणाली कठोर दण्ड देने की नीति पर आधारित है और इसके अनुकूल परिणाम नहीं निकले हैं। बंदियों पर किए गए अनुसंधान बताते हैं बंदियों को कड़े दण्ड देने की नीति के कारण अपराधों में कोई कमी नहीं आई है। इसके विपरीत कठोर दण्ड देने से हिंसक और आक्रामक व्यवहार में इजाफा हुआ है। अपराधियों को कठोर देने से उनमें आक्रामकता बढ़ी है और वे और भी हिंसक हो उठे हैं। जेलों में इन बंदियों के आक्रामक व्यवहार का अन्य कैदियों पर भी बुरा असर देखा गया है। शोधकर्ताओं का मानना है कि अपराधी को दुरूस्त करने के लिए दण्ड देकर सुधारने की बजाय सामाजिक व्यवहार और सामाजिक शिक्षा से दुरूस्त करने पर जोर दिया जाना चाहिए। लेकिन अमेरिकी न्यायप्रणाली में इसके लिए कोई जगह ही नहीं है।
अमेरिका में बढ़े अपराध और जेलों में स्थान के अभाव के कारण अमेरिकी प्रशासन ने एक पद्धति इजाद की और उन अपराधों को रेखांकित किया है जिनमें कम से कम सजा दी जाए। कम सजा के प्रावधान का समाज पर क्या असर हुआ उसका मूल्यांकन करने के लिए एक कमीशन बनाया गया जिसने 20साल के अनुभवों को समेटते हुए अपनी रिपोर्ट दी। इस रिपोर्ट में बताया गया कि कम अवधि की सजा पाने वाले कैदियों की संख्या में 155फीसदी इजाफा हुआ है। 52 फीसदी जजों ने माना कि न्यूनतम सजा देने के मामले में विषमता देखी गयी है। 62फीसदी जजों ने कहा कि सभी किस्म के मामलों में न्यूनतम सजा देने का औसत प्रतिशत बहुत ज्यादा रहा है। ये राय सन् 2010 की है।
अमेरिका में एक फिनोमिना यह भी देखने में आया है कि समुदाय विशेष के लोगों को चिह्नित करके अपराधी की केटेगरी में बदनाम कर दिया जाता है। जिस व्यक्ति को एकबार जेल हो जाती है उसके बाद उसका परिवार और सामाजिक समुदाय हमेशा अपराधी के नाम से जाना जाता है फलतःएक तरह की सामूहिक यंत्रणा से संबंधित नागरिक को गुजरना पड़ता है।
मसलन, न्यूयार्क को ही लें,पूर्वी न्यूयार्क के इलाके में रहने वाले लोगों में अपराध एक कॉमन फिनोमिना बना दिया गया है। इन बस्तियों में ऐसे परिवार ज्यादा रहते हैं जिनका कोई न कोई सदस्य किसी न किसी समय जेल में रहा है या जाने वाला है। यह फिनोमिना अकेले न्यूयार्क शहर में ही नहीं है अन्य अमेरिकी शहरों में भी इस फिनोमिना को देख सकते हैं।
अमेरिका की समस्त जेलों ( संघ और केन्द्र की ) में आधे से ज्यादा बंदी काले लोग हैं। गोरे बंदियों की तुलना में काले बंदियों की संख्या सात गुना ज्यादा है। सन् 1996 तक के आंकड़ों के अनुसार अमेरिका की समग्र काली आबादी के 30फीसदी लड़के कभी न कभी जेल में बंद जरूर रहे हैं। गोरी औरतों से 421फीसदी ज्यादा काली औरतें नशीले पदार्थों के सेवन के चक्कर में जेलों में बंद रही हैं। बंद औरतों में तीन-चौथाई औरतों के बच्चे हैं। 15लाख से ज्यादा बंदी औरतों के छोटे-छोटे बच्चे हैं। जेलों में बंद आधी से ज्यादा काली औरतें अपने बच्चों को जेल में रहते हुए कभी नहीं देख पाएंगी।
अमेरिकी न्यायप्रणाली में अपराध के कारण अपराधी के साथ-साथ पूरा परिवार टूट जाता है। यही वजह है कि अमेरिका में पितारहित बच्चों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है। अमेरिकी सिस्टम की दूसरी पीड़ादायक बात यह है कि जिन लोगों को एकबार जेल हो जाती है उनका मतदान का अधिकार खत्म हो जाता है। सरकारी घर पाने का अधिकार खत्म हो जाता है,बैंक से कर्ज नहीं मिलता,विकास योजनाओं के लाभों से इनको वंचित कर दिया जाता है। इन स्थितियों में जब कोई बंदी सजा काटकर सामाजिक जीवन में वापस लौटकर एक भले शहरी की जिंदगी गुजारना चाहे तो उसके लिए कोई संभावना ही नहीं बचती। बल्कि उसे पहले से भी कठिन सामाजिक परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। यह एक तरह से अमेरिकी प्रणाली में नस्लवादी शोषण और उत्पीड़न का अंतहीन चक्र है जिसमें काले लोगों को जीना पड़ता है। यह भी कह सकते हैं कि अमेरिकी समाज में जेल यात्रा कर आए व्यक्ति के लिए नए सिरे से भले आदमी की जिन्दगी जीने की अमेरिकी सत्ता कोई संभावनाएं ही नहीं छोड़ती।
अमेरिकी समाज में काले और हिस्पनिक समुदाय के अघिकांश लोग घेटो में रहते हैं। एकदम दमघोंटू अभावग्रस्त माहौल में रहते हैं। हर शहर में इनके लिए दमघोंटू घेटो बस्तियां बनी हैं जो शहर के भीतरी इलाकों में बसी हैं। इन घेटो बस्तियों में रहने वालों की जीवनशैली बेहद खराब है। उल्लेखनीय है अमेरिकी जेलों में बंद लोगों में आधी संख्या उनकी है जो नशीले पदार्थों के सेवन के जुर्म में पकड़े गए हैं। उल्लेखनीय है घेटो में रहने वालों की शिक्षा पर कम और जेलों के रखरखाब पर ज्यादा खर्चा किया जा रहा है। रेण्ड कारपोरेशन के द्वारा कराए एक सर्वे से पता चला है कि नशीले पदार्थों के सेवन के लिए दिए गए कठोर दंड की व्यवस्था ने समाज में असुविधाएं ज्यादा पैदा की हैं। कठोर दंड देने से लोग और ज्यादा बिगड़े हैं, पीड़ितों के परिवार में तबाही मची हुई है।
कायदे से देखें तो अमेरिका में जेल-औद्योगिक समूह का निर्माण हो चुका है। आमलोग खेतों-खलिहानों में काम करने की बजाय जेल की चौकीदारी ज्यादा पसंद करते हैं। अमेरिकी सामाजिक सेवाओं की तरह जेल व्यवस्था का भी निजीकरण कर दिया गया है। जेल बनाना और उनको चलाना बहुत बढ़िया मुनाफे का धंधा है। लगातार नए-नए जेलों का प्रत्येक शहर में निर्माण हो रहा हैऔर ये स्थानीय निजी जेल भी अमेरिकी जनगणना के रिकॉर्ड का हिस्सा है।
मसलन् विगत 30सालों में न्यूयार्क में घेटो वाले इलाकों में 30 नए बहुमंजिला जेल बनाए गए हैं। इन जेलों के रखरखाब पर आम करदाता जनता का पैसा खर्च होता है। मसलन् 1997 में प्रति कैदी 8डालर खर्चा आता था जो 1999 में बढ़कर 30 डॉलर हो गया। एक अनुमान के अनुसार जेल में बंदी व्यक्ति पर सालाना पन्द्रह फीसदी खर्चा बढ़ा है। चूंकि जेल और कैदी अब कारपोरेट मुनाफावृद्धि का हिस्सा हैं अतः अब गिरफ्तारियां और सजाएं भी खूब हो रही हैं। जितनी ज्यादा लोगों को गिरफ्तारी और सजा उतना ही ज्यादा मुनाफा। जेल-उद्योग में लगे कारपोरेट घरानों के दबाब के चलते ही अमेरिका की अधिकांश सरकारी जेलों को भी निजी हाथों में सौंप दिया गया है। सन् 1990 के बाद से अमेरिका के तकरीबन सभी राज्यों ने कानून बनाकर सरकारी जेलों को निजी हाथों में सौंप दिया है। विभिन्न जेलों के साथ विभिन्न वस्तुओं की उत्पादक बड़ी कंपनियों का समझौता है और बंदियों के बनाए सामान को ये कंपनियां खरीदकर बाजार में बेचती हैं। अथवा वे अपना माल कैदियों से बनवाते हैं।
सन् 1980 से सन् 2000 के बीच में जेलबंदियों ने तकरीबन 2विलियन डॉलर का सामान बनाया । मसलन् साबुन,कम्प्यूटर पुर्जे,ऑफिस फर्नीचर,गोल्फ वॉल,कपड़े,चटाई आदि बनानेवाले बंदी को 1.10 डॉलर प्रतिघंटे मजदूरी मिलती है। जबकि सामान्य नियम के तौर पर एक मजदूर को जेल के बाहर 10 डॉलर प्रतिघंटा देना होता है। अतः बाहर काम कराना महंगा पड़ता है ,यही वजह है कि कंपनियां बंदियों से सस्ती दर पर काम कराती हैं। यह एक तरह की गुलाम प्रथा है।
अमेरिकी जेलों में सस्ते श्रम को कारपोरेट घराने व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल कर रहे और बंदियों से वस्तुतः गुलामों की तरह काम ले रहे हैं,साथ ही इनका सामाजिक जीवन भी दोयमदर्जे के नागरिक जैसा है। शोषण की स्थिति यह है कि एयरलाइंस कंपनियों से लेकर हीरो होण्डा कंपनी तक के कामों में ये बंदी जुटे रहते हैं। एक जमाने में ओहिओ राज्य में ट्रांसवर्ल्ड एयरलाइंस जेल में बंद कैदी को फोन से टिकट बुक करने का 5डॉलर प्रतिघंटा देती थी। इसी तरह हीरो होण्डा अपने एसेम्बली लाइन काम के लिए जेलकैदी को 2.05डॉलर प्रतिघंटा देती थी, इसके खिलाफ मजदूर यूनियनों ने जमकर प्रतिवाद किया था और उसके बाद यह योजना बंद कर दी गयी।
अमेरिकी न्यायप्रणाली की न्यायप्रियता की आमतौर पर मीडिया में बड़ी प्रशंसा की जाती है और उसके अन्यायपूर्ण पहलुओं की अनदेखी की जाती है। अमेरिकी न्यायप्रणाली में गोरी नस्ल का वर्चस्व है और गैर-गौरवर्ण के नागरिकों को आएदिन अन्याय झेलना पड़ता है। अमेरिकी न्याप्रणाली में नस्लभेदीय रूझानों की कभी मीडिया और सार्वजनिक जीवन में चर्चा नजर नहीं आती।अमेरिकी न्यायप्रणाली का लक्ष्य है अफ्रीकी –अमेरिकियों को नियंत्रण में रखना।
पूंजीवादी व्यवस्था की यह सामान्य विशेषता है कि वह जहां पर अपना पैर पसारती है वहीं पर सामाजिक मनुष्य की मौत हो जाती है। एकाकीपन, अलगाव,एकांत,अजनबियत आदि को इतनी जल्दी प्रसार मिलता है कि नागरिक समझ नहीं पाता कि आखिर यह सब कैसे हो रहा है। सामाजिक की मौत ही वह प्रस्थान बिन्दु है जहां से राज्य आसानी से नागरिक पर अपना अधिकार जमा लेता है और शासकवर्ग उसे अपनी विचारधारा के घेरे में ले लेता है। एक अध्ययन के अनुसार अमेरिकी जेलों में बंद अमेरिकी नागरिकों की संख्या विलक्षण रूप से बहुत ज्यादा है। अध्ययन बताता है कि विश्व की 5फीसदी आबादी अमेरिका में रहती है और उसके 25फीसदी लोग जेलों में बंद हैं। जेलबंदियों के मामले में भी अमेरिका का दुनिया में फीसदी और संख्या के लिहाज से सर्वोच्च स्थान है।
अमेरिकी जेलों में बंद लोगों का प्रोफाइल बताता है कि बंदी बनाने के मामले में भी अमेरिका में नस्लभेद है। मसलन् युवा अफ्रीकी-अमेरिकन कैदियों की संख्या गोरे कैदियों की संख्या से ज्यादा है। स्थिति यहां तक खराब है कि जेलखाने गुलामी के लिए पट्टे पर दिए जाते हैं। अमेरिका में यह मिथ प्रचारित है कि काले लोग बलात्कारी होते हैं और गोरी औरतें मानती हैं उनको गुलाम बनाए रखना ,मारदेना और काले लोगों पर सख्त निगरानी आदि जायज हैं।
अमेरिका के नागरिकों की पश्चिमी यूरोप के नागरिकों की तुलना में आय 5 से 8 गुना ज्यादा है। जबकि अहिंसक अपराधों के मामले में अमेरिका में जापान की तुलना में सत्रह गुना ज्यादा अपराध होते हैं। सन् 1970 की तुलना में अमेरिका के राज्यों में अपराधों में 500 गुना इजाफा हुआ है। अपराधों की हालत यह है अहिंसक अपराधों में लंबी सजाएं भोगने वालों की संख्या तेजी से बढ़ी है और जेलों में जगह नहीं है।
मिशेल फूको ने “डिसप्लिन एंड पनिश”( 1975) में विस्तार से यह बात रेखांकित की है कि जेल प्रणाली से अपराधों में कमी नहीं आई है बल्कि अपराधी ज्योंही जमानत पर छूटते थे वे पहला केस खत्म होने के पहले फिर जेल में आ जाते थे।जो लोग जेलों में बंदी हुआ करते थे उनसे काम कराया जाता था और उनको श्रम के गुण और ईमानदारी का पाठ भी पढ़ाया जाता था।
मिशेल फूको ने अपनी किताब में विस्तार के साथ फ्रांसीसी जेलों की दशा और सामाजिक स्थिति का सुंदर वर्णन किया है। जेलप्रणाली के सुधार के वर्षों में जेल में श्रम कराने और उस श्रम से बनी वस्तुओं को बाजार में बेचकर मुनाफा कमाने की परंपरा आरंभ हो गयी थी।अब जेल और फैक्ट्री एक हो गए थे। बेंथम ने विस्तार के साथ इस पहलू पर ध्यान खींचा है।जेरेमी बेंथम ने लिखा है कि जेल और फैक्ट्री दोनों को एकांत में संगठित किया जाता था और दोनों पर अहर्निश नजरदारी रखी जाती थी। इससे व्यक्ति को बांटने और श्रम कराने में मदद मिलती थी। उन दिनों जेलों में कैदियों के सुधार पर कम और उनसे मुनाफे के लिए श्रम ज्यादा कराया जाता था। फलतः इससे कैदी सुधरे कम लेकिन उन्होंने मुनाफा ज्यादा पैदा किया।
बेंथम ने उदार दण्ड प्रणाली का एक तरह से मॉडल पेश किया।जिसमें अपराधी को वैध एकाकी शोषण के लिए तैयार किया जाता था।इसके विपरीत कार्ल मार्क्स ने ’’पवित्र परिवार’’ नामक पुस्तक में लिखा अपराध के लिए एकाकी व्यक्ति को सजा नहीं दी जानी चाहिए बल्कि अपराध के अ-सामाजिक स्रोत को नष्ट किया जाना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को मनुष्य की तरह विकास करने का अवसर दिया जाना चाहिए।यदि व्यक्ति को वातावरण बनाता है तो वातावरण को मानवीय होना चाहिए। यदि मनुष्य स्वभावतः सामाजिक है तो वह समाज की सही प्रकृति का विकास करेगा। उसकी शक्ति की प्रकृति को एकाकी व्यक्ति के आधार पर नहीं बल्कि समाज की शक्ति के आधार पर परखा जाना चाहिए।कालांतर में पूंजी(भाग-1) में मार्क्स ने लिखा कि अधिकांश अपराधी अति जनसंख्या वाले निचले तबकों से आते हैं और ये वे लोग हैं बेकार हैं।मार्क्स ने यह भी लिखा है कि बेकारों की संख्या जितनी घटती जाती है अपराधियों की समाज में संख्या उसी अनुपात में घटती जाती है। यानी बेकारी घटने का अर्थ है बेकारों की फौज और अपराधियों की संख्या मॆं गिरावट।
मार्क्स ने रेखांकित किया है कि अपराध को व्यक्तिगत की बजाय सामाजिक आधार पर देखा जाना चाहिए।यह एक तरह से वर्चस्वशाली ताकतों के सामाजिक वर्चस्व की अभिव्यक्ति भी है। अपराध को जन्म देने वाली परिस्थितियों को बनाए रखकर वर्चस्वशाली ताकतें अपने सामाजिक-आर्थिक वर्चस्व को बनाए रखती हैं।