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Posts Tagged ‘suman’

कुछ साथियों की धारणा है कि कालक्रम में उद्योग और कृषि के बीच के तथा मानसिक और शारीरिक श्रम के बीच के न केवल मूलभूत विभेद समाप्त हो जाएँगे बल्कि उनके बीच के सभी विभेद समाप्त हो जाएँगे। यह सही नहीं है। कृषि और उद्योग के मूलभूत विभेदों की समाप्ति से उनके बीच के सभी विभेदों का अंत नहीं होगा। उद्योग और कृषि के कामों की स्थितियों में भिन्नता के चलते कुछ ऐसे विभेद, जो मूलभूत नहीं हो सकते हैं, अवश्य ही आगे बने रहेंगे। उद्योग में भी श्रम की स्थितियाँ इसकी सभी प्रशाखाओं के समान नहीं है। उदाहरण के लिए कोयला मजदूरों की श्रम स्थिति मशीनीकृत जूता कारखाने में काम करने वालों की श्रम स्थिति से भिन्न हैं। इसी तरह कच्चा लोहा के खनिज मजदूरों की श्रम स्थिति अभियंत्रण उद्योग में कार्यरत मजदूरों की श्रमस्थिति से भिन्न होती है। अगर उद्योग के अंदर विभिन्न प्रशाखाओं की श्रम स्थितियों में भिन्नता है तो फिर उद्योग और कृषि के बीच निश्चय ही कुछ ज्यादा भिन्नताएँ होंगी।
निश्चय ही ऐसा शारीरिक और मानसिक श्रम के विभेदों के बारे में भी कहा जाएगा। इनके बीच के मूलभूत विभेद और इनके सांस्कृतिक और प्राविधिक स्तर का फर्क निश्चिय ही मिट जायगा। किन्तु कुछ विभेद जो मूलभूत नहीं होंगे (गौण प्रकृति के विभेद) बने रहेंगे। ऐसा इसलिए रहेगा क्योंकि प्रबंधन कर्मियों और मजदूरों की श्रम स्थितियाँ जब भी बिल्कुल एक समान नहीं रहेंगी।
कुछ कामरेड जो इसके विपरीत धारणा रखते हैं, वे शायद मेरे पूर्व के कतिपय बयानों को आधार बना रहे हों जिनमें, उद्योग और कृषि के बीच तथा मानसिक एवं शारीरिक श्रम के बीच के विभेदों के विलोपन की अवधारणा व्यक्त की गई है, इसके बारे में अब बिना किसी हिचक के स्पष्टता के साथ कहा जाना चाहिए कि उसका जो अर्थ है, वह यह कि मूलभूत विभेदों का विलोपन न कि सभी प्रकार के विभेदों का। मेरी अवधारणा को उन कामरेडों ने ठोस रूप में समझा कि यह सभी प्रकार के विभेदों की समाप्ति पर लागू है। कामरेडों ने इसे उस रूप में समझा यह साबित करता है किमेरी उन अवधारणाओं की अभिव्यक्ति सुस्पष्ट नहीं थी और इसलिए असंतोष जनक थी। अब उसे निश्चय ही छोड़ दिया जाना चाहिए और उसकी जगह यह अवधारणा बनानी चाहिए जो बताती है कि उद्योग और कृषि तथा शारीरिक और मानसिक श्रम के बीच के मूलभूत विभेदों का विलोपन होता है और गैर मूलभूत (अर्थात गौण) विभेदों की अवस्थिति कायम रहती है।

क्रमश:
अनुवादक- सत्यनारायणठाकुर

आज जब पूंजीवादी अर्थव्यवस्था गंभीर संकट में है और आर्थिक संकट का समाधान नहीं हो पा रहा है। समाजवादी अर्थ तंत्र के विशेषज्ञ जोजेफ स्तालिन ने अपनी अंतिम रचना में समाजवादी अर्थतंत्र के समस्यायों के निदान के सम्बन्ध में चर्चा की थी। इस पुस्तक को जोसेफ स्तालिन के मरने के बाद पुन: प्रकाशित नहीं होने दिया गया था। इस पुस्तक का अनुवाद श्री सत्य नारायण ठाकुर ने किया है जिसके कुछ अंश: यहाँ प्रकाशित किये जा रहे हैं। आप के सुझाव व विचार सादर आमंत्रित हैं।
-सुमन

लो क सं घ र्ष !

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शहर और देहात तथा मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के पारस्परिक विरोध का विलोपन और उनके बीच के विभेदों का अंत

यह शीर्षक ढेर सारी समस्याओं को समेटता है जो तात्विक रूप से एक दूसरे से भिन्न हैं। मैंने उन्हें एक साथ कर दिया है, इसलिए नहीं कि हम उनका घोरमठ्ठा करना चाहते हैं, बल्कि केवल इनकी व्याख्या की संक्षिप्तता के लिए ऐसा करना पड़ा है।
शहर और देहात के बीच तथा उद्योग और कृषि के बीच के पारस्परिक विरोध (Anti-Thesis) के विलोपन की जानी-मानी समस्या है, जिस पर माक्र्स और ऐंगेल्स ने विचार किया था। इस पारस्परिक विरोध का आर्थिक आधार शहर द्वारा देहात का शोषण है। पूँजीवाद के अंदर उद्योग, व्यापार और उधार ऋण (Creclit) के विकास के पूरे दौर में किसानों और देहात को अधिकांश आबादी की लूट और बर्बादी के कारण परस्पर विरोध (Anti-Thesis) पैदा हुआ है। इसलिए शहर और देहात के परस्पर विरोध को पूँजीवाद के अंदर स्वार्थ के प्रतिशोध के रूप में देखा समझा जा सकता है। यही वह चीज है जिसने देहात के अंदर शहर और शहरवासियों के खिलाफ शत्रुतापूर्ण भावनाओं को उभारा।
निःसंदेह हमारे देश में पूँजीवाद और शोषण प्रणाली के अवसान के साथ और समाजवादी व्यवस्था के मजबूत होने के साथ ही देहात और शहर तथा कृषि और उद्योग के बीच स्वार्थ के प्रतिशोध के भाव का लुप्त होना लाजिमी था और यही हुआ भी। सामजवादी शहर द्वारा और मजदूर वर्ग के द्वारा किसानों को जमींदार और कुलकों को मिटाने में दी गई सहायता ने मजदूर और किसानों की एकता को मजबूत किया। किसानों को तथा सामूहिक फार्मों को प्रथम श्रेणी के ट्रैक्टर और अन्य मशीनों की आपूर्ति ने किसानों और मजदूरों की एकता को मित्रता में बदल दिया। यह सही हे कि मजदूर और सामूहिक फार्म के किसान दो भिन्न वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं और वे एक दूसरे से भिन्न अवस्थाओं से आते हैं। लेकिन यह फर्क इनकी दोस्ती को किसी भी तरह प्रभावित नहीं करता। इसके विपरीत इनके स्वार्थ एक ही पंक्ति में खड़े होते हैं। वह स्वार्थ है समाजवादी समाज को मजबूत करना और साम्यवादी विजय हासिल करना। इसलिए यह आश्चर्यजनक नही ंहै कि देहातों में शहर के प्रति पुराना घृणाभाव की तो बात ही छोड़ दीजिए अब इनमें पुराने अविश्वास के चिन्ह भी शेष नहीं रह गए।
इन सबका अर्थ यह है कि शहर और देहात तथा उद्योग और कृषि के बीच परस्पर विरोध (Anti-Thesis) का आधार हमारी समाजवादी व्यवस्था में विलुप्त हो चुका है।
इसका निश्चय ही यह माने नहीं है कि नगर देहात के परस्पर विरोध भावों के विलोपन का यह परिणाम होगा कि ‘‘महानगर बर्बाद होंगे’’, (ऐंगेल्स, ऐंटीडयूहरिंग)। यही नही ंहोगा कि महानगर बर्बाद नहीं होंगे, बल्कि अधिकधिक सांस्कृतिक विकास के नये केन्द्रों के रूप में अनेकानेक महानगर प्रकट होंगे। ये नए महानगर न केवल बड़े उद्योगों के केन्द्र होंगे, बल्कि कृषि उत्पादों के प्रोसेसिंग तथा खाद्य सामग्रियों की विभिन्न प्रशाखाओं के जबर्दस्त विकास के केन्द्र भी होंगे। यह राष्ट्र के सांस्कृतिक विकास को आगे बढ़ाएगा और नगर तथा देहात की जीवन दशा को उन्नत करेगा।
शारीरिक और मानसिक श्रम के पारस्परिक विरोधाभास को समाप्त करने की समस्या को मामले में भी ऐसी ही स्थिति है।यह भी पुरानी समस्या है जिसे माक्र्स ऐंगेल्स द्वारा विचार किया गया। दोनों के बीच के पारस्परिक विरोधाभास का आर्थिक आधार है मानसिक श्रम द्वारा शारीरिक श्रम का शोषण। इस खाई से सब अवगत हैं जिसने पूँजीवाद के अंदर औद्योगिक प्रतिष्ठानों के प्रबंध कर्मियों और शारीरिक श्रमिकों को विभाजित कर दिया। हम जानते हैं कि इसी खाई ने मैनेजरों, फोरमैनों, इंजीनियरों एवं तकनीकी कर्मियों के प्रति मजदूरों के अंदर शत्रुतापूर्ण दृष्टिकोण पैदा किया और मजदूर इन्हें अपना शत्रु मानने लगे। स्वभावतः पूँजीवाद के अवसान के बाद मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के परस्पर शत्रुता पूर्ण विरोधाभास का विलोपन अवश्यम्भावी था और हमारी समाजवादी व्यवस्था में सचमुच यह अदृश्य हो गया। आज शारीरिक श्रमिक और प्रबंध-कर्मीगण आपस में दुश्मन नहीं हैं। वे उत्पादन कार्य के एक ही सामूहिक परिवार के सदस्य के रूप में कामरेड हैं, दोस्त हैं जो उत्पादन बढ़ाने और प्रगति के लिए महत्वपूर्ण अभिरुचि ले रहे हैं। उनमें पुरानी शत्रुता के चिह्न भी शेष नजर नहीं आते।
नगर (उद्योग) और गाँव (कृषि) के बीच तथा शारीरिक और मानसिक श्रम के बीच के विभेदों ;क्पेजपदबजपवदद्ध को मिटाने की समस्या का चरित्र ही भिन्न है। इस समस्या पर माक्र्सवादी शास्त्रों में विचार नहीं किया गया। यह नई समस्या है जो हमारी समाजवादी रचना प्रक्रिया के आचरण से उभरी है।
क्या यह एक काल्पनिक समस्या है? क्या इसका हमारे लिए कोई व्यावहारिक या सैद्धांतिक महत्व है? नहीं, यह समस्या हमारे लिए काल्पनिक नहीं समझी जा सकती। इसके विपरीत, हमारे लिए यह गम्भीर महत्व की समस्या है।
उदाहरण के लिए कृषि और उद्योग के विभेद को लें। हमारे देश में यह विभेद केवल इस तथ्य में नहीं है कि कृषि के श्रम से भिन्न हैं उद्योग के श्रम, बल्कि मुख्य रूप से, प्रमुखतया इस तथ्य में कि जहाँ उद्योग में उत्पादन के साधनों और उत्पाद पर सार्वजनिक स्वामित्व है, वहीं कृषि में सार्वजनिक नहीं, किन्तु समूह का स्वामित्व वाला सामूहिक फार्म है। यह पहले ही कहा जा चुका है कि यह तथ्य माल परिचालन की प्रथा बनाए रखने की ओर ले जाता है और जब उद्योग और कृषि का विभेद मिटेगा तभी माल उत्पादन के मौजूदा परिणाम मिट सकेंगे। इसलिए इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि कृषि और उद्योग के बीच के इस मूलभूत विभेद को मिटाना हमारे लिए सर्वाधिक महत्व की बात है।
यही बात मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के बीच के मूलभूत विभेद को मिटाने की समस्या के बारे में भी अवश्य कही जाएगी। यह सच है कि यह भी हमारे लिए सर्वाधिक महत्व की समस्या है। समाजवाद स्पर्धा आंदोलन ने जब तक जन अभियान का शकल अख्तियार नहीं किया था, तब तक हमारे उद्योग की प्रगति बहुत ही रुक-रुककर चल रही थी इसे देखकर अनेक साथियों ने सलाह दी कि औद्योगिक विकास की गति को धीमा कर दिया जाय। प्रगति में इस लड़खड़ाहट का कारण यह था कि हमारे मजदूरों का सांस्कृतिक और प्राविधिक स्तर नीचा था और हमारे प्राविधिक कर्मियों ;ज्मबीदपबंस चमतेवददमसद्ध से वे काफी पीछे थे। लेकिन तब स्थिति बदल गई जब समाजवादी स्पर्धा आन्दोलन ने जन आन्दोलन का रूप ले लिया। उसी क्षण से औद्योगिक विकास की गति तेज हो गई।
क्यों समाजवादी स्पर्धा आन्दोलन का चरित्र जन आंदोलन का हो गया? क्योंकि मजदूरों के बीच से कामरेडों के सभी के सभी ग्रुप आगे बढ़कर न केवल तकनीकी ज्ञान की न्यूनतम जरूरतों पर महारत हासिल कर ली, बल्कि और आगे बढ़कर प्राविधिक कर्मियों के स्तर तक पहुँच गए। उन्होंने प्राविधिकों और अभियंताओं को ठीक करना प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने पहले से चल रहे तरीकों को पुराना घोषित कर तोड़ दिया और नई अद्यतन प्रणालियाँ अपनाईं। ऐसा ही बहुत कुछ किया। हमें क्या होना चाहिए था, अगर केवल अलग-अलग समूह नहीं, बल्कि मजदूरों का अधिकांश हिस्सा तकनीसियनों और इंजीनियरों के सांस्कृतिक और प्राविधिक स्तर तक पहुँच गया होता? तब हमारा उद्योग उस ऊँचाई पर पहुँच गया होता जहाँ दूसरे देशों के उद्योगों का पहुँचना असंभव था। इसलिए इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि मजदूरों के सांस्कृतिक और प्राविधिक स्तर को ऊँचा उठाकर मानसिक और शारीरिक श्रम के बीच के मूलभूत पारस्पिरिक विभेद को मिटाना हमारे लिए महत्वपूर्ण ही नहीं, बल्कि सर्वाधिक महत्व का है।

क्रमश:
अनुवादक- सत्य नारायण ठाकुर

आज जब पूंजीवादी अर्थव्यवस्था गंभीर संकट में है और आर्थिक संकट का समाधान नहीं हो पा रहा है। समाजवादी अर्थ तंत्र के विशेषज्ञ जोजेफ स्तालिन ने अपनी अंतिम रचना में समाजवादी अर्थतंत्र के समस्यायों के निदान के सम्बन्ध में चर्चा की थी। इस पुस्तक को जोसेफ स्तालिन के मरने के बाद पुन: प्रकाशित नहीं होने दिया गया था। इस पुस्तक का अनुवाद श्री सत्य नारायण ठाकुर ने किया है जिसके कुछ अंश: यहाँ प्रकाशित किये जा रहे हैं। आप के सुझाव व विचार सादर आमंत्रित हैं।
-सुमन

लो क सं घ र्ष !

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हिन्दुस्तान भी मेरा है और पाकिस्तान भी मेरा है
लेकिन इन दोनों मुल्कों में अमरीका का डेरा है

ऐड की गंदम खाकर हमने कितने धोके खाए हैं
पूछ न हमने अमरीका के कितने नाज़ उठाए हैं

फिर भी अब तक वादी-ए-गुल को संगीनों ने घेरा है
हिन्दुस्तान भी मेरा है और पाकिस्तान भी मेरा है

खान बहादुर छोड़ना होगा अब तो साथ अँग्रेज़ों का
ता बह गरेबाँ आ पहुँचा है फिर से हाथ अंग्रेज़ों का

मैकमिलन तेरा न हुआ तो कैनेडी कब तेरा है
हिन्दुस्तान भी मेरा है और पाकिस्तान भी मेरा है

ये धरती है असल में प्यारे, मज़दूरों-दहक़ानों की
इस धरती पर चल न सकेगी मरज़ी चंद घरानों की

ज़ुल्म की रात रहेगी कब तक अब नज़दीक सवेरा है
हिन्दुस्तान भी मेरा है और पाकिस्तान भी मेरा है

-हबीब जालिब

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किसान, भारत भाग्य विधाता-किसान भगवान-अन्नदाता आदि नामों से पुकार कर उसको महिमा मंडित कर सबसे ज्यादा शोषण उसी का किया जाता है। किसान मुख्य उत्पादक है। उसी के द्वारा उत्पादित वस्तुओं से मानव शरीर संचालित होता है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में उसी की व्यवस्था के लिए राजस्व, न्याय, लोकतंत्र, समानता जैसे शब्द बने हैं, लेकिन वस्तु स्थिति इसके विपरीत है। कर्नाटक, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, पंजाब मंे किसान आत्महत्या कर रहे हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो द्वारा जारी आँकड़ों के अनुसार सन् 1995 से 2010 तक किसानों की आत्महत्या का आँकड़ा 2 लाख 56 हजार 9 सौ तेरह बताई गई है। वहीं राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आँकड़े भ्रमित करने वाले हैं। वास्तविकता यह है कि देश में हर घण्टे दो किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं। इसका मुख्य कारण बढ़ती लागत, कम होती आमदनी से कर्ज का मकड़जाल कसना है।
किसान आत्महत्याओं को छुपाने के लिए शासन और प्रशासन तरह-तरह की बातें करता है। अखबारों में यह छपवाते हैं कि ‘नौजवान ने बीबी की आशनाई से मजबूर होकर आत्महत्या की, शराबी पति ने आत्महत्या की, गृहकलह के कारण आत्महत्या, सूदखोरों के उत्पीड़न से आत्महत्या, पुलिस उत्पीड़न से आत्महत्या समाचार प्रकाशित होते हैं। वास्तविक स्थिति यह है कि किसानों की आत्महत्याओं का ग्राफ सामने न आने पाए इसलिए यह बाजीगरी की जाती है।
राहुल गांधी, मुलायम सिंह यादव, मायावती, गडकरी, आडवाणी से लेकर विभिन्न राजनैतिक दलों के नेतागण किसानों की समस्याओं को हल करने के लिए परेशान, हैरान 24 घण्टे रहते हैं। इन लोगों की परेशानियों को ही देखकर शायद किसान आत्महत्या कर रहे हैं। ये नेतागण जितना परेशान होते हैं, पूँजीपति वर्ग राष्ट्रीय से बहुराष्ट्रीय हो जाता है और किसान अपनी दयनीय हालत से मजबूर होकर आत्महत्या कर लेता है।
केन्द्र सरकार द्वारा 2007, 2008 में किसानों को कर्ज माफी के नाम पर 70 हजार करोड़ रूपये दिए गए, जिसका भी लाभ किसानों को नहीं मिला। किसानों के नाम पर बैंक
अधिकारियों और दलालों के गठजोड़ ने फर्जी ऋण निकाल लिए थे उसको कर्जमाफी योजना में समायोजित कर बैंक अधिकारियों व दलालों ने अपनी गर्दन बचा ली।
बुवाई के समय बाजार मंे ‘बीज’ और खाद गायब हो जाते हंै। किसान व उसके संगठन हल्ला मचाकर रह जाते हैं। शासन व अधिकारी गण व्यवस्था बनाने की बात करने लगते हैं और जब फसलें तैयार होती हैं तो उनको खरीदने के लिए सरकारी एजेंसियाँ कभी बोरा नहीं है तो कभी चेक बुक नहीं है, कभी ट्रान्सपोर्ट की व्यवस्था नहीं है, कहकर भुलावा देते हैं। किसान हल्ला मचाते रहते हैं और सरकारी एजेंसियाँ व्यापारियों का गेहूँ, धान चुपके-चुपके खरीदकर गोदामों को भर देती हैं और इसमें भी किसानों को अपनी उपज का उचित मूल्य न मिलने के कारण हजारों का नुकसान होता है।
यदि राहुल गांधी, मुलायम सिंह यादव, मायावती, गडकरी, आडवाणी जैसे नेतागण किसानों की चिंता छोड़कर अम्बानियों, टाटाओं, बिरलाओं की चिंता करने लगें तो शायद किसानों की स्थिति में सुधार संभव हो, क्योंकि इन राजनैतिक दलों की सहमति द्वारा इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों, उद्योगपतियों को लाखों करोड़ रुपये के बेल आउट पैकेज दिए जाते हैं जिनकी चर्चा भी नहीं होती है।
किसानों की संख्या घट रही है, उनकी जमीने किसी न किसी बहाने छीनी जा रही हैं। ये सरकारें और इनके नेतृत्वकारी लोगों का चरित्र किसान विरोधी है। ये बहुराष्ट्रीय, राष्ट्रीय कम्पनियों के अभिकर्ता मात्र हैं।
लो क सं घ र्ष !

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