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Archive for मार्च, 2013

उत्तर प्रदेश की राजनीतिक भूमि पर कब्जे करने और उसे बचाने लेकर मुलायम सिंह यादव व उनके अनुयायियों द्वारा बेनी प्रसाद वर्मा के बीच वाक् युद्ध जारी है इस वाक् युद्ध में मुलायम खेमा कमजोर पड़ रहा है इसलिए वह भद्दी-भद्दी गालियों का प्रयोग करने पर उतर आया है। स्तर यह हो गया है कि एक मुलायम अनुयायी ने बेनी प्रसाद को तस्कर कहा व राकेश वर्मा के हारने की बात को कहा जा रहा है। जबकि बेनी ने कहा कि डिम्पल भी तो हार गयी थी वहीँ आज बेनी की बातों की गवाही में आज केन्द्रीय मंत्री अजित सिंह भी उतर आये हैं और उन्होंने मुलायम सिंह के ऊपर कई आरोप लगा दिए हैं।
मुलायम सिंह ने कांग्रेस को धोखे बाज व मक्कार कहा है जबकि मुलायम सिंह यादव लोगों को धोखा देने का कार्य किया है। वी पी सिंह, ममता बनर्जी को तो इन्होने धोखा दिया ही था और जिस कम्युनिस्ट पार्टी ने क्रांतिकारी मोर्चा बनाकर मुलायम सिंह यादव को प्रदेश स्तर का नेता बनाया था उसी पार्टी को धोखा देते हुए उसका विलय कुछ नेताओं को खरीद फरोख्त कर समाजवादी पार्टी में किया था। आज जब बेनी प्रसाद उनकी पोल खोलने पर तुल गए हैं तो तस्कर हैं बेहूदा हैं, मानसिक संतुलन खो बैठना जैसे अल्फाजों को बयान का हिस्सा समाजवादी पार्टी बना रही है

सपा नेताओं के भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से नजदीकी रिश्ते हैं। इस बार उन्होंने कांग्रेस के रणनीतिकारों को भी नहीं बख्शा और कहा कि वर्ष 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में यदि अल्पसंख्यकों का आरक्षण तथा बाटला हाउस कांड की जांच पुन: खोल दी गई होती तो नतीजे कुछ और होते।
“मुलायम सिंह यादव ने मुसलमानों के साथ धोखा किया है और उनका असली चेहरा उजागर किए बिना मैं चुप बैठने वाला नहीं हूं, चाहे मुझे इसकी कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े।”

केंद्रीय मंत्री ने कहा कि यदि कांग्रेस मुसलमानों को 4.5 फीसदी आरक्षण तथा बाटला हाउस कांड के मुद्दे से पीछे नहीं हटी होती तो परिणाम कुछ और होते। वर्मा ने यह भी कहा कि यदि इस बार भी कांग्रेस ने वही गलती की तो फिर उसे नुकसान उठाना पड़ेगा।

उन्होंने कहा कि मुलायम उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को हमेशा नीचे रखना चाहते हैं और इसीलिए उन्होंने पर्दे के पीछे भाजपा के साथ ‘डील’ कर रखी है। वर्मा ने कहा कि वर्ष 2003 में 135 विधायकों के साथ मुलायम प्रदेश में सिर्फ इसीलिए सरकार बना सके क्योंकि उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का आशीर्वाद प्राप्त था। इसी तरह वर्ष 1990 में मुख्यमंत्री रहते मुलायम ने विहिप नेता अशोक सिंघल को इसलिए अयोध्या जाने दिया ताकि सांप्रदायिक उन्माद भड़के और इसका फायदा उन्हें मिलता।
बेनी ने कहा कि मुलायम ने गुजरात में इसीलिए प्रत्याशी उतारे, ताकि मुस्लिम मतों का विभाजन हो सके और नरेंद्र मोदी फिर मुख्यमंत्री बन सकें। मयावती की पार्टी के बावत पूछे जाने पर वर्मा ने कहा कि वह बसपा में नहीं जा रहे हैं, क्योंकि यदि वहां जाएंगे तो घुटकर मर जाएंगे।

‘मैंने कुछ भी गलत नहीं कहा। माफी मांगने का सवाल ही नहीं। बाबरी मस्जिद गिराना आतंकवाद था, उसके दोषी कल्याण से मुलायम ने हाथ मिलाया। मेरे इस्तीफे की मांग करने वाले वह कौन हैं?’
-बेनी प्रसाद वर्मा, केंद्रीय इस्पात मंत्री
एसपी के प्रदेश प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने कहा कि बेनी प्रसाद वर्मा हद दर्जे तक बड़बोले हो गए हैं। वह इस तरह के बयान दे रहे हैं, जिसका सच्चाई से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। उन्होंने कहा कि बेनी के बेटे राकेश वर्मा पिछले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अपनी जमानत तक नहीं बचा पाए थे और उससे पहले हुए चुनाव में खुद बेनी की भी यही दुर्गति हुई थी।

बेनी को मुलायम के अहसानों को भूल जाने वाला अहसान फरामोश व्यक्ति बताते हुए चौधरी ने कहा कि आगामी लोकसभा चुनाव में जनता उन्हें पूछेगी भी नहीं और उनके बेबुनियाद बयानों का खामियाजा कांग्रेस को भुगतना पड़ेगा।
एसपी के राष्ट्रीय महासचिव राम आसरे कुशवाहा ने आरोप लगाया कि केंद्रीय इस्पात मंत्री का मानसिक संतुलन बिगड़ चुका है और उन्हें इलाज की सख्त जरूरत है। वर्मा की केंद्रीय मंत्रिमंडल से बर्खास्तगी की मांग करते हुए उन्होंने कहा कि मीडिया और अन्य लोगों को वर्मा के बयानों का संज्ञान नहीं लेना चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसे व्यक्ति को केंद्र में मंत्री बनाया गया है।

बेनी प्रसाद वर्मा ने कहा कि समाजवादी पार्टी मुखिया मुलायम सिंह यादव शुरू से ही अल्पसंख्यकों के साथ धोखाधड़ी करते रहे हैं। उन्होंने बीजेपी के सीनियर नेता लालकृष्ण आडवाणी की तारीफ यूं ही नहीं की है। बल्कि 2003 में प्रदेश में बीजेपी की इनायत से एसपी की सरकार प्रदेश में बनी थी। वर्मा ने अपने आवास पर बातचीत करते हुए कहा कि बाबरी मस्जिद को बचाने के नाम पर भी एसपी मुखिया ने अल्पसंख्यकों के साथ छल किया था।
उन्होंने कहा वर्ष 1990 में 29 अक्टूबर की रात को मुलायम सिंह यादव ने टेलीफोन कर मुझसे एक तरफ तो यह कहा था कि यह सुनिश्चित करो कि अयोध्या में कारसेवक न पहुंच पाएं, वहीं दूसरी तरफ विश्व हिन्दू परिषद नेता अशोक सिघंल को अयोध्या भिजवा दिया।

वर्मा ने कहा जब मैंने सिंघल के अयोध्या पहुंचने के बारे में यादव से पूछा तो उन्होंने बताया था कि अगर सिंघल नहीं पहुंचते तो गर्मी नहीं आती और यह भी साफ किया कि तत्कालीन एडीजी राम आसरे ने भी इस बात की मुझसे पुष्टि की थी। वर्मा ने परोक्ष रूप से यह भी आरोप लगाया कि मुलायम सिंह यादव और बीजेपी के रिश्ते हमेशा अच्छे रहे हैं यह बात दीगर है कि वह बाहर से एक-दूसरे की आलोचना करते हैं।

केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री अजित सिंह ने कहा कि मुलायम को बोलने से पहले सोच लेना चाहिए कि वह क्या बोल रहे हैं, क्योंकि वह सुबह कुछ बोलते हैं और शाम को कुछ और। अजित पर जवाबी हमला करते हुए समाजवादी पार्टी के महासचिव राम आसरे कुशवाहा ने बेनी प्रसाद वर्मा के साथ-साथ उन्हें भी गद्दार करार दे दिया है।अजित सिंह ने मेरठ में कहा, ‘मुलायम सिंह बार-बार कांग्रेस और केंद्र सरकार पर अशोभनीय टिप्पणी करके मास्टर जी से छात्र बन रहे हैं। उन्हें चाहिए कि वह राजनीति प्रजातंत्र के हित में करें, स्वार्थ की राजनीति से वशीभूत होकर बयानबाजी न करें।’

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प्रदेश सरकार थ्री सी यानी कैश, क्राइम व कास्टिज्म को बढ़ावा दे रही है। उन्होंने मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से कहा कि यदि वह एक रात बागपत या मेरठ के किसी गांव में बिताएं तो विकास कार्य की पोल खुल जाएगी। प्रदेश में तबादला उद्योग चल रहा है।

बेनी ने कहा था, ‘कांग्रेस तुमको नहीं पूछने वाली है। समर्थन दे रहे हो इसलिए पैसा लेते रहो। खूब कमिशन खाओ…परिवार में लुटाओ। विदेश में जमा करो। बेनी प्रसाद वर्मा यह नहीं करेंगे। अपराध और बेईमानी तो तुम्हारा पेशा है। सबसे बड़ा अभिशाप है इस प्रदेश के लिए मुलायम सिंह यादव। मायावती भी लुटेरी थीं लेकिन ये लुटेरा और गुंडा दोनों है। कैसे बचाओगे अपने प्रदेश को। आतंकवादियों से इसके रिश्ते हैं। बेनी प्रसाद वर्मा को मरवा डालोगे तो सौ बेनी प्रसाद पैदा होंगे। अभी तुम्हारा आखिरी कार्यकाल है। तुम क्या डराना चाहते हो। कांग्रेस से हम नहीं डरे, तो तुम तो अभी चुहिया हो।’

पूंजीवादी राजनीति में जनता का ध्यान हटाने के लिए इस तरह के हथकंडे चुनाव से पूर्व प्रारंभ किये जाते हैं। इलेक्ट्रॉनिक चैनल से लेकर प्रिंट मीडिया तक इन्ही बातों को उछाल-उछाल कर जनता का ध्यान महंगाई, बेरोजगारी, उत्पीडन, कानून व्यवस्था से हटाने का करता है। इस तरह इन सब के पाप चुनाव की गंगोत्री में धुल जाते हैं।

सुमन
लो क सं घ र्ष !

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संघ और भा0ज0पा0 ने षिंदे के इस वक्तव्य पर अपनी राजनैतिक बिसात बिछाना शुरू कर दिया। बहुत साफ तरीके से इसे हिन्दुओं का अपमान बता कर भावनात्मक शोषण और नफरत की राजनीति का शंखनाद हो गया। हालाँकि अगर उन्होंने स्वंय आतंकवाद को धर्म से जोड़कर मुसलमानों को कटघरे में खड़ा करने और उससे राजनैतिक लाभ उठाने की परम्परा कायम न की होती तो शायद आतंक के इस चेहरे के सामने आने के बाद भी इसे मात्र आतंकवाद ही कहा जाता। देष का सामाजिक ढाँचा भी और मजबूत होता और आतंकवाद के खिलाफ हमारी लड़ाई भी। भा0ज0पा0 ने इतने ही पर बस नहीं किया उसने षिंदे के वक्तव्य पर हाफिज सईद की प्रतिक्रिया का भी भरपूर इस्तेमाल करने की कोषिष की। देष की अखंडता से जुड़े इस गम्भीर मुद्दे पर अपनी सांगठनिक वफादारी को कुर्बान कर देने के बजाए हाफिज सईद की बकवास के नाम पर आतंकवाद के इस दूसरे चेहरे को फिर से नकारने के प्रयास में लग गए। प्रचारित यह किया जाने लगा कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत का केस कमजोर हो गया। वास्तविक्ता तो यह है कि समझौता एक्सप्रेस धमाके के बाद लष्कर-ए-तैयबा और सिमी पर आरोप लगा कर इनकी संलिप्तता के जो सुबूत अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को दिए गए थे वह झूठे और गढ़े हुए थे। बाद की तफतीष के नतीजे में होने वाली गिरफ्तारियों से उन प्रमाणों का दूर का भी कोई सम्बन्ध साबित न होने की वजह से हमारी विष्वसनीयता को गहरा आघात लगा था। परन्तु भा0ज0पा0 को इससे कोई आघात नहीं पहुँचा। उसने यह सवाल उस समय नहीं उठाया कि इससे आतंकवाद के खिलाफ हमारी लड़ाई को नुकसान पहुँचा है। समझौता विस्फोट के मामले में पाकिस्तानी अधिकारियों की टिप्पणियों पर भी उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी। इस बार भी संघ या भा0ज0पा0 को आतंकवाद के खिलाफ देष के अभियान के कमजोर पड़ने की चिन्ता नहीं है। दरअसल बौखलाहट उस हकीकत से है जिसका उल्लेख षिंदे ने पहली बार नाम लेकर कर दिया।
सवाल यह भी उठाया गया कि षिंदे ने यह बात 2014 के आम चुनाव के मद्दे नजर अल्पसंखयकों को लुभाने के लिए कही है परन्तु इससे सच्चाई तो नहीं बदल सकती। षिंदे के बयान और कांग्रेस सरकारों की आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों के साथ होने वाली ज्यादतियों के प्रति संवेदनहीन रवैयों को देखते हुए वक्तव्य के समय और कांग्रेस के दोगलेपन की आलोचना की जानी चाहिए। परन्तु इस बहाने से तथ्यों पर परदा डालने की कोई भी कोषिष निंदनीय है। सवाल यह भी है कि कांग्रेस सरकार के गृहमंत्री को अगर यह पता था कि धमाके करवा कर मुसलमानों को फँसाने का खेल खेला गया है तो उन्हें यह भी बताना चाहिए था कि उनकी सरकार ने इस सिलसिले में कौन से कदम उठाए हैं? आतंकवाद के आरोप में गिरफतार आरोपियों में कांग्रेस शासित प्रदेषों में धर्म के आधार पर भेदभाव क्यों हो रहा है? जिन स्थानों पर तफतीष से यह साबित हो चुका है कि धमाकों में उन बेकसूरों का हाथ नहीं था जिन्हें पहले गिरफ्तार किया गया था तो अब तक उनके ऊपर से मुकदमें उठा कर उनके पुनर्वास के लिए कुछ क्यों नहीं किया गया? महाराष्ट्र और केन्द्र में सरकार में होने के बावजूद नान्देड़, परभनी, जालना और पूरना के धमाकों की जाँच करवा कर इंसाफ क्यों नहीं किया गया? मामला इंसाफ करने और दोषियों पर षिकंजा कसने का नहीं है। बात वोट बैंक की है। सपा ने बेकसूर मुस्लिम नौजवानों को रिहा करने का वादा करके मुस्लिम वोट बैंक को अपने साथ लाने में सफलता पाई थी। कवायद बस इतनी है कि अखिलेष सरकार के वादा नहीं पूरा करने पर नाराज मुस्लिम मतदाता को अपनी ओर आकर्षित किया जाए। भा0ज0पा0 भी अपने उसी एजेन्डे पर है। आतंकवाद, मुसलमान, हाफिज सईद, पाकिस्तान किसी भी बहाने से ध्रुवीकरण हो और उसका लाभ उसे मिले, देष और समाज का उससे अहित होता है तो होता रहे।
षिंदे के वक्तव्य और संघ व भा0ज0पा0 की प्रतिक्रिया ने जो बहस छेड़ी है राष्ट्रीय स्तर पर इसकी आवष्यकता थी। इससे देष की सुरक्षा से जुड़े इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर जनता में सकारात्मक समझ विकसित होने का अवसर मिलेगा।
-मसीहुद्दीन संजरी

मोबाइल: 9455571488

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जयपुर चिन्तन शिविर के बाद आल इंडिया कांग्रेस कमेटी के खुले अधिवेषन में गृहमंत्री सुशील कुमार सिंदे ने एक खुले रहस्य से परदा उठा दिया। एक ऐसा रहस्य जिससे देष पहले से वाकिफ था। एक ऐसा वक्तव्य जिससे एक वर्ग कांग्रेस के हृदय परिवर्तन से हैरान और उत्साहित हो गया। उसे लगा कि आतंकवाद के नाम पर उसके साथ जो अन्याय हो रहा था अब यह उसके अन्त का संकेत है। दूसरा वर्ग षिंदे के इस दुस्साहस पर आष्चर्यचकित, बौखलाया हुआ और आक्रोशित था। अपनी तीव्र प्रतिक्रिया से शायद वह देष को यह जताना चाहता था कि गृहमंत्री ने कोई नई और तथ्यहीन बात कह दी हो। भाजपा को सबसे अधिक आपत्ति हिन्दू आतंकवाद कहे जाने पर थी। राजनाथ सिंह ने भाजपा अध्यक्ष चुने जाते ही देषव्यापी आन्दोलन का एलान कर दिया और साथ ही यह कहा कि सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह की माफी से कम कुछ भी मंजूर नहीं। माफी न माँगने पर संसद को भी न चलने देने की धमकी भी दे डाली। षिंदे के आरोप और भाजपा की प्रतिक्रिया ने एक महत्वपूर्ण मुद्दे को दो तरफा चर्चा में लाकर खड़ा कर दिया। इस विषय पर बात करने से पहले यह जान लेना आवष्यक है कि षिंदे ने कहा क्या था?
खुफिया एजेंसियों का हवाला देते हुए षिंदे ने कहा उनके पास ऐसी रिपोर्ट आई है जिससे साबित होता है कि भाजपा और संघ अपने कैम्पों में आतंकवाद की ट्रेनिंग दे रहे हैं। (अमर उजाला, पेज-13, 21 जनवरी, 2013)। हमारे पास ऐसी रिपोर्ट आई है कि संघ के लोगों ने कई बम लगाए हैं। (दैनिक जागरण, पेज-3, 21 जनवरी 2013)। ‘षिंदे ने कहा कि आर0एस0एस0 और बी0जे0पी0 के लोग बम प्लांट करते हैं ताकि इसका दोष अल्पसंख्यकों पर मढ़ा जा सके‘। (अमर उजाला, पेज-13, 21 जनवरी 2013)। उन्होंने कहा कि हमें भाजपा के विष फैलाने वाले प्रचार को रोकना होगा। (अमर उजाला, पेज-13, 21 जनवरी 2013)। ‘बी0जे0पी0 या आर0एस0एस0 के लोग, उनके ट्रेनिंग कैम्प हैं जो हिन्दू दहषतगर्दी को फरोग दे रहे हैं। इस पर हमारी गहरी नजर है। (इंकलाब उर्दू, पेज-1, 21 जनवरी 2013)। ‘बवाल मचने पर बाद में सफाई देते हुए षिंदे ने कहा कि उन्होंने हिंदू आतंकवाद नहीं भगवा आतंकवाद कहा था। (अमर उजाला, पेज-13, 21 जनवरी, 2013)। भाजपा ने ‘हिंदू आतंकवाद‘ कहे जाने पर तीखी प्रतिक्रिया जाहिर की। संघ प्रवक्ता राम माधव ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि आतंकवाद को किसी धर्म से जोड़ना गलत है। सवाल यह है कि आतंकवाद को धर्म से जोड़ने की परम्परा का सृजन और जन-जन तक उसको पहुँचाने का काम भी तो भा0ज0पा0 और संघ के लोगों ने ही किया था। सर संघचालक से लेकर भजपा अध्यक्ष और इन संगठनों के तमाम पदाधिकारियों और नेताओं ने इस्लामी आतंकवाद कहने में कोई संकोच नहीं किया। इस्लामी आतंक, जेहादी आतंक, मुस्लिम आतंक, जेहादी साहित्य यह सब शब्दावलियाँ किसी और ने नहीं संघ और भा0ज0पा0 के लोगों ने ही प्रचारित की थीं। आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों की छवि को खराब करने का कोई भी अवसर कभी हाथ से नहीं जाने दिया। ऐसा वातावरण निर्मित हो गया कि आतंकवाद का मतलब ही मुस्लिम आतंकवाद हो कर रह गया था। ऐसे में आतंकवाद के इस देर से पहचाने गए चेहरे को जाहिर करने के लिए नए प्रतीक की जरूरत तो पड़नी ही थी। समय रहते यदि आतंकवाद को मात्र आतंकवाद समझने दिया गया होता तो उसके विरुद्ध अधिक प्रभावी तरीके से लड़ा जा सकता था। इतना ही नहीं आतंकवादी वारदातों में लिप्त आरोपियों के प्रति संघ परिवार और उस मानसिकता के लोगों ने साबित किया कि कोई डार्लिंग आतंकवादी है और कोई दुष्मन आतंकवादी, और इस भेदभाव का आधार भी धर्म ही था। एक पृष्ठभूमि के आरोपी की अदालत में पेषी के समय वकीलों द्वारा पिटाई का सामना और जेल में कैदियों के हमले का जोखिम तो दूसरे का फूलों से स्वागत और श्रद्वा भरी नजरों का नजराना। एक के लिए बार कौंसिलों द्वारा आतंकी का मुकदमा न लड़ने का फरमान और पैरवी करने वाले अधिवक्ताओं पर हमले तो दूसरे के लिए अच्छे वकीलों का प्रबंध और मुकदमा लड़ने के लिए समाचार पत्रों में विज्ञापन तथा आर्थिक सहायता की अपील। एक तरह के आरापियों का नाम आते ही फाँसी पर लटकाने की माँग और दूसरे की सिफारिष के लिए प्रधानमंत्री तक से मुलाकात तथा जाँच अधिकारियों पर भारी दबाव और
धमकियाँ। क्या इस आचरण से आतंकवाद के खिलाफ देष के अभियान को झटका नहीं लगा? आतंकवाद के नाम पर इन अनैतिक, गैरकानूनी एंव फिरकापरस्त कारगुजारियों का औचित्य ढूँढने वाले कौन लोग थे। निष्चित रूप से इसके पीछेे संघ और भा0ज0पा0 से जुड़े बडे़ नाम अवष्य मिल जाएँगे। आज यदि हिन्दू आतंकवाद या भगवा आतंकवाद की संज्ञा दी गई है तो यह पूर्व में आतंकवाद को इस्लामी या जेहादी नाम से जोड़ने का दुष्परिणाम ही तो है।
यह बात भी ढकी छुपी नहीं है कि संघ परिवार के कुछ संगठनों ने खुलेआम अपने कैम्पों में आधुनिक हथियारों को चलाने का सामूहिक प्रषिक्षण दिया है और उसकी तस्वीरें भी समाचार पत्रों में छप चुकी हैं। इसमें किसी अगर-मगर या किन्तु-परन्तु की कोई गुंजाइष नहीं है। रहा आतंकवाद के प्रषिक्षण का मामला तो संघ से जुड़े कई कार्यकर्ता बम बनाते और एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाते समय विस्फोट में मरे और घायल हो चुके हैं। यह भी सही है कि मुसलमानों के खिलाफ नफरत और हिंसा की खुलेआम वकालत करते हैं। एस्थान, प्रतापगढ़ के दंगों के तुरंत बाद विष्व हिन्दू परिषद के प्रवीण तोगडि़या ने उस क्षेत्र से मुसलमानों को बल पूर्वक निकाल देने के लिए हिन्दुओं को ललकारा था। फैजाबाद में देवकाली मंदिर चोरी के मामले में योगी आदित्य नाथ ने मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला और असम में मुसलमानों को कत्ल करने के लिए बोडो चरम पंथियों की जमकर तारीफ भी की। इस तरह फैजाबाद में उन दंगों की बुनियाद रखी जिसमें एक तरफा मुसलमानों के सैकड़ों दुकानें और मकान जला दिए गए। मध्य प्रदेष के जनपद ीरोंज के कस्बे दामोह में कहा ‘यदि हम इस देष के प्रधानमंत्री बन जाएँ तो सबसे पहले मुसलमानों से वोट का अधिकार छीन लेंगे। देष के किसी भी विधिक पद पर मुसलमानों को नहीं रहने देंगे‘। (अनुवाद उर्दू इनकलाब, 2, फरवरी, 2013 पेज-1)। ऐसे सैकड़ों उदाहरण मौजूद हैं। परन्तु हमारा मीडिया धड़ल्ले के साथ इन संगठनों को समाज का सेवक बनाकर प्रस्तुत करता है और शासन प्रषासन की आँखें इनकी तरफ से बन्द होती हैं। परन्तु अकबरुद्दीन ओवैसी यदि ऐसा कोई बयान दे दें तो पुलिस प्रषासन स्वयं नोटिस लेकर मुकदमा दर्ज करता है और तुरंत कार्रवाई होती है। वह मीडिया जो तोगडि़या और योगी जैसे लोगों की देष भक्ति के अलावा कुछ नहीं लिखता अचानक बड़ी-बड़ी खबरें छापने लगता है। दरअसल मीडिया में कुछ सफेद पोष भी वही काम कर रहे हैं जो मिषन योगी और तोगडि़या का है। षिंदे के बयान के समर्थन में बोलते हुए दिग्विजय सिंह ने हाफिज सईद को ‘साहब‘ कह दिया। बनारस से प्रकाषित होने वाले हिन्दी के एक समाचार ने 22, जनवरी को इस पूरे प्रकरण पर सम्पादकीय लिखा जिसमें कहा गया ‘आखिर षिंदे के बयान के बाद दिग्विजय सिंह का जमात उद दावा के प्रमुख और भारत में वांछित आतंकी हाफिज सईद के नाम का अदब से जिक्र करने का क्या मतलब है? यदि वाकई यह वोट बैंक की राजनीति नहीं है तो षिंदे के इस बयान की अभी जरुरत भी नहीं थी‘। यह बात बिल्कुल सही है कि इस बयान को बहुत पहले आना चाहिए था और मात्र बयान ही नही कार्रवाई भी होनी चाहिए थी। परन्तु शायद सम्पादक की यह मंषा नहीं थी। उनके हिसाब से यह बयान आना ही नहीं चाहिए था। इतना ही नहीं इसमें ऐसी भाषा का प्रयोग किया गया है कि सरसरी तौर पर पाठक को ऐसा लगे कि भगवा आतंक पर बयान देने और हाफिज सईद का नाम अदब से लेने से भारतीय मुसलमान खुष होता है

दूसरी महत्वपूर्ण बात जो षिंदे ने कही वह है धमाके को अंजाम देकर अल्पसंख्यकों के सिर आरोप मढ़ने की। नया इसमें भी कुछ नहीं है। अब यह बात पूरी तरह स्थापित हो चुकी है। मालेगाँव, अजमेर, हैदराबाद और समझौता एक्सप्रेस धमाकों में इस साजिष का परदा फाष हो चुका है। जो कुछ बचा है वह सिर्फ इतना कि और कितनी आतंकी वारदातों में यह खेल खेला गया है। जमीनी वास्तविकता और निमेष आयोग की रिपोर्ट से उत्तर प्रदेष की कचहरियों में होने वाले सिलसिलेवार धमाकों में ऐसे ही षड्यंत्र की प्रबल आषंका बनती है। कचहरी धमाकोें के बाद प्रदेष के उच्च पुलिस अधिकारियों ने भी कहा था कि इन धमाकों और मक्का मस्जिद की वारदात में काफी समानताएँ हैं। कानपुर में बम बनाते समय होने वाले विस्फोट में विष्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं के मारे जाने और भारी मात्रा में विस्फोटक सामग्री बरामद होने से यह साबित भी हो गया था कि ऐसे तत्व प्रदेष में मौजूद हैं। फिर भी तत्कालीन मायावती सरकार ने साम्प्रदायिक शक्तियों से साँठ-गाँठ करके इतने बड़े मामले पर फाइनल रिपोर्ट लगवा कर दफन करवा दिया। यही खेल कांग्रेस शासित महाराष्ट्र के नान्देड़ में किया गया था। यदि साम्प्रदायिकता और मुसलमानों के प्रति पूर्वाग्रह अपनी भूमिका न अदा करता तो कोई कारण नहीं था कि नान्देड़ में बम बनाते समय संघ और उसके द्वारा संचालित अन्य संगठनों के सदस्यों के मारे जाने और घायल होने की घटना के बाद ही असली षड्यन्त्रकारियों के चेहरे से नकाब न उतर जाती। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि 5,अपैल 2006 के नान्देड़ धमाके के जिम्मेदार अपने अंजाम को पहुँचे होते तो उसके बाद उसी वर्ष 8, सितंबर को मालेगाँव घटना और सन् 2007 में 19, फरवरी को समझौता एक्सप्रेस, 18, मई को मक्का मस्जिद और 11, अक्तूबर को अजमेर दरगाह की आतंकी वारदातों को होने से रोका जा सकता था। लेकिन उस समय नान्देड़ की घटना को पहले पटाखा धमाका बता कर बन्द करने का प्रयास किया गया बाद में जिंदा बम बरामद होने पर यह थ्योरी खारिज हो गई। परन्तु जिंदा बम के साथ आमतौर पर मुसलमानों के वेषभूषा की सामग्री कुर्ता पाजामा, टोपी, नकली दाढ़ी आदि का बरामद होना इस बात का साफ संकेत था कि
धमाके करने के साथ साथ मुसलमानों के सिर आरोप मढ़ने की योजना भी उनके षड्यंत्र का हिस्सा थी। इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि यह सब एक बडे़ षड्यंत्र का हिस्सा था और षड्यंत्रकारियों का संघ से अहम रिष्ता भी। इन तत्वों द्वारा अंजाम दी गईं वारदातें देष के जितने बड़े भूभाग में फैली हुई हैं और इतने बड़े धमाकों के लिए जिस ताने बाने की आवष्यक्ता होगी उससे तय है कि यह काम मात्र दस बारह लोगों का ही नहीं था जिन्हें अब तक आरोपी बनाया गया है और न ही इस षड्यंत्र को उन्हीं वारदातों तक सीमित समझा जा सकता है जो अब तक सामने आ चुकी हैं। कम से कम 2006 और 2007 में देष में होने वाले अन्य धमाकों की भी इस दृष्टिकोण से जाँच होनी चाहिए थी। परन्तु ऐसा होना तो बहुत दूर स्वयं नान्देड़ की घटना की जाँच पहले ए0टी0एस0 उसके बाद सी0बी0आई0 ने ठंडे बसते में डाल दिया। ऐसा भी अकारण नहीं हुआ है। यदि संघ परिवार के पास सांगठनिक ताकत और भा0ज0पा0 के रूप में राजनैतिक शक्ति न होती और कांग्रेस के पास इच्छा शक्ति का अभाव न होता तो इतने बड़े-बड़े मामलों को बहुत आसानी के साथ दफन नहीं किया जा सकता था। अब गृहमंत्री श्री षिंदे ने नान्देड़ की घटना के साथ जालना, पूरना और प्रभनी की मस्जिदों में होने वाले विस्फोटों की जाँच एन0आई0ए0 को सौंप दी है। इस जाँच का अंजाम क्या होगा यह तो कहना मुष्किल है लेकिन जब तक इन घटनाओं की पिछली जाँचों में राजनैतिक दखलअंदाजी और उन्हें बन्द कर दिए जाने के कारणों को जाँच में शामिल नहीं किया जाता इसे पूर्ण नहीं माना जा सकता।
-मसीहुद्दीन संजरी

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शेख अब्दुल्ला की 8 सितम्बर 1982 में मृत्यु के पश्चात उनके पुत्र फारूक अब्दुल्ला कश्मीर के मुख्यमंत्री बने परन्तु कांग्रेस के साथ उनके रिश्ते अधिक दिनों तक मधुर नहीं रहे और इन्दिरा गांधी ने फारूक अब्दुल्ला की सरकार बर्खास्त कर उन्हीं के बहनोई जी0एम0 शाह को कुर्सी सौंप दी। जिनके कार्यकाल में कश्मीर में राज्यपाल बनकर गए जगमोहन ने कश्मीर की जनता के साथ ऐसा क्रूर व्यवहार किया कि कश्मीरियों की मन्द पड़ चुकी अलगावादी सोच को पुनः जीवित कर दिया। जब हालात बद से बदतर होने लगे तो भारत सरकार को पुनः राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा और 1984 से 1989 तक का जगमोहन का कार्यकाल कश्मीर समस्या के इतिहास में काले अक्षरों में लिखा जाने के योग्य सिद्ध हो गया। जगमोहन के कार्यकाल में ही मोलवी मीर वायज़ फारूक चेयरमैन अवामी एक्शन कमेटी की हत्या अलगाववादी सोच के अन्तर्गत आतंकवादी मो0 अय्यूबदार द्वारा 21 मई 1990 में कर दी गई। मौलवी फारूक कश्मीर के वह उदारवादी नेता थे जो पाकिस्तानियों और उग्रवादियों के राह के कांटा थे। कश्मीरियों पर अत्याचार यहीं पर समाप्त नहीं हुआ मौलवी मीर वायज़ फारूक के अन्तिम संस्कार के लिए उमड़ी हजारों की भीड़ पर सी0आर0पी0एफ0 ने अंधाधुन्ध गोलियाँ यह कहकर चला दी कि भीड़ द्वारा उन पर हमला किया गया था इस गोलीकाण्ड से कई निर्दोष तो मारे ही गए साथ में मौलवी मीर वायज़ फारूक के जनाजे पर भी कई गोलियाँ लगी।
यह घटना जिस समय घटित हुई उस समय देश के प्रधानमंत्री बी0पी0 सिंह थे और राज्यपाल जगमोहन थे। कश्मीर की जनता अपने प्रिय धार्मिक नेता के ग़म और उनके ऊपर शासक जगमोहन की दमनात्मक कार्यवाही से इतनी विचलित हो गई कि फिर शांति के पथ पर कश्मीर नहीं लौट पाया।
इस घटना से पूर्व सन 1984 में कश्मीर के अलगाववादी नेता मकबूल बट को कैद मंे डाल दिया गया और उन पर चलाए गए अभियोग के उपरान्त उन्हें फाँसी की सजा सुना दी गई। मकबूल बट की फाँसी लम्बित ही थी कि इंग्लैण्ड में भारतीय राजनयिक रवीन्द्र महात्रे का अपहरण जे.के.एल.एफ. संस्था द्वारा यह कहते हुए कर लिया गया कि उनके लीडर मकबूल बट को आजाद करो तो राजनयिक को छोड़ा जाएगा। भारत सरकार द्वारा आतंकवादी संगठन की माँग न माने जाने के उपरान्त भारतीय राजनयिक की 6 फरवरी 1984 को हत्या कर दी गई। कश्मीरियों के इस कृत्य से आक्रोशित भारतीय प्रधानमंत्री ने 10 फरवरी 1984 को मकबूल बट की दया याचना तत्कालीन राष्ट्रपति से खारिज कराकर तिहाड़ जेल में उसी स्थान पर फाँसी पर लटका दिया गया जहाँ 9 फरवरी 2013 को अफजल गुरू को फाँसी दी गई।
1984 में मकबूल बट की फाँसी से उत्तेजित कश्मीरियों की प्रतिक्रियाओं को मजबूत शासकों में गिनी जाने वाली इन्दिरा गांधी ने उस समय भले ही दबाने में सफलता प्राप्त कर ली थी परन्तु 90 दशक के प्रारम्भ में आतंकवाद का जो ज्वार कश्मीर में उमड़ा था वह अब अफजल गुरू की फाँसी के बाद, कितने वर्षों के उपरान्त और किस रूप में उभरकर सामने आएगा इसका अनुमान भलीभाँति लगाया जा सकता है।
जहाँ तक अफजल गुरू के चरित्र का सम्बन्ध है तो अफजल गुरू की फाँसी से पूर्व कम ही लोगों को यह बात पता थी कि वह एक आत्मसमर्पित आतंकवादी था। वर्ष 1968 में अफजल गुरू का जन्म कश्मीर के झेलम नदी के किनारे बसे जिला बारामूला में हुआ था और उसके पिता हबीब उल्ला एक ट्रांसपोर्ट के साथ-साथ टिम्बर के व्यवसायी थे। मुहम्मद अफजल अपने चार भाइयों में दूसरे नम्बर पर था। अपनी शिक्षा के प्रारम्भ से ही वह एक उदीयमान छात्र था और उसके पिता के मन में उसे डाॅक्टर बनाने की अभिलाषा थी और बचपन से उसे डाॅक्टर कहकर पुकारते थे। परन्तु जब उसकी आयु मात्र 10 वर्ष थी तो पिता का साया उसके सिर से उठ गया। परिवार का खर्च चलाने की जिम्मेदारी अफजल के बड़े भाई एजाज के कन्धों पर आ गई। एजाज ने अफजल की शिक्षा प्रभावित नहीं होने दी और उसने हाईस्कूल व इण्टर की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के पश्चात अपने पिता की मनोकामना पूरी करने के लिए प्री0 मेडिकल टेस्ट में भाग लिया और सफलता प्राप्त की। मेडिकल में उसकी रुचि की प्रेरणा उसके रिश्ते के भाई डाॅ0 अब्दुल अहद गुरू से मिली। जो कश्मीर के जाने माने गैस्ट्रोइन्ट्रो लाजिस्टर थे जिनकी हत्या 1994 में आतंकवादियों ने कर दी थी। अफजल गुरू ने मेडिकल की पढ़ाई का प्रथम वर्ष अच्छे अंको से उत्तीर्ण किया। परन्तु उसी समय कश्मीर प्रान्त में भारतीय सेना के कुछ सैनिकों द्वारा कश्मीरी लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना से वह विचलित हो गया और मेडिकल की पढ़ाई छोड़कर झेलम नदी के पार आजाद कश्मीर में चल रहे आतंकवादी शिविर में उसने दाखिला ले लिया। परन्तु शिविर में इस्लाम के नाम पर जिस प्रकार हिंसा और भारत के विरुद्ध युद्ध की दीक्षा दी जा रही थी उससे अफजल गुरू सन्तुष्ट न हो सका और उसने अपने पुराने जीवन में वापस लौटने का निर्णय ले लिया, इसके लिए उसने सर्वप्रथम रा के आधिकारियों से सम्पर्क साधा तथा वर्ष 1993 में भारतीय बार्डर पर समर्पण कर दिया।

अफजल गुरू ने वतन वापसी पर अपना कैरियर फिर से बनाने के लिए सोचा और इस क्रम में उसे सहायता उसके रिश्ते के भाई शौकत गुरू व देहली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सैय्यद अब्दुल रहमान जीलानी से मिली। अफजल ने पहले दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की और अब उसका लक्ष्य आई0ए0एस0 प्रतियोगिता में सफलता प्राप्त करने का था। जिसको पाने के लिए उसने कठोर परिश्रम दिल्ली में रहकर प्रारम्भ कर दिया इसी बीच उसका विवाह हो गया और वर्ष 1999 में वह एक बच्चे का बाप भी बन गया। परिवार का आर्थिक बोझ उठाने के लिए उसने दिल्ली व कश्मीर में शल्य चिकित्सा सामग्री की सप्लाई का व्यवसाय प्रारम्भ किया। चूँकि मेडिकल लाइन से वह काफी परिचित था और कई सहपाठी चिकित्सक बन चुके थे, उसका कारोबार चल निकला था। परन्तु दुर्भाग्य ने उसका पीछा नहीं छोड़ा और पहले भारतीय सेना की ओर से तथा बाद में एस0टी0एफ0 की ओर से उस पर इस बात दबाव डाला जाने लगा कि वह उनका मुखबिर बन कर उनके लिए काम करे और यदि वह ऐसा नहीं करता है तो फिर उसका एनकाउन्टर कर देंगे। एस0टी0एफ0 द्वारा उससे कई बार पूछताछ के नाम पर उठाया गया और एक-एक लाख रूपये की वसूली करके छोड़ा गया। विवश होकर एस0टी0एफ0 के एक अन्य मुखबिर तारिक की सलाह पर वह मुखबिरी को राजी हो गया। बताते हैं कि उसकी मुखबरी पर कई आतंकवादी गिरफ्तार किए गए और कई मुठभेड़ में मारे गए। एस0टी0एफ0 के लोगों को अफजल गुरू की हर गतिविधि का पता रहता था। इस बीच 13 दिसम्बर 2001 को संसद भवन पर हमला हेा गया। एक महिला सुरक्षा कर्मी सहित सात सुरक्षा कर्मी व पाँच आतंकवादी पुलिस की क्रास फायरिंग में ढेर हो गए। देश के इतिहास में सबसे बड़ी आतंकवादी घटनाओं में एक इस घटना ने सभी का दिल झकझोर दिया। दिल्ली में हर व्यक्ति भयभीत था अफजल गुरू इसलिए भी अधिक भयभीत था कि वह आतंकवादियों और एस0टी0एफ0 के बीच मुखबिर के रूप में एक कड़ी था। अतः उसने कश्मीर वापस हो जाने का निर्णय लिया। परन्तु अफजल गुरू का भय सही निकला और उसे कश्मीर से गिरफ्तार कर लिया गया, साथ ही उसके रिश्ते के भाई शौकत गुरू व उसकी पत्नी अफसा नवजोत जो कि सिख धर्म से इस्लाम धर्म स्वीकार करने के उपरान्त शौकत की पत्नी बनी थी को श्री नगर से गिरफ्तार कर लिया गया।
उधर दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एस0आर0 गिलानी भी गिरफ्तार हो गए। चारो अभियुक्तों को गिरफ्तार करके दिल्ली सरकार ने अपनी सफलता की कहानी नेशनल चैनलों व समाचार पत्रों के माध्यम से पूरे राष्ट्र को सुनाई और दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एस0ए0आर0 गिलानी को दिल्ली में चल रही गतिविधियों का मास्टर माइन्ड घोषित कर दिया। राष्ट्र के विरुद्ध युद्ध तथा पोटा के तहत चार्जशीट लगाते हुए निचली अदालत (एफ0टी0सी0) त्वरित न्यायालय में अभियोग चला परन्तु इसी दौरान प्रोफेसर गिलानी के उज्ज्वल चरित्र की दुहाई देकर शिक्षा शास्त्रियों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं एवं समाजसेवियों ने मैदान में उतरकर जोरदार प्रदर्शन प्रारम्भ कर दिया। इसका प्रभाव अदालत पर भी पड़ना स्वाभाविक था और एस0टी0एफ0 व दिल्ली स्पेशल ब्राँच पुलिस ने अपने मीडिया के साथियों द्वारा जो दबाव अदालत पर बनाया था वह दबाव कम होना प्रारम्भ हो गया। इसी बीच जी0टी0वी0 ने 13 दिसम्बर के नाम से डाक्यूमेन्टरी भी बना डाली जिसकी प्रशंसा खुलकर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी व गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने की। फिल्म पर प्रतिबन्ध लगाने के उद्देश्य से कुछ समाज सेवियांे ने याचिका ाल दिया जिसे न्यायालय ने यह कहकर खारिज कर दी कि किसी पब्लिसिटी से न्याय प्रभावित नहीं होता।
त्वरित न्यायालय ने प्रोफेसर गिलानी, शौकत गुरू व अफजल गुरू को फाँसी की तथा अफसा को पाँच साल की सजा सुना दी। बाद में उच्च न्यायालय दिल्ली ने प्रोफेसर गिलानी व अफसा को दोषमुक्त करार देते हुए बरी कर दिया। परन्तु अफजल गुरू को फाँसी की सजा बरकरार रखने के साथ-साथ उसके भाई शौकत गुरू को उम्रकैद की सजा सुना दी। इसके विरुद्ध अभियुक्तों ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जहाँ 4 अगस्त 2005 को दिए गए निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने शौकत गुरू की सजा को घटाकर दस साल कर दी परन्तु अफजल गुरू की सजा को बढ़ाते हुए तीन-तीन अभियोग में उम्र कैद व दो अभियोग में फाँसी की सजा सुना दी।

वर्ष 2005 से फाँसी के सजायाफ्ता कैदी अफजल गुरू को फाँसी कब दी जाएगी यह भा0ज0पा0 व शिवसेना जैसे हिन्दू कट्दरवादी संगठनों के प्रबल मुद्दे थे। उसके पश्चात 9/11 मुम्बई हमला कांग्रेस के नेतृत्व में केन्द्र में स्थापित यू0पी0ए0 सरकार के दामन पर एक और बड़ेदाग के रूप में लगा जिसने आर्थिक उदारीकरण के दम पर देश के आर्थिक विकास और औद्योगिक विकास को गति प्रदान करने वाली कांग्रेस सरकार को काफी हद तक विचलित कर दिया। इन सबसे परेशान कांग्रेस अभी पूरी तरह से सँभल भी नहीं पाई थी कि भ्रष्टाचार एवं घोटालों के खुलासे का बाजार देश में गरम हो गया। देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा व इसके नेतृत्व में चलने वाली एन0डी0ए0 कांग्रेस को घेरकर अति प्रसन्न हो रही थी। कांग्रेस ने पलटवार करते हुए कर्नाटक के भाजपा मुख्यमंत्री बी0एस0 येदुरप्पा का तख्ता पलट भ्रष्टाचार के मुद्दं पर कर दिया। अपनी सफलता पर उत्साहित कांग्रेसियों ने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जो कि दुबारा अध्यक्ष के सपने संजोए हुए थे जिनके मोह से ग्रसित राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भाजपा पर दबाव बनाकर पार्टी संविधान में संशोधन कर उनकी अध्यक्षी की राह आसान कर दी थी उन पर भ्रष्टाचार का आरोप मढ़कर कांगे्रस ने पूरी शक्ति से हमला बोलकर भाजपा को रक्षात्मक स्थिति में ला खड़ा किया।
भाजपा और आर.एस.एस. ने अपनी रणनीति में परिवर्तन कर हिन्दुत्व के चैम्पियन नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत करना प्रारम्भ कर दिया जिसकी कोई काट कांग्रेस को फिलहाल नजर नहीं आ रही थी। राजस्थान के मरूस्थलीय भूमि पर चिन्तन बैठक करके कांग्रेस ने जहाँ एक ओर राहुल गांधी को अघोषित प्रधानमंत्री बनाने की दागबेल डाल दी थी वहीं शायद गुपचुप तरीके से अफजल गुरू को सूली पर चढ़ाकर मिशन 2014 में विजय पताका फहराने का मसौदा भी तैयार कर लिया गया था।
सेब के बागो के गाँव सोपोर के रहने वाले अफजल गुरू ने मीडिया को सुरक्षा एजेन्सियों के दबाव में दिए गए अपने कबूलनामे के बाद उसे नकारते हुए जो पत्र अपने परिजनों को लिखा था उसमें इस बात का जिक्र है कि मोहम्मद नाम के जिस आतंकवादी को संसद भवन हमले में मार गिराया गया था उससे एस.टी.एफ. कर्मियों ने हमले से कुछ दिनों पूर्व मिलाया था और उसके लिए दिल्ली में रुकने के लिए एक आवास की व्यवस्था करने को कहा था उससे उसकी कई बार मोबाइल पर बात भी कराई गई थी जिसकी बाद में गिरफ्तार होने के पश्चात जाँच एजेन्सियों ने पहचान भी कराई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने भी बाटला हाउस काण्ड मुठभेड़ में मारे गए इंस्पेक्टर मोहन चन्द्र शर्मा द्वारा प्रस्तुत आतंकियों के काल डिटेल रिकार्ड तथा अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत गवाहान की गवाही का अध्य्ययन करने के पश्चात अफजल गुरू की संसद पर हमले के समय बातचीत पर प्रश्न चिन्ह खड़े किए थे।
अफजल गुरू के ऊपर त्वरित न्यायालय में चले मुकदमें की सुनवाई ठीक ढंग से न किए जाने पर सर्वोच्च न्यायालय में भी प्रश्न चिह्न अभियुक्तों के वकील सुशील कुमार द्वारा खड़े किए गए थे जिसमें कहा गया था कि पी0डी0 पंचोली जो कि त्वरित न्यायालय में अभियुक्तों की वकालत कर रहे थे न तो कभी अभियुक्तों से जेल में मुलाकात की और न ही अभियोजन द्वारा गवाहों से प्रतिपरीक्षा ही की जिसकी शिकायत अफजल गुरू ने अन्य वकील नियुक्त किए जाने के लिए की थी। अफजल गुरू की फाँसी पर अधिकांश विधिशास्त्रियों ने सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले पर टिप्पणी की है कि फैसला विधि सम्मत न होकर जनता के सम्मान में दिया गया है, जो एक गलत नज़ीर बनाती है। कांग्रेस 2014 के चुनाव में अफजल गुरू की फाँसी से भले ही लाभान्वित हो जाए परन्तु जो कश्मीर विगत कई वर्षों से शांति के पथ पर अग्रसर था, अलगाववाद की चिंगारी को अवश्य गति प्रदान कर सकता है और दक्षिण पूर्व एशिया, दक्षिण एशिया एवं मध्य एशिया में साम्राज्यवादी शक्तियों का नेतृत्व कर रहे अमरीका के वर्षों पुरानी कश्मीर में अपना सैन्य अड्डा बनाने की मनोकामना को भी बल प्रदान कर सकता है और दुर्भाग्यवश यदि ऐसा हुआ तो कांग्रेस की नेतृत्व वाली यू0पी0ए0 सरकार प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और राष्ट्रपति के संयुक्त कृत को इतिहास सदैव एतिहासिक भूल में याद रखेगा।
-तारिक खान
मो-09455804309

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13 दिसम्बर 2001 के दिन संसद पर हुए हमले की साजिश में अभियुक्त करार दिए गए जम्मू कश्मीर प्रांत के निवासी मुहम्मद अफजल गुरू को 9 फरवरी 2013 की प्रातः 7ः30 पर तिहाड़ जेल की बैरक संख्या (3) में अचानक गुपचुप तरीके से फाँसी पर लटकाए जाने का निर्णय कितना देश हित में और कितना कांग्रेस के राजनैतिक हित में है? यदि इसका आकलन अतीत में कांग्रेस की कश्मीर पालिसी को लेकर किया जाए तो यह बात स्पष्ट रूप से सामने आती है कि कश्मीर को लेकर कांग्रेस पार्टी ने अब तक जो भी निर्णय लिए है वे देश हित में कम कांग्रेस हित में अधिक रहे हैं।
देश के उत्तरी भाग में हिमालय की गोद में स्वर्ग की संज्ञा से नवाजे जाने वाले कश्मीर की संस्कृति एवं उसकी सभ्यता को यदि मुगल शासक शाहजहाँ ने शालीमार बाग से सुसज्जित किया था तो वहीं ऋषि मुनियों व पीर व मुर्शिदों की तपस्या, सूफियाना तहरीक ने गंगा जमुनी तहजीब को परवान चढ़ाया था। 18वीं शताब्दी तक कश्मीर प्रान्त पर अफगानियों की हुकूमत थी परन्तु 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में सिख शासक महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी प्रभुता स्थापित कर ली थी। 19वीं शताब्दी के मध्य में अंग्रेज शासको ने ताबड़तोड़ कई हमले करके सिख शासक महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य की चूलें हिला दीं। अंततः 1848 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के आगे महाराजा रणजीत सिंह ने समर्पण कर दिया जो कि लाहौर संधि के नाम से जाना जाता है। अंग्रेज शासकों ने अपनी पिट्ठू हुकूमत महाराजा हरिसिंह के द्वारा कश्मीर में स्थापित कर दी।
भारत के विभाजन के समय सरदार वल्लभ भाई पटेल के तमाम प्रयासों के बावजूद महाराजा हरि सिंह ने कश्मीर प्रान्त का विलय स्वतंत्र भारत में नहीं किया जबकि देश की सैकड़ों रियासतों के भाग्य का फैसला वहाँ की धार्मिक आबादी के आधार पर किया गया।
हैदराबाद के निजाम द्वारा भी महाराजा हरि सिंह की भाँति अपने प्रान्त का स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखने का निर्णय लिया गया, परन्तु सरदार पटेल ने मजबूत इरादों का परिचय देते हुए सैन्य बल की सहायता से निज़्ााम की प्रतिरोध शक्ति को तोड़ दिया।
महाराजा हरि सिंह के साम्राज्य पर संकट के बादल अक्टूबर 1947 में उस समय घिर आए जब पाकिस्तानी शासकों के समर्थन से पठान कबायल के भेष में पाकिस्तानी सेना ने आक्रमण कर दिया और संभावना इस बात की प्रबल हो चली कि 60 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम आबादी वाला जम्मू कश्मीर प्रान्त पाकिस्तानियों के कब्जे में चला जाएगा, विवश होकर महाराजा हरि सिंह ने भारत के शासकों और लार्डमाउण्ट वेटन को लिखे गए पत्र द्वारा सैन्य सहायता की माँग की। अन्ततः 25 अक्टूबर को महाराजा हरि सिंह और लार्डमाउण्ट बेटन, जो इस समय वर्मा के शासक थे के बीच एक सन्धि का प्रस्ताव हस्ताक्षरित हुआ जिसे लार्डमाउण्ट बेटन के हस्तक्षेप से 27 अक्टूबर 1947 को भारत सरकार ने सशर्त स्वीकार कर लिया।
भारत से सैन्य सहायता प्राप्त कर कश्मीर की जनता व महाराजा हरि सिंह की सेना ने संयुक्त रूप से आक्रमणकारियों को खदेड़ना प्रारम्भ कर दिया। इस युद्ध में नेशनल कांफ्रेंस के शेख अब्दुल्ला ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उनके कार्यकर्ताओं ने भारतीय सेना के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर साथ दिया, जब ऐसा लग रहा था कि सम्पूर्ण कश्मीर पर पुनः भारत का प्रभुत्व स्थापित हो जाएगा तो संयुक्त राष्ट्र संघ ने युद्ध विराम करने के संदेश के साथ हस्तक्षेप किया जिसे प्रधानमंत्री पं0 जवाहर लाल नेहरू ने युद्ध विराम के रूप में स्वीकार कर लिया। परिणामस्वरूप कश्मीर के 37 प्रतिशत भाग पर पाकिस्तान का कब्जा हो गया और 43 प्रतिशत भाग भारत के हिस्से में आया। संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्देशों पर भारत ने अमल तो कर लिया परन्तु पाकिस्तान ने अपनी सेना कश्मीर से वापस नहीं बुलाई और अपने कब्जे में लिए गए कश्मीर भाग को आजाद कश्मीर बना दिया।

कश्मीर का भारत में विलय सशर्त हुआ था जिसमें संविधान के अनुच्छेद 370के अन्तर्गत कश्मीर प्रान्त को विशेष दर्जा दिया गया था जिसके अन्तर्गत कश्मीर प्रान्त की सुरक्षा, कानून व्यवस्था एव ंविकास योजनाएँ बनाने का अधिकार भारत सरकार के संघीय ढाँचे को दिया गया था, परन्तु कश्मीर के लोकतांत्रिक स्वरूप के अस्तित्व को विशेष दर्जा देते हुए प्रदेश मुखिया को प्रधानमंत्री का दर्जा दिया गया था। प्रधानमंत्री रामचन्द्र काक कश्मीर प्रान्त के पहले प्रधानमंत्री बनाए गए जिनका सम्बन्ध इण्डिन नेशनल कांग्रेस से था। उसके बाद 5 मार्च 1948 को कश्मीरियों के जन प्रिय नेता शेख अब्दुल्ला कश्मीर के प्रधानमंत्री बने जिनके पूर्वज हिन्दू थे। शेख अब्दुल्ला पं0 जवाहर लाल नेहरू के पुराने मित्र थे परन्तु इस मित्रता में खटास सत्तासीन होने के पश्चात पड़नी प्रारम हो गई और पाकिस्तान की ओर उनके बढ़ते झुकाव का आरोप लगाकर शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार करके कश्मीर की सत्ता बक्शी गुलाम मोहम्मद के हाथों में कांग्रेस द्वारा सौंप दी गई। कश्मीर की जनता ने इसका जमकर विरोध किया और भारत से अलगाववाद की सोच ने जन्म ले लिया। बक्शी गुलाम मोहम्मद का कार्यकाल दस वर्षो से अधिक समय तक रहा उनके पश्चात ख्वाजा शमसुद्दीन और जी0एम0 सादिक कश्मीर के प्रधानमंत्री बने, जो बाद में कश्मीर के अन्तिम प्रधानमंत्री साबित हुए, क्योंकि वर्ष 1965 में लाल बहादुर शास्त्री के प्रधानमंत्रित्व काल मेें विलय की शर्तों में संशोधन करते हुए प्रधानमंत्री का पद समाप्त कर दिया गया और जी0एम0 सादिक कश्मीर प्रान्त के पहले मुख्यमंत्री बने। शेख अब्दुल्ला के साथ राजनैतिक द्वेष भावना से किए गए सलूक से खिन्न होकर पनप रही अलगाववादी सोच के ऊपर पेट्रोल छिड़कने का काम पाकिस्तानियों ने प्रारम्भ कर दिया और कश्मीर की जनता के बीच अपने एजेन्ट भेजकर इस बात का अनुमान पाकिस्तानी शासक अय्यूब खाँ लगाने में जुट गए कि कश्मीर की जनता का स्नेह भारत के प्रति अब कितना बचा है और पाकिस्तानियों की ओर कितना बढ़ा है।
अय्यूब खाँ ने दिसम्बर 1965 में अपने इसी आकलन का सहारा लेकर कश्मीर पर हमला कर दिया परन्तु उनका आकलन गलत सिद्ध हुआ। कश्मीर के नागरिकों ने पाकिस्तानी सैनिकों के खिलाफ जमकर मुकाबला किया और पराजित होकर वापस भागती अय्यूब खाँ की सेना का पीछा करते भारतीय सेना जब लाइन आॅफ कन्ट्रोल को पार करके आजाद कश्मीर में घुस गई तो एक बार फिर संयुक्त राष्ट्र संघ ने हस्तक्षेप किया और ताशकन्द में अय्यूब खाँ के साथ बातचीत के उपरान्त संधि करके तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री मानसिक रूप से इतने उत्पीडि़त हुए कि वे जीवित वतन वापस न लौट सके।
लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद सत्तासीन हुईं देश की प्रथम महिला प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने वर्ष 1971 में पाकिस्तान को छठीं का दूध याद दिलाते हुए जो विजयश्री भारत पाक युद्ध में प्राप्त की और जिस प्रकार पाकिस्तान के एक भाग को उससे जुदा करके बंगलादेश राष्ट्र की स्थापना करने में अपना योगदान दिया उसने पाकिस्तान के आक्रामक तेवरों की रीढ़ की हड्डी तोड़ डाली। परिणाम स्वरूप कश्मीर की अलगाववादी सोच भी शिथिल पड़ गई। अवसर को बेहतर मानकर प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने वर्षों से जेल में बन्द शेख अब्दुल्ला को रिहा कर दिया और 25 फरवरी 1975 को 22 वर्षों के उपरान्त कश्मीर की सत्ता कांग्रेस के मुख्यमंत्री सैय्यद मीर कासिम के हाथों से लेकर शेख अब्दुल्ला को सौंप दी।
शेख अब्दुल्ला और इन्दिरा गांधी की संधि सन् 1975 की संधि के नाम से जानी जाती है।
इन्दिरा गांधी की सत्ता पर संकट के दिन तब मँडराना शुरू हुए जब उन्होंने सत्ता पर जमे रहने की दृष्टि से आपात्काल की 1975 में घोषणा करके देश के लोकतंत्र का गला घोटने का प्रयास किया। शेख अब्दुल्ला की सत्ता भी जनता पार्टी के समय डावांडोल होने लगी। परिणाम स्वरूप बाद में शेख अब्दुल्ला की सरकार को जनता पार्टी के शासकों ने बर्खास्त कर वहाँ राष्ट्रपति शासन लगा दिया। परन्तु बाद में शेख अब्दुल्ला को पुनः 9 जुलाई 1977 को जनता ने मुख्यमंत्री चुन लिया। 1
मो .9455804309
-तारिक खान

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