प्रिय,
अधूरे को ही तो
पूरा किया जाता है
पूर्णता तो स्वयं
स्थान रहित होती है…
पृथ्वी पर मैं
टूटे दिल,
विरह के मारे प्रेमी,
व्यथित हृदयों,
कल्पनायों में
विचरने वालों के
अधूरे सपने ही तो
पूरे करने जाती हूँ।
पर अब तो,
मानव ही बदल गया
न छत्त है, न आँगन
बड़ी-बड़ी अट्टालिकायें
न जा सकूँ, न फैल सकूँ
फिर निराश आशिक भी कहाँ…
इधर दिल टूटा,
नई जगह है जुड़ जाता,
आहें भरने,
मुझ से ठंडक पाने का समय कहाँ…
कल्पनाओं में मुझे बुनने वाले
अब कवि भी कहाँ…
बुद्धि कौशल में उलझे उनके
हृदयों में अब मेरा स्थान कहाँ…
प्रिय,
धरती वासी
तुम पर बसना चाहते हैं,
जिस दिन तुम्हें कष्ट में पाऊँगी,
रक्षा कवच बन जाऊँगी,
साथ निभाने आऊँगी,
पूर्णता पा जाऊँगी,
अभी मुझे धर्म निभाने दो,
कुछ बेचैन रूहों,
अतृप्त आत्मायों को सुख देने दो…!
-मीत
बहुत भावपूर्ण सार्थक रचना!
bahut sunder kavita.
अच्छी चल रही थी पर अंत में कौन है जो कह रहा है का खुलासा नहीं हो पाया
अपना नुकसान कि पूरा अर्थ नहीं पता चला
आप की रचना 23 जुलाई, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपने सुझाव देकर हमें प्रोत्साहित करें.
http://charchamanch.blogspot.com
आभार
अनामिका
वाह ! क्या बात है ! बहुत सुन्दर रचना !
मुझ से ठंडक पाने का समय कहाँ…
कल्पनाओं में मुझे बुनने वाले
अब कवि भी कहाँ…
बुद्धि कौशल में उलझे उनके
हृदयों में अब मेरा स्थान कहाँ…
सटीक और सार्थक …सुन्दर रचना
वाह ! क्या बात है ! बहुत सुन्दर रचना !