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Archive for फ़रवरी, 2010

किसी गांव में नदी के किनारे एक ज्योतिषी जी लोगों का भाग्य बताने के लिये बैठते थे, सहसा दो लोग (बाप-बेटे) वहाँ पहुंचे, नदी पर पुल नही था न ही नाव थी, उन्हें उस पार के गांव जाना था, यह पता नहीं था कि नदी कितनी गहरी है, ज्योतिषी जी ने उनकी सहायता करने के लिये दोनों का कद़ नापा, बाप पांच फीट तथा बेटा 3 फिट लम्बा था, नदी की गहराई जाकर नापी जो साढ़े तीन फिट थी, दोनों का औसत चार फिट ठहरा, निश्चित भाव से दोनों से कहा बेखौफ उतर जाओ, डूबने का प्रश्न ही नहीं उठता, जब वे गहराई में पहुंचे तो बेटा डूबने लगा। आप ने देखा इस चुटकुले में आंकड़े का दुरूपयोग हुआ है। गणित एवं तथ्य अलग-अलग रास्तों पर हैं।
मानव जीवन आंकड़े के बगैर आगे नहीं बढ़ सकता, जमीन से लेकर आसमान तक ज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में इसकी आवश्यकता सर्वविदित है परन्तु इसका दुरूपयोग भी अनेक कारणों से खूब किया गया है, इस दुरूपयोग को हम आंकड़ेबाजी कहते हैं, सरकारें इस बाज़ीगरी में माहिर है, इसीं के सहारे वह बातों को उलटती पलटती रहती है और जनता के दिमाग में वही बाते भरती है जो वह अपनी स्वार्थपूर्ति के लिये चाहती है।
कुछ वर्षों पहले इण्डिया शाइनिंग के नक्शे आप ने देखे ही थे। प्रति व्यक्ति औसत आय जो आंकड़ों के द्वारा पेश की जाती है वह हजारों में है और प्रतिवर्ष सरकारी आंकड़ों में वह बढ़ जाती है परन्तु धरातल पर जब हम देखते हैं कि आधे से अधिक आबादी को दो जून की रोटी भी नहीं मिल पाती। उधर पूंजीपतियों की पूंजी बढ़ती जाती है, इधर गरीब की गरीबी में बढ़ोत्तरी हो रही है और महंगाई कोेढ़ में खाज का काम कर रही हैं भारत बढ़ रहा है और औसत आमदनी भी बढ़ रही है। फील गुड के लिये क्या यह काफी नहीं है? इण्डिया शाइनिंग का काम अब भी जारी है।
आदिकाल से समाज शोषक और शोषित में विभाजित रहा है, सामन्तवाद अपने चेहरे और वेश को समयानुसार बदलता है और शोषण के नये तरीके अपनाता है, जब भारत आजाद हुआ और ज़मीदारी उन्मूलन हुआ तो आम जनता को ऐसा लगा कि बन्धनों से मुक्ति मिली, ज़मीनों के मालिकाना हक़ मिलने से विकास के रास्ते खुल गये।
आज आज़ादी के छःह दशक पूरे हो चुके हैं। ज़मीदार, राजा, तालुके़दार, महाजन साहूकार से मुक्ति मिली परन्तु नये सामन्तवाद ने जनम लिया नेता, अफ़सर और बाहुबलियों के काकस ने समाज को जकड़ लिया, मंत्री, सांसद विधायक, चेयरमैन, मेयर, प्रमुख, सभापति, सदस्य, सभासद और प्रधानों आदि के एक बड़े वर्ग ने जनता की गाढ़ी कमाई पर हाथ साफ़ करना शुरू कर दिया, ग़रीब लुटता रहा वह बेचारा नंगा-भूखा ही रहा, मेड़िया में खबर आती रही कि देश तरक्क़ी कर रहा है।
कभी ग़रीबों, दलितों, महिलाओं व अल्पसंख्यकों के सरोकारों को लेकर एक हो जाने वाली संसद ने अपना सुरबदल दिया है। अब वहाँ पूँजीवाद, जात-पात और भाई-भतीजावाद हावी हो गया है। केन्द्रीय योजना आयोग के सदस्य प्रो0 अर्जुन सेनगुप्ता समिति की एक रिपोर्ट के हवालेसे यह तथ्य पेश किया है कि भारत की 74 करोड़ आबादी रोज़ाना प्रति व्यक्ति केवल 20 रूपये में जीवनयापन करती है।
एक तरफ यह तथ्य हैं, दूसरी तरफ सरकारें अपनी तरकीबों से विकास के आंकड़े बड़े-बड़े विज्ञापनों में दर्शाकर जनता को दिवा स्वप्न दिखाती हैं, इन हालत में बेचारा ग़रीब अपनी व्यथा किससे कहे-

दीन सबन को लखत है, दीनहि लखै न कोय,
जो रहीम दीनहिं लखै, दीन-बंधु सम होय।

-डॉक्टर एस.एम हैदर
-फ़ोन: 05248-220866

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न आतंकवाद खत्म करने में, न दुनिया को परमाणु हथियारों के खतरों से बचाने में बल्कि उसकी
दिलचस्पी तेल पर कब्जा करने और इस जरिये बाकी दुनिया पर अपना वर्चस्व बढ़ाने में है।
अमेरिका की फौजी मौजूदगी ने उसे दुनिया के करीब 50 फीसदी प्राकृतिक तेल के स्त्रोतों पर प्रत्यक्ष या
अप्रत्यक्ष कब्जा दिला दिया है और अब उसकी निगाह ईरान के 10 प्रतिशत तेल पर काबिज होने की है।
दरअसल मामला सिर्फ यह नहीं है कि अगर अमेरिका को 50 फीसदी तेल हासिल हो गया है तो वो ईरान
को बख्श क्यों नहीं देता। सवाल ये है कि अगर 10 फीसदी तेल के साथ ईरान अमेरिका के विरोधी खेमे के
साथ खड़ा होता है तो दुनिया में फिर अमेरिका के खिलाफ खड़ा होने की हिम्मत कोई न कोई करेगा।
याद कीजिए कि अमेरिका ने 2003 में इराक पर जंग छेड़ने के पहले ये आरोप लगाये थे कि उसके पास
परमाणु हथियारों व जनसंहारक हथियारों का जखीरा मौजूद है। तब संयुक्त राष्ट्र संघ और अन्य
अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा कई मर्तबा इराक में सद्दाम हुसैन की स्वीकृति के साथ की गयीं
जाँच-पड़तालों के बावजूद ऐसे किन्हीं हथियारों की मौजूदगी का अस्तित्व प्रमाणित नहीं किया जा सका
था। आज जबकि सद्दाम हुसैन को सूली चढ़ाया जा चुका है और इराक में अब अमेरिकी समर्थन की
सरकार बैठी है, तब भी ऐसे किन्हीं हथियारों की बरामदगी नहीं हो सकी है। अमेरिका के लिए दोनों ही
स्थितियाँ फायदे की थीं। अगर इराक के पास परमाणु हथियार पाये जाते तो वो इराक के खिलाफ व अपने
पक्ष में विश्व में और जनमत बढ़ा लेता और इराक पर हमला करने का नया बहाना ढूँढ़ लेता। और अगर
नहीं निकले तो उसे ये तसल्ली हो जाती कि इराक अमेरिकी फौज या अमेरिका का उतना बड़ा नुकसान
नहीं कर सकता जितना किसी परमाणु बम से हो सकता है। जाँच-पड़तालों से उसे इराक के सामरिक
महत्त्व के ठिकानों की जानकारी तो हो ही गयी थी।
यही रणनीति अमेरिका ईरान के लिए अपना रहा है। ईरान द्वारा परमाणु हथियारों के निर्माण की अमेरिकी
कहानी को अब तक किसी सूत्र ने प्रमाणित नहीं किया है। यहाँ तक कि अंतरराष्ट्रीय परमाणु उर्जा एजेंसी
(आईएईए) के तमाम निरीक्षणों ने भी ईरान की ऐसी किसी कोषिष पर अपनी मुहर नहीं लगायी है। बल्कि
2009 की सितंबर में ईरान ने आईएईए के निरीक्षक दल को अपने परमाणु संवर्धन के ठिकानों का निरीक्षण
भी करवाया जहाँ ईरान अपने यूरेनियम का उस सीमा तक संवर्धन करता है जिससे उसका उपयोग कैंसर
जैसी बीमारियों के इलाज और बिजली बनाने के लिए किया जा सके। परमाणु अप्रसार संधि का
हस्ताक्षरकर्ता देष होने के नाते ईरान को शांतिपूर्ण मकसद से ऐसा करने का अधिकार भी प्राप्त है।
अनेक पष्चिमी परमाणु वैज्ञानिकों का मानना है कि ईरान के पास वो तकनीक है ही नहीं जिससे यूरेनियम
में शामिल माॅलिब्डेनम की अषुद्धि को दूर कर उसे हथियार के तौर पर उपयोग के लायक बनाया जा सके।
कुछ का अनुमान है कि उस तकनीक को पाने में ईरान को करीब 10 वर्ष का समय लग सकता है।
परमाणु बम बनाने के लिए 80 प्रतिषत तक प्रसंस्कारित किये गये यूरेनियम की जरूरत होती है, जबकि
खुद अमेरिकी सूत्रों के मुताबिक ईरान ज्यादा से ज्यादा 20 प्रतिषत तक प्रसंस्करण की क्षमता विकसित कर
सकता है। यह क्षमता वो पहले भी हासिल कर सकता था, लेकिन ईरान के परमाणु कार्यक्रम को अमेरिका
ने अनेक प्रकार से स्थगित करवाये रखा। अक्टूबर 2009 में वियना में हुई बैठक में ईरान इस बात के लिए
भी राजी हो चुका था कि वो अपने पास उपलब्ध अल्प सवंर्धित यूरेनियम (लो एनरिच्ड यूरेनियम) का एक
बड़ा हिस्सा फ्रांस और रूस को भेज देगा जो उसे इतना प्रसंस्कारित कर लौटाएँगे कि उसका इस्तेमाल
परमाणु हथियार बनाने में न किया जा सके। वियना वार्ता में अपने असंवर्धित यूरेनियम का कुछ भाग देने
के लिए ईरान राजी भी हो गया था, लेकिन अमेरिका ने जिद रखी कि ईरान को अपना पूरा ही यूरेनियम
प्रसंस्करण हेतु दे देना चाहिए।
इसके लिए अहमदीनेजाद को देश के भीतर आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ा कि वो अमेरिका के
बहकावे में आकर अपने देश के यूरेनियम से भी हाथ धो बैठेंगे। आलोचकों ने, जिनमें ईरान के परमाणु
मामलों के जानकार भी शामिल थे, यह आशंका भी व्यक्त की कि पश्चिमी देश वो यूरेनियम ईरान को
लौटाएँगे ही नहीं जो उन्हें प्रसंस्कारित करने के लिए दिया जाएगा।
अमेरिका का कहना था कि ईरान थोड़ा यूरेनियम प्रसंस्करण के लिए देकर बचे हुए में से बम बना सकता
है। जबकि ईरान का कहना था कि पहले हमारा थोड़ा यूरेनियम प्रसंस्कारित करके वापस करो तब हम और
देंगे। इसी की आड़ लेकर अमेरिका व जर्मनी ने 28 जनवरी 2010 को ईरान पर नये व्यापारिक व आर्थिक
प्रतिबंध लागू कर दिये जिनके तहत कोई भी इकाई यानी कोई व्यक्ति, कंपनी या यहाँ तक कि कोई देश
भी अगर ईरान के साथ रिफाइंड पेट्रोलियम का व्यापार करता है तो उसे कड़े प्रतिबंधों का सामना करना
पड़ेगा पहले से जारी तीन प्रतिबंधों के साथ ये नये प्रतिबंध ईरान को अकेला करने की एक और कोषिष
हैं। इतना ही नहीं, प्रतिबंधों की घोषणा के तत्काल बाद ईरान की सीमाओं पर अमेरिका की सैन्य उपस्थिति
भी बढ़ा दी गयी है।
अमेरिका के इस रवैये पर 9 फरवरी 2010 से ईरान ने अपने यूरेनियम का प्रसंस्करण करने का कार्यक्रम
शुरू कर दिया है और साथ ही अपनी परमाणु हथियार न बनाने की मंषा जाहिर करने के लिए ईरान ने
मई 2010 में परमाणु निरस्त्रीकरण के मसले पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन बुलाने की घोषणा भी की है।
यह जानना भी कम दिलचस्प नहीं है कि अगर 1979 की क्रांति न हुई होती और अभी तक ईरान में शाह
पहलवी की ही हुकूमत होती तो खुद अमेरिका के समर्थन से ईरान परमाणु शक्ति संपन्न बन गया होता।
अमेरिका के चहेते शाह पहलवी ने परमाणु हथियार बनाने की मंषा का खुलेआम ऐलान किया था और
उसके लिए परमाणु ईंधन और परमाणु रिएक्टर अमेरिका ने ही मुहैया कराये थे। 1979 की क्रांति के बाद
अयातुल्ला खुमैनी के जमाने से अब तक ईरान परमाणु शक्ति संपन्न देषों की जमात में शामिल होने के
लिए कभी उत्सुक नहीं रहा है। खुद अयातुल्ला अली खामैनी और अहमदीनेजाद अनेक दफा सार्वजनिक
रूप से कह चुके हैं कि परमाणु हथियारों को रखना इस्लामिक क्रांति के मूल्यों के खिलाफ है।
इन तकनीकी सवालों व अनुमानों को और धार्मिक या राजनीतिक बयानों को छोड़ भी दिया जाए तो ये
सवाल पूछना तो लाजिमी है कि वे कौन हैं जो दुनिया की नैतिक पुलिस बनकर परमाणु हथियारों के
मामलों में ईरान के खिलाफ मुष्कें चढ़ा रहे हैं। खुद अमेरिका के पास न केवल दुनिया के परमाणु हथियारों
का सबसे बड़ा जखीरा है बल्कि दुनिया के अब तक के इतिहास में वही एकमात्र देष रहा है जिसने किसी
देष की लाखों की बेकसूर नागरिक आबादी पर परमाणु हथियारों का इस्तेमाल कर समूचे मानव इतिहास में
नृषंसता की सबसे बड़ी मिसाल कायम की है। और फिर खम ठोक कर परमाणु हथियार बना चुके
पाकिस्तान, भारत, उत्तरी कोरिया और इजरायल पर भी ईरान जैसी सख्ती नहीं की गयी तो ईरान से ही
खलनायक की तरह क्यों व्यवहार किया जा रहा हैं? इजरायल के परमाणु कार्यक्रम की जाँच का प्रस्ताव तो
अमेरिका हर बार अपनी वीटो शक्ति का उपयोग करके गिराता रहा है।
इराक के तजुर्बे से हिचकिचाहट
इराक पर आजमायी तरकीब को अमेरिका ईरान पर भी आजमाना चाहता है। लेकिन परमाणु हथियारों के
निर्माण की कोषिषों का आरोप लगाकर प्रतिबंधों के जरिये ईरान को भीतर से कमजोर कर उसे फौज के
दम पर जीत लेने के मंसूबों में इराक का तजुर्बा ही अमेरिका को अनिर्णय की स्थिति में रखे हुए है।
दरअसल 1 ट्रिलियन (1000000000000) डाॅलर से ज्यादा फूँक डालने के बावजूद, सद्दाम हुसैन को फाँसी
पर चढ़ाने के बावजूद, लाखों मासूम इराकी लोगों, बच्चों, औरतों, बुजुर्गों को लाषों में बदल डालने और
अपने सैकड़ों ‘बहुमूल्य’ सैनिकों की जानें गँवा देने के बावजूद इराक पर पूरी तरह से अमेरिका आज भी
कब्जा नहीं कर सका है। अपनी आजादी के छिनने और अपनी दुनिया के उजड़ने के बाद जो इराकी लोग
जिंदा बचे हैं, वे चुपचाप मातम नहीं मना रहे हैं। वे जैसे भी मुमकिन है, बंदूकों, बमों, या आत्मघाती तरीकों
की हद तक जाकर भी अमेरिकी फौज से बदला ले रहे हैं। और लाखों की तादाद में मारे जाने के बावजूद
अमेरिका के प्रति भयानक गुस्से से भरे ऐसे लोग अगर करोड़ों में न भी हों तो भी लाखों में तो हैं हीं। एक
लिहाज से इराक अमेरिकी और अमेरिका के मित्र देशों के फौजियों के लिए गले की हड्डी बन चुका है।
शायद ऐसे ही किसी मौके के लिए तुर्की के प्रसिद्ध क्रांतिकारी कवि नाजिम हिकमत ने कहा होगा ‘‘
गिरफ्तार हो जाना अलग बात है, खास बात है आत्मसमर्पण न करना।’’
अमेरिकी रणनीतिकार जानते हैं कि ईरान ईराक से तीन गुना बड़ा देश है। ईरान की आबादी ईराक से
दोगुनी से भी ज्यादा है। मौलानाओं की धार्मिक सत्ता की वजह से मजहबपरस्ती भी ज्यादा है और इसलिए
अमेरिकाविरोधी भावनाएँ भी ज्यादा उग्र हैं। ईरान पर सीधा हमला करने जैसा कदम उठाने की हिम्मत
अमेरिका के फौजी रणनीतिज्ञों की नहीं हो पा रही है।
इसीलिए परमाणु हथियारों के निर्माण की कोशिशें का आरोप ईरान पर मढ़कर कुछ और प्रतिबंध लगाकर
अमेरिका ईरान को या तो इतना कमजोर कर देना चाहता है कि जब उसकी फौजें ईरान में दाखिल हों तो
न्यूनतम प्रतिरोध का सामना करना पड़े। या फिर, जैसा कि अनेक अमेरिकी दक्षिणपंथी बुद्धिजीवी बराक
ओबामा को सलाह दे रहे हैं कि वो ईरान को इराक की तरह तहस-नहस करने के मंसूबों को छोड़ वहाँ
अयातुल्ला अली खामैनी और अहमदीनेजाद की हुकूमत का तख्तापलट करवाकर उसकी जगह किसी
अमेरिकी फर्माबरदार सरकार को गद्दीनषीन करवाने की हिकमत करें।
दोस्त पास के और दोस्त दूर के
यह तो साफ है कि ईरान चैतरफा अमेरिकी दबावों से घिर रहा है और ये दबाव बढ़ते जा रहे हैं। ठीक
मौका मिलते ही ईरान को अपने साम्राज्यवादी आॅक्टोपसी शिकंजे में कसने के लिए वो ताक लगाये बैठा है
और यह भी साफ है कि ईरान पर कब्जा होते ही वो उत्तरी कोरिया पर अपना निषाना साधेगा। ऐसे में
ईरान के लिए अपनी संप्रभुता और आजादी बचाये रखने के लिए ये जरूरी है कि वो अमेरिकी साम्राज्यवाद
विरोधी बिखरी अंतरराष्ट्रीय ताकतों को एकजुट करे। क्यूबा ईरान का पुराना खैरख्वाह रहा है और पिछले
दिनों वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो चावेज के साथ मिलकर अहमदीनेजाद ने जो वैकल्पिक कोष बनाया है
उससे दूसरे छोटे देष भी विष्व बैंक और आईएमएफ के चंगुल से बचते हुए अमेरिकाविरोधी खेमे को
मजबूत कर सकते हैं। वेनेजुएला और ईरान मिलकर पेट्रोलियम व्यापार में डाॅलर की सर्वोच्चता को भी
चुनौती देने की वैसी कशिश मिलकर कर रहे हैं जो सद्दाम हुसैन ने अकेले की थी।
लेकिन इन कोषिषों के असर का दायरा बड़ा होने में वक्त लगेगा। अगर इस बीच ईरान पर अमेरिका या
इजरायल हमला करता है तो सुदूर लैटिन अमेरिका में मौजूद वेनेजुएला या क्यूबा उसे रोक सकने में सक्षम
होंगे-ऐसी उम्मीद करना ज्यादा आषावादी होना होगा। ईरान का सबसे ताकतवर और असरदार सहयोगी
उसके बिल्कुल पड़ोस में मौजूद इराक हो सकता था जिसे ईरान ने अपनी पुरानी दुश्मनी और तंगनजरी की
वजह से आँखों के सामने तहस-नहस होते देखा।
चीन, रूस जैसे देषों से उसे अगर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कोई सहयोग मिलता भी है तो वो भी एक बहुत
सीमित सहयोग ही होगा। चीन ईरान के तेल का बड़ा आयातक देष है। ईरान के साथ चीन का 17 अरब
डाॅलर का प्रत्यक्ष व्यापार है जो बाजरिये दुबई 30 अरब डाॅलर तक पहुँचता है। अपने आर्थिक हितों के लिए
ईरान के साथ व्यापार करने से चीन पर कोई दबाव अमेरिका नहीं बना सकता है। हाँ, अगर ईरान को काबू
में करने में या वहाँ के तेल संसाधनों पर कब्जा करने में अमेरिका कामयाब हो जाता है तो चीन, क्यूबा,
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भारत जैसे अनेक देषों की निर्भरता अमेरिकी प्रभाव वाले देशों पर बढ़ जाएगी। हालाँकि चीन लगातार
संयुक्त राष्ट्र संघ व अन्य बहुपक्षीय वार्ताओं में ईरान पर प्रतिबंधों के खिलाफ दलीलें रखता रहा है लेकिन
चीन से वैसी किसी भूमिका की उम्मीद करने का कोई आधार नहीं है जैसी सोवियत संघ के अस्तित्व में
रहते सोवियत संघ निभाया करता था।
पड़ोसी मुल्कों में पाकिस्तान और भारत दो अन्य ताकतवर देष हैं और दोनों ही देषों के सामने ईरान ने
गैस पाइपलाइन बिछाने का जो प्रस्ताव रखा है वो अमेरिका की प्रस्तावित पाइपलाइन योजना को खटाई में
डाल सकता है। विषेषज्ञों के मुताबिक ये कहा जाना तो मुष्किल है कि उक्त पाइपलाइन से प्राप्त होने
वाली गैस अमेरिका की प्रस्तावित पाइपलाइन योजना से सस्ती होगी, लेकिन ये जरूर कहा जा सकता है
कि अगर ये योजना आकार लेती है तो भारत, पाकिस्तान और ईरान के संबंधों में ऐतिहासिक रूप से
सकारात्मक बदलाव आएगा। अगर ऐसा होता है तो ये अमेरिकी वर्चस्व को एक चुनौती तो होगी ही साथ
ही ये एषिया के तीन प्रमुख देषों को आपस में जोड़ने और शांति के नये अध्याय को भी शुरू करने की
भूमिका निभाएगी। इस परियोजना का भविष्य भारत और पाकिस्तान की सरकारों के नजरिये पर निर्भर
करता है कि वे अमेरिका की खुषामद करना ठीक समझती हैं या अपने मुल्कों की, इस महाद्वीप की और
आखिरकार पूरी इंसानियत की बेहतरी को तवज्जो देती हैं। बेषक दोनों ही देशों की मौजूदा सरकारों से ये
उम्मीद करना एक दूर की कौड़ी है लेकिन दोनों ही देषों के भीतर मौजूद जनवादी ताकतों से ये भूमिका
निभाने की उम्मीद तो की ही जा सकती है कि वे देष का जनमत इस पक्ष में मोड़ने की हर मुमकिन
कोषिष करें ताकि हुकूमतें जनता की आवाज को अनसुना न कर सकें। इराक पर अमेरिकी हमले के वक्त
अगर ईरान खामोष न रहा होता और अन्याय के खिलाफ खड़ा हुआ होता तो आज पष्चिम एषिया के
हालात बिलकुल जुदा होते। वर्ना जैसा इराक ने भुगता है और ईरान जिस खतरे के सामने खड़ा है वैसा
ही हाल भारत और पाकिस्तान का भी हो सकता है, कि ‘‘जब वो मुझे मारने आये तब कोई नहीं बचा था।’’
खुद ईरान की हुकूमत को भी ये समझना जरूरी है कि उसे अपने भीतर लोकतंत्र को मजबूत करने के
कदम उठाने होंगे। 1979 से अब तक तीस बरस का पानी बह चुका है और एक वक्त जो क्रांति मजहब के
सहारे हुई, उसका लगातार लोकतांत्रीकरण न किया गया तो उस क्रांति की उपलब्धियाँ भी इतिहास छीन
सकता है। देष के भीतर अल्पसंख्यकों, महिलाओं आदि को अधिक अधिकारसंपन्न करने से देष, हुकूमत
और लोग एकसाथ मजबूत होंगे।

जिम्मा सबका साझा
बात सिर्फ परमाणु हथियारों की नहीं, बात सिर्फ तेल पर कब्जे की नहीं, बात जंग और अमन की नैतिकता
की नहीं, बल्कि इससे कुछ ज्यादा है। बात ये है कि क्या दुनिया के सभी देश अपने आपको मानसिक रूप
से अमेरिका के अधीन महसूस करने के लिए तैयार हैं, क्या आजादी जीवन का कोई मूल्य है या नहीं, क्या
हर किस्म के संसाधन पर कब्जा और फैसले की ताकत हम अमेरिका के पास सुरक्षित रहने देना चाहते हैं
और क्या हमें इस बात से कोई तकलीफ नहीं कि दुनिया की आबादी का एक बहुत ही छोटा हिस्सा, जो
दरअसल पूरी अमेरिकी जनता का भी प्रतिनिधित्व नहीं करता है, सिर्फ शोषण की ताकत और पूँजी की
ताकत का इस्तेमाल करके सारी दुनिया पर निर्बाध अपना राज करता रह सके?
दूसरे विष्व युद्ध के बाद सोवियत संघ और चीन की मौजूदगी ने अमेरिकी साम्राज्यवाद के विष्व विजय के
सपने पर लगाम कसे रखी। न तो अमेरिकी उद्योगों ने अपने आपको दुनिया की उत्पादन व्यवस्था में
सिरमौर साबित किया (हथियार निर्माण को छोड़कर), न ही उनकी आर्थिक नीतियाँ कामयाब हुईं, उल्टे
अमेरिकी अर्थव्यवस्था ने न सिर्फ अमेरिका बल्कि उससे जुड़े अन्य अनेक देषों का भी दीवाला निकाल
दिया। अगर देखा जाए तो कुछ भी ऐसा नहीं है अमेरिका के पास जिसकी वजह से शेष विश्व में उसे वो
इज्जत और रसूख मिलना चाहिए जो उसे मिल रहा है, सिवाय एक फौजी ताकत को छोड़कर। अगर विष्व
बाजार में उसका माल नहीं बिक रहा है तो वो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विष्व बैंक के
जरिये अपना माल दूसरे देषों पर थोपता है। अगर कोई देष इस तरह के दबाव को मानने से इन्कार कर
दे तो अमेरिका फौज के दम पर उसे परास्त करता है। अगर उसका डॉलर अंतरराष्ट्रीय बाजार में कमजोर
पड़ता है तो उसका रास्ता भी वो फौजी कार्रवाई से निकालता है। एक तरह से अमेरिका दुनिया को उसी
दषा की ओर ले जा रहा है जिसके बारे में रोजा लक्जमबर्ग ने इषारा किया था कि ‘‘अगर पूँजीवाद को
खत्म करके समाजवाद न स्थापित किया जाए तो एक स्थिति के बाद ये दुनिया को एक बर्बर सभ्यता में
पहुँचा देता है।’’ दुनिया को बर्बरता से बचाने का जिम्मा सबका साझा है।

विनीत तिवारी, 2, चिनार अपार्टमेंट, 172, श्रीनगर एक्सटेंशन,इन्दौर-452018. मोबाइल-09893192740.

लोकसंघर्ष पत्रिका में शीघ्र प्रकाशित

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1.
ईरान क्यों?
-क्योंकि ईरान परमाणु बम बना रहा है;
-क्योंकि ईरान में इस्लामिक कट्टरपंथ मौजूद है;
-क्योंकि ईरान इजरायल पर हमला कर सकता है;
-क्योंकि खुद जाॅर्ज बुष उसे शैतान की धुरी का हिस्सा घोषित कर चुके हैं, वगैरह….
कुछ इसी तरह के जवाबों से अमेरिकी और अमेरिकापरस्त लोग सच्चाई पर नकाब चढ़ाने की कोषिष करते
हैं। अमेरिका की ईरान पर होने वाली इस खास नज़रे-इनायत को समझने के लिए पष्चिम एषिया की
भौगोलिक, आर्थिक स्थितियों और उससे जुड़ी राजनीति को समझना और वहाँ के हालिया घटनाक्रम पर
एक नजर डालनी जरूरी है।
दुनिया से शैतानियत का खात्मा करने का संकल्प लेने वाले तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जाॅर्ज बुष ने
शैतानियत की धुरी (एक्सिस आॅफ इविल) के तौर पर जिन देषों की पहचान की थी, उनमें से इराक को
उसकी सारी बेगुनाही के सबूतों के बावजूद लाषों से पाट दिया गया। दूसरा है उत्तरी कोरिया, जिसने
अमेरिकी मंषाओं को समझकर अपने आपको एक परमाणु ताकत बना लिया है। आकार और ताकत के
मानकों से देखा जाए तो अमेरिका और उत्तरी कोरिया की तुलना शेर और बिल्ली के रूपक से की जा
सकती है। लेकिन अब शेर को बिल्ली पर हाथ डालने से पहले कई बार सोचना पड़ेगा क्योंकि अब बिल्ली
के पंजों में परमाण्विक ताकत वाले नाखून आ गये हैं। उत्तरी कोरिया से निपटने की रणनीति का ही हिस्सा
है कि पहले बड़े दुष्मन से निपट लिया जाए। और वो बड़ा दुष्मन है ईरान।
यह सच है कि इराक को जमींदोज करने के बावजूद अमेरिका अभी तक अपने मंसूबों में पूरी तरह कामयाब
नहीं हो पाया है, लेकिन ये सच्चाई भी अपनी जगह बहुत अहम है कि इराक पर जंग के बहाने से अमेरिका
ने पश्चिम एशिया में अपनी सैन्य मौजूदगी को कई गुना बढ़ा लिया है। पश्चिम एषिया का मौजूदा सूरते
हाल ये है कि इजराएल, कुवैत, जाॅर्डन और सउदी अरब में पहले से ही अमेरिकापरस्त सरकारें मौजूद थीं,
लेबनान के प्रतिरोध को अमेरिकी शह पर इजराएल ने बारूद के गुबारों से ढाँप दिया है और सीरिया,
ओमान, जाॅर्जिया, यमन, जैसे छोटे देशों की कोई परवाह अमेरिका को है नहीं। भले ही तुर्क जनता में
अमेरिका द्वारा इराक पर छेड़ी गयी जंग का विरोध बढ़ रहा है लेकिन अपनी राजनीतिक, व्यापारिक व
भौगोलिक स्थितियों की वजह से तुर्की की सरकार योरप और अमेरिका के खिलाफ ईरान के साथ खड़ी
होगी, इसमें संदेह ही है। कुवैत में अमेरिकी पैट्रियट मिसाइलें तनी हुई हैं, संयुक्त अरब अमीरात और
2
बहरीन के पानी में अमेरिकी नौसेना का पाँचवाँ बेड़ा डेरा डाले हुए है। कतर ने इराक और अफगानिस्तान
पर हमलों के दौर में अमेरिकी वायु सेना के लिए अपनी जमीन और आसमान मुहैया कराये ही थे।
दरअसल इराक और फिलिस्तीन के भीतर अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ व्यापक विद्रोह को कुचलने के
बाद अब ईरान ही अहम देष है जहाँ से अमेरिकी वर्चस्ववाद के विरोध को जनता के साथ-साथ किसी हद
तक राज्य का भी समर्थन हासिल है।
ईरान की अंदरुनी मुष्किलें
यूँ तो पश्चिम एशिया के लगभग हर देश में बीती सदी में बहुत नाटकीय घटनाक्रम हुए हैं और बेतहाशा
रक्तपात भी। पिछले लगभग 50 बरसों से तो बहुत हद तक अंतरराष्ट्रीय राजनीति भी पश्चिम एशियाई देशों
की करवट के साथ बदलती रही है। और इनमें भी इराक और ईरान, ये दोनों देश अपने इतिहास,
साम्राज्यवादविरोधी राजनीति और भौगोलिक विस्तार की वजह से पश्चिम एषिया के सबसे प्रमुख केन्द्र रहे
हैं। 1980 से 1988 तक चले ईरान-इराक युद्ध ने दोनों देषों की जनता और हुकूमत पर ऐसे जख्म छोड़े हैं
जो पूरी ईमानदार और दषकों की लगातार कोषिषों के बाद भी मुष्किल से ही पाटे जा सकते हैं। सीमाओं
के विवाद, षिया-सुन्नी पंथों के विवादों, अमेरिकी साजिषों और मौकापरस्ती से उपजी इस जंग में दोनों
देषों के कुल पाँच लाख से ज्यादा फौजी और आम नागरिक मारे गये थे।
एक ओर जहाँ ईरान के पड़ोसी मुल्क इराक में राजनीतिक घटनाक्रम 1958 से ही राजषाही और सामंतवाद
के सैकड़ों बरसों के दायरे को तोड़कर आधुनिक दुनिया के निर्माण का हिस्सा बन रहा था, वहीं ये प्रक्रिया
ईरान में 1979 में जड़ें पकड़ सकी जब अयातुल्ला खुमैनी ने शाह मोहम्मद रजा पहलवी की राजषाही को
खत्म करके ईरान को इस्लामिक गणतंत्र का रूप दिया। ये क्रांति इस मायने में बहुत अहम थी कि इसने
कठमुल्लापन को एक ऐतिहासिक प्रगतिषील षक्ल दी लेकिन वहीं इसकी सीमाओं को पार करना जरूरी
था क्योंकि अपने होने में योरपीय व अमेरिकी साम्राज्यवाद के विरुद्ध जनक्रांति जैसी लगने के बावजूद उस
क्रांति में बहुत से प्रतिगामी तत्व मौजूद थे। मसलन् एक तरफ तो वो क्रांति शाह की गैरबराबरी को बढ़ावा
देने और शोषणकारी नीतियों के विरोध में थी, लेकिन दूसरी तरफ वो औरतों को वोट देने के अधिकार के,
उन्हें शादी में बराबरी के हक दिये जाने, अन्य धर्मावलंबी अल्पसंख्यकों को नौकरियाँ दिये जाने और संपत्ति
के बँटवारे के भी विरोध में थी, और अपने आप में धार्मिक लगने वाली वो क्रांति दरअसल उसी समाज के
निम्न पूँजीपतियों के कंधों पर सवार होकर आयी थी।
इसलिए 1979 की क्रांति के बाद राजषाही से आजाद होकर भी जो शक्ल ईरान ने अख्तियार की, वो एक
कोण से दकियानूस और रूढ़िवादी थी और दूसरे कोण से अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ अपनी संप्रभुता
के गौरव में डूबी दृढ़ता की झलक देती थी। तीस बरस बीतने के बाद भी ईरान की इस दो कोणों से
जुदा-जुदा लगती शक्ल में कोई खास तब्दीली नहीं आयी है। ईरान के संविधान के अनुसार देष की
सर्वोच्च सत्ता अभी भी देष के सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातुल्लाह खुमैनी के धार्मिक वारिस अयातुल्ला अली
हुसैनी खामैनी के हाथों में है। यहाँ तक कि मौजूदा राष्ट्रपति अहमदीनेजाद की राजनीतिक दीक्षा भी उसी
1979 के धार्मिक-राजनीतिक आंदोलन के दौरान हुई है।
इस तरह के आंदोलन में यह खतरा होता है कि राजनीति धार्मिक दायरे का अतिक्रमण कर पाने के बजाय
उस घेरे में और ज्यादा उलझती जाती है। ईरान की राजनीति के सामने भी ये जोखिम शुरू से बना हुआ
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है। रोजमर्रा की जिंदगी से लेकर अंतरराष्ट्रीय महत्त्व के ऐतिहासिक मसलों तक धार्मिक नजरिया अहम
होता है और धर्म के इस्तेमाल से आर्थिक-राजनीतिक संदर्भ बनाये और बिगाड़े जा सकते हैं।

12 जून 2009 में हुए राष्ट्रपति चुनावों में भले ही अहमदीनेजाद फिर चुन कर आ गये हों लेकिन उनके
खिलाफ ईरान में लगातार हुए प्रदर्षनों से और जिस तरह प्रदर्षनकारियों का दमन किया गया, करीब 15
लोग मारे गये और सैकड़ों घायल हुए, 11 प्रदर्षनकारियों को फाँसी की सजा सुनायी गयी, उससे ईरान के
भीतर राजनीतिक असंतोष के बढ़ने का अंदाजा लगाना मुष्किल नहीं है। हालाँकि ईरान सरकार उन
प्रदर्षनों के पीछे अमेरिकी साजिषें होना बता रही है जो काफी हद तक मुमकिन भी हो सकता है, लेकिन
सच ये है कि ईरान के भीतर जो ताकतें क्रांति के साथ राजनीति में मजबूती से उभर कर आयीं, उनमें एक
बड़ा तबका उनका है जो धर्म और स्थानीय आर्थिक हितों की साझेदारी से तीस बरसों में काफी बड़ी पूँजी
की मालिक बन चुकी हैं और अब उनमें से अनेक अमेरिका व पष्चिम के साथ रिश्ते बढ़ाकर वैश्विक पूँजी
की छोटी भागीदार बनना चाहती है।ं ऐसा ही हम भारत में भी देखते हैं कि आजादी के आंदोलन में स्वदेषी
आंदोलन से मुनाफा कमाने वाले अनेक व्यापारिक घरानों की रुचि विदेषी पूँजी के साथ गठबंधन में मुनाफा
कमाने में है। ईरान में ये ताकतें भारत की तरह पृष्ठभूमि में नहीं बल्कि राजनीति में खुलकर सक्रिय रही हैं।
उन्हीं में से मीर हुसैन मौसावी, मोहम्मद खातमी और अकबर हाषमी रफसंजानी देष के सर्वोच्च राजनीतिक
ओहदों तक पहुँचने में कामयाब भी हुए हैं।
बेषक ये धारा ईरान में बहुत गहरी जड़ें पकड़ी हुई धार्मिक मान्यताओं और पष्चिम व अमेरिका विरोध की
भावनाओं को आसानी से बदल नहीं सकती, इसीलिए इस धारा के लोग भी धार्मिक प्रतीकों के इस्तेमाल से
ही विरोध को एकजुट कर रहे हैं। वे अपने आपको इस्लाम का सही प्रतिनिधि और ईरान की क्रांति के
असली हकदार बताने की कोषिष कर रहे हैं। भले आखिरी तौर पर वे अपने इस मकसद में कामयाब हो
सकें या नहीं लेकिन जिस तरह से 12 जून 2009 के राष्ट्रपति चुनावों के बाद से हाल में दिसंबर 2009 में
हजारों लोगों के प्रदर्षनों से इन ताकतों ने ईरान को हिलाये रखा है, उससे एक बात तो साफ है कि वे
अहमदीनेजाद सरकार को अस्थिर और कमजोर तो कर ही सकते हैं।
वैष्विक आर्थिक संकट के असर ईरान पर भी पड़े हैं और ईरान की अर्थव्यवस्था भी संकट के दौर से गुजर
रही है। अमेरिका प्रेरित तमाम आर्थिक प्रतिबंध भी ईरान की अर्थव्यवस्था पर दबाव बढ़ा रहे हैं। ईरान की
आर्थिक वृद्धि दर 2009 में महज आधा प्रतिषत रही है, तेल से होने वाली आमदनी भी 2008 की 82 अरब
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डाॅलर से घटकर 60 अरब डाॅलर रह गयी। मुद्रास्फीति 15 प्रतिषत से ज्यादा और बेरोजगारी दर 11
प्रतिषत से अधिक थी।
इन सारी परेषानियों से ईरानी जनता के भीतर उभरने वाले असंतोष को अहमदीनेजाद और उन्हें समर्थन
करने वाले खामैनी की तरफ मोड़ने की रणनीति में मौसावी, खातमी और रफसंजानी का गुट कुछ हद तक
तो कामयाब हुआ भी है। अमेरिका की दिलचस्पी भी इसमें अधिक हो सकती है क्योंकि अपनी माफिक सत्ता
आ जाने से युद्ध को टाला जा सकेगा। मोहम्मद खातमी और रफसंजानी ने ईरान की सत्ता में अपने
कार्यकाल के दौरान अमेरिकापरस्त नव उदारवादी नीतियों को बढ़ावा भी दिया था।
तनावयुक्त सीमाएँ
इन राजनीतिक और आर्थिक मुष्किलों के अलावा ईरान में जातीय और अन्य सामाजिक समस्याओं का
अंबार भी कम नहीं है। एक तरफ ईरान की सीमा पाकिस्तान और अफगानिस्तान से मिली हुई है जहाँ न
केवल अमेरिकी फौजें तालिबानी आतंकवादियों से निपटने का बहाना लेकर जमी हुई हैं बल्कि वहाँ रहने
वाले बलूच लोगों के ईरान और अफगानिस्तान में रहने वाले बलूच लोगों के साथ दोस्ती और दुष्मनी, दोनों
के ही गहरे रिष्ते भी हैं।
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दूसरी तरफ इराक और तुर्की के साथ लगी हुई सीमाओं पर कुर्द लोगों की मौजूदगी है। तीनों देषों की
सीमाओं के इलाके में करीब 40 लाख कुर्द लोगों की आबादी ईरान, अजरबैजान, इराक और तुर्की में बँटी
हुई है। कुर्द ईरान की आबादी का करीब 7 फीसदी हिस्सा यानी करीब 70 लाख हैं। सीमा के इलाके में
इनकी आबादी करीब 40 लाख है और उनमें से भी 25 लाख सुन्नी हैं। कुर्द लोगों के साथ ईरानी हुकूमत
का खूनी रिष्ता रहा है। 1979 के वक्त ही अयातुल्ला खुमैनी के जमाने में ईरान में करीब 10 हजार कुर्द
अलगाववाद के इल्जाम में कत्ल किये गये थे। ईरान की करीब 90 फीसदी आबादी षिया मुसलमानों की है
और 8 फीसदी सुन्नी हैं। जबकि उसके पड़ोसी इराक में 40 फीसदी सुन्नी मुसलमान हैं। ईरानी कुर्द लोगों
की राजनीतिक पार्टी केडीपीआई पर मौजूदा सरकार ने प्रतिबंध लगाये हुए हैं और केडीपीआई का राष्ट्रपति
अहमदीनेजाद पर 1989 में उनके नेता डाॅ. कासिमलू की हत्या करवाने का आरोप है।
ये ध्यान रखना भी उतना ही जरूरी है कि ईरान के चारों तरफ अमेरिकी फौजों की मौजूदगी लगातार
बढ़ती गयी है। पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सउदी अरब और अब इराक में भी अमेरिकी फौज की मौजूदगी
ईरान के लिए लगातार बढ़ते खतरे का संकेत है। अमेरिका व नाटो के सैनिकों की इराक में 1 लाख 40
हजार की मौजूदगी है, जाॅर्डन और इजरायल में विष्वसनीय फौजी बेस है, अफगानिस्तान में 21000 फौजी
और भेजे जा चुके हैं जबकि अमेरिका के फौजी जनरल द्वारा 40000 सैनिकों को और भेजने की माँग की
गयी है। फौज और हथियारों के जमावड़े के साथ-साथ अमेरिकी खुफिया एजेंसियाँ पहले से ईरान के भीतर
के और पड़ोसी देषों के साथ के अंतद्र्वद्वों को ईरान में अस्थिरता बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करने का कोई
मौका नहीं चूकेंगी। देष के भीतर असंतोष को बढ़ने से रोकने में अगर अहमदीनेजाद प्रषासन कामयाब नहीं
रहता है तो देष के बाहर के मोर्चों की मजबूती पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा।
तेल का मामला: परमाणु का मामला
तेल और परमाणु बम का डर, अमेरिकी मानसिकता पर कितना हावी है, इसका अंदाजा इन दो अमेरिकियों
के कम्प्यूटरीकृत लिखित वार्तालाप यानी चैटिंग से लगाया जा सकता है।
एक-ईरान ने ओबामा का कहा नहीं माना, अब क्या होगा?
दो-हो सकता है ईरान से युद्ध छिड़ जाए!
एक-ऐसा हुआ तो पेट्रोल के दाम काफी बढ़ सकते हैं।

दो-ऐसा नहीं हुआ तो ईरान परमाणु बम बना लेगा। और अगर उसने परमाणु बम बना लिया तो वो
अमेरिका पर उसे डालेगा। अगर अमेरिका पर बम गिरा तो पेट्रोल के दाम बढ़ने से तुम्हें कोई फर्क नहीं
पड़ेगा क्योंकि मुर्दे कार नहीं चलाया करते।
जिस तरह यह तथ्य सभी जानते हैं कि सारी दुनिया के ज्ञात प्राकृतिक तेल भंडारों का 60 प्रतिषत पश्चिम
एषिया में मौजूद है; कि अकेले सउदी अरब में 20 प्रतिषत, बहरीन, कुवैत, ओमान, कतर और संयुक्त अरब
अमीरात में मिलाकर 20 प्रतिषत, और इराक और ईरान में 10-10 प्रतिषत तेल भंडार हैं; कि ईरान के पास
दुनिया की प्राकृतिक गैस का दूसरा सबसे बड़ा भंडार है; उसी तरह लगभग सारी दुनिया में अमेरिका के
कारनामों से परिचित लोग इसे एक तथ्य की तरह स्वीकारते हैं कि अमेरिका की दिलचस्पी न लोकतंत्र में

विनीत तिवारी, 2, चिनार अपार्टमेंट, 172, श्रीनगर एक्सटेंषन,इन्दौर-452018. मोबाइल-09893192740

लोकसंघर्ष पत्रिका में शीघ्र प्रकाशित

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एक बार फिर देश में अमनपसन्द नागरिकों ने फसाद फैलाने वालों को करारी शिकस्त दे दी और घृणा की राजनीति करने वालों को मुहब्बत का पैगाम देने के इरादे से बनाई गई शाहरूख खान की फिल्म ‘‘माई नेम इंज खान’’ के हक में अपार समर्थन देकर जनता ने करारा जवाब दे दिया है।
देश में भाषा, क्षेत्रवाद व धर्म के नाम पर अलगाववाद का विष घोलने वाले लोगों के लिए यह अवश्य सबक ही कहा जायेगा। पहले देश के अमन पसन्द नागरिक ऐसी शक्तियों के विरूद्ध खुलकर आने से परहेज करते थे इसी कारण मुट्ठीभर उपद्रवियों की बुज़दिलाना हरकतों को बल मिलता था और बेकुसूरों पर जुल्म होता था। सामाजिक प्रदूषण फैलता था परन्तु अब यह अच्छा संकेत माना जाना चाहिए कि अमन पसन्द लोग आतंक फैलाने वालों व देश को बांटने का काम करने वालों के विरूद्ध मोर्चा संभालने निकल रहे हैं।
इसमें मीडिया की भी भूमिका महत्वपूर्ण है। जिस प्रकार मीडिया ने इस बार साथ मिलकर शिवसेना व महाराष्ट्र निर्माण सेना के विरूद्ध मोर्चाबन्दी की है वैसे ही यदि धार्मिक द्वेष फैलाने वालों के विरूद्ध भी मीडिया करती तो शायद बाबरी मस्जिद विध्वंस काण्ड के दोषियों को कोई महत्व ना मिलता और वह हीरो से जीरो बन जाते और ना ही 1993 में मुम्बई या वर्ष 2002 में गुजरात सम्प्रदायिक्ता की आग में इतने दिन जलता।
आज भी मीडिया और विशेष तौर पर हिन्दी व क्षेत्रीय भाषाओं का मीडिया एक धर्म व उसके अनुयाइयों के विरूद्ध दुष्प्रचार का छोटा सा बहाना कैश करना नहीं भूलता। साध्वी प्रज्ञा सिंह लेफ्टिनेन्ट कर्नल पुरोहित, दयानन्द पाण्डेय, समीर कुलकर्णी एवं पूर्व मेजर रमेश उपाध्याय की गतिविधियों पर मीडिया चुप्पी साधते दिखाई देता है और अफजल गुरू, आफताब अंसारी और अब शहजाद इत्यादि की आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त होने वाले पुलिसिया आरोपों की चर्चाएं प्रतिदिन इलेक्ट्रानिक चैनलों समाचार पत्रों के पन्नों पर होती हैं। मीडिया का यह दोहरा स्वरूप हिन्दुत्ववादी शक्तियों को अप्र्रत्याशित रूप से उत्साहवर्धन करता है।
इसी प्रकार दिल्ली की जामा मस्जिद के ईमाम अहमद बुखारी के एक बयान जो उन्होंने सरकारों को दहशतगर्द कहते हुए आजमगढ़ में दिया था पर मुकदमा चलाने की बात की जाती है तो वहीं बाल ठाकरे, प्रवीण तोगड़िया व अशोक सिंघल के देश की एकता को विखण्डित करते और संविधान की धज्जियाँ उड़ाते बयानों के विरूद्ध कानूनी कार्यवाही पर बगले झांकी जाती है।
यदि समाज के चारों स्तम्भ समाज हित, लोकहित व देश हित में काम करें और संकीर्ण विचार धारा के प्रदूषण में लिप्त होकर देश में आम जनमानस को बहकाने का काम न करें तो गिनती के भी समर्थक ऐसी घृणा की राजनीति करने वालों को मिलना मुश्किल हो जायेंगे।

-तारिक खान

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कुछ दिन पहले एक दैनिक अखबार में अलग-अलग पृष्ठों पर शराब के सम्बन्ध में तीन खबरे छापी गई पहली यह कि शराबी पिता की हरकतों से तंग बेटे ने उसे खुरपी से काट डाला, पिता की लड़के की पत्नी पर गंदी नजर थी वह रोज गांव व घर में झगड़ा करता था तथा जवान पुत्रियों को गाली देता था। दूसरी यह कि एक बैंक के सहायक प्रबन्धंक की बारात समस्तीपुर जिले में गई थी, प्रबन्धक जी नशे में धुत थे अतः दुल्हन ने शादी से इनकार कर दिया और बारात बैरंग वापस हो गई, अब तीसरी खबर विचारणीय है कि शराब पर सरकारी नीति को लेकर एक याचिका की सुनवाई के दौरान उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ के न्यायमूर्ति देवी प्रसाद सिंह ने पूछा कि क्या गाँधी जी के देश में सरकार द्वारा लोगों को शराब पीने के लिये मजबूर करने का हक है, क्योंकि आबकारी अधिनियम में ठेकेदारों पर यह बाध्यता है कि कम शराब उठाने पर वे अधिक टैक्स दें।
प्रबुद्ध वर्ग जानता है कि शराब उठाने के लक्ष्य निर्धारित होते हैं, दुकानों की संख्या भी बढ़ाई जाती है और मार्च के महीने में दुकानों की नीलामी की बोलियाँ लगवाकर टैक्स में बढ़ोत्तरी के प्रयास किये जाते हैं, यह विरोधाभास भी देखिये कि सरकार शराबियों को अपने मद्य निषेध विभाग के द्वारा यह बताने में लगी रहती है कि शराब स्वास्थ्य और समाज के लिये हानिकारक है। सूचना के अधिकार के द्वारा यह सरकारी आंकड़े प्राप्त किये जा सकते हैं कि एक निर्धारित अवधि में आबकारी विभाग ने कितने शराबी बढ़ायें और मद्यनिषेध विभाग ने कितने घटाये? और यह भी कि क्या मद्य निषेध वालों को कभी प्रतिकूल इन्ट्री दी गई?
वाइज़ो साक़ी में ज़िद है, बादहकश चक्कर में है।
लब पे तौबा और लब डूबा हुआ साग़र में है।

-डॉक्टर एस0एम0 हैदर
-फ़ोन-05248-220866

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एक और आतंकी घटना और पिछली घटनाओं की भांति संदेह के घेरे में सर्वप्रथम मुसलमान। नाम मोहसिन चैधरी। मात्र एक घण्टे के अन्दर ए0टी0एस0 मुम्बई ने आतंकी घटना के मोहरे को ढूँढ़ निकाला, जबकि घटना आर0एस0एस0 के गढ़ में हुई, जहाँ मालेगाँव व अन्य विस्फोटों के आरोपी कर्नल पुरोहित ने अभिनव भारत नाम के संगठन का गठन किया था, और जहाँ आचार्य रजनीश का ओशो आश्रम व अन्र्तराष्ट्रीय स्तर पर आतंक के जन्मदाता यहूदी समुदाय का भी प्रार्थना स्थल ‘खबाद’ मौजूद है। अमरीकी खुफिया संगठन सी0आई0ए0 व बाद में आई0एस0आई0 पाकिस्तान से जुड़ा रहा जासूस डेविड कोलीन हेडली का भी इन्हीं स्थानों पर बराबर आना जाना रहा।
पूणे के जर्मन बेकरी रेस्टोरेन्ट में शनिवार की शाम लगभग 7.30 बजे एक धमाका हुआ। पहले पुलिस की ओर से यह समाचार आया कि यह बेकरी के किचन में फटे गैस सिलण्डर के कारण हुआ है, परन्तु बाद में वहाँ पहुँची ए0टी0एस0 व बम निरोधक दस्ते ने जानकारी दी कि एक पीठ पर टाँगने वाले बैग में रखी गई विस्फोटक सामग्री ने इस घटना को अंजाम दिया है, और यह एक आतंकी घटना है। इस घटना में प्रारम्भिक तौर पर जो समाचार प्राप्त हुए हैं, उसके मुताबिक लगभग एक दर्जन व्यक्ति हलाक हो गये और 40 व्यक्ति जख्मी हुए। मरने वालों में एक विदेशी नागरिक भी है जिसकी नागरिकता और उसकी खुद की शिनाख्त होनी अभी बाकी है।
गौरतलब बात यह है कि यह घटना तब घटी जब पूरे महाराष्ट्र में सम्प्रादायिक्ता व अलगाववाद की बात करने वाले संगठनों की थू-थू हो रही थी, और ‘‘माई नेम इज खान’’ के हीरो शाहरूख खान की जय जयकार। यानि धर्म निरपेक्ष ताकतों की फतह और सम्प्रदायिक शक्तियों की शिकस्त। यह घटना पाकिस्तान से होने वाली हमारे देश की वार्ता से मात्र 12 दिन पूर्व हुई है जब पाकिस्तान से वार्ता करने का विरोध हिन्दुवादी संगठन कर रहे थे। वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान अपने एजेण्डे यानि कश्मीर के मुद्दे को भी वार्ता में शामिल करने की बात पर अड़ा हुआ था। उसे आतंकवाद के मुद्दे को भी बातचीत में शामिल करने पर एतराज था। यह घटना उस समय घटी है, जब भले ही राजनीतिक आवश्यकता के कारण ही सही, बाटला हाउस एनकाउण्टर पर कांग्रेस की ओर से ही अंगुलियाँ उठने लगी थीं, और जामा मस्जिद दिल्ली के पेश ईमाम अहमद बुखारी भी एक बयान के साथ बयानबाजी के मैदान में कूद पड़े थे।
घटना के मात्र एक घण्टे उपरान्त ही देश की सुरक्षा व खुफिया एजेन्सियों ने घटना के सूत्रधार व उसके संगठन को ढूंढ़ निकाला। इण्डियन मुजाहिदीन व लश्करे तोएबा नाम के आतंकी संगठनों का नाम सामने आया साथ में मोहसिन चैधरी नाम के एक कथित आतंकवादी का फोटो राष्ट्रीय चैनलों पर उभर कर सामने आ गया उसके शेष साथियों की तलाश, और आजमगढ़ से पकड़े गये तथाकथित आतंकवादी शहजाद से उसके तार जोड़ने की कवायद प्रारम्भ हो गई।
घटनास्थल के पास विश्व प्रसिद्ध ओशो आश्रम है जहाँ विदेशी सैलानियों का सिलसिला कायम रहता है फिर यहूदियों का प्रार्थना स्थल खबाद भी यहाँ से चन्द कदम की दूरी पर है। इसके अतिरिक्त सूर्या होटल भी यहीं है, जहाँ अमरीकी-पाकिस्तानी जासूस डेविड हेडली आकर रुकता था। बावजूद इसके शक के दायरे में किसी विदेशी का नाम पहले ए0टी0एस0 की जुबान पर नही आया। स्मरण रहे कि 26/11 की मुम्बई घटना स्थल के पास भी यहूदियों की काॅलोनी नारीमन हाउस थी और यहाँ भी खबाद के रूप में यहूदियों की उपस्थिति।
महाराष्ट्र प्रान्त का यह नगर
पुणे स्वतंत्रता संग्राम से भी पहले से हिन्दूवादी संगठनों का मुख्यालय रहा है और मालेगाँव बम काण्ड के जनक लेफ्टीनेन्ट कर्नल पुरोहित का अपने संगठन अभिनव भारत के कारसेवकों की ‘‘तरबियतगाह’’ भी इसी नगर में रही है। इनमें से किसी का नाम पहले जुबान पर नहीं आया मुसलमान का नाम पहले आया। शायद इस कारण कि राम मंदिर आन्दोलन के नायक भाजपा के वरिष्ठ लीडर लालकृष्ण आडवाणी के शब्दों में Every muslim is not terrorist but, the terrorist who is being caught is aways Muslim .

-मो0तारिक खान

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भारतीय विधि व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति को न्याय पाने का अधिकार है और अपने मन पसंद अधिवक्ता से अपने वाद में अपना पक्ष प्रस्तुत करने का भी अधिकार। आए दिन अधिवक्ताओं के ऊपर हमले नियोजित तरीके से हो रहे हैं और उनसे कहा जा रहा है अमुक मुकदमा करो और अमुक मुकदमा न करो। देश भर में आतंकवाद से सम्बंधित मुकदमों का विचारण हो रहा है भारतीय विधि व्यवस्था में उन वादों का विचारण तभी संभव है जब उनकी तरफ से कोई अधिवक्ता उनका पक्ष प्रस्तुत करे अन्यथा अधिवक्ता न मिलने की दशा में वाद का विचारण संभव नहीं है तब एक ही रास्ता होता है कि न्यायलय उस अभियुक्त की इच्छा अनुरूप अधिवक्ता नियुक्त करे और उसका भी खर्चा न्याय विभाग उठता है। विधि के सिधांत के अनुसार फौजदारी वादों में अधिवक्ता की भूमिका न्यायलय की मदद करने के लिए अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत गवाहों से जिरह (cross examination ) करना होता है जिरह में न्यायलय के सामने गवाह से तमाम सारे वाद से सम्बंधित सवाल अधिवक्ता पूंछता है जिनके उत्तर के आधार पर यह साबित होता है कि गवाह झूंठ बोल रहा है या सच। फौजदारी कानून में अभियोजन पक्ष के गवाह जो मौके पर नहीं होते हैं और वाद में उनको फर्जी तरीके से गवाह बनाया जाता है जो घटना के समय नहीं होते हैं और झूंठ बोल रहे होते हैं जिस कारण वाद में अभियुक्त सजा पाने से बच जाता है मुख्य बात यह है कि अब पुलिस नियोजित तरीके से लोगों की भावनाओ को भड़का कर बचाव पक्ष के अधिवक्ताओं के ऊपर हमले करा रही है । विशेष मामलों में बचाव पक्ष के अधिवक्ताओं की सुरक्षा की नैतिक व विधिक जिम्मेदारी राज्य की है जिसमें राज्य इन जिम्मेदारियों में असफल हो रहे हैं जिसका नतीजा संदिग्ध आतंकी फहीम अंसारी के अधिवक्ता शाहिद आजमी की मुंबई में उनके ऑफिस में गोली मार के हत्या है इसके पूर्व मुंबई लखनऊ फैजाबाद समेत काफी जगहों पर अधिवक्ताओं के ऊपर जान लेवा हमले हो चुके हैं राज्य द्वारा आज की तिथि में उनकी सुरक्षा का कोई उपाय नहीं किया गया है यदि राज्य अधिवक्ताओं को सुरक्षा नहीं दे सकता है तो अच्छा होगा की विधि व्यवस्था मेंअधिवक्ताओं की भूमिका ही समाप्त कर दे ।
सुमन

loksangharsha.blogspot.com

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पिछले दो वर्षों से अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय मंचों पर खाद्य सुरक्षा का मुद्दा गरमाया हुआ है। दुनिया के तमाम बुद्धिजीवी से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ तक दुनिया की बढ़ती हुई आबादी और खाद्य संकट पर गहरी चिन्ता व्यक्त कर रहे हैं। आंकड़ों का जमघट लगा हुआ हैं। विकासशील देश हों या विकसित देश, संयुक्त राष्ट्र संघ हो या यूरोपियन यूनियन, सबकी चिंता है खाद्य संकट। इस बात की गहरी और सही चिंता व्यक्त की जा रही है कि आने वाले दिनों में विकसित देश अपनी राष्ट्रीय हितों की पूर्ति के लिए खाद्य पदार्थों को दुनिया भर में हथियार की तरह प्रयोग न करने लग जायें। हमारा गणतंत्र 60 वर्ष का हो रहा है। हमारा संविधान मानवीय मूल्यों की गारंटी देता है और भारत के प्रत्येक नागरिक को आत्मसम्मान के साथ जीने का अधिकार भी प्रदान करता है। नागरिक के आत्मसम्मान और जीने का अधिकार को दिलाने की गारंटी संघ और राज्य की सरकार पर समान रूप से है। घनघोर दारिद्र की स्थिति में, खाद्यान्न की उत्पादन और उत्पादकता की गिरावट की दौर में संविधान में दिये गये जीने के अधिकार और आत्मसम्मान की हिफाजत कैसे की जाये यह मूल बिन्दु है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत के ग्रामीण क्षेत्र में 27 प्रतिशत तथा शहरी इलाके में लगभग 23.8 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा के नीचे जी रहे हैं। हालांकि ये आंकड़े वास्तविकता से कम है। अगर सरकारी आंकड़ों को ही सही माना जाये तो 26 करोड़ लोगों को दो वक्त की रोटी तो दूर एक वक्त के लिए भोजन का जुगाड़ सुनिश्चित करना-कराना आसान काम नहीं है। भारत गांवों का देश है। 72 फीसदी आबादी गांव में ही रहती है। भारत के 80 प्रतिशत से ज्यादा किसान लघु तथा सीमांत किसान हैं। इन लघु और सीमांत किसानों के पास जहां वर्ष 1970-71 में 33.37 मिलियन हैक्टेयर कृषि भूमि थी वहीं 2000-01 में यह घटकर 21.12 मिलियन हैक्टेयर रह गई है। आर्थिक आसमानता, गरीबी, मूल्यवृद्धि, उपभोक्तावाद, बाजारवादी संस्कृति, निम्न मध्यवर्गीय और मध्यवर्गीय मानसिकताओं सहित चतुर्थिक आर्थिक संकट ने ग्रामीण संयुक्त परिवार तोड़ डाले। कृषि जोत के सिकुड़ते आकार में कृषि तकनीक के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ उत्पादकता बढ़ाने के अवसरों के सामने कठिनाइयां पैदा कीं, जो स्वभाविक है। छोटी जोतों के कारण किसान न तो वो अधिक पंूजीनिवेश वाली प्रौद्योगिकी को अपनाने को तैयार होते हैं और न ही फसल-बाद प्रबंधन के लिए अधिक लागत लगा सकते हैं। इन किसानों को उन्नत खेती और पूंजी निवेश के लिए सरकार द्वारा अस्सी फीसदी सहायता और संरक्षण दिये जाने की जरूरत है। तभी ये किसान अपनी पारिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर खाद्य सुरक्षा सुरक्षित करने में योगदान दे सकेंगे। सरकार के सहायता से ही गांव से शहरों की ओर 9 प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ रहा पलायन भी रोका जा सकता है।
विश्व भर में खाद्य संकट पर गहरी चिन्ता के साथ विचार-विमर्श हो रहा है। उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने के लिए नये उपाय सुझाये जा रहे हैं। वहीं ऊर्जा स्रोत के विकल्प के रूप में ऐथनाॅल के उत्पादन के लिए कृषि उत्पादों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार अमरीका में वर्ष 2006 में 20 प्रतिशत मक्के का इस्तेमाल एथिनाॅल बनाने के लिए किया गया। 2007-08 में अमरीका में 80 मिलि. टन मक्के का उपयोग ऐथनाॅल उत्पादन में किया। यूरोपियन यूनियन के देशों ने 68 प्रतिशत वनस्पति तेलों का तथा ब्राजील ने 50 प्रतिशत गन्ने की उपज का इस्तेमाल जैव-ईंधन बनाने में प्रयोग किया। क्या यह सब विश्व की खाद्य सुरक्षा को संकट नहीं पहुंचा रहे हैं?विश्व में अनाज के स्टाक घट रहे हैं।
1950-51 में देश के सकल फसल क्षेत्र केवल 132 मिलि. हेक्टेयर था वह आज बढ़कर लगभग 188 मिलि. हेक्टेयर हो गया है। इसी अवधि में कुल फसल क्षेत्र 119 मिलि. हेक्टेयर से बढ़कर 141 मिलि. हेक्टेयर हो गया। भूभाग की नजर से अभी भी भारत में फसल क्षेत्र तथा सिंचित क्षेत्र बढ़ाये जाने की अपार संभावनाएं हैं। देश में लगभग 13.8 मिलि. हेक्टेयर कृषि योग्य परती भूमि तथा 7.61 मिलि. हेक्टेयर भूमि उसर भूमि है। इन क्षेत्रों को विशेष प्रयास कर फसलों के लिए तैयार किया जा सकता है और भूमिहीन खेत मजदूरों और गरीब किसानों में वितरित करने की आवश्यकता है।
देश का एक बड़ा हिस्सा असिंचित फसल क्षेत्र के रूप में मौजूद है। 10 पंचवर्षीय योजनाओं के बाद भी इस विशाल भूभाग को सिंचित या अर्धसिंचित नहीं बना पाये। कुल मिलाकर केवल 48.5 मिलि. हेक्टेयर क्षेत्र में 1 से ज्यादा बार फसल बोयी जाती है। योजना दर योजना बेहतर जलप्रबंधन, जलसंरक्षण तथा किसानों को सिंचाई की सुविधा दिये जाने का कार्यक्रम तो बना परन्तु सिंचाई के विस्तार के लिए योजनाओं में धनराशि का आवंटन बहुत नगण्य रहा। आजाद हिन्दुस्तान में लगभग 2000 के आसपास सिंचाई परियेाजनाएं जो केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा शुरू की गयीं आज भी बीच अधर में छोड़ दी गई हैं। हजारों करोड़ सरकारी रूपया बर्बाद हो गया। लघु, सीमांत, गरीब किसान प्राकृतिक वर्षा पर आधारित होकर अपनी खेती करते हैं।
भारत में आजादी के बाद देश में 1950-51 में कुल खाद्यान्न कृषि का क्षेत्रफल 97.32 मिलि. हेक्टेयर था जो 2006-07 में बढ़कर 123.47 मिलि. हेक्टेयर हो गया। इस अवधि में जहां गेहूं का कृषि क्षेत्र में 9.95 मिलि. हेक्टेयर से बढ़कर 28.04 मिलि. हेक्टेयर हो गया और चावल का कृषि-क्षेत्र 30.81 मिलि. हेक्टेयर से बढ़कर 43.42 मिलि. हेक्टेयर हो गया। आजादी के बाद प्रति हेक्टेयर कृषि उत्पादन तो बढ़ा है परन्तु यह आज भी दुनिया के कई देशों से भारत की विभिन्न फसलों की उत्पादकता की तुलना की जाये तो भारत काफी पीछे नजर आता है। धान के मामल में चीन और अमरीका की उत्पादकता हमसे दोगुना से भी अधिक है। मिस्र और आस्ट्रेलिया की भारत से तीन गुना अधिक है। गेहूं के मामले में भी मिस्र और फ्रांस और जर्मनी की उत्पादकता भारत से दोगुना से अधिक है। जापान और चीन भी गेहूं के मामले में हमसे बहुत आगे हैं। मक्के की उत्पादकता मिस्र, फ्रांस और जर्मनी में भारत से तीन गुना ज्यादा तथा अमरीका में चार गुना से अधिक है। दलहनों की उत्पादकता के मामलों में भी भारत काफी पीछे है। अमरीका और चीन में दलहनों की उत्पादकता भारत से तीन गुना अधिक है। मिस्र और जर्मनी हमसे पांच गुना अधिक पैदा करते हैं और फ्रांस में उत्पादन भारत की तुलना में प्रति हेक्टेयर सात गुना ज्यादा है।
नेशनल सेम्पल सर्वे के 55वें दौर के सर्वे के अनुसार वर्ष 2011-12 में देश में 102.93 मिलियन टन चावल, 74.84 मिलियन टन गेहूं, 16.99 मिलियन टन दाल तथा कुल 212.89 मिलियन टन खाद्यान्न की आवश्यकता होगी। देश में वर्तमान में दालों और तिलहन की काफी कमी है और हर वर्ष लगभग 5 मिलियन टन खाद्य तेल देश में विदेशों से आयात होता है।
नेशनल सेम्पल सर्वे आर्गनाइजेशन द्वारा वर्ष 1990, 2000 तथा 2004-05 में किये गये 55वें तथा 61वें राउंड के सर्वे के आंकड़ों पर तुलनात्मक दृष्टि डाली जाये तो पता चलता है कि भारत में ग्रामीण तथा शहरी दोनों क्षेत्रों में खाद्यान्नों की प्रति व्यक्ति मासिक खपत घटी है। दालों की खपत अनाज की खपत से ज्यादा घटी है। अर्थात शरीर में प्रोटीन की मात्रा घटी है। भारत में आबादी का एक अच्छा-खास बड़ा हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रहा है और औसत प्रति व्यक्ति आय भी काफी सीमित है। ऐसी स्थिति में यदि भारत में खाद्यान्न उपलब्ध भी हो तब भी जरूरी नहीं है कि सभी लोग उसे खरीद कर उसका उपभोग कर सकें। जरूरत इस बात की है कि गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों को केन्द्र और राज्य सरकार सब्सिडी देकर अनिवार्य रूप से खाद्यान्न उपलब्ध कराये ताकि वह जीने के अधिकार से वंचित न होने पायें। सार्वजनिक वितरण प्रणाली प्रभावी ढंग से इस समस्या का हल हो सकती है।
कुछ अर्थशास्त्री आंकड़े प्रदर्शित कर यह प्रदर्शित करने की कोशिश करते हैं कि खाद्यान्न उत्पादन के मामले में भारत आत्मनिर्भर हो गया है और हमारे सामने खाद्य सुरक्षा का कोई संकट नहीं है। एनडीए और यूपीए की दोनों सरकारें केन्द्र में अपने शासनकाल में खाद्य सुरक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की आत्मप्रशंसा में आकंठ डूबी रहीं। तिलहन उत्पादन के क्षेत्र में रह-रह कर कुछ प्रगति होती है और फिर रूक जाती है। सरसों का उत्पादन वर्ष 2007-08 में 2006-07 की तुलना में 74.38 मिलियन टन से घटकर 58.03 मिलि. टन रह गया। वर्ष 1980-81 के बाद से देश में चावल तथा गेहूं की उत्पादकता तथा उत्पादन दोनों की वृद्धि दर में लगातार गिरावट दर्ज की गयी है। यहां तक कि 2000-06 की अवधि में गेहूं की उत्पादकता नकारात्मक रही है। उत्पादन की वृद्धि दर लगातार घटती दिख रही है। भारत में खाद्यान्न उत्पादन की नजर से उत्तर प्रदेश सबसे आगे है। पंजाब तथा आंध्र प्रदेश दूसरे नंबर है। चावल उत्पादन में पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश क्रमशः आगे बढ़े हुए राज्य हैं। गेहूं की पैदावार में उत्तर प्रदेश, पंजाब तथा हरियाणा पहले, दूसरे और तीसरे पादान पर है। मोटे अनाजों के उत्पादन में नंबर एक पर कर्नाटक दूसरे पर महाराष्ट्र तथा तीसरे पर राजस्थान है। दलहन के उत्पादन में शीर्ष पर मध्य प्रदेश, दूसरे नंबर पर उत्तर प्रदेश तथा तीसरे नंबर पर महाराष्ट्र है। राजस्थान तिलहन के उत्पादन में सबसे आगे है और फिर मध्य प्रदेश तथा गुजरात के नंबर है।
एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2020 तक देश की आबादी बढ़कर 130 करोड़ हो जायेगी और हमारे अनाज की कुल वार्षिक आवश्यकता 342 मिलि. टन हो जायेगी। ऐसी स्थिति में यदि आज ही भारत में अनाज की फसलों की उत्पादकता में तथा उत्पादन में सुधार करने के लिए तात्कालिक और दूरगामी कदम नहीं उठाये तो हमारी मांग को देखते हुए हम काफी पिछड़ जायेंगे। देश में गंभीर खाद्य संकट पैदा हो जायेगा। यह खाद्य संकट राजनैतिक संकट का भी रूप लेगा और विकसित देश हमारी खाद्य आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अपने उत्पादित खाद्य पदार्थ का प्रयोग राजनैतिक हथियार के रूप में करेंगे। यह स्थिति हमारी आजादी और सम्प्रभुता दोनों पर हमला करेगी। ऐसी स्थिति में केन्द्र तथा राज्य सरकारों को कृषि उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने तथा किसानों की खेती से मोह भंग होने की स्थिति से पहले ही कृषि को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की पहल करनी होगी। हमारी योजनाओं का 60 प्रतिशत धन गांव और खेती पर बेवाक आवंटित करने की पहल करनी होगी। शहरों की विकास की सोच ने गांव की बहुत अनदेखी कर दी अब इसे सुधारना होगा। भारतीय गणतंत्र का हाशिये पर पड़ा विशाल साधारण गण गांव में ही रहता है।

अतुल कुमार अनजान

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प्रजातंत्र भी आग के समान है जो अत्यंत उपयोगी है और अत्याधिक खतरनाक भी। लोकतंत्र हो, भीडतंत्र हो, सर्वसम्मति हो, या बहुमत हो, ये सभी उस समय व्यक्ति या समाज के लिये घातक बनते हैं जब इस अस्त्र का इस्तेमाल करने वाले मन में खोट होती है या स्वार्थ भावना के अन्तर्गत फैसले किये जाते हैं। आप देखते ही है कि सुरक्षा परिषद में बेटों और आम राय के बहाने पांच स्थायी सदस्य कैसे कैसे खेल खेलते हैं तथा जनरल असेम्बली मूक दर्शक ही बनी रहती है।
दिल्ली की संसद हो या यू0पी0 की विधायिका इनमें भी पहले भी स्वार्थवश फैसले लिये गये और अब भी यही हो रहा है जो जनता को कभी पंसद नहीं आता, लेकिन बेचारा आम आदमी कर ही क्या सकता है, मीडिया उसकी आवाज को धार देने की कोशिश करता है लेकिन कुछ ही दिन में वह आवाज भी दब जाती है।
फरवरी सन 10 में यू0पी0 की बाते देखिये, पहली यह की वार्षिक बजट पेश किया गया, दूसरी यह कि बजट के केवल चार दिन बाद यानी आठ फरवरी को मुख्यमंत्री महोदया ने मंत्रियों, विधायकों के वेतन एवं भत्तों में लगभग 67 प्रतिशत की वृद्धि की घोषणा कर दी। मंत्री जी को प्रतिमाह 32000 से बढ़कर अब 54000 अर्थात 22000 की बढ़ोत्तरी, विधायक महोदय की प्रतिमाह बढ़ोत्तरी 20,000 होगी अब उनका लाभ 30,000 के स्थान पर 50,000 प्रतिमाह होगा, पूर्व विधायकों के भी अनेक लाभ बढ़ाये गये। मजे़ की बात यह है कि पक्ष विपक्ष के सभी विधायक प्रसन्न हुए, केवल एक विधायक श्री मुन्ना सिंह चैहान ने यह जरूर कहा कि वेतन बढ़ाने के बजाय हैण्डपम्प देना चाहिये था ताकि भीषण गर्मी में ग्रामीण जनता की पेयजल समस्या का कुछ समाधान हो जाता।
ये शाहखर्ची जनता की गाढ़ी कमाई से उस समय हो रही है जब कि प्रदेश आर्थिक संकट से गुजर रहा है। वर्ष 2010-11 के बजट में नौ हजार करोड़ से अधिक का घाटा हो रहा है और कर्ज का बोझ दो लाख करोड़ के करीब है। आपको याद होगा कि चुनाव के समय जब नामांकन पत्र दाखिल होते हैं तब आयोग प्रत्याशियों से जो आम और सम्पत्ति के ब्योरे मांगता है उनसे यह बात पूरी तरह खुल जाती है कि ये प्रत्याशी जो बाद में विधायक बनते हैं कितने अधिक धनी होते हैं, इसके बावजूद इनका स्वार्थ देखिये कि यह जनता को दोनों हाथों से लूटते हैं एक तरफ वेतन, भत्ते, सुख सुविधा हवाई व रेल यात्राओं के कूपन तथा दूसरी तरफ विधायक निधि की लूट खसोट। स्व0 राजीव गांधी ने एक बार यह सच बात कह दी थी कि विकास के लिये नीचे तक केवल रूपये में तेरह पैसे ही पहुंचते हैं, बाकी सब बीच ही में गायब हो जाता है।
यहां पर यह कहना असंगत न होगा कि हैण्ड टू माउथ राज्यकर्मचारियों को जब वेतन आयोग कोई जायज बढ़ोत्तरी की सिफारिश करती है तब यही सरकारें पैसे बढ़ाने में तरह-तरह के तर्क देकर आना कानी करती है और हाय तौबा मचाती है।
अतः मंत्रियों विधायकों के वेतन भत्ते बढ़ाने के लिये कोई तंत्र होना चाहिये, इन्हें स्वयं अपने बारे में फैसला लेने से रोकने का कुछ वैधानिक उपाय तलाश करने की जरूरत है।
यदि यह रीति-नीति बनी रही तो बहुत समय से जो एक वाक्य प्रसिद्ध है, यानी ‘‘बहुमत का जुल्म’’ Tyranny of the Matority इससे हम बच नहीं पाये थे। प्रबुद्ध वर्ग जानता है कि सुक़रात (Socretes) इसी अत्याचार का शिकार बन गया था, उर्दू शायर इक़बाल ने भी इसी प्रकार की जमहूरियत के बारे में यह कहा था-
जम्हूरियत एक तर्जे़ हुकूमत है कि जिसमें
बन्दों को गिना करते हैं, तौला नहीं करते।

-डा0 एस0एम0 हैदर
फोन: 05248-220866

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मंहगाई के मुददे पर केन्द्र व राज्य सरकारों के बीच वाकयुद्व चल रहा है। एक दूसरे पर मंहगाई को नियंत्रित न करने का आरोप लगाया जा रहा है। राज्यों की गेर कांग्रेसी सरकारों केन्द्र में स्थापित मनमोहन सरकार की आर्थिक नीतियों को बढ़ती महंगाई का दोषी बतला रही है तो मनमोहन सरकार की सहयोगी एन0सी0पी0 के मुखिया व भारत सरकार के कृषि मंत्री शरद पवार की बयानबाजी आग में घी का काम कर रही है। महंगाई की चक्की में पिस केवल गरीब रहा है और उसके लिए हालात बद से बदतर होते चले जा रहे हैं।
कहते हैं कि किसी भी काम की सफलता के पीछे उद्देश्य व नीयत का बहुत योगदान होता है महंगाई के मुद्दे पर फिलहाल ना तो नीयत केन्द्र सरकार की साफ दिखती है ना विपक्षी दलों की और ना प्रान्तों की सरकारों की। हर कोई महंगाई के मुद्दे की गेंद एक दूसरे के पाले में फेंककर राजनीतिक रोटियाँ सेंकने में जुटा है।
देश की अर्थव्यवस्था कृषि नीति व वाणिज्य व्यापार जिसके तहत आयात एवं निर्यात आता है, पर केन्द्र सरकार का नियंत्रण होता है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर भी नियंत्रण केन्द्र सरकार रखती है राज्य सरकारें केवल केन्द्र द्वारा प्रतिपादित नीतियों पर अमल दरामद करती है और निचले स्तर की प्रशासनिक व्यवस्था देखती है।
वर्ष 1991 में जब से देश में आर्थिक सुधारों की बयार चली तो पहला प्रहार सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर किया गया। उपभोक्ताओं को दो हिस्सों में वोट दिया गया। ए0पी0एल0 एवं बी0पी0एल0 यानि अपर पावर्टी लाइन एवं बेलो पावर्टी लाइन ए0पी0एल0 श्रेणी में देश के सामान्य नागरिकों को रखा गया और उनको मिलने वाला राशन जो सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत उन्हें राशन दुकानदार व जिला आपूर्ति विभाग के रहमोकरम पर आधा परदा मिला करता था, वह एक के बाद एक कर के बंद कर दिया गया अब स्थिति यह है कि केवल मिट्टी का तेल मिलने के हक़दार सामान्य नागरिक रह गये हैं।
लोगों के पास का राशन कार्ड अब केवल उनके निवास की पुष्टि या परिचय मात्र के लिये रह गया है। दूसरी ओर नागरिकों को राशन कार्ड पर अनाज, चीनी, मिट्टी का तेल इत्यादि सभी वस्तुएं दिये जाने का प्रावधान बनाया गया साथ ही अति निर्धन व्यक्तियों को इसी व्यवस्था के तहत अन्त्योदय कार्ड (गुलाबी) के माध्यम से काफी सस्ते दामों पर खाद्य पदार्थों की सप्लाई की जाती है।
परन्तु इन तमाम व्यवस्थाओं पर पूर्ति विभाग का भ्रष्टाचार व राज्य सरकारों की बदनीयती ग्रहण लगाने का काम कर देती है। एक गलती तो केन्द्र सरकार की ओर से पेट्रोल पम्पों व गैस एजेंन्सियों की भांति राशन प्रणाली के कोटेदारों को निर्धारित कम कमीशन और फिर राज्य सरकारों की भ्रष्ट एवं लचर व्यवस्था के चलते खाद्यान्न भण्डारों एवं मिट्टी के तेल डिपों से दुकान तक पहुंचने के बीच के खर्चे व घटतौली से कम होते उनके कमीशन के कारण चोरी व काला बाजारी का धंधा परवान चढ़ता है। पूर्ति विभाग के अधिकारी इसी चोरी व कालाबाजारी का लाभ उठाकर कोटेदारों से प्रतिमाह अपनी हिस्सेदारी लेकर उन्हें बेलगाम बना डालते हैं। जिसका नतीजा यह है कि फर्जी राशन कार्डों की सौगात पूर्ति विभाग की शह पर पाकर कालाबाजारी का धंधा खूब चल निकलता है और आम नागरिकों को वह चाहे ए0पी0एल0 या अन्त्योदय कार्ड धारक राशन की दुकानों को अधिकांश समय बंद पाकर खाली हाथ निराशाजनक हालत में लौटना पड़ता है।
चूंकि खेल बाजार में महंगाई इतनी अधिक नहीं थी तो जनता का काम बगैर राशन दुकानों के भी चल जाता था परन्तु अब कमर तोड़ महंगाई के इस दौर में लोगों को सस्ते गल्ले की सरकारी दुकानों की याद फिर सता रही है। उधर महंगाई के मुंह उठाते दानव से अपना जनाधार खिसकने की आंशका के मद्देनजर एक बार फिर केन्द्र सरकार को ससस्ते गल्ले की व्यवस्था सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुदृढ़ करने की चिंता लग गई है। यही कारण है कि वह बराबर राज्य सरकारों पर दबाव बना नही है कि वह अपने प्रान्त में सार्वजनिक वितरण प्रणाली व्यवस्था को चुस्त दुरूस्त करें।
उधर गरीबों के मुंह से निवाला छीनकर ऐश करने वाले अधिकारियों, गल्ला माफियाओं व कोटेदारों को यह गवारा नही है इतने दिनों से वह इस धंधे पर ठाड जमा कर बैठे थे इतनी आसानी से कहां हराम छूटने वाली। राज्य सरकारों व उनके प्रशासनिक अधिकारियों के भी ऐश इसी पूर्ति विभाग की जिम्मेदारी उसकी गाड़ी का तेल भरवाने की। कोई सरकारी आयोजन हो तो उसकी खान पान की व्यवस्था की जिम्मेदारी भी पूर्ति विभाग के कंधों पर किसी अधिकारी या मंत्री या उसके किसी चमचे या बड़े पत्रकार के घर होने वाले किसी समारोह में भी पूर्ति विभाग किसी न किसी रूप में अपनी भागीदारी निभाता है।
खुले बाजार में जमा खोरी पर नियंत्रण करना राज्य सरकार की जिम्मेदारी में आता है आवश्यक वस्तु अधिनियम नाम का एक हथियार भी राज्य सरकारों के पास जमाखोरों के विरूद्ध कारवाई के लिए मौजूद हैं परन्तु व्यवसईयों के वोट का फ्रिक व चुनावों के दौरान इन्ही व्यापारियों से मिलने वाले फण्ड के चलते सरकारें इनके विरूद्ध कार्यवाई करने से गुरेज करती हैं ऐसे में थोक बाजार व फुटकर बाजार के बीच भी काफी अंतर बना रहता है। कुल मिलाकर राजनीतिक बदनीयती, गलत नीतियों व ऊपर से नीचे तक फैले भ्रष्टाचार के चलते आम जनमानस मंहगाई के बोझ तले दब कर मौत की आगोश में समाया जा रहा है।

मोहम्मद तारिक खान

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